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सोमवार, 6 सितंबर 2010

मैथिली हाइकु : "शिष्य देखल " कुसुम ठाकुर

मैथिली हाइकु : 

 
"शिष्य देखल "

कुसुम  ठाकुर 
*


*
विद्वान छथि
ओ शिष्य कहाबथि
छथि विनम्र
*
गुरु हुनक
सौभाग्य हमर ई
ओ भेंटलथि
*
इच्छा हुनक
बनल छी माध्यम
तरि जायब
*
भरोस छैन्ह
छी हमर प्रयास
परिणाम की ?
*
भाषा प्रेमक
नहि उदाहरण
छथि व्यक्तित्व
*
छैन्ह उद्गार
देखल उपासक
नहि उपमा
*
कहथि नहि
विवेकपूर्ण छथि
उत्तम लोक
*
सामर्थ्य छैन्ह
प्रोत्साहन अद्भुत
हुलसगर
*
प्रयास करि
उत्तम फल भेंटs
तs कोन हानि
*
सेवा करथि
गंगाक उपासक
छथि सलिल
*

शुक्रवार, 25 जून 2010

हाइकु का रंग मैथिली के सँग --- संजीव 'सलिल'

हाइकु का रंग मैथिली के सँग
संजीव 'सलिल'





 










स्नेह करब
की सगर दुनिया
देवक श्रृष्टि

प्रेमक संग
मिलु सब संग ज्यों
की नफरत


पान मखान
मधुबनी पेंटिंग
अछिए शान

सम्पूर्ण क्रान्ति
जय प्रकाश बाबू
बिसरी गेल
चले आज
विकासक बयार
नीक धारणा

चलि परल
विकासक रस्ता
तS बिहारी बाबू

*
चलय  आज
विकासक बयार
नीक धारणा
*

रविवार, 23 मई 2010

हाइकु का रंग मैथिली के संग ---कुसुम ठाकुर

हाइकु का रंग मैथिली के संग

कुसुम ठाकुर
*
कुसुम जी एक संवेदनशील रचनाकार हैं जो अपने चिट्ठों पर न केवल निरंतर सक्रिय रहती हैं अपितु खड़ी हिन्दी के साथ-साथ मैथिली और भोजपुरी में भी रचना कर्म कर पाती हैं. कुसुम जी ने पहली बार हाइकु रचे हैं. कुसुम के रचना उद्यान में खिली ये कलियाँ माँ शारदा के श्री चरणों में समर्पित कर रही है दिव्य नर्मदा:
*
आस बनल
अछि अहाँक अम्बे
हम टूगर
*
ध्यान धरब
हम कोना आ नहि
सूझे तैयो
*
पाप बहुत
हम कयने छी हे
अहिंक धीया
*
जायब कत
आब नहि सूझे
करू उद्धार
*
जायब कत
आब नहि सूझे
करू उद्धार
*
कुसुम जी के लिए दिव्य नर्मदा परिवार की ओर से हाइकु उपहार:
*
कुसुम गंध
मननीय हाइकु
सुगंध फैले.
*
मन को भाये
सार्थक हैं हाइकु
खूब बधाई.
*
बिंदु में सिन्धु
गागर में सागर
हाइकु छंद.
*
लिखें नित्य ही
हाइकु कवितायेँ
मजा भी आये.
*
कोशिश से ही
मिलती सफलता
यश-कीर्ति भी.
*
शब्द ब्रम्ह की
जब हो आराधना
हृदय खिले.
*
मन की बात
कह देता हाइकु
चंद शब्दों में.
*

शनिवार, 21 नवंबर 2009

मैथिली कविता: "चुलबुली कन्या बनि गेलहुँ" -कुसुम ठाकुर

मैथिली कविता:

बिहार के मिथिला अंचल की जन भाषा मैथिली समृद्ध साहित्यिक सृजन परंपरा के वाहक है. प्रस्तुत है नवोदित कवयित्री कुसुम ठाकुर की प्रथम मैथिली कविता_

"चुलबुली कन्या बनि गेलहुँ"


बिसरल छलहुँ हम कतेक बरिस सँ ,
अपन सभ अरमान आ सपना ।
कोना लोक हँसय कोना हँसाबय ,
आ कि हँसी में सामिल होमय ।
आइ अकस्मात अपन बदलल ,
स्वभाव देखि हम स्वयं अचंभित ।
दिन भरि हम सोचिते रहि गेलहुँ ,
मुदा जवाब हमरा नहि भेंटल ।
एक दिन हम छलहुँ हेरायल ,
ध्यान कतय छल से नहि जानि ।
अकस्मात मोन भेल प्रफुल्लित ,
सोचि आयल हमर मुँह पर मुस्की ।
हम बुझि गेलहुँ आजु कियैक ,
हमर स्वभाव एतेक बदलि गेल ।
किन्कहु पर विश्वास एतेक जे ,
फेर सँ चंचल,चुलबुली कन्या बनि गेलहुँ ।।


-http://sansmaran-kusum.blogspot.com