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रविवार, 11 अगस्त 2013

sanskrit bramh vani : mridul kirti

संस्कृत ब्रह्म वाणी क्यों है? – डॉ.मृदुल कीर्ति


अपरा और परा का संयोग ही सकल जगत का बीज है.
बीजं माम सर्व भूतानाम ———–गीता ७/१०
सब प्राणियों का अनादि बीज मुझे ही जान.
आठ भेदों वाली– पञ्च तत्त्व, मन, बुद्धि, अहम् 
यह मेरी अपरा प्रकृति है.–गीता ७–४/५
पञ्च तत्वों की तन्मात्राओं में ही इस जिज्ञासा के सूत्र छिपे हैं
 कि संस्कृत ब्रह्म वाणी क्यों है?
पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ये पांच स्थूल तत्व हैं. 
रूप ,गंध, रस,स्पर्श और ध्वनि यह पांच इनकी तन्मात्राएँ हैं. 
इन्हें सूक्ष्म महाभूत भी कहते हैं. 
इन पाँचों तत्वों में आकाश का ध्वनि तत्व अन्य सभी तत्वों में समाहित है. 
आकाश सर्वत्र है, क्योंकि ज्यों-ज्यों जड़ता घटती है, 
त्यों-त्यों गति उर्ध्व गामी होती है. 
आकाश की तन्मात्रा ( निहित विशेषता ) नाद है. 
नाद अर्थात ध्वनि, ध्वनि अर्थात स्वर.संस्कृत में ‘र’ का अर्थ प्रवाह होता है,
 ‘स्व’ अर्थात अपना मूल तत्त्व. ‘नाद’ आकाश की तन्मात्रा है जो
आकाश की मूल तत्व शक्ति है, अपना मूल ध्वनि प्रवाह है. 
अतः आदि शक्ति का स्वर स्रोत, भूमा की ध्वनि है,
 तब ही उद्घोषित है कि ‘नाद ही ब्रह्म है.’
नाद –आकाश की वह तन्मात्रा है, 
जो ब्रह्म की तरह ही शाश्वत, विराट, अगम्य, अथाह और आत्म-भू है.
आकाश सर्वत्र है अतः नाद भी सर्वत्र है.
वाणी — नाद- शक्ति, ही वाणी की ऊर्जा है और वाणी का सार्थक रूप
 शब्दों में ही रूपांतरित होता है. 
शब्द अक्षरों से बने हैं.. 
अतः मन जिज्ञासु होता है कि अक्षरों का मूल स्रोत्र क्या है?
अक्षरों का मूल स्रोत
वासुदेव का उदघोष
“अक्षरानामकारोस्मि” —-गीता १०/ ३३
अक्षरों में अकार मैं ही हूँ और बिना आखर के
 शब्द संसार की रचना नहीं हो सकती.
कदाचित अक्षर नाम इसीलिये हुआ कि
 ‘क्षर’ (नाश) ‘अ’ (नहीं) जिसका विनाश नहीं होता वह अक्षर है.
अतः बोला हुआ कुछ भी नाश नहीं होता. 
सो जैसे ब्रह्म अविनाशी है वैसे ही अक्षर भी अविनाशी हैं.
 अतः ” शब्द और ब्रह्म” सहोदर है गर्भा शब्द
ब्रह्मा की नाभी से अक्षरों का निःसृत माना जाना इसी तथ्य की पुष्टि है.
देह विज्ञान और आध्यात्म संयोजन के बिंदु संयोजन की जब बात होती है तो मूलाधार से सहस्त्रधार तक के बिन्दुओं में तीसरा बिंदु ‘मणिपुर’ क्षेत्र का है,
 जो ‘नाभी’ से प्रारंभ होता है. नाभी क्षेत्र 
दिव्य ऊर्जा से पूर्ण है और सृजन का भी स्रोत बिंदु है. 
गर्भस्थ शिशु को भोजन नाभि से ही मिलता है.
 वेदों में मूल स्रोत्र के सन्दर्भ में “हिरण्य गर्भा ” शब्द प्रयुक्त हुआ है.
 ब्रह्मा की नाभी से निःसृत होने का यही संकेत है. 
यहीं पर ‘कुण्डलिनी’ है जो अनंत दिव्य मणियों से पूरित है. 
यहीं से आखर का उच्चारण भी आरम्भ होता है. 
पुष्टि के लिए आप ‘अ ‘ अक्षर का उच्चारण करें तो
 ‘नाभि’ क्षेत्र स्पंदित होता है.
 नाभि क्षेत्र को छुए बिना आप ‘अ ‘ बोल ही नहीं सकते. अतः
‘अकारो विष्णु रूपात’
स्वयं सिद्ध है.
अ से म तक की अक्षर यात्रा ही ‘ओम’ का बोध कराती है, 
क्योंकि ‘ओइम’ में व्योम की सारी नाद शक्ति समाहित है.
सबसे अधिक ध्यान योग्य तथ्य है कि ओम के कोई रूप नहीं होते.
 परब्रह्म के एकत्व का प्रमाण भाषा विज्ञानं के माध्यम से भी है.
बिना अकार के कोई अक्षर नहीं होता 
अर्थात बिनाब्रह्म शक्ति के किसी आखर का अस्तित्व नहीं है. 
आप ‘क’ बोलें तो वह क +अ = क ही है. 
यही ‘ अक्षरों में ब्रह्म के अस्तित्व की अकार रूप में प्रमाणिकता है.
अक्षरों का प्राण तत्व ब्रह्म ही है.
यही वह बिंदु है जहॉं से वेद निःसृत हुए है 
क्योंकि नाद का श्रुति से सम्बन्ध है और हम श्रुति परंपरा के वाहक भी तो हैं.
 ब्रह्मा द्वारा ऋषि मुनियों को ध्वनि संचेतना से ही ज्ञान संवेदित हुए.
 ये अनुभूति क्षेत्र की उर्जा से ही अनुभव में उजागर होकर
 वाणी द्वारा व्यक्त हुए.
पाणिनि अष्टाध्यायी में लिखा है कि ‘पाणिनी व्याकरण’ शिव ने उपदिष्ट की थी.
‘वेद’ सुनकर ही तो हम तक आये हैं. तब ही वेदों को श्रुति’ भी कहते है.
जैसे ब्रह्म अविनाशी है वैसे ही वाणी भी अविनाशी है.
 तब ही उपदिष्ट किया जाता है कि ‘दृष्टि, वृत्ति और वाणी ‘ सब प्रभु में जोड़ दो,
 क्योकि वाणी कई जन्मों तक पीछा करती है. 
वाणी की प्रतिक्रिया से प्रारब्ध भी बनते है,
 इसकी ऊर्जा से वर्तमान और भविष्य भी बनते हैं.
संस्कृत भाषा की विशेषताएं
संस्कृत भाषा का मूल भी दिव्यता से ही निःसृत है.——————-
सम और कृत दो शब्दों के योग से संस्कृत शब्द बना है. 
सम का अर्थ सामायिक अर्थात हर काल, युग में 
एक सी ही रहने वाली.विधा. समय के प्रभाव से परे 
अर्थात कितना ही काल बीते इसके मूल स्वरुप में कोई परिवर्तन नहीं होता.
जो स्वयं में ही पूर्ण और सम्पूर्ण है. कृ क्रिया ‘कृत’ के लिए प्रयुक्त हुआ है.
संस्कृत में सोलह स्वर और छत्तीस व्यंजन हैं.
 ये जब से उद्भूत हुए तब से अब तक इनमें अंश भर भी परिवर्तन नहीं हुए हैं.
 सारी वर्ण माला यथावत ही है.
मूल धातु (क्रिया) में कोई परिवर्तन नहीं होता
 यह बीज रूप में सदा मूल रूप में ही प्रयुक्त होती है. 
जैसे ‘भव’ शब्द है सदा भव ही रहेगा, 
पहले और बाद में शब्द लग सकते हैं जैसे अनुभव , संभव , भवतु आदि.
संस्कृत व्याकरण में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता.
जैसे ब्रह्म अविनाशी वैसे ही संस्कृत भी अविनाशी है.
नाद की परिधि में आते ही ‘अक्षर’ ‘अक्षर’ हो जाते हैं, 
महाकाश में समाहित ब्रह्ममय हो जाते हैं.
सूक्ष्म और तत्व मय हो जाते हैं. 
इस पार गुरुत्वमय तो उस पार तत्वमय , 
नादमय और ब्रह्ममय क्षेत्र का पसारा है.
डॉ.मृदुल कीर्ति
 

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

SANSKRIT : Bramh Vani Dr. Mridul Kirti



संस्कृत ब्रह्म वाणी क्यों है? – डॉ.मृदुल कीर्ति


अपरा और परा का संयोग ही सकल जगत का बीज है.
http://www.mridulkirti.com/graphics/mridul_kirti1.jpgबीजं माम सर्व भूतानाम ———–गीता ७/१०
सब प्राणियों का अनादि बीज मुझे ही जान.
आठ भेदों वाली– पञ्च तत्त्व, मन, बुद्धि, अहम् यह मेरी अपरा प्रकृति है.–गीता ७–४/५
पञ्च तत्वों की तन्मात्राओं में ही इस जिज्ञासा के सूत्र छिपे हैं कि संस्कृत ब्रह्म वाणी क्यों है?
पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ये पांच स्थूल तत्व हैं. रूप ,गंध, रस,स्पर्श और ध्वनि यह पांच इनकी तन्मात्राएँ हैं.
 इन्हें सूक्ष्म महाभूत भी कहते हैं. इन पाँचों तत्वों में आकाश का ध्वनि तत्व अन्य सभी तत्वों में समाहित है. 
आकाश सर्वत्र है, क्योंकि ज्यों-ज्यों जड़ता घटती है, त्यों-त्यों गति उर्ध्व गामी होती है. 
आकाश की तन्मात्रा ( निहित विशेषता ) नाद है.
 नाद अर्थात ध्वनि, ध्वनि अर्थात स्वर.संस्कृत में ‘र’ का अर्थ प्रवाह होता है, ‘स्व’ अर्थात अपना मूल तत्त्व. ‘नाद’ आकाश की तन्मात्रा है जो
आकाश की मूल तत्व शक्ति है, अपना मूल ध्वनि प्रवाह है. 
अतः आदि शक्ति का स्वर स्रोत, भूमा की ध्वनि है, तब ही उद्घोषित है कि ‘नाद ही ब्रह्म है.’
नाद –आकाश की वह तन्मात्रा है, जो ब्रह्म की तरह ही शाश्वत, विराट, अगम्य, अथाह और आत्म-भू है.
आकाश सर्वत्र है अतः नाद भी सर्वत्र है.
वाणी — नाद- शक्ति, ही वाणी की ऊर्जा है और वाणी का सार्थक रूप शब्दों में ही रूपांतरित होता है.       
http://www.mridulkirti.com/graphics/ishadinopanishad.bmpशब्द अक्षरों से बने हैं.. अतः मन जिज्ञासु होता है कि अक्षरों का मूल स्रोत्र क्या है?
अक्षरों का मूल स्रोत
वासुदेव का उदघोष
“अक्षरानामकारोस्मि” —-गीता १०/ ३३
अक्षरों में अकार मैं ही हूँ और बिना आखर के शब्द संसार की रचना नहीं हो सकती.
कदाचित अक्षर नाम इसीलिये हुआ कि ‘क्षर’ (नाश) ‘अ’ (नहीं) जिसका विनाश नहीं होता वह अक्षर है.
 अतः बोला हुआ कुछ भी नाश नहीं होता. सो जैसे ब्रह्म अविनाशी है वैसे ही अक्षर भी अविनाशी हैं. अतः ” शब्द और ब्रह्म” सहोदर है गर्भा शब्द
ब्रह्मा की नाभी से अक्षरों का निःसृत माना जाना इसी तथ्य की पुष्टि है.
देह विज्ञान और आध्यात्म संयोजन के बिंदु संयोजन की जब बात होती है तो मूलाधार से सहस्त्रधार तक के बिन्दुओं में 
तीसरा बिंदु ‘मणिपुर’ क्षेत्र का है, जो ‘नाभी’ से प्रारंभ होता है. 
नाभी क्षेत्र दिव्य ऊर्जा से पूर्ण है और सृजन का भी स्रोत बिंदु है. 
गर्भस्थ शिशु को भोजन नाभि से ही मिलता है. वेदों में मूल स्रोत्र के सन्दर्भ में “हिरण्य गर्भा ” शब्द प्रयुक्त हुआ है.
 ब्रह्मा की नाभी से निःसृत होने का यही संकेत है. यहीं पर ‘कुण्डलिनी’ है जो अनंत दिव्य मणियों से पूरित है. 
यहीं से आखर का उच्चारण भी आरम्भ होता है. 
पुष्टि के लिए आप ‘अ ‘ अक्षर का उच्चारण करें तो ‘नाभि’ क्षेत्र स्पंदित होता है. नाभि क्षेत्र को छुए बिना आप ‘अ ‘ बोल ही नहीं सकते. अतः
‘अकारो विष्णु रूपात’ - स्वयं सिद्ध है.
अ से म तक की अक्षर यात्रा ही ‘ओम’ का बोध कराती है, क्योंकि ‘ओइम’ में व्योम की सारी नाद शक्ति समाहित है.
सबसे अधिक ध्यान योग्य तथ्य है कि ओम के कोई रूप नहीं होते. परब्रह्म के एकत्व का प्रमाण भाषा विज्ञानं के माध्यम से भी है.
बिना अकार के कोई अक्षर नहीं होता अर्थात बिनाब्रह्म शक्ति के किसी आखर का अस्तित्व नहीं है. 
http://www.mridulkirti.com/graphics/bhagawadgita.bmpआप ‘क’ बोलें तो वह क +अ = क ही है. यही ‘ अक्षरों में ब्रह्म के अस्तित्व की अकार रूप में प्रमाणिकता है.अक्षरों का प्राण तत्व ब्रह्म ही है.
यही वह बिंदु है जहॉं से वेद निःसृत हुए है क्योंकि नाद का श्रुति से सम्बन्ध है और हम श्रुति परंपरा के वाहक भी तो हैं. 
ब्रह्मा द्वारा ऋषि मुनियों को ध्वनि संचेतना से ही ज्ञान संवेदित हुए. ये अनुभूति क्षेत्र की उर्जा से ही अनुभव में उजागर होकर वाणी द्वारा व्यक्त हुए.
पाणिनि अष्टाध्यायी में लिखा है कि ‘पाणिनी व्याकरण’ शिव ने उपदिष्ट की थी.
‘वेद’ सुनकर ही तो हम तक आये हैं. तब ही वेदों को श्रुति’ भी कहते है.
जैसे ब्रह्म अविनाशी है वैसे ही वाणी भी अविनाशी है. 
तब ही उपदिष्ट किया जाता है कि ‘दृष्टि, वृत्ति और वाणी ‘ सब प्रभु में जोड़ दो, क्योकि वाणी कई जन्मों तक पीछा करती है. 
वाणी की प्रतिक्रिया से प्रारब्ध भी बनते है, इसकी ऊर्जा से वर्तमान और भविष्य भी बनते हैं.
संस्कृत भाषा की विशेषताएं
संस्कृत भाषा का मूल भी दिव्यता से ही निःसृत है.——————-
सम और कृत दो शब्दों के योग से संस्कृत शब्द बना है.
 सम का अर्थ सामायिक अर्थात हर काल, युग में एक सी ही रहने वाली.विधा. 
http://www.mridulkirti.com/graphics/samveda.bmpसमय के प्रभाव से परे अर्थात कितना ही काल बीते इसके मूल स्वरुप में कोई परिवर्तन नहीं होता.
जो स्वयं में ही पूर्ण और सम्पूर्ण है. कृ क्रिया ‘कृत’ के लिए प्रयुक्त हुआ है.
संस्कृत में सोलह स्वर और छत्तीस व्यंजन हैं.
 ये जब से उद्भूत हुए तब से अब तक इनमें अंश भर भी परिवर्तन नहीं हुए हैं. सारी वर्ण माला यथावत ही है.
मूल धातु (क्रिया) में कोई परिवर्तन नहीं होता यह बीज रूप में सदा मूल रूप में ही प्रयुक्त होती है. 
जैसे ‘भव’ शब्द है सदा भव ही रहेगा, पहले और बाद में शब्द लग सकते हैं जैसे अनुभव , संभव , भवतु आदि.
संस्कृत व्याकरण में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता.
जैसे ब्रह्म अविनाशी वैसे ही संस्कृत भी अविनाशी है.
नाद की परिधि में आते ही ‘अक्षर’ ‘अक्षर’ हो जाते हैं, महाकाश में समाहित ब्रह्ममय हो जाते हैं.
सूक्ष्म और तत्व मय हो जाते हैं. इस पार गुरुत्वमय तो उस पार तत्वमय , नादमय और ब्रह्ममय क्षेत्र का पसारा है.
डॉ.मृदुल कीर्ति

बुधवार, 31 जुलाई 2013

Hindi- A divine language : Dr. Mridul Kirti

हिंदीः अ से ह तक और हिंदी में समाहित अध्यात्म, दिव्यता, 

दर्शन, योग, ज्ञान और विज्ञान

डॉ.मृदुल कीर्ति

जन्म: 07 अक्तूबर 1951 | 
जन्म स्थान: पूरनपुर, जिला पीलीभीत, उत्तर प्रदेश, भारत |
 कुछ प्रमुख कृतियाँ: सामवेद का पद्यानुवाद (1988), 
ईशादि नौ उपनिषद (1996), अष्टवक्र गीता - काव्यानुवाद (2006),
 ईहातीत क्षण (1991), 
श्रीमद भगवद गीता का ब्रजभाषा में अनुवाद (2001) | 
विविध: "ईशादि नौ उपनिषद" में 
आपने नौ उपनिषदों का हरिगीतिका छंद में हिन्दी अनुवाद किया है।

डॉ. मृदुल कीर्ति
आध्यात्मिक और दिव्य पक्ष – संस्कृत देव भाषा है, हिंदी संस्कृत से ही निःसृत दिव्य भाषा है, देव वाणी है ।
‘ अक्षरानामकारोस्मि’ गीता १०/३३ 
वर्णमाला में सर्व प्रथम ‘अकार ‘ आता है। स्वर और व्यंजन के योग से वर्ण माला बनती हैं। इन दोनों में ही ‘अकार’ मुख्य है। ‘अकार’ के बिना अक्षरों का उच्चारण नहीं होता। ‘अक्षरों में अकार मैं ही हूँ’ वासुदेव का यह उदघोष दिव्यता को स्वयं ही उदघोषित और प्रतिष्ठापित करता है। बिना अकार के कोई अक्षर होता ही नहीं है। गीता में स्वयं श्री कृष्ण ने ‘अकार’को अपनी विभूति बताया है। अक्षरों में ‘अकार’ मैं ही हूँ, अकार वर्ण की ध्वनि संचेतन शक्ति है जो वर्णों में प्राण प्रतिष्ठा करती है और उस शक्ति अधिष्ठाता स्वयं ब्रह्म है अतः ‘अकार’ ब्रह्म की विभूति है। दिव्य लक्षणों से युक्त होने के कारण ही इसे ‘देव नागरी ‘ कहते हैं।
‘अकारो वासुदेवस्य’ 
‘अकार’ नाद तत्व का संवाहक है। ‘अकार’ के बिना शब्द सृष्टि आगे नहीं चलती और ध्वनि तरंगों से अकार ध्वनित होता है।
भागवत – भागवत में लिखा है कि ‘सर्व शक्तिमान ब्रह्मा जी ने ‘ॐ कार ‘ से ही अन्तःस्थ (य र ल व् ) ऊष्म (श ष स ह ) स्वर (अ से औ तक) स्पर्श (क से म ) तथा (ह्रस्व और दीर्घ) आदि लक्षणों से युक्त अक्षर साम्राज्य अर्थात वर्ण-माला की रचना की ।वर्ण माला के दो भाग हैं – स्वर तथा व्यंजन ।
ऋग्वेद के अनुसार – स्वर्यंत शब्दयंत अति स्वराः 
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। अन्य वर्ण की सहायता के बिना बोले जा सकने वाले वर्ण स्वर हैं। व्यंजन बिना स्वर की सहायता के नहीं बोले जा सकते हैं। व्यंजन में’ अकार ‘ मिलता है, तब ही आकार मिलता है। ‘अक्षर ‘ में प्राण प्रतिष्ठा नाद से होती है और नाद ब्रह्म है। अक्षरों में अकार स्वयं वासुदेव हैं। तब इसका नाश करने वाला भला कौन है। हिंदी में ‘अ’ का अर्थ नहीं और ‘क्षर’ का अर्थ नाश है। अक्षर अर्थात वह तत्व जिसका नाश नहीं होता। अक्षर अपने में ही पूर्ण शाश्वत इकाई है। अक्षरों का क्षरण नहीं होने के कारण ही अक्षर को सृष्टि कर्ता माना गया है। अक्षर को वर्ण भी कहा जाता है। स्वर और व्यंजन के मिलने से ही शब्द सृष्टि का निर्माण होता है।
‘अकारो वासुदेवस्य उकारस्त पितामहः’ 
वर्ण – व्–र–ण
व् -पूर्ण, र -प्रवाह, ण -ध्वनि =अर्थात वर्ण वह तत्व है जिसमें पूर्णता है, ध्वनि है और ध्वनि का प्रवाह है।
वर्ण विचार – orthography
शब्द विचार – etymology
वाक्य विचार – syntax
दार्शनिक पक्ष : पञ्च तत्वों में आकाश सर्वाधिक विराट, विस्तृत और बृहत है. व्योम की तन्मात्रा ‘नाद’ है और ‘नाद ब्रह्म है’। सारे ही वर्ण ध्वनि जगत का विषय है और ध्वनि पर ही आधारित हैं। यही नाद अथवा ध्वनि शब्द सृष्टि का आदि कारण है। नाद ब्रह्म के साधक आचार्य पाटल हैं। पञ्च तत्वों की तन्मात्राओं में आकाश का नाद तत्व सबसे अधिक सूक्ष्म और अनुभव गम्यता की परिधि में आता है। यह सूक्ष्म रूप में सकल आकाश में व्याप्त नाद उर्जा है। नाद ऊर्जा की शक्ति से ही बादलों की गर्गढ़ाहट और बिजली की चमक की ध्वनि हम तक आती है क्योंकि ध्वनि तरंगों में ही प्रकाश उर्जा का भी वास है। ब्रह्माण्ड और तरंगों से संचालित यह अनूठा जगत है , इसमें तरंग वाद है। नाद कर्ण इन्द्रिय का विषय है। किन्तु जिसका प्रभाव पूरे ही मन , देह और चेतना पर होता है। वचन का प्रभाव जन्मों-जन्मों तक पीछा करता है। तभी कहा है कि वाणी की पवित्रता का नाम सत्य है। अक्षरों की दार्शनिकता को थोड़ा और गहराई से देखते हैं। अब हमें इनके उच्चारण में यौगिक पक्ष भी मिलता हैं।
यौगिक पक्ष - प्राण वायु के संतुलन और प्रश्वास-निःश्वास के नियमन को योग कहते हैं। हिंदी का इससे क्या सम्बन्ध है, आईये देखते हैं।
नाभी से लेकर कंठ तक वाणी के मूल केंद्र है। नाभी से ही बालक को गर्भ में पोषण मिलता है। मेरुदंड के अष्ट चक्रों की संरचना में नाभी के क्षेत्र को मणिपुर क्षेत्र कहा गया है। इस बिंदु पर अनेकों शक्ति रूपी मणियों के केंद्र है , कुण्डलिनी आदि। उन्हीं में एक वाणी तंत्र है। लगता है कि वाणी कंठ से निकल रही है किन्तु मूल नाभी में है। आईये इसे स्वयं करके ही पुष्ट करते हैं :
आप ‘अ ‘ बोलिए – अब अनुभव करिए कि आपकी नाभी अवश्य हिलती है। यही ‘अकार’ का उद्भव केंद्र है। जैसा कि पहले कहा है कि बिना ‘अकार’ के वर्ण आकार नहीं ले सकते। आपके बोलने की चाह करते ही नाभी केंद्र उतेजित होता है और यहीं प्राण वायु के सहारे से क्रमशः कंठ और होठों तक ऊपर जाते हुए स्वरों का स्वरुप ही भाषा और वार्तालाप बनता है।
एक और महत्वपूर्ण अनुभव करिए – अ से अः तक बोलिए तो नाभी से उतेजित वाणी तंत्र क्रमशः कंठ तक जाता है।
जो सबसे पहले नाभी पर दबाब पड़ता है। वह ‘कपाल भाती’ का ही रूप है । अं भ्रामरी का रूप है। अः श्वास को बाहर निकलने का रूप है। हिन्दी और संस्कृत बोलने में प्राण वायु का सामान्य से कहीं अधिक प्रश्वास और निःश्वास होता है यह प्राणायाम का स्वरुप है। मस्तिष्क को नासाछिद्र के श्वसन प्रक्रिया प्रभावित करते हैं । जब चन्द्र बिंदु का उच्चारण होता है तो इसकी झंकार की तरंगें मस्तिष्क के स्नायु तंत्र तक जाती हैं। विसर्ग का उच्चारण नाभि क्षेत्र से ही है बिना नाभी का क्षेत्र हिले स्वः नहीं बोला जा सकता है।
हिंदी के वर्णों का समायोजन अद्भुत है। वर्गों में विभाजित वर्गीकरण कितना वैज्ञानिक है। यह देखने योग्य है।
कंठ क वर्ग क ख ग घ इस वर्ग का उच्चारण कंठ मूल से है।
तालु च वर्ग च छ ज झ इस वर्ग का उच्चारण तालु से है।
मूर्धा ट वर्ग ट ठ ड ढ ण इस वर्ग का उच्चारण मूर्धा (जीभ के अग्र भाग ) से है।
दन्त त वर्ग त थ द ध न इस वर्ग का उच्चारण दोनों दांतों को मिलाने से होता है।
होंठ प वर्ग प फ ब भ म इस वर्ग का उच्चारण दोनों होठों को मिलाने से ही होता है।
हमारे शरीर में दो प्रकार की प्राण और अपान नाम की वायु (वातः ) चल रही है। इन सबका संयमन और नियमन का समीकरण इस पद्धति में है। यह हिंदी के ‘यौगिक पक्ष’ की पुष्टि है। हिंदी भाषा के मनोवैज्ञानिक, निर्दोष और व्याकरण के शाश्वत आधारों की पुष्टि है। पुरातन भाषाविद के मनीषियों की अद्भुत ज्ञान की ज्ञान प्रवणता को नमन है।
ज्ञान पक्ष – जैसे बीज में चैतन्य समाहित वैसे हिंदी के प्रत्येक शब्द में उसके भाव के गहरे अर्थ समाहित है। जहाँ तक नाद है वहाँ तक जगत है। हिंदी के शब्दों के मूल उदगम स्रोत में जाओ, चकित कर देने वाले तथ्य मिलेंगें। सारे जीवन जिन शब्दों का प्रयोग तो किया पर वह किन पदार्थों से बने और क्या भावार्थ हैं इनसे अनजान रहे । निहित अर्थों को जान कर अधिक आनंद पा सकते हैं।
हिंदी का प्रत्येक शब्द गूढ़ अर्थ गर्भा है। बीज की तरह है जिसमें कथित आशय के बीज समाहित हैं। सार्थक शब्दों और समाहित भावों के अगणित शब्द हैं। कुछ को देखिये :
प्रकृतिः कृति अर्थात रचना, प्र – कृति से प्रथम भी कोई है । अर्थात प्रभु ।
भगवान्: भ – भूमि, ग – गगन, व – वायु, अ – अग्नि , न – नीर = भगवान् = अर्थात जो पञ्च तत्वों का अधिष्ठाता है उसे भगवान् कहते हैं।
विष्णु : वि – विशुद्ध , ष्णु – अणु = विष्णु , अर्थात जिसका अणु-अणु विशुद्ध है।
खग : ख – आकाश, ग – गमन = अर्थात जो आकाश में गमन करता है।
पादप : पाद – पग, अपः – जल = जो पग से जल पीता है अर्थात पादप, उदाहरण के लिए वृक्ष ।
अग्रज : अग्र – पहले , ज – जन्म = पहले जिसका जन्म हुआ हो अर्थात बड़ा भाई।
अनुज : अनु – अनुसरण, ज – जन्म = अर्थात छोटा भाई।
वारिज : वारि -जल, ज – जन्म = जल में जो जन्मा हो अर्थात कमल, नीरज , जलज , अम्बुज भी इन्ही अर्थों के अनुमोदन हैं।
वारिद : वारि – जल, द – ददातु अर्थात देने वाला = जो जल देता है अर्थात बादल, जलद, नीरद, अम्बुद भी यही अर्थ देते हैं।
जगत : ज – जन्मते, ग – गम्यते इति जगस्तः – अर्थात वह स्थान जहाँ जन्म होता है और जहाँ से गमन होता है = वह जगत कहलाता है।
अर्थ गर्भा शब्दों के विस्तार में जाओ तो स्वयं में ही एक ग्रन्थ बन जाए, इस लेख में इनका विस्तार कदापि संभव नहीं। मात्र कुछ शब्द पुष्टि के लिए है कि हिंदी कितनी रत्न गर्भा है, कितनी गूढ़ गर्भा है। सभी ज्ञान शब्दों में ही तो समाहित हैं। प्रत्येक अक्षर का एक अधिष्ठित देवता भी है अतः कोई अकेला अक्षर भी पूरा दर्शन और अर्थ का पर्याय है।जैसे :
अ का अर्थ ना है – अजर , अमर, अपूर्ण अर्थात जो जर्जर ना हो, मरे नहीं, पूरा ना हो आदि। पांच बाल सनकादिक मुनियों ने ब्रम्हा से जब ज्ञान लिया तो ब्रह्मा जी ने तीन बार केवल ‘द’ ; द; ‘द’ ही कहा जो दान, दया और दमन का सन्देश है।
वैज्ञानिक पक्ष : वर्ण माला का यह वैज्ञानिक पक्ष तो महा अद्भुत है, सच कहें तो विस्मयकारी है।
अ से ह का संतुलन, जिसमें एक बार अकार है तो एक बार वर्ण का अंतिम अक्षर हकार आता है।
अकार और हकार का संतुलन और संयोजन – अकार में कोमल और हकार में कठोर का निरूपण है। एक बार कोमल और एक बार कठोर है। प्रत्येक वर्ग में पहला वर्ण वाद दूसरा प्रतिवाद तीसरा संवाद और चौथा अगति वाद है।
क ख ग घ
ka kha ga gha
च छ ज झ
cha chha ja jha
ट ठ ड ढ
ta thha da dhha
त थ द ध
ta tha da dha
प फ ब भ
pa pha ba bha
‘अ’ से ‘ह’ तक : अ’ से ह तक के सूत्र को यदि मिलाओ तो अहं बनता है। वस्तुतः सृष्टि संरचना का मूल भी अहं ही है यहाँ अहं का अर्थ सात्विक है। जो अस्तित्व में आने का द्योतक है। अर्थात किसी तत्व का अस्तित्व में आना । इसी अर्थ में सृष्टि संरचना हुई तो यही सात्विक अर्थ का निरूपण हिंदी के अस्तित्व की संरचना का निरूपण करती है। वह सृष्टि संरचना है तो यह शब्द सृष्टि संरचना है।
हिंदी अ से ह तक – अर्थात अस्तित्व में आना।
अ और ह के ऊपर बिंदु लगते ही अहं होता है। यह बिंदु विस्तृत अर्थों में शून्य होने का द्योतक है। संकुचित अर्थों में अभिमान का द्योतक है। अहं अस्तित्व के अर्थ में कभी जाता नहीं है, इसे किसी उच्चतर में लय करना होता है। इसका पूर्ण विलय कभी नहीं होता।
एक से एक बढ़कर प्रकांड भाषाविद , पाणिनी जैसे व्याकरण के प्रणेता ने अद्भुत ज्ञान भारतीय संस्कृति को दिया। जिसका एक अंश भी हम ठीक से समझ भी नहीं पाते हैं। हम भाषा विज्ञान ज्ञान की अकूत सम्पदा संजोये हुए है। हिन्दी का मूल्यांकन, सच पूछो तो किसी में कर पाने की क्षमता भी नहीं। राजनैतिक दांव पेंच, वोट की कुटिल नीति की बहुत बड़ी कीमत हमारी संस्कृति और भाषा को चुकानी पड़ रही है। अभी भी देर नहीं हुई है, क्योंकि जागरूक होते ही शक्ति संचरित होने लगती है। अब तो कंप्यूटर की तकनीक से सब कुछ सरल और सहज हो गया है। कंप्यूटर की तकनीक में संस्कृत को सर्वाधिक अनुकूल माना गया है। प्रवासी जो भी हिंदी प्रेमी है , कभी एक -एक रचना को लालायित रहते थे। आज एक क्लिक से सभी महाग्रंथ सुलभ है। अतः हिंदी का विकास, रूचि और सजगता अब प्रगति पर ही है। हिंदी से ही तो ‘मौलिक’ भारत का परिचय और अस्तित्व मुखरित है। हमें गर्व है कि हिंदी जैसी दिव्य भाषा हमारी भाषा है।

रविवार, 7 अगस्त 2011

विशेष लेख : वेदों में मोक्ष का स्वरूप -- डॉ.मृदुल कीर्ति

ॐ!                                                                   
विशेष लेख :
वेदों में मोक्ष का स्वरूप 
डॉ.मृदुल कीर्ति

मोक्ष,मुक्ति,निर्वाण------की चाहना अर्थात इसके ठीक पीछे किसी बंधन की छटपटाहट भी  ध्वनित है. यदि इन शब्दों का अस्तित्व है तो कदाचित इसकी सम्भावना के बीज भी इसी में समाहित है.
कर्मों के तीन प्रारूप संचित,प्रारब्ध और क्रियमाण का कर्म चक्र जाल है.  कृत कर्मों का प्रारब्ध-----जो अवश्य ही भोगना ही पड़ता है
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं
ना भुक्तं क्षीयते कर्म जन्म कोटि शतैरपि.
कर्म भोग अनिवार्य है, सर्वज्ञ के विधान में अनिवार्य का निवारण भी नहीं.
क्रियमाण --के प्रति सजगता ही ज्ञानपूर्वक जीने की विधा है क्योंकि प्रत्येक आकर्षक वस्तु एक चेतावनी है. कोई भी इन्द्रिय तुम्हारे सुख को चुरा सकती है, दास बना सकती है.  भोग से उपजे संस्कार सदा ही दुःख दायी होते हैं.  परिणाम दुःख, तप दुःख और संस्कार दुःख --विवेकी जनों के लिए सब कर्मफल दुःख हेतु ही हैं.  जो तपश्चर्या भोग की लालसा से की जाती है  उनसे दुःख के साधन ही जुटते हैं.  दुःख का स्वरुप कोई भी हो पर उसकी जड़ें चित्त में ही कहीं ना कहीं जमी होती है.  इनसे मिलने वाले सुख-दुःख देह के विकार, मन के विकार हैं. तो जन्म -मरण आत्मा के विकार हैं. अविकारी केवल परब्रह्म है. जन्म -मरण दारुण दुःख के स्वरुप हैं. इनसे मुक्त होने की चाह ही मुक्ति की चाह का  मूल कारण है. 
पुनरपि जन्मं ,पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनं,
यह संसारे अति दुस्तारे , कृष्णा तारे पार उतारे.
                                          आदि गुरु शंकराचार्य
जीव , जीवन और जगत जब से अस्तित्व में आये हैं, तब से ही जीव जन्म-मरण के दारुण दुःख से सदा ही बचने का प्रयास करता रहा है.  सृष्टि के आरम्भ में वेदों में परमात्मा से प्रार्थित ऋषियों की प्रार्थना -----
यत्रा सुपर्णा अमृतस्‍य भागमनिमेषं विदथाभिस्‍वरन्ति ।
इनो विश्‍वस्‍य भुवनस्‍य गोपा: स मा धीर: पाकमत्रा विवेश ।।ऋग्वेद  1.164.21
इस प्रकृतिरूपी वृक्ष पर बैठी हुई संसार में लिप्‍त मरणधर्मा जीवात्‍माऍं सुख-दु:ख रूपी फलों को भोगती हुई अपने शब्‍दों में परमात्‍मा की स्‍तुति करती हैं ।  तब इन लोकों के स्‍वामी और संरक्षक परमात्‍मा अज्ञान से युक्‍त मुझ जीवात्‍मा में भी विद्यमान हैं ।


यस्मिन्‍वृक्षे मध्‍वद: सुपर्णा निविशन्‍ते सुवते चाधि विश्‍वे ।
तस्‍येदाहु: पिप्‍पलं स्‍वाद्वग्रे तन्‍नोन्‍नशद्य: पितरं न वेद ।।ऋग्वेद  1.164.22
इस (संसार रूपी) वृक्ष पर प्राण रस का पान करने वाली जीवात्‍माऍं रहती हैं, जो प्रजा वृद्धि में समर्थ हैं ।  वृक्ष में उपर मधुर फल भी लगे हुए हैं, जो पिता (परमात्‍मा) को नहीं जानते, वे इन मधुर मोक्ष रूपी फलों के आनन्‍द से वंचित रहते हैं ।

"जो पिता (परमात्मा)को नहीं जानते , वे इन मोक्ष रूपी मधुर फलों से वंचित रहते हैं."
वैदिक ऋषिओं का यह कथन पुष्टि करता है कि मोक्ष सर्वोत्तम आनंद है, जो जीवात्माओं को प्रेय से हटाकर श्रेय की ओर ले जाता है. श्रेयार्थी का जो ढंग है, जीवन को देखने का वह आनंद को उतारने वाला है, प्रेयार्थी का दुःख उतारने वाला है. नचिकेता को कोई प्रलोभन नहीं लुभा सका. सर्वोच्च को पाने का दृढ़ प्रतिज्ञ मन आत्मा के मर्म को जान कर सत्य स्वरुप में निमग्न हो गया.  सुख को खोजने वाला मन ही दुःख का निर्माता है.  अपेक्षाएं ही पीड़ा का मार्ग हैं.
वेदों में मानव की आंतरिक चेतना को जगाने और सजग रखने के सूत्र, सम्पूर्ण वेदों के कथ्य  विषय हैं. जग, जीव ,जीवन,जन्म, मरण और पुनर्जन्म के आंतरिक सूत्र व् मर्म को चेतना में उतारने की विद्या ही वेद हैं. मन की अनंत मांगों से मुक्त होना ही मुक्ति है क्योंकि कामनाएं
ही तो बंधन हैं. मोक्ष-----मोह के क्षय की अवस्था है. वही मोह मुक्त और इच्छा मुक्त मन अपने भीतर के अनंत चैतन्य के साथ जब एक्य अनुभव करता है वही-------मोक्ष,मुक्ति ,निर्वाण है.
अतः चित्त की विषयों से अनासक्ति ही मुक्ति है. राग रहित होना ही वैराग्य है. निर्वाण कामनाओं के निवारण से ही है.
द्वन्द मोह विनिर्मुक्ता ७/२८ गीता.
अतः मोक्ष मन की अवस्था है जो स्वयं में घटित करनी होती है. शरीर का यंत्र बिना हम पर कोई छाप छोड़े काम करता रहे, यही सर्वोच्च कर्म प्रणाली है, जीवन प्रणाली है. निष्काम कर्म की उत्कृष्टता मोक्ष तक ले जाती है. अंतस में स्वयं को सर्वज्ञता पूर्वक जानो.
ऋषियों ने वेदों में यही मोक्ष का स्वरुप निरूपित किया है. आत्मिक और मानसिक विकास की निरंतरता उत्तरोत्तर विकसित होती हुई मोक्ष तक ही ले जाती है.

यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं त्रैष्‍टुभं निरतक्षत ।
यद्वा जगज्‍जगत्‍याहितं पदं य इत्‍तद्विदुस्‍ते अमृतत्‍वमानशु: ।। ऋग्वेद  1.164.23
पृथ्‍वी पर गायत्री छन्‍द को, अन्‍तरिक्ष में त्रिष्‍टुप् छन्‍द को तथा आकाश में जगती छन्‍द को स्‍थापित करने वाले को जो जान लेता है, वह मोक्ष (देवत्‍व) को प्राप्‍त कर लेता है ।

 देहिन (आत्मा) शाश्वत है. वह शुद्ध चैतन्य मात्र है. यह नित्य है, यही मूल तत्व है.  स्वयं को शुद्ध चैतन्य आत्मा मानकर उसी में स्थित हो जाओ, यही है वैराग्य ,ज्ञान व् मुक्ति का रहस्य.  यही चैतन्य ही ब्रह्म है. उपनिषद् कहते हैं---
यस्मिन विज्ञाते सर्व मिदं विज्ञातं भवति.
लेकिन देह मरणधर्मा है, पल-पल प्रति निमिष बदलती है और क्रमशः क्षीण होकर क्षय हो जाती हैं.
देह तो बिना क्षीण हुए भी क्षीण हो जाती क्योंकि आयु प्रारब्ध के अनुसार ही मिलती है.  मृत्यु  का साम्राज्य तो बहुत  बड़ा है जो गर्भ में बिना जन्म के भी जीव को ले जाता है. संसार का नित्य वियोग है, परमात्मा का नित्य योग है. जगत के आकर्षणों से आकर्षित जीव मोहपाश में बंधा विवेक हीन होकर ,जगत को अपना मानकर सम्बन्ध बना लेता है. ममता अज्ञान है, समता ज्ञान है. हर सुख हर आसक्ति अंततः दुःख ही है. वे ही समस्त दुखों का कारण है और यही तम है, यही असत्य है, यही मृत्यु है.
असतो मा सद्गमय .
तमसो मा ज्योतिर्गमय .
मृत्योर्मा अमृतं गमय .
बृहदारंयक उपनिषद --१/३/२८
शतपथ ब्राह्मण १४-३-१-३-

अनच्‍छये तुरगातु जीवमेजद् ध्रुवं मध्‍य आ पस्‍त्‍यानाम्
जीवो मृतस्‍य चरति स्‍वधाभिरमर्त्‍यो मर्त्‍येना सयोनि: ।। ऋग्वेद  1.164.30
श्‍वसन प्रक्रिया द्वारा अस्तित्‍व में रहने वाला जीव जब शरीर से चला जाता है, तब यह शरीर घर में निश्‍चल पडा रहता है ।  मरणशील शरीरों के साथ रहनेवाली आत्‍मा अविनाशी है, अतएव अविनाशी आत्‍मा अपनी धारण करने की शक्तियों से सम्‍पन्‍न होकर सर्वत्र निर्बाध विचरण करती है


अपाड्.प्राडे्.ति स्‍वधया गृभीतो अमर्त्‍यो मर्त्‍येना सयोनि: ।
ता शश्‍वन्‍ता विषूचीना वियन्‍ता न्‍यन्‍यं चिक्‍युर्न नि चिक्‍युरन्‍यम् ।। ऋग्वेद  1.164.38
यह आत्‍मा अविनाशी होने पर भी मरणधर्मा शरीर के साथ आबद्ध होने से विविध योनियों में जाता है ।  यह अपनी धारण क्षमता से ही उन शरीरों में आती और शरीरों से पृथक् होती रहती है ।  ये दोनों शरीर और आत्‍मा शाश्‍वत एवं गतिशील होते हुए विपरीत गतियों से युक्‍त है ।  लोग इनमें से एक (शरीर) को जानते हैं, पर दूसरे (आत्‍मा) को नहीं समझते ।


आत्मा का अविनाशी और देह के विनाशी स्वरुप , जगत का स्वरुप, यहाँ जन्म जीवन मरण
पुनर्जन्म और जीव की परम-चरम स्थिति मोक्ष का तात्विक निरूपण ही वेदों का निरूपित विषय है.
वैदिक ज्ञान जीव को मृत्यु का भय हटाकर मृत्यु का बोध कराता है. वेदों का ज्ञान जीना सिखाता है और मरना भी सिखाता है. वस्त्र की तरह देह को त्याग देना परम ज्ञान है. बीज को फल से अलग होना ही है.  पकने पर सबसे अलग होना है. किनारा आने पर नाव छोडनी ही पड़ती है. नाव साथ लेकर कोई नहीं चलता. यदि जीवन में किये कर्म मंगलमय हैं तो विसर्जन भी मंगलमय है, अर्थात ईश्वरीय धारा में होगा. अतः वेदों में जीवन की पूर्णता का ईश्वरीय ज्ञान है.
  जो मृत्यु के वश हुआ वह भोगी है, मृत्यु जिसके वश हुई वह योगी है.
यदि सृजन सत्य है तो विसर्जन भी सत्य है, ज्ञान सिखाता है कि विसर्जन मंगलमय हो.
आना तो सबका ही साधारण होता है, जाना विशिष्ट हो तो सार्थकता है.  तब महाप्रयाण उत्सव बन जाए.  उत्सर्ग पूजा बन जाए.
वेदों में मोक्ष का यही शाश्वत स्वरुप है, अटल स्वरुप है.



त्रयम्‍बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्‍धनान्‍मृत्‍योर्मुक्षीय मामृतात्  ।।---ऋग्वेद  7.59.12
                                       यजुर्वेद  ३/६०
हम सुरभित पुण्‍य, कीर्ति एवं पुष्टिवर्धक तथा तीन प्रकार से संरक्षण देने वाले त्र्यम्‍बक भगवान् की उपासना करते हैं ।  वे रुद्रदेव हमें उर्वारुक (ककडी, खरबूजा) आदि की तरह मृत्‍युबन्‍धन से मुक्‍त करें, किन्‍तु अमरता (मोक्ष) के सूत्रों से दूर न करे ।

अथ--तत्व से--अस्तित्व से---अपनत्व से---प्रभुत्व से---अमरत्व से होती हुई ---ब्रह्मत्व में विराम मिले
हे परब्रह्म परमात्मा !
हे प्रभुवर !
मुझे अस्तित्व, सत्ता, इयत्ता विहीन कर दो. मुझे सब कुछ की नहीं , कुछ नहीं की चाह है.
मैं चली उत्सर्ग लेकर, तुम वहाँ उत्सव मनाओ,
दूर इतने जा चुकेंगें , कहते रहना लौट आओ.
बिंदु कब सिन्धु से मिलकर, लौटकर है आ सकी,
श्वास की सीमा ससीमित , कब असीमित पा सकी.
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मंगलवार, 19 जुलाई 2011

भजन तेरी शरण : प्रभु तेरी शरण --मृदुल कीर्ति

: Mridul Kirti <mridulkirti@gmail.com>,

ॐ!
भजन
मृदुल कीर्ति
तेरी शरण प्रभु तेरी शरण,  तेरी शरण प्रभु तेरी शरण.
सुख पुंज महा प्रभु तेरे चरण.
संसार महा विष व्याल घना,  नहीं दीख रहा कोई अपना.
तुझसे ही पाया अपनापन. सुख पुंज महा प्रभु तेरे चरण
तेरी शरण ------------------------------
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जग मायामय और झूठा है, तेरा सांचा प्यार अनूठा है.
सब तन-मन-धन तेरे अरपन , सुख पुंज महा प्रभु तेरे चरण.
तेरी शरण -----------------------------------------------
हरि नाम जपन  साँची पूंजी, भव-सिन्धु तरन नहीं विधि दूजी.
करो तारण हार मेरा भी तरन, सुख पुंज महा प्रभु तेरे चरण.
तेरी शरण ------------------------------------------------
तू व्यापक ब्रह्म निरंजन है, कण- कण में तेरा स्पंदन है.
रहूँ ध्यान में तेरे प्रति पल क्षण ,  सुख पुंज महा प्रभु तेरे चरण.
तेरी शरण प्रभु तेरी शरण -------------------------------

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

साक्षात्कार : कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी : डॉ.मृदुल कीर्ति प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा

साक्षात्कार                                                                      
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 ईशादि     नौ    उपनिषद्
                 
               उपनिषदों में ही उस आत्म तत्व का चिंतन हुआ है जो इस   सृष्टि का मूल कारण है  भूमा की ध्रुवीय सत्ता का एक अटल लक्ष्य  जो मानव का गंतव्य स्थल है  वहाँ उपनिषद् हमें ज्ञान व कर्म् मार्ग से ले जाते हैं  आध्यात्मिक चिंता शाश्वत चिंता है , समकालीन व सामयिक नहीं वरन सामायिक समाधान  उपनिषदों का कथ्य विषय है .  अतः ये केवल काव्य , भाव ,उपदेश या सिद्धांत न होकर  जीवन की सूक्तियाँ बन गई हैं जो उपनिषदों  की महिमा , महत्ता , पवित्रता तथा आर्षता  को ध्वनित करती हैं .
  उपनिषदों का काव्यात्मक और गेय स्वरूप अनंता का कृपा साध्य प्रसाद हैं और प्रसाद अणु या कण भर भी धन्य हैं  मेरी धन्यता का पार नहीं जो अंजुरी भर कृपा प्रसाद पाया ..

कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी: 
                                             डॉ.मृदुल कीर्ति                         

प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा, सौजन्य: प्रभासाक्षी

डॉ. म्रदुल कीर्ति ने शाश्वत ग्रंथों का काव्यानुवाद कर उन्हें घर-घर पहुँचने का कार्य हाथ में लिया है.  उनहोंने अष्टावक्र गीता और उपनिषदों का काव्यानुवाद करने के साथ-साथ भगवद्गीता का ब्रिज  भाषा में अनुवाद भी किया है और इन दिनों पतंजलि योग सूत्र के काव्यानुवाद में लगी हैं. प्रस्तुत हैं उनसे हुई  बातचीत के चुनिन्दा अंश:

प्रश्न: मृदुल जी! अक्सर लोग कविता लिखना शुरू करते हैं तो पद्य के साथ-साथ गद्य की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं पर आप आरंभिक अनुवाद की ओर कैसे प्रवृत्त हुईं और असके मूल प्रेरणास्त्रोत क्या थे?

उत्तर: इस प्रश्न उत्तर का दर्शन बहुत ही गूढ़ और गहरा है. वास्तव में चित्त तो चैतन्य की सत्ता का अंश है पर चित्त का स्वभाव तीनों  तत्वों से बनता है- पहला आपके पूर्व जन्मों के कृत कर्म, दूसरा माता-पिता के अंश परमाणु और तीसरा वातावरण. इन तीनों के समन्वय से ही चित्त की वृत्तियाँ बनती हैं. इस पक्ष में गीता का अनुमोदन- वासुदेव अर्जुन से कहते हैं-शरीरं यद वाप्नोति यच्चप्युतक्रमति  वरः / ग्रहीत्व वैतानी संयति वायुर्गंधा निवाश्यत.'

यानि वायु गंध के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी  जीवात्मा भी जिस शरीर  का त्याग करता है उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें जाता है.  इन भावों की काव्य सुधा भी आपको पिलाती चलूँ तो मुझे अपने काव्य कृत 'भगवदगीता का काव्यानुवाद ब्रिज भाषा में' की अनुवादित पंक्तियाँ  सामयिक लग रही हैं.

यही तत्त्व गहन अति सूक्ष्म है जस वायु में गंध समावति है.
तस देहिन देह के भावन को, नव देह में हु लई जावति है..

कैवल्यपाद में ऋषि पातंजलि ने भी इसी तथ्य का अनुमोदन किया है. अतः, देहिन द्वारा अपने पूर्व जन्म के देहों का भाव पक्ष इस प्रकार सिद्ध हुआ और यही हमारा स्व-भाव है जिसे हम स्वभाव से ही दानी, उदार,  कृपण या कर्कश होन कहते हैं. उसके मूल में यही स्व-भाव होता है.

नीम न मीठो होय, सींच चाहे गुड-घी से.
छोड़ती नांय सुभाव,  जायेंगे चाहे जी से..

अतः, इन तीनों तत्वों का समीकरण ही प्रेरित होने के कारण हैं- मेरे पूर्व जन्म के संस्कार, माता-पिता के अंश परमाणु और वातावरण.

मेरी माँ प्रकाशवती परम विदुषी थीं. उन्हें पूरी गीता कंठस्थ थी. उपनिषद, सत्यार्थ प्रकाश आदि आध्यात्मिक साहित्य हमारे जीवन के अंग थे. तब मुझे कभी-कभी आक्रोश भी होता था कि सब तो शाम को खेलते हैं और मुझे मन या बेमन से ४ से ५  संध्या को स्वाध्याय करना होता था. उस ससमय वे कहती थीं-

तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीझ. 
भूमि परे उपजेंगे ही, उल्टे-सीधे बीज..

मनो-भूमि पर बीज की प्रक्रिया मेरे माता-पिता की देन है. मेरे पिता सिद्ध आयुर्वेदाचार्य थे. वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे और संस्कृत में ही कवितायेँ लिखते थे. कर्ण पर खंड काव्य आज भी रखा है. उन दिनों आयुर्वेद की शिक्षा संस्कृत में ही होती थी- यह ज्ञातव्य हो. मेरे दादाजी ने अपना आधा घर आर्य समाज को तब दान कर दिया था जब स्वामी दयानंद जी पूरनपुर, जिला पीलीभीत में आये थे, जहाँ से आज भी नित्य ओंकार ध्वनित होता है. यज्ञ और संध्या हमारे स्वभाव बन चुके थे.

शादी के बाद इन्हीं परिवेशों की परीक्षा मुझे देनी थी. नितान्त विरोधी नकारात्मक ऊर्जा के दो पक्ष होते हैं या तो आप उनका हिस्सा बन जाएँ अथवा खाद समझकर वहीं से ऊर्जा लेना आरम्भ कर दें. बिना पंखों के उडान भरने का संकल्प भी बहुत ही चुनौतीपूर्ण रहा पर जब आप कोई सत्य थामते हैं तो इन गलियारों में से ही अंतिम सत्य मिलता है. अनुवाद के पक्ष में मैं इसे दिव्य प्रेरणा ही कहूँगी. मुझे तो बस लेखनी थामना भर दिखाई देता था.

प्रश्न: आगामी परिकल्पनाएं क्या थीं? वे कहाँ तक पूरी हुईं?

उत्तर:
वेदों में राजनैतिक व्यवस्था'  इस शीर्षक के अर्न्तगत मेरा शोध कार्य चल ही रहा था. यजुर्वेद की एक मन्त्रणा जिसका सार था कि राजा का यह कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्रीय महत्व के साहित्य और विचारों का सम्मान और प्रोत्साहन करे. यह वाक्य मेरे मन ने पकड़ लिया और रसोई घर से राष्ट्रपति भवन तक की  मेरी मानसिक यात्रा यहीं से आरम्भ हो गयी. मेरे पंख नहीं थे पर सात्विक कल्पनाओं का आकाश मुझे सदा आमंत्रण देता रहता था. सामवेद का अनुवाद मेरे हाथ में था जिसे छपने में बहुत बाधाएं आयीं. दयानंद संस्थान से यह प्रकाशित हुआ. श्री वीरेन्द्र  शर्मा जी जो उस समय राज्य सभा के सदस्य थे, उनके प्रयास से राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरामन  द्वारा राष्ट्रपति भवन में १६ मई १९८८ को इसका विमोचन हुआ. सुबह सभी मुख्य समाचार पत्रों के शीर्षक मुझे आज भी याद हैं- 'वेदों के बिना भारत की कल्पना नहीं', 'असंभव को संभव किया', 'रसोई से राष्ट्रपति भवन तक' आदि-आदि. तब से लेकर आज तक यह यात्रा सतत प्रवाह में है. सामवेद के उपरांत ईशादि ९ उपनिषदों का अनुवाद 'हरिगीतिका' छंद में किया.  ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक,  मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय और श्वेताश्वर- इनका विमोचन महामहिम डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने १७ अप्रैल १९९६ को किया.

तदनंतर भगवद्गीता का काव्यात्मक अनुवाद ब्रिज भाषा में घनाक्षरी छंद में किया जिसका विमोचन श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने कृष्ण जन्माष्टमी पर १२ अगस्त २२०९ को किया. 'ईहातीत क्षण' आध्यत्मिक काव्य संग्रह का विमोचन मोरिशस के राजदूत ने १९९२ में किया.

प्रश्न: संगीत शिक्षा व छंदों के ज्ञान के बिना वेदों-उपनिषदों का अनुवाद आसान नहीं.  

उत्तर: संसार में सब कुछ सिखाने के असंख्य शिक्षण संस्थान हैं पर कहीं भी कविता सिखाने का संस्थान नहीं है क्योंकि काव्य स्वयं ही व्याकरण से संवरा  हुआ होता है. क्या कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, जायसी ने कहीं काव्य कौशल सीखा था? अतः, सिद्ध होता है कि दिव्य काव्य कृपा-साध्य होता है, श्रम-साध्य नहीं. मैं स्वयं कभी ब्रिज के पिछवाडे से भी नहीं निकली जब गीता को ब्रिज भाषा में अनुवादित किया. हाँ, बाद में बांके बिहारी के चरणों में समर्पण करने गयी थी. इसकी एक पुष्टि और है. पातंजल योग शास्त्र को काव्यकृत करने के अनंतर यदि कहीं कुछ रह जाता है तो बहुत प्रयास के बाद भी मैं सटीक शब्द नहीं खोज पाती हूँ. यदि मैंने कहीं लिखा है तो मुझे किस शक्ति की प्रतीक्षा है? इसलिए ये काव्य अमर होते हैं. इनका अमृतत्व इन्हें अमरत्व देता है.

प्रश्न: आपकी भावी योजना क्या है?

उत्तर: हम श्रुति परंपरा के वाहक हैं. वेद सुनकर ही हम तक आये हैं. हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में कर्ण सबसे अधिक प्रवण माने जाते हैं. नाद आकाश का क्षेत्र है और आकाश कि तन्मात्रा ध्वनि है. नभ अनंत है, अतः ध्वनि का पसारा भी अनंत है. भारतीय दर्शन के अनुसार वाणी का कभी नाश भी नहीं होता. अतः, इस दर्शन में अथाह विश्वास रखते हुए मैं इन अनुवादों को सी.डी. में रूपांतरित करने हेतु तत्पर हूँ.  मार्च में अष्टावक्र गीता और पातंजल योग दर्शन का विमोचन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल कर रही हैं. उसी के साथ पातंजल योग दर्शन का काव्यकृत गायन भी विमोचित होगा. पातंजल योग दर्शन की क्लिष्टता से सब परिचित हैं ही. इसी कारण जन सामान्य तक कम जा सका है. अब सरल और सरस रूप में जन-मानस को सुलभ हो सकेगा. अतः, पूरे विश्व में इन दर्शनों कि क्लिष्टता को सरल और सरस काव्य में जनमानस के अंतर में उतार सकूँ यही भावी योजना है. मैं अंतिम सत्य को एक पल भी भूल नहीं पाती जो मुझे जगाये रखता है.

परयो भूमि बिन प्राण के, तुलसी-दल मुख-नांहि.  
प्राण गए निज देस में, अब तन फेंकन जांहि.
को दारा, सुत, कंत,  सनेही, इक पल रखिहें नांहि.
तनिक और रुक जाओ तुम, कोऊ न पकिरें बाँहि..

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ईशावास्योपनिषद : काव्यानुवाद -- मृदुल कीर्ति.

ईशावास्योपनिषद : काव्यानुवाद -- मृदुल कीर्ति.



समर्पण


परब्रह्म को
उस आदि शक्ति को,
जिसका संबल अविराम,
मेरी शिराओ में प्रवाहित है।
उसे अपनी अकिंचनता,
अनन्यता
एवं समर्पण
से बड़ी और क्या पूजा दूँ ?


शान्ति मंत्र

पूर्ण मदः पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्ण मुदचत्ये,
पूर्णस्य पूर्ण मादाये पूर्ण मेवावशिश्यते

परिपूर्ण पूर्ण है पूर्ण प्रभु, यह जगत भी प्रभु पूर्ण है,
परिपूर्ण प्रभु की पूर्णता से पूर्ण जग सम्पूर्ण है,
उस पूर्णता से पूर्ण घट कर पूर्णता ही शेष है,
परिपूर्ण प्रभु परमेश की यह पूर्णता ही विशेष है।


 
ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ॥१॥
ईश्वर बसा अणु कण मे है, ब्रह्माण्ड में व नगण्य में,
सृष्टि सकल जड़ चेतना जग, सब समाया अगम्य में।
भोगो जगत निष्काम वृत्ति से, त्यक्तेन प्रवृत्ति हो
यह धन किसी का भी नही, अथ लेश न आसक्ति हो॥ [१]

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥

कर्तव्य कर्मों का आचरण, ईश्वर की पूजा मान कर,
सौ वर्ष जीने की कामना है, ब्रह्म ऐसा विधान कर।
निष्काम निःस्पृह भावना से कर्म हमसे हों यथा,
कर्म बन्धन मुक्ति का, कोई अन्य मग नहीं अन्यथा॥ [२]

असुर्या नाम ते लोका अंधेन तमसा वृताः।
ता स्ते प्रेत्याभिगछन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥

अज्ञान तम आवृत्त विविध बहु लोक योनि जन्म हैं,
जो भोग विषयासक्त, वे बहु जन्म लेते, निम्न हैं।
पुनरापि जनम मरण के दुख से, दुखित वे अतिशय रहें,
जग, जन्म, दुख, दारुण, व्यथा, व्याकुल, व्यथित होकर सहें॥ [३]

अनेजदैकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥

है ब्रह्म एक, अचल व मन की गति से भी गतिमान है,
ज्ञानस्वरूपी, आदि कारण, सृष्टि का है महान है।
स्थित स्वयं गतिमान का, करे अतिक्रमण अद्भुत महे,
अज्ञेय देवों से, वायु वर्षा, ब्रह्म से उदभुत अहे॥ [४]

तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः ॥५॥

चलते भी हैं, प्रभु नहीं भी, प्रभु दूर से भी दूर हैं,
अत्यन्त है सामीप्य लगता, दूर हैं कि सुदूर हैं।
ब्रह्माण्ड के अणु कण में व्यापक, पूर्ण प्रभु परिपूर्ण है,
बाह्य अन्तः जगत में, वही व्याप्त है सम्पूर्ण है॥ [५]

मंत्र 6-10 / ईशावास्य उपनिषद / मृदुल कीर्ति
 
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मनेवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥
प्रतिबिम्ब जो परमात्मा का प्राणियों में कर सके,
फिर वह घृणा संसार में कैसे किसी से कर सके।
सर्वत्र दर्शन परम प्रभु का, फिर सहज संभाव्य है,
अथ स्नेह पथ से परम प्रभु, प्रति प्राणी में प्राप्तव्य है॥ [६]

यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥

सर्वत्र भगवत दृष्टि अथ जब प्राणी को प्राप्तव्य हो,
प्रति प्राणी में एक मात्र, श्री परमात्मा ज्ञातव्य हो।
फिर शोक मोह विकार मन के शेष उसके विशेष हों,
एकमेव हो उसे ब्रह्म दर्शन, शेष दृश्य निःशेष हों॥ [७]

स पर्यगाच्छक्रमकायव्रणम स्नाविर शुद्धमपापविद्धम।
कविर्मनीषी परिभुः स्वयंभूर्याथातत्थ्यतो र्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्यहः समाभ्यः ॥८॥

प्रभु पाच्भौतिक, सूक्ष्म, देह विहीन शुद्ध प्रवीण है,
सर्वज्ञ सर्वोपरि स्वयं भू, सर्व दोष विहीन है।
वही कर्म फल दाता विभाजक, द्रव्य रचनाकार है,
उसको सुलभ, जिसे ब्रह्म प्रति प्रति प्राणी में साकार है॥ [८]

अन्धं तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः ॥९॥

अभ्यर्थना करते अविद्या की, जो वे घन तिमिर में,
अज्ञान में हैं प्रवेश करते, भटकते तम अजिर में।
और वे तो जो कि ज्ञान के, मिथ्याभिमान में मत्त हैं,
हैं निम्न उनसे जो अविद्या, मद के तम उन्मत्त हैं॥ [९]

अन्यदेवाहुर्विद्यया न्यदेवाहुर्विद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१०॥

क्षय क्षणिक, क्षण, क्षय माण, क्षण भंगुर जगत से विरक्ति हो,
यही ज्ञान का है यथार्थ रूप कि, ब्रह्म से बस भक्ति हो।
कर्तव्य कर्म प्रधान, पहल की भावना, निःशेष हो,
यही धीर पुरुषों के वचन, यही कर्म रूप विशेष हो॥ [१०]

मंत्र 11-15 / ईशावास्य उपनिषद / मृदुल कीर्ति
विद्यां चाविद्यां च यस्तद वेदोभयम सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥११॥

जो ज्ञान कर्म के तत्व का, तात्विक व ज्ञाता बन सके,
निष्काम कर्म विधान से, निश्चय मृत्युंजय बन सके।
उसी ज्ञान कर्म विधान पथ से, मिल सके परब्रह्म से,
एक मात्र निश्चय पथ यही, है जो मिलाता अगम्य से॥ [११]

अन्धं तमः प्रविशन्ति ये सम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्या रताः ॥१२॥

जो मरण धर्मा तत्त्व की, अभ्यर्थना करते सदा,
अज्ञान रुपी सघन तम में, प्रवेश करते हैं सर्वदा।
जिसे ब्रह्म अविनाशी की पूजा, भाव का अभिमान है,
वे जन्म मृत्यु के सघन तम में, विचरते हैं विधान है॥ [१२]

अन्यदेवाहुः संभवादन्यदाहुरसंभवात।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद विचचिक्षिरे ॥१३॥

प्रभु दिव्य गुण गण मय विभूषित, सच्चिदानंद घन अहे,
यही ब्रह्म अविनाशी के अर्चन का है रूप महिम महे।
जो देव ब्राह्मण, पितर, आचार्यों की निस्पृह भाव से,
अर्चना करते वे मुक्ति पाते पुण्य प्रभाव से॥ [१३]

संभूतिं च विनाशं च यस्तद वेदोभयम सह।
विनाशेन मृत्युम तीर्त्वा सम्भुत्या मृतमश्नुते ॥१४॥

जिन्हें नित्य अविनाशी प्रभु का मर्म ऋत गंतव्य है,
उन्हे अमृतमय परमेश का अमृत सहज प्राप्तव्य है,
जिन्हें मरण धर्मा देवता का, मर्म ही मंतव्य है,
निष्काम वृति से विमल मन और कर्म ही गंतव्य है॥ [१४]

हिरण्यमयेंन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं।
तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये ॥१५॥

अति दिव्य श्री मुख रश्मियों से, रवि के आवृत है प्रभो,
निष्कंप दर्शन हो हमें, करिये निरावृत, हे विभो !
ब्रह्माण्ड पोषक पुष्टि कर्ता, सच्चिदानंद आपकी,
हम चाहते हैं अकंप छवि, दर्शन कृपा हो आपकी॥ [१५]

मंत्र 16-18 / ईशावास्य उपनिषद / मृदुल कीर्ति

पूषन्नेकर्षे यम् सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन समूह।
कल्याणतमं तत्ते पश्यामि यो सौ पुरुषः सो हमस्मि ॥१६॥

हे! भक्त वत्सल, हे! नियंता, ज्ञानियों के लक्ष्य हो,
इन रश्मियों को समेट लो, दर्शन तनिक प्रत्यक्ष हो।
सौन्दर्य निधि माधुर्य दृष्टि, ध्यान से दर्शन करूं,
जो है आप हूँ मैं भी वही, स्व आपके अर्पण करूँ॥ [१६]

वायुर्निलममृतमथेदम भस्मानतम शरीरम।
ॐ क्रतो स्मर कृत स्मर क्रतो स्मर कृत स्मर ॥१७॥

यह देह शेष हो अग्नि में, वायु में प्राण भी लीन हो,
जब पंचभौतिक तत्व मय, सब इंद्रियां भी विलीन हों,
तब यज्ञ मय आनंद घन, मुझको मेरे कृत कर्मों को,
कर ध्यान देना परम गति, करना प्रभो स्व धर्मों को॥ [१७]

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानी देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्म ज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥१८॥

हे! अग्नि देव हमें प्रभो, शुभ उत्तरायण मार्ग से,
हूँ विनत प्रभु तक ले चलो, हो विज्ञ तुम मम कर्म से।
अति विनय कृतार्थ करो हमें, पुनि पुनि नमन अग्ने महे,
हो प्रयाण, पथ में पाप की, बाधा न कोई भी रहे॥ [१८]

शनिवार, 21 नवंबर 2009

Poems : Dr. Ram Sharma

poems:

Dr, Ram Sharma

POLITICS

Some party is against Hindus,
Some against Mohammdens
Some party is against Hindi
some against English
but no party is against corruption
poverty, illiteracy and terrorism
none opposes darkness
none favours humanism
everywhere is naked play
of money and liquor
how is this politics!

DISATER – DISASTER

On the threshold of 21st century
The moving time
With the speed of hurricane
I don`t have any past
Nor any future
The sun doesn`t rise
In the dark tunnel of my life
The dim eyes
Looking hopes everywhere
All the weather same
All festivals
Equal
Autumn –spring
Same
My only hope
My little son
In my lap

**************

बुधवार, 7 अक्टूबर 2009

जन्म दिवस: डॉ. मृदुल कीर्ति, बहुत-बहुत बधाई...

डॉ. मृदुल कीर्ति को जन्म दिवस की बहुत-बहुत बधाई...

तुम जियो हजारों साल,
साल के दिन हों कई हजार.

भारती की आरती उतारती हैं नित्य प्रति
रचनाओं से जो उनको नमन शत-शत.
कीर्ति मृदुल से सुवासित हैं दस दिशा,
साधना सफल को नमन आज शत-शत.
जनम दिवस की बधाई भेजता 'सलिल'
भाव की मिठाई स्वीकार करें शत-शत.
नेह नरमदा में नहायें आप नित्य प्रति,
चांदनी सदृश उजियारें जग शत-शत.

रविवार, 13 सितंबर 2009

ईशावास्योपनिषद : हिंदी काव्यानुवाद डॉ. मृदुल कीर्ति

आत्मीय पाठकों!

वन्दे मातरम.

सनातन भारतीय मूल्यों के कालजयी वाहक उपनिषदों को संस्कृत में होने के कारण आम जन पढ़ नहीं पाते. विश्वविख्यात विदुषी डॉ. मृदुल कीर्ति जी जिनका साक्षात्कार विगत सप्ताह आपने पढ़ा, आज से हरको क सोमवार को किसी एक उपनिषद का हिंदी काव्यानुवाद का उपहार जनता जनार्दन को समर्पित कर हमें धन्य करेंगी.

दिव्यनर्मदा परिवार डॉ. मृदुल कीर्ति जी का ह्रदय से आभारी है, इस अनुपम और सर्वोपयोगी कार्य के लिए. -- सं.

जन्म स्थान पूरनपुर, जिला पीलीभीत, उत्तर प्रदेश, भारत

कुछ प्रमुख कृतियाँ :

सामवेद का पद्यानुवाद (1988),

ईशादि नौ उपनिषद (1996),

अष्टवक्र गीता - काव्यानुवाद (2006),

ईहातीत क्षण (1991),

श्रीमद भगवद गीता का ब्रजभाषा में अनुवाद (2001)

विविध "ईशादि नौ उपनिषद" - आपने नौ उपनिषदों का हरिगीतिका छंद में हिन्दी अनुवाद किया है।

सम्पर्क: mridulkirti@hotmail.com



ईशावास्योपनिषद : हिंदी काव्यानुवाद डॉ. मृदुल कीर्ति



समर्पण

परब्रह्म को
उस आदि शक्ति को,
जिसका संबल अविराम,
मेरी शिराओ में प्रवाहित है।
उसे अपनी अकिंचनता,
अनन्यता
एवं समर्पण
से बड़ी और क्या पूजा दूँ ?


शान्ति मंत्र

पूर्ण मदः पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्ण मुदचत्ये,
पूर्णस्य पूर्ण मादाये पूर्ण मेवावशिश्यते



परिपूर्ण पूर्ण है पूर्ण प्रभु, यह जगत भी प्रभु पूर्ण है,
परिपूर्ण प्रभु की पूर्णता से पूर्ण जग सम्पूर्ण है,
उस पूर्णता से पूर्ण घट कर पूर्णता ही शेष है,
परिपूर्ण प्रभु परमेश की यह पूर्णता ही विशेष है।




ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ॥१॥

ईश्वर बसा अणु कण मे है, ब्रह्माण्ड में व नगण्य में,
सृष्टि सकल जड़ चेतना जग, सब समाया अगम्य में।
भोगो जगत निष्काम वृत्ति से, त्यक्तेन प्रवृत्ति हो
यह धन किसी का भी नही, अथ लेश न आसक्ति हो॥ [१]



कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥


कर्तव्य कर्मों का आचरण, ईश्वर की पूजा मान कर,
सौ वर्ष जीने की कामना है, ब्रह्म ऐसा विधान कर।
निष्काम निःस्पृह भावना से कर्म हमसे हों यथा,
कर्म बन्धन मुक्ति का, कोई अन्य मग नहीं अन्यथा॥ [२]



असुर्या नाम ते लोका अंधेन तमसा वृताः।
ता स्ते प्रेत्याभिगछन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥


अज्ञान तम आवृत्त विविध बहु लोक योनि जन्म हैं,
जो भोग विषयासक्त, वे बहु जन्म लेते, निम्न हैं।
पुनरापि जनम मरण के दुख से, दुखित वे अतिशय रहें,
जग, जन्म, दुख, दारुण, व्यथा, व्याकुल, व्यथित होकर सहें॥ [३]



अनेजदैकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥


है ब्रह्म एक, अचल व मन की गति से भी गतिमान है,
ज्ञानस्वरूपी, आदि कारण, सृष्टि का है महान है।
स्थित स्वयं गतिमान का, करे अतिक्रमण अद्भुत महे,
अज्ञेय देवों से, वायु वर्षा, ब्रह्म से उदभुत अहे॥ [४]



तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः ॥५॥


चलते भी हैं, प्रभु नहीं भी, प्रभु दूर से भी दूर हैं,
अत्यन्त है सामीप्य लगता, दूर हैं कि सुदूर हैं।
ब्रह्माण्ड के अणु कण में व्यापक, पूर्ण प्रभु परिपूर्ण है,
बाह्य अन्तः जगत में, वही व्याप्त है सम्पूर्ण है॥ [५]

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मनेवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥


प्रतिबिम्ब जो परमात्मा का प्राणियों में कर सके,
फिर वह घृणा संसार में कैसे किसी से कर सके।
सर्वत्र दर्शन परम प्रभु का, फिर सहज संभाव्य है,
अथ स्नेह पथ से परम प्रभु, प्रति प्राणी में प्राप्तव्य है॥ [६]



यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥


सर्वत्र भगवत दृष्टि अथ जब प्राणी को प्राप्तव्य हो,
प्रति प्राणी में एक मात्र, श्री परमात्मा ज्ञातव्य हो।
फिर शोक मोह विकार मन के शेष उसके विशेष हों,
एकमेव हो उसे ब्रह्म दर्शन, शेष दृश्य निःशेष हों॥ [७]



स पर्यगाच्छक्रमकायव्रणम स्नाविर शुद्धमपापविद्धम।
कविर्मनीषी परिभुः स्वयंभूर्याथातत्थ्यतो र्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्यहः समाभ्यः ॥८॥


प्रभु पाच्भौतिक, सूक्ष्म, देह विहीन शुद्ध प्रवीण है,
सर्वज्ञ सर्वोपरि स्वयं भू, सर्व दोष विहीन है।
वही कर्म फल दाता विभाजक, द्रव्य रचनाकार है,
उसको सुलभ, जिसे ब्रह्म प्रति प्रति प्राणी में साकार है॥ [८]



अन्धं तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः ॥९॥


अभ्यर्थना करते अविद्या की, जो वे घन तिमिर में,
अज्ञान में हैं प्रवेश करते, भटकते तम अजिर में।
और वे तो जो कि ज्ञान के, मिथ्याभिमान में मत्त हैं,
हैं निम्न उनसे जो अविद्या, मद के तम उन्मत्त हैं॥ [९]



अन्यदेवाहुर्विद्यया न्यदेवाहुर्विद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१०॥


क्षय क्षणिक, क्षण, क्षय माण, क्षण भंगुर जगत से विरक्ति हो,
यही ज्ञान का है यथार्थ रूप कि, ब्रह्म से बस भक्ति हो।
कर्तव्य कर्म प्रधान, पहल की भावना, निःशेष हो,
यही धीर पुरुषों के वचन, यही कर्म रूप विशेष हो॥ [१०]


विद्यां चाविद्यां च यस्तद वेदोभयम सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥११॥


जो ज्ञान कर्म के तत्व का, तात्विक व ज्ञाता बन सके,
निष्काम कर्म विधान से, निश्चय मृत्युंजय बन सके।
उसी ज्ञान कर्म विधान पथ से, मिल सके परब्रह्म से,
एक मात्र निश्चय पथ यही, है जो मिलाता अगम्य से॥ [११]



अन्धं तमः प्रविशन्ति ये सम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्या रताः ॥१२॥


जो मरण धर्मा तत्त्व की, अभ्यर्थना करते सदा,
अज्ञान रुपी सघन तम में, प्रवेश करते हैं सर्वदा।
जिसे ब्रह्म अविनाशी की पूजा, भाव का अभिमान है,
वे जन्म मृत्यु के सघन तम में, विचरते हैं विधान है॥ [१२]



अन्यदेवाहुः संभवादन्यदाहुरसंभवात।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद विचचिक्षिरे ॥१३॥


प्रभु दिव्य गुण गण मय विभूषित, सच्चिदानंद घन अहे,
यही ब्रह्म अविनाशी के अर्चन का है रूप महिम महे।
जो देव ब्राह्मण, पितर, आचार्यों की निस्पृह भाव से,
अर्चना करते वे मुक्ति पाते पुण्य प्रभाव से॥ [१३]



संभूतिं च विनाशं च यस्तद वेदोभयम सह।
विनाशेन मृत्युम तीर्त्वा सम्भुत्या मृतमश्नुते ॥१४॥


जिन्हें नित्य अविनाशी प्रभु का मर्म ऋत गंतव्य है,
उन्हे अमृतमय परमेश का अमृत सहज प्राप्तव्य है,
जिन्हें मरण धर्मा देवता का, मर्म ही मंतव्य है,
निष्काम वृति से विमल मन और कर्म ही गंतव्य है॥ [१४]



हिरण्यमयेंन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं।
तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये ॥१५॥


अति दिव्य श्री मुख रश्मियों से, रवि के आवृत है प्रभो,
निष्कंप दर्शन हो हमें, करिये निरावृत, हे विभो !
ब्रह्माण्ड पोषक पुष्टि कर्ता, सच्चिदानंद आपकी,
हम चाहते हैं अकंप छवि, दर्शन कृपा हो आपकी॥ [१५]


पूषन्नेकर्षे यम् सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन समूह।
कल्याणतमं तत्ते पश्यामि यो सौ पुरुषः सो हमस्मि ॥१६॥


हे! भक्त वत्सल, हे! नियंता, ज्ञानियों के लक्ष्य हो,
इन रश्मियों को समेट लो, दर्शन तनिक प्रत्यक्ष हो।
सौन्दर्य निधि माधुर्य दृष्टि, ध्यान से दर्शन करूं,
जो है आप हूँ मैं भी वही, स्व आपके अर्पण करूँ॥ [१६]



वायुर्निलममृतमथेदम भस्मानतम शरीरम।
ॐ क्रतो स्मर कृत स्मर क्रतो स्मर कृत स्मर ॥१७॥


यह देह शेष हो अग्नि में, वायु में प्राण भी लीन हो,
जब पंचभौतिक तत्व मय, सब इंद्रियां भी विलीन हों,
तब यज्ञ मय आनंद घन, मुझको मेरे कृत कर्मों को,
कर ध्यान देना परम गति, करना प्रभो स्व धर्मों को॥ [१७]



अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानी देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्म ज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥१८॥


हे! अग्नि देव हमें प्रभो, शुभ उत्तरायण मार्ग से,
हूँ विनत प्रभु तक ले चलो, हो विज्ञ तुम मम कर्म से।
अति विनय कृतार्थ करो हमें, पुनि पुनि नमन अग्ने महे,
हो प्रयाण, पथ में पाप की, बाधा न कोई भी रहे॥ [१८]

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बुधवार, 9 सितंबर 2009

साक्षात्कार: कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी : डॉ.मृदुल कीर्ति प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा

साक्षात्कार

कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी : डॉ.मृदुल कीर्ति

प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा, सौजन्य: प्रभासाक्षी

डॉ. म्रदुल कीर्ति ने शाश्वत ग्रंथों का काव्यानुवाद कर उन्हें घर-घर पहुँचने का कार्य हाथ में लिया है.  उनहोंने अष्टावक्र गीता और उपनिषदों का काव्यानुवाद करने के साथ-साथ भगवद्गीता का ब्रिज  भाषा में अनुवाद भी किया है और इन दिनों पतंजलि योग सूत्र के काव्यानुवाद में लगी हैं. प्रस्तुत हैं उनसे हुई  बातचीत के चुनिन्दा अंश:

प्रश्न: मृदुल जी! अक्सर लोग कविता लिखना शुरू करते हैं तो पद्य के साथ-साथ गद्य की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं पर आप आरंभिक अनुवाद की ओर कैसे प्रवृत्त हुईं और असके मूल प्रेरणास्त्रोत क्या थे?

उत्तर: इस प्रश्न उत्तर का दर्शन बहुत ही गूढ़ और गहरा है. वास्तव में चित्त तो चैतन्य की सत्ता का अंश है पर चित्त का स्वभाव तीनों  तत्वों से बनता है- पहला आपके पूर्व जन्मों के कृत कर्म, दूसरा माता-पिता के अंश परमाणु और तीसरा वातावरण. इन तीनों के समन्वय से ही चित्त की वृत्तियाँ बनती हैं. इस पक्ष में गीता का अनुमोदन- वासुदेव अर्जुन से कहते हैं-शरीरं यद वाप्नोति यच्चप्युतक्रमति  वरः / ग्रहीत्व वैतानी संयति वायुर्गंधा निवाश्यत.'

यानि वायु गंध के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी  जीवात्मा भी जिस शरीर  का त्याग करता है उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें जाता है.  इन भावों की काव्य सुधा भी आपको पिलाती चलूँ तो मुझे अपने काव्य कृत 'भगवदगीता का काव्यानुवाद ब्रिज भाषा में' की अनुवादित पंक्तियाँ  सामयिक लग रही हैं.

यही तत्त्व गहन अति सूक्ष्म है जस वायु में गंध समावति है.
तस देहिन देह के भावन को, नव देह में हु लई जावति है..

कैवल्यपाद में ऋषि पातंजलि ने भी इसी तथ्य का अनुमोदन किया है. अतः, देहिन द्वारा अपने पूर्व जन्म के देहों का भाव पक्ष इस प्रकार सिद्ध हुआ और यही हमारा स्व-भाव है जिसे हम स्वभाव से ही दानी, उदार,  कृपण या कर्कश होन कहते हैं. उसके मूल में यही स्व-भाव होता है.

नीम न मीठो होय, सींच चाहे गुड-घी से.
छोड़ती नांय सुभाव,  जायेंगे चाहे जी से..

अतः, इन तीनों तत्वों का समीकरण ही प्रेरित होने के कारण हैं- मेरे पूर्व जन्म के संस्कार, माता-पिता के अंश परमाणु और वातावरण.

मेरी माँ प्रकाशवती परम विदुषी थीं. उन्हें पूरी गीता कंठस्थ थी. उपनिषद, सत्यार्थ प्रकाश आदि आध्यात्मिक साहित्य हमारे जीवन के अंग थे. तब मुझे कभी-कभी आक्रोश भी होता था कि सब तो शाम को खेलते हैं और मुझे मन या बेमन से ४ से ५  संध्या को स्वाध्याय करना होता था. उस ससमय वे कहती थीं-

तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीझ. 
भूमि परे उपजेंगे ही, उल्टे-सीधे बीज..

मनो-भूमि पर बीज की प्रक्रिया मेरे माता-पिता की देन है. मेरे पिता सिद्ध आयुर्वेदाचार्य थे. वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे और संस्कृत में ही कवितायेँ लिखते थे. कर्ण पर खंड काव्य आज भी रखा है. उन दिनों आयुर्वेद की शिक्षा संस्कृत में ही होती थी- यह ज्ञातव्य हो. मेरे दादाजी ने अपना आधा घर आर्य समाज को तब दान कर दिया था जब स्वामी दयानंद जी पूरनपुर, जिला पीलीभीत में आये थे, जहाँ से आज भी नित्य ओंकार ध्वनित होता है. यज्ञ और संध्या हमारे स्वभाव बन चुके थे.

शादी के बाद इन्हीं परिवेशों की परीक्षा मुझे देनी थी. नितान्त विरोधी नकारात्मक ऊर्जा के दो पक्ष होते हैं या तो आप उनका हिस्सा बन जाएँ अथवा खाद समझकर वहीं से ऊर्जा लेना आरम्भ कर दें. बिना पंखों के उडान भरने का संकल्प भी बहुत ही चुनौतीपूर्ण रहा पर जब आप कोई सत्य थामते हैं तो इन गलियारों में से ही अंतिम सत्य मिलता है. अनुवाद के पक्ष में मैं इसे दिव्य प्रेरणा ही कहूँगी. मुझे तो बस लेखनी थामना भर दिखाई देता था.

प्रश्न: आगामी परिकल्पनाएं क्या थीं? वे कहाँ तक पूरी हुईं?

उत्तर:
वेदों में राजनैतिक व्यवस्था'  इस शीर्षक के अर्न्तगत मेरा शोध कार्य चल ही रहा था. यजुर्वेद की एक मन्त्रणा जिसका सार था कि राजा का यह कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्रीय महत्व के साहित्य और विचारों का सम्मान और प्रोत्साहन करे. यह वाक्य मेरे मन ने पकड़ लिया और रसोई घर से राष्ट्रपति भवन तक की  मेरी मानसिक यात्रा यहीं से आरम्भ हो गयी. मेरे पंख नहीं थे पर सात्विक कल्पनाओं का आकाश मुझे सदा आमंत्रण देता रहता था. सामवेद का अनुवाद मेरे हाथ में था जिसे छपने में बहुत बाधाएं आयीं. दयानंद संस्थान से यह प्रकाशित हुआ. श्री वीरेन्द्र  शर्मा जी जो उस समय राज्य सभा के सदस्य थे, उनके प्रयास से राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरामन  द्वारा राष्ट्रपति भवन में १६ मई १९८८ को इसका विमोचन हुआ. सुबह सभी मुख्य समाचार पत्रों के शीर्षक मुझे आज भी याद हैं- 'वेदों के बिना भारत की कल्पना नहीं', 'असंभव को संभव किया', 'रसोई से राष्ट्रपति भवन तक' आदि-आदि. तब से लेकर आज तक यह यात्रा सतत प्रवाह में है. सामवेद के उपरांत ईशादि ९ उपनिषदों का अनुवाद 'हरिगीतिका' छंद में किया.  ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक,  मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय और श्वेताश्वर- इनका विमोचन महामहिम डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने १७ अप्रैल १९९६ को किया.

तदनंतर भगवद्गीता का काव्यात्मक अनुवाद ब्रिज भाषा में घनाक्षरी छंद में किया जिसका विमोचन श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने कृष्ण जन्माष्टमी पर १२ अगस्त २२०९ को किया. 'ईहातीत क्षण' आध्यत्मिक काव्य संग्रह का विमोचन मोरिशस के राजदूत ने १९९२ में किया.

प्रश्न: संगीत शिक्षा व छंदों के ज्ञान के बिना वेदों-उपनिषदों का अनुवाद आसान नहीं.  

उत्तर: संसार में सब कुछ सिखाने के असंख्य शिक्षण संस्थान हैं पर कहीं भी कविता सिखाने का संस्थान नहीं है क्योंकि काव्य स्वयं ही व्याकरण से संवरा  हुआ होता है. क्या कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, जायसी ने कहीं काव्य कौशल सीखा था? अतः, सिद्ध होता है कि दिव्य काव्य कृपा-साध्य होता है, श्रम-साध्य नहीं. मैं स्वयं कभी ब्रिज के पिछवाडे से भी नहीं निकली जब गीता को ब्रिज भाषा में अनुवादित किया. हाँ, बाद में बांके बिहारी के चरणों में समर्पण करने गयी थी. इसकी एक पुष्टि और है. पातंजल योग शास्त्र को काव्यकृत करने के अनंतर यदि कहीं कुछ रह जाता है तो बहुत प्रयास के बाद भी मैं सटीक शब्द नहीं खोज पाती हूँ. यदि मैंने कहीं लिखा है तो मुझे किस शक्ति की प्रतीक्षा है? इसलिए ये काव्य अमर होते हैं. इनका अमृतत्व इन्हें अमरत्व देता है.

प्रश्न: आपकी भावी योजना क्या है?

उत्तर: हम श्रुति परंपरा के वाहक हैं. वेद सुनकर ही हम तक आये हैं. हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में कर्ण सबसे अधिक प्रवण माने जाते हैं. नाद आकाश का क्षेत्र है और आकाश कि तन्मात्रा ध्वनि है. नभ अनंत है, अतः ध्वनि का पसारा भी अनंत है. भारतीय दर्शन के अनुसार वाणी का कभी नाश भी नहीं होता. अतः, इस दर्शन में अथाह विश्वास रखते हुए मैं इन अनुवादों को सी.डी. में रूपांतरित करने हेतु तत्पर हूँ.  मार्च में अष्टावक्र गीता और पातंजल योग दर्शन का विमोचन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल कर रही हैं. उसी के साथ पातंजल योग दर्शन का काव्यकृत गायन भी विमोचित होगा. पातंजल योग दर्शन की क्लिष्टता से सब परिचित हैं ही. इसी कारण जन सामान्य तक कम जा सका है. अब सरल और सरस रूप में जन-मानस को सुलभ हो सकेगा. अतः, पूरे विश्व में इन दर्शनों कि क्लिष्टता को सरल और सरस काव्य में जनमानस के अंतर में उतार सकूँ यही भावी योजना है. मैं अंतिम सत्य को एक पल भी भूल नहीं पाती जो मुझे जगाये रखता है.

परयो भूमि बिन प्राण के, तुलसी-दल मुख-नांहि.  
प्राण गए निज देस में, अब तन फेंकन जांहि.
को दारा, सुत, कंत,  सनेही, इक पल रखिहें नांहि.
तनिक और रुक जाओ तुम, कोऊ न पकिरें बाँहि..

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