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बुधवार, 30 जून 2021

लोकगीत काए टेरो?

लोकगीत 
काए टेरो? 
*
काए टेरो?, मैया काए टेरो?
सो रओ थो, कओ मैया काए टेरो?
*
दोरा की कुंडी बज रई खटखट
कौना पाहुना हेरो झटपट?
कौना लगा रओ पगफेरो?
काय टेरो?, मैया काए टेरो?...
*
हांत पाँव मों तुरतई धुलाओ
भुज नें भेंटियो, दूरई बिठाओ
मों पै लेओ गमछा घेरो
काय टेरो?, मैया काए टेरो?
*
बिन धोए सामान नें लइयो
बिन कारज बाहर नें जइयो
घरई डार रइओ डेरो
काए टेरो?, मैया काए टेरो
***

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
नहीं कार्य का अंत है, नहीं कार्य में तंत।
माया है सारा जगत, कहते ज्ञानी संत।।
*
आता-जाता कब समय, आते-जाते लोग।
जो चाहें वह कार्य कर, नहीं मनाएँ सोग।।
*
अपनी-पानी चाह है, अपनी-पानी राह।
करें वही जो मन रुचे, पाएँ उसकी थाह।।
*
एक वही है चौधरी, जग जिसकी चौपाल।
विनय उसी से सब करें, सुन कर करे निहाल।।
*
जीव न जग में उलझकर, देखे उसकी ओर।
हो संजीव न चाहता, हटे कृपा की कोर।।
*
मंजुल मूरत श्याम की, कण-कण में अभिराम।
देख सके तो देख ले, करले विनत प्रणाम।।
*
कृष्णा से कब रह सके, कृष्ण कभी भी दूर।
उनके कर में बाँसुरी, इनका मन संतूर।।
*
अपनी करनी कर सदा, कथनी कर ले मौन।
किस पल उससे भेंट हो, कह पाया कब-कौन??
*
करता वह, कर्ता वही, मानव मात्र निमित्त।
निर्णायक खुद को समझ, भरमाता है चित्त।।
*
चित्रकार वह; दृश्य वह, वही चित्र है मित्र।
जीव समझता स्वयं को, माया यही विचित्र।।
*
बिंब प्रदीपा ज्योति का, सलिल-धार में देख।
निज प्रकाश मत समझ रे!, चित्त तनिक सच लेख।।
***
३०.६.२०१८, ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४

मंगलवार, 29 जून 2021

शब्दांजलि सलिल

बहुमुखी व्यक्तित्व के साहित्य पुरोधा - 'संजीव वर्मा सलिल'
डॉ. क्रांति कनाटे
***************************
श्री संजीव वर्मा 'सलिल" बहुमुखी प्रतिभा के धनी है । अभियांत्रिकी, विधि, दर्शन शास्त्र और अर्थशास्त्र विषयों में शिक्षा प्राप्त श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी देश के लब्ध-प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं जिनकी कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीट मेरे, काल है संक्रांति का, सड़क पर और कुरुक्षेत्र गाथा सहित अनेक पुस्तके चर्चित रही है ।
दोहा, कुण्डलिया, रोला, छप्पय और कई छन्द और छंदाधारित गीत रचनाओ के सशक्त हस्ताक्षर सही सलिल जी का पुस्तक प्रेम अनूठा है। इसका प्रमाण इनकी 10 हजार से अधिक श्रेष्ठ पुस्तको का संग्रह से शोभायमान जबलपुर में इनके घर पर इनका पुस्तकालय है ।
इनकी लेखक, कवि, कथाकार, कहानीकार और समालोचक के रूप में अद्वित्तीय पहचान है । मेरे प्रथम काव्य संग्रह 'करते शब्द प्रहार' पर इनका शुभांशा मेरे लिए अविस्मरणीय हो गई । इन्होंने ने कई नव प्रयोग भी किये है । दोहो और कुंडलियों पर इनकी शिल्प विधा पर इनके आलेख को कई विद्वजन उल्लेख करते है ।
जहाँ तक मुझे जानकारी है ये महादेवी वर्मा के नजदीकी रिश्तेदार है । इनकी कई वेसाइट है । ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ आस्था के कारण इन्होंने के भजन सृजित किये है और कई संस्कृत की पुस्तकों का हिंदी काव्य रूप में अनुवाद किया है ।
सलिल जी से जब भी कोई जिज्ञासा वश पूछता है तो सहभाव से प्रत्युत्तर दे समाधान करते है । ये इनकी सदाशयता की पहचान है । एक बार इनके अलंकारित दोहो के प्रत्युत्तर में मैंने दोहा क्या लिखा, दोहो में ही आधे घण्टे तक एक दूसरे को जवाब देते रहे, जिन्हें कई कवियों ने सराहा । ऐसे साहित्य पुरोधा श्री 'सलिल' जी साहित्य मर्मज्ञ के साथ ही ऐसे नेक दिल इंसान है जिन्होंने सैकड़ों नवयुवकों को का हौंसला बढ़ाया है । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं है ।
मेरी भावभव्यक्ति -
प्रतिभा के धनी : संजीव वर्मा सलिल
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प्रतिभा के लगते धनी, जन्म जात कवि वृन्द ।
हुए पुरोधा कवि 'सलिल',प्यारे जिनको छन्द ।।
प्यारे जिनको छंद, पुस्तके जिनकी चर्चित ।
छन्दों में रच काव्य, करी अति ख्याति अर्जित ।।
कह लक्ष्मण कविराय, साहित्य में लाय विभा*।
साहित्यिक मर्मज्ञ, मानते वर्मा में प्रतिभा ।।
***
*शब्द ब्रम्ह के पुजारी गुरुवार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'*
छाया सक्सेना 'प्रभु'
श्रुति-स्मृति की सनातन परंपरा के देश भारत में शब्द को ब्रम्ह और शब्द साधना को ब्रह्मानंद माना गया है। पाश्चात्य जीवन मूल्यों और अंग्रेजी भाषा के प्रति अंधमोह के काल में, अभियंता होते हुए भी कोई हिंदी भाषा, व्याकरण और साहित्य के प्रति समर्पित हो सकता है, यह आचार्य सलिल जी से मिलकर ही जाना।
भावपरक अलंकृत रचनाओं को कैसे लिखें यह ज्ञान आचार्य संजीव 'सलिल' जी अपने सम्पर्क में आनेवाले इच्छुक रचनाकारों को स्वतः दे देते हैं। लेखन कैसे सुधरे, कैसे आकर्षक हो, कैसे प्रभावी हो ऐसे बहुत से तथ्य आचार्य जी बताते हैं। वे केवल मौखिक जानकारी ही नहीं देते वरन पढ़ने के लिए साहित्य भी उपलब्ध करवाते हैं । उनकी विशाल लाइब्रेरी में हर विषयों पर आधारित पुस्तकें सुसज्जित हैं । विश्ववाणी संस्थान अभियान के कार्यालय में कोई भी साहित्य प्रेमी आचार्य जी से फोन पर सम्पर्क कर मिलने हेतु समय ले सकता है । एक ही मुलाकात में आप अवश्य ही अपने लेखन में आश्चर्य जनक बदलाव पायेंगे ।
साहित्य की किसी भी विधा में आप से मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सकता है । चाहें वो पुरातन छंद हो , नव छंद हो, गीत हो, नवगीत हो या गद्य में आलेख, संस्मरण, उपन्यास, कहानी या लघुकथा इन सभी में आप सिद्धस्थ हैं।
आचार्य सलिल जी संपादन कला में भी माहिर हैं। उन्होंने सामाजिक पत्रिका चित्राशीष, अभियंताओं की पत्रिकाओं इंजीनियर्स टाइम्स, अभियंता बंधु, साहित्यिक पत्रिका नर्मदा, अनेक स्मारिकाओं व पुस्तकों का संपादन किया है। अभियंता कवियों के संकलन निर्माण के नूपुर व नींव के पत्थर तथा समयजयी साहित्यकार भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' के लिए आपको
नाथद्वारा में 'संपादक रत्न' अलंकरण से अलंकृत किया गया है।
आचार्य सलिल जी ने संस्कृत से ५ नर्मदाष्टक, महालक्ष्यमष्टक स्त्रोत, शिव तांडव स्त्रोत, शिव महिम्न स्त्रोत, रामरक्षा स्त्रोत आदि का हिंदी काव्यानुवाद किया है। इस हेतु हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग को रजत जयंती वर्ष में आपको 'वाग्विदांबर' सम्मान प्राप्त हुआ। आचार्य जी ने हिंदी के अतिरिक्त बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, राजस्थानी, अवधी, हरयाणवी, सरायकी आदि में भी सृजन किया है।
बहुआयामी सृजनधर्मिता के धनी सलिल जी अभियांत्रिकी और तकनीकी विषयों को हिंदी में लिखने के प्रति प्रतिबद्ध हैं। आपको 'वैश्विकता के निकष पर भारतीय अभियांत्रिकी संरचनाएँ' पर अभियंताओं की सर्वोच्च संस्था इंस्टीटयूशन अॉफ इंजीनियर्स कोलकाता का अखिल भारतीय स्तर पर द्वितीय श्रेष्ठ पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा प्रदान किया गया।
जबलपुर (म.प्र.)में १७ फरवरी को आयोजित सृजन पर्व के दौरान एक साथ कई पुस्तकों का विमोचन, समीक्षा व सम्मान समारोह को आचार्य जी ने बहुत ही कलात्मक तरीके से सम्पन्न किया । दोहा संकलन के तीन भाग सफलता पूर्वक न केवल सम्पादित किया वरन दोहाकारों को आपने दोहा सतसई लिखने हेतु प्रेरित भी किया । आपके निर्देशन में समन्वय प्रकाशन भी सफलता पूर्वक पुस्तकों का प्रकाशन कर नए कीर्तिमान गढ़ रहा है ।
***
बहुमुखी प्रतिभा के धनी सलिल जी
डॉ. बाबू जोसफ
आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी के साथ मेरा संबंध वर्षों पुराना है। उनके साथ मेरी पहली मुलाकात सन् 2003 में कर्णाटक के बेलगाम में हुई थी। सलिल जी द्वारा संपादित पत्रिका नर्मदा के तत्वावधान में आयोजित दिव्य अलंकरण समारोह में मुझे हिंदी भूषण पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उस सम्मान समारोह में उन्होंने मुझे कुछ किताबें उपहार के रूप में दी थीं, जिनमें एक किताब मध्य प्रदेश के दमोह के अंग्रेजी प्रोफसर अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल संकलन Off and On भी थी। उस पुस्तक में संकलित अंग्रेजी ग़ज़लों से हम इतने प्रभावित हुए कि हमने उन ग़ज़लों का हिंदी में अनुवाद करने की इच्छा प्रकट की। सलिल जी के प्रयास से हमें इसके लिए प्रोफसर अनिल जैन की अनुमति मिली और Off and On का हिंदी अनुवाद यदा-कदा शीर्षक पर जबलपुर से प्रकाशित भी हुआ। सलिल जी हमेशा उत्तर भारत के हिंदी प्रांत को हिंदीतर भाषी क्षेत्रों से जोड़ने का प्रयास करते रहे हैं। उनके इस श्रम के कारण BSF के DIG मनोहर बाथम की हिंदी कविताओं का संकलन सरहद से हमारे हाथ में आ गया। हिंदी साहित्य में फौजी संवेदना की सुंदर अभिव्यक्ति के कारण इस संकलन की कविताएं बेजोड़ हैं। हमने इस काव्य संग्रह का मलयालम में अनुवाद किया, जिसका शीर्षक है 'अतिर्ति'। इस पुस्तक के लिए बढ़िया भूमिका लिखकर सलिल जी ने हमारा उत्साह बढ़ाया। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय बात है कि सलिल जी के कारण हिंदी के अनेक विद्वान, कवि,लेखक आदि हमारे मित्र बन गए हैं। हिंदी साहित्य में कवि, आलोचक एवं संपादक के रूप में विख्यात सलिल जी की बहुमुखी प्रतिभा से हिन्दी भाषा का गौरव बढ़ा है। उन्होंने हिंदी को बहुत कुछ दिया है। इस लिए हिंदी साहित्य में उनका नाम हमेशा अमर रहेगा। हमने सलिल जी को बहुत दूर से देखा है, मगर वे हमारे बहुत करीब हैं। हमने उन्हें किताबें और तस्वीरों में देखा है, मगर वे हमें अपने मन की दूरबीन से देखते हैं। उनकी लेखनी के अद्भुत चमत्कार से हमारे दिल का अंधकार दूर हो गया है। सलिल जी को केरल से ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।
- वडक्कन हाऊस, कुरविलंगाडु पोस्ट, कोट्टायम जिला, केरल-686633, मोबाइल.09447868474
***
छंदों का सम्पूर्ण विद्यालय हैं आचार्य संजीव वर्मा "'सलिल'
मंजूषा मन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' से मेरा परिचय पिछले चार वर्षों से है। लगभग चार वर्ष पहले की बात है, मैं एक छंद के विषय मे जानकारी चाहती थी पर यह जानकारी कहाँ से मिल सकती है यह मुझे पता नहीं था, सो जो हम आमतौर पर करते हैं मैंने भी वही किया... मैंने गूगल की मदद ली और गूगल पर छंद का नाम लिखा तो सबसे पहले मुझे "दिव्य नर्मदा" वेब पत्रिका से छंद की जानकारी प्राप्त हुई। मैंने दिव्य नर्मदा पर बहुत सारी रचनाएँ पढ़ीं।
चूँकि मैं भी जबलपुर की हूँ और जबलपुर मेरा नियमित आनाजाना होता है तो मेरे मन में आचार्य जी से मिलने की तीव्र इच्छा जागृत हुई। दिव्य नर्मदा पर मुझे आदरणीय संजीव वर्मा 'सलिल' जी का पता और फोन नम्बर भी मिला। मैं स्वयं को रोक नहीं पाई और मैंने आचार्य सलिल जी को व्हाट्सएप पर सन्देश लिखा कि मैं भी जबलपुर से हूँ... और जबलपुर आने पर आपसे भेंट करना चाहती हूँ। उन्होंने कहा कि मैं जब भी आऊँ तो उनके निवास स्थान पर उनसे मिल सकती हूँ।
उसके बाद जब में जबलपुर गई तो मैं सलिल जी से मिलने उनके के घर गई। आप बहुत ही सरल हृदय हैं बहुत ही सहजता से मिले और हमने बहुत देर तक साहित्यिक चर्चा की। हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए आप बहुत चिंतित एवं प्रयासरत लगे। चर्चा के दौरान हमने हिन्दी छंद, गीत-नवगीत, माहिया एवं हाइकु आदि पर विस्तार से बात की। लेखन की लगभग सभी विधाओं पर आपका ज्ञान अद्भुत है।
ततपश्चात मैं जब भी जबलपुर जाती हूँ तो आचार्य सलिल जी से अवश्य मिलती हूँ। उनके अथाह साहित्य ज्ञान के सागर से हर बार कुछ मोती चुनने का प्रयास करती हूँ।
ऐसी ही एक मुलाकात के दौरान उन्होंने सनातन छंदो पर अपने शोध पर विस्तार से बताया। सनातन छंदों पर किया गया यह शोध नवोदित रचनाकारों के लिए गीता साबित होगा।
आचार्य सलिल जी के विषय में चर्चा हो और उनके द्वारा संपादित "दोहा शतक मंजूषा" की चर्चा हो यह सम्भव नहीं। विश्व वाणी साहित्य संस्थान नामक संस्था के माध्यम से आप साहित्य सेवारत हैं। इसी प्रकाशन से प्रकाशित ये दोहा संग्रह पठनीय होने के साथ साथ संकलित करके रखने के योग्य हैं इनमें केवल दोहे संकलित नहीं हैं बल्कि दोहों के विषय मे विस्तार से समझाया गया है जिससे पाठक दोहों के शिल्प को समझ सके और दोहे रचने में सक्षम हो सके।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के लिए कुछ कहते हुए शब्द कम पड़ जाते हैं किंतु साहित्य के लिए आपके योगदान की गाथा पूर्ण नहीं होती। आपकी साहित्य सेवा सराहनीय है।
मैं अपने हृदयतल से आपको शुभकामनाएं देती हूँ कि आप आपकी साहित्य सेवा की चर्चा दूर दूर तक पहुंचे। आप सफलता के नए नए कीर्तिमान स्थापित करें अवने विश्व वाणी संस्थान के माध्यम से हिंदी का प्रचार प्रसार करते रहें।
- कार्यकारी अधिकारी, अम्बुजा सीमेंट फाउंडेशन, ग्राम - रवान, जिला - बलौदा बाजार 493331 छत्तीसगढ़
***

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ - मानवीय संवेदनाओं के कवि
बसंत कुमार शर्मा
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी का नाम अंतर्जाल पर हिंदी साहित्य जगत में विशेष रूप से सनातन एवं नवीन छंदों पर किये गए उनके कार्य को लेकर अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है, गूगल पर उनका नाम लिखते ही सैकड़ों के संख्या में अनेकानेक पेज खुल जाते हैं जिनमें छंद पिंगलशास्त्र के बारे में अद्भुत ज्ञान वर्धक आलेख तथ्यों के साथ उपलब्ध हैं और हम सभी का मार्गदर्शन कर रहे हैं. फेसबुक एवं अन्य सोशल मिडिया के माध्यम से नवसिखियों को छंद सिखाने का कार्य वे निरनतर कर रहे हैं. पेशे से इंजीनियर होने के बाबजूद उनका हिंदी भाषा, व्याकरण का ज्ञान अद्भुत है, उन्होंने वकालत की डिग्री भी हासिल की है जो दर्शाता है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती. वे विगत लगभग 20 वर्षों से हिंदी की सेवा माँ के समान निष्काम भाव से कर रहे हैं, उनका यह समर्पण वंदनीय है, साथ साथ हम जैसे नवोदितों के लिए अनुकरणीय है। गीतों में छंद वद्धता और गेयता के वे पक्षधर हैं।
आचार्य जी से मेरी प्रथम मुलाकात आदरणीय अरुण अर्णव खरे जी के साथ उनके निज आवास पर अक्टूबर २०१६ में हुई, उसे कार्यालय या एक पुस्तकालय कहूँ तो उचित होगा, उनके पास दो फ्लैट हैं, एक में उनका परिवार रहता है दूसरा साहित्यिक गतिविधियों को समर्पित है, लगभग दो घंटे हिंदी साहित्य के विकास में हम मिलकर क्या कर सकते हैं, इस पर चर्चा हुई. उनके सहज सरल व्यक्तित्व और हिंदी भाषा के लिए पूर्ण समर्पण के भाव ने मुझे बहुत प्रभावित किया. यह निर्णय लिया गया कि विश्ववाणी हिंदी संस्थान के अंतर्गत अभियान के माध्यम से जबलपुर में हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे लघुकथा, कहानी, दोहा छंद आदि विधाओं पर सीखने सिखाने हेतु कार्यशालाएं/गोष्ठी आयोजित की जाएँ, तब से लेकर आज तक २५ गोष्ठियों का आयोजन किया चुका है और यह क्रम अनवरत जारी है, व्हाट्सएप समूह के माध्यम से भी यह कार्य प्रगति की चल रहा है. इसी अवधि में तीन दोहा संकलन उन्होंने सम्पादित किये हैं, सम्पादन उत्कृष्ट एवं शिक्षाप्रद है.
वे एक कुशल वक्ता हैं, आशुकवि हैं, समयानुशासन का पालन उनकी आदत में शुमार है, चाहे वह किसी आयोजन में उपस्थिति का हो या फिर वक्तव्य, काव्यपाठ की अवधि का, निर्धारित अवधि में अपनी पूरी बात कह देने की कला में वे निपुण हैं. अनुशासन हीनता उन्हें बहुत विचलित करती है, कभी-कभी वे इसे सबके सामने प्रकट भी कर देते हैं.
उन्होंने कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, काल है संक्रांति का, सड़क पर, कुरुक्षेत्र गाथा आदि कृतियों के माध्यम से साहित्य में सबका हित समाहित करने का अनुपम कार्य किया है. यदि सामाजिक विसंगतियों पर करारा प्रहार करना आचार्य सलिल के काव्य की विशेषता है तो समाज में मंगल, प्रकृति की सुंदरता का वर्णन भी समान रूप से उनके काव्य का अंश है, माँ नर्मदा पर उनके उनके छंद हैं, दिव्य नर्मदा के नाम से वे ब्लॉग निरंतर लिख रहे हैं.
उनके साथ मुझे कई साहित्यिक यात्राएँ करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, अपने पैसे एवं समय खर्च कर साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेने का उनका उत्साह सराहनीय है, अनुकरणीय है.
ट्रू मीडिया ने उनके कृतित्व पर एक विशेषांक निकालने का निर्णय लिया है, स्वागत योग्य है, इससे संस्कारधानी जबलपुर गौरवान्वित हुई है. मैं उनके उनके उज्जवल भविष्य और उत्तम स्वास्थ्य की कामना करता हूँ. माँ शारदा की अनुकम्पा सदैव उन पर बनी रहे.
बसंत कुमार शर्मा
IRTS
संप्रति - वरिष्ठ मंडल वाणिज्य प्रबंधक, जबलपुर मंडल, पश्चिम मध्य रेल, निवास - 354, रेल्वे डुप्लेक्स, फेथवैली स्कूल के सामने, पचपेढ़ी, साउथ सिविल लाइन्स, जबलपुर 9479356702 ईमेल : basant5366@gmail.com
***

पद

पद - छंद: दोहा 
*
मन मंदिर में बैठे श्याम।।
नटखट-चंचल सुकोमल, भावन छवि अभिराम।
देख लाज से गड़ रहे, नभ सज्जित घनश्याम।।
मेघ मृदंग बजा रहे, पवन जप रहा नाम।
मंजु राधिका मुग्ध मन, छेड़ रहीं अविराम।।
छीन बंसरी अधर धर, कहें न करती काम।
कहें श्याम दो फूँक तब, जब मन हो निष्काम।।
चाह न तजना है मुझे, रहें विधाता वाम।
ये लो अपनी बंसरी, दे दो अपना नाम।।
तुम हो जाओ राधिका, मुझे बना दो श्याम।
श्याम थाम कर हँस रहे, मैं गुलाम बेदाम।।
***
२९.६.२०१२, ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४

गीत:कहे कहानी, आँख का पानी

गीत:कहे कहानी, आँख का पानी.
संजीव 'सलिल'
*
कहे कहानी, आँख का पानी.
की सो की, मत कर नादानी...
*
बरखा आई, रिमझिम लाई.
नदी नवोढ़ा सी इठलाई..
ताल भरे दादुर टर्राये.
शतदल कमल खिले मन भाये..
वसुधा ओढ़े हरी चुनरिया.
बीरबहूटी बनी गुजरिया..
मेघ-दामिनी आँख मिचोली.
खेलें देखे ऊषा भोली..
संध्या-रजनी सखी सुहानी.
कहे कहानी, आँख का पानी...
*
पाला-कोहरा साथी-संगी.
आये साथ, करें हुडदंगी..
दूल्हा जाड़ा सजा अनूठा.
ठिठुरे रवि सहबाला रूठा..
कुसुम-कली पर झूमे भँवरा.
टेर चिरैया चिड़वा सँवरा..
चूड़ी पायल कंगन खनके.
सुन-गुन पनघट के पग बहके.
जो जी चाहे करे जवानी.
कहे कहानी, आँख का पानी....
*
अमन-चैन सब हुई उड़न छू.
सन-सन, सांय-सांय चलती लू..
लंगड़ा चौसा आम दशहरी
खाएँ ख़ास न करते देरी..
कूलर, ए.सी., परदे खस के.
दिल में बसी याद चुप कसके..
बन्ना-बन्नी, चैती-सोहर.
सोंठ-हरीरा, खा-पी जीभर..
कागा सुन कोयल की बानी.
कहे कहानी, आँख का पानी..
२९-६-२०१० 
*********************

बंगाल वैभव संजीव

बंगाल वैभव
*
चित्र गुप्त साकार हो, विधि-हरि-हर रच सृष्टि। 
शारद-रमा-उमा सहित, करें कृपा की वृष्टि।।
रिद्धि-सिद्धि विघ्नेश आ, करें हमें मतिमान। 
वर दें भारत भूमि हो, सुख-समृद्धि की खान।।  
'भारत' की महिमा का वर्णन। करते युग-युग से मिल कवि जन।१।
देश सनातन वैभवशाली। 'गंगारिदयी' धरा शुभ आली।२।
'पाल-सेन' ने भोगी सत्ता। चार सदी तक रख गुणवत्ता।३।
तीन सदी थे मुस्लिम शासक। भोग विलास दमन के नायक।४।
प्लासी में अंग्रेज विजय पा। सके देश में पाँव थे जमा।५।
हा! दुर्दिन थे देश के, जनगण था उद्भ्रांत। 
भद्र बंग विद्वान थे, दीन-हीन अति क्लांत।। 
हिंदू-मुस्लिम किया विभाजन। शोषक बन करते थे शासन।६।
'संतानों' ने किया जागरण। क्रांति शंख ने किया भय हरण।७।
सदी आठवीं से रचनाएँ। साहित्यिक मिलती मन भाएँ।८।
'सिद्धाचार्य' पुरातन कवि थे। ताड़पत्र पर वे लिखते थे।९।
'रामायण कृतिवास' लोकप्रिय। 'चंडीदास' कीर्ति थिर अक्षय।१०।
मिल संस्कृति-साहित्य ने, जन मन को दी शक्ति। 
विपद काल में मनोबल, पाएँ कर प्रभु भक्ति।। 
'मालाधर' 'चैतन्य' चेतना। फैला हरते लोक वेदना।११।
काव्य कथा 'चंडी' व 'मनासा'। कवि 'जयदेव' नाम रवि जैसा।१२।
सन अट्ठारह सौ सत्तावन। जूझा था बंगाली जन जन।१३।
नाटक 'दीनबंधु मित्रा' का। 'नील दोर्पन' लोक व्यथा का।१४।
लोक जागरण का था माध्यम। अंग्रेजों को दिखता था यम।१५।
'ठाकुर देवेंद्रनाथ' ने, संस्था 'ब्रह्मसमाज'। 
गठित करी ले लक्ष्य यह, बदल सकें कुछ आज।। 
'राय राममोहन'  ने जमकर। सती प्रथा को दी थी टक्कर।१६।
'माइकेल मधुसूदन' कवि न्यारे। 'कवि नज़रूल' आँख के तारे।१७।
'वंदे मातरम' दे 'बंकिम' ने। पाई प्रतिष्ठा सब भारत से।१८।
'केशव सेन' व 'विद्यासागर'। शिशु शिक्षा विधवा विवाह कर।१९।
'चितरंजन' परिवर्तन लाए। रूढ़िवादियों से टकराए।२०। 
क्रांति ज्वाल थी जल रही, उबल रह था रक्त। 
डरते थे अंग्रेज भी, बेबस भीरु अशक्त।। 
'सूर्यसेन' और 'प्रीतिलता' से। डरते-थर्राते थे गोरे।२१।
'गुरु रवींद्र' ने नोबल पाया। 'गीतांजलि' ने मान दिलाया।२२।
'परमहंस श्री रामकृष्ण' ने। ईश्वर पाया सब धर्मों से।२३।
'उठो जाग कर मंज़िल पाओ'। अपनी किस्मत आप बनाओ।२४।
'स्वामी विवेकानंद' धर्म ध्वज। फहरा सके दूर पश्चिम तक।२५।  
दलित-दीन-सेवा करी, सह न सके पाखंड। 
जाति प्रथा को चुनौती, दी कह सत्य अखंड।।    
वैज्ञानिक 'सत्येन बोस' ने। कीर्ति कमाई 'बोसान कण' से।२६।
'बसु जगदीश' गज़ब के ज्ञानी। वैज्ञानिक महान वे दानी।२७।
'राय प्रफुल्ल चंद्र' रसायनी। 'नाइट्राइट' विद्या के धनी।२८। 
'मेघनाथ साहा' विशिष्ट थे। जगजाहिर एस्ट्रोफिसिस्ट थे।२९। 
'दत्त रमेश चंद्र' ऋग्वेदी। अर्थशास्त्री विख्यात अरु गुणी।३०। 
प्रतिभाओं से दीप्त था,  भारत का आकाश। 
समय निकट था तोड़ दे, पराधीनता पाश।।  
'रास बिहारी' क्रांतिवीर थे। 'बाघा जतिन' प्रचंड धीर थे।३१।
जला 'लाहिड़ी' ने मशाल दी। गोरी सत्ता थर्राई थी।३२। 
क्रांतिवीर 'अरविन्द-कनाई' । 'बारीलाल' ने धूम मचाई।३३।'
'श्री अरविन्द घोष' थे त्यागी। क्रांति और दर्शन अनुरागी।३४।  
'वीर सुभाष' अमर बलिदानी। रिपु को याद कराई नानी।३५।
अपनी आप मिसाल थे, जलती हुई मशाल।  
नारा दे 'जय हिंद' हैं, अमर साक्षी देश के लाल।। 
'शरतचंद्र' ने पाखंडों पे। किया प्रहार उपन्यासों में।३६। 
'ताराशंकर' 'बिमल मित्र' ने। उपन्यास अनुपम हैं रचे।३७।  
'नंदलाल-अवनींद्र-जैमिनी'। चित्रकार त्रय अनुपम गुनी।३८।   
बंग कोकिला थीं 'सरोजिनी'। 'राय बिधानचंद्र' अति धुनी।३९।
'रॉय बिमल' अरु 'सत्यजीत' ने। नाम कमाया फिल्म जगत में।४०। 
प्रतिभाओं की खान है, बंगभूमि लें मान। 
जो चाहें वह कर सकें, यदि लें मन में ठान।।  
दुर्गा पूजा दिवाली, बंगाली त्यौहार।
रथयात्रा रंगोत्सव, दस दिश रहे बहार।।
षष्ठी तिथि 'बोधन' आमंत्रण। प्राण प्रतिष्ठा भव्य सुतंत्रण।४१। 
भोर-साँझ पूजन फिर बलि हो। 'कोलाकुली' गले मिल खुश हो। ४२। 
'नीलकंठ' दर्शन शुभ जानो। सेंदुर ले-दे 'खेला' ठानो।४३।  
'हरसिंगार' 'कौड़िल्ला' 'छितवन'। 'रोसोगुल्ला' हरता सबका मन।४४। 
'सिक्किम' 'असम' 'बिहार' 'उड़ीसा'। 'झारखण्ड' संगी-साथी सा।४५।  
बांग्लादेश पड़ोस में, है सद्भाव विशेष। 
थे अतीत में एक ही, पाले स्नेह अशेष।। 
'घुग्गी' 'चाट' 'झलमुरी' खाएँ। 'हिलसा मछली' भुला न पाएँ।४६।
घाट बैठ लें चाय चुस्कियाँ। सूर्य डूबता देख झलकियाँ।४७। 
खाड़ी तट पर 'दीघा' जाएँ। 'लतागुड़ी' घूमें हर्षाएँ।४८।   
बसा सिलिगुड़ी, तीर 'टोरसा'। 'जलदापारा' पार्क रम्य सा।४९। 
'सुंदरबन' 'बंगाल टाइगर'। 'दार्जिलिंग' है खूब नामवर।५०। 
'कालिपोंग' मठ-चर्च की, शोभा भव्य अनूप। 
'कुर्सिआंग' 'आर्किड्स' का, देखें रूप अरूप।।
'कामाख्या' मंदिर अतिपावन। 'गंगासागर' छवि मनभावन।५१। 
'शांतिनिकेतन' 'विश्व भारती'। 'सेतु हावड़ा' 'गंग तारती'।५२।  
'गोरूमारा' 'बल्लभपुर' वन। 'बक्सा' घूम हुलस जाए मन।५३। 
'कूचबिहार', 'हल्दिया', 'माल्दा'। 'तारापीठ' 'सैंडकफू' भी जा।५४। 
'माछी-भात', 'पंटूआ', 'चमचम'। 'भज्जा', 'झोल' 'पिथा' खा तज गम। ५५। 
'छेना लड्डू' खाइए, फिर छककर 'संदेश'। 
'रसमलाई' से पाइए, प्रिय! आनंद अशेष।। 
बंगाली हैं भद्रजन, शांत शिष्ट गुणवान। 
देशभक्ति है खून में, जां से प्यारी आन।। 
***

    

चौपाई

मुक्तिका
*
सरला तरला विमला मति दे, शारद मैया तर जाऊँ
वीणा के तारों जैसे पल पल तेरा ही गुण गाऊँ
वाक् शब्द सरगम निनाद तू, तू ही कलकल कलरव है
कल भूला, कल पर न टाल, इस पल ही भज, कल मैं पाऊँ
हारा, कौन सहारा तुम बिन, तारो तारो माँ तारो
कुमति नहीं, शुचि सुमति मिले माँ, कर सत्कर्म तुझे भाऊँ
डगमग पग धर पगडंडी पर, गिर थक डर झुक रुकूँ नहीं
फल की फिक्र न कर, सूरज सम दे प्रकाश जग पर छाऊँ
पग प्रक्षालन करे सलिल, हो मुक्त आचमन कर सब जग
आकुल व्याकुल चित्त शांत हों, सबको तुझ तक ला पाऊँ
***
संजीव 
९४२५१८३२४४

सरस्वती प्रार्थना

मुक्तिका
*
सरला तरला विमला मति दे, शारद मैया तर जाऊँ
वीणा के तारों जैसे पल पल तेरा ही गुण गाऊँ
वाक् शब्द सरगम निनाद तू, तू ही कलकल कलरव है
कल भूला, कल पर न टाल, इस पल ही भज, कल मैं पाऊँ
हारा, कौन सहारा तुम बिन, तारो तारो माँ तारो
कुमति नहीं, शुचि सुमति मिले माँ, कर सत्कर्म तुझे भाऊँ
डगमग पग धर पगडंडी पर, गिर थक डर झुक रुकूँ नहीं
फल की फिक्र न कर, सूरज सम दे प्रकाश जग पर छाऊँ
पग प्रक्षालन करे सलिल, हो मुक्त आचमन कर सब जग
आकुल व्याकुल चित्त शांत हों, सबको तुझ तक ला पाऊँ
***
संजीव 
९४२५१८३२४४

सोमवार, 28 जून 2021

दोहा मुक्तिका

दोहा मुक्तिका:
*
काम न आता प्यार
काम न आता प्यार यदि, क्यों करता करतार।।
जो दिल बस; ले दिल बसा, वह सच्चा दिलदार।।
*
जां की बाजी लगे तो, काम न आता प्यार।
सरहद पर अरि शीश ले, पहले 'सलिल' उतार।।
*
तूफानों में थाम लो, दृढ़ता से पतवार।
काम न आता प्यार गर, घिरे हुए मझधार।।
*
गैरों को अपना बना, दूर करें तकरार।
कभी न घर में रह कहें, काम न आता प्यार।।
*
बिना बोले ही बोलना, अगर हुआ स्वीकार।
'सलिल' नहीं कह सकोगे, काम न आता प्यार।।
*
मिले नहीं बाज़ार में, दो कौड़ी भी दाम।
काम न आता प्यार जब, रहे विधाता वाम।।
*
राजनीति में कभी भी, काम न आता प्यार।
दाँव-पेंच; छल-कपट से, जीवन हो निस्सार।।
*
काम न आता प्यार कह, करें नहीं तकरार।
कहीं काम मनुहार दे, कहीं काम इसरार।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८

दोहा संवाद

दोहा संवाद:
*
बिना कहे कहना 'सलिल', सिखला देता वक्त।
सुन औरों की बात पर, कर मन की कमबख्त।।
*
आवन जावन जगत में,सब कुछ स्वप्न समान।
मैं गिरधर के रंग रंगी, मान सके तो मान।। - लता यादव
*
लता न गिरि को धर सके, गिरि पर लता अनेक।
दोहा पढ़कर हँस रहे, गिरिधर गिरि वर एक।। -संजीव
*
मैं मोहन की राधिका, नित उठ करूँ गुहार।
चरण शरण रख लो मुझे, सुनकर नाथ पुकार।। - लता यादव
*
मोहन मोह न अब मुझे, कर माया से मुक्त।
कहे राधिका साधिका, कर मत मुझे वियुक्त।। -संजीव
*
ना मैं जानूँ साधना, ना जानूँ कुछ रीत।
मन ही मन मनका फिरे,कैसी है ये प्रीत।। - लता यादव
*
करे साधना साधना, मिट जाती हर व्याध।
करे काम ना कामना, स्वार्थ रही आराध।। -संजीव
*
सोच सोच हारी सखी, सूझे तनिक न युक्ति ।
जन्म-मरण के फेर से, दिलवा दे जो मुक्ति।। -लता यादव
*
नित्य भोर हो जन फिर, नित्य रात हो मौत।
तन सो-जगता मन मगर, मौन हो रहा फौत।। -संजीव
*
वाणी पर संयम रखूँ, मुझको दो आशीष।
दोहे उत्तम रच सकूँ, कृपा करो जगदीश।। -लता यादव
*
हरि न मौन होते कभी, शब्द-शब्द में व्याप्त।
गीता-वचन उचारते, विश्व सुने चुप आप्त।। -संजीव
*
२८-६-२०१८, ७९९९५५९६१८

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
*
हर्ष; खुशी; उल्लास; सुख, या आनंद-प्रमोद।
हैं आकाश-कुसुम 'सलिल', अब आल्हाद विनोद।।
*
कहीं न हैपीनेस है, हुआ लापता जॉय।
हाथों में हालात के, ह्युमन बीइंग टॉय।।
*
एक दूसरे से मिलें, जब मन जाए झूम।
तब जीवन का अर्थ हो, सही हमें मालूम।।
*
मेरे अधरों पर खिले, तुझे देख मुस्कान।
तेरे लब यदि हँस पड़ें, पड़े जान में जान।।
*
तू-तू मैं-मैं भुलकर, मैं तू हम हों मीत।
तो हर मुश्किल जीत लें, यह जीवन की रीत।।
*
श्वास-आस संबंध बो, हरिया जीवन-खेत।
राग-द्वेष कंटक हटा, मतभेदों की रेत।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८

प्रश्नोत्तरी दोहा

प्रश्नोत्तरी दोहा  
*
चंपा तुझ में तीन गुण ,रूप ,रंग और बास
अवगुण केवल एक है ,भ्रमर ना आवै पास
चंपा बदनी राधिका भ्रमर कृष्ण का दास
निज जननी अनुहार के भ्रमर न जाये पास
इन दोनों दोहों के दोहाकारों के नाम भूल गया हूँ. बताइये

लघु कथा: बाँस

लघु कथा:
बाँस
.
गेंड़ी पर नाचते नर्तक की गति और कौशल से मुग्ध जनसमूह ने करतल ध्वनि की. नर्तक ने मस्तक झुकाया और तेजी से एक गली में खो गया.
आश्चर्य हुआ प्रशंसा पाने के लिये लोग क्या-क्या नहीं करते? चंद करतल ध्वनियों के लिये रैली, भाषण, सभा, समारोह, यहाँ ताक की खुद प्रायोजित भी कराते हैं. यह अनाम नर्तक इसकी उपेक्षा कर चला गया जबकि विरागी-संत भी तालियों के मोह से मुक्त नहीं हो पाते. मंदिर से संसद तक और कोठों से अमरोहों तक तालियों और गालियों का ही राज्य है.
संयोगवश अगले ही दिन वह नर्तक फिर मिला गया. आज वह पीठ पर एक शिशु को बाँधे हाथ में लंबा बाँस लिये रस्से पर चल रहा था और बज रही थीं तालियाँ लेकिन वह फिर गायब हो गया.
कुछ दिन बाद नुक्कड़ पर फिर दिख गया वह... इस बार कंधे पर रखे बाँस के दोनों ओर जलावन के गट्ठर टँगे थे जिन्हें वह बेचने जा रहा था..
मैंने पुकारा तो वह रुक गया. मैंने उसके नृत्य और रस्से पर चलने की कला की प्रशंसा कर पूछा कि इतना अच्छा कलाकार होने के बाद भी वह अपनी प्रशंसा से दूर क्यों चला जाता है? कला साधना के स्थान पर अन्य कार्यों को समय क्यों देता है?
कुछ पल वह मुझे देखता रहा फिर लम्बी साँस भरकर बोला : 'क्या कहूँ? कला साधना और प्रशंसा तो मुझे भी मन भाती है पर पेट की आग न तो कला से, न प्रशंसा से बुझती है. तालियों की आवाज़ में रमा रहूँ तो बच्चे भूखे रह जायेंगे.' मैंने जरूरत न होते हुए भी जलावन ले ली... उसे परछी में बैठाकर पानी पिलाया और रुपये दिए तो वह बोल पड़ा: 'सब किस्मत का खेल है. अच्छा-खासा व्यापार करता था. पिता को किसी से टक्कर मार दी. उनके इलाज में हुए खर्च में लिये कर्ज को चुकाने में पूँजी ख़त्म हो गयी. बचपन का साथी बाँस और उस पर सीखे खेल ही पेट पालने का जरिया बन गये.' इससे पहले कि मैं उसे हिम्मत देता वह फिर बोला:'फ़िक्र न करें, वे दिन न रहे तो ये भी न रहेंगे. अभी तो मुझे कहीं झुककर, कहीं तनकर बाँस की तरह परिस्थितियों से जूझना ही नहीं उन्हें जीतना भी है.' और वह तेजी से आगे बढ़ गया. मैं देखता रह गया उसके हाथ में झूलता बाँस
२८-६-२०१७ 
*

गीत कमल

गीत 
शतदल पंकज कमल
*
शतदल, पंकज, कमल, सूर्यमुख
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.
शूल चुभा सुरभित गुलाब का फूल-
कली-मन म्लान कर रहा...
*
जंगल काट, पहाड़ खोदकर
ताल पाटता महल न जाने.
भू करवट बदले तो पल में-
मिट जायेंगे सब अफसाने..
सरवर सलिल समुद्र नदी में
खिल इन्दीवर कुई बताता
हरिपद-श्रीकर, श्रीपद-हरिकर
कृपा करें पर भेद न माने..
कुंद कुमुद क्षीरज नीरज नित
सौगन्धिक का
गान कर रहा.
सरसिज, अलिप्रिय, अब्ज, रोचना
श्रम-सीकर से
स्नान कर रहा.....
*
पुण्डरीक सिंधुज वारिज
तोयज उदधिज नव आस जगाता.
कुमुदिनि, कमलिनि, अरविन्दिनी के
अधरों पर शशिहास सजाता..
पनघट चौपालों अमराई
खलिहानों से अपनापन रख-
नीला लाल सफ़ेद जलज हँस
सुख-दुःख एक सदृश बतलाता.
उत्पल पुंग पद्म राजिव
कब निर्मलता का भान कर रहा.
जलरुह अम्बुज अम्भज कैरव
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.....
*
बिसिनी नलिन सरोज कोकनद
जाति-धर्म के भेद न मानें.
मन मिल जाए ब्याह रचायें-
एक गोत्र का खेद न जानें..
दलदल में पल दल न बनाते,
ना पंचायत, ना चुनाव ही.
शशिमुख-रविमुख रह अमिताम्बुज
बैर नहीं आपस ठानें..
अमलतास हो या पलाश
पुहकर पुष्कर का गान कर रहा.
सौगन्धिक पुन्नाग अलोही
श्रम-सीकर से
स्नान कर
*
१०-७-२०१०
-----------------
अभिनव प्रयोग-
१९. कमल-कमलिनी विवाह
रक्त कमल
अंबुज शतदल कमल
अब्ज हर्षाया रे!
कुई कमलिनी का कर
गहने आया रे!...
**
हिमकमल
अंभज शीतल उत्पल देख रहा सपने
बिसिनी उत्पलिनी अरविन्दिनी सँग हँसने
कुंद कुमुद क्षीरज अंभज नीरज के सँग-
नीलाम्बुज नीलोत्पल नीलोफर भी दंग.
कँवल जलज अंबोज नलिन पुहुकर पुष्कर
अर्कबन्धु जलरुह राजिव वारिज सुंदर
मृणालिनी अंबजा अनीकिनी वधु मनह
यह उसके, वह भी
इसके मन भाया रे!...
**
नील कमल
बाबुल ताल, तलैया मैया हँस-रोयें
शशिप्रभ कुमुद्वती कैरविणी को खोयें.
निशापुष्प कौमुदी-करों मेंहदी सोहे.
शारंग पंकज पुण्डरीक मुकुलित मोहें.
बन्ना-बन्नी, गारी गायें विष्णुप्रिया.
पद्म पुंग पुन्नाग शीतलक लिये हिया.
रविप्रिय श्रीकर कैरव को बेचैन किया
अंभोजिनी अंबुजा
हृदय अकुलाया रे!...
**
श्वेत कमल
चंद्रमुखी-रविमुखी हाथ में हाथ लिये
कर्णपूर सौगन्धिक श्रीपद साथ लिये.
इन्दीवर सरसिज सरोज फेरे लेते.
मौन अलोही अलिप्रिय सात वचन देते.
असिताम्बुज असितोत्पल-शोभा कौन कहे?
सोमभगिनी शशिकांति-कंत सँग मौन रहे.
'सलिल'ज हँसते नयन मगर जलधार बहे
श्रीपद ने हरिकर को
पूर्ण बनाया रे!...
*
२०-७-२०१२
**************
* ब्रम्ह कमल
टिप्पणी:
* कमल, कुमुद, व कमलिनी का प्रयोग कहीं-कहीं भिन्न पुष्प प्रजातियों के रूप में है, कहीं-कहीं एक ही प्रजाति के पुष्प के पर्याय के रूप में. कमल के रक्तकमल, नीलकमल तथा श्वेतकमल तीन प्रकार रंग के आधार पर वर्णित हैं. कमल-कमलिनी का विभाजन बड़े-छोटे आकार के आधार पर प्रतीत होता है. कुमुद को कहीं कमल, कहीं कमलिनी कहा गया है. कुमद के साथ कुमुदिनी का भी प्रयोग हुआ है. कमल सूर्य के साथ उदित होता है, उसे सूर्यमुखी, सूर्यकान्ति, रविप्रिया आदि कहा गया है. रात में खिलनेवाली कमलिनी को शशिमुखी, चन्द्रकान्ति, रजनीकांत, कहा गया है. रक्तकमल के लाल रंग की श्री तथा हरि के कर-पद पल्लवों से समानता के कारण हरिपद, श्रीकर जैसे पर्याय बने हैं, सूर्य, चन्द्र, विष्णु, लक्ष्मी, जल, नदी, समुद्र, सरोवर आदि से जन्म के आधार पर बने पर्यायों के साथ जोड़ने पर कमल के अनेक और पर्यायी शब्द बनते हैं. मुझसे अनुरोध था कि कमल के सभी पर्यायों को गूँथकर रचना करूँ. माँ शारदा के श्री चरणों में यह कमल-माल अर्पित है. रचना लंबी हुई है. पाठक बतायें गीतकार निकष पर खरा उतरा या नहीं?
* कमल हर कीचड़ में नहीं खिलता. गंदे नालों में कमल नहीं दिखेगा भले ही कीचड़ हो. कमल का उद्गम जल से है इसलिए वह नीरज, जलज, सलिलज, वारिज, अम्बुज, तोयज, पानिज, आबज, अब्ज है. जल का आगर नदी, समुद्र, तालाब हैं... अतः कमल सिंधुज, उदधिज, पयोधिज, नदिज, सागरज, निर्झरज, सरोवरज, तालज भी है. जल के तल में मिट्टी है, वहीं जल और मिट्टी में मेल से कीचड़ या पंक में कमल का बीज जड़ जमता है इसलिए कमल को पंकज कहा जाता है. पंक की मूल वृत्ति मलिनता है किन्तु कमल के सत्संग में वह विमलता का कारक हो जाता है. क्षीरसागर में उत्पन्न होने से वह क्षीरज है. इसका क्षीर (मिष्ठान्न खीर) से कोई लेना-देना नहीं है. श्री (लक्ष्मी) तथा विष्णु की हथेली तथा तलवों की लालिमा से रंग मिलने के कारण रक्त कमल हरि कर, हरि पद, श्री कर, श्री पद भी कहा जाता किन्तु अन्य कमलों को यह विशेषण नहीं दिया जा सकता. पद्मजा लक्ष्मी के हाथ, पैर, आँखें तथा सकल काया कमल सदृश कही गयी है. पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना के नेत्र गुलाबी भी हो सकते हैं, नीले भी. सीता तथा द्रौपदी के नेत्र क्रमशः गुलाबी व् नीले कहे गए हैं और दोनों को पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना विशेषण दिए गये हैं. करकमल और चरणकमल विशेषण करपल्लव तथा पदपल्लव की लालिमा व् कोमलता को लक्ष्य कर कहा जाना चाहिए किन्तु आजकल चाटुकार कठोर-काले हाथोंवाले लोगों के लिये प्रयोग कर इन विशेषणों की हत्या कर देते हैं. श्री राम, श्री कृष्ण के श्यामल होने पर भी उनके नेत्र नीलकमल तथा कर-पद रक्तता के कारण करकमल-पदकमल कहे गये. रीतिकालिक कवियों को नायिका के अन्गोंपांगों के सौष्ठव के प्रतीक रूप में कमल से अधिक उपयुक्त अन्य प्रतीक नहीं लगा. श्वेत कमल से समता रखते चरित्रों को भी कमल से जुड़े विशेषण मिले हैं. मेरे पढ़ने में ब्रम्हकमल, हिमकमल से जुड़े विशेषण नहीं आये... शायद इसका कारण इनका दुर्लभ होना है. इंद्र कमल (चंपा) के रंग चम्पई (श्वेत-पीत का मिश्रण) से जुड़े विशेषण नायिकाओं के लिये गर्व के प्रतीक हैं किन्तु पुरुष को मिलें तो निर्बलता, अक्षमता, नपुंसकता या पाण्डुरोग (पीलिया ) इंगित करते हैं. कुंती तथा कर्ण के पैर कोमलता तथा गुलाबीपन में साम्यता रखते थे तथा इस आधार पर ही परित्यक्त पुत्र कर्ण को रणांगन में अर्जुन के सामने देख-पहचानकर वे बेसुध हो गयी थीं.
*
हिम कमल
विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से
चीन के सिन्चांग वेवूर स्वायत्त प्रदेश में खड़ी थ्येनशान पर्वत माले में समुद्र सतह से तीन हजार मीटर ऊंची सीधी खड़ी चट्टानों पर एक विशेष किस्म की वनस्पति उगती है, जो हिम कमल के नाम से चीन भर में मशहूर है। हिम कमल का फूल एक प्रकार की दुर्लभ मूल्यवान जड़ी बूटी है, जिस का चीनी परम्परागत औषधि में खूब प्रयोग किया जाता है। विशेष रूप से ट्यूमर के उपचार में, लेकिन इधर के सालों में हिम कमल की चोरी की घटनाएं बहुत हुआ करती है, इस से थ्येन शान पहाड़ी क्षेत्र में उस की मात्रा में तेजी से गिरावट आयी। वर्ष 2004 से हिम कमल संरक्षण के लिए व्यापक जनता की चेतना उन्नत करने के लिए प्रयत्न शुरू किए गए जिसके फलस्वरूप पहले हिम कमल को चोरी से खोदने वाले पहाड़ी किसान और चरवाहे भी अब हिम कमल के संरक्षक बन गए हैं।

अमलतास

प्रस्तुत है एक रचना - प्रतिरचना आप इस क्रम में अपनी रचना टिप्पणी में प्रस्तुत कर सकते हैं.
रचना - प्रति रचना : इंदिरा प्रताप / संजीव 'सलिल'
*
रचना:
अमलतास का पेड़
इंदिरा प्रताप
*
वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
गुरुवार, २३ अगस्त २०१२
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
प्रतिरचना:
अमलतास का पेड़
संजीव 'सलिल'
**
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो
पेड़ पुराना अमलतास का।
*
जाकर लकड़ी-घर में देखो
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते
चीत्कार पर कोई न सुनता।
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में?
घर-आंगन में??
*
हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे।
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन।
तभी हुई थी घर में अनबन।
*
मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है।
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर
ऊषा संध्या निशा साथ हँस
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो
बैठ छाँव में अमलतास की.
*
२८-६-२०१७ 
salil.sanjiv@gmail.com

मीरां - तुलसी संवाद

मीरां - तुलसी संवाद
कृष्ण-भक्त मीरां बाई और राम-भक्त तुलसीदास के मध्य हुआ निम्न पत्राचार शंका-समाधान के साथ पारस्परिक विश्वास और औदार्य का भी परिचायक है। इष्ट अलग-अलग होने और पूर्व परिचय न होने पर भी दोनों में एक दूसरे के प्रति सहज सम्मान का भाव उल्लेखनीय है। काश. हम सब इनसे प्रेरणा लेकर पारस्परिक विचार-विनिमय से शंकाओं का समाधान कर सकें-
राजपरिवार ने राजवधु मीरां को कृष्ण भक्ति छोड़कर सांसारिक जीवन यापन हेतु बाध्य करना चाहा। पति भोजराज द्वारा प्रत्यक्ष विरोध न करने पर भी ननद ऊदा ने मीरां को कष्ट देने में कोई कसर न छोड़ी। प्रताड़ना असह्य होने पर मीरां ने तुलसी को पत्र भेजा-
स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण, दूषन हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब, हरहूँ सोक समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते, सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
मेरे माता-पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
साधु-संग अरु भजन करत माहिं, देत कलेस महाई।।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।
हे कुलभूषण! दूषण को मिटानेवाले, गोस्वामी तुलसीदास जी सादर प्रणाम। आपको बार-बार प्रणाम करते हुए निवेदन है कि मेरे अनगिन शोकों को हरने की कृपा करें। हमारे घर के जितने स्वजन (परिवारजन) हैं वे हमारी पीड़ा बढ़ा रहे हैं। यहाँ 'उपाधि' शब्द का प्रयोग व्यंगार्थ में है, व्यंग्य करते हुए सम्मानजनक शब्द इस तरह कहना कि उसका विपरीत अर्थ सुननेवाले को अपमानजनक लगकर चुभे और दर्द दे। साधु-संतों के साथ बैठकर भजन करने पर वे मुझे अत्यधिक क्लेश देते हैं। आप मेरे माता-पिता के समकक्ष तथा ईश्वर के भक्तों को सुख देनेवाले हैं। मुझे समझाकर लिखिए कि मेरे लिए क्या करना उचित है?
मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसीदास ने इस प्रकार दिया:-
जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहाँ लौ।।
तुलसी के समक्ष धर्म संकट यह था कि उनसे एक भक्त और राजरानी मार्गदर्शन चाह रही थी जिसके इष्ट भिन्न थे। वे मना भी कर सकते थे, मौन भी रह सकते थे। मीरा से राजपरिवार के विपरीत जाने को कहते तो मीरा को राज परिवार की और अधिक नाराजी झेलनी पड़ती,जो मीरां के कष्ट भी बढ़ाती। राज परिवार की बात मानने को कहते तो मीरां को ईश्वर भक्ति छोड़नी पड़ती जो स्वयं ईश्वर भक्त होने के नाते तुलसी कर नहीं सकते थे। तुलसी ने आदर्श और व्यवहार में समन्वय बैठाते हुए उत्तर में बिना संबोधन किये मीरां को मार्गदर्शन दिया ताकि मीरा पर परपुरुष का पत्र मिलने का आरोप न लगाया जा सके। तुलसी ने लिखा: 'जिसको भगवान राम और भगवती सीता अर्थात अपना इष्ट प्रिय न हो उसे परम प्रिय होने भी करोड़ों शत्रुओं के समान घातक समझते हुए त्याग देना चाहिए। (यहाँ मीरां को संकेत है कि वे राजपरिवार और राजमहल त्याग दें, जिसका मीरां ने पालन भी किया और कृष्ण मंदिर को निवास बना लिया)। जीवन में जितने भी संबंध हैं वे सब वहीँ तक मान्य हैं जहाँ तक भगवान् की उपासना में बाधक न हों। ऐसा अंजन किस काम का जो आँख ही फोड़ दे अर्थात वह नाता पालने योग्य नहीं है जिसके कारण अपना इष्ट भगवद्भक्ति छोड़ना पड़े। इससे अधिक और क्या कहूँ?
***

एक रचना: तुम

एक रचना:
तुम
*
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सूरज करता ताका-झाँकी
मन में आँके सूरत बाँकी
नाच रहे बरगद बब्बा भी
झूम दे रहे ताल।
तुम इठलाईं
तो पनघट पे
कूकी मौन रसाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सद्यस्नाता बूँदें बरसें
देख बदरिया हरषे-तरसे
पवन छेड़ता श्यामल कुंतल
उलझें-सुलझे बाल।
तुम खिसियाईं
पल्लू थामे
झिझक न करो मलाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
बजी घंटियाँ मन मंदिर में
करी अर्चना कोकिल स्वर में
रीझ रहे नटराज उमा पर
पहना, पहनी माल।
तुम भरमाईं
तो राधा लख
नटवर हुए निहाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
करछुल-चम्मच बाजी छुनछन
बटलोई करती है भुनभुन
लौकी हाथ लगाए हल्दी
मुकुट टमाटर लाल।
तुम पछताईं
नमक अधिक चख
स्वेद सुशोभित भाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
पूर्वा सँकुची कली नवेली
हुई दुपहरी प्रखर हठीली
संध्या सुंदर, कलरव सस्वर
निशा नशीली चाल।
तुम हुलसाईं
अपने सपने
पूरे किये कमाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
२८-६-२०१७ 
*

गीत

गीत-
*
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
राकेशी ज्योत्सना न शीतल, लिये क्रांति की नव मशाल है
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है
*
कल तक रही विदेशी सत्ता, क्षति पहुँचाना लगा सार्थक
आज स्वदेशी चुने हुए से टकराने का दृश्य मार्मिक
कुरुक्षेत्र की सीख यही है, दु:शासन से लड़ना होगा
धृतराष्ट्री है न्याय व्यवस्था मिलकर इसे बदलना होगा
वादों के अम्बार लगे हैं, गांधारी है न्यायपीठ पर
दुर्योधन देते दलील, चुक गये भीष्म, पर चलना होगा
आप बढ़ा जी टकराने अब उसका तिलकित नहीं भाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
हाथ हथौड़ा तिनका हाथी लालटेन साइकिल पथ भूले
कमल मध्य को कुचल, उच्च का हाथ थाम सपनों में झूले
निम्न कटोरा लिये हाथ में, अनुचित-उचित न देख पा रहा
मूल्य समर्थन में, फंदा बन कसा गले में कहर ढा रहा
दाल टमाटर प्याज रुलाये, खाकर हवा न जी सकता जन
पानी-पानी स्वाभिमान है, चारण सत्ता-गान गा रहा
छाते राहत-मेघ न बरसें, टैक्स-सूर्य का व्याल-जाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
महाकाल जा कुंभ करायें, क्षिप्रा में नर्मदा बहायें
उमा बिना शिव-राज अधूरा, नंदी चैन किस तरह पायें
सिर्फ कुबेरों की चाँदी है, श्रम का कोई मोल नहीं है
टके-तीन अभियंता बिकते, कहे व्यवस्था झोल नहीं है
छले जा रहे अपनों से ही, सपनों- नपनों से दुःख पाया
शानदार हैं मकां, न रिश्ते जानदार कुछ तोल नहीं है
जल पलाश सम 'सलिल', बदल दे अब न सहन के योग्य हाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
***
१८-६-२०१६

नवगीत खिला मोगरा

नवगीत
खिला मोगरा
*
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
***
२८-६-२०१६

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव
*
पढ़ेंगे खुदका लिखा खुद निहाल होना है
पढ़े जो और तो उसको निढाल होना है
*
हुई है बात सलीके की कुछ सियासत में
तभी से तय है कि जमकर बबाल होना है
*
कहा जो हमने वही सबको मानना होगा
यही जम्हूरियत की अब मिसाल होना है
*
दियों से दुश्मनी, बाती से अदावत जिनको
उन्हीं के हाथों में जलती मशाल होना है
*
कहाँ से आये मियाँ और कहाँ जाते हो?
न इससे ज्यादा कठिन कुछ सवाल होना है
*
२८-०६-२०१५ 

दोहा मुक्तिका

दोहा मुक्तिका:
संजीव
*
उगते सूरज की करे, जगत वंदना जाग
जाग न सकता जो रहा, उसका सोया भाग
*
दिन कर दिनकर ने कहा, वरो कर्म-अनुराग
संध्या हो निर्लिप्त सच, बोला: 'माया त्याग'
*
तपे दुपहरी में सतत, नित्य उगलता आग
कहे: 'न श्रम से भागकर, बाँधो सर पर पाग
*
उषा दुपहरी साँझ के, संग खेलता फाग
दामन पर लेकिन लगा, कभी न किंचित दाग
*
निशा-गोद में सर छिपा, करता अचल सुहाग
चंद्र-चंद्रिका को मिला, हँसे- पूर्ण शुभ याग
*
भू भगिनी को भेंट दे, मार तिमिर का नाग
बैठ मुँड़ेरे भोर में, बोले आकर काग
*
'सलिल'-धार में नहाये, बहा थकन की झाग
जग-बगिया महका रहा, जैसे माली बाग़
२८-६-२०१५ 
***

English vinglish

English vinglish
*
Interviewer: Let me check ur
english, tell me d opposite of
good.?
Banta: Bad.
Interviewer: Come
Banta: Go.
Interviewer: Ugly?
Banta: Pichhlli.
...
Interviewer: PICHLLI
Banta: UGLY.
Interviewer: Shut Up.
Banta: Keep talking.
Interviewer: Ok, now stop all dis
Banta: Ok, now carry on all dis.
Interviewer: Abey, chup ho
ja..chup ho ja..chup ho jaa.
Banta: Abey bolta ja..bolta ja..bolta
ja.
Interviewer: Arey, yaar.
Banta: Arey dushman.
Interviewer: Get Out
Banta: Come In.
Interviewer: Oh my God.
Banta: Oh, my devil.
Interviewer: shhhhhhh
banta: Hurrrrrrrrrrrrrrr
Interviewer: mere bap chup hoja
banta: mere bete bolta reh
Interviewer: U are rejected
Banta: I m selected. Oye Bolo ta ra
ra ra ra hayo rabba!!

नदी घाटी विकास

जन का पैगाम - जन नायक के नाम

प्रिय नरेंद्र जी, उमा जी
सादर वन्दे मातरम
मुझे आपका ध्यान नदी घाटियों के दोषपूर्ण विकास की ओर आकृष्ट करना है.
मूलतः नदियां गहरी तथा किनारे ऊँचे पहाड़ियों की तरह और वनों से आच्छादित थे. कालिदास का नर्मदा तट वर्णन देखें। मानव ने जंगल काटकर किनारों की चट्टानें, पत्थर और रेत खोद लिये तो नदी का तक और किनारों का अंतर बहुत कम बचा. इससे भरनेवाले पानी की मात्रा और बहाव घाट गया, नदी में कचरा बहाने की क्षमता न रही, प्रदूषण फैलने लगा, जरा से बरसात में बाढ़ आने लगी, उपजाऊ मिट्टी बाह जाने से खेत में फसल घट गयी, गाँव तबाह हुए.
इस विभीषिका से निबटने हेतु कृपया, निम्न सुझावों पर विचार कर विकास कार्यक्रम में यथोचित परिवर्तन करने हेतु विचार करें:
१. नदी के तल को लगभग १० - १२ मीटर गहरा, बहाव की दिशा में ढाल देते हुए, ऊपर अधिक चौड़ा तथा नीचे तल में कम चौड़ा खोदा जाए.
२. खुदाई में निकली सामग्री से नदी तट से १-२ किलोमीटर दूर संपर्क मार्ग तथा किनारों को पक्का बनाया जाए ताकि वर्षा और बाढ़ में किनारे न बहें।
३. घाट तक आने के लिये सड़क की चौड़ाई छोड़कर शेष किनारों पर घने जंगल लगाए जाएँ जिन्हें घेरकर प्राकृतिक वातावरण में पशु-पक्षी रहें मनुष्य दूर से देख आनंदित हो सके।
४. गहरी हुई बड़ी नदियों में बड़ी नावों और छोटे जलयानों से यात्री और छोटी नदियों में नावों से यातायात और परिवहन बहुत सस्ता और सुलभ हो सकेगा। बहाव की दिशा में तो नदी ही अल्प ईंधन में पहुंचा देगी। सौर ऊर्जा चलित नावों से वर्ष में ८-९ माह पेट्रोल -डीज़ल की तुलना में लगभग एक बटे दस धुलाई व्यय होगा। प्राचीन भारत में जल संसाधन का प्रचुर प्रयोग होता था।
५. घाटों पर नदी धार से ३००-५०० मीटर दूर स्नानागार-स्नान कुण्ड तथा पूजनस्थल हों जहाँ जलपात्र या नल से नदी उपलब्ध हो। नदी के दर्शन करते हुए पूजन-तर्पण हो। प्रयुक्त दूषित जल व् अन्य सामग्री घाट पर बने लघु शोधन संयंत्र में उपचारित का शुद्ध जल में परिवर्तित की जाने के बाद नदी के तल में छोड़ा जाए। तथा नदी का प्रदुषण समाप्त होगा तथा जान सामान्य की आस्था भी बनी सकेगी। इस परिवर्तन के लिये संतों-पंडों तथा स्थानी जनों को पूर्व सहमत करने से जन विरोध नहीं होगा।
६. नदी के समीप हर शहर, गाँव, कस्बे, कारखाने, शिक्षा संस्थान, अस्पताल आदि में लघु जल-मल निस्तारण केंद्र हो। पूरे शहर के लिए एक वृहद जल-नल केंद्र मँहगा, जटिल तथा अव्यवहार्य है जबकि लघु ईकाइयां कम देखरेख में सुविधा से संचालित होने के साथ स्थानीय रोजगार भी सृजित करेंगी। इनके द्वारा उपचारित जल नदियों में छोड़ना सुरक्षित होगा।
७. एक राज्यों में बहने वाली नदियों पर विकास योजना केंद्र सरकार की देख-रेख और बजट से हो जबकि एक राज्य की सीमा में बह रही नदियों की योजनों की देखरेख और बजट राज्य सरकारें देखें।जिन स्थानों पर निवासी २५ प्रतिशत जन सहयोग दान करें उन्हें प्राथमिकता दी जाए। हिस्सों में स्थानीय जनों ने बाँध बनाकर या पहाड़ खोदकर बिना सरकारी सहायता के अपनी समस्या का निदान खोज लिया है और इनसे लगाव के कारण वे इनकी रक्षा व मरम्मत भी खुद करते है जबकि सरकारी मदद से बनी योजनाओं को आम जन ही लगाव न होने से हानि पहुंचाते हैं। इसलिए श्रमदान अवश्य हो। ७० के दशक में सरकारी विकास योजनाओं पर ५० प्रतिशत श्रमदान की शर्त थी, जो क्रमशः काम कर शून्य कर दी गयी तो आमजन लगाव ख़त्म हो जाने के कारण सामग्री की चोरी करने लगे और कमीशन माँगा जाने लगा।श्रमदान करनेवालों को रोजगार मिलेगा।
८. नर्मदा में गुजरात से जबलपुर तक, गंगा में बंगाल से हरिद्वार तक तथा राजस्थान, महाकौशल, बुंदेलखंड और बघेलखण्ड में छोटी नदियों से जल यातायात होने पर इन पिछड़े क्षेत्रों का कायाकल्प हो जाएगा।
९. इससे भूजल स्तर बढ़ेगा और सदियों के लिए पेय जल की समस्या हल हो जाएगी।भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी।
कृपया, इन बिन्दुओं पर गंभीरतापूर्वक विचारण कर, क्रियान्वयन की दिशा में कदम उठाये जाने हेतु निवेदन है।
संजीव वर्मा
एक नागरिक
२८-६-२०१४ 

रविवार, 27 जून 2021

महामाया छंद


मात्रिक लौकिक जातीय
वर्णिक प्रतिष्ठा जातीय
महामाया छंद
सूत्र - य ला।
*
सुनो मैया
पड़ूँ पैंया
बजा वीणा
हरो पीड़ा
महामाया
करो छैंया
तुम्हीं दाता
जगत्त्राता
उबारो माँ
थमा बैंया
मनाऊँ मैं
कहो कैसे
नहीं जानूँ
उठा कैंया
तुम्हारा था
तुम्हारा हूँ
न डूबे माँ
बचा नैया
भुलाओ ना
बुलाओ माँ
तुम्हें ही मैं
भजूँ मैया
***
२७-६-२०२०

मैथिली हाइकु, दोहे बूँदाबाँदी के

मैथिली हाइकु
स्नेह करब
हमर मंत्र अछि
गले लगबै
*
दोहे बूँदाबाँदी के:
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे, तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ, बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
***
27.6.2018, salil.sanjiv@gmail.com
9179701766, 9425183244.

लघुकथा दुहरा चेहरा

लघुकथा
दुहरा चेहरा
*
- 'क्या कहूँ बहनजी, सच बोला नहीं जाता और झूठ कहना अच्छा नहीं लगता इसीलिये कहीं आना-जाना छोड़ दिया. आपके साथ तो हर २-४ दिन में गपशप होती रही है, और कुछ हो न हो मन का गुबार तो निकल जाता था. अब उस पर भी आपत्ति है.'
= 'आपत्ति? किसे?, आपको गलतफहमी हुई है. मेरे घर में किसी को आपत्ति नहीं है. आप जब चाहें पधारिये और निस्संकोच अपने मन की बात कर सकती हैं. ये रहें तो भी हम लोगों की बातों में न तो पड़ते हैं, न ध्यान देते हैं.'
- 'आपत्ति आपके नहीं मेरे घर में होती है. वह भी इनको या बेटे को नहीं बहूरानी को होती है.'
= 'क्यों उन्हें हमारे बीच में पड़ने की क्या जरूरत? वे तो आज तक कभी आई नहीं.'
-'आएगी भी नहीं. रोज बना-बनाया खाना चाहिए और सज-धज के निकल पड़ती है नेतागिरी के लिए. कहती है तुम जैसी स्त्रियाँ घर का सब काम सम्हालकर पुरुषों को सर पर चढ़ाती हैं. मुझे ही घर सम्हालना पड़ता है. सोचा था बहू आयेगी तो बुढ़ापा आराम से कटेगा लेकिन महारानी तो घर का काम करने को बेइज्जती समझती हैं. तुम्हारे चाचाजी बीमार रहते हैं, उनकी देख-भाल, समय पर दवाई और पथ्य, बेटे और पोते-पोती को ऑफिस और स्कूल जाने के पहले खाना और दोपहर का डब्बा देना. अब शरीर चलता नहीं. थक जाती हूँ.'
='आपकी उअमर नहीं है घर-भर का काम करने की. आप और चाचाजी आराम करें और घर की जिम्मेदारी बहु को सम्हालने दें. उन्हें जैसा ठीक लगे करें. आप टोंका-टाकी भर न करें. सबका काम करने का तरीका अलग-अलग होता है.'
-'तो रोकता कौन है? करें न अपने तरीके से. पिछले साल मैं भांजे की शादी में गयी थी तो तुम्हारे चाचाजी को समय पर खाना-चाय कुछ नहीं मिला. बाज़ार का खाकर तबियत बिगाड़ ली. मुश्किल से कुछ सम्हली है. मैंने कहा ध्यान रखना था तो बेटे से नमक-मिर्च लगाकर चुगली कर दी और सूटकेस उठाकर मायके जाने को तैयार ही गयी. बेटे ने कहा तो कुछ नहीं पर उसका उतरा हुआ मुँह देखकर मैं समझ गई, उस दिन से रसोई में घुसती ही नहीं. मुझे सुना कर अपनी सहेली से कह रही थी अब कुछ कहा तो बुड्ढे-बुढ़िया दोनों को थाने भिजवा दूँगी. दोनों टाइम नाश्ते-खाने के अलावा घर से कोई मतलब नहीं.'
पड़ोस में रहनेवाली मुँहबोली चाची को सहानुभूति जता, शांत किया और चाय-नाश्ता कराकर बिदा किया. घर में आयी तो चलभाष पर ऊँची आवाज में बात कर रही उनकी बहू की आवाज़ सुनायी पड़ी- ' माँ! तुम काम मत किया करो, भाभी से कराओ. उसका फर्ज है तुम्हारी सेवा करे....'
मैं विस्मित थी स्त्री हितों की दुहाई देनेवाली शख्सियत का दुहरा चेहरा देखकर.
२७-६-२०१७ 
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संपर्क- ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

मुक्तक

मुक्तक
*
प्राण, पूजा कर रहा निष्प्राण की
इबादत कर कामना है त्राण की
वंदना की, प्रार्थना की उम्र भर-
अर्चना लेकिन न की संप्राण की
.
साधना की साध्य लेकिन दूर था
भावना बिन रूप ज्यों बेनूर था
कामना की यह मिले तो वह करूँ
जाप सुनता प्रभु न लेकिन सूर था
.
नाम ले सौदा किया बेनाम से
पाठ-पूजन भी कराया दाम से
याद जब भी किया उसको तो 'सलिल'
हो सुबह या शाम केवल काम से
.
इबादत में तू शिकायत कर रहा
इनायत में वह किफायत कर रहा
छिपाता तू सच, न उससे कुछ छिपा-
तू खुदी से खुद अदावत कर रहा
.
तुझे शिकवा वह न तेरी सुन रहा
है शिकायत उसे तू कुछ गुन रहा
है छिपाता ख्वाब जो तू बुन रहा-
हाय! माटी में लगा तू घुन रहा
.
तोड़ मंदिर, मन में ले मन्दिर बना
चीख मत, चुप रह अजानें सुन-सुना
छोड़ दे मठ, भूल गुरु-घंटाल भी
ध्यान उसका कर, न तू मौके भुना
.
बन्दा परवर वह, न तू बन्दा मगर
लग गरीबों के गले, कस ले कमर
कर्मफल देता सभी को वह सदा-
काम कर ऐसा दुआ में हो असर
२७-६-२०१७ 
***

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
जिसे बसाया छाँव में, छीन रहा वह ठाँव
आश्रय मिले न शहर में, शरण न देता गाँव
*
जो पैरों पर खड़े हैं, 'सलिल' उन्हीं की खैर
पैर फिसलते ही बनें, बंधु-मित्र भी गैर
*
सपने देखे तो नहीं, तुमने किया गुनाह
किये नहीं साकार सो, जीवन लगता भार
*
दाम लागने की कला, सीख किया व्यापार
नेह किया नीलाम जब, साँस हुई दुश्वार
*
माटी में मिल गए हैं, बड़े-बड़े रणवीर
किन्तु समझ पाए नहीं, वे माटी की पीर
*
नाम रख रहे आज वे, बुला-मनाकर पर्व
नाम रख रहे देख जन, अहं प्रदर्शन गर्व
*
हैं पत्थर के सनम भी, पानी-पानी आज
पानी शेष न आँख में, देख आ रही लाज
*
२७-६-२०१७

एक रचना

एक रचना:
संजीव
*
चारु चन्द्र राकेश रत्न की
किरण पड़े जब 'सलिल' धार पर
श्री प्रकाश पा जलतरंग सी
अनजाने कुछ रच-कह देती
कलकल-कुहूकुहू की वीणा
विजय-कुम्भ रस-लय-भावों सँग
कमल कुसुम नीरजा शरण जा
नेह नर्मदा नैया खेती
आ अमिताभ सूर्य ऊषा ले
विहँस खलिश को गले लगाकर
कंठ धार लेता महेश बन
हो निर्भीक सुरेन्द्र जगजयी
सीताराम बने सब सुख-दुःख
धीरज धर घनश्याम बरसकर
पाप-ताप की नाव डुबा दें
महिमा गाकर सद्भावों की
दें संतोष अचल गौतम यदि
हो आनंद-सिंधु यह जीवन
कविता प्रणव नाद हो पाये
हो संजीव सृष्टि सब तब ही.
*
२७-६-२०१५

गीता अध्याय ८ - ९

ॐ गीता अध्याय ८
यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
अर्जुन कहे ब्रह्म-आत्मा क्या, कहें कर्म क्या पुरुषोत्तम?
भौतिक जग किसको कहते हैं?, क्या कहलाता देव कहें?१।
*
अधियज्ञ किस तरह कौन यहाँ, इस तन में मधुसूदन है?
अंत समय में कहें किस तरह, आत्म संयमी जान सके?२।
*
श्री हरि: 'अक्षर ब्रह्म दिव्य है, स्वभाव आत्मा है उसका।
जीव सृष्टि उत्पन्न करे जी, कर्म वही कहलाता है।३।
*
है अधिभूत भाव क्षर बदले, परमपुरुष अधिदैव यहाँ।
हूँ अधियज्ञ मात्र मैं जानो, देहधारियों में हे श्रेष्ठ!४।
*
अंत काल में मुझे याद कर, तजता है जो तन अपना।
वह मेरे स्वभाव को पाता, नहीं तनिक संदेह यहाँ।५।
*
जिसको भी कर याद भाव में, तजे अंत में तन को जो।
उसको ही पता कुन्तीसुत!, सदा भाव को याद करे।६।
*
इसीलिए सब कालों में कर, मुझको याद समररत हो।
मुझमें शरणागत हो मन-मति, मुझे मिले संदेह नहीं।७।
*
कर अभ्यास ध्यान-मन-मति से, किंचित विचलित हुए बिना।
जो वह पाता परम पुरुष को, पार्थ सतत चिंतन करता।८।
*
कवि प्राचीन नियंता अणुतर, लघुतर सदा सोचता जो।
सबका पालक अचिन्त्य रूपी, रवि सम तम से परे रहे।९।
*
मृत्यु समय मन अचल भक्तिमय, योगशक्ति से निश्चय ही।
भृकुटि-मध्य प्राणों को स्थिरकर, परम पुरुष दिव्य पाए।१०।
*
जो अक्षर वेदज्ञ कह करें, प्रवेश जिसमें यति सन्यासी।
इच्छुक ब्रह्मचर्य अभ्यासें, वह तुमसे पद सार कहूँ।११।
*
सब द्वारों को वश में करके, मन को हृद में रुद्ध करे।
सिर में स्थिर कर आत्म-प्राण को, करे योग में स्थित खुदको।१२।
*
ॐ एकाक्षर ब्रह्म बोलकर, मुझे सतत जो याद करे।
तजते हुए देह जो पाता, परम सद्गति निश्चय ही।१३।
*
अनन्यचेता सदैव जो भी, मुझे सुमिरता है नियमित।
उसे मैं सुलभ सदा पार्थ! हूँ, नियमित युक्त भक्त को भी।१४।
*
मुझको पा फिर जन्म दुखों के, आलय भंगुर में नहिं हो।
कभी न पाते महान आत्मन, सिद्धि-परमगति पाए हुए।१५।
*
ब्रह्मलोक तक सब लोकों से, फिर वापिस आते अर्जुन!
मुझको पाकर किंतु कुंतिसुत!, जन्म न फिर से होता है।१६।
*
एक हजार युगों तक दिन जो, ब्रह्मा का वे जान रहे।
रात युग सहस बाद खत्म हो, वे दिन-रात जानते हैं।१७।
*
हो अव्यक्त से व्यक्त जीव सब, प्रगटें दिन के होने पर।
रात्रि नष्ट हों उनमें से जो, हैं अव्यक्त कहा जाता।१८।
*
जीव समूह वही फिर फिर लें जन्म, नष्ट भी हो जाते।
रात्रि आगमन पर हो बेबस, पार्थ! प्रकट हों जब दिन हो।१९।
*
परम भाव अव्यक्त से अलग, है अव्यक्त सनातन जो।
वह जो जीव नष्ट हों तो भी, नष्ट नहीं होती।२०।
*
कहें अव्यक्त और अविनाशी, जिसको वह गंतव्य परम।
जिसको पाकर कभी न लौटें, वह है धाम परम मेरा।२१।
*
परम पुरुष से बड़ा न कोई, मिले भक्ति से जो अविचल।
जिसके अंदर सकल जगत यह, दिखता जो भी व्याप्त रहे।२२।
*
काल न जिसमें वापिस लौटे, जिसमें वापिस हो योगी।
कर प्रयाण पाते हैं जिसको, वही काल कहता भारत!२३।
*
अग्नि ज्योति दिन शुक्ल पक्ष छः, रवि जब उत्तर दिशा रहे।
वहाँ प्राण तज ब्रह्म लोक को, जाते लोग ब्रह्मज्ञानी।२४।
*
धूम्र रात्रि या कृष्ण पक्ष जब, छः महीने रवि दक्षिण हो।
चंद्र लोक जा प्रकाश; योगी पाता फिर वह वापिस हो।२५।
*
हैं प्रकाश तम मार्ग गमन के, जग से वेदों के मत में।
गया एक से नहीं लौटता, अन्य गया फिर लौटे फिर से।२६।
*
कभी न दोनों मार्ग जानकर, योगी मोहग्रस्त होता।
इसीलिए हर समय योग में, योग युक्त हो हे अर्जुन!।२७।
*
वेद पढ़े कर यज्ञ तपस्या, दान पुण्य फल पाकर जो।
लाँघे वे सब; जाने योगी, परम धाम को पाए वो।२८।
*
ॐ गीता अध्याय ९
यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हरि बोले 'अति गुप्त कह रहा, तुम्हें न जो ईर्ष्यालु है।
सभी ज्ञान-विज्ञान जानकर, जिसे मुक्त होगे भव से।१।
*
है अतिगुप्त राजविद्या यह, यही शुद्धतम उत्तम है।
समझा गया आत्म अनुभव से, धर्म सुखद अविनाशी है।२।
*
श्रद्धाहीन धर्म के प्रति, नर हे अरिहंता! सच जानो।
बिन पाए मुझको वापिस हों, मर्त्य जगत में पथ से ही।३।
*
मुझसे व्याप्त जगत यह सारा, दृश्य-अदृश्य रूप द्वारा।
मुझमें सभी जीव हैं लेकिन, मैं उनमें हूँ स्थित न कहीं।४।
*
कभी न मुझमें स्थित है सब जग, देखो मेरा योगैश्वर्य।
जीवों का पालक न भूत में, स्वात्मा भूत स्रोत हूँ मैं।५।
*
जैसे नभ में वायु सदा ही, प्रवहित है सर्वत्र महान।
वैसे ही सब प्राणी मुझमें, रहते समझो इसी प्रकार।६।
*
सब प्राणी कौन्तेय प्रकृति में, करते हैं प्रवेश मेरी।
कल्प अंत में, फिर उन सबको कल्प आदि में रचता मैं।७।
*
प्रकृति में अपनी प्रवेश कर, बार बार पैदा करता।
सकल विराट जगत पूरा है, अवश प्रकृति के ही वश में।८।
*
नहीं कभी भी मुझे कर्म वे, सकते बाँध धनंजय हे!
उदासीन आसक्ति रहित मैं, रहता हूँ उन कर्मों में।९।
*
मेरे ही कारण प्रकृति यह, प्रगटे जड़-जंगम के सँग।
इस कारण से हे कुन्तीसुत!, जग परिवर्तित होता है।१०।
*
करते हैं उपहास मूढ़जन, नर तन आश्रित कह मुझको।
दिव्य भाव बिन जाने मेरा, है कण-कण का स्वामी जो।११।
*
निष्फल आशा-कारण-ज्ञान भी, उनका मोहग्रसित हैं जो।
त्याज्य राक्षसी-आसुरी प्रकृति मोहक, शरण गहे हैं वे।१२।
*
महापुरुष लेकिन कुंतीसुत!, दैवी प्रकृति शरण रहते।
भजते अविचल मन से, जानें सृष्टि मूल अविनाशी मैं।१३।
*
सतत कीर्तन करते मेरा, आखिर में संकल्प सहित।
करते नमन मुझे सभक्ति वे, नित जुड़कर पूजा करते।१४।
*
ज्ञान यज्ञ द्वारा भी निश्चय, अन्य यज्ञ कर पूज रहे।
मुझे द्वैत-एकांत भाव से, बहु प्रकार से जग-मुख कह।१५।
*
मैं कर्मकांड; मैं यज्ञ, स्वधा मैं, मैं ही तो औषधि भी हूँ।
मंत्र हूँ मैं निश्चय ही घृत मैं, पावक आहुति भी हूँ मैं।१६।
*
पिता मैं इस जगत का हूँ, माता-धाता तथा पितामह।
हूँ वेद पावन ॐ ऋक् मैं, साम यजु भी सुनिश्चित हूँ।१७।
*
हूँ लक्ष्य भर्ता ईश साक्षी, मैं आवास शरण भी हूँ।
हूँ सृष्टि मैं; मैं ही प्रलय, भूमि आश्रय बीज अव्यय हूँ ।१८।
*
मैं देता हूँ ताप; बरसता, रोक-भेजता भी हूँ मैं।
अमृतत्व या मृत्यु; मुझ ही में सत अरु असत बसे अर्जुन!१९।
*
वेदज्ञ-सोमपानी यज्ञी, पूत-पाप पूज सुरलोक।
हेतु प्रार्थना कर पाते हैं, भोग-आनंद देवता सम।२०।
*
भोग स्वर्ग को पुण्य क्षीण हों, मृत्यु लोक में फिर आते।
वेदत्रयी-धर्म पालक जन, जा-आ इन्द्रिय सुख पाते।२१।
*
हो अनन्य चिंतन कर मुझको, जो जन पूजा करते हैं।
उन भक्तिलीन लोगों का मैं, योग-क्षेम खुद करता हूँ।२२।
*
जो भी अन्य सुरों की करते, पूजा श्रद्धा-भक्ति सहित।
वे भी पूज रहे मुझको ही, कुंतीसुत! विधि गलत भले।२३।
*
मैं ही सकल यज्ञ कर्मों का, भोक्ता अरु स्वामी भी हूँ।
नहीं जानते मुझको सचमुच, जो नीचे गिरते हैं वे।२४।
*
जाते सुर समीप सुरपूजक, पितृ समीप पितृपूजक।
मिलें भूत से भूत-भक्त जा, मेरे भक्त मुझे पाते।२५।
*
पत्र पुष्प फल जल जो कोई, मुझे भक्ति से देता है।
वह मैं भक्ति-भाव से अर्पित, लेता शुद्ध-आत्मी से।२६।
*
जो करते हो या खाते हो, जो देते हो दान कहीं।
जो तप करते कुन्तीपुत्र वह, सब मुझको ही अर्पणकर।२७।
*
शुभ अरु अशुभ फलों के द्वारा, मुक्त कर्म बंधन से हो।
सन्यास योग युक्तात्मा हो, हो मुक्त मुझे पाओगे।२८।
*
सम भावी मैं सब जीवों प्रति, कोई नहीं द्वेष्य या प्रिय।
जो भजते हैं मुझे भक्ति से, मुझमें वे हैं; उनमें मैं।२९।
*
दुर आचारी भी यदि भजता, मुझे अनन्य भाव से तो।
साधु मानने योग्य मनुज वह, सम्यक संकल्पी है वो।३०।
*
शीघ्र बने वह धर्म परायण, शाश्वत शांति प्राप्त करता।
हे कुन्तीसुत! करो घोषणा, भक्त न कभी नष्ट होता।३१।
*
मेरी पार्थ शरण गहते जो, चाहे पापयोनि से हों।
वनिता वैश्य शूद्र व्यक्ति भी, जाते परम लोक को हैं।३२।
*
क्या फिर ब्राह्मण धर्मात्मा या, भक्त राज-ऋषि भी हो तो।
नाशवान दुखमय यह जग पा, प्रेम-भक्ति मेरी कर ले।३३।
*
नित मेरा चिंतन कर होओ, भक्त-उपासक नमन करो।
मुझको निश्चय ही पाओगे, लीन आत्म मुझमें यदि हो।३४।
*

शनिवार, 26 जून 2021

समीक्षा, क्षणिका, अविनाश ब्योहार

पुस्तक सलिला:
'अंधी पीले कुत्ते खाएँ' खोट दिखाती हैं क्षणिकाएँ
समीक्षक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(पुस्तक विवरण: 'अंधी पीसे कुत्ते खाएँ' क्षणिका संग्रह, अविनाश ब्यौहार, प्रथम संस्करण २०१७, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १३७, मूल्य १००/-, प्रज्ञा प्रकाशन २४ जगदीशपुरम्, रायबरेली, कवि संपर्क: ८६,रॉयल एस्टेट कॉलोनी, माढ़ोताल, जबलपुर, चलभाष: ९८२६७९५३७२, ९५८४०५२३४१।)
*
सुरवाणी संस्कृत से विरासत में काव्य-परंपरा ग्रहण कर विश्ववाणी हिंदी उसे सतत समृद्ध कर रही है। हिंदी व्यंग्य काव्य विधा की जड़ें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा लोक-भाषाओं के लोक-काव्य में हैं। व्यंग्य चुटकी काटने से लेकर तिलमिला देने तक का कार्य कुछ शब्दों में कर देता है। गागर में सागर भरने की तरह दुष्कर क्षणिका विधा में पाठक-मन को बाँध लेने की सामर्थ्य है। नवोदित कवि अविनाश ब्यौहार की यह कृति 'पूत के पाँव पालने में दिखते हैं' कहावत को चरितार्थ करती है। कृति का शीर्षक उन सामाजिक कुरीतियों को लक्ष्य करता है जो नेत्रहीना द्वारा पीसे गए को कुत्ते द्वारा खाए जाने की तरह निष्फल और व्यर्थ हैं।
बुद्धिजीवी कायस्थ परिवार में जन्मे और उच्च न्यायालय में कार्यरत कवि में औचित्य-विचार सामर्थ्य होना स्वाभाविक है। अविनाश पारिस्थितिक वैषम्य को 'सर्वजनहिताय' के निकष पर कसते हैं, भले ही 'सर्वजनसुखाय' से उन्हें परहेज नहीं है किंतु निज-हित या वर्ग-हित उनका इष्ट नहीं है। उनकी क्षणिकाएँ व्यवस्था के नाराज होने का खतरा उठाकर भी; अनुभूति को अभिव्यक्त करती हैं। भ्रष्टाचार, आरक्षण, मँहगाई, राजनीति, अंग प्रदर्शन, दहेज, सामाजिक कुरीतियाँ, चुनाव, न्याय प्रणाली, चिकित्सा, पत्रकारिता, बिजली, आदि का आम आदमी के दैनंदिन जीवन पर पड़ता दुष्प्रभाव अविनाश की चिंता का कारण है। उनके अनुसार 'आजकल/लोगों की / दिमागी हालत / कमजोर पड़ / गई है / शायद इसीलिए / क्षणिकाओं की / माँग बढ़ / गई है।' विनम्र असहमति व्यक्त करना है कि क्षणिका रचना, पढ़ना और समझना कमजोर नहीं सजग दिमाग से संभव होता है। क्षणिका, दोहा, हाइकु, माहिया, लघुकथा जैसी लघ्वाकारी लेखन-विधाओं की लोकप्रियता का कारण पाठक का समयाभाव हो सकता है।अविनाश की क्षणिकाएँ सामयिक, सटीक, प्रभावी तथा पठनीय-मननीय हैं। उनकी भाषा प्रवाहपूर्ण, प्रसाद गुण संपन्न, सहज तथा सटीक है किंतु अनुर्वर और अनुनासिक की गल्तियाँ खीर में कंकर की तरह खटकती हैं। 'हँस' क्रिया और 'हंस' पक्षी में उच्चारण भेद और एक के स्थान पर दूसरे के प्रयोग से अर्थ का अनर्थ होने के प्रति सजगता आवश्यक है चूँकि पुस्तक में प्रकाशित को पाठक सही मानकर प्रयोग करता है।
इन क्षणिकाओं का वैशिष्ट्य मुहावरे का सटीक प्रयोग है। इससे भाषा जीवंत, प्रवाहपूर्ण, सहज ग्राह्य तथा 'कम में अधिक' कह सकी है। 'पक्ष हो /या विपक्ष / दोनों एक / थैली के / चट्टे-बट्टे हैं। / जीते तो / आँधी के आम / हारे तो / अंगूर खट्टे हैं।' यहाँ कवि दो प्रचलित मुहावरे का प्रयोग करने के साथ 'आँधी के आम' एक नए मुहावरे की रचना करता है। इस कृति में कुछ और नए मुहावरे रच-प्रयोगकर कवि ने भाषा की श्रीवृद्धि की है। यह प्रवृत्ति स्वागतेय है।
'चित्रगुप्त ने यम-सभा से / दे दिया स्तीफा / क्योंकि उन्हें मुँह / चिढ़ा रहा था / आतंक का खलीफा।' पंगु सिद्ध हो रही व्यवस्था पर कटाक्ष है। 'मैं अदालत / गया तो / मैंने ऐसा / किया फील / कि / झूठे मुकदमों / की पैरवी / बड़ी ईमानदारी / से करते / हैं वकील।' यहाँ तीखा व्यंग्य दृष्टव्य है। अंग्रेजी शब्द 'फील' का प्रयोग सहज है, खटकता नहीं किंतु 'ईमानदारी' के साथ 'बड़ी' विशेषण खटकता है। ईमानदारी कम-अधिक तो हो सकती है, छोटी-बड़ी नहीं।
अविनाश ने अपनी पहली कृति से अपनी पैठ की अनुभूति कराई है, इसलिए उनसे 'और अच्छे' की आशा है।
*
समीक्षक संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, 401 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001,
चलभाष: 7999559618/ 9425183244, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

हाइकु गीत

हाइकु गीत:
आँख का पानी
संजीव 'सलिल'
*
आँख का पानी,
मर गया तो कैसे
धरा हो धानी?...
*
तोड़ बंधन
आँख का पानी बहा.
रोके न रुका.
आसमान भी
हौसलों की ऊँचाई
के आगे झुका.
कहती नानी
सूखने मत देना
आँख का पानी....
*
रोक न पाये
जनक जैसे ज्ञानी
आँसू अपने.
मिट्टी में मिला
रावण जैसा ध्यानी
टूटे सपने.
आँख से पानी
न बहे, पर रहे
आँख का पानी...
*
पल में मरे
हजारों बेनुगाह
गैस में घिरे.
गुनहगार
हैं नेता-अधिकारी
झूठे-मक्कार.
आँख में पानी
देखकर रो पड़ा
आँख का पानी...
*

मुक्तक

मुक्तक:
*
दर्द हों मेहमां तो हँसकर मेजबानी कीजिए
मेहमानी का मजा कुछ ग़मों को भी दीजिए
बेजुबां हो बेजुबानों से करें कुछ गुफ्तगू
जिंदगी की बंदगी का मजा हँसकर लीजिए
***
दाना देते परीक्षा, नादां बाँटे ज्ञान
रट्टू तोते आ रहे, अव्वल हैं अनजान
समझ-बूझ की है कमी, सिर्फ किताबी लोग
चला रहे हैं देश को, मनमर्जी भगवान
***
गौ माता के नाम पर, लड़-मरते इंसान
गौ बेबस हो देखती, आप बहुत हैरान
शरण घोलकर पी गया, भूल गया तहजीब
पूत आप ही लूटते भारत माँ की आन
***

दोहा

दोहा सलिला
*
मीरा मत आ दौड़कर, ये तो हैं कोविंद
भूल भई तूने इन्हें, समझ लिया गोविन्द
*
लाल कृष्ण पीछे हुए, सम्मुख है अब राम
मीरा-यादव दुखी हैं, भला करेंगे राम
*
जो जनता के वक्ष पर दले स्वार्थ की दाल
वही दलित कलिकाल में, बनता वही भुआल
*
हिंदी घरवाली सुघड़, हुई उपेक्षित मीत
अंग्रेजी बन पड़ोसन, लुभा रही मन रीत
*
चाँद-चाँदनी नभ मकां, तारे पुत्र हजार
हम दो, दो हों हमारे, भूले बंटाढार
*
काम और आराम में, ताल-मेल ले सीख
जो वह ही मंजिल वारे, सबसे आगे दीख
*
अधकचरा मस्तिष्क ही, लेता शब्द उधार
निज भाषा को भूलकर, परभाषा से प्यार
*
मन तक जो पहुँचा सके, अंतर्मन की बात
'सलिल' सफल साहित्य वह, जिसमें हों ज़ज्बात
*
हिंदी-उर्दू सहोदरी, अंग्रेजी है मीत
राम-राम करते रहे, घुसे न घर में रीत
*
घुसी वजह बेवजह में, बिना वजह क्यों बोल?
नामुमकिन मुमकिन लिए, होता डाँवाडोल
*
खुदी बेखुदी हो सके, खुद के हों दीदार
खुदा न रहता दूर तब, नफरत बनती प्यार
*
दोहा सलिला
*
खेत ख़त्म कर बना लें, सडक शहर सरकार
खेती करने चाँद पर, जाओ कहे दरबार
*
पल-पल पल जीता रहा, पल-पल मर पल मौन
पल-पल मानव पूछता, पालक से तू कौन?
*
प्रथम रश्मि रवि की हँसी, लपक धरा को चूम
धरा-पुत्र सोता रहा, सुख न उसे मालूम
*
दल के दलदल में फँसा, नेता देता ज्ञान
जन की छाती पर दले, दाल- स्वार्थ की खान
*
खेल रही है सियासत, दलित-दलित का खेल
भूल सिया-सत छल रही, देश रहा चुप झेल
*
एक द्विपदी:
मैं सपनों में नहीं जी रहा, सपने मुझमें जीते हैं
कोशिश की बोतल में मदिरा, संघर्षों की पीते हैं.
*

गीत

गीत 
संजीव
*
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
सूर्य-बल्ब
जब होता रौशन
मेक'प करते बिना छिपे.
शाखाओं,
कलियों फूलों से
मिलते, नहीं लजाते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
बऊ धरती
आँखें दिखलाये
बहिना हवा उड़ाये मजाक
पर्वत दद्दा
आँख झुकाये,
लता संग इतराते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
कमसिन सपने
देख थिरकते
डेटिंग करें बिना हिचके
बिना गये
कर रहे आउटिंग
कभी नहीं पछताते
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*

रचना - प्रति रचना राकेश खण्डेलवाल

रचना - प्रति रचना
राकेश खण्डेलवाल-संजीव 'सलिल'
*
रचना-
जिन कर्जों को चुका न पायें उनके रोज तकाजे आते
हमसे मांग रही हैं सांसें अपने जीने की मजदूरी
हमने चाहा था मेघों के
उच्छवासों से जी बहलाना
इन्द्रधनुष बाँहों में भरकर
तुम तक सजल छन्द पहुँचाना
वनफूलोळ की छवियों वाली
मोहक खुश्बू को संवार कर
होठों पर शबनम की सरगम
आंखों में गंधों की छाया
किन्तु तूलिका नहीं दे सकी हमें कोई भी स्वप्न सिन्दूरी
रही मांहती रह रह सांसें अपने जीने की मजदूरी
सीपी रिक्त रही आंसू की
बून्दें तिरती रहीं अभागन
खिया रहा कठिन प्रश्नों में
कुंठित होकर मन का सर्पण
कुछ अस्तित्व नकारे जिनका
बोध आज डँसता है हमको
गज़लों में गहरा हो जाता
अनायास स्वर किसी विरह का
जितनी चाही थी समीपता उतनी और बढ़ी है दूरी
हमसे मांग रही हैं सांसें अपने जीने की मजदूरी
नहीं सफ़ल जो हुये उन्हीं की
सूची में लिखलो हम को भी
पर की कब स्वीकार पराजय ?
क्या कुछ हो जाता मन को भी
बुझे बुझे संकल्प सँजोये
कटी फ़टी निष्ठायें लेकर
जितना बढ़े, उगे उतने की
संशय के बदरंग कुहासे
किसी प्रतीक्षा को दुलराते, भोग रहे ज़िन्दगी अधूरी
और मांगती रहती सांसें अपने जीने की मजदूरी.
***
प्रतिरचना-
हम कर्ज़ों को लेकर जीते, खाते-पीते क़र्ज़ जरूरी
रँग लाएगी फाकामस्ती, सोच रहे हैं हम मगरूरी
जिन कर्जों को चुका न पायें, उनके रोज तकाजे आते
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
मेघदूत से जी बहलाता,
अलकापुरी न यक्ष जा सका
इंद्रधनुष के रंग उड़ गए,
वन-गिरि बिन कब मेघ आ सका?
ऐ सी में उच्छ्वासों से जी,
बहलाते हम खुद को छलते
सजल छन्द को सुननेवाले,
मानव-मानस खोज न मिलते
मदिर साथ की मोहक खुशबू, सपनों की सरगम सन्तूरी
आँखों में गंधों की छाया, बिसरे श्रृद्धा-भाव-सबूरी
अर्पण आत्म-समर्पण बन जब, तर्पण का व्यापार बन गया
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
घड़ियाली आँसू गंगा बन,
नेह-नर्मदा मलिन कर रहे
साबरमती किनारेवाले,
काशी-सत्तापीठ वर रहे
क्षिप्रा-कुंभ नहाने जाते,
नीर नर्मदा का ही पाते
ग़ज़ल लिख रहे हैं मनमानी
व्यर्थ 'गीतिका' उसे बताते
तोड़-मरोड़ें छन्द-भंग कर, भले न दे पिंगल मंजूरी
आभासी दुनिया के रिश्ते, जिए पिए हों ज्यों अंगूरी
तजे वर्ण-मात्रा पिंगल जब, अनबूझी कविताएँ रचकर
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
मानपत्र खुद ही लिख लाये
माला श्रीफल शाल ख़रीदे
मंच-भोज की करी व्यवस्था
लोग पढ़ रहे ढेर कसीदे
कालिदास कहते जो उनको
अकल-अजीर्ण हुआ है गर तो
फर्क न कुछ, हम सेल्फी लेते
फाड़-फाड़कर अपने दीदे
वस्त्र पहन लेते लाखों का, कहते सच्ची यही फकीरी
पंजा-झाड़ू छोड़ स्वच्छ्ता, चुनते तिनके सिर्फ शरीरी
जनसेवक-जनप्रतिनिधि जनगण, को बंधुआ मजदूर बनाये
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
*****

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव
*
गये जब से दिल्ली भटकने लगे हैं.
मिलीं कुर्सियाँ तो बहकने लगे हैं
कहाँ क्या लिखेंगे न ये राम जाने
न पूछो पढ़ा क्या बिचकने लगे हैं
रियायत का खाना खिला-खा रहे हैं
न मँहगाई जानें मटकने लगे हैं
बने शेर घर में पिटे हर कहीं वे
कभी जीत जाएँ तरसने लगे हैं
भगोड़ों के साथी न छोड़ेंगे सत्ता
न चूकेंगे मौका महकने लगे हैं
न भूली है जनता इमरजेंसी को
जो पूछा तो गुपचुप सटकने लगे हैं
किये पाप कितने कहाँ और किसने
किसे याद? सोचें चहकने लगे हैं
चुनावी है यारी हसीं खूब मंज़र
कि काँटे भी पल्लू झटकने लगे हैं
न संध्या न वंदन न पूजा न अर्चन
'सलिल' सूट पहने सरसने लगे हैं.
***

शुद्ध ध्वनि छंद


छंद सलिला:
शुद्ध ध्वनि छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १८-८-८-६, पदांत गुरु
लक्षण छंद:
लाक्षणिक छंद है / शुद्धध्वनि पद / अंत करे गुरु / यश भी दे
यति रहे अठारह / आठ आठ छह, / विरुद गाइए / साहस ले
चौकल में जगण न / है वर्जित- करि/ए प्रयोग जब / मन चाहे
कह-सुन वक्ता-श्रो/ता हर्षित, सम / शब्द-गंग-रस / अवगाहे
उदाहरण:
१. बज उठे नगाड़े / गज चिंघाड़े / अंबर फाड़े / भोर हुआ
खुर पटकें घोड़े / बरबस दौड़े / संयम छोड़े / शोर हुआ
गरजे सेनानी / बल अभिमानी / मातु भवानी / जय रेवा
ले धनुष-बाण सज / बड़ा देव भज / सैनिक बोले / जय देवा
कर तिलक भाल पर / चूड़ी खनकीं / अँखियाँ छलकीं / वचन लिया
'सिर अरि का लेना / अपना देना / लजे न माँ का / दूध पिया'
''सौं मातु नरमदा / काली मैया / यवन मुंड की / माल चढ़ा
लोहू सें भर दौं / खप्पर तोरा / पिये जोगनी / शौर्य बढ़ा''
सज सैन्य चल पडी / शोधकर घड़ी / भेरी-घंटे / शंख बजे
दिल कँपे मुगल के / धड़-धड़ धड़के / टँगिया सम्मुख / प्राण तजे
गोटा जमाल था / घुला ताल में / पानी पी अति/सार हुआ
पेड़ों पर टँगे / धनुर्धारी मा/रें जीवन दु/श्वार हुआ
वीरनारायण अ/धार सिंह ने / मुगलों को दी / धूल चटा
रानी के घातक / वारों से था / मुग़ल सैन्य का / मान घटा
रूमी, कैथा भो/ज, बखीला, पं/डित मान मुबा/रक खां लें
डाकित, अर्जुनबै/स, शम्स, जगदे/व, महारख सँग / अरि-जानें
पर्वत से पत्थर / लुढ़काये कित/ने हो घायल / कुचल मरे-
था नत मस्तक लख / रण विक्रम, जय / स्वप्न टूटते / हुए लगे
बम बम भोले, जय / शिव शंकर, हर / हर नरमदा ल/गा नारा
ले जान हथेली / पर गोंडों ने / मुगलों को बढ़/-चढ़ मारा
आसफ खां हक्का / बक्का, छक्का / छूटा याद हु/ई मक्का
सैनिक चिल्लाते / हाय हाय अब / मरना है बिल/कुल पक्का
हो गयी साँझ निज / हार जान रण / छोड़ शिविर में / जान बचा
छिप गया: तोपखा/ना बुलवा, हो / सुबह चले फिर / दाँव नया
रानी बोलीं "हम/ला कर सारी / रात शत्रु को / पीटेंगे
सरदार न माने / रात करें आ/राम, सुबह रण / जीतेंगे
बस यहीं हो गयी / चूक बदनसिंह / ने शराब थी / पिलवाई
गद्दार भेदिया / देश द्रोह कर / रहा न किन्तु श/रम आई
सेनानी अलसा / जगे देर से / दुश्मन तोपों / ने घेरा
रानी ने बाजी / उलट देख सो/चा वन-पर्वत / हो डेरा
बारहा गाँव से / आगे बढ़कर / पार करें न/र्रइ नाला
नागा पर्वत पर / मुग़ल न लड़ पा/येंगे गोंड़ ब/नें ज्वाला
सब भेद बताकर / आसफ खां को / बदनसिंह था / हर्षाया
दुर्भाग्य घटाएँ / काली बनकर / आसमान पर / था छाया
डोभी समीप तट / बंध तोड़ मुग/लों ने पानी / दिया बहा
विधि का विधान पा/नी बरसा, कर / सकें पार सं/भव न रहा
हाथी-घोड़ों ने / निज सैनिक कुच/ले, घबरा रण / छोड़ दिया
मुगलों ने तोपों / से गोले बर/सा गोंडों को / घेर लिया
सैनिक घबराये / पर रानी सर/दारों सँग लड़/कर पीछे
कोशिश में थीं पल/टें बाजी, गिरि / पर चढ़ सकें, स/मर जीतें
रानी के शौर्य-पराक्रम ने दुश्मन का दिल दहलाया था
जा निकट बदन ने / रानी पर छिप / घातक तीर च/लाया था
तत्क्षण रानी ने / खींच तीर फें/का, जाना मु/श्किल बचना
नारायण रूमी / भोज बच्छ को / चौरा भेज, चु/ना मरना
बोलीं अधार से / 'वार करो, लो / प्राण, न दुश्मन / छू पाये'
चाहें अधार लें / उन्हें बचा, तब / तक थे शत्रु नि/कट आये
रानी ने भोंक कृ/पाण कहा: 'चौरा जाओ' फिर प्राण तजा
लड़ दूल्हा-बग्घ श/हीद हुए, सर/मन रानी को / देख गिरा
भौंचक आसफखाँ / शीश झुका, जय / पाकर भी थी / हार मिली
जनमाता दुर्गा/वती अमर, घर/-घर में पुजतीं / ज्यों देवी
पढ़ शौर्य कथा अब / भी जनगण, रा/नी को पूजा / करता है
जनहितकारी शा/सन खातिर नित / याद उन्हें ही / करता है
बारहा गाँव में / रानी सरमन /बग्घ दूल्ह के / कूर बना
ले कंकर एक र/खे हर जन, चुप / वीर जनों को / शीश नवा
हैं गाँव-गाँव में / रानी की प्रति/माएँ, हैं ता/लाब बने
शालाओं को भी , नाम मिला, उन/का- देखें ब/च्चे सपने
नव भारत की नि/र्माण प्रेरणा / बनी आज भी / हैं रानी
रानी दुर्गावति / हुईं अमर, जन / गण पूजे कह / कल्याणी
नर्मदासुता, चं/देल-गोंड की / कीर्ति अमर, दे/वी मैया
जय-जय गाएंगे / सदियों तक कवि/, पाकर कीर्ति क/था-छैंया
*********
टिप्पणी: २४ जून १५६४ रानी दुर्गावती शहादत दिवस, कूर = समाधि,
दूरदर्शन पर दिखाई जा रही अकबर की छद्म महानता की पोल रानी की संघर्ष कथा खोलती है.
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
chhand, shuddh dhvani chhand, acharya sanjiv verma 'salil', durgawti, adhar sinh
chhand salila: shuddh dhvani chhand -sanjiv



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आल्हा/वीर/मात्रिक सवैया छंद

छंद सलिला:
आल्हा/वीर/मात्रिक सवैया छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति , अर्ध सम मात्रिक छंद, प्रति चरण मात्रा ३१ मात्रा, यति १६ -१५, पदांत गुरु गुरु, विषम पद की सोलहवी मात्रा गुरु (ऽ) तथा सम पद की पंद्रहवीं मात्रा लघु (।),
लक्षण छंद:
आल्हा मात्रिक छंद सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य.
गुरु-लघु चरण अंत में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य..
अलंकार अतिशयता करता बना राई को 'सलिल' पहाड़.
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़..
उदाहरण:
१. बुंदेली के नीके बोल... संजीव 'सलिल'
*
तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..
अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..
फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय..
*
२. कर में ले तलवार घुमातीं, दुर्गावती करें संहार.
यवन भागकर जान बचाते गिर-पड़ करते हाहाकार.
सरमन उठा सूँढ से फेंके, पग-तल कुचले मुगल-पठान.
आसफ खां के छक्के छूटे, तोपें लाओ बचे तब जान.
३. एक-एक ने दस-दस मारे, हुआ कारगिल खूं से लाल
आये कहाँ से कौन विचारे, पाक शिविर में था भूचाल
या अल्ला! कर रहम बचा जां, छूटे हाथों से हथियार
कैसे-कौन निशाना साधे, तजें मोर्चा हो बेज़ार
__________
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कमंद, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)



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बुंदेली के नीके बोल

१. बुंदेली के नीके बोल... संजीव 'सलिल'
*
तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..
अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..
फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय..
*





हाइकु

हाइकु गीत:
आँख का पानी
संजीव 'सलिल'
*
आँख का पानी,
मर गया तो कैसे
धरा हो धानी?...
*
तोड़ बंधन
आँख का पानी बहा.
रोके न रुका.
आसमान भी
हौसलों की ऊँचाई
के आगे झुका.
कहती नानी
सूखने मत देना
आँख का पानी....
*
रोक न पाये
जनक जैसे ज्ञानी
आँसू अपने.
मिट्टी में मिला
रावण जैसा ध्यानी
टूटे सपने.
आँख से पानी
न बहे, पर रहे
आँख का पानी...
*
पल में मरे
हजारों बेनुगाह
गैस में घिरे.
गुनहगार
हैं नेता-अधिकारी
झूठे-मक्कार.
आँख में पानी
देखकर रो पड़ा
आँख का पानी...
*

शुक्रवार, 25 जून 2021

रामरती कौशल

संस्मरण
बाल सत्याग्रही रामरती कौशल
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
किसी देश का इतिहास केवल बड़े ही नहीं बनाते, यथासमय बच्चे भी यथाशक्ति योगदान करते हैं किन्तु इतिहास लिखते समय केवल बड़ों का ही उल्लेख किया जाता है और बच्चों का अवदान बहुधा अनदेखा-अनलिखा रह जाता है। जॉन ऑफ़ आर्क (१४१२-३० मई १४३१) का नाम पूरी दुनिया में विख्यात है कि उसे मात्र १२ वर्ष की आयु से फ़्रांस से अंग्रेजों को खदेड़ने का सपना देखा और युद्ध हारती हुई सेना की बागडोर सम्हाल कर उसे विजय की राह पर ले गई। भारतीय स्वातंत्र्य समर में नाना साहेब की किशोरी बेटी मैना देवी के बलिदान की अमर गाथा आज की पीढ़ी नहीं जानती। महात्मा गाँधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता सत्याग्रह के दौर में केवल बड़ों ने नहीं अपितु किशोरों और बच्चों ने भी महती भूमिका का निर्वहन किया था। स्वतंत्रता सत्याग्रह के इतिहास के एक ऐसे ही अछूते पृष्ठ को अनावृत्त कर रहा है यह लेख।


सनातन सलिला नर्मदा तट पर बसी संस्कारधानी जबलपुर को तब यह विशेषण मिलता तो दूर देश ने आजादी की सांस भी नहीं ली थी, जब का यह प्रसंग है। शहर कोतवाली के पास अंग्रेजों ने सागर के राजा के अंत पश्चात् परिवार की विधवाओं को रहने का स्थान दिया था कि उन पर नज़र रखी जा सके। राजा सागर के बड़े के सामने ही था (अब भी भग्न रूप में है) सुन्दरलाला तहसीलदार का बाड़ा जो पन्ना के राजा के विश्वस्त थे और अंग्रेजों द्वारा विशेष सहायक के रूप में जबलपुर में लाए गए थे। उन्हें पूर्व के भोंसला राजाओं की टकसाल (जहाँ सिक्के ढलते थे) के स्थान पर बसाया गया। वे ज़ाहिर तौर पर अंग्रेजों के लिए काम करते और खुफिया तौर पर क्रांतिकारियों और राजा सागर परिवार के सहायक होते। कालांतर में इस बाड़े के मकान में किरायेदार के रूप में रहने आए नन्हें भैया सोनी। वे सोने-चाँदी के जेवर बनानेवाले कारीगर थे, निकट ही सराफा बाजार (अब भी है) में व्यापारियों की दुकानों से काम मिलता और उनका परिवार पलता। नन्हें भैया के चार बच्चे हुए पहली दो पुत्रियाँ कृष्णा और रामरती तथा बाद में दो पुत्र मणिशंकर और गौरी शंकर।

रामरती (१५-९-१९३५-२३-५-२००२) केवल सात वर्ष की थी, जब १९४२ का स्वतंत्रता सत्याग्रह आरंभ हुआ। माता-पिता की लाड़ली बिटिया, दो भाइयों की इकलौती बहिन रामरती दूसरी कक्षा की छात्रा थी। रामरती बाड़े के मैदान और दो शिवमंदिरों के समीप अन्य बच्चों के साथ चिड़ियों की तरह फुदकती-खेलती। बच्चे ऊँच-नीच का भेद नहीं जानते। मकान मालिक धर्मनारायण वर्मा वकील की बड़ी लड़की ऊषा, लड़का बीरु, और अन्य करायेदारों के बच्चे टीपरेस, कन्ना गोटी, खर्रा, खोखो खेलते। उन्हें सबसे अधिक ख़राब लगते थे ज्वाला चच्चा (ज्वाला प्रसाद वर्मा, स्वतंत्रता सत्याग्रही जिन्हें कारावास हुआ था) जो अपने कुछ साथियों के साथ आते। सबके सिरों पर सफ़ेद टोपी और सफेद ही कपड़े होते। वे आपस में अजीब अजीब बातें करते। आस-पास खेलते-खेलते रामरती को अंग्रेज, आजादी, सत्याग्रह, अत्याचार, तिरंगा आदि शब्द सुनाई दे जाते तो उसके मन में उत्सुकता जागती कि यह क्या है? वे लोग थैलों में पभुत से पर्चे लाते, फिर आपस में बाँट लेते और उपरायणगंज, दीक्षितपुरा, सिमरियावाली रानी की कोठी की गलियों में चलेजाते। कभी-कभी पुलिस के सिपाही भी बाड़े में आते, बड़ों को डाँटते, छोटों को भगा देते लेकिन उनके आने के पहले ही ज्वाला चच्चा की मित्र मंडली दबे पाँव गलियों में गुम हो जाती।


एक दिन खेलते-खेलते बाड़े में बने पुराने कुएँ की जगत पर उसने पढ़ा 'नानक चंद'। कौन था यह नानक चंद? अपनी माँ से पूछा तो डाँट पड़ी कि फालतू बातों से दूर रहो। एक दिन वह पड़ोस के बच्चों के बाड़े के साथ बाड़े के बड़े दरवाजे के पास साथ सड़क पर खेल रही थी क्योंकि ज्वाला चच्चा अपने मित्रों के साथ मंदिर के पीछे बातचीत कर रहे थे। रामरती की नजर सड़क की तरफ पड़ी तो उसे कुछ सिपाही आते दिखे, बाकी बच्चे तो खेल में मग्न थे पर रामरती को न जाने क्या सूझा, ज्वाला चच्चा से डाँट पड़ने का भय भूलकर वह मंदिर की ओर दौड़ पड़ी चिल्लाते हुए 'पुलिस आई', जैसे ही सत्याग्रहियों ने आवाज सुनी वे बाड़े के पिछवाड़े से मुसलमानों की गली में कूद कर भाग गए। पुलिस के जवान जब तक बड़े के अंदर घुसे, चिड़िया उड़ चुकी थी, उनके हाथ कुछ न लगा। आसपास के लोगों को धमकाते-गालियाँ बकते पूछताछ करते रहे पर किसी ने कुछ न बताया। खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे, आखिरकार चले गए।


उस दिन के बाद ज्वाला चच्चा और उनके साथी बच्चों को डाँटते नहीं थे। बच्चे खेलते रहते, वे लोग अपना काम करते रहते, कभी-कभी बच्चों के हाथ पर अधेला रख देते कि सेव-जलेबी खा लेना। रामरती उनके स्नेह की विशेष पात्र थी। एक दिन ज्वाला चच्चा पर्चों का थैला लिए आए लेकिन उनके दो साथ नहीं आए। वे परेशान थे कि उनके पर्चे कैसे उन तक जाएँ? रामरती देखती थी ज्वाला चच्चा के साथ रहनेवाले जमुना कक्का नहीं थे। जमुना कक्का उसके पिता के भी मित्र थे, कई बार दोनों साथ-साथ काम करते थे। रामरती पिता के साथ जमुना कक्का के घर भी हो आई थी। उसने ज्वाला चच्चा से पूछ लिया 'जमुना कक्का नई आए?' चच्चा ने घूर कर देखा तो वह डर गई पर हिम्मत कर फिर कहा 'हमें उनको घर मालून आय, परचा पौंचा दें?' अब चच्चा ने उस की तरफ ध्यान दिया और पूछा 'डर ना लगहै?, कैसे जइहो? पुलिस बारे भी तो हैं।'


'चच्चा तनकऊ फिकिर नें करो हम बस्ता में किताबों के बीच परचा छिपा लैहें और मनी भैया साथ दे आहें। हमने बाबू (पिता) के संगै उनको घर है।' चच्चा हिचकते रहे पर और कोई चारा न देख रामरती के बस्ते में पर्चे रख दिए। रामरती दे आई। चच्चा के साथी 'एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गांधी की' बोलकर घर-घर से चवन्नी माँगते। सुन सुन कर यह नारा बच्चों को भी याद हो गया। वे झंडा ऊँचा रहे हमारा, चलो दिल्ली, जय हिन्द जैसे नारे लगते और बड़ों की नकल कर जुलुस की तरह निकलते। पुलिस के सिपाही खिसियाकर भगाते और बच्चे झट से घरों में जा छिपते। सत्याग्रहियों और बच्चों में यह तालमेल चलता रहा, पुलिस के सिपाही खिसियाते रहे। एक दिन एक सिपाही ने रामरती की पीठ पर धौल जमा दी, वह औंधे मुँह गिरी तो घुटना और माथा चोटिल हो गया। माँ ने पूछा तो उसने कहा कि एक सांड दौड़ा आ रहा था, उससे बचने के लिए दौड़ी तो गिर पड़ी। इस घटना के बाद भी पर्चे पहुँचाने, चंदा इकठ्ठा करने, पुलिस की आवागमन से सत्याग्रहियों को खबरदार करने जैसे काम करती रही।


रामरती सातवीं कक्षा में थी जब सुना कि देश आज़ाद हो गया। खूब रौनक रही। रामरती 'पुअर बॉयस फंड' से वजीफा पाकर सेंट नॉर्बट स्कूल में पढ़ रही थे। उसके भाई मणि को उनके निस्संतान रेलवेकर्मी मामा नारायणदास अवध ने गोद ले लिया था। आठवीं कक्षा पास कर रामरती अपनी ननहाल राहतगढ़ (सागर) चली गई। मैट्रिक पास कर, ट्रेनिंग कर शिक्षिका हो गयी और प्राइवेट पढ़ती भी रही। कांग्रेस सेवादल के कैंप में उसकी मुलाकात अन्य कार्यकर्ता शंकरलाल कौशिक हुई जो बेगमगंज का निवासी था। वह भोपाल रियासत के कोंग्रेसी नेता शंकर दयाल शर्मा (कालांतर में भारत के राष्ट्रपति हुए) के निकट था। प्राइवेट बस में कंडक्टरी और पढ़ाई साथ-साथ करता। कांग्रेस की गतिविधियों और बस स्कूल जाते-आते समय उनकी मुलाकातें पहले आकर्षण और फिर प्रेम में बदल गई। दोनों के घरवालों ने जातिभेद के कारण विरोध किया। शंकरलाल की मेहनत और ईमानदारी के कारण वह शर्मा जी के घर के सदस्य की तरह हो गया था। शर्मा जी के आशीर्वाद से दोनों ने शादी कर ली। दोनों का जीवट और संघर्ष लाया। शंकर लाल डिप्लोमा पास कर बी एच ई एल भोपाल में सुपरवाइज़र हो गया। रामरती शासकीय शिक्षिका हो गई। दोनों के तीन बच्चे हुए। रामरती की कलात्मक अभिरुचि ने उसे गणतंत्र दिवस व स्वाधीनता झाँकियों को बनाने दिलाया। वह भोपाल और दिल्ली में पुरस्कृत हुई, पदोन्नत होकर प्राचार्य हो गई।


शंकरलाल, शर्मा जी के साथ आंदोलन में कारावास भी जा चुका था। स्वतंत्रता सत्याग्रहियों को सम्मान और लाभ मिलने के अनेक अवसर आए पर दोनों ने इंकार कर दिया की उन्होंने जो भी किया, देश के लिए किया, यह उनका कर्तव्य था और उन्हें कोई सम्मान या लाभ की लालच नहीं है। एक ओर सुविधाओं की लालच में लोग स्वतंत्रता सत्याग्रही होने के झूठे दावे कर रहे थे, दूसरी यह सच्चा सत्याग्रही दंपत्ति किसी लाभ को लेने से इंकार कर जीवन में संघर्ष कर रहा था। इस कारण दोनों का सम्मान बढ़ा। बच्चों के विवाह में शर्मा जी उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति होते हुए भी बच्चों को आशीर्वाद देने आए। उन्होंने अपने बच्चों के विवाह बिना किसी लेन-देन के किए। रामरती का बड़ा लड़का विजय वायुसेना में ग्रुपकैप्टन पद से सेवानिवृत्त होकर अहमदाबाद में है। छोटा लड़का विनय दिल्ली में उद्योगपति है और लड़की वंदना अपनी ससुराल में कोलकाता है।
***