कविता:
तुम, मेरी देवी
खिलखिला उठती,
विमल नाम अधर पर,
तुम धरती पर उतर आयी हो ।
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तुम, मेरी देवी
-- विजय निकोर
भोर की अप्रतिम ओस में धुली
निर्मल, निष्पाप
प्रभात की हँसी-सी
कभी दोपहर की ऊष्मा ओढ़े
फिर पीली शाम-सी सरकती
तुम्हारी याद
रात के अँधेरे में घुल जाती है ।
निद्राविही न कँटीले पहरों में
अपने सारे रंग
मुझमें निचोड़ जाती है,
और एक और भोर के आते ही
कुंकुम किरणों का घूँघट ओढ़े
शर्मीली-सी लौट आती है फिर ।
कन्हैया की वंशी-धुन में समायी
वसन्त पंचमी की पूजा में सरस्वती बनी,
शंभुगिरि के शिख़र पर पार्वती-सी,
मेरे लिये
तुम वीणा में अंतर्निहित स्वर मधुर हो ।
हर आराधना में तुम्हारा
मेरी अंतर्भावना में मुझे तो लगता है
पिघलते हिमालय के शोभान्वित शिख़र से
पावन गंगा बनी
११ जुलाई, २०१०