षट्पदी-
आत्मानुभूति
कहाँ कब-कब हुआ पैदा, कहाँ कब-कब रहा डेरा?
कौन जाने कहाँ कब-कब, किया कितने दिन बसेरा?
है सुबह उठ हुआ पैदा, रात हर सोया गया मर-
कौन जाने कल्प कितने लगेगा अनवरत फेरा?
साथ पाया, स्नेह पाया, सत्य बडभागी हुआ हूँ. 
व्यर्थ क्यों वैराग लूं मैं, आप अनुरागी हुआ हूँ.
२०-८-२०१७ 
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षट्पदी-
कठिन-सरल 
'क ख ग' भी लगा था, प्रथम कठिन लो मान. 
बार-बार अभ्यास से, कठिन हुआ आसान 
कठिन-सरल कुछ भी नहीं, कम-ज्यादा अभ्यास 
मानव मन को कराता, है मिथ्या आभास.  
भाषा मन की बात को, करती है प्रत्यक्ष 
अक्षर जुड़कर शब्द हों, पाठक बनते दक्ष 
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षट्पदी-
कर-भार 
चाहा रहें स्वतंत्र पर, अधिकाधिक परतंत्र 
बना रहा शासन हमें, छीन मुक्ति का यंत्र 
रक्तबीज बन चूसते, कर जनता का खून 
गला घोंटते निरन्तर, नए-नए कानून 
राहत का वादा करें, लाद-लाद कर-भार 
हे भगवान्! बचाइए, कम हो अत्याचार  
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चतुष्पदी 
फूल  चित्र दे फूल मन, बना रहा है fool. 
स्नेह-सुरभि बिन धूल है, या हर नाता शूल 
स्नेह सुवासित सुमन से, सुमन कहे चिर सत्य   
जिया-जिया में पिया है, पिया जिया ने सत्य 
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मुक्तिका: १ 
जागे बहुत, चलो अब सोएँ 
किसका कितना रोना रोएँ?
नेता-अफसर माखन खाएँ 
आम आदमी दही बिलोएँ 
पाये-जोड़े की तज चिंता 
जो पाया, दे कर खुद खोएँ 
शासन चाहे बने भिखारी 
हम-तुम केवल साँसें ढोएँ
रहे विपक्ष न शेष देश में 
फूल रौंदकर काँटे बोएँ
सत्ता करे देश को गंदा 
जनगण केवल मैला धोएँ
***
मुक्तिका: २ 
जागे बहुत, चलो अब सोएँ 
स्वप्न सजा नव जग में खोएँ
जनगण वे कांटे काटेंगे 
जो नेताजी निश-दिन बोएँ
हुए चिकित्सक आज कसाई 
शिशु मारें फिर भी कब रोएँ?
रोज रेलगाड़ियाँ पलटेंगी 
मंत्री हँसें, न नयन भिगोएँ  
आना-जाना लगा रहेगा 
नाहक नैना नहीं भिगोएँ 
अधरों पर मुस्कान सजाकर 
मधुर मिलन के स्वप्न सँजोएँ
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मुक्तिका ३ 
बेटी 
*
बेटी दे आशीष, आयु बढ़ती है 
विधि निज लेखा मिटा, नया गढ़ती है 
*
सचमुच है सौभाग्य बेटियाँ पाना-
आस पुस्तकें, श्वास मौन पढ़ती है. 
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कभी नहीं वह रुकती,थकती, चुकती 
चुक जाते सोपान अथक चढ़ती है  
*
पथ भटके तो नाक कुलों की कटती 
काली लहू खलों का पी कढ़ती है 
*
असफलता का फ्रेम बनाकर गुपचुप 
चित्र सफलता का सुन्दर मढ़ती है 
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मुक्तक 
जिसने सपने में देखा, उसने ही पाया 
जिसने पाया, स्वप्न मानकर तुरत भुलाया 
भुला रहा जो याद उसी को फिर-फिर आया 
आया बाँहों-चाहों में जो वह मन-भाया 
***
मुक्तक:
मिलीं मंगल कामनाएँ, मन सुवासित हो रहा है। 
शब्द, चित्रों में समाहित, शुभ सुवाचित हो रहा है।। 
गले मिल, ले बाँह में भर, नयन ने नयना मिलाए- 
अधर भी पीछे कहाँ, पल-पल सुहासित हो रहा है।। 
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दोहा सलिला 
मन-मंजूषा जब खिली, यादें बन  गुलकंद 
मतवाली हो महककर, लुटा रही मकरंद 
*  
सुमन सुमन उपहार पा, प्रभु को नमन हजार 
सुरभि बिखेरें हम 'सलिल ', दस दिश रहे बहार 
*
जिससे मिलकर हर्ष हो, उससे मिलना नित्य 
सुख न मिले तो सुमिरिए, प्रभु को वही अनित्य 
*
salil.sanjiv@gmail.com
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