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मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

अप्रैल २३, छंद सखी, छंद गंग, भोजपुरी, कहावत, नवगीत, बाँस, लोरी, बुक डे, नोटा, पृथ्वी दिवस

 सलिल सृजन अप्रैल २३ 

*

मुक्तक
उमर गँवाई, जाग न पाए।
प्रभु से कर अनुराग न पाए।।
कोशिश कर कर हार गए हैं-
सच से लेकिन भाग न पाए।।
२३-४-२०२३
•••
सॉनेट
पृथ्वी दिवस
पृथ्वी दनुजों से थर्रायी
ऐसा हमें अतीत बताता
पृथ्वी अब भी है घबरायी
ऐसा वर्तमान बतलाता
क्या भविष्य बस यही कहेगा
धरती पर रहते थे इन्सां
या भविष्य ही नहीं रहेगा?
होगा एक न करे जो बयां
मात्र 'मैं' सही, शेष गलत हैं
मेरा कहा सभी जन मानें
अहंकार भय क्रोध द्वेष हैं
मूल नाश के कारण जानें
विश्व एक परिवार, एक घर
माने हँसे साध सब मिलकर
२३-४-२०२२
•••
चिंतन सलिला ५
कब?
'कब' का महत्व क्या, क्यों, कैसे के क्रम में अन्य किसी से कम नहीं है।
'कब' क्या करना है यह ज्ञात हो तो किये गये का परिणाम मनोनुकूल होता है।
'कब' का महत्व कैकेयनंदिनी कैकशी भली-भाँति जानती थीं। यदि उन्होंने कोप कर वरदान राम राज्याभिषेक के
ठीक पहले न माँगकर किसी अन्य मय माँगे होते तो राम का चरित्र निखर ही न पाता, न ही दनुज राज का अंत नहीं होता।
'कब' न जानने के कारण ही हमारी संस्थाओं के कार्य, कार्यक्रम और निर्णय फलदायी नहीं हैं।
'कब' करना या न करना कैसे जानें?
याद रखें 'अग्रसोची सदा सुखी'। समय से पहले सोच-विचारकर यथासमय किया गया काम ही सुलझाया होता है।
'कब' का सही अनुमान कर वर्षा के पूर्व छत और छाते की मरम्मत, शीत के पहले गर्म कपड़ों की धुलाई और गर्मी के पहले कूलर-पंखों की देखभाल न हो तो परेशानी होगी ही।
'कब' क्या करना या न करना, यह जानना संस्था पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं के लिए बहुत जरूरी है।
यह न जानने के कारण ही संस्थाएँ अप्रासंगिक हो गई हैं और समाज उनसे दूर हो गया है।
संस्थाओं का गठन समाज के मगल और कमजोरों की सहायता के लिए किया जाता है। संस्था से इस उद्देश्य की पूर्ति न हो, वह केवल संपन्न वर्ग के मिलने, मौज करने का माध्यम बन जाए तो समाज उससे दूर हो जाता है।
कब किसके लिए क्या किस प्रकार करना है? यह न सोचा जाए तो संस्था वैयक्तिक यश, लाभ और स्वार्थ का जरिया बनकर मर जाती है।
'कब' की कसौटी पर खुद को और संस्था को कसकर देखिए।
२३-४-२०२२
संजीव, ९४२५१८३२४४
•••
दोहा
कोरोना से लड़ रही, पाले स्वप्न अनेक 
भंग न कोई कर सके, हम सब रखें विवेक
*
पुस्तक दिवस (२३ अप्रैल) पर
मुक्तिका
*
मीत मेरी पुस्तकें हैं
प्रीत मेरी पुस्तकें हैं
हार ले ले आ जमाना
जीत मेरी पुस्तकें हैं
साँस लय है; आस रस है
गीत मेरी पुस्तकें हैं
जमातें लाईं मशालें
भीत मेरी पुस्तकें हैं
जग अनीत-कुरीत ले ले
रीत मेरी पुस्तकें हैं
२३-४-२०२०
***
विमर्श : चाहिए या चाहिये?
हिन्दी लेखन में हमेशा स्वरात्मक शब्दों को प्रधानता दी जाती है मतलब हम जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते हैं।
चाहिए या चाहिये दोनों शब्दों के अर्थ एक ही हैं। लेखन की दृष्टि से कब क्या लिखना चाहिए उसका वर्णन निम्नलिखित है।
चाहिए - स्वरात्मक शब्द है अर्थात बोलने में 'ए' स्वर का प्रयोग हो रहा है। इसलिए लेखन की दृष्टि से चाहिए सही है।
चाहिये - यह श्रुतिमूलक है अर्थात सुनने में ए जैसा ही प्रतीत होता है इसलिए चाहिये लिखना सही नहीं है। क्योंकि हिन्दी भाषा में स्वर आधारित शब्द जिसमें आते हैं, लिखने में वही सही माने जाते हैं।
आए, गए, करिए, सुनिए, ऐसे कई शब्द हैं जिसमें 'ए' का प्रयोग ही सही है।
***
मुक्तक
*
जगजननी संरक्षण करती संतानों का
अंतर करे न मत्स्य परिंदों इंसानों का
जीवन चक्र अनवरत गतिमय रखतीं मैया
कभी नहीं रह रुकने देती अरमानों का
*
इस दुनिया में जान लुटाता किस पर कौन?
जान अगर बेजान साथ में जाता कौन?
जान जान की जान मुसीबत में डाले
जान जान की जान न जान बताता कौन?
*
लघुकथा
जाति
*
_ बाबा! जाति क्या होती है?
= क्यों पूछ रही हो?
_ अखबारों और दूरदर्शन पर दलों द्वारा जाति के आधार चुनाव में प्रत्याशी खड़े किए जाने और नेताओं द्वारा जातिवाद को बुरा बताए जाने से भ्रमित पोती ने पूछा।
= बिटिया! तुम्हारे मित्र तुम्हारी तरह पढ़-लिख रहे बच्चे हैं या अनपढ़ और बूढ़े?
_ मैं क्यों अनपढ़ को मित्र बनाऊँगी? पोती तुनककर बोली।
= इसमें क्या बुराई है? किसी अनपढ़ की मित्र बनकर उसे पढ़ने-बढ़ने में मदद करो तो अच्छा ही है लेकिन अभी यह समझ लो कि तुम्हारे मित्रों में एक ही शाला में पढ़ रहे मित्र एक जाति के हुए, तुम्हारे बालमित्र जो अन्यत्र पढ़ रहे हैं अन्य जाति के हुए, तुम्हारे साथ नृत्य सीख रहे मित्र भिन्न जाति के हुए।
_ अरे! यह तो किसी समानता के आधार पर चयनित संवर्ग हुआ। जाति तो जन्म से होती है न?
= एक ही बात है। संस्कृत की 'जा' धातु का अर्थ होता है एक स्थान से अन्य स्थान पर जाना। जो नवजात गर्भ से संसार में जाता है वह जातक, जन्म देनेवाली जच्चा, जन्म देने की क्रिया जातकर्म, जन्म दिया अर्थात जाया....
_ तभी जगजननी दुर्गा का एक नाम जाया है।
= शाबाश! तुम सही समझीं। बुद्ध द्वारा विविध योनियों में जन्म या अवतार लेने की कहानियाँ जातक कथाएँ हैं।
_ यह तो ठीक है लेकिन मैं...
= तुम समान आचार-विचार का पालन कर रहे परिवारों के समूह और उनमें जन्म लेनेवाले बच्चों को जाति कह रही हो। यह भी एक अर्थ है।
_ लेकिन चुनाव के समय ही जाति की बात अधिक क्यों होती है?
= इसलिए कि समान सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों में जुड़ाव होता है तथा वे किसी परिस्थिति में समान व्यवहार करते हैं। चुनाव जीतने के लिए मत संख्या अधिक होना जरूरी है। इसलिए दल अधिक मतदाताओं वाली जाति का उम्मीदवार खड़ा करते हैं।
_ तब तो गुण और योग्यता के कोई अर्थ ही नहीं रहा?
= गुण और योग्यता को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुने जाएँ तो?
_ समझ गई, दल धनबल, बाहुबल और संख्याबल को स्थान पर शिक्षा, योग्यता, सच्चरित्रता और सेवा भावना को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुनें तो ही अच्छे जनप्रतिनिधि, अच्छी सरकार और अच्छी नीतियाँ बनेंगी।
= तुम तो सयानी हो गईं हो बिटिया! अब यह भी देखना कि तुम्हारे मित्रों की भी हो यही जाति।
***
लघुकथा
नोटा
*
वे नोटा के कटु आलोचक हैं। कोई नोटा का चर्चा करे तो वे लड़ने लगते। एकांगी सोच के कारण उन्हें और अन्य राजनैतिक दलों के प्रवक्ताओं के केवल अपनी बात कहने से मतलब था, आते भाषण देते और आगे बढ़ जाते।
मतदाताओं की परेशानी और राय से किसी को कोई मतलब नहीं था। चुनाव के पूर्व ग्रामवासी एकत्र हुए और मतदान के बहिष्कार का निर्णय लिया और एक भी मतदाता घर से नहीं निकला।
दूरदर्शन पर यह समाचार सुन काश, ग्रामवासी नोटा का संवैधानिक अधिकार जानकर प्रयोग करते तो व्यवस्था के प्रति विरोध व्यक्त करने के साथ ही संवैधानिक दायित्व का पालन कर सकते थे।
दलों के वैचारिक बँधुआ मजदूर संवैधानिक प्रतिबद्धता के बाद भी अपने अयोग्य ठहराए जाने के भय से मतदाताओं को नहीं बताना चाहते कि उनका अधिकार है नोटा।
२३-४-२०१९
***
गीत
देहरी बैठे दीप लिए दो
तन-मन अकुलाए.
संदेहों की बिजली चमकी,
नैना भर आए.
*
मस्तक तिलक लगाकर भेजा, सीमा पर तुमको.
गए न जाकर भी, साँसों में बसे हुए तुम तो.
प्यासों का क्या, सिसक-सिसककर चुप रह, रो लेंगी.
आसों ने हठ ठाना देहरी-द्वार न छोड़ेंगी.
दीपशिखा स्थिर आलापों सी,
मुखड़ा चमकाए.
मुखड़ा बिना अन्तरा कैसे
कौन गुनगुनाए?
*
मौन व्रती हैं पायल-चूड़ी, ऋषि श्रृंगारी सी.
चित्त वृत्तियाँ आहुति देती, हो अग्यारी सी.
रमा हुआ मन उसी एक में जिस बिन सार नहीं.
दुर्वासा ले आ, शकुंतला का झट प्यार यहीं.
माथे की बिंदी रवि सी
नथ शशि पर बलि जाए.
*
नीरव में आहट की चाहत, मौन अधर पाले.
गजरा ले आ जा निर्मोही, कजरा यश गा ले.
अधर अधर पर धर, न अधर में आशाएँ झूलें.
प्रणय पखेरू भर उड़ान, झट नील गगन छू लें.
ओ मनबसिया! वीर सिपहिया!!
याद बहुत आए.
घर-सरहद पर वामा
यामा कुलदीपक लाए.
२३-४-२०१८
***
एक षट्पदी
*
'बुक डे'
राह रोक कर हैं खड़े, 'बुक' ले पुलिस जवान
वाहन रोकें 'बुक' करें, छोड़ें ले चालान
छोड़ें ले चालान, कहें 'बुक' पूरी भरना
छूट न पाए एक, न नरमी तनिक बरतना
कारण पूछा- कहें, आज 'बुक डे' है भैया
अगर हो सके रोज, नचें कर ता-ता थैया
***
छंद बहर का मूल है: १०
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS SSI SS / SISS SISS
सूत्र: रतगग।
आठ वार्णिक अनुष्टुप जातीय छंद।
चौदह मात्रिक मानव जातीय सखी छंद।
बहर: फ़ाइलातुं फ़ाइलातुं ।
*
आप बोलें या न बोलें
सत्य खोलें या न खोलें
*
फैसला है आपका ही
प्यार के हो लें, न हो लें
*
कीजिए भी काम थोड़ा
नौकरी पा के, न डोलें
*
दूर हो विद्वेष सारा
स्नेह थोड़ा आप घोलें
*
तोड़ दें बंदूक-फेंकें
नैं आँसू से भिगो लें
*
बंद हो रस्मे-हलाला
औरतें भी सांस ले लें
*
काट डाले वृक्ष लाखों
हाथ पौधा एक ले लें
२३.४.२०१७
***
छंद बहर का मूल है: ११
*
छंद परिचय:
संरचना: SIS SS
सूत्र: रगग।
पाँच वार्णिक सुप्रतिष्ठा जातीय छंद।
नौ मात्रिक आंक जातीय गंग छंद।
बहर: फ़ाइलातुं फ़े ।
*
भावनाएँ हैं
कामनाएँ हैं
*
आदमी है तो
वासनाएँ हैं
*
हों हरे वीरां
योजनाएँ हैं
*
त्याग की बेला
दाएँ-बाएँ हैं
*
आप ही पालीं
आपदाएँ हैं
*
आदमी जिंदा
वज्ह माएँ हैं
*
औरतें ही तो
वंदिताएँ हैं
***
द्विपदी
*
सबको एक नजर से कैसे देखूँ ?
आँख भगवान् ने दो-दो दी हैं।
*
उनको एक नजर से ज्योंही देखा
आँख मारी? कहा और पीट दिया।
*
२३-४-२०१७
***
दोहा सलिला
निज हाथों निज छवि लखें, सैल्फी कहते लोग,
लगा दिया चलभाष ने , आत्म मोह का रोग
*
नित्य कांति जिसकी ठगे, जिस-तिस को हर रोज। 
झूठी उसकी लघु कथा, हम गंगू वह भोज।।
***
लोरी
*
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
*
सपनों में आएँगे कान्हा दुआरे
'चल खेल खेलें' तुझको पुकारें
माखन चटा, तुझको मिसरी खिलाएं
जसुदा बलैयाँ लें तेरी गुड़िया
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
*
साथी बनेंगे तेरे ये तारे
छिप-छिप शरारत करते हैं सारे
कोयल सुनाएगी मीठी सी लोरी
सुंदर मिलेगी सपनों की दुनिया
सो जा रे सो जा, सो जा रे मुनिया
२०-१०-२०१६
***
कविता:
अपनी बात:
.
पल दो पल का दर्द यहाँ है
पल दो पल की खुशियाँ है
आभासी जीवन जीते हम
नकली सारी दुनिया है
जिसने सच को जान लिया
वह ढाई आखर पढ़ता है
खाता पीता सोता है जग
हाथ अंत में मलता है
खता हमारी इतनी ही है
हमने तुमको चाहा है
तुमने अपना कहा मगर
गैरों को गले लगाया है
धूप-छाँव सा रिश्ता अपना
श्वास-आस सा नाता है
दूर न रह पाते पल भर भी
साथ रास कब आता है
नोक-झोक, खींचा-तानी ही
मैं-तुम को हम करती है
उषा दुपहरी संध्या रजनी
जीवन में रंग भरती है
कौन किसी का रहा हमेशा
सबको आना-जाना है
लेकिन जब तक रहें, न रोएँ
हमको तो मुस्काना है
*
***
मुक्तक:
.
आसमान कर रहा है इन्तिज़ार
तुम उड़ो तो हाथ थाम ले बहार
हौसलों के साथ रख चलो कदम
मंजिलों को जीत लो, मिले निखार
*
***
मुक्तिका:
हम
.
चल रहे पर अचल हैं हम
गीत भी हैं, गजल हैं हम
आप चाहें कहें मुक्तक
नकल हम हैं, असल हैं हम
हैं सनातन, चिर पुरातन
सत्य कहते नवल हैं हम
कभी हैं बंजर अहल्या
कभी बढ़ती फसल हैं हम
मन-मलिनता दूर करती
काव्य सलिला धवल हैं हम
जो न सुधरी आज तक वो
आदमी की नसल हैं हम
गिर पड़े तो यह न सोचो
उठ न सकते निबल हैं हम
ठान लें तो नियति बदलें
धरा के सुत सबल हैं हम
कह रही संजीव दुनिया
जानती है सलिल हैं हम
***
नवगीत
.
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
.
फाँसी लगा किसान ने
खबर बनाई खूब.
पत्रकार-नेता गये
चर्चाओं में डूब.
जानेवाला गया है
उनको तनिक न रंज
क्षुद्र स्वार्थ हित कर रहे
जो औरों पर तंज.
ले किसान से सेठ को
दे जमीन सरकार
क्यों नादिर सा कर रही
जन पर अत्याचार?
बिना शक-शुबह तन गया
बन जन का हथियार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
.
भूमि गँवाकर डूब में
गाँव हुआ असहाय.
चिंता तनिक न शहर को
टंसुए श्रमिक बहाय.
वनवासी से वन छिना
विवश उठे हथियार
आतंकी कह भूनतीं
बंदूकें हर बार.
'ससुरों की ठठरी बँधे'
कोसे बाँस उदास
पछुआ चुप पछता रही
कोयल चुप है खाँस
करता पर कहता नहीं
बाँस कभी उपकार
अलस्सुबह बाँस बना
ताज़ा अखबार.
२३-४-२०१५
***
कहावत सलिला:
भोजपुरी कहावतें:
*
कहावत सलिला: १
कहावतें किसी भाषा की जान होती हैं.
कहावतें कम शब्दों में अधिक भाव व्यक्त करती हैं.
कहावतों के गूढार्थ तथा निहितार्थ भी होते हैं.
आप अपने अंचल में प्रचलित कहावतें अर्थ सहित प्रस्तुत करें.
भोजपुरी कहावतें:
*
१. अबरा के मेहर गाँव के भौजी.
२. अबरा के भईंस बिआले कs टोला.
३. अपने मुँह मियाँ मीठू बा.
४. अपने दिल से जानी पराया दिल के हाल.
५. मुर्गा न बोली त बिहाने न होई.
६. पोखरा खनाचे जिन मगर के डेरा.
७. कोढ़िया डरावे थूक से.
८. ढेर जोगी मठ के इजार होले.
९. गरीब के मेहरारू सभ के भौजाई.
१०. अँखिया पथरा गइल.
***
मुक्तिका :
*
राजनीति धैर्य निज खोती नहीं.
भावनाओं की फसल बोती नहीं..
*
स्वार्थ के सौदे नगद होते यहाँ.
दोस्ती या दुश्मनी होती नहीं..
*
रुलाती है विरोधी को सियासत
हारकर भी खुद कभी रोती नहीं..
*
सुन्दरी सत्ता की है सबकी प्रिया.
त्याग-सेवा-श्रम का सगोती नहीं..
*
दाग-धब्बों की नहीं है फ़िक्र कुछ.
यह मलिन चादर 'सलिल' धोती नहीं..
२३-४-२०१०
*

रविवार, 10 मार्च 2024

मार्च १०, दोहा, गीत, घनाक्षरी, होली, लोककथा, कहावत, कहमुकरी, हास्य, कुण्डलिया

सलिल सृजन मार्च १०
*
अनुरोध:
भोजन-स्थान पर निम्न सन्देश लिखवायें / घोषणा करवायें :
१. अन्न देवता का अपमान मत करें
२. भोजन फेंकना पाप है.
३. देवता भोग ग्रहण करते हैं, मनुष्य भोजन खाते हैं, राक्षस फेंकते हैं.
४. भोजन की बर्बादी,भूखे की मौत.
५. जितनी भूख उतना लें, जितना लें, उतना खाएं.
६. इस जन्म में भोजन फेंकें, अगले जन्म में भूखे मरें.
७. खाना खा. फेंक मत.
८. खाने से प्यार, बर्बादी से इंकार
९. खाना बचे, भूखे को दें.
१० जितना खा सकें उससे कुछ कम लें.
११. दाने-दाने पर खानेवाले का नाम
जो दाना फेंका उस पर था आपका नाम
अगले जनम में दाने पर नहीं होगा आपका नाम
तब क्या करेंगे?
१२. जीवनाधार
भोजन का सामान
बर्बादी रोकें.
१३. जितना खाना
परोसें उतना ही
फेकें न दाना
१४. भूखे-मुँह में देना दाना
एक यज्ञ का पुण्य कमाना.
१५. पशु-पक्षी को जूठन डालें
प्रभु से गलती क्षमा करा लें.
१६. कम खाना, कम बीमारी
ज्यादा खाना, मुश्किल भारी.
१७. खाना गैर का, पेट आपका.
१८. खाना सस्ता, इलाज मंहगा.
१९. सरल खाना / कठिन पचाना.
२०. भूख से कम खायें, सेहत बनायें.
२१. बचा हुआ शुद्ध ताजा भोजन अनाथालय, वृद्धाश्रम, महिलाश्रम अथवा मंदिर के बाहर
भिक्षुकों को वितरित करा दें. जूठा भोजन / जूठन पशुओं को खाने के लिये दें.
***
कहमुकरी
मन की बात अनकही कहती
मधुर सरस सुधियाँ हँस तहती
प्यास बुझाती जैसे सरिता
क्या सखि वनिता?
ना सखि कविता।
लहर-लहर पर लहराती है।
कलकल सुनकर सुख पाती है।।
मनभाती सुंदर मन हरती
क्या सखि सजनी?
ना सखि नलिनी।
नाप न कोई पा रहा।
सके न कोई माप।।
श्वास-श्वास में रमे यह
बढ़ा रहा है ताप।।
क्या प्रिय बीमा?
नहिं प्रिये, सीमा।
१०-३-२०२२
लोककथा कहावत की
ये मुँह और मसूर की दाल
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
एक राजा था, अन्य राजाओं की तरह गुस्से का तेज हुए खाने का शौक़ीन। रसोइया बाँकेलाल उसके चटोरेपन से परेशान था। राजा को हर दिन कुछ नया खाने की लत और कोढ़ में खाज यह कि मसूर मसालेदार दाल की दाल राजा को विशेष पसंद थी। मसूर की दाल बाँकेलाल के अलावा और कोई बनाना नहीं जानता था। इसलिए बांके लाल राजा की मूँछ का बाल बन गया।
एक दिन बाँकेलाल की साली, अपने जीजा के घर आई। उसकी खातिरदारी में कोई कमी न रह जाए इसलिए बाँकेलाल ने राजा से कुछ दिनों के लिए छुट्टी माँगी।
राजा के पास उसके मित्र पड़ोसी देश के राजा के आगमन का संदेश आ चुका था।
हुआ यह कि राजा ने अपने मित्र राजा से बाँकेलाल की बनाई मसूर की दाल की खूब तारीफ की थी। मित्र राजा अपनी रानी सहित आया, ताकि मसूर की दाल का स्वाद ले सके। इसलिए राजा ने बाँकेलाल की छुट्टी मंजूर नहीं की। बाँकेलाल की साली ने उसका खूब मजाक उड़ाया कि जीजाजी साली से ज्यादा राजा का ख्याल रखते हैं। घरवाली का मुँह गोलगप्पे की तरह फूल गया कि उसकी बहिन के कहने पर भी बाँकेलाल ने उसके साथ समय नहीं बिताया। बाँकेलाल मन मसोसकर काम पर चला गया।
खीझ के कारण उसका मन खाना बनाने में कम था। उस दिन दाल में नमक कुछ ज्यादा पड़ गया और दाल कुछ कम गली। मेहमान राजा को भोजन में आनंद नहीं आया। नाराज राजा से बाँकेलाल को नौकरी से निकाल दिया। बेरोजगारी ने बाँकेलाल के सामने समस्या खड़ी कर दी। राजा एक रसोइया रह चुका था इसलिए किसी आम आदमी के घर काम करने में उसे अपमान अनुभव होता। घर में रहता तो घरवाली जली-कटी सुनाती।
कहते हैं सब दिन जात न एक समान, बिल्ली के भाग से छींका टूटा, नगर सेठ मन ही मन राजा से ईर्ष्या करता था। उसे घमंड था कि राजा उससे धन उधार लेकर झूठी शान-शौकत दिखाता था। उसे बाँकेलाल के निकले जाने की खबर मिली तो उसने बाँकेलाल को बुलाकर अपन रसोइया बना लिया और सबसे कहने लगा कि राजा क्या जाने गुणीजनों की कदर करना?
अँधा क्या चाहे दो आँखें, बाँकेलाल ने जी-जान से काम करना आरंभ कर दिया। सेठ को राजसी स्वाद मिला तो वह झूम उठा।
सेठ की शादी की सालगिरह का दिन आया। अधेड़ सेठ युवा रानी को किसी भी कीमत पर प्रसन्न देखना चाहता था। उसने बाँकेलाल से कुछ ऐसा बनाने की फरमाइश की जिसे खाकर सेठानी खुश हो जाए। बाँकेलाल ने शाही मसालेदार मसूर की दाल पकाई। सेठ के घर में इसके पहले मसूर की दाल कभी नहीं बनी थी। सेठ-सेठानी और सभी मेहमानों ने जी भरकर मसूर की दाल खाई। सेठ ने बाँकेलाल को ईनाम दिया। यह देखकर उसका मुनीम कुढ़ गया।
अब सेठ अपना वैभव प्रदर्शित करने के लिए जब-तब मित्रों को दावत देकर वाहवाही पाने लगा।
बाँकेलाल खुद जाकर रसोई का सामान खरीद लाता था इस कारण मुनीम को पहले की तरह गोलमाल करने का अवसर नहीं मिल पा रहा था। मुनीम बाँकेलाल से बदला लेने का मौका खोजने लगा। बही में देखने पर मुनीम ने पाया की जब से बाँकेलाल आया था रसोई का खर्च लगातार बढ़ था। उसे मौका मिल गया। उसने सेठानी के कान भरे कि बाँकेलाल बेईमानी करता है। सेठानी ने सेठ से कहा। सेठ पहले तो अनसुनी करता रहा पर सेठानी ने दबाव डाला तो उसकी नाराजगी से डरकर सेठ ने बाँकेलाल को बुलाकर डाँट लगाई और जवाब-तलब किया कि वह रसोई का सामान लाने में गड़बड़ी कर रहा है।
बाँकेलाल को काटो तो खून नहीं, वह मेहनती और ईमानदार था। उसने सेठ को मेहमानों और दावतों की बढ़ती संख्या और मसलों के लगातार लगातार बढ़ते बाजार भाव का सच बताया और मसूर की दाल में गरम मसाले और मखाने आदि डलने की जानकारी दी। सेठ की आँखें फ़टी की फ़टी रह गईं। उसने नौकर को भेजकर किरानेवाले को बुलवाया और पूछताछ की। किरानेवाले ने बताया कि बाँकेलाल हमेशा उत्तम किस्म के मसाले पूरी तादाद में लता था और भाव भी काम करते था। बाँकेलाल बेईमानी के झूठे इल्जाम से बहुत दुखी हुआ और सेठ की नौकरी छोड़ने का निश्चय कर अपना सामान उठाने चला गया।
वह जा ही रहा था कि उसके कानों में आवाज पड़ी सेठानी नौकर से कह रही थी कि शाम को भोजन में मसूर की दाल बनाई जाए। स्वाभिमानी बाँकेलाल ने यह सुनकर कमरे में प्रवेश कर कहा 'ये मुँह और मसूर की दाल'। मैं काम छोड़कर जा रहा हूँ।
सेठ-सेठानी मनाते रह गए पाए वन नहीं माना। तब से किसी को सामर्थ्य से अधिक पाने की चाह रखते देख कहा जाने लगा 'ये मुँह और मसूर की दाल'।
••
कुण्डलिया 
*
दर्शन के दर्शन बिना, रहता मन बेज़ार
तेवर वाली तेवरी, करे निरंतर वार
करे निरंतर वार, केंद्र में रखे विसंगति
करे कौन मनुहार, बढ़े हर समय सुसंगति
मत करिए वन काम, करे मन जिसका वर्जन 
अंतर्मन में झांक, कीजिए प्रभु का दर्शन 
देवर आए खेलने, भौजी से रंग आज
भाई ने दे वर रंगा, भागे बिगड़ा काज
भागे बिगड़ा काज, न गुझिया पपड़ी पाई 
भौजी की बहिना, न सामने पड़ी दिखाई 
रंगों का पहन न सके, मनचाहा जेवर 
फीकी होली हुई, गए मन मारे देवर 
***
घनाक्षरी
होली पर चढ़ाए भाँग, लबों से चुआए पान, झूम-झूम लूट रहे रोज ही मुशायरा
शायरी हसीन करें, तालियाँ बटोर चलें, हाय-हाय करती जलें-भुनेंगी शायरा
फख्र इरफान पै है, फन उन्वान पै है, बढ़ता ही जाए रोज आशिकों का दायरा
कत्ल मुस्कान करे, कैंची सी जुबान चले, माइक से यारी है प्यारा जैसे मायरा
१०-३-२०२०
*
नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी ​मोहे ​बरजो न राधिका
​आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो, मुँह ही न फेर ले साँसों की साधिका
गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाँवरे से ​साँवरे की कामना भी बाँवरी-
बैन​ से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका ​
१०-३-२०१७
***
गीत:
ओ! मेरे प्यारे अरमानों,
आओ, तुम पर जान लुटाऊँ.
ओ! मेरे सपनों अनजानों-
तुमको मैं साकार बनाऊँ...
मैं हूँ पंख उड़ान तुम्हीं हो,
मैं हूँ खेत, मचान तुम्हीं हो.
मैं हूँ स्वर, सरगम हो तुम ही-
मैं अक्षर हूँ गान तुम्हीं हो.
ओ मेरी निश्छल मुस्कानों
आओ, लब पर तुम्हें सजाऊँ..
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.
ओ! मेरे निर्धन धनवानों
आओ! श्रम का पाठ पढाऊँ...
मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.
मैं हूँ षडरसमधुमय व्यंजन.
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी रचना संतानों
आओ! दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
***
गीत,
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.
ओ! मेरे निर्धन धनवानों
आओ! श्रम का पाठ पढाऊँ...
मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.
मैं हूँ षडरसमधुमय व्यंजन.
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी रचना संतानों
आओ, दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
***
दोहा
आँखमिचौली खेलते, बादल सूरज संग.
यह भागा वह पकड़ता, देखे धरती दंग..
*
पवन सबल निर्बल लता, वह चलता है दाँव .
यह थर-थर-थर काँपती, रहे डगमगा पाँव ..
१०-३-२०१०
***

शनिवार, 17 फ़रवरी 2024

१७ फरवरी,सॉनेट,लघुकथा,गीत,आँख,मुहावरा,कहावत,हास्य

सृजन १७ फरवरी
*
हास्य रचना
मत कह प्यार किरण से है।

मुश्किल में तू पड़ जाएगा,
कोई नहीं बचा पाएगा।
नादां आफत आमंत्रित कर
बोल तुझे क्या मिल जाएगा?
घरवाली बेलन ले मारे,
झाड़ू लेकर पूजे द्वारे।
मित्र लगाएँ ठहाका जमकर,
प्यार किरण से मत कह हठकर।
थाने में हो जमकर पूजा,
इससे बड़ा न संकट दूजा।
न्यायालय दे नहीं जमानत,
बहुत भयानक है यह शामत।  
मत मौलिक अधिकार बताओ,
वैलेंटाइन गुण मत गाओ।
कूटेंगे मिलकर हुड़दंगी,
नहीं रहेगी हालत चंगी।
चरण किरण के पड़ तज प्यार,
भाई किरण का थानेदार।

मत कह प्यार किरण से है।
१७.२.२०२४
•••
सॉनेट
प्रभु जी
प्रभु जी! तुम नेता, हम जनता।
झूठे सपने हमें दिखाते।
समर चुनावी जब-जब ठनता।।
वादे कर जुमला बतलाते।।
प्रभु जी! अफसर, हम हैं चाकर।
लंच-डिनर ले पैग चढ़ाते।
खाता चालू हम, तुम लॉकर।।
रिश्वत ले, फ़ाइलें बढ़ाते।।
प्रभु जी धनपति, हम किसान हैं।
खेत छीन फैक्टरी बनाते।
प्रभु जी कोर्ट, वकील न्याय हैं।।
दर्शन दुलभ घर बिकवाते।।
प्रभु कोरोना, हम मरीज हैं।
बादशाह प्रभु हम कनीज़ हैं।।
•••
सॉनेट
धीर धरकर
पीर सहिए, धीर धरिए।
आह को भी वाह कहिए।
बात मन में छिपा रहिए।।
हवा के सँग मौन बहिए।।
कहाँ क्या शुभ लेख तहिए।
मधुर सुधियों सँग महकिए।
दर्द हो बेदर्द सहिए।।
स्नेहियों को चुप सुमिरिए।।
असत् के आगे न झुकिए।
श्वास इंजिन, आस पहिए।
देह वाहन ठीक रखिए।
बनें दिनकर, नहीं रुकिए।।
शिला पर सिर मत पटकिए।
मान सुख-दुख सम विहँसिए।।
१७-२-२०२२
•••
सॉनेट
सैनिक
सीमा मुझ प्रहरी को टेरे।
फल की चिंता करूँ न किंचित।
करूँ रक्त से धरती सिंचित।।
शौर्य-पराक्रम साथी मेरे।।
अरिदल जब-जब मुझको घेरे।
माटी में मैं उन्हें मिलाता।
दूध छठी का याद कराता।।
महाकाल के लगते फेरे।।
सैखों तारापुर हमीद हूँ।
होली क्रिसमस पर्व ईद हूँ।
वतन रहे, होता शहीद हूँ।।
जान हथेली पर ले चलता।
अरि-मर्दन के लिए मचलता।
काली-खप्पर खूब से भरता।।
१७-२-२०२२
•••
लघुकथा
सबक
*
'तुम कैसे वेलेंटाइन हो जो टॉफी ही नहीं लाये?'
''अरे उस दिन लाया तो था, अपने हाथों से खिलाई भी थी।भूल गयीं?''
'भूली तो नहीं पर मुझे बचपन में पढ़ा सबक आज भी याद है। तुमने कुछ पढ़ा-लिखा होता तो तुम्हें भी याद होता।'
''अच्छा, तो मैं अनपढ़ हूँ क्या?''
'मुझे क्या पता? कुछ पढ़ा होता तो सबक याद न होता?'
''कौन सा सबक?''
'वही मुँह पर माखन लगा होने के बाद भी 'मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो' कहनेवाला सूर का पद। जब मेरे आराध्य को रोज-रोज खाने के बाद भी माखन खाना याद नहीं रहा तो एक बार खाई टॉफी कैसे??? चलो माफ़ किया अब आगे से याद रखना सबक। '
***
गीत :
समा गया तुम में
---------------------
समा गया है तुममें
यह विश्व सारा
भरम पाल तुमने
पसारा पसारा
*
जो आया, गया वह
बचा है न कोई
अजर कौन कहिये?
अमर है न कोई
जनम बीज ने ही
मरण बेल बोई
बनाया गया तुमसे
यह विश्व सारा
भरम पाल तुमने
पसारा पसारा
*
किसे, किस तरह, कब
कहाँ पकड़ फाँसे
यही सोच खुद को
दिये व्यर्थ झाँसे
सम्हाले तो पाया
नहीं शेष साँसें
तुम्हारी ही खातिर है
यह विश्व सारा
वहम पाल तुमने
पसारा पसारा
१७-२-२०१७
***
आँख पर मुहावरे:

आँख अंगारा होना = क्रोधित होना।
बेटे की अंक सूची देखते ही पिता की आँखें अंगारा हो गईं।
आँख का अंधा, गाँठ का पूरा = मूर्ख धनवान l
आँख का अंधा, गाँठ का पूरा पति पाकर वह अपने सब शौक पूरे कर रही है।
आँख का अंधा, नाम नयन सुख = लक्षणों से विपरीत नाम होना।
भिक्षुक का नाम लक्ष्मीनारायण सुनकर वह बोल पड़ा 'आँख का अंधा, नाम नयन सुख'।
आँख बचाना = किसी से छिपाकर उसके सामने ही कोई कार्य कर लेना।
घरवाली की आँख बचकर पड़ोसन को मत ताको। आँख मारना = इंगित / इशारा करना।
मुझे आँख मारते देख गवाह मौन हो गया।
आँखें आना = आँखों का रोग होना।
आँखें आने पर काला चश्मा पहनें।
आँखें खुलना = सच समझ में आना ।
स्वप्न टूटते ही उसकी आँखें खुल गईं।
आँखें चार होना = प्रेम में पड़ना l
राधा-कृष्ण की आँखें चार होते ही गोप-गोपियाँ मुस्कुराने लगे lआँखें चुराना = छिपाना।
उसने समय पर काम नहीं किया इसलिए आँखें चुरा रहा है।
आँखें झुकना = शर्म आना।
वर को देखते ही वधु की आँखें झुक गयीं।
आँखें झुकाना = शर्म आना।
ऐसा काम मत करो कि आँखें झुकाना पड़े।
आँखें टकराना = चुनौती देना।
आँखें टकरा रहे हो तो परिणाम भोगने की तैयारी भी रखो।
आँखें तरसना = न मिल पाना।
पत्नी भक्त बेटे को देखने के लिए माँ की आँखें तरस गईं।
आँखें तरेरना/दिखाना = गुस्से से देखना।
दुश्मन की क्या मजाल जो हमें आँखें दिखा सके?
आँखें फूटना = अंधा होना, दिखाई न पड़ना l
क्या तुम्हारी आँखें फूट गईं हैं जो मटके से टकराकर उसे फोड़ डाला?आँखें फेरना = अनदेखी करना।
आज के युग में बच्चे बूढ़े माँ-बाप से आँखें फेरने लगे हैं।
आँखें बंद होना = मृत्यु होना।
हृदयाघात होते ही उसकी आँखें बंद हो गईं।
आँखें भर आना - आँख में आँसू आना l
भक्त की दिन दशा देखकर प्रभु की आँखें भर आईं lआँखें मिलना = प्यार होना।
आँखें मिल गयी हैं तो विवाह के पथ पर चल पड़ो।
आँखें मिलाना = प्यार करना।
आँखें मिलाई हैं तो जिम्मेदारी से मत भागो।
आँखों में आँखें डालना = प्यार करना।
लैला मजनू की तरह आँखों में ऑंखें डालकर बैठे हैं।
आँखें मुँदना = नींद आना, मर जाना।
लोरी सुनते ही ऑंखें मुँद गयीं।
माँ की आँखें मुँदते ही भाई लड़ने लगे।
आँखें मूँदना = सो जाना।
उसने थकावट के कारण आँखें मूँद लीं।
आँखें मूँदना = मर जाना। डॉक्टर इलाज कर पते इसके पहले ही घायल ने आँखें मूँद लीं।
आँखें लगना = नींद आ जाना। जैसे ही आँखें लगीं, दरवाज़े की सांकल बज गयी।
आँखें लड़ना = प्रेम होना।
आँखें लड़ गयी हैं तो सबको बता दो।
आँखें लड़ाना = प्रेम करना।
आँखें लड़ाना आसान है, निभाना कठिन।
आँखें लाल करना = क्रोध करना l
दुश्मन को देखते ही सैनिक आँखें लाल कर उस पर टूट पड़ाlआँखें बिछाना = स्वागत करना।
मित्र के आगमन पर उसने आँखें बिछा दीं।
आँखों का काँटा = शत्रु।
घुसपैठिए सेना की आँखों का काँटा हैं।
आँखों का नूर/तारा होना = अत्यधिक प्रिय होना।
अपने गुणों के कारण बहू सास की आँखों का नूर हो गई।
आँखों की किरकिरी = जो अच्छा न लगे।
आतंकवादी मानव की आँखों की किरकिरी हैं।
आँखों के आगे अँधेरा छाना = कुछ दिखाई न देना, कुछ समझ न आना।
साइबर ठग द्वारा बैंक से धन लूटने की खबर पाते ही आँखों के आगे अँधेरा छ गया।
आँखों पर पट्टी बाँध लेना = नज़र अंदाज़ करना l
राजनैतिक दल एक दूसरे की उपलब्धियों को देखकर आँखों पट पट्टी बाँध लेते हैंl
आँखों में खटकना = अच्छा न लगना l
करवों की आँखों में पांडव हमेशा खटकते रहेlआँखों में खून उतरना = अत्यधिक क्रोध आना।
कसाब को देखते ही जनता की आँखों में खून उतर आया।
आँखों में चमक आना = खुशी होना।
परीक्षामें प्रथम आने का समाचार पाते ही उसकी आँखों में चमक आ गई।
आँखों में धूल झोंकना = धोखा देना।
खड़गसिंग बाबा भारती की आँखों में धूल झोंक कर भाग गया।
आँखों में बसना = किसी से प्रेम होना।
मीरा की आँखों में बचपन से ही नंदलाल बस गए।
आँखों में बसाना = अत्यधिक प्रेम करना l
पुष्पवाटिका में देखते ही श्री राम की छवि को सीता जी ने आँखों में बसा लिया।
आँखों से काजल चुराना = बहुत चालाकी से काम करना l
नेतागण आँख से काजल चुरा लें तो भी मतदाता को मलूँ नहीं हो पाता lआँखों से गिरना = सम्मान समाप्त होना।
झूठे आश्वासन देकर नेता मतदाताओं की आँखों से गिर गए हैं।
आँखों से गंगा-जमुना बहना / बहाना = रोना।
रक्षा बंधन पर भाई को न पाकर बहिन की आँखों से गंगा-जमुना बहने लगी।
आँखों-आँखों में बात होना = इशारे से बात करना।
आँखों-आँखों में बात हुई और दोनों कक्षा से बाहर हो गए।
आँखों ही आँखों में इशारा हो गया / बैठे-बैठे जीने का सहारा हो गया।
आँखों-आँखों में बात होने दो / मुझको अपनी बाँहों में सोने दो।


एक आँख से देखना = समानता का व्यवहार करना।
समाजवाद तो नाम मात्र का है, अपने दाल और अन्य दलों के लोगों को कोई भी एक आँख से कहाँ देखता है?
खुली आँख सपने देखना = कल्पना में लीन होना, सच से दूर होना।
खुली आँखों सपने देखने से सफलता नहीं मिलती।
फूटी आँखों न सुहाना = एकदम नापसंद करना।
माली की बेटी रानी को फूटी आँखों न सुहाती थी।

अंधे की लाठी = किसी बेबस का सहारा l
पत्नी को असाध्य रोग होते ही वह अंधे की लाठी बन गया।अंधो मेँ काना राजा = अयोग्यों में खुद को योग्य बताना।
अंधा बांटे रेवड़ी, चीन्ह चीन्ह कर देय / अंधा बांटे रेवड़ी, फिर फिर खुद को देय = पक्षपात करना / स्वार्थ साधना।
राज्यपाल भी निष्पक्ष न होकर अंधा बांटे रेवड़ी, चीन्ह चीन्ह कर देय की मिसाल पेश कर रहा है। अंधों में काना राजा बनने से योग्यता सिद्ध नहीं होती।


कहावत
अंधे के आगे रोना, अपने नैना खोना = नासमझ/असमर्थ के सामने अपनीव्यथा कहना।
नेताओं से सत्य कहना अंधे के आगे रोना, अपने नैना खोना ही है।
आँख का अंधा नाम नैन सुख = नाम के अनुसार गुण न होना।
उसका नाम तो बहादुर पर छिपकली से डर भी जाता हैं, इसी को कहते हैं आँख का अँधा नाम नैन सुख।
***
नवगीत:
.
सबके
अपने-अपने मानक
.
‘मैं’ ही सही
शेष सब सुधरें.
मेरे अवगुण
गुण सम निखरें.
‘पर उपदेश
कुशल बहुतेरे’
चमचे घेरें
साँझ-सवेरे.
जो न साथ
उसका सच झूठा
सँग-साथ
झूठा भी सच है.
कहें गलत को
सही बेधड़क
सबके
अपने-अपने मानक
.
वही सत्य है
जो जब बोलूँ.
मैं फरमाता
जब मुँह खोलूँ.
‘चोर-चोर
मौसेरे भाई’
कहने से पहले
क्यों तोलूँ?
मन-मर्जी
अमृत-विष घोलूँ.
बैल मरखना
बनकर डोलूँ
शर-संधानूं
सब पर तक-तक.
सबके
अपने-अपने मानक
.
‘दे दूँ, ले लूँ
जब चाहे जी.
क्यों हो कुछ
चिंता औरों की.
‘आगे नाथ
न पीछे पगहा’
दुःख में सब संग
सुख हो तनहा.
बग्घी बैठूँ,
घपले कर लूँ
अपनी मूरत
खुद गढ़-पूजूं.
मेरी जय बोलो
सब झुक-झुक.
सबके
अपने-अपने मानक
१७.२.२०१५
***
नवगीत
.
मैं नहीं नव
गीत लिखता
उजासों की
हुलासों की
निवासों की
सुवासों की
खवासों की
मिदासों की
मिठासों की
खटासों की
कयासों की
प्रयासों की
कथा लिखता
व्यथा लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता
.
उतारों की
चढ़ावों की
पड़ावों की
उठावों की
अलावों की
गलावों की
स्वभावों की
निभावों की
प्रभावों की
अभावों की
हार लिखता
जीत लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता
.
चाहतों की
राहतों की
कोशिशों की
आहटों की
पूर्णिमा की
‘मावसों की
फागुनों की
सावनों की
मंडियों की
मन्दिरों की
रीत लिखता
प्रीत लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता
१७.२.२०१५
***
सामयिक लघुकथा:
ढपोरशंख
*
कल राहुल के पिता उसके जन्म के बाद घर छोड़कर सन्यासी हो गए थे, बहुत तप किया और बुद्ध बने. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर इतिहास में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.
आज राहुल के किशोर होते ही उसके पिता आतंकवादियों द्वारा मारे गए. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर देश के निर्माण में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.
सबक : ढपोरशंख किसी भी युग में हो ढपोरशंख ही रहता है.
१७-२-२०१३

रविवार, 17 दिसंबर 2023

जसाला, बुंदेली, सॉनेट, लोकोक्ति, कहावत, दोहा मुक्तिका, गीत, हृदय रोग, पीपल, वंशी,


जसाला फाउण्डेशन (पंजी) दिल्ली एवं सुप्रभात मंच (पंजी) दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में 24 दिसम्बर 2023 को आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कला, साहित्य एवं संस्कृति सम्मान -2023 के लिए चयनित नाम सर्व श्री/श्रीमती/सुश्री-

राष्ट्र विभूषण सम्मान - 2023

1- योगेश चन्द्र कुलश्रेष्ठ, वैशाली, उत्तर प्रदेश
2- प्रो. विश्वम्भर शुक्ल, लखनऊ , उत्तर प्रदेश
3- पीतम सिंह 'प्रियतम', शाहदरा , दिल्ली
3- पं. जगदीश प्रसाद शर्मा, अध्यक्ष ब्राहमण समाज, दिल्ली
5- डॉ. सुरेन्द्र वर्मा, चेयरमैन शशि पब्लिक सीनियर सेकेंडरी स्कूल, दिल्ली
6- विजय कुमार स्वर्णकार, दिल्ली
7- पवन वर्मा शाहीन, दिल्ली
8- आचार्य संजीव वर्मा सलिल, जबलपुर, मध्य प्रदेश
9- साधुराम पल्लव, हरिद्वार, उत्तराखंड
10- रमाकांत कौशिक, शाहदरा, दिल्ली
11- अरुण कुमार शर्मा, अर्वाचीन इण्टर नेशनल स्कूल, दिल्ली
12 - सी. के. शर्मा, सर्वोदय कम्प्यूटर, शाहदरा, दिल्ली
13- रामप्रकाश वर्मा, कानपुर, उत्तर प्रदेश
14- रामचरण सिंह साथी, शाहदरा, दिल्ली
15- कुलदीप कुमार, हरिद्वार, उत्तराखंड

राष्ट्र रत्न सम्मान - 2023
1- सचिन वर्मा, मल्टीनेशनल कंपनी, गुरुग्राम
2- दिव्या वर्मा, सनसिटी स्कूल गुरुग्राम
3- संदीप वर्मा, मल्टीनेशनल कंपनी, नोएडा
4- डॉ. नवीन वर्मा, दिल्ली सरकार
5- गौरव वर्मा, मल्टीनेशनल कंपनी,, अमेरिका
6- अंकिता बिजपुरिया, मल्टीनेशनल कंपनी, अमेरिका
7- डॉ. नीरज धोलियान, दिल्ली सरकार
8- शुभम धोलियान, सीए, दिल्ली
9- प्रीति वर्मा, सीए, दिल्ली

भारत गौरव सम्मान 2023
1- अशोक जैन, आरपीआर आर्ट गैलरी, दिल्ली
2- प्रभात कुमार, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
3- आर. के. जैन, शेरिडन बुक कम्पनी, नई दिल्ली
4- जितेन्द्र बच्चन, राष्ट्रीय जनमोर्चा, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
5- राजेन्द्र प्रसाद वर्मा, संस्थापक स्वर्णकार धर्मशाला, दिल्ली
6- अरुण वर्मा प्रधान, शाहदरा , दिल्ली
7- एम के राजपूत, गरिमांजलि पब्लिक स्कूल, नई दिल्ली
8- कुँवरअशोक, सुरभि पत्रिका, दिल्ली
9- ममता वर्मा, गंधर्व वैलनेस स्टूडियो, नई दिल्ली
10- ओमप्रकाश प्रजापति, ट्रू मीडिया, राजनगर, गाजियाबाद
11- योगेश कौशिक, जोशीला टाइम्स, दिल्ली
12- प्रशान्त कुमार सरकार , नई दिल्ली
13- हरस्वरुप भामा, शाहदरा, दिल्ली
14- प्रवीण आर्य, संस्थापक सतमौला कवियों की चौपाल
15- सुशील कुमार जैन, जैन साड़ी सैंटर, शाहदरा दिल्ली
16- अभिनंदन गुप्ता, हरिद्वार, उत्तराखंड

साहित्य शिरोमणि सम्मान - 2023
1- पं ज्वाला प्रसाद शांडिल्य 'दिव्य', हरिद्वार, उत्तराखंड
2- समीर उपाध्याय सलिल, गुजरात
3- वीणा शर्मा वशिष्ठ, चंडीगढ़.
4- संजु श्रीमाली, बीकानेर , राजस्थान
5- नाजुहातिकाकोति बरुआ, आसाम
6- राजेन्द्र सैन, सागर, मध्यप्रदेश
7- सोनिया गुप्ता, चंडीगढ़
8- नीता नय्यर 'निष्ठा', हरिद्वार , उत्तराखंड

साहित्य रत्न सम्मान -2023
1- श्री कमलेश कुमार वर्मा, लखनऊ
2- शारदा मदरा, दिल्ली
3- मिलन सिंह मधुर, दिल्ली
4- प्रज्ञा देवले, महेश्वर, उज्जैन, मध्य प्रदेश
5- दामोदर प्रजापति, सागर, मध्यप्रदेश
6- निशि अग्रवाल, बिजनौर, उत्तर प्रदेश
7- देवनारायण शर्मा, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश
8- रीता ग्रोवर, दिल्ली
9- वीना तँवर, गुरुग्राम , हरियाणा
10- प्रबोध मिश्र हितैषी, बड़वानी, मध्य प्रदेश
11 - नीता अग्रवाल, पूरनपुर, पीलीभीत, उत्तर प्रदेश

साहित्य विभूति सम्मान - 2023
1- दीक्षित दनकौरी, दिल्ली
2- रामकिशोर उपाध्याय, दिल्ली
3- रंजना झा, नेपाल
4- वसुधा कनुप्रिया, दिल्ली
5- विजय प्रशान्त, नोएडा, उत्तर प्रदेश
6- अनिल मीत, शाहदरा, दिल्ली

साहित्य गौरव सम्मान - 2023
1- ओमप्रकाश शुक्ल, दिल्ली
2- वीरेश प्रेम आर्य, दिल्ली
4- आदराम नायक, गजसिंहपुर, गंगानगर, राजस्थान
5- बिहारी लाल सोनी, सागर, मध्यप्रदेश
6- मीनाक्षी भटनागर, दिल्ली
7- प्रमिला पांडेय, कानपुर, उत्तर प्रदेश
8- अविनाश सैन, सागर, मध्यप्रदेश
9- मिलन सिंह मधुर, दिल्ली
10- सरोज सिंह सजल, दिल्ली
11- सुषमा शैली, दिल्ली
***
बुंदेली सॉनेट
बालम
*
जाने का का हेरत बालम,
हरदम चिपके रैत जोंक सें,
भिन्नाउत हैं रोक-टोंक सें,
नैना खूबई सेकें जालम।
सुनतइ नईं थे बरज रए हम,
लाड़ लड़ाउत रए सौक सें,
करत इसारे छिपे ओट सें, 
भए गुमसुम ज्यों फूट गओ बम। 
मोबाइल लए साँझ-सकारे,
कैते संग हमाए देखो,
बैरन ननदी आँख दिखा रई। 
इतै कूप उत खाई दुआरे, 
बिधना बिपद हमाई लेखो,
अतपर लरकोरी आफत भई।
१५-१२-२०१३  
***
बुंदेली सॉनेट 
*
छंद- चौकड़िया, १६-१२, पदांत  गुरु गुरु  
*
बेंदी करत किलोरें बाला, बाला झूला झूलें,
अँगुरी-अँगुरी सोहे मुँदरी, नथ बिजुरी सम चमकें,
गोरी-चिक्कन देह लता सी, दिप-दिप जब-तब दमकें,    
कजरा से कजरारी अँखियाँ, बाँके गलियाँ भूलें। 
खन खन खनक न जाने कैती का का चूरी ऊलें, 
'आँचर धरो सँभार ननदिया' भौजी बम सी बमकें
बीर निहोरें कछू नें कइयो, लरकौरी में इनकें, 
सूनी खोरें भईं सकारे, मन-मन मन्नत हूलें। 
पैंजन खाए चुगली बज खें, नैना झुक के बरजें, 
गाल लाल भय छतिया धड़की, लगे साँस रुकती सी, 
भोले बाबा किरपा करियो, इतै न कोऊ झाँके। 
मेघा छाए आसमान में, गड़ गड़ खूबई गरजें, 
गाँव-गली में संझा बिरिया मनो रुकी झुकती सी, 
अनबोले लें बोल-समझ जाने काअ बाँकी-बाँके। 
 १५-१२-२०१३ 
*
बुंदेली लोकोक्तियां / कहावतें

अंदरा की सूद
अपनी इज्जत अपने हाथ
अक्कल के पाछें लट्ठ लयें फिरत
अक्कल को अजीरन
अकेलो चना भार नईं फोरत
अकौआ से हाती नईं बंदत
अगह्न दार को अदहन
अगारी तुमाई, पछारी हमाई

इतै कौन तुमाई जमा गड़ी
इनईं आंखन बसकारो काटो?
इमली के पत्ता पपे कुलांट खाओ

ईंगुर हो रही

उंगरिया पकर के कौंचा पकरबो
उखरी में मूंड़ दओ, तो मूसरन को का डर
उठाई जीव तरुवा से दै मारी
उड़त चिरैंया परखत
उड़ो चून पुरखन के नाव
उजार चरें और प्यांर खायें
उनकी पईं काऊ ने नईं खायीं
उन बिगर कौन मॅंड़वा अटको
उल्टी आंतें गरे परीं

ऊंची दुकान फीको पकवान
ऊंटन खेती नईं होत
ऊंट पे चढ़के सबै मलक आउत
ऊटपटांग हांकबो

एक कओ न दो सुनो
एक म्यांन में दो तलवारें नईं रतीं

ऐसे जीबे से तो मरबो भलो
ऐसे होते कंत तौ काय कों जाते अंत

ओंधे मो डरे
ओई पातर में खायें, ओई में धेद करें
ओंगन बिना गाड़ी नईं ढ़ंड़कत

कंडी कंडी जोरें बिटा जुरत
कतन्नी सी जीव चलत
कयें खेत की सुने खरयान की
करिया अक्षर भैंस बराबर
कयें कयें धोबी गदा पै नईं चढ़त
करता से कर्तार हारो
करम छिपें ना भभूत रमायें
करें न धरें, सनीचर लगो
करेला और नीम चढो‌‌

का खांड़ के घुल्ला हो, जो कोऊ घोर कें पीले
काजर लगाउतन आंख फूटी
कान में ठेंठा लगा लये

कुंअन में बांस डारबो
कुंआ बावरी नाकत फिरत

कोऊ को घर जरे, कोऊ तापे
कोऊ मताई के पेट सें सीख कें नईं आऊत
कोरे के कोरे रे गये

कौआ के कोसें ढ़ोर नहिं मरत
कौन इतै तुमाओ नरा गड़ो

खता मिट जात पै गूद बनी रत
खाईं गकरियां, गाये गीत, जे चले चेतुआ मीत
खेत के बिजूका

गंगा नहाबो
गरीब की लुगाई, सबकी भौजाई
गांव को जोगी जोगिया, आनगांव को सिद्ध
गोऊंअन के संगे घुन पिस जात
गोली सें बचे, पै बोली से ना बचे

घरई की अछरू माता, घरई के पंडा
घरई की कुरैया से आंख फूटत
घर के खपरा बिक जेयें
घर को परसइया, अंधियारी रात
घर को भूत, सात पैरी के नाम जानत
घर घर मटया चूले हैं
घी देतन वामन नर्रयात
घोड़न को चारो, गदन कों नईं डारो जात

चतुर चार जगां से ठगाय जात
चलत बैल खों अरई गुच्चत
चित्त तुमाई, पट्ट तुमाई
चोंटिया लेओ न बकटो भराओ

छाती पै पथरा धरो
छाती पै होरा भूंजत
छिंगुरी पकर कें कोंचा पकरबो
छै महीनों को सकारो करत

जगन्नाथ को भात, जगत पसारें हाथ
जनम के आंदरे, नाव नैनसुख
जब की तब सें लगी
जब से जानी, तब सें मानी
जा कान सुनी, बा कान निकार दई
जाके पांव ना फटी बिम्बाई, सो का जाने पीर पराई
जान समझ के कुआ में ढ़केल दओ
जित्ते मों उत्ती बातें
जित्तो खात. उत्तई ललात
जित्तो छोटो, उत्तई खोटो
जैसो देस, तैसो भेष
जैसो नचाओ, तैसो नचने
जो गैल बताये सो आंगे होय
जोलों सांस, तौलों आस

झरे में कूरा फैलाबो

टंटो मोल ले लओ
टका सी सुनावो
टांय टांय फिस्स

ठांडो‌ बैल, खूंदे सार

ढ़ोर से नर्रयात

तपा तप रये
तरे के दांत तरें, और ऊपर के ऊपर रै गये
तला में रै कें मगर सों बैर
तिल को ताड़ बनाबो
तीन में न तेरा में, मृदंग बजाबें डेरा में
तुम जानो तुमाओ काम जाने
तुम हमाई न कओ, हम तुमाई न कयें
तुमाओ मो नहिं बसात

तुमाओ ईमान तुमाय संगे
तुमाये मों में घी शक्कर
तेली को बैल बना रखो

थूंक कैं चाटत

दबो बानिया देय उधार
दांत काटी रोटी
दांतन पसीना आजे
दान की बछिया के दांत नहीं देखे जात

धरम के दूने

नान सें पेट नहीं छिपत
नाम बड़े और दरसन थोरे
निबुआ, नोंन चुखा दओ
नौ खायें तेरा की भूंक
नौ नगद ना तेरा उधार

पके पे निबौरी मिठात
पड़े लिखे मूसर
पथरा तरें हाथ दबो
पथरा से मूंड़ मारबो
पराई आंखन देखबो
पांव में भौंरी है
पांव में मांदी रचायें
पानी में आग लगाबो
पिंजरा के पंछी नाईं फरफरा रये
पुराने चांवर आयें
पेट में लात मारबो

बऊ शरम की बिटिया करम की
बचन खुचन को सीताराम
बड़ी नाक बारे बने फिरत
बातन फूल झरत

मरका बैल भलो कै सूनी सार
मन मन भावे, मूंड़ हिलाबे
मनायें मनायें खीर ना खायें जूठी पातर चांटन जायें
मांगे को मठा मौल बराबर
मीठी मीठी बातन पेट नहीं भरत
मूंछन पै ताव दैवो
मौ देखो व्यवहार

रंग में भंग
रात थोरी, स्वांग भौत

लंका जीत आये
लम्पा से ऐंठत
लपसी सी चांटत
लरका के भाग्यन लरकोरी जियत
लाख कई पर एक नईं मानी

सइयां भये कोतबाल अब डर काहे को
सकरे में सम्धियानो
समय देख कें बात करें चइये
सोउत बर्रे जगाउत
सौ ड़ंडी एक बुंदेलखण्डी
सौ सुनार की एक लुहार की

हम का गदा चराउत रय
हरो हरो सूजत
हांसी की सांसी
हात पै हात धरें बैठे
हात हलाउत चले आये
होनहार विरबान के होत चीकने पात
हुइये सोई जो राम रचि राखा
***
सॉनेट
आशा पुष्पाती रहे, किरण बखेर उजास।
गगन सरोवर में खिले, पूनम शशि राजीव सम।
सुषमा हेरें नैन हो, मन में खुशी हुलास।।
सुमिर कृष्ण को मौन, हो जाते हैं बैन नम।।
वीणा की झंकार सुन, वाणी होती मूक।
ज्ञान भूल कर ध्यान, सुमिर सुमिर ओंकार।
नेत्र मुँदें शारद दिखें, सुन अनहद की कूक।।
चित्र गुप्त झलके तभी, तर जा कर दीदार।।
सफल साधना सिद्धि पा, अहंकार मत पाल।
काम-कामना पालकर, व्यर्थ न तू होना दुखी।
ढाई आखर प्रेम के, कह हो मालामाल।
राग-द्वेष से दूर, लोभ भुला मन हो सुखी।।
दाना दाना फेरकर, नादां बन रह लीन।
कर करतल करताल, हँस बजा भक्ति की बीन।।
१६-१२-२०२१
***
त्वरित कविता
*
दागी है जो दीप, बुझा दो श्रीराधे
आगी झट से उसे लगा दो श्रीराधे
रक्षा करिए कलियों की माँ काँटों से
माँगी मन्नत शांति दिला दो श्रीराधे
१६-१२-२०१९
***
दोहा मुक्तिका
*
दोहा दर्पण में दिखे, साधो सच्चा रूप।
पक्षपात करता नहीं, भिक्षुक हो या भूप।।
*
सार-सार को गह रखो, थोथा देना फेंक।
मनुज स्वभाव सदा रखो, जैसे रखता सूप।।
*
प्यासा दर पर देखकर, द्वार न करना बंद।
जल देने से कब करे, मना बताएँ कूप।।
*
बिसरा गौतम-सीख दी, तज अचार-विचार।
निर्मल चीवर मलिन मन, नित प्रति पूजें स्तूप।।
*
खोट न अपनी देखती, कानी सबको टोंक।
सब को कहे कुरूप ज्यों, खुद हो परी अनूप।।
१६-१२-२०१८
***
गीत:
दरिंदों से मनुजता को जूझना है
.
सुर-असुर संघर्ष अब भी हो रहा है
पा रहा संसार कुछ, कुछ खो रहा है
मज़हबी जुनून पागलपन बना है
ढँक गया है सूर्य, कोहरा भी घना है
आत्मघाती सवालों को बूझना है
.
नहीं अपना या पराया दर्द होता
कहीं भी हो, किसी को हो ह्रदय रोता
पोंछना है अश्रु लेकर नयी आशा
बोलना संघर्ष की मिल एक भाषा
नाव यह आतंक की अब डूबना है
.
आँख के तारे अधर की मुस्कुराहट
आये कुछ राक्षस मिटाने खिलखिलाहट
थाम लो गांडीव, पाञ्चजन्य फूंको
मिटें दहशतगर्द रह जाएँ बिखरकर
सिर्फ दृढ़ संकल्प से हल सूझना है
.
जिस तरह का देव हो, वैसी ही पूजा
दंड के अतिरिक्त पथ वरना न दूजा
खोदकर जड़, मठा उसमें डाल देना
तभी सूझेगा नयन कर रुदन सूजा
सघन तम के बाद सूरज ऊगना है
*
***
आयुर्वेद
हृदय रोग चिकित्सा- पीपल पत्ता
99 प्रतिशत ब्लॉकेज को भी रिमूव कर देता है पीपल का पत्ता....
पीपल के १५ हरे-कोमल पत्तों का ऊपर व नीचे का कुछ भाग कैंची से काटकर अलग कर दें। पत्ते का बीच का भाग पानी से साफ कर लें। इन्हें एक गिलास पानी में धीमी आँच पर पकने दें। जब पानी उबलकर एक तिहाई रह जाए तब ठंडा होने पर साफ कपड़े से छान लें और उसे ठंडे स्थान पर रख दें, दवा तैयार।
सुपाच्य व हल्का नाश्ता करने के बाद इस काढ़े की तीन खुराकें प्रत्येक तीन घंटे बाद प्रातः लें। खुराक लेने से पहले पेट एक दम खाली नहीं होना चाहिए। लगातार पंद्रह दिन तक इसे लेने से हृदय पुनः स्वस्थ हो जाता है और फिर दिल का दौरा पड़ने की संभावना नहीं रहती। दिल के रोगी इस नुस्खे का एक बार प्रयोग अवश्य करें। प्रयोगकाल में तली चीजें, चावल आदि न लें। मांस, मछली, अंडे, शराब, धूम्रपान का प्रयोग बंद कर दें। नमक, चिकनाई का प्रयोग बंद कर दें। अनार, पपीता, आंवला, बथुआ, लहसुन, मैथी दाना, सेब का मुरब्बा, मौसंबी, रात में भिगोए काले चने, किशमिश, गुग्गुल, दही, छाछ आदि लें । पीपल के पत्ते में दिल को बल और शांति देने की अद्भुत क्षमता ह, संभवत: पीपल-पत्र का हृदयाकार यही बताता है।
***
एक हाइकु-
बहा पसीना
चमक उठी देह
जैसे नगीना।
***
नवगीत:
जितनी रोटी खायी
की क्या उतनी मेहनत?
.
मंत्री, सांसद मान्य विधायक
प्राध्यापक जो बने नियामक
अफसर, जज, डॉक्टर, अभियंता
जनसेवक जन-भाग्य-नियंता
व्यापारी, वकील मुँह खोलें
हुए मौन क्यों?
कहें न तुहमत
.
श्रमिक-किसान करे उत्पादन
बाबू-भृत्य कर रहे शासन
जो उपजाए वही भूख सह
हाथ पसारे माँगे राशन
कब बदलेगी परिस्थिति यह
करें सोचने की
अब ज़हमत
.
उत्पादन से वेतन जोड़ो
अफसरशाही का रथ मोड़ो
पर्यामित्र कहें क्यों पिछड़ा?
जो फैलाता कैसे अगड़ा?
दहशतगर्दों से भी ज्यादा
सत्ता-धन की
फ़ैली दहशत
१६-१२-२०१४
***
वंशी और वास्तु :
(बांसुरीवादन व स्थापन से वास्तुदोष परिहार)
वंशी का पौराणिक इतिहास:
भगवान श्रीकृष्ण और वंशी एक दुसरे के बिना अधूरे हैं, प्रभु श्रीकृष्ण की वंशी तो शब्दब्रह्म का प्रतीक है। ऐसा भी समझा जाता है कि बांसनिर्मित वंशी के आविष्कारक संभवतः कन्हैयाजी ही हैं | साथ-साथ ऐसा भी कहा जाता है की ब्रह्मा के किसी शाप वश उनकी मानस पुत्री माँ सरस्वती को बॉस रूपी जड़रूप में धरती पर आना पडा था किन्तु किसी संयोग वश जड़ होने से पूर्व उन्होंने एक सहस्त्र वर्ष तक भगवत-प्राप्ति के लिए तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर प्रभु ने कृष्णावतार में उन्हें अपनी सहचरी बनाने का वरदान दिया | तब उन्होंने ब्रह्माजी के शाप का स्मरण करके प्रभु से कहा, " हे प्रभु! मैं तो जड़बांस के रूप में जन्म लेने के लिए श्रापग्रस्त हूँ |" यह सुनकर प्रभु ने कहा, "यद्यपि तुम्हें जन्म चाहे जड़ रूप में मिलेगा, तथापि मैं तुम्हें अपनाकर तुम में ऐसी प्राण-शक्ति अवश्य भर दूंगा जिससे तुम एक विलक्षण चेतना का अनुभव करके अपनी जड़ों को सदैव के लिए चैतन्य बनाए रख सकोगी |" तब से इस जगत में प्रभु के अधरों पर वंशी, मुरली, वेणु या बांसुरी के रूप में वस्तुतः ब्रह्मा जी की मानस पुत्री सरस्वती जी ही निरंतर विराजमान हैं | वंशी या बांसुरी का वर्णन सबसे पहले सामवेद में ही मिलता है | वस्तुतः बांसुरी संगीत के सप्त स्वरों की एक साथ प्रस्तुति का सर्वोत्तम वाद्ययंत्र है |
वंशी, मुरली, वेणु या बांसुरी की मधुर धुन तन-मन को परमानंद से भर देती है | यह क्या जड़ क्या चेतन सभी के मन का हरण कर लेती है इसके गीत की धुन सुनकर गोपियाँ अपनी सुध-बुध तक खो बैठती थीं. गोपियाँ तो गोपियाँ, वहां की सारी गायें तक इस धुन से आकर्षित होकर कन्हैया के सम्मुख आ उपस्थित होती थीं | वंशी की तान सुनकर आज भी हम सभी को असीमित आनंद की अनुभूति होती है | कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के लिए इसे बजाने से पूर्व एक बार इसकी अभूतपूर्व परीक्षा भी ली थी | एक दिन उनके वंशीवादन करते ही वास्तव में यमुना की गति ही रूक गई तदनंतर एक दिन वृन्दावन के पाषाण तक वंशी ध्वनि का श्रवण कर द्रवीभूत हो उठे साथ-साथ पशु-पक्षी व देवताओं के विमान आदि की गति भी रूक गई, जिससे सभी स्तब्ध हो उठे | इस प्रकार जब वंशी की पूर्ण परीक्षा हो गई तब श्यामसुन्दर ने अपनी ब्रजगोपांगनाओं के लिए वंशी बजाई | जिन ब्रजदेवियों ने वंशीगीत सुना वे सभी अपनी सुधबुध ही खो बैठीं साथ-साथ उन सभी के अंत करण में किशोर श्यामसुन्दर का सुन्दर मनोहारी स्वरूप विराजमान हो गया | ब्रह्म, रूद्र, इन्द्र आदि ने भी उस वंशी का सुर सुना, वे सभी एक विशेष भाव में मुग्ध तो हुए, उनमें से किसी-किसी की समाधि भी भंग हुई परन्तु वंशी का तात्विक रहस्य निश्चिंत रूपेण उस समय किसी को भी ज्ञात न हो सका | यह भी कहा जाता है कि एक बार राधा जी ने बांसुरी से पूछा, "हे बांसुरी! यह बताइये कि मैं कृष्ण जी को इतना प्रेम करती हूं, फिर भी मैं अनुभव कर रही हूँ कि मेरे श्याम मुझसे अधिक तुमसे प्रेम करते है, वह तुम्हे सदैव ही अपने होठों से लगाये रखते है, इसका क्या राज है? तब विनीत भाव से बांसुरी ने सुरीले स्वर में कहा, "प्रिय राधे! प्रभु के प्रेम में पहले मैंने अपने तन को कटवाया, फिर से काट-छाँट कर अलग करके जलती आग में तपाकर सीधी की गई, तद्पश्चात मैंने अपना मन भी कटवाया, अर्थात बीच में से आर-पार एकदम पूरी की पूरी खाली कर दी गई | फिर जलते हुए छिद्रक से समस्त अंग-अंग छिदवाकर स्वयं में अनेक सुराख़ करवाये | तदनंतर कान्हा ने मुझे जैसे बजाना चाहा मै ठीक वैसे ही अर्थात उनके आदेशानुसार ही बजी |अपनी मर्ज़ी से तो मैं कभी भी नहीं बज सकी | बस हममें व तुममें एकमात्र यही अंतर है कि मैं कन्हैया की मर्ज़ी से चलती हूं और तुम कृष्णजी को अपनी मर्ज़ी से चलाना चाहती हो!" वस्तुतः यह प्रेम में त्याग व समर्पण की पराकाष्ठा है | वंशी हमें सदैव यही सन्देश देती है कि हम अपने प्रभु की इच्छानुसार ही सत्कर्म करके अपना जीवनमार्ग प्रशस्त करें ! यह कदापि उचित नहीं कि हम अपने हठयोग से उन्हें विवश करें कि प्रभु हमारे जीवनमार्ग का निर्धारण हमारी इच्छानुसार ही करें |
वास्तु दोष परिहार :
एक समय था जब अधिकाँश घरों में कोई न कोई व्यक्ति वंशी बजाने में प्रवीण होता ही होता था | यहाँ तक कि अपने लोक गीतों में भी कहा गया है कि "देवर जी आवैं वंशी बजावैं" किन्तु आज के आधुनिक दौर में अपने देश में गिने चुने बांसुरीवादक ही रह गए हैं जबकि विदेशों में इसे अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है | चायना जैसे देश में तो अधिकांश लडकियाँ तक बांसुरी वादन में प्रवीण हैं वहां की वास्तु विद्या फेंगशुई के अनुसार वास्तु दोष के निवारण हेतु बांस की बांसुरी का प्रयोग अति उत्तम है लो पिच पर उत्पन्न की गयी इसकी शंख समान ध्वनि से आस-पास के वातावरण में व्याप्त सूक्ष्म वायरस तक नष्ट हो जाते हैं | यह धनात्मक ऊर्जा का सर्वश्रेष्ठ स्रोत है जिसकी उपस्थिति में नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है | फेंग-शुई में ऐसी मान्यता है कि इसे लाल धागे में बाँध कर भवन के मुख्य द्वार पर क्रास रूप में दो बांसुरी एक साथ लगाने से भवन में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश नहीं हो पाता है और अचानक आने वाली मुसीबतें दूर हो जाती हैं | शिक्षा, व्यवसाय या नौकरी में बाधा आने पर शयन कक्ष के दरवाजे पर दो बांसुरियों को लगाना शुभ फलदायी होता है | ऐसी भी मान्यता है कि बीम के नीचे बैठकर काम करने, भोजन करने व सोने से दिमागी बोझ व अशान्ति बनी रहती है किन्तु उसी बीम के नीचे यदि लाल धागे में बांधकर बांसनिर्मित वंशी लटका दी जाय तो इस दोष का परिहार हो जाता है | बीमार व्यक्ति के तकिये के नीचे बांसुरी रखने से रोगमुक्ति होगी है | यह भी मान्यता है कि यदि घर के अंदर किसी तरह की बुरी आत्मा या अशुभ चीजों का संदेह हो तो इसे घर की दीवार पर तलवार की तरह लटकाकर इन चीजों से घर को मुक्त किया जा सकता है साथ-साथ यदि वैवाहिक जीवन ठीक न चल रहा हो तो सोते-समय इसे सिराहने के नीचे रखने से आपसी तनाव आदि दूर हो जाता है | जन्माष्टमी के दिन बांसुरी को सजाकर भगवान कृष्ण के समझ रखकर इसकी पूजा करने से घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है | धर्मग्रंथों के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण को बांसुरी अत्यधिक प्रिय है और वे इसे सदैव अपने साथ ही रखते हैं इसी कारण से इसे अति पवित्र व पूज्यनीय माना जाता है | यह भी भगवान् श्रीकृष्ण का वरदान ही है कि जिस स्थान पर बांसुरीवादन होता रहता है वह स्थान वास्तुदोष जनित दुष्प्रभावों व बीमारियों से पूर्णतः सुरक्षित रहता है | वहां पर परिवार के सदस्यों के विचार सकारात्मक हो जाते हैं जिससे उन्हें सभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती है | बांसुरी से निकलने वाला स्वर प्रेम बरसाने वाला ही है | इसी वजह से जिस घर में बांस निर्मित बांसुरी रखी होती है वहां पर प्रेम और धन की कोई कमी नहीं रहती है साथ साथ सभी दुःख व आर्थिक तंगी भी दूर हो जाती है |
सहज उपलब्धता :
बजाने योग्य वंशी आमतौर पर वाद्ययंत्रों की दुकानों पर सहजता से उपलब्ध हो जाती है | वैसे तो अक्सर किसी भी मेले में बांसुरी बेचने वाले दिखाई दे जाते हैं किन्तु उनके पास बहुत छाँट-बीन करने के उपरान्त भी बहुत कम ही बजाने योग्य बाँसुरियाँ उपलब्ध हो पाती हैं | कुंछएक बैंड की दुकानों पर भी बिक्री के लिए यह उपलब्ध हो जाती है | इसके विभिन्न ट्यून की तेरह, अठारह व चौबीस बांसुरियों के ट्यून्ड सेट भी उपलब्ध हो जाते हैं जिनकी अधिकतर आपूर्ति उत्तर प्रदेश के पीलीभीत शहर से की जाती है | नबी एण्ड संस यहाँ के प्रमुख बांसुरी निर्माता हैं जो विदेशों तक में बांसुरी का निर्यात करते हैं | पीलीभीत को बांसुरी नगरी के नाम से भी जाना जाता है |
कुछ प्रसिद्द व प्रमुख बांसुरी वादक :
भगवान् श्रीकृष्ण (सर्वश्रेष्ठ बांसुरी वादक)
पंडित पन्नालाल घोष
पंडित भोलानाथ
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया
पंडित रघुनाथ सेठ
पंडित विजय राघव राव
पंडित देवेन्द्र
पंडित देवेन्द्र गुरूदेश्वर
पंडित रोनू मजूमदार
पंडित रूपक कुलकर्णी
बांसुरी वादक श्री राजेंद्र प्रसन्ना
बांसुरी वादक श्री एन रामानी
बांसुरी वादक श्री समीर राव
पंडित प्रमोद बाजपेयी (वरिष्ठ एडवोकेट)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री नरेन्द्र मोदी (वर्तमान प्रधानमंत्री भारत सरकार)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री लालकृष्ण आडवानी (वरिष्ठ राजनेता)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री मुक्तेश चन्द्र (पुलिस कमिश्नर)
बांसुरी वादक श्री बलबीर कुमार (कनॉट प्लेस सब वे पर बांसुरी विक्रेता व बांसुरी-शिक्षक) आदि..
आज के दौर में बांसुरी वादकों की संख्या बहुत ही कम रह गयी है | कहीं-कहीं पर ये खोजने से भी नहीं मिल पाते हैं | इसका प्रमुख कारण हमारे संस्कारों की क्षति व पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण ही है | हमारी सरकारों व समाज को इस ओर ध्यान देकर बांसुरीवादकों के लिए सम्मानजनक रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने चाहिए |
मुक्तक:
अधरों पर मुस्कान, आँख में चमक रहे
मन में दृढ़ विश्वास, ज़िन्दगी दमक कहे
बाधा से संकल्प कहो कब हारा है?
आओ! जीतो, यह संसार तुम्हारा है
***
दोहा:
पलकर पल भर भूल मत, पालक का अहसान
गंध हीन कटु स्वाद पर, पालक गुण की खान
१६-१२-२०१४
*

शनिवार, 8 जनवरी 2022

सॉनेट, दोहा, मुहावरा, कहावत, लोकोक्ति, धन

भारत की माटी 
*
जड़ को पोषण देकर 
नित चैतन्य बनाती।
रचे बीज से सृष्टि 
नए अंकुर उपजाति। 
पाल-पोसकर, सीखा-पढ़ाती। 
पुरुषार्थी को उठा धरा से 
पीठ ठोंक, हौसला बढ़ाती। 
नील गगन तक हँस पहुँचाती। 
किन्तु स्वयं कुछ पाने-लेने 
या बटोरने की इच्छा से 
मुक्त वीतरागी-त्यागी है। 
*
सुख-दुःख, 
धूप-छाँव हँस सहती। 
पीड़ा मन की 
कभी न कहती। 
सत्कर्मों पर हर्षित होती। 
दुष्कर्मों पर धीरज खोती।  
सबकी खातिर 
अपनी ही छाती पर
हल बक्खर चलवाती,
फसलें बोती। 
*
कभी कोइ अपनी जड़ या पग 
जमा न पाए। 
आसमान से गर गिर जाए। 
तो उसको 
दामन में अपने लपक छिपाती,
पीठ ठोंक हौसला बढ़ाती। 
निज संतति की अक्षमता पर 
ग़मगीं होती, राह दिखाती। 
मरा-मरा से राम सिखाती। 
इंसानों क्या भगवानो की भी 
मैया है भारत की माटी। 
***  
गीत 
आज नया इतिहास लिखें हम। 

अब तक जो बीता सो बीता 
अब न हास-घट होगा रीता 
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता 
अब न कभी लांछित हो सीता 
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब 
हया, लाज, परिहास लिखें हम 

रहें न हमको कलश साध्य अब 
कर न सकेगी नियति बाध्य अब 
सेह-स्वेद-श्रम हो आराध्य अब 
पूँजी होगी महज माध्य अब
श्रम पूँजी का भक्ष्य न हो अब 
शोषक हित खग्रास लिखें हम  

मिल काटेंगे तम की कारा 
उजियारे के हों पाव बारा 
गिर उठ बढ़कर मैदां मारा 
दस दिश में गूँजे जयकारा।
कठिनाई में संकल्पों का 
कोशिश कर नव हास , लिखें हम  
आज नया इतिहास लिखें हम।  
*    
सॉनेट
तिल का ताड़
*
तिल का ताड़ बना रहे, भाँति-भाँति से लोग।
अघटित की संभावना, क्षुद्र चुनावी लाभ।
बौना खुद ओढ़कर, कहा न हो अजिताभ।।
नफरत फैला समझते, साध रहे हो योग।।

लोकतंत्र में लोक से, दूरी, भय, संदेह।
जन नेता जन से रखें, दूरी मन भय पाल।
गन के साये सिसकता, है गणतंत्र न ढाल।।
प्रजातंत्र की प्रजा को, करते महध अगेह।।

निकल मनोबल अहं का, बाना लेता धार।
निज कमियों का कर रहा, ढोलक पीट प्रचार।
जन को लांछित कर रहे, है न कहीं आधार।

भय का भूत डरा रहा, दिखे सामने हार।।
सत्ता हित बनिए नहीं, आप शेर से स्यार।।
जन मत हेतु न कीजिए, नौटंकी बेकार।।
८-१-२०२२
*
मनरंजन
मुहावरों ,लोकोक्तियों, गीतों में धन
संजीव
*
०१. टके के तीन।
०२. कौड़ी के मोल।
०३. दौलत के दीवाने
०४. लछमी सी बहू।
०५. गृहलक्ष्मी।
०६. नौ नगद न तरह उधार।
०७. कौड़ी-कौड़ी को मोहताज।
०८. बाप भला न भैया, सबसे भला रुपैया।
०९. घर में नईंयाँ दाने, अम्मा चली भुनाने।
१०. पुरुष पुरातन की वधु, क्यों न चंचला होय?
११. एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गाँधी की।
१२. पीर बबर्ची भिश्ती खर।
१३. पूत सपूत तो क्यों धन संचै, पूत कपूत तो क्यों धन संचै?
१४. फरेगा तो झरेगा।
१५. आए खाली हाथ हैं, जाना खाली हाथ।
१६. अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।
१७. मिट्टी मोल।
१७. सूम का धन शैतान खाय।
१८, सामन सौ बरस का है, पल की खबर नहीं।
१९. सौ सुनार की एक लुहार की।
२०. पइसा ना कौड़ी, बाजार जाए दौड़ी।
२१. विप्र टहलुआ अजा धन और कन्या की बाढि़।
इतने से ना धन घटे तो, करैं बड़ेन सों रारि।
२२. धन के पन्द्रा मकर पचीस। जाड़ा परै दिना चालीस। (अवधी)
२२. सूमी का धन अइसे जाय। जइसे कुंजर कैथा खाय।
२३. सोनरवा की ठुक ठुक, लोहरवा की धम्म।
२४. खेल खिलाड़ी का, पैसा मदारी का।
२५. गरीबी में गीला आटा।
२६. खेल खतम, पैसा हजम। गीत
०१. आमदनी अठन्नी और खरचा रुपैया
तो भैया ना पूछो, ना पूछो हाल, नतीजा ठनठन गोपाल
०२. पाँच रुपैया, बारा आना, मारेगा भैया ना ना ना ना -चलती का नाम गाड़ी
०३. चाँदी की दीवार न तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया
एक धनवान की बेटी ने निर्धन का दमन छोड़ दिया
८-१-२०२१
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दोहा सलिला

लज्जा या निर्लज्जता, है मानव का बोध
समय तटस्थ सदा रहे, जैसे बाल अबोध
८-१-२०१८