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बुधवार, 13 जुलाई 2016

muktak

मुक्तक 
*
था सरोवर, रह गया पोखर महज क्यों आदमी?
जटिल क्यों?, मिलता नहीं है अब सहज क्यों आदमी?
काश हो तालाब शत-शत कमल शतदल खिल सकें-
आदमी से गले मिलकर 'सलिल' खुश हो आदमी।। 
*
राजनीति पोखर हुई, नेता जी टर्राय 
कुर्सी की गर्मी चढ़ी, आँय-बाँय बर्राय
वादों को जुमला कहें, कहें झूठ को साँच 
कोसें रोज विपक्ष को, पद-मद से गर्राय 
*
बदला है तालाब का पानी प्रिय दुष्यंत 
जैसे रहे विदेश में वैसे घर में कंत 
किस-किस को हम दोष दें?, सभी एक से एक 
अपनी करनी सुधारें, नहीं शेष में तंत 

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

गीत: मनुज से... संजीव 'सलिल'

गीत:

मनुज से...

संजीव 'सलिल'
*

*
न आये यहाँ हम बुलाये गये हैं.
तुम्हारे ही हाथों बनाये गये हैं.
ये सच है कि निर्मम हैं, बेजान हैं हम,
कलेजे से तुमको लगाये गये हैं.

नहीं हमने काटा कभी कोई जंगल
तुम्हीं कर रहे थे धरा का अमंगल.
तुमने ही खोदे थे पर्वत और टीले-
तुम्हीं ने किया पाट तालाब दंगल..

तुम्हीं ने बनाये ये कल-कारखाने.
तुम्हीं जुट गये थे भवन निज बनाने.
तुम्हारी हवस का न है अंत लोगों-
छोड़ा न अवसर लगे जब भुनाने..

कोयल की छोड़ो, न कागा को छोड़ा.
कलियों के संग फूल कांटा भी तोड़ा.
तुलसी को तज, कैक्टस शत उगाये-
चुभे आज काँटे हुआ दर्द थोड़ा..

मलिन नेह की नर्मदा तुमने की है.
अहम् के वहम की सुरा तुमने पी है.
न सम्हले अगर तो मिटोगे ये सुन लो-
घुटन, फ़िक्र खुद को तुम्हीं ने तो दी है..

हूँ रचना तुम्हारी, तुम्हें जानती हूँ.
बचाऊँगी तुमको ये हाथ ठानती हूँ.
हो जैसे भी मेरे हो, मेरे रहोगे-
इरादे तुम्हारे मैं पहचानती हूँ..

नियति का इशारा समझना ही होगा.
प्रकृति के मुताबिक ही चलना भी होगा.
मुझे दोष देते हो नादां हो तुम-
गिरे हो तो उठकर सम्हलना भी होगा..

ये कोंक्रीटी जंगल न ज्यादा उगाओ.
धरा-पुत्र थे, फिर धरा-सुत कहाओ..
धरती को सींचो, पुनः वन उगाओ-
'सलिल'-धार संग फिर हँसो-मुस्कुराओ..

नहीं है पराया कोई, सब हैं अपने.
अगर मान पाये, हों साकार सपने.
बिना स्वर्गवासी हुए स्वर्ग पाओ-
न मंगल पे जा, भू का मंगल मनाओ..

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

बुधवार, 21 जुलाई 2010

दोहा दर्पण: संजीव 'सलिल' *


दोहा दर्पण:

संजीव 'सलिल'

*
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*
कविता की बारिश करें, कवि बादल हों दूर.
कौन किसे रोके 'सलिल', आँखें रहते सूर..

है विवेक ही सुप्त तो, क्यों आये बरसात.
काट वनों को, खोद दे पर्वत खो सौगात..

तालाबों को पाट दे, मरुथल से कर प्यार.
अपना दुश्मन मनुज खुद, जीवन से बेज़ार..

पशु-पक्षी सब मारकर खा- मंगल पर घूम.
दंगल कर, मंगल भुला, 'सलिल' मचा चल धूम..

जर-ज़मीन-जोरू-हुआ, सिर पर नशा सवार.
अपना दुश्मन आप बन, मिटने हम बेज़ार..

गलती पर गलती करें, दें औरों को दोष.
किन्तु निरंतर बढ़ रहा, है पापों का कोष..

ले विकास का नाम हम, करने तुले विनाश.
खुद को खुद ही हो रहे, 'सलिल' मौत का पाश..
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com