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शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

व्यंग्य- हाय! हम न रूबी राय हुए

व्यंग्य- 
हाय! हम न रूबी राय हुए 
- संजीव वर्मा 'सलिल'
*
रात अचानक नींद खुल गयी, उठ भी नहीं सकता था। श्रीमती जी की निद्रा भंग होने की आशंका और फिर अगले दिन ठीक से सो न पाने का उलाहना कौन सुनता? यह भी कि देर रात उठकर तीर भी कौन सा मार लेता? सो 'करवटें बदलते रहे सारी' न सही आधी 'रात हम'... कसम किसकी? यह नहीं बता सकते.... 'श्रीमती जी की' कहा तो गुस्सा "क्यों असगुन कर रहे हो झूठ बोलकर" और किसी और का नाम लिया तो ज़लज़ला ही आ जायेगा सो "परदे में रहने दो पर्दा न उठाओ, पर्दा जो उठ गया तो" रूबी राय बन जाएगा।

चालीस साल इंजीनियरी करने, सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं में सक्रिय रहने और कलम घिसाई करने, ५ पुस्तकें छपाने और सहस्त्रों रचनाएँ करने के बाद बकौल श्रीमती जी "भाड़ झोंकने" के बाद भी दूरदर्शन पर अपने आपके निकट दर्शन कर पाने से वंचित रहा मैं, गत कई दिनों से छोटे पर्दे की एकछत्र साम्राज्ञी महामहिमामयी रूबी राय जी के कीर्तिमान के समक्ष नतमस्तक हो सोचने लगा 'क्यों न टॉपर बन गया?'
मैं ही नहीं, न जाने कितने और भी यही सोच रहे होंगे। जो समझदार हैं उन्होंने सोचा पूरा न सही, आधा ही सही कुछ तो हाथ आये। ऐसे समझदार जनसेवक दो खेमों में बँट गए। कुछ रूबी राय के विरोध में बोलकर-लिखकर सुर्ख़ियों में आ गए, शासन, प्रशासन, कॉलेज प्रबंधन और छात्रों को पानी पीकर कोसने, अरे! नहीं, नहीं तब तो भीषण गर्मी और पानी का अकाल था, इसलिए बिना पानी पिए ही सबको कोस-कोसकर अख़बारों में छपे और दिन - दो दिन की वाहवाही बटोरकर भुला दिए गए। कोसनेवालों के हाथ में दोष - दर्शन के अलावा कोई तर्क नहीं रहा, लोग उनसे मौखिक सहानुभूति जताकर धीरे से सरकने लगे चूँकि अपने गरेबां में झाँकते ही जान गए कि हमाम में सब नंगे हैं। मौका मिलने पर हाथ सेंकनेवाले भी कहाँ पीछे रहे? अपने चेहरे की झलक कैमरे में कैद होते ही सरक लिए। रूबी राय के कारण जो प्रथम आने की मनोकामना पूरी न कर सके थे, वे शुरू में खुश हुए किंतु खुलासे की आग में अपने भी हाथ जलते देख 'सबसे भली चुप्प' के नीति का अनुसरण करने लगे।बाकी रह गये वे जिन्हें मौक़ा ही नहीं मिला, ऐसे लोग मौके की तलाश में आगे आये किन्तु यह अहसास होते ही कि कल मौका देनेवाले उनसे दूर हो जायेंगे, पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए।
कुछ अधिक समझदार जननायक बनने की तैयारी कर आरंभ में मौन रहकर हालात का जायज़ा लेते रहे और फिर धीरे से समर्थन में आ खड़े हुए और मौखिक संवेदना जताने लगे। इनके तर्क अधिक दमदार हैं। भारत में हर गलत को सही सिद्ध करने का सर्वाधिक प्रभावशाली शस्त्र मानवाधिकार है। आतंकी सौ निर्दोषों को मार दे तो कोई बात नहीं, सेना या पुलिस आतंकी को मारने की बात सोचे भी तो मानवाधिकार पर बिजली गिर जाती है। किसी अपराधी मानसिकता के नराधम ने किसी अबला के साथ कुकृत्य किया तो व्यवस्था दोष को लेकर हंगामा और जब दण्ड देने की बात सामने आये तो अपराधी के कमसिन होने, गरीब होने, अशिक्षित होने याने किसी न किसी बात का बतंगड़ कर अपराधी को नाममात्र का दण्ड दिलाकर या दण्ड-मुक्त कराने की दुहाई देकर अपनी पीठ आप ठोंकने का मौका तलाशना मानवाधिकारवादियों का प्रिय शगल है। कोइ रईसजादा इन्हें इस से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी बात न्यायालय में टिकी या नहीं? उन्हें मतलब सिर्फ इस बात से है कि सुर्खियाँ बटोरीं, कतरने विदेश भेजीं और अपने एन. जी. ओ. के लिए डोनेशन बटोरकर अपने निजी ऐशो-आराम पर खर्च किया। किस्मत ने साथ दिया और दमदार नेता की कोई कमी पकड़ ली तो उसे उजागर न करने का सौदा कर 'पदम' पाने का जुगाड़ याने आम के आम गुठली के भी दाम। रूबी राय ऐसे मानवाधिकारवादियों (?) के लिए सुनहरा मौका है।
रूबी राय एक लॉटरी है जो खुल गयी है स्त्री विमर्शवादियों के नाम पर। लॉटरी भी ऐसी जिसका टिकिट ही नहीं खरीदना पड़ा। इनका तर्क यह है कि वह कमसिन है, अबला है, निर्दोष-नासमझ है, धोखे से फँसाई गयी है। स्त्री विमर्शवादी द्रौपदी, अहल्या, मंदोदरी, शूर्पणखा, शबरी और न जाने किस-किस के गड़े मुर्दे उखाड़कर सिद्ध कर देंगे कि इस देश में नारी का दमन और शोषण ही किया गया है, कभी मान, प्यार, लाड़ नहीं दिया गया। बहुत आसानी से भुला दिया जाएगा कि इसी देश में कहा गया 'काह न अबला कर सके?' कहकर नारी की सामर्थ्य को आलोचकों ने भी स्वीकारा है। इसी देश में 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' कह कर नारी की वंदना की गयी। इसी देश में विद्या, धन और शक्ति की अधिष्ठात्री नारी ही मान्य है जिसकी उपासना कर नर खुद को धन्य मानता है। इनसे पूछ लिया जाए कि उन्हें लाड़ नहीं मिला तो जन्म के बाद सुरक्षित कैसे रहीं? उन्हें प्यार नहीं मिला तो वे अपने सुहाग पर नाज़ क्यों करती हैं और संतान कहाँ से आई? उन्हें सम्मान नहीं मिला तो घर में उनकी मर्जी के बिना पत्ता भी क्यों नहीं खड़कता? तो वे बगलें झाँकती नज़र आएँगी।
लोकतंत्र की विधायिका के अपरिहार्य अंग विपक्ष के लिए तो यह प्रसंग सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी की तरह है।अपने सत्ताकाल में हुईं इस जैसी और इससे भी बड़ी गड़बड़ियों को भूलकर इस प्रसंग को लेकर जुलूस, नारेबाजी, सभाएँ, अखबारबाजी और खबरी चैनलों पर भाषणबाजी का यह सुनहरा मौका है। सत्ता पक्ष की आलोचना, सरकार को कटघरे में खड़ा करना, सत्ता के सच को झूठ और विपक्ष के झूठ को सच कहना, कुर्सी से दूर रहने तक अपना जन्मसिद्ध अधिकार माननेवाले, सत्ता हेतु समर्पित राजनैतिक लोगों के लिए रूबी-प्रसंग अलादीन का चिराग है, घिसते रहो कभी न कभी तो जिन्न निकलेगा ही। "मंज़िल मिले, मिले न मिले, और बात है / मंज़िल की जुस्तजू में मेरा (इनका) कारवां तो है।" इनका बस चले तो ये रूबी मैया की जय का जयकारा लगते हुए विधान सभा के गलियारे में व्रत-कथा भी करने लगें।
यह प्रसंग परिवार के व्यक्तिगत विरोधियों के लिए भी एक अवसर है किन्तु वे जुबानी चटखारे ले - लेकर परनिंदा रस का आनंद लेने से अधिक नहीं सकेंगे कि इससे अधिक की उनकी औकात ही नहीं है। कॉलेज के व्यवसायगत विरोधियों के लिए यह मौका है खुद को बढ़ाने का। इसलिए नहीं कि वे ऐसा फिर नहीं होने देना चाहते बल्कि इसलिए कि ऐसा चाहनेवाले अब बड़ी रकम देकर उनकी संस्था में प्रवेश लें और अगले कई वर्षों तक कुशलतापूर्वक ऐसे कारनामे करने का अवसर उन्हें मिले।
पराई आग में हाथ सेंकने की आदी खबरिया बिरादरी के छुटभैये इस घटना को नमक-मिर्च लगाकर इस आस में बखानते रहेंगे कि उनका कद बढ़ जाए लेकिन उनके आका उनसे कई कदम आगे हैं। वे छुटभैयों द्वारा जुटाए गए मसाले सनसनीखेज़ बनाकर सबसे पहले परोसने की नूरा कुश्ती कर टी. आर. पी. बढ़ाने में प्राण-प्राण से संलग्न होकर, कॉलेजों से विज्ञापन जुटाकर अपना उल्लू सीधा करेंगे। यही नहीं ऐसे मामलों से होनेवाली कमाई का अंदाज़ कर अपना कॉलेज आरम्भ करने में भी पीछे नहीं रहेंगे।इसलिए निकट भविष्य में ऐसे अनेक प्रकरण हर राज्य और विश्वविद्यालय में होने लगें तो 'किमाश्चर्यम?' अर्थात कोई आश्चर्य नहीं।
यहाँ तक तो फिर भी गनीमत है लेकिन बात यहीं नहीं रूकती, यह प्रसंग सत्ता पक्ष के लिए भी मौके को भुनाने की तरह है। जाँच के नाम पर एक जाँच आयोग गठित कर अपने चहेतों को नियुक्त कर मुख्य मंत्री जी विद्यार्थी वर्ग जो कल मतदाता बनेगा, के बीच अपनी स्वच्छ छवि बनायेँगे। जाँच आयोग सुरसा के मुँह की तरह अपना कार्यकाल और बजट बढ़ाता जाएगा और जब उसके घपले सामने आयेंगे तो एक साथ गवाहों की दुर्घटना या बीमारियों से मौतें होने लगेंगी। नेताओं को राजनीति की रोटियां सेंकने के नए अवसर मिलते रहेंगे।
इस घटना के बाद रूबी राय व्यक्ति नहीं प्रवृत्ति बन गयी है। हम सबमें कहीं न कहीं रूबी राय है। वह जब भी नज़र आये तो उसे उकसाने नहीं, दबाने की जरूरत है कि वह गलत तरीके या छोटे मार्ग से शीर्ष तक जाने की बात न सोचे।
रूबी राय को इस मुकाम पर पहुँचाने का श्रेय है उसके माता-पिता, कॉलेज प्रबंधक, उत्तर पुस्तिका जाँचकर्ता और नियति को भी है। जो हुआ वह सब होने के बाद भी यदि रूबी राय शीर्ष पर न आकर कुछ नीचे आतीं ८ वें-१० वें क्रमांक पर, तो उनकी चर्चा ही न होती। अभी भी उनके अलावा किस-किस ने किस प्रकार कितने अंक और कौन सा स्थान इसके पहले पाया या बाद में पाएगा यह कोई नहीं बता सकता।रूबी के जीवन में जटिलता और बदनामी का उसे सामना करना ही होगा, उसके परिजन उसे सहारा दें और इतना सबल बनायें कि वह परिश्रम कर उत्तम परिणाम लाये और जिन में कुछ बन सके।
लाख टके का सवाल यह है कि क्या इस सबके बाद भी रूबी राय, उनके स्वजन, कॉलेज प्रबंधन या अन्य छात्र ऐसा करने से तौबा करेंगे? अगर नहीं तो इसका यही अर्थ है कि मिल रही सजा कम है। हमारे समाज की यही विडंबना है कि सही को सराहनेवाले नहीं मिलते पर गलत के प्रति सहानुभूति जतानेवाले रेडीमेड होते हैं। इसे संयोग कहें या दुर्योग सच यह है कि शिक्षा के नाम पर अंकों और उपाधियों का फर्जीवाड़ा सड़ गए नासूर की तरह बजबजा रहा है। दो ही रास्ते हैं दोषियों को कड़ा दण्ड या रहमदिली के साथ और बढ़ने का अवसर देना।पौ फटती देख मन मसोस कर उठ रहे हैं कि हाय! हम क्यों न हुए रूबी राय ? हो पाते तो दूरदर्शन और छाने के साथ हमारे हमदर्दों की भी बड़ी संख्या होती।
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गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

व्यंग्य लेख: माया महाठगिनी हम जानी

व्यंग्य लेख::
माया महाठगिनी हम जानी
संजीव
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तथाकथित लोकतंत्र का राजनैतिक महापर्व संपन्न हुआ। सत्य नारायण कथा में जिस तरह सत्यनारायण को छोड़कर सब कुछ मिलता है, उसी तरह लोकतंत्र में लोक को छोड़कर सब कुछ प्राप्य है। यहाँ पल-पल 'लोक' का मान-मर्दन करने में निष्णात 'तंत्र की तूती बोलती है। कहा जाता है कि यह 'लोक का, लोक के द्वारा, लोक के लिए' है लेकिन लोक का प्रतिनिधि 'लोक' नहीं 'दल' का बंधुआ मजदूर होता है। लोकतंत्र के मूल 'लोक मत' को गरीब की लुगाई, गाँव की भौजाई मुहावरे की तरह जब-तब अपहृत और रेपित करना हर दल अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानता है। ये दल राजनैतिक ही नहीं धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक भी हो सकते हैं। जो दल जितना अधिक दलदल मचने में माहिर होता है, उसे खबरिया जगत में उतनी ही अधिक जगह मिलती है।

हाँ, तो खबरिया जगत के अनुसार 'लोक' ने 'सेवक' चुन लिए हैं। 'लोक' ने न तो 'रिक्त स्थान की विज्ञप्ति प्रसारित की, न चीन्ह-चीन्ह कर विज्ञापन दिए, न करोड़ों रूपए आवेदन पत्रों के साथ बटोरे, न परीक्षा के प्रश्न-पत्र लीक कर वारे-न्यारे किए, न साक्षात्कार में चयन के नाम पर कोमलांगियों के साथ शयन कक्ष को गुलजार किया, न किसी का चयन किया, न किसी को ख़ारिज किया और 'सेवक' चुन लिए। अब ये तथाकथित लोकसेवक-देशसेवक 'लोक' और 'देश' की छाती पर दाल दलते हुए, ऐश-आराम, सत्तारोहण, कमीशन, घपलों, घोटालों की पंचवर्षीय पटकथाएँ लिखेंगे। उनको राह दिखाएँगे खरबूजे को देखकर खरबूजे की तरह रंग बदलने में माहिर प्रशासनिक सेवा के धुरंधर, उनकी रक्षा करेंगा देश का 'सर्वाधिक सुसंगठित खाकी वर्दीधारी गुंडातंत्र (बकौल सर्वोच्च न्यायालय), उनका गुणगान करेगा तवायफ की तरह चंद टकों और सुविधाओं के बदले अस्मत का सौदा करनेवाला खबरॉय संसार और इस सबके बाद भी कोई जेपी या अन्ना सामने आ गया तो उसके आंदोलन को गैर कानूनी बताने में न चूकनेवाला काले कोटधारी बाहुबलियों का समूह।

'लोकतंत्र' को 'लोभतंत्र' में परिवर्तित करने की चिरकालिक प्रक्रिया में चारों स्तंभों में घनघोर स्पर्धा होती रहती है। इस स्पर्धा के प्रति समर्पण और निष्ठां इतनी है की यदि इसे ओलंपिक में सम्मिलित कर लिया जाए तो स्वर्णपदक तो क्या तीनों पदकों में एक भी हमारे सिवा किसी अन्य को मिल ही नहीं सकता। दुनिया के बड़े से बड़े देश के बजट से कहीं अधिक राशि तो हमारे देश में इस अघोषित व्यवसाय में लगी हुई है। लोकतंत्र के चार खंबे ही नहीं हमारे देश के सर्वस्व तीजी साधु-संत भी इस व्यवसाय को भगवदपूजन से अह्दिक महत्व देते हैं। तभी तो घंटो से पंक्तिबद्ध खड़े भक्त खड़े ही रह जाते हैं और पुजारी की अंटी गरम करनेवाले चाट मंगनी और पैट ब्याह से भाई अधिक तेजी से दर्शन कर बाहर पहुँच जाते हैं।

लोकतंत्र में असीम संभावनाएं होती है। इसे 'कोकतंत्र' में भी सहजता से बदला जाता रहा है। टिकिट लेने, काम करने, परीक्षा उत्तीर्ण करने, शोधोपाधि पाने, नियुक्ति पाने, चुनावी टिकिट लेने, मंत्री पद पाने, न्याय पाने या कर्ज लेने में कैसी भी अनियमितता या बाधा हो, बिस्तर गरम करते ही दूर हो जाती है। और तो और नवग्रहों की बाधा, देवताओं का कोप और किस्मत की मार भी पंडित, मुल्ला या पादरी के शयनागार को आबाद कर दूर की जा सकती है। जिस तरह आप के बदले कोई और जाप कर दे तो आपके संकट दूर हो जाते हैं, वैसे ही आप किसी और को भी इस गंगा में डुबकी लगाने भेज सकते हैं। देव लोक में तो एक ही इंद्र है पर इस नर लोक में जितने भी 'काम' करनेवाले हैं वे सब 'काम' करने के बदले 'काम' होने के पहले 'काम की आराधना कर भवसागर पार उतरने का कोी मौका नहीं गँवाते।धर्म हो या दर्शन दोनों में कामिनी के बिना काम नहीं बनता।

हमारी विरासत है कि पहले 'काम' को भस्म कर दो फिर विवाह कर 'काम' के उपासक बन जाओ या 'पहले काम' को साध लो फिर संत कहलाओं। कोई-कोई पुरुषोत्तम आश्रम और मजारों की छाया में माया से ममता करने का पुरुषार्थ करते हुए भी 'रमता जोगी, बहता पानी' की तरह संग रहते हुए भी निस्संग और दागित होते हुए भी बेदाग़ रहा आता है। एक कलिकाल समानता का युग है। यहाँ नर से नारी किसी भी प्रकार पीछे रहना नहीं चाहती। सर्वोच्च न्यायालय और कुछ करे न करे, ७० साल में राम मंदिर पर निर्णय न दे सके किन्तु 'लिव इन' और 'विवाहेतर संबंधों' पर फ़ौरन से पेश्तर फैसलाकुन होने में अतिदक्ष है।

'लोक' भी 'तंत्र' बिना रह नहीं सकता। 'काम' को कामख्या से जोड़े या काम सूत्र से, 'तंत्र' को व्यवस्था से जोड़े या 'मंत्र' से, कमल उठाए या पंजा दिखाए, कही एक को रोकने के लिए, कही दूसरे को साधने के लिए 'माया' की शरण लेना ही होती है, लाख निर्मोही बनने का दवा करो, सत्ता की चौखट पर 'ममता' के दामन की आवश्यकता पड़ ही जाती है। 'लोभ' के रास्ते 'लोक' को 'तंत्र' के राह पर धकेलना हो या 'तंत्र' के द्वारा 'लोक' को रौंदना हो ममता और माया न तो साथ छोड़ती हैं, न कोई उनसे पीछा छुड़ाना चाहता है। अति संभ्रांत, संपन्न और भद्र लोक जानता है कि उसका बस अपनों को अपने तक रोकने पर न चले तो वह औरों के अपनों को अपने तक पहुँचने की राह बनाने से क्यों चूके? हवन करते हाथ जले तो खुद को दोषी न मानकर सूर हो या कबीर कहते रहे हैं 'माया महाठगिनी हम जानी।'
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संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com ।

गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

vyangya lekh

व्यंग्य लेख:
हाथ पाकिस्तान का 
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ये ससुरा पकिस्तान भी गजब किये जा रहा है। 'घर में नईयां दाने और अम्मा चली भुनाने' खुद से अपना घर सम्हाले नहीं सम्हल रहा और चला है 'न भूतो न भविष्यति' का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे स्वयंभू महामानव, महानायक, महानेता और ना जाने कितने-कितने महा के घर के चुनाव में बाजी पलटने के लिए उन्हीं की राजधानी में, उन्हीं के प्रमुख विपक्षी दल के साथ बैठक करने। 
कमबख्त को इतनी भी तमीज नहीं कि किसी के विरुद्ध षड्यंत्र करना हो तो अपने देश में बैठक करे, कुछ समय पहले से योजना बनाये। यह क्या बात हुई कि 'हथेली पर सरसों उगाने चले', जब चुनाव सिर पर आ गए तब शतरंज की बिसात बिछाने का विमर्श कर रहे हैं? इससे तो हमारी काम वाली बाई ही अच्छी है कि जिस्स्की इज्जत उतारनी होती है उसके काम में कुछ न कुछ 'खुआ' (कमी) निकाल लेती है और फिर दे तेरी की.... ऐसा गजब का तमाशा होता है कि सारे खानों की सारी फ़िल्में फ्लॉप और फ़ेल। 
भैया पाकिस्तान! इतना तो लिहाज करो कि जो तुम्हारे वजीरे-आज़म (तत्कालीन) को उनके समकक्ष पद की शपथ ग्रहण करने के पहले ही समारोह में बुला सकता है और उनकी दुख्तर के निकाह में बिना पूर्व सूचना अचानक आसमान से टपक सकता है उसके खिलाफ अलादीन का चराग रगड़कर हैरान न करो। सोचो जो सात फेरे लेने के बाद भी बिना किसी अपराध अपनी पत्नी को छोड़ सकता है, वह तुम्हारे वजीरे आजम (पूर्व) के साथ हाथ मिलाने का रिवाज़ भी तोड़ ही सकता है।   
पाकी चचा! चौराहे पर बैठ रही सब्जीवाली को शक है कि तुम उसके पति और प्रेमी के बीच भाँजी मार रहे हो। तुम्हें लव ज़िहाद के लिए ६ बच्चों की यह कमसिन हसीना ही मिली जिसके भव्य रंग के आगे कोयला भी शरमा जाए और जिसके स्वर को सुनकर भूकंप की भी बोलती बंद हो जाए। 
हमें बखूबी मालूम है कि बेसिर-पैर की बातें करना तुम्हारा शौक ही नहीं मजहब भी है मगर इतना तो सोच लेते कि प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थी को प्रोफ़ेसर से पंगा नहीं लेना चाहिए। 
हमने एक दस हाथवाले की व्यथा-कथा दूरदर्शन पर देखी है। वह कमबख्त भी इस देश के नरेश के चुनाव में कुछ न कर सका,  बहुत जुगाड़ के बाद चोरी से उसकी सती-सावित्री को ही ले जा पाया जिसने कभी उसकी तरफ देखा भी नहीं, और बेचारा बेमौत मारा गया। 
तुम्हारा इतना दुस्साहस कि तुम उसी देश के शहंशाह के सिंहासन को डुलाने के लिए एक छोटे से प्रान्त की सरकार के चुनाव पर नज़र डालो, वह भी तब जब कि उसके पीछे-पीछे शह दुम हिलाता घूम रहा हो। 
देखो भैये! अच्छे से समझ लो यह सत्यवादी हरिश्चंद्र का देश है। इस देश का नरेश या नरेंद्र झूठ भी कह दे तो सच ही समझा जाएगा। इसलिए तुम या और कोई सफाई देने की कोशिश ही न करे तो बेहतर है। 
सर्जिकल स्ट्राइक में सेना की कुशलता को ढाल बनाकर अपनी पीठ खुद ही ठोंकने की कला देखकर भी तुम यह नहीं समझ पाए कि जबान पर लगाम न रखनेवाले के घर से दूर रहना चाहिए। 
कल को तुम्हारा हाथ हमारी रसोई में रोटी जलने में भी  मिलने लगेगा। ऐसे कितने हाथ है दुश्मनेआला आपके पास जो हर लल्लू-कल्लू के काम में अड़ा देते हो। कुछ तो सोचो-समझो तुम्हें चुनाव प्रचार का हिस्सा बनना है तो अपने वजीरे आजम को भेजते वैसे ही जैसे हमारे गए थे, तब तुम्हारा रोल विश्व शांति में सहायक होता। 
हमने सुना है 'बिल्ली को ख्वाब में छिछ्ड़े ही दिखते हैं, वैसे ही तुमको भी एक प्रदेश ही दिखता है। तुम लाख कहो कि तुम्हारा नाम हमारे अंदरूनी मामलात में न घसीटा जाए मगर हमारे सरकार तो घसीटेंगे ही क्योंकि अपना उल्लू सीधा करना हर नेता का जन्म सिद्ध अधिकार है। 
बांग्ला देश में अड़ी टांग तुड़वा चुकने के बाद  अब तुम्हारा हाथ हमारे वजीरे आला की पशेमानी पर सलवट का कारण बन रहा है, यह नाकाबिले बर्दाश्त है। ऐसा करो कि जब-जब हमारे हुजूर चुनाव के मैदान में तशरीफ़ का टोकरा ले जाएँ तुम अपना हाथ उनके हाथ से मिलाए रखा करो।  तुम्हें क्या हक़ कि उनके घर में हो रहे चुनाव के समय तुम कहीं, किसी के साथ उठो-बैठो। तुम्हें तो मन की बात समझना चाहिए, ण समझ पाओ तो अपने यार चीन से कुछ सीख लो जो सरहद पर तमाशा करता है, गुर्राता है, फिर दुम हिलाता है, फिर घर बुलाकर स्वागत करता है और चुपके से जो करना है कर लेता है। तुम तो धोबी के गधे ही रह गए, न घर के हुए न घाट के... 
चलो जो हुआ सो हुआ, अब मत खोदो कुआ... एक सबक सीख लो कि अपना हाथ उसी से मिलाना जो न मिलाने पर गैर के साथ मिलाने की बात इतनी बार कह सकता हो कि तुम्हें भी भरोसा हो जाए। 
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शनिवार, 27 अगस्त 2016

vyangya lekh

व्यंग्य लेख 
दही हांडी की मटकी और सर्वोच्च न्यायालय 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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                              दही-हांडी की मटकी बाँधता-फोड़ता और देखकर आनंदित होते आम आदमी के में भंग करने का महान कार्य कर खुद को जनहित के प्रति संवेदनशील दिखनेवाला निर्णय सौ चूहे खाकर बिल्ली के हज जाने की तरह शांतिप्रिय सनातनधर्मियों के अनुष्ठान में अयाचित और अनावश्यक हस्तक्षेप करने के कदमों की कड़ी है। हांड़ी की ऊँचाई उन्हें तोड़ने के प्रयासों को रोमांचक बनाती है। ऊँचाई को प्रतिबंधित करने के निर्णय का आधार, दुर्घटनाओं को बताया गया है कइँती यह कैसे सुनिश्चित किया गया कि निर्धारित ऊँचाई से दुर्घटना नहीं होगी? इस निर्णय की पृष्ठभूमि किसी प्राण-घातक दुर्घटना और जान-जीवन की रक्षा कहा जा रहा है। यदि न्यायलय इतना संवेदनशील है तो मुहर्रम में जलाते अलावों पर चलने, मुंह में छेदना, उन पर कूदने और अपने आप पर घातक शास्त्रों से वार करने की परंपरा हानिहीन कैसे कही जा सकती है? क्या बकरीद पर लाखों बकरों का कत्ल अधिक जघन्य नहीं है? न्यायालय यह जानता नहीं या इसे प्रतिबन्धयोग्य मानता नहीं या सनातन धर्मियों को सॉफ्ट टारगेट मानकर उनके धार्मिक अनुष्ठानों में हस्तक्षेप करना अपना जान सिद्ध अधिकार समझता है?  सिख जुलूसों में भी शस्त्र तथा युद्ध-कला प्रदर्शनों की परंपरा है जिससे किसी की हताहत होने को सम्भावना नकारी नहीं जा सकती।  

                              वस्तुत: दही-हांड़ी का आयोजन हो या न हो? हो तो कहाँ हो?, ऊँचाई कितनी हो?, कितने लोग भाग लें?, किस प्रकार मटकी फोड़ें? आदि प्रश्न न्यायालय नहीं प्रशासन हेतु विचार के बिंदु हैं। भारत के न्यायालय बीसों साल से लंबित लाखों वाद प्रकरणों, न्यायाधीशों की कमी, कर्मचारियों में व्यापक भ्रष्टाचार, वकीलों की मनमानी आदि समस्याओं के बोझ तले कराह रहे हैं। दम तोडती न्याय व्यवस्था को लेकर सर्वोच्च न्यायाधिपति सार्वजनिक रूप से आँसू बहा चुके हैं। लंबित लाखों मुकदमों में  फैसले की जल्दी नहीं है किन्तु सनातन धर्मियों के धार्मिक अनुष्ठान से जुड़े मामले में असाधारणशीघ्रता और जन भावनाओं के निरादर का औचित्य समझ से परे है।  न्यायलय को आम आदमी की जान की इतनी ही चिता है तो दीपा कर्माकर द्वारा प्रदर्शित जिम्नास्ट खेल में निहित सर्वाधिक जान का खतरा अनदेखा कैसे किया जा सकता है? खतरे के कारण ही उसमें सर्वाधिक अंक हैं। क्या न्यायालय उसे भी रोक देगा? क्या पर्वतारोहण और अन्य रोमांचक खेल (एडवेंचर गेम्स) भी बन्द किये जाएँ? यथार्थ में यह निर्णय उतना ही गलत है जितना गंभीर अपराधों के बाद भी फिल्म अभिनेताओं को बरी किया जाना। जनता ने न उस फैसले का सम्मान किया, न इसका करेगी। 

इस  सन्दर्भ में विचारणीय है कि-

१. विधि निर्माण का दायित्व संसद का है।  न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज्म) अत्यंत ग़ंभीऱ और अपरिहार्य स्थितियों में ही अपेक्षित है। सामान्य प्रकरणों और स्थितियों में इस तरह के निर्णय संसद के अधिकार क्षेत्र में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप है। 

२. कार्यपालिका का कार्य विधि का पालन करना और कराना है। किसी विधि का हर समय, हर स्थिति में शत-प्रतिशत पालन नहीं किया जा सकता। स्थानीय अधिकारियों को व्यावहारिकता और जन-भावनाओं का ध्यान भी रखना होता है। अत:, अन्य आयोजनों की तरह इस संबंध में भी निर्णय लेने का अधिकार स्थानीय प्रशासन के हाथों में देना समुचित विकल्प होता। 
  
३. न्यायालय की भूमिका सबसे अंत में विधि का पालन न होने पर दोषियों को दण्ड देने मात्र तक सीमित है, जिसमें वह विविध कारणों से असमर्थ हो रहा है। असहनीय अनिर्णीत वाद प्रकरणों का बोझ, न्यायाधीशों की अत्यधिक कमी, वकीलों का अनुत्तरदायित्व और दुराचरण, कर्मचारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण दम तोड़ती न्याय व्यवस्था खुद में सुधार लाने के स्थान पर अनावश्यक प्रकरणों में नाक घुसेड़ कर अपनी हेठी करा रही है। 

                              मटकी फोड़ने के मामलों में स्वतंत्रता के बाद से अब तक हुई मौतों के आंकड़ों का मिलान, बाढ़ में डूब कर मरनेवालों, दंगों में मरनेवालों, समय पर चिकित्सा न मिलने से मरनेवालों, सरकारी और निजी अस्पतालों में चिकित्सकों के न होने से मरनेवालों के आँकड़ों के साथ किया जाए तो स्थिति स्पष्ट होगी यह अंतर कुछ सौ और कई लाखों का है। 

                              यह कानून को धर्म की दृष्टि से देखने का नहीं, धर्म में कानून के अनुचित और अवांछित हस्तक्षेप का मामला है। धार्मिक यात्राएँ / अनुष्ठान ( शिवरात्रि, राम जन्म, जन्माष्टमी, दशहरा, हरछट, गुरु पूर्णिमा, मुहर्रम, क्रिसमस आदि) जन भावनाओं से जुड़े मामले हैं जिसमें दीर्घकालिक परंपराएँ और लाखों लोगों की भूमिका होती है। प्रशासन को उन्हें नियंत्रित इस प्रकार करना होता है कि भावनाएँ न भड़कें, जान-असन्तोष न हो, मानवाधिकार का उल्लंघन न हो। हर जगह  प्रशासनिक बल सीमित होता है। यदि न्यायालय घटनास्थल की पृष्भूमि से परिचित हुए बिना कक्ष में  बैठकर सबको एक डंडे से हाँकने की कोशिश करेगा तो जनगण के पास कानून की और अधिकारियों के सामने कानून भंग की अनदेखी करने के अलावा कोई चारा शेष न रहेगा। यह स्थिति विधि और शांति पूर्ण व्यवस्था की संकल्पना और क्रियान्वयन दोनों दृष्टियों से घातक होगी। 

                              इस निर्णय का एक पक्ष और भी है। निर्धारित ऊँचाई  की मटकी फोड़ने के प्रयास में मौत न होगी क्या न्यायालय इससे संतुष्ट है? यदि मौत होगी तो कौन जवाबदेह होगा? मौत का कारण सिर्फ ऊँचाई कैसे हो सकती है। अपेक्षाकृत कम ऊँचाई की मटकी फोड़ने के प्रयास में दुर्घटना और अधिक ऊँचाई की मटकी बिना दुर्घटना फोड़ने के से स्पष्ट है की दुर्घटना का कारण ऊँचाई नहीं फोडनेवालों की दक्षता, कुशलता और निपुणता में कमी होती है। मटकी फोड़ने संबंधी दुर्घटनाएँ न हों, कम से कम हों, कम गंभीर हों तथा दुर्घटना होने पर न्यूनतम हानि हो इसके लिए भिन्न आदेशों और व्यवस्थाओं की आवश्यकता है -

१. मटकी स्थापना हेतु इच्छुक समिति निकट रहवासी नागरिकों की लिखित सहमति सहित आवेदन देकर स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी से अनुमति ले और उसकी लिखित सूचना थाना, अस्पताल, लोक निर्माण विभाग, बिजली विभाग व नगर निगम को देना अनिवार्य हो। 

२. मटकी की ऊँचाई समीपस्थ भवनों की ऊँचाई, विद्युत् तारों की ऊँचाई, होर्डिंग्स की स्थिति, अस्पताल जैसे संवेदनशील और शांत स्थलों से दूरी आदि देखकर प्रशासनिक अधिकारियों और स्थानीय जनप्रतिनिधियों की समिति तय करे। 

३. तय की गयी ऊँचाई के परिप्रेक्ष्य में अग्नि, विद्युत्, वर्षा, तूफ़ान, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं तथा गिरने की संभावना का पूर्वाकलन कर अग्निशमन यन्त्र, विद्युत् कर्मचारी, श्रमिक, चिकित्साकर्मी आदि की सम्यक और समुचित व्यवस्था हो अथवा व्यवस्थाओं के अनुसार ऊँचाई निर्धारित हो। 

४. इन व्यवस्थों को करने में  समितियों का भी सहयोग लिया जाए।  उन्हें मटकी स्थापना-व्यवस्था पर आ रहे खर्च की आंशिक पूर्ति हेतु भी नियम बनाया जा सकता है। ऐसे नियम हर धर्म, हर सम्प्रदाय, हर पर्व, हर आयोजन के लिये सामान्यत: सामान होने चाहिए ताकि किसी को भेदभाव की शिकायत न हो। 

५. ऐसे आयोजनों का बीमा काबरा सामियितों का दायित्व हो ताकि मानवीय नियंत्रण के बाहर दुर्घटना होने पर हताहतों की क्षतिपूर्ति की जा सके। 

                               प्रकरण में उक्त या अन्य तरह के निर्देश देकर न्यायालय अपनी गरिमा, नागरिकों की प्राणरक्षा तथा सामाजिक, धार्मिक, प्रशासनिक व्यावहारिकताओं के प्रति संवेदनशील हो सकता था किन्तु वह विफल रहा। यह वास्तव में चिता और चिंतन का विषय है। 

                              समाचार है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अवहेलना कर सार्वजनिक रूप से मुम्बई में ४४ फुट ऊँची मटकी बाँधी और फोड़ी गयी। ऐसा अन्य अनेक जगहों पर हुआ होगा और हर वर्ष होगा। पुलिस को नेताओं का संरक्षण करने से फुरसत नहीं है। वह ग़ंभीऱ आपराधिक प्रकरणों की जाँच तो कर नहीं पाती फिर ऐसे प्रकरणों में कोई कार्यवाही कर सके यह संभव नहीं दिखता। इससे आम जान को प्रताड़ना और रिश्वत का शिकार होना होगा। अपवाद स्वरूप कोई मामला न्यायालय में पहुँच भी जाए तो फैसला होने तक किशोर अपराधी वृद्ध हो चुका होगा। अपराधी फिल्म अभिनेता,  नेता पुत्र या महिला हुई तब तो उसका छूटना तय है। इस तरह के अनावश्यक और विवादस्पद निर्णय देकर अपनी अवमानना कराने का शौक़ीन न्यायालय आम आदमी में निर्णयों की अवहेलना करने की आदत डाल रहा है जो घातक सिद्ध होगी। बेहतर हो न्यायालय यह निर्णय  वापिस ले ले।  
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लेखक संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४ 
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बुधवार, 24 अगस्त 2016

vyangya lekh

व्यंग्य लेख
अफसर, नेता और ओलंपिक 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                               ओलंपिक दुनिया का सबसे बड़ा खेल कुंभ होता है। सामान्यत:, अफसरों और नेताओं की भूमिका गौड़ और खिलाडियों और कोचों की भूमिका प्रधान होना चाहिए। अन्य देशों में ऐसा होता भी है पर इंडिया में बात कुछ और है। यहाँ अफसरों और नेताओं के बिना कौआ भी पर नहीं मार सकता। अधिक से अधिक अफसर सरकारी अर्थात जनगण के पैसों पर विदेश यात्रा कर सैर-सपाट और मौज-मस्ती कर सकें इसलिए ज्यादा से ज्यादा खिलाड़ी और कोच चुने जाने चाहिए। मतलब यह कि खेल-खिलाडी साधन और अफसर-नेताओं की मौज साध्य और एकमेव अंतिम लक्ष्य होता है। खिलाडी ऑलंपिक स्तर के न भी हों तो कोच और अफसर फर्जी आँकड़ों से उन्हें ओलंपिक स्तर का बता देंगे, उनकी सुविधाओं के नाम भर राशि का प्रावधान कर बंदरबाँट कर लेंगे।

                               हमारी 'वसुधैव कुटुम्बकम' की मान्यता तभी पूरी होती है जब अफसर पूरी वसुधा पर सैर-सपाटा कर अपने कुटुंब के लिए खरीदी कर सकें, 'विश्वैक नीड़ं' का सिद्धांत तभी पूर्णता पाता है जब विश्व के हर देश को अपना नीड़ मानकर अफसर सुरा-सुंदरी पा सके। अपने दोनों लक्ष्यों की पूर्ति जरूरी होती है, साथ में गये खिलाड़ी उछल-कूद कर लें, चित्र खिंचा लें, दूरदर्शन और अखबार उनके चित्र और चटपटी ख़बरें परोस कर पेट पाल लें तो कोई हर्ज़ नहीं। रह गयी जनता जनार्दन तो पेट भरने से ही फुरसत नहीं है, जिन निकम्मों का समय नहीं काटता वे खिलाड़ियों पर छपी मनगढ़ंत खबरें चटखारे ले-लेकर पढ़ने और 'बाप न मारे मेंढकी बेटा तीरंदाज' का मुहावरा सच  करने में ज़िन्दगी सार्थक कर लेते हैं। धन और भूमि की आसुरी हवस को जी रहे धन्नासेठ और अभिनेता काली कमाई  को सफेद करने के उपाय खेल संघों के प्रमुख और प्रतियोगिताएं के प्रायोजक बनकर निकाल ही लेते हैं। यदि आप असहमत हों तो आप ही कहें कि इन सुयोग्य अफसरों और कोचों के मार्गदर्शन में जिला, प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर श्रेष्ठ प्रदर्शन और ओलंपिक मानकों से बेहतर प्रदर्शन कर चुके खेलवीर वह भी एक-दो नहीं सैंकड़ों  ओलंपिक में अपना प्रदर्शन दुहरा क्यों नहीं पाते?

                               खेल हमारा राष्ट्रीय उद्योग और कुटीर व्यवसाय दोनों है। संसद में बैठे खिलाडियों की कलाबाजी, मतदाताओं से किये वायदों को जुमलीबाजी, प्रवेश परीक्षाओं में फर्जीवाड़े, नौकरी देने से पेशी बढ़वाने तक में लेन-देन, धर्म के नाम पर आम आदमी के शोषण, त्याग और वैराग की महिमा बखानते आश्रमों, कौम की भलाई के ठेकेदार बनते मदरसों, खातूनों की फोकर में दुबले होकर मौलिक अधिकारों से वंचित कर तीन तलाकों के ताबूत में दफनाते धर्माचार्यों की प्रतियोगिता हो तो स्वर्ण, रजत और कांस्य तीनों ही पदक भारत की झोली में आना सुनिश्चित है।  

                               कोई खिलाड़ी ओलंपिक तक जाकर सर्वश्रेष्ठ न दे यह नहीं माना जा सकता। इसका एक ही अर्थ है कि अफसर अपनी विदेश यात्रा की योजना बनाकर खिलाडियों के फर्जी आँकड़े तैयार करते हैं जिसमें इन्डियन अफसरशाही को महारत हासिल है।  ऐसा करने से सबका लाभ है, अफसर, नेता, कोच और खिलाड़ी सबका कद बढ़ जाता है, घटता है केवल देश का कद। बिके हुई खबरिया चैनल किसी बात को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाते हैं ताकि उनकी टी आर पी बढ़े, विज्ञापन अधिक मिलें और कमाई हो। इस सारे उपक्रम में आहत होती हैं जनभावनाएँ, जिससे किसी को कोई मतलब नहीं है।    

                               रियो से लौटकर रिले रेस खिलाडी लाख कहें कि उन्हें पूरी दौड़ के दौरान कोई पेय नहीं दिया गया, वे किसी तरह दौड़ पूरी कर अचेत हो गईं। यह सच सारी दुनिया ने देखा लेकिन बेशर्म अफसरशाही आँखों देखे को भी झुठला रही है। यह तय है कि सच सामने लानेवाली खिलाड़ी अगली बार नहीं चुनी जाएगी। कोच अपना मुँह बंद रखेगा ताकि  अगली बार भी उसे ही रखा जाए। केर-बेर के संग का इससे बेहतर उदाहरण और कहाँ मिलेगा? अफसरों को भेजा इसलिए जाता है कि वे नियम-कायदे जानकर खिलाडियों को बता दें, आवश्यक व्यवस्थाएँ यथा समय कर दें ताकि कोच और खिलाडी सर्वश्रेष्ठ दे सकें पर इण्डिया की अफसरशाही आज भी खुद को खुदमुख्तार और शेष सब को गुलाम समझती है। अफसर खिलाडियों के सहायक हों तो उनकी बिरादरी में हेठी हो जाएगी। इसलिए, जाओ, खाओ, घूमो, फिरो, खरीदी करो और घरवाली को खुश रखो ताकि वह अन्य अफसरों की बीबियों पर रौब गांठ सके। 

                               रियो ओलंपिक में 'कोढ़ में खाज' खेल मंत्री जी ने कर दिया। एक राजनेता को ओलंपिक में क्यों जाना चाहिए? क्या अन्य देशों के मंत्री आते है? यदि नहीं, तो इंडियन मंत्री का वहाँ जाना, नियम तोडना, चेतावनी मिलना और बेशर्मी से खुद को सही बताना किसी और देश में नहीं हो सकता। व्यवस्था भंग कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करने की दयनीय मानसिकता देश और खिलाड़ियों को नीचा दिखाती है पर मोटी चमड़ी के मंत्री को इस सबसे क्या मतलब?  

                               रियो ओलंपिक के मामले में प्रधानमंत्री जी को भी धोखे में रख गया। पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने खिलाडियों का हौसला बढ़ाने के लिये उनसे खुद पहल कर भेंट की। यदि उन्हें बताया जाता कि इनमें से किसी के पदक जीतने की संभावना नहीं है तो शायद वे ऐसा नहीं करते किन्तु अफसरों और पत्रकारों ने ऐसा माहौल बनाया मानो भारत के खलाड़ी अब तक के सबसे अधिक पदक जीतनेवाले हैं। झूठ का महल कब तक टिकता? सारे इक्के एक-एक कर धराशायी होते रहे। 

                               अफसरों और कर्मचारियों की कारगुजारी सामने आई मल्ल नरसिह यादव के मामले में। दो ही बातें हो सकती हैं। या तो नरसिंह ने खुद प्रतिबंधित दवाई ली या वह षड्यन्त्र का शिकार हुआ। दोनों स्थितियों में व्यवस्थापकों की जिम्मेदारी कम नहीं होती किन्तु 'ढाक के तीन पात' किसी के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठाया गया और देश शर्मसार हुआ। 

                               असाधारण लगन, परिश्रम और समर्पण का परिचय देते हुए सिंधु, साक्षी और दीपा ने देश की लाज बचाई। उनकी तैयारी में कोई योगदान न करने वाले नेताओं में होड़ लग गयी है पुरस्कार देने की। पुरस्कार देना है तो अपने निजी धन से दें, जनता के धन से क्यों? पिछले ओलंपिक के बाद भी यही नुमाइश लगायी गयी थी। बाद में पता चला कई घोषणावीरों ने खिलाड़ियों को घोषित पुरस्कार दिए ही नहीं। अत्यधिक धनवर्षा, विज्ञापन और प्रचार के चक्कर में गत ओलंपिक के सफल खिलाडी अपना पूर्व स्तर भी बनाये नहीं रख सके और चारों खाने चित हो गए।  बैडमिंटन खिलाडी का घुटना चोटिल था तो उन्हें भेजा ही क्यों गया? वे अच्छा प्रदर्शन तो नहीं ही कर सकीं लंबी शल्यक्रिया के लिये विवश भी हो गयीं। 

                               होना यह चाहिये कि अच्छा प्रदर्शन करनेवाले खिलाडी अगली बार और अच्छा प्रदर्शन कर सकें इसके लिए उन्हें खेल सुविधाएँ अधिक दी जानी चाहिए। भूखण्ड, धनराशि और फ़्लैट देने से खेल नहीं सुधरता। हमारा शासन-प्रशासन परिणामोन्मुखी नहीं है। उसे आत्मप्रचार, आत्मश्लाघा और व्यक्तिगत हित खेल से अधिक प्यारे हैं। आशा तो नहीं है किन्तु यदि पूर्ण स्थिति पर विचार कर राष्ट्रीय खेल-नीति बनाई जाए जिसमें अफसरों और नेताओं की भूमिका शून्य हो। हर खेल के श्रेष्ठ कोच और खिलाड़ी चार सालों तक प्रचार से दूर रहकर सिर्फ और सिर्फ अभ्यास करें तो अगले ओलंपिक में तस्वीर भिन्न नज़र आएगी।  हमारे खिलाड़ियों में प्रतिभा और कोचों में योग्यता है पर गुड़-गोबर एक करने में निपुण अफसरशाही और नेताओं को जब तक खेलों से बाहर नहीं किया जायेगा तब तक खेलों में कुछ बेहतर होने की उम्मीद आकाश कुसुम तोड़ने के समान ही है। मिशनरी भावना रहित खेल मिशन क्या-क्या गुल (खिलायेगा) यह देखने और ताली बजने के लिए दोल को दीवार की तरह मजबूत बना लीजिये क्योंकि रोटी मिले न मिले पदक की आस में निवाले छिनने का खेल कहलाने की माहिर नौकरशाही और नेतागिरी की पाँचों अँगुलियाँ घी और सिर कढ़ाई में रहना सुनिश्चित है।  

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समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४

रविवार, 17 जुलाई 2016

व्यंग्य लेख

व्यंग्य लेख-
अभियांत्रिकी शिक्षा और जुमलालॉजी 
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                 आजकल अभियांत्रिकी शिक्षा पर गर्दिश के बादल छाये हैं। अच्छी-खासी अभियांत्रिकी शिक्षा को गरीब की लुगाई, गाँव की भौजाई समझ कर प्रशासनिक और राजनैतिक देवरों ने दिनदहाड़े रेपते हुए उच्चतर माध्यमिक शिक्षा की अंक सूची के आधार पर हो रहे चयन रूपी पति से तीन तलाक दिलाये बिना पहले पूर्व अभियांत्रिकी परीक्षा (पी. ई. टी.) नाम के गाहक और बाद में व्यापम नामक दलाल के हवाले कर दिया। फलतः, सती सावित्री की बोली लगनी आरम्भ हो गयी। कुएँ में भाग घुली हो तो गाँव में होश किसे और कैसे हो सकता है? गैर तो गैर अपने भी तकनीकी शिक्षा संस्थानों का चकलाघर खोलकर लीलावती रूपी छात्रवृत्ति और कलावती रूपी उपाधि खरीदने-बेचने में संलग्न होते भए।

                 हम तो परंपरा प्रेमी हैं। द्रौपदी का चीर-हरण होता हो तो नेत्रहीन धृतराष्ट्र में भी कुछ न कुछ देख लेने की चाह पैदा हो जाती है। ब्रह्चारी भीष्म भी निगाहें झुकी होने का प्रदर्शन कर, दर्शन करने से नहीं चूकते। द्रोणाचार्य और कृपाचार्य जैसे ब्रम्हविद असार संसार में सार खोजते हुए, कण-कण में भगवान् की उपस्थिति का साक्ष्य चीरधारिणी में पाने का प्रयास करें तो उनकी तापस प्रवृत्ति पर तामस होने का संदेह करना सरासर गलत है। और तो और विरागी विदुर और सुरागी शकुनि भी बहती गंगा में हाथ धोनेवालों में सम्मिलित रहे आते हैं किसी प्रकार का प्रतिकार नहीं करते।
                 आज के अखबार में खबर है कि राजस्थान के एक विद्यालय की तीन छात्राओं ने अपनी ही कक्षा की चौथी छात्रा को रैगिंग का विरोध करने पर मार-पीटकर चीयर हरण कांड को सफलतापूर्वक संपन्न किया।यह ट्रीट तो है नहीं की कोई कृष्ण बिना आधार कार्ड देखे चीर वृद्धि कर पीड़िता की रक्षा करे। संभवत: ये होनहार छात्राएँ परंपरा प्रेमी हैं। दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण रूपी तीनों छात्राएँ भली-भाँति जानती हैं कि अभिभावक रूपी धृतराष्ट्र, प्रबंधन रूपी भीष्म और और विदुर रूपी प्रशासन चिल्ल पों के अलावा कुछ नहीं कर सकते। यह भी की नेत्रहीन पति की आँखें बनने के स्थान पर अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर महासती होने का पाखण्ड रच, पद्म सम्मान पा चुकी गांधारी चीर हरण की साक्षी हो सकती थीं तो आज की पढ़ी-लिखी, सभ्य- सुसंस्कृत (?), सबला (स-बला) किशोरी क्यों पीछे रहे?
                 इसी समाचार पत्र में अन्यत्र कुछ किशोरियों द्वारा अन्यत्र एक किशोर को निर्वस्त्र करने के दुष्प्रयास (?) का भी समाचार है। ऐसी साहसी बच्चियों से देश गौरवान्वित होता है। सत्य को ब्रम्ह माननेवाले देश का भविष्य गढ़नेवाले बच्चे कपड़ों के भीतर का सच जानने का प्रयास कर अपनी सत्यनिष्ठा ही तो दर्शा रहे हैं। हमारे बच्चों में मानव के मूल स्वरूप को देखने और जानने की इस उत्कंठा का स्वागत हो या न हो, उन्हें जो करना है, कर रहे हैं। 'तन से तन का मिलन हो न पाया तो क्या, मन से मन का मिलन कोई कम तो नहीं' की दकियानूसी सोच को तिलांजलि देकर नयी पीढ़ी 'मन से मन मिलन हो न पाया क्या, तन से तन का मिलन कोई कम तो नहीं' के प्रगतिवादी सोच को मूर्त रूप दे कर क्रांति कर रही है।
                 स्त्री विमर्श की आड़ में पुरुष को देहधर्मी आरोपित कर, अपनी देह दर्शाते फिर रही आधुनिकाओं को अपनी (अपने पति की नहीं) बच्चियों के इन वीरोचित कार्यों पर भीषण गर्व अनुभव हो रहा होगा कि उनकी पीढ़ी को तो निर्वसन दौड़ने के लिए भी शिक्षा पूर्ण कर अभिनेत्री बनने तक का समय लगा पर भावी पीढ़ी यह दिशा विद्यालयों की कच्ची उम्र से ही ग्रहण कर रही है। इनका बस चले तो ये 'बाँह में हो और कोई, चाह में हो और कोई' ध्येय वाक्य हर विद्यालय के हर कक्ष में लिखवा दें ताकि पुरातनपंथी छात्र-छात्राएँ प्रेरित हो सकें।
                 भारत प्रगतिशील राष्ट्रों की क़तार में सम्मिलित हो सके इसलिए राष्ट्रवादी नेतागण अपने गृहस्थ जीवन का पथ छोड़कर, विवाहित होकर भी अविवाहित की तरह रहते हुए प्राण-प्राण से सकल विश्व की परिक्रमा कर रहे हैं। ये किशोर उनका जयकार करते हुए सेल्फी तो लेना चाहते हैं पर उनका अनुकरण नहीं करना चाहते। एक चित्रपटीय गीत में सनातन सत्य की उद्घोषणा की गयी है "इंसान था पहले बन्दर" । हमारे किशोर बंदर को निर्वसन देखकर, खुद साहस न कर सकें तो किसी अन्य को बंदर की तरह देखने का लोभ क्यों और कैसे संवरण करें? यह समझने में हमारे अभिभावक, परिवार, विद्यालय, गुरुजन, शिक्षा प्रणाली, धर्म, गुरु, न्याय व्यवस्था सभी अक्षम सिद्ध हो रहे हैं। इसका कारण केवल एक ही हो सकता है कि सामाजिक और सामूहिक स्तर पर स्वयं को उदासीन और संयमित प्रदर्शित करने के बाद भी हम, स्त्री-पुरुष दोनों कहीं न कहीं उर्वशियों, मेनकाओं औे रम्भाओं के प्रति आकर्षित हो उन्हें पाना या उन जैसा बनना चाहते रहे हैं। तभी तो अंतरजाल पर वयस्क तरंग-स्थल (एडल्ट वेब साइट) देखनेवालों की संख्या अन्य से बहुत अधिक है।मानव मन के चिंतन और मानव तन के आचरण के मध्य सेतु निर्मित करनेवाली अभियांत्रिकी का विकास अभी नहीं हो सका है किन्तु भविष्य में भी नहीं होगा यह तो कोई नहीं कह सकता। बंद होने का खतरा झेल रहे अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में नग्नता यांत्रिकी का पाठ्यक्रम आरम्भ करते ही छात्र-छात्राओं की ऐसी भीड़ उमड़ेगी की चप्पे-चप्पे में अभियांत्रिकी महाविद्यालय खोलने पड़ेंगे।
                 आप सहमत नहीं तो चलिए नयी दिशा तलाश करें। आज के ही समाचार पत्र में समाचार है कि न्यायालयों ने दो राज्यों में राज्यपालों की अनुशंसाओं पर केंद्र सरकार द्वारा अपदस्थ की गयी सरकारों को न केवल पुनः पदस्थ कर दिया अपितु पूर्ववर्ती वैकल्पिक सरकारों द्वारा लिए गए निर्णयों और घोषित की गयी नीतियों को भी निरस्त कर दिया। स्पष्ट है कि प्रधान मंत्री की अपार जनप्रियता को भुनाने की बचकानी शीघ्रता कर रहे दलाध्यक्ष मित-सत्ता (किसी राज्य में है, किसी में नहीं है) से संतुष्ट न होकर अमित सत्ता पाने की फिराक में हैं। वे तो अमित भी हैं और शाह भी, फिर किसी और को कहीं भी सत्तासीन कैसे देख सकते हैं? उन्होंने श्री गणेश एक दल मुक्त भारत की घोषणा कर और अपने दल के संसदीय दल-नेता से कराकर भले ही किया है किन्तु उनकी मंशा तो विपक्ष मुक्त भारत की थी, है और रहेगी। भारत का संविधान उनकी इस मंशा को मौलिक अधिकार मानकर मौन भले रहे, जनता और न्याय व्यवस्था पचा नहीं पा रही।
                 दलीय दलदल की राजनीति में कमल खिलाने, तिनके (तृण मूल) उगाने, पंजा दिखाने, लालटेन जलाने, पहिया घुमाने, हाथी चलाने, साइकिल दौड़ाने और हँसिया-हथौड़ा उठाने के इच्छुकों के सामने एक ही राह शेष है। बंद होते अभियांत्रिकी महाविद्यालयों का अधिग्रहण कर उनमें अपने-अपने दल के अनुरूप सामाजिक यांत्रिकी (सोशल इंजीनियरिंग) का पाठ्यक्रम चला दें। यह घोषणा भी कर दें कि इन पाठ्यक्रमों में विशेष योग्यता प्राप्त जन ही उम्मीदवार और चुनाव प्रबंधक होंगे। आप देखेंगे की गंजों के सर पर बाल लहलहाने की तरह, सियासत की शूर्पणखा को वरने के लिये तमाम राम, लक्ष्मण, रावण और विभीषण भी क़तार में लगे मिलेंगे।
                 'राजनीति विज्ञान है या कला?' इस यक्ष प्रश्न को सुलझाने में असफल रही सभ्यता की दुहाई देनेवाले क्या जानें कि राजनीति आगामी अनेक पीढ़ियों के लिए ही नहीं अगले जन्म के लिये भी धन-संपदा जोड़-जोड़कर विदेशों में रख जाने का पेशा है। दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होने को अजूबा माननेवाले कैसे समझेंगे कि राजनीति में स्वार्थनीति, सत्तानीति, दलनीति के अनुसार एक ही नेता के अनेक मत होते हैं। 'सत्य एक होता है जिसे विद्द्वज्जन कई प्रकार से कहते हैं' माननेवाले कैसे स्वीकारेंगे कि हर नेता के कई सत्य होते हैं जो संसद से सड़क तक, टी.व्ही. से बीबी तक बदलते रहते हैं।
                 कोई सत्यर्षि या ब्रम्हर्षि अपनी चादर को राज्यर्षि से अधिक सफ़ेद कैसे कह सकता है? आप ही बतायें कि एक चादर दाग न लकने पर सफेद दिखे और दूसरी का कण-कण दागों से काल होने पर भी सफ़ेद दिखाई जाए दमदार कौन सी हुई? राज्यर्षि जानता है कि 'आया सो जाएगा' इसलिए मोह-माया से पर रहता है। वह एक पत्नी की रुग्ण देह को बिस्तर पर छोड़कर, बेटी से कम उम्र की प्रेमिका की बाँह में बाँह डालकर 'चलो दिलदार चलो', ' ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ' से 'हम-तुम एक कमरे में बंद हों' गाते हुए गम गलत करता है। आम आदमी इस 'प्रेमिकालॉजी' रहस्य कैसे समझ सकते हैं? इसकी यांत्रिकी भी बंद हो रहे महाविद्यालयों को नवजीवन दे सकती है।
                 अभियांत्रिकी महाविद्यालयों को नवजीवन देने वाली एक विधा और है जिसे 'जुमलालॉजी' कहते हैं। यह नवीनतम आविष्कृत विधा है। इसमें प्रवीणता, दक्षता और कुशलता न हो तो गंजा पंजा को पराभूत कर देता है और यदि आप इस विधा के विशेषज्ञ हैं तो चाय बेचने से आरम्भ कर प्रधानमंत्री बनने तक की यात्रा कर सकते हैं। इन तमाम विधाओं की यांत्रिकी शिक्षा जो महाविद्यालय देगा उसमें प्रवेश पाने के इच्छुकों की संख्या भारत की जनसंख्या, राजनेता के झूठ, प्रगतिवादियों के पाखण्ड, आतंवादियों के दुराचार, भारतीय संसद के विवादों, खबरिया चैनलों के संवादों, आरक्षणजनित परिवादों, अभिनेत्रियों के नातों, पत्रकारों की बातों और पाकिस्तान को पड़ रही लातों की तरह 'है अनंत हरि कथा अनंता' होगी ही। नाम मात्र की नकली उपाधि लेकर शालेय शिक्षा प्राप्त करने, चिकित्सक या मानव संसाधन मंत्री बनने के इच्छुक छात्रों से प्रथम वरीयता पाकर ऐसे महाविद्यालय हेमामालिनी के गालों की तरह चिकनी सड़कें बनाने, कलम तराजू और तलवार को जूते मारने, अगणित कपडे और पादुकाएँ जुटाने, अपनी प्रतिमा आप लगवाने, दामाद को रोडपति से करोड़पति बनाने के विशेष पाठ्य चलाकर देवानंद की तरह सदाबहार हो ही जायेंगे, इसमें संदेह नहीं। 
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गुरुवार, 30 जून 2016

samiksha

पुस्तक सलिला- 
'लोकल विद्वान' व्यंग्य का रोचक वितान 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[पुस्तक विवरण- लोकल विद्वान, व्यंग्य लेख संग्रह, अशोक भाटिया, प्रथम संस्करण, ISBN ९७८-९३-८५९४२-१०-५, २०.५ से. मी. x १४ से. मी., पृष्ठ ९६, मूल्य ८०/-, आवरण पेपरबैक, दोरंगी, बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, व्यंग्यकार संपर्क बसेरा, सेक़्टर १३, करनाल १३२००१ चलभाष ९४१६११५२१००, ahsokbhatiahes@gmail.com]
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                                     हिंदी गद्य की लोकप्रिय विधाओं में व्यंग्य लेख प्रमुख है। व्यंग्यकार समसामयिक घटनाओं और समस्याओं की नब्ज़ पर हाथ रखकर उनके कारण और निदान की सीधी चर्चा न कर इंगितों, व्यंगोक्तियों और वक्रोक्तियों के माध्यम से गुदगुदाने, चिकोटी काटने या तीखे व्यंग्य के तिलमिलाते हुए पाठक को चिंतन हेतु प्रेरित करता है। वह उपचार न कर, उपचार हेतु चेतना उत्पन्न करता है

                                     हिंदी व्यंग्य लेखन को हाशिये से मुख्य धारा में लाने में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी, श्री लाल शुक्ल आदि की परंपरा को समृद्ध करनेवाले वर्तमान व्यंग्यकारों में अशोक भाटिया उल्लेखनीय हैं। भाटिया जी हिंदी प्राध्यापक हैं इसलिए उनमें विधा के उद्भव, विकास तथा वर्तमान की चेतना और विकास के प्रति संवेदनशील दृष्टि है। स्पष्ट समझ उन्हें हास्य औेर व्यंग्य के मध्य बारीक सीमा रेखा का उल्लंघन नहीं करने देती। वे व्यंग्य और लघुकथा के क्षेत्र में चर्चित रहे हैं।
                                     विवेच्य कृति लोकल विद्वान में २१ व्यंग्य लेख तथा १४ व्यंग्यात्मक लघुकथाएँ हैं। कुत्ता न हो पाने का दुःख में लोभवृत्ति, लोकल विद्वान में बुद्धिजीवियों के पाखण्ड, महान बनने के नुस्खे में आत्म प्रचार, चलते-चलते में प्रदर्शन वृत्ति , कुत्ता चिंतन सार में स्वार्थपरता, नेता और अभिनेता में राजनैतिक विद्रूप , साड़ीवाद में महिलाओं की सौंदर्यप्रियता, मेले का ग्रहण में मेलों की आड़ में होते कदाचार, असंतोष धन में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पारम्परिक मुहावरों के नए अर्थ, तेरा क्या होगा? में आचरण के दोमुंहेपन, निठल्ले के बोल में राजनैतिक नेता के मिथ्या प्रलाप, फाल करने का सुख में अंग्रेजी शब्द के प्रति मोह, विलास राम शामिल के कारनामे में साहित्यकारों के प्रपंचों, रबड़श्री भारतीय खेल दल में क्रीड़ा क्षेत्र व्याप्त विसंगतियों, किस्म-किस्म की समीक्षा में विषय पर विश्लेषणपरक विवेचन, इम्तहान एक सभ्य फ्राड में शिक्षा जगत की कमियों, साहित्य के ओवरसियर में लेखका का आत्ममोह, ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर में धन-लोभ, पीड़ा हरण समारोह में साहित्य क्षेत्र में व्याप्त कुप्रवृत्तियों, नौ सौ चूहे बिल्ली और हज में राजनीति तथा नई प्रेम कथा में प्रेम के नाम पर हो रहे दुराचार पर अशोक जी ने कटाक्ष किये हैं।
                                     इन व्यंग्य लेखों में प्रायः आकारगत संतुलन, वैचारिक मौलिकता, शैलीगत सहजता, वर्णनात्मक रोचकता और विषयगत विवेचन है जो पाठक को बाँधे रखने के साथ सोचने के लिए प्रवृत्त करता है। अशोक जी विषयों का चयन सामान्य जन के परिवेश को देखकर करते हैं इसलिए पाठक की उनमें रूचि होना स्वाभाविक है। वे आम बोलचाल की भाषा के पक्षधर हैं, इसलिए अंग्रेजी-उर्दी के शब्दों का स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करते हैं।
                                     लघु कथाओं में अशोक जी किसी न किसी मानवीय प्रवृत्ति के इर्द-गिर्द कथानक बुनते हुए गंभीर चुटकी लेते हैं। रोग और इलाज में नेताओं की बयानबाजी, क्या मथुरा क्या द्वारका में अफसर की बीबी की ठसक, सच्चा प्यार में नयी पीढ़ी में व्याप्त प्रेम-रोग, दोहरी समझ में वैचारिक प्रतिबद्धता के भाव, अच्छा घर में प्रच्छन्न दहेज़, वीटो में पति-पत्नी में अविश्वास, अंतहीन में बेसिर पैर की गुफ्तगू, साहब में अधिकारियों के काम न करने, दर्शन में स्वार्थ भाव से मंदिर जाने, एस एम एस में व्यक्तिगत संपर्क के स्थान पर संदेश भेजने, पहचान में आदमी को किसी न किसी आधार पर बाँटने तथा दान में स्वार्थपरता को केंद्र में रखकर अशोक जी ने पैने व्यंग्य किये हैं।
                                     सम सामायिक विषयों पर सहज, सुबोध, रोचक शैली में तीखे व्यंग्य पाठक को चिंतन दृष्टि देने समर्थ हैं। अशोक जी की १२ पुस्तकें पूर्व प्रकाशित हैं। उनकी सूक्ष्म अवलोकन वृत्ति उन्हें दैनन्दिन जीवन के प्रसंगों पर नए कोण से देखने, सोचने और लिखने सक्षम बनाती है। इस व्यंग्य संग्रह का स्वागत होगा। 
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