बोले श्री शुकदेव जी, राजन! हरि मृदु बैन
।
सुन सखियाँ प्रमुदित हुईं, मन को आया चैन।।
*
सुंदरता निधि संग से, हुआ मनोरथ पूर्ण ।
परस करें प्रिय को हुईं, सर्व सखी संपूर्ण।।
*
कृष्ण सेविका गोपियाँ, और प्रेयसी संग।
गलबहियाँ डाले खड़ीं, हिय उठ रही तरंग।।
*
सखिरत्नों के संग में, गोपेश्वर भगवान।
रमणा रेती पर रचा, रास नृत्य अभियान।।
*
हर दो गोपी मध्य हरि, बाँह गले में डाल।
प्रगटे, रहे रहस्यमय, गोपी हुईं निहाल।।
*
यद्यपि प्रगटे कृष्ण जी, सखि-संख्या अनुरूप।
सब सखियों को दिख रहा, केवल एक स्वरूप।।
*
सखियों के मन में यही, होता था आभास।
उनके प्यारे कृष्ण हैं, केवल उनके पास।।
*
हुए सहस्त्रों गोपियों, मध्य सुशोभित श्याम।
रासबिहारी ने किया, दिव्य रास आयाम।।
*
सुर-यानों की लग गई, नभमंडल में भीर।
निज देवी सँग देवगण, प्रकटे दिव्य शरीर।।
*
रासोत्सव को देखने, नैना हुए अधीर।
मन उनके वश था नहीं, बने देव कुछ कीर।।
*
लता, हिरण, हिरणी बने, कुछ सुर पक्षी वृंद।
बजीं दुंदुभी स्वर्ग की, उमगा हिय आनंद।।
*
देव पुष्प-वर्षा करें, छिड़ा मधुर संगीत।
भार्या सह गंधर्व मिल, गाते मंगल गीत।।
*
लगा कृष्ण सँग नाचने, सारा गोपी वृंद।
करतल ध्वनियाँ गूँजतीं, छलक रहा आनंद।।
*
कंगन, करधन, पायलें, करतीं छुन्नक छुन्न।
मंजीरे स्वर-ताल में, करते किन्नक किन्न।।
*
अगणित सखि आभूषणों, की ध्वनि करे विभोर।
कृष्ण मुरलिया खींचती, अंतर्मन निज ओर।
*
स्वर्णाभित मणि मध्य मणि, नीली शोभावान।
ज्यों हों ब्रज-सखि मध्य में, शोभित कृपानिधान।।
*
मगन सृष्टि के जीव सब, सुन मुरली की तान।
सखि फिरकी सी घूमतीं, तन का भूला भान।।
*
कभी पैर आगे धरें, फिर पीछे हो घूम।
झूम-झूम कर नाचतीं, लट बल खा कटि चूम।।
*
कभी नचातीं नैन वे, कभी चलातीं सैन।
करके तिरछी भौंह से, बोल रही थीं बैन।।
*
पवन लटों सँग खेलती, झुमके चूमें गाल।
जब झूमें कुच द्वय हिले, पग द्वय देते ताल।।
*
बूँदें झलकीं स्वेद की, मुखमंडल छवि नव्य।
थकीं गोपियाँ टिकाया, सिर हरि कन्धा भव्य।।
*
जैसे जलनिधि में उठें, रह-रह नीर तरंग।
वैसे सखियों के हृदय, उठती नृत्य उमंग।।
*
टूट-टूट गजरे झरें, बिखरी सुमन-सुगंध।
रस लोभी भँवरे उड़ें, छूटें नीवी बंध।।
*
श्याम घटायें चाँद पर, छाकर चमकें आप।
गालों पर छा केश लट, देतीं मद्धम थाप।।
*
अधर मधुर मुस्कान भर, देखें हरि की ओर।
ज्यों रजनी में चाँद को, अपलक लखे चकोर।।
*
नृत्यलीन गोपाल जी, लगते घन सम श्याम।
गोरी सखियाँ दामिनी, सोहें रजनी-याम।।
*
गोपी जीवन प्रेम है, कान्हा परमानंद।
मोहे खग, नर, नाग सब, फैला सर्वानंद।।
*
नृत्य गान में कृष्ण से, सट सखि पातीं हर्ष।
हुईं परम आनंदमय, पाकर कृष्ण स्पर्श।।
*
वही राग अरु रागिनी, गान और स्वर, साज।
भक्ति-भाव रस से निकल,गूँज रहे हैं आज।।
*
कृष्ण संग कुछ गा रहीं, ऊँचे स्वर में गीत।
उनके स्वर आलाप सुन, वाह करें मनमीत।।
*
अन्य सखी का भी छिड़ा, ध्रुपद राग संगीत।
'वाह-वाह' श्री कृष्ण ने, कहा: 'लिया मन जीत।।
*
एक सखी को नृत्य से, लगने लगी थकान।
कंगन, गजरे पड़ गये, ढीले रहा न भान।।
*
वेणी से झरने लगे, बेला के मृदु फूल।
नृत्य गान में गिर गया, तन से खिसक दुकूल।।
*
बगल खड़े श्रीकृष्ण की, सखि ने थामी बाँह।
एक अन्य को दे रखी, पहले ही निज छाँह।।
*
उनकी सुंदर बाँह थीं, दोनों चंदन युक्त।
वे सखियाँ भी हो गईं, प्रभु-सुगंध से सिक्त।।
*
तन अरु मन पुलकित हुए, लपक बाँह लें चूम।
'मधुकर' जिनकी चाह में, भक्त रहे हैं झूम।।
*
एक लीन थी नृत्य में, झूलें कुंडल लोल।
दर्शक रीझें देख छवि, सुंदर लगें कपोल।।
*
उसने कृष्ण-कपोल से, सटा दिया निज गाल।
हरि ने मुख में पान दे, हुल्साया तत्काल।।
*
नाच रही थी एक सखी, कर नूपुर झंकार।
थकी, बगल में थे खड़े, उसके प्राणाधार।।
*
हरिके तन से टिक गई, फिर ले उनका हाथ।
निज कुच पर झट रख लिया, झुका लिया लज माथ।।
*
राजन! मिला न लक्ष्मी, को वह परमानंद।
जैसा सखियाँ पा रहीं, हरि के सँग स्वच्छंद।।
*
लक्ष्मी जी से श्रेष्ठ है, सखियों का संयोग।
प्रेम तत्व रस पा रहीं, जिसका बने न योग।।
*
हरि को प्रियतम रूप में, पाकर हो स्वच्छंद।
करने लगीं विहार सब, मुखरित होते छंद।।
*
सारी सखियों के गले, पड़ी कृष्ण-कर-माल।
अद्भुत शोभा हो गई, उनकी हे महिपाल!
*
सरसिज कुंडल कान में, लगते अति कमनीय।
घुँघराली लट गाल पर, झलक रहीं रमणीय।।
*
सखि मुख मंडल पर चले, छलक स्वेद के बिंदु।
छटा निराली हो गई, हुआ मलिन ज्यों इंदु।।
*
सब सखियाँ थीं नृत्य में, लीन कृष्ण के संग।
ध्वनि नूपुर, कंगन करें, चढ़ा रास-रस-रंग।।
*
वेणी से बेला झरें, बिखरी सुमन सुगंध।
पुलिन मंच सुरभित हुआ, खुले केश के बंध।।
*
उस अदभुत स्वर-ताल में, मिला रहे निज राग।
झूम-झूम हर कली पर, मधुकर बने सुहाग।।
*
परछाईं से खेलता, शिशु ज्यों रहित विकार।
वैसे सब सखि संग में, हरि करते खिलवार।।
*
हृदय लगाते थे कभी, करते थे अंगस्पर्श।
तिरछी चितवन कर विहँस, उपजाते हिय हर्ष।।
*
इस प्रकार हरि ने किया, सखियों संग विहार।
सुनो परीक्षित! देवगण, वह छवि रहे निहार।।
*
हरि के अंगस्पर्श से, सखियाँ हुईं निहाल।
केश खुले, तन पर नहीं, चोली सकीं सँभाल।।
*
अस्त-व्यस्त गहने वसन, तन-सुधि जातीं भूल।
मालाओं से गिर गए, टूट-टूटकर फूल।।
*
कृष्ण रास लीला निरख, भाव हुए हुए उन्मुक्त।
देवि स्वर्ग की हो गईं, मिलन कामना युक्त।।
*
दृश्य देख यह चंद्रमा, ग्रह, उपग्रह समुदाय।
हुए अचंभित छवि कहें, कह न सके निरुपाय।।
*
कृष्ण स्वयं में पूर्ण हैं, सुनो परीक्षित भूप।
तब भी जितनी गोपियाँ, उतने धरे स्वरूप।।
*
श्रम कण झलके नृत्य से, बीती सारी रैन।
मनमोहन मुख पोंछते, मूँदें सखियाँ नैन।।
*
हरि करकमलस्पर्श से, तन की मिटी थकान।
आनंदित सखियाँ हुईं, खिली अधर मुस्कान।।
*
सोने के कुण्डल ललित, रह-रह करें किलोल।
घुँघराली अलकावली, रहीं गाल पर डोल।।
*
तिरछी चितवन से किया, सखियों ने सम्मान।
सब मिलकर करने लगीं, हरि-लीला गुण-गान।।
*
थका हुआ गजराज ज्यों, सरित तीर कर भंग।
कर प्रवेश जल राशि में, खेले हथिनी संग।।
*
वैसे वेदों से परे, गोपेश्वर अखिलेश।
सब सखियों के संग में, जल में करें प्रवेश।।
*
सखि घर्षण से कृष्ण की, चिपट गई वन-माल।
वक्षस्थल से लग हुई, वह केशर सी लाल।।
*
मन्नाते भौंरे उड़ें, ऐसा होता भान।
गाते हों गंधर्व ज्यों, बनवारी यश-गान।।
*
जल-क्रीड़ा करने लगीं, सखियाँ हे भूपाल!
हरि पर नीर उलीचतीं, हँसी न सकीं सँभाल।।
*
चढ़े यान सुर ले रहे, हरि-लीला-आनंद।
बरसाते नभ से सुमन, गाते मनहर छंद।।
*
इस प्रकार श्रीकृष्ण ने, जल में किया विहार।
ज्यों हथिनी के वृंद सँग, गज करता खिलवार।।
*
सखियों, भौरों से घिरे, पूर्णकाम योगेश।
फिर यमुना जल से निकल, वन में करें प्रवेश।।
*
दृश्य बड़ा रमणीय था, जल, थल में थे फूल।
सुमन सुगंध बिखेरती, चले पवन अनुकूल।।
*
जैसे हथिनी वृंद सँग, वन विचरे गजराज।
वैसे ही हरि शोभते, सुनो परीक्षित राज।।
*
शरद पूर्णिमा में हुईं, बहुत रात्रियाँ एक।
जिसका वर्णन आज तक, करते काव्य अनेक।।
*
हुई रजत सी चाँदनी, शोभा अति कमनीय।
उपमा दे-दे कवि थके, वह छवि थी रमणीय।।
*
उस रजनी में प्रेयसी, सखियों सँग भगवान।
चिन्मय लीला से करें, पूर्णकाम सज्ञान।।
*
काम भाव अरु चेष्टा, कर हरि ने आधीन।
सब सखियों को कर लिया, बंशी धुन में लीन।।
*
परीक्षित उवाच
प्रश्न परीक्षित ने किया, हे भगवन शुकदेव!
एकमात्र श्रीकृष्ण ही, हैं त्रिभुवन के देव।।
*
निज अंशी बलराम सँग, हरने भुवि का भार।
धर्मस्थापन के लिए, लिया पूर्ण अवतार।।
*
कृष्ण स्वयं में पूर्ण हैं, नहीं किसी की चाह।
सर्वात्मा भी हैं वही, कोई न पाए थाह।।
*
मर्यादा अरु धर्म के, रक्षक श्री भगवान्।
स्वयं धर्म विपरीत क्यों, कर्म किया श्रीमान?
*
पर नारी तन छू कहें, प्रभु क्यों तोड़ें आन?
मम संदेह मिटाइये, विप्र देव! मतिमान।।
*
शुकदेव उवाच
सुन राजन के ये वचन, बोले श्री शुकदेव।
ब्रम्हा, विष्णु, महेश हैं, त्रिभुवन के त्रय देव।।
*
सूर्य, अग्नि अरु देवता, जो सब भाँति समर्थ।
जन-हित कारण धर्म से, रखें न कोई अर्थ।।
*
इस साँसारिक कर्म से, उन्हें न लगता दोष।
ज्यों पावक सब भस्मकर, रहता है निर्दोष।।
*
हरि के प्रति यह सोचना, भी है राजन पाप।
सूर्य अग्नि में व्याप्त है, जिनका प्रखर प्रताप।।
*
निज माया संयोग से, धर कर भिन्न स्वरूप।
लीला करते कृष्ण जी, सुनो परीक्षित भूप!
*
जहर हलाहल पी गए, शिव की शक्ति महान।
हो जाएगा भस्म नर, अन्य करे यदि पान।।
*
जिसमें है सामर्थ्य वह, रहता अहम विहीन।
स्वारथ नाता विश्व से, रखता नहीं प्रवीन।।
*
दोष उन्हें लगता नहीं, जो कर्तत्वविहीन।
वे निमित्त सब कर्म में, रहें राग से हीन।।
*
अचर,सचर सबमें वही, सर्वेश्वर भगवान।
मानव कर्मों से परे, उसकी सत्ता जान।।
*
वे अविकारी ब्रम्ह हैं, धरे मनुज का रूप।
वही व्यक्त-अव्यक्त हैं, वे ही विश्व-स्वरूप।।
*
जिनकी पद रज प्राप्त कर, मिले तृप्ति आनंद।
योग क्रिया से योगि जन, काटें भव के फंद।।
*
तत्व रूप हों ज्ञानि जन, जिनका तत्व विचार।
कर्मबंध की कल्पना, उनकी है बेकार।।
*
जीवों पर करने कृपा, लेते हरि अवतार।
लीलाएँ लख भक्तगण, निज को देते वार।।
*
वे ही आत्मा रूप में, सबमें रहे विराज।
गोप-गोपियों में वही, सुनो परीक्षित राज।।
*
गोप देखते कृष्ण को, दोषबुद्धि से हीन।
उनको दिखतीं गोपियाँ, गृह कार्यों में लीन।।
*
हरि की माया ही उन्हें, करा रही आभास।
उनकी प्यारी पत्नियाँ, दिखतीं उन्हें सकाश।।
*
ब्रम्ह रात्रिे सम हो गए, उस रजनी के याम।
भोर हुआ गोपी सभी, हरि भेजें ब्रज धाम।।
*
सुनो परीक्षित! जो करे, रास नृत्य गुणगान।
अरु हरिलीला भक्त जो, श्रवण करे धर ध्यान।।
परा भक्ति में कृष्ण की, वह होता संयुक्त।
फिर 'मधुकर' भवसिंधु से, हो जाता है मुक्त।।९९
***
ॐ
दोहा शतक
कालीपद ‘प्रसाद’
जन्म: ०८/०७/१९४७, धोपादि, जिला खुलना (बांग्ला देश)।
आत्मज: स्व. श्रीमती छाया रानी देवी-स्व. श्री महादेव मंडल।
जीवन संगिनी: स्व. श्रीमती प्रभावती देवी।
शिक्षा: बी.एससी., बी.एड, एम. एससी.(गणित); एम.ए.(अर्थशास्त्र)।
संप्रति: अध्यापन राष्ट्रीय भारतीय सैन्य कालेज (आर.आई.एम.सी.) देहरादून, प्राचार्य केंद्रीय विद्यालय संगठन।
प्रकाशन: शैक्षणिक लेख केंद्रीय विद्यालय संगठन पत्रिका में, “Value Based Education” पुस्तक, काव्य संग्रह काव्य सौरभ, मुक्तक व काव्य संग्रह अँधेरे से उजाले की ओर, उपन्यास कल्याणी माँ, साझा- ‘गीतिका है मनोरम सभी के लिए’, साझा दोहा-मुक्तक संग्रह २०१७।
उपलब्धि: गीतिका प्रदीप सम्मान।
संपर्क: साईं सृष्टि,बी ५०२, खराडी, पुणे, महाराष्ट्र ४११०१४, ४०३,ज्योति मीडास,(राममंदिर) कोंडापुर,हैदराबाद -५०००८४। चलभाष:०९६५७९२७९३१ ; ईमेल: kalipadprasad@gmail.com
ॐ
दोहा शतक
एक दीप ऐसा जले, मन का तम हो दूर।
अंतर्मन का तम मिटे, मिले ख़ुशी भरपूर।।
*
सबकी इच्छा पूर्ण हो, दैव योग परिव्याप्त।
हँसी-ख़ुशी आनंद हो, ऋद्धि-सिद्धि हो प्राप्त।।
*
घट-घट में ईश्वर बसे, जैसे तन में श्वास।
दिखा नहीं भगवान पर, जीवित है विश्वास।।
*
करूँ प्रार्थना-अर्चना, दिन में शत-शत बार।
सजदा पूजा रस्म भी, स्वीकारो सरकार।।
*
‘काली’, दुर्गा, शक्ति या, विधि हरि भोलानाथ।
रूप कई पर एक है, घट-घट में जगनाथ।।
*
अपनी ही आलोचना, मुक्ति प्राप्ति की राह।
गलती देखे और की, जो ण गहे वह थाह।।
*
अगर क्षमा ही श्रेष्ठ है, जिद्दी क्यों है संत?
सभी लड़ाई व्यर्थ है, नहीं किसी का अंत।।
*
ईसाई हिन्दू यवन, नहीं किसी की भूमि।
देव अवतरण भूमि है, करो नहीं बध-भूमि।।
*
सूद सहित है भोगना, तुझको तेरा कर्म।
जाँच-परख कर फल मिले, समझ कर्म का मर्म।।
*
वाइज़ हो या साधु हो, रखें सभी यह याद।
जो झगड़े हर कौम वह, हुई नष्ट-बर्बाद।।
*
राम नाम की बाँसुरी, करे राम मनुहार।
जनता माँगे नौकरी, हो जीवन-आधार।।
*
जात-पांत की नीति से, राजनीति हो दूर।
जातविहीन समाज हो, दीन न हो मजबूर।।
*
भड़काना जन-भावना, नेता का व्यापार।
लूट-लूट कर खा गए, नहीं देश से प्यार।।
*
राजनीति व्यापार है, आश्वासन हथियार।
पार्टी सभी दलाल है, अद्वितीय बाज़ार।।
*
सीधी-साधी बात है, नहीं मानते यार।
सच्चे की तारीफ़ कर, खुदगर्जी को मार।।
*
निर्वाचन का है समय, उछला तीन तलाक।
पका न इसको सकेगा, होगा यह गुरु पाक।।
*
नहीं सत्य को बताना, जनता हो न सचेत।
वोट बैंक का स्रोत है, वोटर रहे अचेत।।
*
केर-बेर का संग है, मिले स्वार्थ वश हाथ।
हाथी चलता है अलग, जनता किसके साथ।।
*
एक बार फिर राम जी, नाव लगा दो पार।
यू. पी. में सरकार दो, मंदिर हो तैयार।।
*
झूठ नहीं हम बोलते, पार्टी है मजबूर।
हमें करो विजयी अगर, बाधा होगी दूर।।
*
रोकी सुप्रीम कोर्ट ने, जाती-धर्म की खोट।
कुछ आधार कुछ बचा नहीं, कैसे माँगें वोट।।
*
तुम ही हो माता-पिता, भगिनी-भ्राता यार।
साम दाम या भेद से, ले जाओ उस पार।।
*
मंदिर ज़िंदा जीत है, मृत मुद्दा है हार।
राम राम जपते रहो, होगा बेड़ा पार।।
*
हरा-भरा यह देश है, भारत जिसका नाम।
सुन्दर है मेरा वतन, अमर यही है धाम।।
*
अरुणाचल से कच्छ तक, फैला है यह देश।
उत्तर-हिम पर्वत खड़ा, दख्खिन सिंहल देश।।
*
गंगा जमुना दरमियाँ, रिश्ते सालों-साल।
धर्म-धर्म में एकता, सचमुच बड़ा कमाल।।
*
सरहद पर तैनात हैं, भारत माँ के लाल।
चुटकी में कर व्यर्थ दें, सभी शत्रु की चाल।।
*
चीन पाक दोनों अभी, बने स्वार्थ-वश मित्र।
जल्दी होंगे दूर फिर, दोनों घृणित चरित्र।।
*
काम, क्रोध, मद, लोभ औ, अहंकार दे त्याग।
हिंसा ईर्ष्या मोह का, सदा उचित परित्याग।।
*
प्रीत स्नेह अनुराग हो, घर-घर में हो प्यार।
कोई हो नाराज तो, करो प्रेम मनुहार।।
*
भ्रश्ताचत समाप्त हो, बंद पापमय कर्म।
सत्य अहिंसा व्याप्त हो, सब पालें निज धर्म।।
*
नौ दुर्गा नौ रात्रि में, चन्दन फूल कपूर।
माँ की सज्जा पूर्ण कर, माँग भरें सिंदूर।।
*
विजयादशमी में गमन, होता है हर वर्ष।
आनेवाले साल तक, मैया देना हर्ष।।
*
विनती इतनी मान लो, हो मेरा उत्कर्ष।
इंतज़ार पलकें बिछा, करून मातु प्रति वर्ष।।
*
समावेश है शक्ति का, दुर्ग सिद्धि है नाम।
करें सफल हर काम में, कभी न बिगड़े काम।।
*
ईर्ष्या तृष्णा वृत्ति जो, उन सबका हो नाश।
नष्ट न होती साधुता, रहता सत्य अनाश।।
*
भक्ति शक्ति माँगे सभी, माँगे आशीर्वाद।
कष्ट हरो इस जन्म का, सुन माँ अंतर्नाद।।
*
अर्ज करो भगवान से, वे हैं कृपा निधान।
सफ़ल करें हर काम को, सबको देकर ज्ञान।।
*
विद्यालय जाते न क्यों, आओ मेरे पास।
विकसित करना बुद्धि को, छोडो मत तुम आस।।
*
अंक-वर्ण परिचय प्रथम, बाकी उसके बाद।
याद करो गिनती सही, होगे तुम नाबाद।।
*
पढ़ो लिखो आगे बढ़ो, करो देश का नाम।
पढ़ लिख कर सब योग्य बन, करना दुष्कर काम।।
*
कभी नष्ट होती नहीं, विद्या ले तू जान।
अनपढ़ लोगों के लिए, दुर्लभ होता ज्ञान।।
*
मौन साध बातें करो, मन की गाँठें खोल।
सुनता रब बातें वही, होतीं जो अनबोल।।
*
आत्म-तत्व का ज्ञान ही, आता सबके काम।
गूढ़ तत्व सब जान के, मन होता निष्काम।।
*
वचन-कर्म में संतुलन, करता भय से मुक्त।
मिथ्या भाषी हों सदा, खुद ही भय से युक्त।।
*
न्यायालय पर भी पड़ी, राजनीति की शिकार।
सरकारों के स्वार्थ-हित, न्याय हुआ लाचार।।
*
दिखे नहीं अन्याय तो, इसे कहे जग न्याय।
हुई न्याय में देर तो, हो जाता अन्याय।।
*
बेचो मत ईमान को, खुद का है अपकर्ष।
न्यायालय सम्मान में, सबका है उत्कर्ष।।
*
जाति धर्म की शान में, बख्श बाल की जान।
बच्चे तो मासूम हैं, वो क्यों बने निशान?
*
उनकी है यह घोषणा, सुनो खोलकर कान।
पद्मावत गर देखना, जाओ पाकिस्तान।।
*
सभी देश के भक्त को, साबित करना भक्ति।
पद्मावत प्रतिरोध में, तनिक ण हो आसक्ति।।
*
राजतंत्र चुपचाप है, सबके मुँह में बर्फ।
वोट बैंक की नीति है, मुँह से गायब हर्फ।।
*
भाव-भक्ति की भूख है, नहीं चाहिए दान।
भक्ति बिना कुछ भी नहीं, लेते हैं भगवान।।
*
भिक्षुक हैं सारा जगत, दाता हैं भगवान।
दाता कब मुहताज से, लेता है कुछ दान।।
*
वृथा सभी धन-दान है, है फ़िज़ूल हर खर्च।
जिसके संग श्रृद्धा न हो, मंदिर मस्जिद चर्च।।
*
श्रद्धा से ही रब मिले, कौरव सका न मोल।
विदुर अन्न सादा सरल, शाक भात अनमोल।।
*
पैसा है तो मोल लो, टका सेर है न्याय।
इसको मानो मत कभी, दीनों पर अन्याय।।
*
तू तो छूटा कालिया, तुझ पर भी इलज़ाम।
मुझसे कहे वकील अब, जल्दी दे दो दाम।।
*
टू जी में सब मुक्त हैं, हमको भी थी आस।
झूठ सभी इलज़ाम हैं, कौन चरेगा घास।।
*
समझौता है जिंदगी, जान मध्य यह मार्ग।
चन्दा में भी दाग है, कोई नहीं अदाग।।
*
समझौते में शांति है, छोड़ हठीले क्लेश।
हठ से कुछ मिलता नहीं, बढ़ता केवल द्वेष।।
*
जीवन जैसा है मिला, उसे करो स्वीकार।
दोष हुनर आधार पर, अब न करो इन्कार।।
*
सिंधु सदृश संसार है, गहरा पाराबार।
यह जिंदगी है नाव सम, जाना सागर पार।।
*
मिटटी का मानव बना, मिटटी का भगवान।
कंकड़-पत्थर जोड़कर, कौन हुआ धनवान।।
*
क्यों है अपराधीकरण, राजनीति नासूर।
रुकता अब तक क्यों नहीं, वजह प्रशासन सूर।।
*
टिकट दागियों को न दो, बंद करो सब द्वार।
दागी को दल में न लो, मिटे भ्रष्ट आचार।।
*
बंद करें सब पार्टियाँ, अपराधी हित द्वार।
जिस दल में दागी रहें, मतदाता दे हार।।
*
आँखे रख अंधा न बन, आँख खोल कर देख।
कौन चोर डाकू यहाँ, सबका खता लेख।।
*
अपराधी अब हो गए, भारत के करतार।
चौतरफ़ा कर रहे हैं, सबका बंटाधार।।
*
स्वार्थ कील में हैं फँसे, नेता साधू संत।
सीधा-सादा मामला, किन्तु नहीं है अंत।।
*
राम कृष्ण दुर्गा कभी, शंकर तारणहार।
जिसके दल ईश्वर नहीं, उसका बंटाधार।।
*
जुमले बाज़ी रात-दिन, लूट लिया सुख-चैन।
कब किस पर बिजली गिरे, किस पर होगा बैन।।
*
उनको नहीं पसंद है, भारत का इतिहास।
बात-बात आलोचना, करते हैं उपहास।।
*
कठिन डगर गुजरात की, नेता सब बेचैन।
गली-गली मारे फिरे, चैन नहीं दिन रैन।।
*
ओज नहीं अब बात में, बोले कडुआ बोल।
नोट बंद की नीति को, झूठ कहे अनमोल।।
*
हिंदीभाषी! सीखिए, दक्खिन भाषा एक।
अदला-बदली सोच की, हो प्रयत्न तब नेक।।
*
उत्तर भारत में पढ़ें, तमिल-तेलुगु छात्र।
केरल में पढ़ बिहारी, हों भारत के मात्र।।
*
छोडो भाषा द्वन्द को, बनो न अब अनुदार।
सब भाषा की श्रेष्ठता, हिन्दी को उपहार।।
*
भावी पीढ़ी चाहती, आस-पास हो स्वच्छ।
निर्मल हो भारत सकल, अरुणाचल से कच्छ।।
*
हवा नीर सब स्वच्छ हो, मिटटी हो निर्दोष।
अग्नि और आकाश भी, करे आत्म आघोष।।
*
नदी पेड़ गिरि वादियाँ, विचरण करते शेर।
हिरण सिंह वृक तेंदुआ, जंगल भरा बटेर।।
*
पाखी का कलरव जहाँ, करते नृत्य मयूर।
अनुपम दृश्य निहार कर, है मदहोशित ऊर।।
*
सागर की लहरें उठी, छूना चाहे चाँद।
खूबसूरती सृष्टि की, भाव रूप आबाद।।
*
मानव जीवन में सदा, कोशिश अच्छा कर्म।
मात-पिता सेवा यहाँ, सदा श्रेष्ठ है धर्म।।
*
कर्म, नहीं प्रारब्ध है, भाग्य बनाता कर्म।
पाप-पुण्य होता नहीं, जान कर्म का मर्म।।
*
आग छुएगा हाथ से, क्या होगा अंजाम।
सभी कर्म फल भोगते, पाप-पुण्य दे नाम।।
*
बुरे काम का जो असर, उसे जान तू पाप।
नेक कर्म का पुण्य-फल, करे दूर संताप।।
*
जीवन का यह राज है, शांति ख़ुशी की चाह।
सुखानंद की खोज में, सतत खोजते राह।।
*
संयम जैसा तप नहीं, शान्ति सदृश संयोग।
तृष्णा से बढ़कर नहीं, जग में कोई रोग।।
*
सत्य अहिंसा मार्ग है, शांति-सौख्य आरंभ।
निर्मल मन में शांति जब, गायब मन का दंभ।।
*
बसे बीच संतोष-सुख, बने वासना रोग।
योगी करता त्याग है, भोगी करता भोग।।
*
बीत गई है जिंदगी, ख़त्म हुई जग राह।
देखो परखो जाँच लो, पग होते गुमराह।।
*
प्रेम प्रीति है शान्ति पथ, बैरी हिंसा द्वेष।
गीता, कुरान, धम्मपद, देते सीख विशेष।।
*
नाम, रूप, सब शास्त्र हैं, हैं विधान कुछ भिन्न।
चन्द्र सूर्य भू हैं वही, देते बारिश-अन्न।।
*
जीवन की सब सिद्धि का, सूत्र धर्म है काम।
मुँह में राम सदैव हो, हाथों में हों दाम।।
*
सदा सिखाती गलतियाँ, बिना फीस दें सीख।
बिन माँगे चेतावनी, माँगे मिले न भीख।।
*
बार-बार गलती नहीं, की जाती है माफ़।
सम्हाले-सुधारे यदि नहीं, गिरे भाग्य का ग्राफ।।
*
कुआँ खोद पानी पिए, उद्यम पर अधिकार।
ऐसे नर करते नहीं, बारिष की मनुहार।।
*
उद्यम हिम्मत हौसला, जिसमें है भरपूर।
मुश्किल क्या उसके लिए, लक्ष्य नहीं है दूर।।
*
करें मोक्ष हित साधना, दुनिया में सब लोग।
योग कर्म देते भुला, अगर सामने भोग।।
*
मोहक कंचन-कामिनी, मिथ्या माया-मोह।
सोच-समझ पा सत्य को, किया बुद्ध ने द्रोह।। १००
***
ॐ
दोहा शतक
डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट ‘आकुल’
जन्म: १८.६.१९५५, महापुरा, जयपुर।
आत्मज: स्व. कृष्णप्रिया- स्व. वैद्य श्री बलभद्र शर्मा।
जीवन संगिनी: श्रीमती ब्रजप्रिया।
शिक्षा- स्नातकोत्तर, विद्या वाचस्पति।
प्रकाशित: प्रतिज्ञा (कर्ण पर आधारित नाटक), पत्थरों का शहर (हिन्दी गीत, ग़जल, नज्में), जीवन की गूँज (काव्य संग्रह), अब रामराज्य आएगा (लघुकथा संग्रह), नवभारत का स्वर्ग सजायें (गीत संग्रह), जब से मन की नाव चली (नवगीत संग्रह), सम्पादित पुस्तकें, १४ साझा संकलन १०।
प्रकाशनाधीन: चलो प्रेम का दूर क्षितिज तक पहुँचायें संदेश (गीतिका शतक)।
उपलब्धि: शब्द श्री, शब्द भूषण, क्रॉसवर्ड विज़र्ड, साहित्य शिरोमणि, रवींद्रनाथ ठाकुर वांड्.मय पीठ सम्मान, साहित्य मार्तण्ड, छंद श्री, मुक्तक लोक भूषण सहित लगभग ३० पुरस्कार/ सम्मान।
सम्प्रति- सेवा निवृत्त अनुभाग अधिकारी राजस्थान तकनीकी विश्वविद्यालय, कोटा (राजस्थान), व्यवस्थापक फेसबुक साहित्य समूह ‘’मुक्तक लोक’’।
संपर्क: ‘सान्निध्य’, ८१७ महावीर नगर- २ , कोटा (राजस्थान)-३२४००५ ।
दूर / चलभाष: ०७४४ २४२४८१८, ९१ ७७२८८२४८१७, ८२०९४८३४७७, ईमेल: aakulgkb@gmail.com ।
*
वक्रतुण्ड प्रथमेश हैं, लम्बोदर गणनाथ।
श्रीगणेश आशीष दें, ऋद्धि सिद्धि के साथ।।
*
वीणापाणि नमन करूँ, धरूँ ध्यान निस्स्वार्थ।
बस सदैव सार्थक लिखूँ, करूँ सदा परमार्थ।।
मात-पिता-गुरु-राष्ट्र हैं, जीवन का आधार।
शिक्षा संस्कृति सभ्यता, इनसे है संसार।।
*
मात-पिता-गुरु यदि करें, जीवन मार्ग प्रशस्त।
राष्ट्र बनाता नागरिक, तब होकर आश्वस्त।।
*
मधुबन माँ की छाँव है, निधिवन माँ का ओज।
काशी,मथुरा, द्वारिका, माँ चरणों में खोज।।
माँ की पवन गोद है, जीवन का आह्लाद।
भोजन माँ के हाथ का, अमृत जैसा स्वाद।।
*
मात-पिता-गुरु-राष्ट्र से, होता बेड़ा पार।
समाधान इनसे मिले, इनको समझ न भार।।
*
कर्मनिष्ठ का कर्म से, होता है उत्थान।
अकर्मण्य के भाग्य में, लिख न अभ्युत्थान।।
*
साँस बिना जीवन नहीं, प्राण बिना बेजान।
कर्म बिना उत्थान कब?, मृग मरीचिका जान।।
*
धर्म-कर्म बिन जीव का, जीवन नर्क समान।
गुरु, विद्या, धन बिना ज्यों, मिले नहीं सम्मान।।
वंश-बेल फूले-फले, यदि हो पूत सुजान।
निकले पूत कपूत तो,पतन सुनिश्चित जान।।
*
आया था तूफान झट, बदले भारी नोट।
काले धन के फेर में, धुले हजारी नोट।।
*
पंचतत्व से है बना, मानव का यह रूप।
रूप,रंग घर-द्वार से, बनता रूप सुरूप।।
कर्मनिष्ठ बदलें सदा, अपना रूप कुरूप।
जीवन वे जीते सदा, इच्छा के अनुरूप।।
*
भिक्षा सबसे निम्न है, अधमाधम यह कर्म।
नहीं समझते हैं कई, अकर्मण्य यह मर्म।।
बिना मान-सम्मान के, धन-दौलत है धूल।
खाद, बीज, श्रम के बिना, खिलते केवल शूल।।
*
श्रम को सोना जानिए, श्रम जीवन का मूल।
माटी भीसोना बने, समय रहे अनुकूल।।
यह जिह्वा वाचाल है, रखना अंकुश आज।
ले आती भूचाल जब, करें निरंकुश राज।।
नहीं प्रशासन जागता, नहीं जगे सरकार।
जब तक जनता में नहीं, मचता हाहाकार।।
*
परेशान चाहे रहे, हो चाहे अंधेर।
सत्य एक दिन जीतता, होती देर-सबेर।।
चंद्रगुप्त के वंश का, है स्वर्णिम इतिहास।
विक्रम संवत् में निहित, अब भी जन विश्वास।।
*
मिले न जब तक प्रेरणा, योग न हों अनुकूल।
दुर्लभ प्रभु के दर्श हैं, ग्रंथों का भी मूल।।
*
क्यों ढूँढूँ संसार में, प्रभु मेरे मन-द्वार।
नैन बंद कर भज लिया, कर ली बातें चार।।
*
जो भजता है लीन हो, भूले मोह विकार।
हो जाता वह एक दिन, प्रभु से एकाकार।।
प्रभु तुझको कैसे मिलें, तन-माया में चूर।
अंग-अंग है विष भरा, मन में मद भरपूर।।
प्रभु को भजना बाद में, लें पहले आहार।
भजन न हो भूखे कभी, कहता है संसार।।
*
कहलाती नदियाँ वहाँ, संगम तीर्थ विहार।
मिल जाती नदियाँ जहाँ, होकर एकाकार।।
*
कण-कण में भगवान को, खोज गया मन हार।
प्रभु को ढूँढ़ा जब जहाँ, मौन मिले हर बार।।
हिंदी भाषा की बने, अब ऐसी पहचान।
ज्यों श्रम कर निर्धन बने, धनिक न खो ईमान।।
’आकुल’ हिंदी को मिले, ऐसी एक उड़ान।
मसजिद में हों कीरतन, मंदिर पढ़ें अजान।।
वाहन, घर, महँगे वसन, मोबाइल का ध्यान।
हिंदी का भी शौक अब, पालें सब इनसान।।
*
मान तिरंगे का करें, कर 'जन गण मन' गान।
ज्यों-त्यों हिंदी के लिए, मन में हो सम्मान।।
झूठ न हरदम जीतता, कर लो जतन हजार।
भले देर से ही सही, जीते सच हर बार।।
*
झूठ तभी भारी पड़ा, बढ़े अधर्मी पाप।
सत्य तभी निर्बल पड़ा, हुए न दृढ़ हम आप।।
*
सत्य सदा जो बोलता, रखना पड़े न याद।
एक झूठ करता सदा, सौ झूठी फरियाद।।
*
झूठ घटाता मुश्किलें, तो यह भ्रम मत पाल।
घर में ही क्या कम पलें, अब जी के जंजाल।।
*
झूठे की रहती सदा, रातों नींद हराम।
सच्चा सोता चैन से, निबटा सारे काम।।
हिंदी की संगत करें, फिर देखें परिणाम।
हिंदी से स्वागत करें, कर करबद्ध प्रणाम।।
*
हिंदी हित संकल्प ले, करें आचमन आज।
होगा अपने ह्रदय पर, बस हिंदी का राज।। *
*
करनी होगी पहल अब, धरना है यह ध्यान।
घर-घर में चर्चित रहे, हिंदी का अवदान।
*
पहनें अच्छे वसन तो, बनती है पहचान।
शब्दकोश में हैं छिपे, हिंदी के परिधान ।।
*
वैज्ञानिक आधार है, हिंदी का यह सिद्ध।
यह भाषा अब जगत में, कहलाती रस-सिद्ध।।*
हिंदी ने झेला सदा, पग-पग पर अपमान।
साख न बन पाई कभी, कैसे हो उत्थान ?
*
हिंदी की करता रहा, जन-जन सार सँभाल।
सत्ताधीश न कर सके, उन्नत इसका भाल।।
*
बरखा तब ही काम की, करे न बाढ़-विनाश।
बाढ़ों से सूखा भला, बनी रहे कुछ आश।।
*
वर्षा ऐसी मेघ दे, भरे रहें सर ताल।
कोइ घर उजड़े नहीं, पड़े न कभी अकाल।।
*
’आकुल’ जल संग्रह करें, वर्षा में हर बार।
वर्षा जल संचय करें, भरा रहे भंडार।। *
*
गर्मी के तेवर घटें, पावस की ऋतु देख।
मेघनाद होने लगें, चमकें चपला रेख।। *
आते देख पयोद नभ, पुलकित कोयल मोर।
नर नारी लेकर चले, खेतों में हल-ढोर।।
*
कौआ भी चिरजीव है, कुत्ता स्वामी भक्त।
चाटुकार गीदड़ रहा, सदा-सदा परित्यक्त।।
बिन गुरुत्व धरती नहीं, धुर बिन चले न चाक।
गुरुजल बिन बिजली नहीं, गुरु के बिना न धाक।।*
*
गुरु ही जग में श्रेष्ठ है, सच कहता इतिहास।
सुर-नर प्राणी जगत् में, करें सभी अरदास।।
*
गुरु से जग में जानिए, धर्म ज्ञान प्रभु आप।
आश्रय जो गुरु का रहे, दूर रहें संताप।।
*
गुरु का सिर पर हाथ हो, तर जाते भव-पार।
श्रद्धा, निष्ठा, प्रेम, यश, पाते शिष्य अपार।।
*
गुरु को जो तोले कभी, मूरख, मूढ़, कुपात्र।
बड़बोला अति बोलता, खाली जैसे पात्र।।
*
दीक्षा गुरु अरु धर्म गुरु, होते हैं बेजोड़।
इनसे ही संस्कृति फले, इनकी कहीं न होड़।।
*
मात-पिता, गुरु, राष्ट्र ॠण, रहे सदैव उधार।
जब भी जैसे भी मिलें, पा हो तब उद्धार।।
*
जो गुरु बिना समर्थ है, दो दिन चाहे खास।
सदा अकेला वह रहे, खोता है विश्वास।।
*
’आकुल’ बड़भागी बनें, निभा सदा संबंध।
मात-पिता गुरु सिधारें, चढ़कर तेरे स्कंध।।
मौसम आता शीत का, धूप सुहाती खूब।
भाते खूब गरम वसन, लगे भूख भी खूब।।
होली में मस्ती करें, करें न बस हुड़दंग।
सूखी होली खेलिये, रंग न हो बदरंग।।
श्रम से मजदूरी मिले, पूँजी दे बस ब्याज।
मिले किराया भवन से, करता साहस राज ।।
मुर्गे से तू सीख ले, चुनता मल से बीज।
व्यापारी वह ही सफल, रखता जो खेरीज।।
छंदबद्ध साहित्य का, हुआ पराक्रम क्षीण
वैसे ही कुछ रह गए, कविवर छंद प्रवीण।।
टिम-टिम तारे गगन में, पथ पथ चलें प्रदीप।
दूर क्षितिज तक हो रहा, संदीपन हर दीप।।
कुरुक्षेत्र है यह जगत, जीवन है संग्राम।
रिश्ते अब फिर दाँव पर, कब आएँगे श्याम।।
मौसम कोई भी रहे, क्या गर्मी क्या ठंड।
चले अगर विपरीत तो, मौसम देता दंड।।
आकुल इस संसार में, तू कौए से सीख।
नहीं किसी से मित्रता, नहीं किसी से भीख।। *
*
शिक्षा दीक्षा गुरु बिना, बिना अस्त्र के युद्ध।
बिना रास के वृषभ से, होता पथ अवरुद्ध।।
बेटी होती जनक-हिय, बेटा माँ की जान।
सखा बने जब पुत्र के, भिड़ें कान से कान।।
आकुल महिमा जनक की, जिससे जग अनजान।
मनु-स्मृति में लेख है, सौ आचार्य समान।।
दुख का कारण मत बनो, दुख में दो सँग-साथ।
सुख की वजह बनो सदा, सुख में भले न साथ।।
*
कभी नहीं दो मशवरा, देख दुखी इंसान।
सदा दर्द में साथ हों, दुख का करें निदान।।
आकुल इस संसार में, माँ का नाम महान।
माँ की जगह न ले सके, कोई भी इंसान।।
*
माँ के सिर पर चंद्र है, कुल किरीट पहचान।
माँ धरती माँ स्वर्ग है, गणपति लिखा विधान।।
*
पूत कपूत सपूत हो, ममता करे न भेद।
मधुर बजे मुरली सदा, तन में कितने छेद।।
मात-पिता-गुरु-राष्ट्र ये, सर्वोपरि हैं जान ।
कभी न होगा तू उऋण, कर सेवा सम्मान।।
*
आकुल माँ की जगत् में, महिमा अपरंपार।
सहस्र पितु बढ़ मातु है, मनुस्मृति के अनुसार।।
अधिष्ठात्रि तू सृष्टि की, देवी माँ तू धन्य।
बुद्धि न आकुल की फिरे, दे आशीष अनन्य।।
जितना ऊपर को उठे, दिनकर बढ़े प्रकाश।
पढ़ा लिखा इंसान ही, छूता है आकाश।।
वर दो ऐसा शारदे, नमन करूँ ले आस।
हटे तिमिर अज्ञान का, और बढ़े विश्वास।।
*
आँखों में सपने लिए, हाथों में तकदीर।
चलते हैं ले हौसले, जीवनपथ पर वीर।।
*
कब खुशबू रोके रुकी, कभी न रुका समीर।
रुकना मत ऐ जिंदगी!, सहते रहना पीर।।
*
जीवन एक जिजीविषा, रहता सदा अधीर।
होता है वह ही सफल, जो धरता है धीर।।
*
हाथ धरे बैठे रहें, जीतें कभी न दाँव।
जो उम्मीदें पालते, थकते कभी न पाँव।।
*
समय उसी के साथ जो, रखता होश-हवास।
नहीं रुका उसके लिए, जिसकी टूटी आस।।
पंचतत्व का संतुलन, प्रकृति रखे तू कौन?
रह आहार-विहार प्रति, सजग शेष तू मौन।।
*.
पंडित मुल्ला, कादरी, कहते सब यह बात।
होती नहीं ज़बान की, जग में कोई जात।।
*
भूलें करता जा रहा, मानव क्यों दिन-रात?
प्रकृति प्रदूषित हो रही, मानवता की मात।।
*
जन्मा यहाँ विवस्त्र ही, आँखें-मुट्ठी बंद।
जमा करे क्यों संपदा?, करें न क्यों आनंद?
वर्षा ढाती कहर पर, नहीं सँभलते लोग।
कर निसर्ग की दुर्दशा, कष्ट रहे हैं भोग।।
*
होते हैं ऐसी जगह, तीर्थ तपोवन झार।
दक्षिण से उत्तर जहाँ, बहे नदी की धार।।
*
हवामहल जो ताश के, होते जल्दी ढेर।
नहीं झूठ के पाँव भी, टिकते ज्यादा देर।।
तन कठोर अखरोट का, पानीफल में शूल।
’आकुल’ तनचाहे मलिन, मन रखना तुम फूल।।
भजन-प्रार्थना योग है, जैसे चिंतन-ध्यान।
इच्छा शक्ति करे प्रबल, भक्ति लीजिए मान।।
*
अनाचार करता वही, जो होता स्वच्छंद।
खुश रहता वह सर्वदा, जो रहता पाबंद।।
*
नहीं लगाएँ द्वार पर, फल-फूलों के पेड़।
आटे-जाते जन सभी, कर सकते हैं, छेड़।।
*
जीवन रुकता है कहाँ?, देखो जिस भी ओर।
कर्तव्यों का बोझ हो, पथ पर चाहे घोर।।
*
मानव जब तक स्वस्थ्य है, दूर रहेगी मौत।
बने धारा पर बोझ जब, ले जाती बन सौत।।
*
बैर न उनसे कीजिए, रहना जिनके बीच।
बनें जानवर जंगली, करें न बाहर खींच।।
***
ॐ
दोहा शतक
जन्म: १३ अप्रैल १९५४, गांव जीरावल, तहसील रेवदर, जिला सिरोही (राजस्थान)।
आत्मज: -श्री विष्णुराम जी गर्ग
जीवन संगिनी:
शिक्षा: स्नातकोतर (हिंदी साहित्य)।
संप्रति: सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य।
प्रकाशित: काव्य संग्रह क्षण बोध, मदांध मन, रंजन रस, अंतिम पृष्ठ। तथाता छंद काव्य संग्रह, विज्ञ विनोद कुंडलियाँ संग्रह।
उपलब्धि: हिंदी साहित्य गौरव, तुलसी सम्मान, काव्य श्री, श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान,राष्ट्र भाषा गौरव सम्मान, साहित्य सागर सम्मान आदि।
संपर्क: २ डी ७८ राजस्थान आवासन मंडल, आकरा भट्टा, आबूरोड, - सिरोही ३०७०२६।
चलभाष: ९४६१४४९६२०। ईमेल: chhaganlaljeerawal@gmail.com
जीवन ऊर्जा शिखर है, परम तपस्या राम।
जाना जिसने प्रेम को, जान लिया यह धाम।।
गुरु -चरणों में लीन हूँ, तारे चित अनुराग
बोया अंकुर नेह का, बढ़ तरु बने विराग।।
गुरू-छाया उद्धार है, हो हर बाधा पार
माया धारा बह रही, खींचे करो विचार ।।
प्रेम समर्पण दान है, प्रेमी समझो शास्त्र।
तीर्थ तुल्य पावन यही, सीमारहित सुपात्र।।
प्रेम वस्तु माया रहे, गहरा धोखा जान।
निन्न्यांबे का फेर ही, जड़ता की पहचान।।
कार शौक धन भवन ही, चाहत की दीवार।
भ्रांति हुई वैभव जिया, आत्मा छूटी पार।।
आत्मा प्रेमी हैं सभी, भिक्षा भेद अजान।
भीगा नेही भीतरी, मोती डूब सुजान।।
देविक गंधी फैलती, भूला प्रेमी आप।
डाले बाँहें संगिनी, भोगा है निष्पाप।।
नार वचन संजीवनी, प्रेमी लेते तोल।
माँ नेही सी संगिनी, होती है अनमोल।।
यौवना काया निखारे, रस डूबे संसार।
चाहे प्राणी प्रेम हो, भूले कंटक-खार।।
भीग भाव तारल्य में, डूबे मन संसार।
दो प्राणों में जोश का, प्रेम घुला अंबार।।
डूबे प्रेम विराट में, हो भव-बाधा पार।
देखो धारा बह रही, जानो पावन सार।।
प्रेम ज्ञान भंडार है, काया वाणी जान।
दिव्या देही प्रकट हैं, जोड़ो चेतन भान।।
नैना लज्जा घेरती, देखूँ डूबी राग।
लूटा मोती भीतरी, देही माँगे भाग।।
ताजी गंधी फैलती, भूला प्रेमी आप।
डाले बाँहें संगिनी, झूले मद निष्पाप।।
संतोषी को सुख सदा, भूखा रहे अमीर।
ज्ञानी भूला नीति को, लूटे माया धीर।।
माया तजो विवेक से, हो लो बाधा पार।
देखो धारा बह रही, जानो पावन सार।।
भाषा का विस्तार हो, केवल नहीं विचार।
काया सी सम्भाल हो, जो चित भरा विकार।।
संसारी लेखा रखे, लिया उधार नवाब।
झूठा भी साँचा भरे, माँगे खरा जवाब।।
छाया माया दास की, मौज-शौक से दूर।
काया अहं अकड़ रही, आन-बान मद चूर।।
सीधा-सादा काम का, सब माने सच बात।
पर उपकार लगा रहे, सहता है आघात।।
छोड़ो नाम प्रपंच का, नहीं मिले गुण मैल।
दौड़ो वैभव आस में, धन लो साख उड़ेल।।
जब माया मोहित करे, सुन रस में संगीत।
पल आए घर भी जले, नेह न तजना जीत।।
सुन काया रसहीन है, मद-बल सोया नींद।
तन बोझा मँझधार फँस, छोड़ सभी उम्मीद।।
रस प्याला मत तोल तू, जड़ खोदे सच ताज।
पल थोड़ा मति भान रख,जलता तेरा आज।।
मत मारो मन मोह में, मित मोड़े मित मान।
चित चाहे सच सार रस, चलना सोहे शान।।
मद मारी मंजुल मना, मनहर माँगे मीत।
तन कोमल वैराग भर, गूँजे रस संगीत।।
विपदा पाई सघन से, वितरण बाँधा नाथ।
नित रोए धनहीन जन, करो मदद दो हाथ।।
मधु थाती तन जोश में, मन दायक मृदु आस।
पल खाता बल नाश सब, अपना टूटा पास।।
सुमुखी सुनैना सुंदरी, मृदु चितवन नादान।
अंतर रस मन में घुला, सजी ललित मुख शान।।
छल मति सी माया घनी, वैभव रस मन देह।
साँझ किरण मद शिथिलता, लगा विराम विदेह।।
सुरसिक भौरा पारखी, मृदु चित फूल पराग।
छोड़ विकल तन विरहिणी, जुड़ा सुधा अनुराग।।
विवश विकल धरती लखे, बरसे लहर अपार।।
मोह मिला मन मोद में, मति माया मन जाल।।
भजन भाव भावुक भगत, भव लख भ्रमित निदान।
नाथ संत सत साधना, सुख छाया अति जान।।
नशा नजर रस नयन में, लाज लाल मुख रेख।
झुक सजनी भयभीत मन, झिझक विहग सी लेख।।
करुण चित्त जल तरल सा, काज साथ दुख जान।
दुख मिटता उपकार कर, धर्म कर्म में मान।।
भरो सुरस तन भ्रम मिटे, नेह विरल अविराम।
तज करनी अनुराग भव, भजन पकड़ श्री राम।।
भूली सब कुछ विलय हो, नेह सरस मति श्याम।
धन धरती सब छोड़कर, लहर लगन भौ धाम।।
चित लय सुजन विराट में, छल पल सृजित विकार।
साँच छोड़ मानव कलुष, निरखे किरण प्रकार।।
हो विचार सत समर्पित, तन-मन विनत विशाल।
बाँध जीव पावन जगह, दुःख घन विलय उछाल।।
दुःख में मृदुल विलीन मन, सुपवन बहुत विषाद।
नेह मधुर मानस मुखर, विचरण विगत विवाद।।
चित रट भज हरि नाम रे, अनुपम जग पहचान।
देह रसिक कारण समझ, हर पल जड़वत जान।।
सुमधुर मन मिलने तरस, पवन हुआ चितचोर।
तरस सुखद विपदा समय, नजर दुखद लखि भोर।।
चले किरण अति प्रखर गति, चमक भरे चहुँ ओर।
किसलय पवन मधुर हिले, सरस रजत अति जोर।।
विगत विचर मन विवशता, रिमझिम नयनों नीर।
सुधिजन सहित सरल मना, निरखे झिलमिल पीर।।
कलरव चहक-चहक कहे, नवरस महके पास।
सुमन सुरस मधुरिम बहे, भ्रमित भ्रमर मधुमास।।
समय अजय गतिमय अभय, घट नित मन भर आस।
धर्म-कर्म सुधिजन करें, नित रस का अहसास।।
तारें सभी कर हरि भजन , सुमति सतत धन खान ।
तज पर जन छल मति सदा , भज मन हरि गुण गान।।
अविरल अचल अलख विरल, सघन तरल सम विषम।
परम प्रबल प्रिय हरि जपो, कलियुग किसलय कुसुम।।
मनहर किसलय भ्रमर मति, लखि नवरस मन चुभन।
सघन विरह तब सरस मुख, तन-मन-धन अवगहन।।
सरस निरख शशि मगन मन, देखो नभचर मिलन।
फिर तुम रुचि तन-मन धरो, चटक चाँदनी गमन।।
जीवन होगा दर्द में, जब तक संकट काल।
संगत सच्ची सार है, विपदा गहरी टाल।।
बढ़ी होड़ यश-नाम की, मोल मिल रहा ताज।
झूठा भी सच्चा लगे, बहुमत बिकता आज।।
लोग हुए बेजोड़ थे, मीरां सह रैदास।
चिंतन में थी दिव्यता, मन में था विश्वास।।
तेरा-मेरा बीतता, शिथिल तरंग-विचार।
राम नाम मन में भरा, अटका भीतर पार।।
कैसा मानव लोभ है, भरा सदा अंबार।
रात दिवा पहरा लगा, भूला रस संसार।।
भाषा का विस्तार हो, केवल नहीं विचार।
काया सदृश सम्हालिए, जो चित भरा विकार।।
संसारी लेखा रखे, कालिख भरा हिसाब।
झूठा भी साँचा करे, नागर खरा जवाब।।
छाया माया दास की, मौज -शौक से दूर ।
काया अहं-अकड़ रही, आन-बान, मद-चूर।।
मेरा भावी आसरा, आप राम करतार।
माया मोह अहं बढ़ा, चेतनता जगतार।।
विवेक विनाश वो मिला, घूला मूल विधान।
विदेही का भाव छुआ, भूला धूप निशान।।
दयासिंधु खुद ही खड़े, जाओ तो दरबार।
पाओ घने असीम फल, साधौ हैं अवतार।।
यात्री कंटक राह में, देख सके तो देख।
अंधेरा साथी बना, भीतर अनयन लेख।।
सीधा-सादा काम का, सब माने सच बात।
पर उपकार-लगा रहे, सहता चुप आघात।।
कैसा होगा और दो, जिज्ञासा रस विशाल।
पाया अनपाया रहा, चखकर हुआ निढाल।।
छोडो नाम-प्रपंच रे! ,नहीं मिले गुण मैल ।
दौड़ो वैभव आस में, लो धन साख उड़ेल।।
आया वही चला गया, तृष्णा मिटी न चैन।
दुखमय काली रात में, किरन ढूँढती नैन।।
करो वही जो चित कहे, बाकी सब बेकार।
आत्मा लतिका रस बहें ,नवल कुसुम श्रृंगार।।
सच खोजे हाँ दिल भरे, धन बल ही सन्यास।
घर बारी नवजात को, देखभाल की आस।।
पल छाया पावन पले, कर चित में उल्लास।
सच चाहा करतार से, तन में भर ले आस।।
जब माया मोहित करे, सुन रस में संगीत।
पल आए घर-बार जल, मन लेना हँस जीत।।
भज लेना अवतार सब, कर मत देना भूल।
छल जाएँ रखवाल जब, नैना भरना शूल।।
सुन काया रसहीन है, मद बल सोया नींद।
तन बोझा मँझधार फँस, छोड़ सभी उम्मीद।।
बुधिजन मत भोगी बनो, समझो सच नादान।
आशा चित धन दे रही, बढ़े चलो मतिमान।।
सुधिजन की सेवा करो, मिटते भ्रम भंडार।
राखें सद मति सारथी, बता रहे पथ सार ।।
रस प्याला मत तोल तू ,जड खोदे सच ताज।
पल थोड़ा मति भान रख,जलता तेरा आज।।
जड़ माया रस छोड़ तू, क्षण डूबा रस जान ।
कल बीता अबआस कर,बचता हाला ध्यान।।
मत मारो मन मोह में, मिट मोड़े मित मान।
चित चाहे सच सार रस, चलना शोभे शान।।
नियति दया भाषा मिली, रसमय मन उल्लास।
मीठी रस धुन छा रही, सुनो सीख उपवास।।
लतिका छाई सरस तरु, चितवन लागी डार।
तन मादक मन हार लख,चाह संग आधार।।
मद मारी मंजुल मना, मनहर माँगे मीत।
कर कोमल अब राग भर, मिले भाव से प्रीत।।
रजनी आई जतन से, विरहण चाहे साथ।
भर आँचल जल नेह रत, गले लगे हैं नाथ।।
विपदा पाई सघन से, वितरण बाँधा नाथ।
नित रोए धनहीन जन, करो मदद दो हाथ।।
मधु थाती तन जोश में, मन दायक मृदु आस।
पल खाए बल नाश सब, अपना टूटा पास।।
छल साथी धन कोश हो, जन चाहत जस नाथ।
जब लूटत सब साथ मिल, डरता जीता साथ।।
कलियों से माली कहे, अचरज तन आभास।
थोड़े पल महकी लता, किया पृथक मत वास।।
अँखयिन से आँसू बहें, तन अकड़े लाचार।
धोयी जल चित की दशा, हिया जलत पिय तार।।
नवरस नैना सुंदरी, मृदु चितवन नादान।
लज्जा रस मन में घुला, सजी ललित मुख शान।।
ज्ञानी! तोलो बोल को, सच पाओगे जान।
जानो पंथी राह को, तज दे माया मान।।
आया-पाया सोच लो, रहता कितना साथ
सुख-दुःख दोनों मान सम, लेना दोनों हाथ।।
छाया मायानाथ की, होती आस्था धाम।
कच्ची काया छल भरी,खोई जोत ललाम।
देखो इस संसार को, दौड़े तृष्णा आस।
ले लो भार खुमार का, तोड़े भीतर साँच।।
चले गये जो चल पड़े, बैठे रहे उदास।
पीर बवंडर चित जगे, कैसे भरे उजास।।
चलो वीर नवपथ रचो, कदम रखो अज्ञात।
गणना के संसार में, शून्य सार विख्यात।।
संगी-साथी शौक में, रहते नित दिन पास।
मंजिल मिलती मौन में,चलते रहो उजास।।
साधु रहो या आम जन, छोडों आशा चाह।
पाओ छाया सच-घनी, भूली-बिसरी राह।।
पद बढ़ते गति सहित जब, भरते भीतर जोश।
चेतन तन-मन प्राण में, बढ़ता ऊर्जा कोश।।
तरे सभी कर हरि भजन, समझें सत धन खान।
तज परजन छल मत करें, भज मन हरि गुणगान।।
यात्री कंटक राह में, जाग-जाग कर देख।
ताम को साथी मत बना, भीतर सतगुरु लेख।।
काया माया साथ हो, करे नेह से दूर।
भोगी नाहक अकड़ता, आन-बान-मद चूर।।
भाग्यहीन मोती मिले, भ्रमित भ्रमर मधुमास।
छाया रज तामस मिटे, फैले ज्योति विकास।।१००
*
जन्म: १५.८.१९७१, रीवा।
आत्मजा: श्रीमती शारदा-डॉ.विश्वनाथ प्रसाद सक्सेना।
शिक्षा:बी.एससी., एम. ए. (राजनीति विज्ञानं), बी. एड., एम. फिल.।
लेखन विधा: दोहा व अन्य छंद, कहानी, लघु कथा, संपादन।
प्रकाशन: साझा संकलनों में सहभागिता।
उपलब्धि: साहित्यिक समूहों में अनेक पुरस्कार।
सम्प्रति: पूर्व शिक्षिका।
*
ॐ
दोहा शतक
जय प्रकाश श्रीवास्तव
ॐ
दोहा शतक
त्रिभवन कौल
आत्मज: स्वर्गीय लक्ष्मी कौल-श्री बद्रीनाथ कौल।
जीवन संगिनी: श्रीमती ललिता कौल।
जन्म: १.१.१९४६, श्री नगर, जम्मू-कश्मीर।
शिक्षा: स्नातक।
लेखन विधा: दोहा, हाइकु, मुक्तछंद।
संप्रति: सेवानिवृत्त सिविलियन ग़ज़्ज़ेटेड अफसर (भारतीय वायु सेना), लेखक-कवि (हिंदी, अंग्रेजी)।
प्रकाशन: नन्हे-मुन्नों के रूपक, सबरंग, मन की तरंग, बस एक निर्झरणी भावनाओं की। साझा संकलन लम्हे, सफीना, काव्यशाला, स्पंदन, कस्तूरी, सहोदरी सोपान २, उत्कर्ष काव्य संग्रह १, विहग प्रीती के, पुष्पगंधा, ढाई आखर प्रेम, अथ से इति स्तंभ वर्ण पिरामिड, शत हाइकुकार साल शताब्दी, सुरभि कंचन।
उपलब्धि: विशेषांक ट्रू मीडिया पत्रिका नवंबर २०१७, ट्रू मीडिया गौरव सम्मान, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सम्मान, जयशंकर प्रसाद सम्मान, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' सम्मान, पिरामिड भूषण, साहित्य भूषण सम्मान,कवितालोक रत्न, शब्द शिल्पी, मुक्तक लोक भूषण, काव्य सुरभि आदि।
संपर्क: एच १/ २८ तृतीय तल, लाजपत नगर १, नई दिल्ली, ११००२४।
चलभाष: 9871190256, ईमेल: kaultribhawan@gmail.com ।
दोहा शतक
गुरुवर! मुझको दीजिए, कर अनुकंपा ज्ञान।
माँग रहा कर जोड़कर, शिष्य एक अनजान।।
*
परंपरा गुरु-शिष्य की, मिले उसे ही ज्ञान।
लक्ष्य साधता बिंदु पर, करे अँगूठा दान।।
*
बच्चे पढ़-लिख कुछ बनें, मात-पिता-अरमान।
बच्चे पढ़-लिख कुछ बने, भुला जनक पहचान।।
*
आँचल में दौलत भारी, समझ न हुआ अमीर।
आह न लेना किसी की, राज या कि फ़कीर।।
*
अभी रौशनी बहुत है, भाग-निवाला छीन।
जीवन ज्योति जला सतत, सुन ले सुख की बीन।।
*
आतंकी देखे नहीं, धर्म, पंथ या जात।
काफ़िर सबको कह रहे, भूले निज औकात।।
*
पत्थरबाजी सह रहे, बैठे चुप्पी साध।
जेल भेज मत छोड़ कर, शंख-नाद निर्बाध।।
*
शह दें पत्थरबाज़ को, देशी नमकहराम।
जो बोलें जय पाक की, कर दो काम तमाम।।
*
दूध पिएँ विष उगलते, किसका कहें कसूर?
खा जाएँ माँ बेचकर , भारत के नासूर।।
*
मर्यादा श्री राम की, केवल करें बखान।
सिय मर्यादित थीं सदा, न्यून नहीं हनुमान।।
*
मनुज हुआ जब लालची, पर्यावरण विनष्ट।
पौधारोपण से करें, भू का दूर अनिष्ट।।
*
स्वास्थ्य-स्वच्छता बनी हो, कर ऐसा व्यवहार।
हों सब भागीदारी तो, निर्मल हो संसार।।
*
धरतीइनरी एक सम, पोषक-ममताशील।
झोली भर देती रहें , दोनों बहुत सुशील।।
*
कौन ज्ञानियों की सुने, भौतिक सब संसार।
बाबा आडंबर करें, नष्ट हुए आधार।।
*
दे बयान नेता रहे, जग-निंदा के योग्य।
है कटाक्ष सेनाओं पर, नहीं क्षमा के योग्य।।
*
भ्रष्टाचार पनप रहा, चक्की पिसते लोग
भोग भोगते भार हैं, नेता कैंसर रोग।।
*
नटवरलाल सभी यहाँ, सांठ-गांठ भरपूर।
नेता अफसर सेठ हैं, धन-लोलुप मद-चूर ।।
*
पाक जीत सकता नहीं, लाख लगाए ज़ोर।
आतंकी यह जान लें, सिर्फ कब्र में ठौर।।
*
पाप गले तक आ गया, जनता है लाचार।
दुराचार अपने करें, क्यों न सुने सरकार?।।
*
हम कायर कैसे बने?, गाँधी बंदर यार।
देखो-सुनो-कहो नहीं, क्या है इसमें सार ?।।
*
छः माह की बच्ची कहे, सुन लो मेरी चीख
कल को तेरी ही सुता, माँगे तुझसे भीख।।
*
बारिश-सूखा चरम पर, दोनों देते त्रास।
कभी डूबकर मर रहे, कभी न बुझती प्यास।।
*
सूरज होता अस्त जब, भाग लालिमा संग।
अंत न होता प्रणय का, सुबह भरे नव रंग।।
*
जन्म लिया इंसान थे, फिर खो दी पहचान।
जाति-धर्म फंदे फँसे, लड़ होते हैवान।।
*
कर्म सतत करते रहो, भले न फल हर बार।
पछताने से लाभ क्या, अनुभव मिला अपार।।
*
जिनमें जीवन की समझ, हैं संवेदनशील।
प्यार निराली प्रेरणा, सके बुराई लील।।
*
पड़ा सत्य पर आवरण, कहो उतारे कौन?
पीड़ा अधिक असत्य की, घाव तीर का गौण।।
*
नारी शोषण अब नहीं , देखो रहकर मूक।
साहस कर रोको तुरत, चुप रह करें न चूक।।
*
कालजयी रचना लिखो, दुनिया को हो भान।
लेखन के सिरमौर हो, गाहे सृजन सम्मान।।
*-
बंधन क्यों हो सोच पर, मन खुलकर अब सोच।
जीत-हार मन-भावना, ख़ुशी न अधिक खरोच।।
*
आभासी संसार में, मित्रों की भरमार।
विहँस फँसाएँ जाल में, धोखे कई हज़ार।।
*
धरती के दो रूप हैं, यह माँ वह संसार।
यह प्यारी ममतामयी, वह पोषण आधार।।
*
राजनीति दलदलमयी, दल-दल चलते चाल।
दली गई जनता विवश, जनगण-मन बेहाल।।
*
चिंतन प्रज्ञा यज्ञ है, उठे चेतना जाग।
ईंधन होती प्रेरणा, सुलगा दे मन आग।।
*
समता सदा विचार में, मिलती नहीं सुजान।
गुल गुलाब है एक पर, है हर पर मुस्कान।।
*
मिलन की आज आस है, तनों की बुझे प्यास
दिल कपाट जब भी खुलें, है प्रणय सूत्र रास।।
*
वही रात मधुमास है, जब समीपता ख़ास।
नृत्य करें धडकनें मिल, श्वास-श्वास हो रास।।
*
वाणी तेज कटार सी, बोले तो हो त्रास।
चंद प्यार के बोल में, ईश्वर करे निवास।।
*
नहीं हौसला मेघ में, बिजली फिरे उदास।
मर्माहत बेबस धरा, क्रोधित नभ तज आस।।
*
जीवन है क्रीड़ा नहीं, श्रम नही है त्रास
भटक नही अब पथिक तू, कारण तेरे पास।।
*
एक चाँद अति दूर है, एक हमारे पास।
वह बदली में है घिरा, यह है बहुत उदास ।।
*
सावन-फागुन में नहीं, पीड़ा या उल्लास।
विरह अगन जल पीर हो, हर्ष अगर प्रिय पास।।
*
यह सौंदर्य दिखावटी, उसका भीतर वास।
यह क्षणभंगुर नष्ट हो, वह शाश्वत दे हास।।
*
यह बंदा अति ख़ास है, इक उसका जीवन आम।
यह है बस शाने-ख़ुदा, वह ले हरि का नाम ।।
*
मीरा माने समर्पण, राधा माने प्यार।
दोनों हों संपूर्ण जब, कृष्ण बने आधार।।
*
दलित-दलित जपते रहे, सोच मिलेंगे वोट।
हारे- ई वी एम में, बता रहे हैं खोट।।
*
आग रूप-सौंदर्य है, साक्षी है इतिहास।
जले पतंगों की तरह, मनुज आम या ख़ास।।
*
नेता खड़े चुनाव में, अपनी बिछा बिसात।
आम जनों को बाँटकर, बता रहे औकात।।
*
चौराहे पर खड़े हो, लक्ष्य न मिलता तात।
एक राह पर चलो तो, हँसो लक्ष्य पा भ्रात।।
*
कमी नहीं कमज़ोर की, खोजो मिले करोड़।
गर्दन नीची चाहिए, तजो अकड़ या होड़।।
*
मंदिर-मस्जिद ढोंग है, फूलों का व्यापार
काँटों से कर मित्रता , ईश मिले हर बार।।
*
पुष्पों का क्या भाग्य हैं, देख ईश्वरी न्याय।
सिर पर जूती के तले, जीवन के अध्याय।।
*
जनसंख्या सीमित रहे, हो जीवन उत्कर्ष।
सन सामान सिद्धांत पर, फलता भारतवर्ष।।
*
अवसर-सीमा असीमित, उठ छू लो आकाश।
अंतहीन अवसर सुलभ, चमके युवा प्रकाश।।
*
दाँव मीन-आखेट है, मानव बगुला यार।
एक टाँग पर खड़ा है, ज्यों साधक हरि-द्वार।।
*
अडिग पथिक चलते रहो, होगी जय जयकार।
जो ठाना कोशिश करो, होगी कभी न हार।।
*
धनुष उठे जब वीर का, करे घोर टंकार।
लड़ हँस जीवन समर में, पा जय मिले न हार।।
*
दुःख से क्यों तू डर रहा, इतनी सी औकात?
चंद्र ग्रहण से कब डरे, बोल चॉँदनी रात।।
*
कठिनाई नगपति सदृश, मनुज न डर तू जूझ।
रहो काटते श्रमिक सम, डगर बना नव बूझ।।
*
यदि न ज्ञान मल्लाह को, कहाँ किनारा-बाट।
क्या कसूर मँझधार का, भटक न पाए घाट।।
*
ढोंग बनी कश्मीरियत, जिसे न इसका भान।
छीने औरों को डरा, जो न रहा इंसान।।
*
बहिष्कार कर चीन का, यही उचित है नीत।
चाह मत करो युद्ध की, थोपे तो लड़ जीत।।
*
भारी पड़े तटस्थता, विश्व न कहे सशक्त।
गुटबाज़ी यदि की नहीं, मानें तुझे अशक्त।।
*
जंगल-पर्वत कट रहे, नभ रोता है देख।
जब तक हुई न त्रासदी, मनुज न करता लेख।।
*
बीज प्रेम का बो रहा, मौन प्रेम से मीत।
दुआ-दवा है प्रेम ही, रुचे न नफरत-नीत।।
*
तुमको पाकर सब मिला, तुम बिन खाली हाथ।
ईश्वर आये तुम्हीं में, तुम बिन रहे न साथ।।
*
ईश-ईश कह थक गया, बहे नयन जल-धार।
सांई फिर भी ना मिले, पा छोड़ा संसार।।
*
पूजा-समझा तुम मिले, सेवा-प्यार अपार।
कैसा जन्म मनुष्य का, धन जीवन आधार।।
*
करिए प्यार-दुलार तो, रखें तिरंगा-मान।
हो विपत्ति में देश यदि, करें आत्म-बलिदान।।
*
आड़े आयी हृदय में, मैं मैं की दीवार।
शब्दों का टोटा रहा, बोल सका कब प्यार ।।
*
संसारी शैतान भी, हम ही हैं भगवान।
जीवन कर्मों पर टिका, जिससे हो पहचान।।
*
छोड़ दीजिये मित्र सब, जो हैं नाग समान।
आस्तीन में झाँकिए, जाने कब लें प्राण।।
*
मात-पिता को छोड़कर, करे बसेरा और।
पुत्र देख अनुसरण करे, मिले कहाँ तब ठौर।।
*
मीठी बोली बोल कर, नेता माँगे वोट
वादों की बौछार हो, जनता खाए चोट।।
*
माटी से माटी मिले, है कैसा फिर क्लेश।
कर्मों से जग जानिये, क्या घर क्या परदेश ।।
*
फूलों के सँग शूल हैं, जीवन के सँग काल।
तथ्य समझ जो आ गया, जी बिन माया जाल।।
*
भारतीय-भारत सगे, धर्म-जात निस्सार।
भारत रहे अखंड तब, सुधिजन करेंविचार।।
*
चिंता नहीं अतीत की, मत रेखाएँ नाप।
वर्तमान तेरा सगा, कल अनजाना ताप।।
*
सब्जी हरी रसूल है, बाकी सब भगवान।
रंगों में मत बाँटिये, आखिर सब इंसान ।।
*
रक्षक जब भक्षक लगे, मानवता की हार।
दुराचार की देन है, कलयुग का उपहार।।
*
मन-दर्पण आँसू बहे, जब भी खला अभाव।
नर तो थोथा दर्प है, नारी है मन-भाव।।
*
मानव जन्म सफल बने, सही दिशा लो जान।
लक्ष्य चुने फिर ना डिगे, तब ही मनुज महान।।
*
मन-अनुभूति सृजन करे, शब्द नगीने ताज।
संयोजन ऐसा करें, रचना हो सरताज ।।
*
आशा कोई मत रखो, सकते सुख न खरीद।
मन -दरवाजे खोल दो, सबको बना मुरीद।।
*
बिम्ब और प्रतिबिंब सम, हैं विचार आचार।
देव-दनुज हों संग पर, कृत्य भेद आधार।।
*
वन में गुंजित गीत हो, जग-छाए उल्लास।
बहे सावनी धार जब, बुझे धरा की प्यास।।
*
करे समर पर काज जो, उसे समय का भान।
धन से ज्यादा कीमती, समय-मूल्य तू जान।।
*
आँसू दिल का आइना, होती है बरसात।
दर्द-क्रोध-सदमा-ख़ुशी, आँसू हैं सौगात।।
*
वंशज क्यों पुत्री नहीं, सुत ही क्यों स्वीकार?
नर को नारी जन्म दे, नर मत कर अपकार।।
*
नारी सृजक स्वरूप है, करो नहीं अपमान।
नारी जिस घर में नहीं, बन जाता शमशान।।
*
रंग रक्त का एक है, तजो भेद का भाव।
गाँधी जैसे हम बनें, बदलें निजी स्वभाव।।
*
राजे-रजवाड़े मिटे, याद रखें इतिहास।
सांसद सदा न रहेंगे, हों जनता के दास।।
*
मछली जालों में फसें, फेसबुकी पहचान।
झूठे हैं रिश्ते यहाँ, ज्ञान नहीं आसान।।
*
हीरों सा व्यापार है, लेखन नहीं दुकान।
जब से जरकन आ गए, गुमी कहीं पहचान।।
*
पत्थर-मन मनु बन गया, पत्थर के भगवान।
कीमत नहीं गरीब की, प्रिय लगते धनवान।।
*
जल बिन तरस रहा मनुज, रोता सूखा देख।
नदिया श्रापित हो गई, बोया काटे लेख।।
*
जंगल-पर्वत कट गए, बची न पानी-धार।
जल-जल कह सब जल रहे, जल दे कौन उधार।।
*
मँहगाई सुरसा बनी, भूख सहो धर धीर।
ऐश सभी नेता करें, कौन हरेगा पीर।।
*
संसद सांसद से चले, लोकतंत्र लें मान।
देश तभी उन्नति करे, बहस करें श्रीमान।।
*
बालक बालक तब कहाँ, जब करता अपराध।
संसद पास न बिल करें, मिटे किस तरह व्याध।।१००
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