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शुक्रवार, 27 जून 2025

जून २७, दोहा, मुक्तक, लघुकथा, घनाक्षरी, वर्षा, भाभी, महामाया छंद, वृहदारण्यक उपनिषद,

सलिल सृजन जून २७
मुक्तक
गाहे-बगाहे निगाहें मिलाना
झुकाना-चुराना उठाना-गिराना
हँसना कहर ढा, गिराना बिजलियाँ
मुहब्बत का लिखना नया नित फ़साना
न पर्दे में रहना, न बाहर ही आना
न सूरत दिखाना, न सूरत छिपाना
है दिलकश ये मंज़र , चला दिल पे खंजर
दबा ओंठ दाँतों में चुप मुस्कुराना
मोती सी बूँदें केशों से झरतीं 
साँसों का संताप सब पल में हरतीं  
मरे प्यार में इनके जो ये उसी को 
करें प्यार उस पर जनम सात मरतीं  
२७.६.२०१५ 
०००
वृहदारण्यक उपनिषद
(शुक्ल यजुर्वेद, काण्वी शाखा)
*
शांतिपाठ
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ पूर्ण है वह; पूर्ण है यह, पूर्ण से उत्पन्न पूर्ण।
पूर्ण में से पूर्ण को यदि निकालें, पूर्ण तब भी शेष रहता।।
प्रथम अध्याय
प्रथम ब्राह्मण : यज्ञाश्व
ॐ उषा सर यज्ञ-अश्व का, सूर्य नेत्र है, वायु प्राण है।
खुला हुआ मुख अग्नि देव है, संवत्सर यज्ञाश्व-आत्मा।।
पीठ द्युलोक; उदर नभ मंडल, पदस्थान भू; दिशा पार्श्व हैं।
दिशा अवांतर पसली उसकी, ऋतुएँ अंग; महीना संधि।।
दिवस-रात पद, नखत अस्थियाँ, मेघ मांस; बालू ऊवध्य है।
नाड़ी नदी; यकृत पर्वत है, ह्रदय औषधि, रोम वनस्पति।।
धड़ रवि उदयित, अधड़ अस्त रवि, तड़ित जम्हाई, सिर-गति गर्जन।
वर्षा मूत्र; वाक् हिनहिन ध्वनि, अश्व-रूप में यज्ञ सुकल्पित।१।
दिन प्रकटा बन महिमा सम्मुख, पूर्व समुद्र योनि है उसकी।
पीछे रात्रि प्रकट महिमावत, पश्चिम सिंधु योनि है उसकी।।
ये दोनों ही आगे-पीछे, महिमा संज्ञक ग्रह हैं हय के।
हय-सुर; बाजी गंधर्वों को, अर्वा-असुर; अश्व मनुजों को
वहन करे; है सिंधु बंधु अरु, सागर ही उद्गम है इसका।२।
ऊवध्य = अनपचा अन्न।
*
द्वितीय ब्राह्मण : प्रलय पश्चात् सृष्टि उत्पत्ति
पहले यहाँ नहीं था कुछ भी, मृत्यु-प्रलय से, सब आवृत्त था।
ढँका क्षुधा से, क्षुधा मृत्यु है, आत्मा होऊँ, ठान लिया यह।।
पूज-आचरण कर जल पाया, जान अर्क-अर्कत्व सुखी हो। १।
स्थूल भाग एकत्र जलार्की, पृथ्वी होकर आप थक गया।
थके-तपे तन प्रजापति के, से प्रकटा तेजाग्नि सारवत्।२।
तीन भाग हो, एक-एक दे, सूर्य-हवा को, प्राण त्रिभागी।
पूर्व शीश; दो विदिशा भुजवत, पश्चिम पूँछ; जाँघ विदिशाएँ।।
उत्तर-दक्षिण पार्श्व भाग हैं, पृष्ठ द्युलोक; उदर नभमंडल।
पृथ्वी ह्रदय; प्रजापति जल में, जो जाने; सर्वत्र प्रतिष्ठित।३।
काम्य अन्य तन हुआ; मृत्यु ने मनस त्रिवेद मिथुन को ध्याया।
उससे बीज हुआ संवत्सर, रहा गर्भ में प्रजापति के।
'भाण' वाक् कर मुख फैलाया, मारूँ; अन्न मिलेगा थोड़ा।।
सोचा, मन-वाणी से उसने, ऋक यजु साम छंद रच डाले।
यज्ञ प्रजा पशु की रचना की, जिसको रचा उसीको खाया।।
वह उपजाता-खाता सबको, यही अदिति का अदितित्व है।
जो जाने इस अदितित्व को, भोक्ता वह; सब भोग्य उसे हो।४-५।
करी कामना; यज्ञ करूँ; हो भ्रमित; किया तप मृत्यु देव ने।
थके-तपे उस मृत्युदेव का, निकला यश अरु वीर्य; प्राण यह।
निकले प्राण फूलता है तन, मन रहता तब भी शरीर में।६।
करी कामना 'मेध्य' देह हो, देहवान मैं इससे होऊँ।
मेध्य देह अश्व सम फूली, यही अश्वमेधत्व जानिए।।
जो जाने अवरोधरहित हो, करता चिंतन प्रजापति का।
देव प्रजापति इसी भाव से, पशुओं को सुर तक पहुँचाए।।
सूर्य तपे जो अश्वमेध वह, संवत्सर तन; अग्नि अर्क है।
उसके हैं ये लोक-आत्मा, अग्नि-सूर्य अर्काश्वमेध हैं।।
मत्युरूप वे एक देवता, जो जाने ले जीत मृत्यु को।
मृत्यु न मारे; आप आत्म हो, वह देवों में एक देव हो।७।
२७-६-२०२२
***
मुक्तक
अरविंद किरणों से प्रकाशित हँस रही है मंजरी।
सुवासित अरविंद को को कर खिल रही है मंजरी।।
पुलक मंजीरा बजाता झूम ध्रुव तारा सुना
राई कजरी मौन अपलक सुन रही है मंजरी
***
मात्रिक लौकिक जातीय
वार्णिक प्रतिष्ठा जातीय
महामाया छंद
सूत्र - य ला।
*
सुनो मैया
पड़ूँ पैंया
बजा वीणा
हरो पीड़ा
महामाया
करो छैंया
तुम्हीं दाता
जगत्त्राता
उबारो माँ
थमा बैंया
मनाऊँ मैं
कहो कैसे
नहीं जानूँ
उठा कैंया
तुम्हारा था
तुम्हारा हूँ
न डूबे माँ
बचा नैया
भुलाओ ना
बुलाओ माँ
तुम्हें ही मैं
भजूँ मैया
२७-६-२०२०
***
दोपदी
वक्त के बदलाव कहते हैं कि हम गंभीर हों।
सजे लब पे मुस्कुराहट पर वजह कोई तो हो।
***
स्मृति गीत:
*
भाभी श्री की पुण्य याद प्रेरक पूँजी, पाथेय मुझे है।
*
मीठी सी मुस्कान, नयन में नेह, वाक् में घुली शर्करा।
ममतामय स्पर्श शीश पर कर पल्लव का पा तन तरा।
भेद न कोई निज-पर में था, 'भैया! बहुत दिनों में आए।'
मिसरी जैसा उपालंभ जिससे असीम वात्सल्य था झरा।
भाभी श्री की मधुर-मृदुल छवि, कहूँ न पर संज्ञेय मुझे है।
*
दादा की ही चिंता हर पल, क्यों होते कमजोर जा रहे।
नयन कामना, वाक् भावना, हर्ष गीत बन होंठ गा रहे।
माथे पर सिंदूरी सूरज, उषा उजास अँजोरे चेहरा।
दादा अपलक पल भर हेरें, कहें न कुछ पर तृप्ति पा रहे।
इनमें वे या उनमें ये हैं, नहीं रहा अज्ञेय मुझे है।
२७-६-२०१९
***
दोहे बूँदाबाँदी के:
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे, तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ, बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
27.6.2018
***
घनाक्षरी
लाख़ मतभेद रहें, पर मनभेद न हों, भाई को हमेशा गले, हँस के लगाइए|
लात मार दूर करें, दशमुख सा अनुज, शत्रुओं को न्योत घर, कभी भी न लाइए|
भाई नहीं दुश्मन जो, इंच भर भूमि न दें, नारि-अपमान कर, नाश न बुलाइए|
छल-छद्म, दाँव-पेंच, दन्द-फंद अपना के, राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये||
*
जिसका जो जोड़ीदार, करे उसे वही प्यार, कभी फूल कभी खार, मन-मन भाया है|
पास आये सुख मिले, दूर जाये दुःख मिले, साथ रहे पूर्ण करे, जिया हरषाया है|
चाह-वाह-आह-दाह, नेह नदिया अथाह, कल-कल हो प्रवाह, डूबा-उतराया है|
गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद - कर - जोड़, देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है||
(श्रृंगार तथा हास्य रस का मिश्रण)
*
शहनाई गूँज रही, नाच रहा मन मोर, जल्दी से हल्दी लेकर, करी मनुहार है|
आकुल हैं-व्याकुल हैं, दोनों एक-दूजे बिन, नया-नया प्रेम रंग, शीश पे सवार है|
चन्द्रमुखी, सूर्यमुखी, ज्वालामुखी रूप धरे, सासू की समधन पे, जग बलिहार है|
गेंद जैसा या है ढोल, बन्ना तो है अनमोल, बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है||
*
ये तो सब जानते हैं, जान के न मानते हैं, जग है असार पर, सार बिन चले ना|
मायका सभी को लगे - भला, किन्तु ये है सच, काम किसी का भी, ससुरार बिन चले ना|
मनुहार इनकार, इकरार इज़हार, भुजहार, अभिसार, प्यार बिन चले ना|
रागी हो, विरागी हो या हतभागी बड़भागी, दुनिया में काम कभी, 'नार' बिन चले ना||
(श्लेष अलंकार वाली अंतिम पंक्ति में 'नार' शब्द के तीन अर्थ ज्ञान, पानी और स्त्री लिये गये हैं.)
*
बुन्देली
जाके कर बीना सजे, बाके दर सीस नवे, मन के विकार मिटे, नित गुनगाइए|
ज्ञान, बुधि, भासा, भाव, तन्नक न हो अभाव, बिनत रहे सुभाव, गुननसराहिए|
किसी से नाता लें जोड़, कब्बो जाएँ नहीं तोड़, फालतू न करें होड़, नेह सोंनिबाहिए|
हाथन तिरंगा थाम, करें सदा राम-राम, 'सलिल' से हों न वाम, देस-वारीजाइए||
छत्तीसगढ़ी
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीनाबहावथे|
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानीभावथे|
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरीइठलावथे|
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारीभावथे||
निमाड़ी
गधा का माथा का सिंग, जसो नेता गुम हुयो, गाँव खs बटोsर वोsट,उल्लूs की दुम हुयो|
मनखs को सुभाsव छे, नहीं सहे अभाव छे, हमेसs खांव-खांव छे, आपsसे तुम हुयो|
टीला पाणी झाड़s नद्दी, हाय खोद रएs पिद्दी, भ्रष्टs सरsकारs रद्दी, पतानामालुम हुयो|
'सलिल' आँसू वादsला, धsरा कहे खाद ला, मिहsनतs का स्वाद पा, दूरsमाsतम हुयो||
मालवी:
दोहा:
भणि ले म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम|
जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम||
कवित्त
शरद की चांदणी से, रात सिनगार करे, बिजुरी गिरे धरा पे, फूल नभ सेझरे|
आधी राती भाँग बाटी, दिया की बुझाई बाती, मिसरी-बरफ़ घोल्यो,नैना हैं भरे-भरे|
भाभीनी जेठानी रंगे, काकीनी मामीनी भीजें, सासू-जाया नहीं आया,दिल धीर न धरे|
रंग घोल्यो हौद भर, बैठी हूँ गुलाल धर, राह में रोके हैं यार, हाय! टारे नटरे||
राजस्थानी
जीवण का काचा गेला, जहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलं-ठेला, मोड़तरां-तरां का|
ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईं, जोड़ तरां-तरां का|
चाल्यो बीज बजारा रे?, आवारा बनजारा रे?, फिरता मारा-मारा रे?,होड़ तरां-तरां का||
नाव कनारे लागैगी, सोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगी, तोड़तरां-तरां का||
हिन्दी+उर्दू
दर्दे-दिल पीरो-गम, किसी को दिखाएँ मत, दिल में छिपाए रखें, हँस-मुस्कुराइए|
हुस्न के न ऐब देखें, देखें भी तो नहीं लेखें, दिल पे लुटा के दिल, वारी-वारी जाइए|
नाज़ो-अदा नाज़नीं के, देख परेशान न हों, आशिकी की रस्म है कि, सिरभी मुड़ाइए|
चलिए न ऐसी चाल, फालतू मचे बवाल, कोई न करें सवाल, नखरेउठाइए||
भोजपुरी
चमचम चमकल, चाँदनी सी झलकल, झपटल लपकल, नयन कटरिया|
तड़पल फड़कल, धक्-धक् धड़कल, दिल से जुड़ल दिल, गिरलबिजुरिया|
निरखल परखल, रुक-रुक चल-चल, सम्हल-सम्हल पग, धरलगुजरिया|
छिन-छिन पल-पल, पड़त नहीं रे कल, मचल-मचल चल, चपलसंवरिया||
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घनाक्षरी: वर्णिक छंद, चतुष्पदी, हर पद- ३१ वर्ण, सोलह चरण- हर पद के प्रथम ३ चरण ८ वर्ण, अंतिम ४ चरण ७ वर्ण.
***
मैथिली हाइकु
स्नेह करब
हमर मंत्र अछि
गले लगबै
***
लघुकथा
दुहरा चेहरा
*
- 'क्या कहूँ बहनजी, सच बोला नहीं जाता और झूठ कहना अच्छा नहीं लगता इसीलिये कहीं आना-जाना छोड़ दिया. आपके साथ तो हर २-४ दिन में गपशप होती रही है, और कुछ हो न हो मन का गुबार तो निकल जाता था. अब उस पर भी आपत्ति है.'
= 'आपत्ति? किसे?, आपको गलतफहमी हुई है. मेरे घर में किसी को आपत्ति नहीं है. आप जब चाहें पधारिये और निस्संकोच अपने मन की बात कर सकती हैं. ये रहें तो भी हम लोगों की बातों में न तो पड़ते हैं, न ध्यान देते हैं.'
- 'आपत्ति आपके नहीं मेरे घर में होती है. वह भी इनको या बेटे को नहीं बहूरानी को होती है.'
= 'क्यों उन्हें हमारे बीच में पड़ने की क्या जरूरत? वे तो आज तक कभी आई नहीं.'
-'आएगी भी नहीं. रोज बना-बनाया खाना चाहिए और सज-धज के निकल पड़ती है नेतागिरी के लिए. कहती है तुम जैसी स्त्रियाँ घर का सब काम सम्हालकर पुरुषों को सर पर चढ़ाती हैं. मुझे ही घर सम्हालना पड़ता है. सोचा था बहू आयेगी तो बुढ़ापा आराम से कटेगा लेकिन महारानी तो घर का काम करने को बेइज्जती समझती हैं. तुम्हारे चाचाजी बीमार रहते हैं, उनकी देख-भाल, समय पर दवाई और पथ्य, बेटे और पोते-पोती को ऑफिस और स्कूल जाने के पहले खाना और दोपहर का डब्बा देना. अब शरीर चलता नहीं. थक जाती हूँ.'
='आपकी उअमर नहीं है घर-भर का काम करने की. आप और चाचाजी आराम करें और घर की जिम्मेदारी बहु को सम्हालने दें. उन्हें जैसा ठीक लगे करें. आप टोंका-टाकी भर न करें. सबका काम करने का तरीका अलग-अलग होता है.'
-'तो रोकता कौन है? करें न अपने तरीके से. पिछले साल मैं भांजे की शादी में गयी थी तो तुम्हारे चाचाजी को समय पर खाना-चाय कुछ नहीं मिला. बाज़ार का खाकर तबियत बिगाड़ ली. मुश्किल से कुछ सम्हली है. मैंने कहा ध्यान रखना था तो बेटे से नमक-मिर्च लगाकर चुगली कर दी और सूटकेस उठाकर मायके जाने को तैयार ही गयी. बेटे ने कहा तो कुछ नहीं पर उसका उतरा हुआ मुँह देखकर मैं समझ गई, उस दिन से रसोई में घुसती ही नहीं. मुझे सुना कर अपनी सहेली से कह रही थी अब कुछ कहा तो बुड्ढे-बुढ़िया दोनों को थाने भिजवा दूँगी. दोनों टाइम नाश्ते-खाने के अलावा घर से कोई मतलब नहीं.'
पड़ोस में रहनेवाली मुँहबोली चाची को सहानुभूति जता, शांत किया और चाय-नाश्ता कराकर बिदा किया. घर में आयी तो चलभाष पर ऊँची आवाज में बात कर रही उनकी बहू की आवाज़ सुनायी पड़ी- ' माँ! तुम काम मत किया करो, भाभी से कराओ. उसका फर्ज है तुम्हारी सेवा करे....'
मैं विस्मित थी स्त्री हितों की दुहाई देनेवाली शख्सियत का दुहरा चेहरा देखकर.
---------------------------------
***
मुक्तक
*
प्राण, पूजा कर रहा निष्प्राण की
इबादत कर कामना है त्राण की
वंदना की, प्रार्थना की उम्र भर-
अर्चना लेकिन न की संप्राण की
.
साधना की साध्य लेकिन दूर था
भावना बिन रूप ज्यों बेनूर था
कामना की यह मिले तो वह करूँ
जाप सुनता प्रभु न लेकिन सूर था
.
नाम ले सौदा किया बेनाम से
पाठ-पूजन भी कराया दाम से
याद जब भी किया उसको तो 'सलिल'
हो सुबह या शाम केवल काम से
.
इबादत में तू शिकायत कर रहा
इनायत में वह किफायत कर रहा
छिपाता तू सच, न उससे कुछ छिपा-
तू खुदी से खुद अदावत कर रहा
.
तुझे शिकवा वह न तेरी सुन रहा
है शिकायत उसे तू कुछ गुन रहा
है छिपाता ख्वाब जो तू बुन रहा-
हाय! माटी में लगा तू घुन रहा
.
तोड़ मंदिर, मन में ले मन्दिर बना
चीख मत, चुप रह अजानें सुन-सुना
छोड़ दे मठ, भूल गुरु-घंटाल भी
ध्यान उसका कर, न तू मौके भुना
.
बन्दा परवर वह, न तू बन्दा मगर
लग गरीबों के गले, कस ले कमर
कर्मफल देता सभी को वह सदा-
काम कर ऐसा दुआ में हो असर
२७-६-२०१७
***
दोहा सलिला
*
जिसे बसाया छाँव में, छीन रहा वह ठाँव
आश्रय मिले न शहर में, शरण न देता गाँव
*
जो पैरों पर खड़े हैं, 'सलिल' उन्हीं की खैर
पैर फिसलते ही बनें, बंधु-मित्र भी गैर
*
सपने देखे तो नहीं, तुमने किया गुनाह
किये नहीं साकार सो, जीवन लगता भार
*
दाम लागने की कला, सीख किया व्यापार
नेह किया नीलाम जब, साँस हुई दुश्वार
*
माटी में मिल गए हैं, बड़े-बड़े रणवीर
किन्तु समझ पाए नहीं, वे माटी की पीर
*
नाम रख रहे आज वे, बुला-मनाकर पर्व
नाम रख रहे देख जन, अहं प्रदर्शन गर्व
*
हैं पत्थर के सनम भी, पानी-पानी आज
पानी शेष न आँख में, देख आ रही लाज
२७-६-२०१७
***
भारत के नेताओं को अयोग्य समझा था चर्चिल ने
स्व. खुशवंत सिंह
चाहता हूं कि मेरे पाठक विशेषकर युवा पीढ़ी विजेन्द्र गुप्ता द्वारा भेजे गए इस दिलचस्प लेख को मेरे साथ साझा करें, 'जब इंग्लैंड के प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने 1947 में इंडियन इंडिपेन्डेंस बिल पेश किया और ब्रिटिश पार्लियामेंट में इस पर बहस हो रही थी तो इंग्लैंड के युद्ध कालीन प्रधानमंत्री सर विंस्टन चर्चिल ने गुस्से से टिप्पणी की 'लुच्चे, बदमाशों और मुफ्तखोरों के हाथ में सत्ता चली जाएगी। सभी भारतीय नेता मामूली काबलियत वाले और तिनके की तरह होंगे। उनकी मीठी जुबान और दिल में बदमाशी होगी (मुंह में राम बगल में छुरी)। वह सत्ता के लिए आपस में लड़ेंगे और भारत राजनीतिक गुटबंदी में खो जाएगा। पानी की बोतल या रोटी का टुकड़ा तक टैक्स लगने से नहीं बचेगा। सिर्फ हवा मुफ्त मिलेगी और इन लाखों भूखे लोगों का खून एटली के सिर पर होगा।' हम निश्चय ही अतुलनीय राष्ट्र हैं। हमने बहुत मेहनत की है और निश्चित रूप से खुद को सही सिद्ध किया है।
आवारा कुत्तों की मुसीबत
मनुष्य द्वारा जानवरों या पक्षियों के साथ संबंध बनाने में सबसे अधिक नजदीकी कुत्तों के साथ देखी गई है। मैं इस बात का ताकीद अपने जर्मन शैपर्ड (एलसेशियन) के साथ अपने 14 साल के साथ को देखते हुए कह सकता हूं। मैं उसे सिमबा कहता था जिसका अर्थ सुवाहिली भाषा में शेर है। मुझे वह पिल्ले के रूप में मिला और जीवनभर मेरे साथ रहा। असली बात तो यह है कि मैंने ही उसकी मौत के वारंट पर हस्ताक्षर किए थे जब मुझे एहसास हुआ कि उसके 14 साल पूरे हो चुके हैं और वह बहुत बूढ़ा हो गया है और लगातार बीमार रहता है। मैंने एक पिक्चर भी देखी जिसमें श्रीनगर की गलियों में कुत्तों को मनुष्यों पर हमला करते हुए और खाते हुए दिखाया गया था। उनके साथ सबसे अच्छा क्या हो सकता है। मुझे कोई संदेह नहीं है कि सबसे अच्छा यही है कि उन्हें सही वक्त पर हमेशा के लिए सुला दिया जाए। मुझे यह काम अपने बहुत ही प्यारे सिमबा के लिए करना पड़ा। मैंने उसका इलाज कर रहे वेट से कहा कि उसे टॉनिक की ओवर डोज दी दी जाए। उसका अंत शांतिपूर्वक हुआ। हमारे बीच जरा भी दुर्भावना नहीं थी। दुनिया के एक बड़े हिस्से में मुनष्य कुत्ते के गोश्त पर जिंदा रहते हैं। आसाम से लेकर जापान तक के देशों में इसे अच्छा व्यंजन माना जाता है। मुझे जापान में गीशा हाउस की विदाई पार्टी में कुत्ते का गोश्त परोसा गया और मैंने इसका भरपूर स्वाद लिया जिसे कि गीश यह कहते हुए पेश कर रही थी 'अगर मैं बताऊंगी तो आप पसंद नहीं करोगे।' उसके बाद मैंने कभी भी गीश से नहीं पूछा कि जो कुछ भी मुझे दिया जा रहा था वह क्या था जो मुझे स्वादिष्ट लगा।
***
एक रचना:
*
चारु चन्द्र राकेश रत्न की
किरण पड़े जब 'सलिल' धार पर
श्री प्रकाश पा जलतरंग सी
अनजाने कुछ रच-कह देती
कलकल-कुहूकुहू की वीणा
विजय-कुम्भ रस-लय-भावों सँग
कमल कुसुम नीरजा शरण जा
नेह नर्मदा नैया खेती
आ अमिताभ सूर्य ऊषा ले
विहँस खलिश को गले लगाकर
कंठ धार लेता महेश बन
हो निर्भीक सुरेन्द्र जगजयी
सीताराम बने सब सुख-दुःख
धीरज धर घनश्याम बरसकर
पाप-ताप की नाव डुबा दें
महिमा गाकर सद्भावों की
दें संतोष अचल गौतम यदि
हो आनंद-सिंधु यह जीवन
कविता प्रणव नाद हो पाये
हो संजीव सृष्टि सब तब ही.
२७-६-२०१५

***

मंगलवार, 6 अगस्त 2024

अगस्त ६, नवगीत, संसद, बाल गीत, वर्षा

सलिल सृजन अगस्त ६
*
नवगीत :
*
संसद की दीवार पर
दलबन्दी की धूल
राजनीति की पौध पर
अहंकार के शूल
*
राष्ट्रीय सरकार की
है सचमुच दरकार
स्वार्थ नदी में लोभ की
नाव बिना पतवार
हिचकोले कहती विवश
नाव दूर है कूल
लोकतंत्र की हिलाते
हाय! पहरुए चूल
*
गोली खा, सिर कटाकर
तोड़े थे कानून
क्या सोचा था लोक का
तंत्र करेगा खून?
जनप्रतिनिधि करते रहें
रोज भूल पर भूल
जनगण का हित भुलाकर
दे भेदों को तूल
*
छुरा पीठ में भोंकने
चीन लगाये घात
पाक न सुधरा आज तक
पाकर अनगिन मात
जनहित-फूल कुचल रही
अफसरशाही फूल
न्याय आँख पट्टी, रहे
ज्यों चमगादड़ झूल
*
जनहित के जंगल रहे
जनप्रतिनिधि ही काट
देश लूट उद्योगपति
खड़ी कर रहे खाट
रूल बनाने आये जो
तोड़ रहे खुद रूल
जैसे अपने वक्ष में
शस्त्र रहे निज हूल
*
भारत माता-तिरंगा
हम सबके आराध्य
सेवा-उन्नति देश की
कहें न क्यों है साध्य?
हिंदी का शतदल खिला
फेंकें नोंच बबूल
शत्रु प्रकृति के साथ
मिल कर दें नष्ट समूल
[प्रयुक्त छंद: दोहा, १३-११ समतुकांती दो पंक्तियाँ,
पंक्त्यान्त गुरु-लघु, विषम चरणारंभ जगण निषेध]
६.८.२०१५
***
बाल गीत:
बरसे पानी
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही,
जैसे ओढ़े चूनर धानी.
काश कहीं झूला मिल जाता,
सुनते-गाते कजरी-बानी.
'सलिल' बालपन फिर मिल पाये.
बिसराऊँ सब अकल सयानी.
६.८.२०११
***

सोमवार, 15 जुलाई 2024

दोहे, वर्षा, नवगीत, सोरठा - दोहा गीत, चंद्रारोहण सवैया, सोनेट, अनुगीत छंद,

 सॉनेट

जिजीविषा
(नवान्वेषित चंद्रारोहण सवैया, पदभार ३२ मात्रा, यति १६-१६, पादांत यगण)
जिजीविषा जीवट की जय जो संघर्षों से हार न माने,
दोष न दे ईश्वर को किंचित, और नहीं किस्मत को रोए,
साहस और हौसला रखकर, संकट को जय करना ठाने,
कलपे नहीं, न पीछे देखे, और न अपना धीरज खोए।
शक्ति समूची जुटा यत्न कर, ले संकल्प न समय गँवाए,
मंजिल तयकर दौड़ लगाए,नहीं भटककर, एक दिशा में,
आश्रय-मदद न चाह किसी से नहीं याचना-टेर लगाए,
करे भरोसा निज मति-गति पर, ध्यान न जाए क्षुधा-तृषा में।
करे प्रयास प्राण-प्रण से जब, तब हो अपना भाग्य विधाता,
मलता हाथ अहेरी नत शिर, मृगया से बच मृग जय पाए,
शुभ संकल्पों की जय होती, तब जग जय-जयकार गुँजाता,
नहीं फूलकर होता कुप्पा, जयी सँकुच मन में मुस्काए।
वही जयी होता जीवन में, अपना आप सहायक हो जो।
दिखता भले जीव इस जग का, सच ही भाग्य विधायक वह हो
१५-७-२०२३
•••
गीत वर्षा के सलिल
बाल गीत
पानी दो
🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃
पानी दो, प्रभु पानी दो
मौला धरती धानी दो,
पानी दो...
*
तप-तप धरती सूख गई
बहा पसीना, भूख गई.
बहुत सयानी है दुनिया
प्रभु! थोड़ी नादानी दो,
पानी दो...
*
टप-टप-टप बूँदें बरसें
छप-छपाक-छप मन हरषे
टर्र-टर्र बोले दादुर
मेघा-बिजुरी दानी दो,
पानी दो...
*
रोको कारें, आ नीचे
नहा-नाच हम-तुम भीगे
ता-ता-थैया खेलेंगे
सखी एक भूटानी दो,
पानी दो...
*
सड़कों पर बहता पानी
याद आ रही क्या नानी?
जहाँ-तहाँ लुक-छिपते क्यों?
कर थोड़ी मनमानी लो,
पानी दो...
*
छलकी बादल की गागर
नचे झाड़ ज्यों नटनागर
हर पत्ती गोपी-ग्वालन
करें रास रसखानी दो,
पानी दो...
*
बाल गीत:
बरसे पानी
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही,
जैसे ओढ़े चूनर धानी.
काश कहीं झूला मिल जाता,
सुनते-गाते कजरी-बानी.
'सलिल' बालपन फिर मिल पाये.
बिसराऊँ सब अकल सयानी.
***
गीत
बरसातों में
*
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
सूर्य-बल्ब
जब होता रौशन
मेक'प करते बिना छिपे.
शाखाओं,
कलियों फूलों से
मिलते, नहीं लजाते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
बऊ धरती
आँखें दिखलाये
बहिना हवा उड़ाये मजाक
पर्वत दद्दा
आँख झुकाये,
लता संग इतराते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
कमसिन सपने
देख थिरकते
डेटिंग करें बिना हिचके
बिना गये
कर रहे आउटिंग
कभी नहीं पछताते
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
***
नवगीत:
*
मेघ बजे
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर
फिर मेघ बजे
ठुमुक बिजुरिया
नचे बेड़नी बिना लजे
*
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी
तोड़ कूल-मरजाद
नदी उफनाई तो
बाबुल पर्वत रूठे
तनया तुरत तजे
*
पल्लव की करताल
बजाती नीम मुई
खेत कजलियाँ लिये
मेड़ छुईमुई हुई
जन्मे माखनचोर
हरीरा भक्त पिये
गणपति बप्पा, लाये
मोदक हुए मजे
*
टप-टप टपके टीन
चू गयी है बाखर
डूबी शाला हाय!
पढ़ाये को आखर?
डूबी गैल, बके गाली
अभियंता को
डुकरो काँपें, 'सलिल'
जोड़ कर राम भजे
*
नवगीत:
.
खों-खों करते
बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी
.
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी 'रोको' पुकारें
पछुआ अम्मा
बड़बड़ करती
डाँट लगातीं तगड़ी
.
धरती बहिना राह हेरती
दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम
रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत न
आये घर में
खोल न खिड़की अगड़ी
.
सूर बनाता सबको कोहरा
ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक ही
फसल लाएगी राहत को ही
हँसकर खेलें
चुन्ना-मुन्ना
मिल चीटी-धप, लँगड़ी
....
नवगीत
*
पल में बारिश,
पल में गर्मी
गिरगिट सम रंग बदलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
खुशियों के ख्वाब दिखाता है
बहलाता है, भरमाता है
कमसिन कलियों की चाह जगा
सौ काँटे चुभा, खिजाता है
अपना होकर भी छाती पर
बेरहम! दाल दल हँसता है
यह मौसम हमको छलता है
*
जब एक हाथ में कुछ देता
दूसरे हाथ से ले लेता
अधिकार न दे, कर्तव्य निभा
कह, यश ले, अपयश दे देता
जन-हित का सूर्य बिना ऊगे
क्यों, कौन बताये ढलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
गर्दिश में नहीं सितारे हैं
हम तो अपनों के मारे हैं
आधे इनके, आधे उनके
कुटते-पिटते बंजारे हैं
घरवाले ही घर के बाहर
क्या ऐसे भी घर चलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
तुम नकली आँसू बहा रहे
हम दुःख-तकलीफें तहा रहे
अंडे कौओं के घर में धर
कोयल कूके, जग अहा! कहे
निर्वंश हुए सद्गुण के तरु
दुर्गुण दिन दूना फलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
है यहाँ गरीबी अधनंगी
है वहाँ अमीरी अधनंगी
उन पर जरुरत से ज़्यादा है
इन पर हद से ज्यादा तंगी
धीरज का पैर न जम पाता
उन्मन मन रपट-फिसलता है
यह मौसम हमको छलता है
***
कविता पर दोहे़:
*
कविता कवि की प्रेरणा, दे पल-पल उत्साह।
कभी दिखाती राह यह, कभी कराती वाह।।
*
कविता में ही कवि रहे, आजीवन आबाद।
कविता में जीवित रहे, श्वास-बंद के बाद।।
*
भाव छंद लय बिंब रस, शब्द-चित्र आनंद।
गति-यति मिथक प्रतीक सँग, कविता गूँथे छंद।।
*
कविता कवि की वंशजा, जीवित रखती नाम।
धन-संपत्ति न माँगती, जिंदा रखती काम।।
*
कवि कविता तब रचे जब, उमड़े मन में कथ्य।
कुछ सार्थक संदेश हो, कुछ मनरंजन; तथ्य।।
*
कविता सविता कथ्य है, कलकल सरिता भाव।
गगन-बिंब; हैं लहरियाँ चंचल-चपल स्वभाव।।
*
करे वंदना-प्रार्थना, भजन बने भजनीक।
कीर्तन करतल ध्वनि सहित, कविता करे सटीक।।
*
जस-भगतें; राई सरस, गिद्दा, फागें; रास।
आल्हा-सड़गोड़ासनी, हर कविता है खास।।
*
सुनें बंबुलिया माहिया, सॉनेट-कप्लेट साथ।
गीत-गजल, मुक्तक बने, कविता कवि के हाथ।।
१५-७-२०१८
***
नवगीत
बारिश
*
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
नाव बनाना
कौन सिखाये?
बहे जा रहे समय नदी में.
समय न मिलता रिक्त सदी में.
काम न कोई
किसी के आये.
अपना संकट आप झेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
डेंगू से भय-
भीत सभी हैं.
नहीं भरोसा शेष रहा है.
कोइ न अपना सगा रहा है.
चेहरे सबके
पीत अभी हैं.
कितने पापड विवश बेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
उतर गया
चेहरे का पानी
दो से दो न सम्हाले जाते
कुत्ते-गाय न रोटी पाते
कहीं न बाकी
दादी-नानी.
चूहे भूखे दंड पेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
***
दोहा - सोरठा गीत
पानी की प्राचीर
*
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।
पीर, बाढ़ - सूखा जनित
हर, कर दे बे-पीर।।
*
रखें बावड़ी साफ़,
गहरा कर हर कूप को।
उन्हें न करिये माफ़,
जो जल-स्रोत मिटा रहे।।
चेतें, प्रकृति का कहीं,
कहर न हो, चुक धीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
सकें मछलियाँ नाच,
पोखर - ताल भरे रहें।
प्रणय पत्रिका बाँच,
दादुर कजरी गा सकें।।
मेघदूत हर गाँव को,
दे बारिश का नीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
पर्वत - खेत - पठार पर
हरियाली हो खूब।
पवन बजाए ढोलकें,
हँसी - ख़ुशी में डूब।।
चीर अशिक्षा - वक्ष दे ,
जन शिक्षा का तीर।
आओ मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
***
सोरठा - दोहा गीत
संबंधों की नाव
*
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।
अनचाहा अलगाव,
नदी-नाव-पतवार में।।
*
स्नेह-सरोवर सूखते,
बाकी गन्दी कीच।
राजहंस परित्यक्त हैं,
पूजते कौए नीच।।
नहीं झील का चाव,
सिसक रहे पोखर दुखी।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
कुएँ - बावली में नहीं,
शेष रहा विश्वास।
निर्झर आवारा हुआ,
भटके ले निश्वास।।
घाट घात कर मौन,
दादुर - पीड़ा अनकही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
ताल - तलैया से जुदा,
देकर तीन तलाक।
जलप्लावन ने कर दिया,
चैनो - अमन हलाक।।
गिरि खोदे, वन काट
मानव ने आफत गही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
***
अनुगीत छंद
*
छंद लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद २६ मात्रा,
यति१६-१०, पदांत लघु
लक्षण छंद:
अनुगीत सोलह-दस कलाएँ , अंत लघु स्वीकार
बिम्ब रस लय भाव गति-यतिमय , नित रचें साभार
उदाहरण:
१. आओ! मैं-तुम नीर-क्षीरवत , एक बनें मिलकर
देश-राह से शूल हटाकर , फूल रखें चुनकर
आतंकी दुश्मन भारत के , जा न सकें बचकर
गढ़ पायें समरस समाज हम , रीति नयी रचकर
२. धर्म-अधर्म जान लें पहलें , कर्तव्य करें तब
वर्तमान को हँस स्वीकारें , ध्यान धरें कल कल
किलकिल की धारा मोड़ें हम , धार बहे कलकल
कलरव गूँजे दसों दिशा में , हरा रहे जंगल
३. यातायात देखकर चलिए , हो न कहीं टक्कर
जान बचायें औरों की , खुद आप रहें बचकर
दुर्घटना त्रासद होती है , सहें धीर धरकर
पीर-दर्द-दुःख मुक्त रहें सब , जीवन हो सुखकर
१५-७-२०१६
***
अभिनव प्रयोग
एक चोका गीत
बरसात
*
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।
कौन पा सके
व्यथा-दर्द की थाह?
*
विरह अग्नि
झुलसाती बदन
नीर बहाते
निश-दिन नयन
तरु भैया ने
पात गिराए हाय!
पवन पिता के
टूटे सभी सपन।
नंद चाँदनी
बैरन देती दाह
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।।
*
टेर विधाता
सुनो न सूखे पानी
आँख न रोए
होए धरती धानी
दादुर बोले
झींगुर नाचे झूम
टिमकी बाजे
गूँजे छप्पर-छानी
मादल पाले
ढोलकिया की चाह
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।।
*
बजा नगाड़ा
बिजली बैरन सास
डाँट लगाती
बुझा न पाये प्यास
देवर रवि
दे वर; ले वर आ
दो पल तो हों
भू-नभ दोनों पास
क्षितिज हँसा
मिली चाह ले चाह
लिए बाँह में बाँह
***
नवगीत
कारे बदरा
*
आ रे कारे बदरा
*
टेर रही धरती तुझे
आकर प्यास बुझा
रीते कूप-नदी भरने की
आकर राह सुझा
ओ रे कारे बदरा
*
देर न कर अब तो बरस
बजा-बजा तबला
बिजली कहे न तू गरज
नारी है सबला
भा रे कारे बदरा
*
लहर-लहर लहरा सके
मछली के सँग झूम
बीरबहूटी दूब में
नाचे भू को चूम
गा रे कारे बदरा
*
लाँघ न सीमा बेरहम
धरा न जाए डूब
दुआ कर रहे जो वही
मनुज न जाए ऊब
जारे कारे बदरा
*
हरा-भरा हर पेड़ हो
नगमे सुना हवा
'सलिल' बूंद नर्तन करे
गम की बने दवा
जारे कारे बदरा
*****
दोहा सलिला:
मेघ की बात
*
उमड़-घुमड़ अा-जा रहे, मेघ न कर बरसात।
हाथ जोड़ सब माँगते, पानी की सौगात।।
*
मेघ पूछते गगन से, कहाँ नदी-तालाब।
वन-पर्वत दिखते नहीं, बरसूँ कहाँ जनाब।।
*
भूमि भवन से पट गई, नाले रहे न शेष।
करूँ कहाँ बरसात मैं, कब्जे हुए अशेष।।
*
लगा दिए टाइल अगिन, भू है तृषित अधीर।
समझ नहीं क्यों पा रहे, तुम माटी की पीर।।
*
स्वागत तुम करते नहीं, साध रहे हो स्वार्थ।
हरी चदरिया उढ़ाओ, भू पर हो परमार्थ।।
*
वर्षा मंगल भूलकर, ठूँस कान में यंत्र।
खोज रहे मन मुताबिक, बारिश का तुम मंत्र।।
*
जल प्रवाह के मार्ग सब, लील गया इंसान।
करूँ कहाँ बरसात कब, खोज रहा हूँ स्थान।।
*
रिमझिम गिरे फुहार तो, मच जाती है कीच।
भीग मजा लेते नहीं, प्रिय को भुज भर भींच।।
*
कजरी तुम गाते नहीं, भूले आल्हा छंद।
नेह न बरसे नैन से, प्यारा है छल-छंद।।
*
घास-दूब बाकी नहीं, बीरबहूटी लुप्त।
रौंद रहे हो प्रकृति को, हुई चेतना सुप्त।।
*
हवा सुनाती निरंतर, वसुधा का संदेश।
विरह-वेदना हर निठुर, तब जाना परदेश।।
*
प्रणय-निमंत्रण पा करूँ, जब-जब मैं बरसात।
जल-प्लावन से त्राहि हो, लगता है आघात।।
*
बरसूँ तो संत्रास है, डूब रहे हैं लोग।
ना बरसूँ तो प्यास से, जीवनांत का सोग।।
*
मनमानी आदम करे, दे कुदरत को दोष।
कैसे दूँ बरसात कर, मैं अमृत का कोष।।
*
नग्न नारियों से नहीं, हल चलवाना राह।
मेंढक पूजन से नहीं, पूरी होगी चाह।।
*
इंद्र-पूजना व्यर्थ है, चल मौसम के साथ।
हरा-भरा पर्यावरण, रखना तेरा हाथ।।
*
खोद तलैया-ताल तू, भर पानी अनमोल।
बाँध अनगिनत बाँध ले, पानी रोक न तोल।।
*
मत कर धरा सपाट तू, पौध लगा कर वृक्ष।
वन प्रांतर हों दस गुना, तभी फुलाना वक्ष।।
*
जूझ चुनौती से मनोज, श्रम को मिले न मात।
स्वागत कर आगत हुई, ले जीवन बरसात
***
दोहे बूँदाबाँदी के:
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे, तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ, बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
***

गुरुवार, 3 अगस्त 2023

गीत, लघुकथा, मुक्तक, नवगीत, बाल गीत, वर्षा, नागपंचमी,

गीत
*
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
नाव बनाना
कौन सिखाये?
बहे जा रहे समय नदी में.
समय न मिलता रिक्त सदी में.
काम न कोई
किसी के आये.
अपना संकट आप झेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
डेंगू से भय-
भीत सभी हैं.
नहीं भरोसा शेष रहा है.
कोइ न अपना सगा रहा है.
चेहरे सबके
पीत अभी हैं.
कितने पापड विवश बेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
उतर गया
चेहरे का पानी
दो से दो न सम्हाले जाते
कुत्ते-गाय न रोटी पाते
कहीं न बाकी
दादी-नानी.
चूहे भूखे दंड पेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
***
लघुकथा
बीज का अंकुर
*
चौकीदार के बेटे ने सिविल सर्विस परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। समाचार पाकर कमिश्नर साहब रुआंसे हो आये। मन की बात छिपा न सके और पत्नी से बोले बीज का अंकुर बीज जैसा क्यों नहीं होता?
अंकुर तो बीज जैसा ही होता है पर जरूरत सेज्यादा खाद-पानी रोज दिया जाए तो सड़ जाता है बीज का अंकुर।
***
लघुकथा :
सोई आत्मा
*
मदरसे जाने से मना करने पर उसे रोज डाँट पड़ती। एक दिन डरते-डरते उसने पिता को हक़ीक़त बता ही दी कि उस्ताद अकेले में.....
वालिद गुस्से में जाने को हुए तो वालिदा ने टोंका गुस्से में कुछ ऐसा-वैसा क़दम न उठा लेना उसकी पहुँच ऊपर तक है।
फ़िक्र न करो, मैं नज़दीक छिपा रहूँगा और आज जैसे ही उस्ताद किसी बच्चे के साथ गलत हरकत करेगा उसकी वीडियो फिल्म बनाकर पुलिस ठाणे और अखबार नवीस के साथ उस्ताद की बीबी और बेटी को भी भेज दूँगा।
सब मिलकर उस्ताद की खाट खड़ी करेंगे तो जाग जायेगी उसकी सोई आत्मा।
***
मुक्तक
बह्रर 2122-2122-2122-212
*
हो गए हैं धन्य हम तो आपका दीदार कर
थे अधूरे आपके बिन पूर्ण हैं दिल हार कर
दे दिया दिल आपको, दिल आपसे है ले लिया
जी गए हैं आप पर खुद को 'सलिल' हम वार कर
*
बोलिये भी, मौन रहकर दूर कब शिकवे हुए
तोलिये भी, बात कह-सुन आप-मैं अपने हुए
मैं सही हूँ, तू गलत है, यह नज़रिया ही गलत
जो दिलों को जोड़ दें, वो ही सही नपने हुए
3-8-2016
***
नवगीत:
*
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
कृषक-सूर्य को
खिला कलेवा
उषा भेजती
गगन-खेत पर
रश्मि-बीज
देता बिखेर रवि
सकल भूमि पर
देख-रेखकर
नव उजास
पल्लव विकसे
निखर गया
वसुधा का रूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
हवा बहुरिया
चली मटककर
दिशा ननदिया
खीझे चिढ़कर
बरगद बब्बा
खांस-खँखारें
नीम झींकती
रात जागकर
फटक रही है
आलस-चोकर
उठा गौरैया
ले पर -सूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
लिव इन रिश्ते
पाल रही है
हर सिंगार संग
ढीठ चमेली
ठेंगा दिखा
खाप को खींसें
रही निपोर
जुही अलबेली
चाँद-चाँदनी
झाँक देखते
छवि, रीझा है
नन्ना कूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
***
लघुकथा
शब्द और अर्थ -
शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त होने पर चैन की साँस ली और कमर सीधी करने के लिये लेटा ही था कि काम करने की मेज पर कुछ हलचल सुनाई दी. वह मन मारकर उठा, देखा मेज पर शब्द समूहों में से कुछ शब्द बाहर आ गये थे. उसने पढ़ा - वे शब्द थे प्रजातंत्र, गणतंत्र, जनतंत्र और लोकतंत्र .
हैरान होते हुए कोशकार ने पूछा- ' अभी-अभी तो मैंने तुम सबको सही स्थान पर रखा था, तुम बाहर क्यों आ गये?'
'इसलिए कि तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे सरासर ग़लत लगते हैं.' एक स्वर से सबने कहा.
'एक-एक कर बोलो तो कुछ समझ सकूँ.' कोशकार ने कहा.
'प्रजातंत्र प्रजा का, प्रजा के लिये, प्रजा के द्वारा नहीं, नेताओं का, नेताओं के लिये, नेताओं के द्वारा स्थापित शासन तंत्र हो गया है' - प्रजातंत्र बोला.
गणतंत्र ने अपनी आपत्ति बतायी- 'गणतंत्र का आशय उस व्यवस्था से है जिसमें गण द्वारा अपनी रक्षा के लिये प्रशासन को दी गयी गन का प्रयोग कर प्रशासन गण का दमन जन प्रतिनिधियों की सहमति से करते हों.'
'जनतंत्र वह प्रणाली है जिसमें जनमत की अवहेलना करनेवाले जनप्रतिनिधि और जनगण की सेवा के लिये नियुक्त जनसेवक मिलकर जनगण की छाती पर दाल दलना अपना संविधान सम्मत अधिकार मानते हैं.' - जनतंत्र ने कहा.
लोकतंत्र ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए बताया- 'लोकतंत्र में लोक तो क्या लोकनायक की भी उपेक्षा होती है. दुनिया के दो सबसे बड़ा लोकतंत्रों में से एक अपने हित की नीतियाँ बलात अन्य देशों पर थोपता है तो दूसरे की संसद में राजनैतिक दल शत्रु देश की तुलना में अन्य दल को अधिक नुकसानदायक मानकर आचरण करते हैं.' - लोकतंत्र की राय सुनकर कोशकार स्तब्ध रह गया.
***
नवगीत
*
मक्के की दो रोटियाँ
चटनी -सरसों साग
मांग रही हैं अंतड़ियाँ
लगी पेट में आग
*
हुए नहीं अपने
झूठे हैं सपने
कभी लगे तपने
कभी लगे कँपने
तोड़ रहे हैं बोटियाँ
लेकिन लगी न लॉग
डूब रही हैं झुपड़ियाँ
बादल डँसते नाग
*
बेढब हैं नपने
खास लगे खपने
खाप लगे ग्रसने
जाल लगे फंसने
जाने कितनी कोटियाँ
नेता करिया नाग
लकड़ी सी हैं लड़कियाँ
ताक न लड़के भाग
3-8-2015
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लेख :
नागको नमन :
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नागपंचमी आयी और गयी... वन विभागकर्मियों और पुलिसवालोंने वन्य जीव रक्षाके नामपर सपेरों को पकड़ा, आजीविका कमानेसे वंचित किया और वसूले बिना तो छोड़ा नहीं होगा। उनकी चांदी हो गयी.
पारम्परिक पेशेसे वंचित किये गए ये सपेरे अब आजीविका कहाँसे कमाएंगे? वे शिक्षित-प्रशिक्षित तो हैं नहीं, खेती या उद्योग भी नहीं हैं. अतः, उन्हें अपराध करनेकी राह पर ला खड़ा करनेका कार्य शासन-प्रशासन और तथाकथित जीवरक्षणके पक्षधरताओंने किया है.
जिस देशमें पूज्य गाय, उपयोगी बैल, भैंस, बकरी आदिका निर्दयतापूर्वक कत्ल कर उनका मांस लटकाने, बेचने और खाने पर प्रतिबंध नहीं है वहाँ जहरीले और प्रतिवर्ष लगभग ५०,००० मृत्युओंका कारण बननेवाले साँपोंको मात्र एक दिन पूजनेपर दुग्धपानसे उनकी मृत्युकी बात तिलको ताड़ बनाकर कही गयी. दूरदर्शनी चैनलों पर विशेषज्ञ और पत्रकार टी.आर.पी. के चक्करमें तथाकथित विशेषज्ञों और पंडितों के साथ बैठकर घंटों निरर्थक बहसें करते रहे. इस चर्चाओंमें सर्प पूजाके मूल आर्य और नाग सभ्यताओंके सम्मिलनकी कोई बात नहीं की गयी. आदिवासियों और शहरवासियों के बीच सांस्कृतिक सेतुके रूपमें नाग की भूमिका, चूहोंके विनाश में नागके उपयोगिता, जन-मन से नागके प्रति भय कम कर नागको बचाने में नागपंचमी जैसे पर्वोंकी उपयोगिता को एकतरफा नकार दिया गया.
संयोगवश इसी समय दूरदर्शन पर महाभारत श्रृंखला में पांडवों द्वारा नागों की भूमि छीनने, फलतः नागों द्वारा विद्रोह, नागराजा द्वारा दुर्योधन का साथ देने जैसे प्रसंग दर्शाये गये किन्तु इन तथाकथित विद्वानों और पत्रकारों ने नागपंचमी, नागप्रजाजनों (सपेरों - आदिवासियों) के साथ विकास के नाम पर अब तक हुए अत्याचार की और नहीं गया तो उसके प्रतिकार की बात कैसे करते?
इस प्रसंग में एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह भी है कि इस देशमें बुद्धिजीवी माने जानेवाले कायस्थ समाज ने भी यह भुला दिया कि नागराजा वासुकि की कन्या उनके मूलपुरुष चित्रगुप्त जी की पत्नी हैं तथा चित्रगुप्त जी के १२ पुत्रों के विवाह भी नाग कन्याओं से ही हुए हैं जिनसे कायस्थों की उत्पत्ति हुई. इस पौराणिक कथा का वर्ष में कई बार पाठ करने के बाद भी कायस्थ आदिवासी समाज से अपने ननिहाल होने के संबंध को याद नहीं रख सके. फलतः। खुद राजसत्ता गंवाकर आमजन हो गए और आदिवासी भी शिक्षित हुआ. इस दृष्टि से देखें तो नागपंचमी कायस्थ समाज का भी महापर्व है और नाग पूजन उनकी अपनी परमरा है जहां विष को भी अमृत में बदलकर उपयोगी बनाने की सामर्थ्य पैदा की जाती है.
शिवभक्तों और शैव संतों को भी नागपंचमी पर्व की कोई उपयोगिता नज़र नहीं आयी.
यह पर्व मल्ल विद्या साधकों का महापर्व है लेकिन तमाम अखाड़े मौन हैं बावजूद इस सत्य के कि विश्व स्तरीय क्रीड़ा प्रतियोगिताएं में मल्लों की दम पर ही भारत सर उठाकर खड़ा हो पाता है. वैलेंटाइन जैसे विदेशी पर्व के समर्थक इससे दूर हैं यह तो समझा जा सकता है किन्तु वेलेंटाइन का विरोध करनेवाले समूह कहाँ हैं? वे नागपंचमी को यवा शौर्य-पराक्रम का महापर्व क्यों नहीं बना देते जबकि उन्हीं के समर्थक राजनैतिक दल राज्यों और केंद्र में सत्ता पर काबिज हैं?
महाराष्ट्र से अन्य राज्यवासियों को बाहर करनेके प्रति उत्सुक नेता और दल नागपंचमई को महाराष्ट्र की मल्लखम्ब विधा का महापर्व क्यों कहीं बनाते? क्यों नहीं यह खेल भी विश्व प्रतियोगिताओं में शामिल कराया जाए और भारत के खाते में कुछ और पदक आएं?
अंत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह कि जिन सपेरों को अनावश्यक और अपराधी कहा जा रहा है, उनके नागरिक अधिकार की रक्षा कर उन्हें पारम्परिक पेशे से वंचित करने के स्थान पर उनके ज्ञान और सामर्थ्य का उपयोग कर हर शहर में सर्प संरक्षण केंद्र खोले जाए जहाँ सर्प पालन कर औषधि निर्माण हेतु सर्प विष का व्यावसायिक उत्पादन हो. सपेरों को यहाँ रोजगार मिले, वे दर-दर भटकने के बजाय सम्मनित नागरिक का जीवन जियें। सर्प विष से बचाव के उनके पारम्परिक ज्ञान मन्त्रों और जड़ी-बूटियों पर शोध हो.
क्या माननीय नरेंद्र मोदी जी इस और ध्यान देंगे?
3-8-2014
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बुधवार, 4 अगस्त 2021

दोहा, वर्षा, मेघदूत

दोहा सलिला
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मेघदूत संदेश ले, आये भू के द्वार
स्नेह-रश्मि पा सुमन हँस, उमड़े बन जल-धार
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पल्लव झूमे गले मिल, कभी करें तकरार
कभी गले मिलकर 'सलिल', करें मान मनुहार
*
आदम दुबका नीड़ में, हुआ प्रकृति से दूर
वर्षा-मंगल भूलकर, कोसे प्रभु को सूर
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मेघदूत के मुँह चढ़ा, मास्क देख भयभीत
यक्षप्रिया बेसुध हुई, विकल मेघ की प्रीत 
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४-८-२०२०

मंगलवार, 6 अगस्त 2019

बाल गीत: बरसे पानी

बाल गीत:
बरसे पानी
संजीव 'सलिल'
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही,
जैसे ओढ़े चूनर धानी.
काश कहीं झूला मिल जाता,
सुनते-गाते कजरी-बानी.
'सलिल' बालपन फिर मिल पाये.
बिसराऊँ सब अकल सयानी.
*

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

baalgeet

 बाल गीत 







पारुल

रुन-झुन करती आयी पारुल।
सब बच्चों को भायी पारुल।
बादल गरजे, तनिक न सहमी।
बरखा लख मुस्कायी पारुल।
चम-चम बिजली दूर गिरी तो,
उछल-कूद हर्षायी पारुल।
गिरी-उठी, पानी में भीगी।
सखियों सहित नहायी पारुल।
मैया ने जब डाँट दिया तो-
मचल-रूठ-गुस्सायी पारुल।
छप-छप खेले, ता-ता थैया।
मेंढक के संग धायी पारुल।
'सलिल' धार से भर-भर अंजुरी।
भिगा-भीग मस्तायी पारुल।

मंगलवार ७-७-२००९ 

janakchhndi geet

अभिनव प्रयोग
जनकछन्दी (त्रिपदिक) गीत
*
मेघ न बरसे राम रे!
जन-मन तरसे साँवरे!
कब आएँ घन श्याम रे!!
*
प्राण न ले ले घाम अब
झुलस रहा है चाम अब
जान बचाओ राम अब
.
मेघ हो गए बाँवरे
आये नगरी-गाँव रे!
कहीं न पायी ठाँव रे!!
*
गिरा दिया थक जल-कलश
स्वागत करते जन हरष
भीगे -डूबे भू-फ़रश
.
कहती उगती भोर रे
चल खेतों की ओर रे
संसद-मचे न शोर रे
*
काटे वन, हो भूस्खलन
मत कर प्रकृति का दमन
ले सुधार मानव चलन
.
सुने नहीं इंसान रे
भोगे दण्ड-विधान रे
कलपे कह 'भगवान रे!'
*
तोड़े मर्यादा मनुज
करे आचरण ज्यों दनुज
इससे अच्छे हैं वनज
.
लोभ-मोह के पाश रे
करते सत्यानाश रे
क्रुद्ध पवन-आकाश रे
*
तूफ़ां-बारिश-जल प्रलय
दोषी मानव का अनय
अकड़ नहीं, अपना विनय
.
अपने करम सुधार रे
लगा पौध-पतवार रे
कर धरती से प्यार रे
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रविवार, 15 जुलाई 2012

गद्य गीत: वर्षा -- किरण







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हर किसी ने मन रूपी नेत्रों से तुम्हे अलग-अलग रूपों में देखा.
 
कहीं किसी ने प्रेम का प्रतीक मान प्रेम बांटते देखा,  तो कहीं किसी ने वियोग में विरहनी बन अश्रु धारा बहाते देखा!

कभी किसी ने हर्षित चंचला बन मचलते देखा, तो कहीं रूद्र रूप धारण कर साधारण जन को अपनी शक्ति से डराते देखा !

किसी ने इन नन्ही नन्ही बूंदों में  जीवन के हर पड़ाव को आते-जाते देखा, कहीं किसी ने चातक बन अपने सपनों को पूरा होते देखा !
मैंने अपने जीवन में तुम्हें को मन का अवसाद धोते देखा, माँ बन कर तन को, मन को, धोते-स्वच्छ करते देखा! 
माँ वर्षा तुम हर वर्ष विभिन्न रूपों में ऐसे ही आते रहना भीगा-भीगा, प्यारा-प्यारा खुशहाली बरसाता आशीर्वाद देते रहना !
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"kiran" <kiran5690472@yahoo.co.in>