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शनिवार, 30 दिसंबर 2017

yaksha prashna 1

यक्ष प्रश्न १ 
*
कहते हैं 'जो ब्रम्ह को जानता है वही ब्राम्हण होता है.' 
ब्राम्हण सभाओं में कितने ब्राम्हण हैं? 
क्या वे अन्यों को ब्रम्ह का ज्ञान कर ब्राम्हण बनाने में समर्थ और इच्छुक हैं? 
यदि नहीं तो जन्मना जातिवाद की दुहाई देकर सनातन धर्मी समाज को विभाजित करना अनुचित नहीं है क्या?

***
आपके उत्तर की प्रतीक्षा है. 

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

vimarsh/chintan

विमर्श / चिंतन 
ब्राह्मण और कायस्थ कौन हैं?
※※※※※※※※

सनातन धर्म के अनुसार मनुष्य  अपनी योग्यता के अनुसार अपने कर्मों का संपादन कर तदनुसार वर्ण पाता है। एक वर्ण के माता-पिता से जन्मा व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कर्म कर तदनुसार वर्ण पा सकता सकता है। चारों वर्ण समान हैं, कोई किसी से ऊँचा या नीचा नहीं है। ब्राम्हण बुद्धिमान, क्षत्रिय वीर, वैश्य दुनदार तथा शूद्र सेवाभावी है। हर व्यक्ति प्रतिदिन चारों वर्ण हेतु निर्धारित कर्म करता है।    
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्‌ भवेत द्विजः।
वेद पाठात्‌ भवेत्‌ विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।। -- यास्क मुनि  
हर व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।
(ब्रम्ह कौन है? ब्रम्हं सत्यं जगन्मिथ्या ब्रम्ह सत्य है जगत मिथ्या है। ब्रम्ह भौतिक सृष्टि की रचना करनेवाली शक्ति या परमात्मा है अंश आत्मा के रूप में हर प्राणी ही नहीं जड़ में भी है। इसीलिए कण-कण  या कंकर-कंकर में शंकर कहा जाता है।) जब सभी में परमात्मा का  आत्मा के रूप में है तो कोई ऊँचा या नीचा कैसे हो सकता है? 
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विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्।
विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥ -- पतंजलि, (पतंजलि भाष्य ५१-११५)।
''विद्या और तप युक्त योनि में स्थित ही ब्राम्हण है जिसमें विद्या तथा तप नहीं है वह नाममात्रका ब्राह्मण है, पूज्य नहीं। '' 
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विधाता शासिता वक्ता मो ब्राह्मण उच्यते।
तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥ -महर्षि मनु 
ईश्वर द्वारा शासित अर्थात सांसारिक शक्तियों से अधिक ईश्वरीय शक्तियों  नियंत्रण माननेवाला ब्राम्हण कहा जाता है।उसका अमंगल चाहना  अनुचित है। '' (मनु; ११-३५)।
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"जो जन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण नहीं हे उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो" - वेदव्यास, महाभारत 
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"जो निष्कारण (आसक्ति के बिना) वेदों के अध्ययन में व्यस्त और वैदिक विचार के संरक्षण-संवर्धन हेतु सक्रिय है वही ब्राह्मण हे." - -महर्षि याज्ञवल्क्य, पराशर व वशिष्ठ शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०., पराशर स्मृति

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"शम, दम, करुणा, प्रेम, शील(चारित्र्यवान), निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण है"-श्री कृष्ण, भगवदगीता             ----------------------------              
"ब्राह्मण वही है जो "पुंसत्व" से युक्त "मुमुक्षु" है। जो सरल, नीतिवान, वेदप्रेमी, तेजस्वी, ज्ञानी है।  जिसका ध्येय वेदों का अध्ययन-अध्यापन-संवर्धन है।"- शंकराचार्य विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह, आत्मा-अनात्मा विवेक
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केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं, कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है। 
इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में हैं। 

(क) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | वे ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना कर ब्राम्हण हुए | ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|
(ख) ऐलूष ऋषि दासीपुत्र, जुआरी और दुश्चरित्र थे | बाद में बोध होने पर अध्ययनकर ऋग्वेद पर अनुसन्धान व अविष्कार किये | ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(ग) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु सत्य निष्ठा के कारण ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(घ) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
( ङ) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(च) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र क्षत्रिय, प्रपौत्र ब्राम्हण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(छ) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(ज) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(झ) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
() क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए | इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं |
(ट) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(ठ) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |
(ड) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(ढ) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(ण) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(त) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
(थ) कश्मीर के महामंत्री कल्हण राजतरंगिणी ग्रन्थ की रचना कर ब्राम्हण हुए, उनके पिता कायस्थ, लीत्तमः ब्राम्हण तथा प्रपितामह कायस्थ थे।  
'सर्वं खल्विदं ब्रह्मं' अर्थात सकल सृष्टि ब्रम्ह है, जो अजन्मा तथा अविनाशी है। थेर्मोडायनामिक्स के अनुसार ऊर्जा न तो बनाई जा सकती है, न नष्ट होती है उसका रूपांतरण (कायांतरण) ही किया जा सकता है। यह ऊर्जा ही ब्रम्ह है जो न बनाई जा सकती है, न नष्ट की जा सकती है तथा जिससे सकल सृष्टि का निर्माण होता है। इस ऊर्जा का कोई रूप-आकार भी नहीं है।  यह निराकार है जो कोई भी रूप ले सकती है। निराकार होने के कारण इसका कोई चित्र नहीं है अर्थात चित्र गुप्त है।  यह ऊर्जा जब किसी काया में स्थित होती है तो कायस्थ कही जाती है 'कायस्थिते स: कायस्थ:। परम ऊर्जा ही आत्मा रूप में जड़ को चेतन बनाती है। इससे विज्ञान अभी अपरिचित है।   
परम ऊर्जा जब सृष्टि में निर्माण करती है तो ब्रम्हा, संधारण या पालन करती है तो विष्णु और विनाश करती है तो शंकर कही जाती है। जीवन है तो प्रश् हैं, उत्तर हैं। जीवन नहीं तो प्रश्न या शंकाएं नहीं, तभी शंकर शंकारि (शंका के शत्रु) अर्थात विश्वास कहे गए हैं। 
''भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वास रुपिणौ'' -तुलसीदास, मानस 
विश्वास में विष का वास भी है, इसलिए शंकर नीलकंठ हैं। 
परमऊर्जा या परमात्मा आत्मा रूप में सकल जगत में होने के कारन सबसे पहले पूज्य कहा गया है'
''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहिनां। " अर्थात चित्र गुप्र (निराकार परमेश्वर) सबसे पहले प्रणाम के योग्य है क्योंकि वह सब देहधारियों में आत्मा रूप में वास करता है।  
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शनिवार, 20 सितंबर 2014

bramhanon ki kutilata:

विमर्श: श्रम और बुद्धि 

ब्राम्हणों ने अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिये ग्रंथों में अनेक निराधार, अवैज्ञानिक, समाज के लिए हानिप्रद और सनातन धर्म के प्रतिकूल बातें लिखकर सबका कितना अहित किया? तो पढ़िए व्यास स्मृति विविध जातियों के बारे में क्या कहती है?

जानिए और बताइये क्या हमें व्यास का सम्मान कारण चाहिए???

व्यास स्मृति, अध्याय १

वर्द्धकी नापितो गोपः आशापः कुम्भकारकः
वीवक किरात कायस्थ मालाकर कुटिम्बिनः 
एते चान्ये च वहवः शूद्रा भिन्नः स्वकर्मभिः    -१०
चर्मकारः भटो भिल्लो रजकः पुष्ठकारो नट:
वरटो भेद चाण्डाल दासं स्वपच कोलकाः        -११
एते अन्त्यज समाख्याता ये चान्ये च गवारान:
आशाम सम्भाषणाद स्नानं दशनादरक वीक्षणम् -१२

अर्थ: बढ़ई, नाई, अहीर, आशाप, कुम्हार, वीवक, किरात, कायस्थ, मालाकार कुटुम्बी हैं। ये भिन्न-भिन्न कर्मों के कारण शूद्र हैं. चमार, भाट, भील, धोबी, पुस्तक बांधनेवाले, नट, वरट, चाण्डालों, दास, कोल आदि माँसभक्षियों अन्त्यज (अछूत) हैं. इनसे बात करने के बाद स्नान तथा देख लेने पर सूर्य दर्शन करना चाहिए। 

उल्लेख्य है कि मूलतः ब्राम्हण और कायस्थ दोनों की उत्पत्ति एक ही मूल ब्रम्ह या परब्रम्ह से है। दोनों बुद्धिजीवी रहे हैं. बुद्धि का प्रयोग कर समाज को व्यवस्थित और शासित करनेवाले अर्थात राज-काज को मानव की उन्नति का माध्यम माननेवाले कायस्थ (कार्यः स्थितः सह कायस्थः) तथा बुद्धि के विकास और ज्ञान-दान को मानवोन्नति का मूल माननेवाले ब्राम्हण (ब्रम्हं जानाति सः ब्राम्हणाः) हुए। 

ये दोनों पथ एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए ब्राम्हणों ने वैसे ही निराधार प्रावधान किये जैसे आजकल खाप के फैसले और फतवे कर रहे हैं. उक्त उद्धरण में व्यास ने ब्राम्हणों के समकक्ष कायस्थों को श्रमजीवी वर्ग के समतुल्य बताया और श्रमजीवी कर्ज को हीन कह दिया। फलतः, समाज विघटित हुआ। बल और बुद्धि दोनों में श्रेष्ठ कायस्थों का पराभव केवल भुज बल को प्रमुख माननेवाले क्षत्रियों के प्रभुत्व का कारण बना। श्रमजीवी वर्ग ने अपमानित होकर साथ न दिया तो विदेशी हमलावर जीते, देश गुलाम हुआ। 

इस विमर्श का आशय यह कि अतीत से सबक लें। समाज के उन्नयन में हर वर्ग का महत्त्व समझें, श्रम को सम्मान देना सीखें। धर्म-कर्म पर केवल जन्मना ब्राम्हणों का वर्चस्व न हो। होटल में ५० रु. टिप देनेवाला रिक्शेवाले से ५-१० रु. का मोल-भाव न करे, श्रमजीवी को इतना पारिश्रमिक मिले कि वह सम्मान से परिवार पाल सके। पूंजी पे लाभ की दर से श्रम का मोल अधिक हो। आपके अभिमत की प्रतीक्षा है। 

फ़ोटो: वाल्मीकि रामायण को कोई नहीं पूछता लेकिन आज भी तुलसीदास रचित रामचरितमानस की पारायण सप्ताह बिठाई जाती है, जिस में ओबीसी-शुद्र, एससी-एसटी-अति शुद्रो और महिलाओ के बारे में स्पष्ट लिखा है, -
"पुजिये विप्र शील, गुण हिना, न पुजिये शुद्र गुण ज्ञान प्रवीना."
"ढोल, गंवार, शुद्र अरु पशु, नारी ये सब ताडन के अधिकारी."
"जे वरणाधिम तेली कुम्हारा, कोल, किरात, कलवारा.".अयौद्या कांड "

छत्रपति शिवाजी महाराज कुणबी थे इसी लिए महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने उन को शुद्र बताकर राज्याभिषेक करने से इंकार कर दिया था. ओबीसी समुदाय की जातियों वर्ण में ब्राह्मण, वैश्य और क्षत्रिय नहीं है इसीलिए उन को जनेऊ धारण करने का अधिकार नहीं था. 

इश्वर, कुदरत या प्रकृति ने हाथी, घोडा, गाय और मानव जैसे प्राणियो का विश्व में सर्जन किया है. भारत को छोड़कर विश्व के एक भी देश में मानव के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र और अवर्ण ऐसा जन्मजात विभाजन नहीं है.

इश्वर, कुदरत या प्रकृति ने हाथी, घोडा, गाय और मानव जैसे प्राणियो का विश्व में सर्जन किया है. जन्मजात वर्ण इश्वर या प्रकृति का सर्जन नहीं है. अगर ऐसा होता तो इश्वर ने मानव की तरह ही गध्धे में भी ब्राह्मण गध्धा,क्षत्रिय गध्धा, वैश्य गध्धा, शुद्र गध्धा और अवर्ण गध्धा का सर्जन किया होता.

पौराणिक ब्राह्मण धर्म के माध्यम से कुछ चालाक और धूर्त लोगो ने खुद को श्रेष्ठ, सर्वोच्च और पृथ्वी पर के भूदेव के तौर पर घोषित कर के सदियों से बिन ब्राह्मणों को उच्च नीच के भेदभाव में बांट के रख दिया है, जिन के शिकार आज का ओबीसी समुदाय, एससी समुदाय और एसटी समुदाय बना हुवा है.



रविवार, 19 सितंबर 2010

विशेष विचार प्रधान शोधपरक लेख: समय और परिस्थितियों के शिकार कायस्थ जन संजीव वर्मा 'सलिल'

 समय और परिस्थितियों के शिकार कायस्थ जन

संजीव वर्मा 'सलिल'
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समस्त सृष्टि के निर्माता परात्पर परमब्रम्ह निर्विकार-निराकार हैं. आकार न होने से उनका चित्र गुप्त है. जिस अनहद नाद में योगी लीन रहते हैं, वह ॐ ही सकल सृष्टि का जन्दाताजन्मदाता, पालक, तारक है. निराकार चित्र गुप्त जब आकार धारण करते हैं तो सृष्टि ब्रम्हांड के जन्मदाता ब्रम्हा, पालक विष्णु व तारक शिव के रूप में प्रथम ३ कायस्थ अवतार लेते हैं. 'कायास्थितः सः कायस्थः'' अर्थात वह निराकार परमशक्ति जब आकार (काया) धारण करती है तो काया में स्थित होने के कारण कायस्थ होता है.

'ब्रम्हम जानाति सः ब्राम्हणः' जो ब्रम्ह को जानते हैं वे ब्राम्हण हैं अर्थात जिनका काम सृष्टि उत्पत्ति के गूढ़ रहस्य जैसे जटिल विषयों को जानना और ज्ञान देना है वे ब्राम्हण हैं. इसी तरह जो रक्षा करते हैं वे क्षत्रिय, जो व्यापार करते हैं वे वैश्य तथा जो सेवा कर्म करते हैं वे शूद्र हैं. कायस्थ वे हैं जो ये सभी कर्म समान भाव से करते हैं.

जात कर्म तथा जातक कथाओं में 'जात' शब्द का अर्थ जन्म लेना है. व्यक्ति जिस क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त कर उसे व्यवसाय रूप में अपनाता है, उस क्षेत्र में उसका जन्म लेना माना जाता है. कहावत है 'कायथ घर भोजन करे, बचहु न एकौ जात' अर्थात कायस्थ के घर भोजन करने से अन्य किसी जात के घर भोजन करना शेष नहीं रहता, कायस्थ के घर खाया तो हर जात में खा लिया अर्थात कायस्थ की गणना हर वर्ण में है, वह किसी एक वर्ण का नहीं है. जो चारों वर्णों के कार्य समान दक्षता से करने में समर्थ होते हैं वे किसी अन्य की तुलना में अधिक योग्य होने से ''कायस्थ'' कहे गए.

सृष्टि का कण-कण कायायुक्त है. अतः, सभी चर-अचर, दृष्ट-अदृष्ट कायस्थ, जीव-अजीव हैं.

आरम्भ में कायस्थों ने अपने आराध्य श्री चित्रगुप्त का न तो कोई चित्र या मूर्ति बनाई, न मंदिर या मठ, न व्रत-त्यौहार, न कथा-उपवास. वे जानते थे कि हर दैवी शक्ति श्री चित्रगुप्त का अंश है, किसी भी रूप में पूजें पूजा चित्रगुप्त की ही होती है. कायस्थों में विवाहादि प्रसंगों में इसी कारण जन्मना जाति प्रथा मान्य कट्टरता से नहीं रही. कालांतर में कायस्थों के आराध्य निराकार चित्रगुप्त के साकार रूप की कल्पना सत्यनारायण के रूप में हुई जिसे चुटकी भर आटे के साथ कोई गरीब से गरीब व्यक्ति भी पूज सकता था, जो राजा को भी दण्डित कर सकते थे.

कायस्थों में अनेक श्रेष्ठ पंडित, वैद्य, ज्योतिष, संत, योद्धा, व्यापारी, शासक, प्रशासक आदि होने का कारण यही है कि वे चारों वर्णों को अपनाते थे. किसी पिता के ४ पुत्र अपनी रूचि या योग्यता के आधार पर चारों वर्णों में व्यवसाय कर सकते थे. चारों वर्णों में रोती-बेटी के सम्बन्ध स्थापित होना प्रतिबंधित न था. कालांतर में महर्षि व्यास द्वारा श्रुति-स्मृति पर आधारित व्यवस्था को ज्ञान का संहिताकरण कर व्यासपीठ के संचालकों के माध्यम से संचालित करने पर गुरु गद्दी पर जन्मना औरस पुत्र या कर्मणा श्रेष्ठ मानस पुत्र के आसीन होने के प्रश्न खड़े हुए. कायस्थ कर्म को देवता मानते थे तथा निरपेक्ष कर्मवाद के समर्थक थे. उन्होंने मानस पुत्रों (श्रेष्ठ शिष्य) को योग्य पाया जबकि ब्राम्हणों ने जन्मना औरस पुत्र को. यही स्थिति राज गद्दी के सम्बन्ध में भी हुई.

कायस्थ कर्म विधान को मानते थे अर्थात जीव का जन्म पूर्व जन्म के शेष कर्मों का फल भोगने के लिये हुआ है. केवल सत्कर्मों से ही जीव मुक्त हो सकता है. किसी देव की पूजा, उपवास, कर्म काण्ड, कथा श्रावण, भोग-प्रसाद, गण्डा-ताबीज, मन्त्र-तंत्र, नाग-रत्न आदि से कर्म-फल से मुक्ति नहीं पाई जा सकती. ब्राम्हणों ने परिश्रम और योग्यता के स्थान पर कर्मकांड और जन्माधारित विरासत का पक्ष लिया. गरीब, पीड़ित, अभावग्रस्त आम लोगों के मन में धर्म और ईश्वर संबंधी भय अनेक कपोल कल्पित कथाएँ सुनाकर पैदा के दिया तथा निदान स्वरूप कर्म काण्ड, व्रत, उपवास, दान आदि बताये जिनमें स्वयं (ब्राम्हणों) को ही दान का प्रावधान था.

राज गद्दी पर योग्यता के आधार पर सभी लोगों में से योग्यतम को चुनने के स्थान पर राजा के प्रिय या ज्येष्ठ पुत्र को चुनने की परंपरा प्रारंभ कर ब्राम्हण राज परिवार के प्रिय हुए. यहाँ तक कि स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि भी ब्राम्हणों ने खुद को घोषित कर दिया. संतानहीन राजाओं की रानियों को नियोग के माध्यम से ब्राम्हण पुत्र भी देने लेगे. राजा का विवाह होने पर रानी को पहले ब्राम्हण के साथ जाना होता था तथा राजा ब्राम्हण को शुल्क देकर रानी को प्राप्त करता था.

कायस्थ सता से जुड़े रहने से भोग-विलास के आदी, षड्यंत्रों के शिकार तथा निरपेक्ष सत्य कहने के कारण सत्ताधारियों के अप्रिय हुए. स्वामिभक्त होने के कारण वे मारे भी गए. ब्राम्हणों ने राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना. जब जो राजा आया ब्राम्हण उसे ही मान्यता देते रहे, जबकि कायस्थ अपनी निष्ठा बदल नहीं सके. कर्मकांड की बढ़ती प्रतिष्ठा के कारण ब्राम्हण समाज में पूज्य हो गए जबकि कायस्थ किसी एक वर्ण या जाति से न जुड़ने के कारण उपेक्षित हो गए. प्रतिभा के धनी तथा बलिदानी होने पर भी कायस्थ सत्तासीन नहीं हो सके. 

आधुनिक काल में श्री जवाहरलाल नेहरु, डॉ, राजेन्द्र प्रसाद तथा नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को देखें. प्रथम की तुलना में शेष दोनों की प्रतिभा, योग्यता, समर्पण, बलिदान बहुत अधिक होने पर भी उनका प्राप्य अत्यल्प रहा. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद नेहरु के कड़े विरोध के बाद राष्ट्रपति बने किन्तु पश्चातवर्ती राजनीति में उनके किसी स्वजन-परिजन को कोई स्थान न मिला जबकि नेहरु का वंश न होने पर भी वे और उनके स्वजन कोंग्रेस और सत्ता पर आसीन रहे. नेताजी के हिस्से में केवल संघर्ष, त्याग, बलिदान ही आया.

अन्यत्र भी कायस्थों की नियति ऐसी ही रही. कायस्थ व्यक्तिगत मूल्यपरक जीवनमूल्यों को जीता है जबके अन्य वर्ण समूह्परक हितों को साधते हैं. लोकतंत्र में समूह-नायक धोबी के आक्षेप पर राम भी सीता को त्यागने पर विवश हो गए थे. कायस्थ में समूह निर्माण का संस्कार ही नहीं है तो समूहगत चेतना या समूह के हितों का संरक्षण का प्रश्न ही नहीं उठता. इसीलिये वह संगठित नहीं हो पाता, न संगठित हो सकेगा. सभी स्टारों पर कायस्थ सभाएं और संस्थाएं असफल हुईं हैं और होती रहेंगी. ऐसा नहीं है कि इनमें योग्य, समर्पित, बलिदानी या संपन्न नेतृत्व नहीं आया या लोग नहीं जुड़े या सुनियोजित कार्यक्रम और नीतियां नहीं बनीं. यह सब होने के बाद भी परिणाम शून्य हुआ.

कायस्थ न तो व्यक्तिपरक रहा, न समष्टिगत हो सका. उदारता-संकीर्णता, साक्षरता-नासमझी, ज्ञान की प्रचुरता-लक्ष्मी का अभाव, दानवृत्ति का ह्रास, अनुकरण करने की भावना का अभाव तथा सामूहिक निर्णय या गतिविधि के प्रति अरुचि ने कायस्थों को उनके मूल आधार से अलग कर दिया और किसी नए विचार को वे अपना नहीं सके. आज की बदलती परिस्थिति में कायस्थों के अपनी मूलवृत्ति विश्व को कुटुंब मानकर जन्मना जाति को ठुकराने, योग्यता और गुण के आधार पर अंतरजातीय विवाह सम्बन्ध करने, आर्थिक गतिविधिपरक समूह बनाने और संस्थाएँ चलाने, सेवावृत्ति पर उद्योग और राजनीति को वरीयता देने, परिश्रम और लगन के साथ कर्म को आराध्य मानने के अपनाना होगा तभी वे व्यक्तिगत रूप से समृद्ध, सामाजिक रूप से संगठित तथा सांस्कृतिक रूप से संपन्न हो सकेंगे. उन्हें स्वयं को विश्व मानव के रूप में ढालना होगा तथा विश्व साक्षरता, विश्व शांति, विश्व न्याय तथा विश्व समानता के ध्वजवाहक बनकर दुनिया के कोने-कोने में जाना और छाना होगा.

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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com