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शुक्रवार, 30 मई 2025

मई ३०, दिंडी छंद, राम अधीर, हिंदी, मनहरण, मारीशस, हाइकु, पलाश, तांका, सावन

सलिल सृजन मई ३० 
*
गीत
बावरा मन
*
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
भुला बैठा आत्म को, परमात्म को भी
मुग्ध हैं नित निरख नवता नवल तन की
बावरा मन जाग सुमिरे लय भजन की
*
तंत्र का बन यंत्र मिथ्या मंत्र पढ़ता
नहीं दिखता इसे जोशीमठ बिखरता
काट जंगल, खोद पर्वत यह ठठाता
ताप बढ़ता धरा का इसको न नाता
हुआ दूषित पवन दूभर श्वास लेना
सूखती नदियां इसे लेना न देना
घिरा भक्तों से न चिंता है सुजन की
बताता जुमला न रख लज्जा वचन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
रंग बदले देख गिरगिट भी लजाता
ढंग बेहद अहंकारी, सच न भाता
ध्वज तिरंगा नहीं, भगवा चाहता यह
देशद्रोही विपक्षी को नित रहा कह
करे मनमानी न सहमति-पथ सुहाता
इसे उससे उसे इससे नित लड़ाता
पीर सुनता ही नहीं मन कृषक मन की
जले मणिपुर पर न चिंता है स्वजन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
आम था हो खास, खासुलखास है अब
कह रहा लिखना नया इतिहास है अब
नष्ट कर सद्भावना, विद्वेष बोता
दूरियों को जन्म दे, अपनत्व खोता
कीर्ति अपनी आप गाते नहिं अघाता
निकल जाए समय तो ठेंगा दिखाता
आग सुलगा बात करता है अमन की
है कहानी हर असहमति के दमन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
अहंकारी विरासत को ही भुलाता
श्रेय औरों का सदा अपना बताता
लगता है हर जगह निज नाम-पत्थर
तीर्थों में देव-दर्शन पर लगा कर
व्यर्थ जन-धन भव्य संसद बना करता
लोकमत पर तंत्र को देता प्रमुखता
गालियाँ दे, चाह करता है नमन की
मरुथलों पर पट्टिका चिपका चमन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
२६-५-२०२३
***
नवगीत
*
१. बेला
*
मगन मन महका
*
प्रणय के अंकुर उगे
फागुन लगे सावन.
पवन संग पल्लव उड़े
है कहाँ मनभावन?
खिलीं कलियाँ मुस्कुरा
भँवरे करें गायन-
सुमन सुरभित श्वेत
वेणी पहन मन चहका
मगन मन महका
*
अगिन सपने, निपट अपने
मोतिया गजरा.
चढ़ गया सिर, चीटियों से
लिपटकर निखरा
श्वेत-श्यामल गंग-जमुना
जल-लहर बिखरा.
लालिमामय उषा-संध्या
सँग 'सलिल' दहका.
मगन मन महका
******
२. खिला मोगरा
*
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
***
३. बाँस के कल्ले
*
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
जुही-जुनहाई मिलीं
झट गले
महका बाग़ रे!
गुँथे चंपा-चमेली
छिप हाय
दहकी आग रे!
कबीरा हँसता ठठा
मत भाग
सच से जाग रे!
बीन भोगों की बजी
मत आज
उछले पाग रे!
जवाकुसुमी सदाव्रत
कर विहँस
जागे भाग रे!
हास के पल्ले तले हँस
दर्द सब मिटता गया
त्रास को चुप झेलता तन-
सुलगता-जलता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
प्रथाएँ बरगद हुईं
हर डाल
बैठे काग रे!
सियासत का नाग
काटे, नेह
उगले झाग रे!
घर-गृहस्थी लग रही
है व्यर्थ
का खटराग रे!
छिप न पाते
चदरिया में
लगे इतने दाग रे!
बिन परिश्रम कब जगे
हैं बोल
किसके भाग रे!
पीर के पल्ले तले पल
दर्द भी हँसता गया
जमीं में जड़ जमाकर
नभ छू 'सलिल' उठता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
***
बालगीत:
बिटिया रानी
*
आँख में आँसू, नाक से पानी
क्यों रूठी है बिटिया रानी?
*
पल में खिलखिल कर हँस देगी
झटपट कह दो 'बहुत सयानी'।
*
ठेंगा दिखा रही भैया को
नटखट याद दिलाती नानी।
*
बारिश में जा छप-छप करती
झबला पहने हरियल-धानी।
*
टप-टप टपक रही हैं बूँदें
भीग गया है छप्पर-छानी।
*
पैर पटककर मचल न जाए
करने दो इसको मनमानी।
***
मुक्तिका
विधान: उन्नीस मात्रिक, महापौराणिक जातीय दिंडी छंद
*
साँस में आस; यारों अधमरी है।
अधर में चाह; बरबस ही धरी है।।
*
हवेली-गाँव को हम; छोड़ आए
कुठरिया शहर में; उन्नति करी है।।
*
हरी थी टौरिया, कर नष्ट दी अब
तपी धरती; हुई तबियत हरी है।।
*
चली खोटी; हुई बाज़ार बाहर
वही मुद्रा हमेशा; जो खरी है।।
*
मँगा लो सब्जियाँ जो चाहता दिल
न खोजो स्वाद; सबमें इक करी है।।
*
न बीबी अप्सरा से मन भरा है
पड़ोसन पूतना लगती परी है।।
***
दोहे
पीछे मुड़ क्या देखना?, देखें आगे राह.
क्या जाने हो किस घड़ी, पूरी मन की चाह.
*
समय गया कब?, क्या पता? हाथ न आया वक्त.
फिर मिल तो दूंगा सबक, तुझे सख्त कमबख्त.
३०-५-२०१८
***

नवगीत:
मत हो राम अधीर.........
*
जीवन के
सुख-दुःख हँस झेलो ,
मत हो राम अधीर.....
*
भाव, अभाव, प्रभाव ज़िन्दगी.
मिलन, विरह, अलगाव जिंदगी.
अनिल अनल धरती नभ पानी-
पा, खो, बिसर स्वभाव ज़िन्दगी.
अवध रहो
या तजो, तुम्हें तो
सहनी होगी पीर.....
*
मत वामन हो, तुम विराट हो.
ढाबे सम्मुख बिछी खाट हो.
संग कबीरा का चाहो तो-
चरखा हो या फटा टाट हो.
सीता हो
या द्रुपद सुता हो
मैला होता चीर.....
*
विधि कुछ भी हो कुछ रच जाओ.
हरि मोहन हो नाच नचाओ.
हर हो तो विष पी मुस्काओ-
नेह नर्मदा नाद गुंजाओ.
जितना बहता
'सलिल' सदा हो
उतना निर्मल नीर.....
***
विश्ववाणी हिंदी और हम
समाचार है कि विश्व की सर्वाधिक प्रभावशाली १२४ भाषाओं में हिंदी का दसवाँ स्थान है। हिंदी की आंचलिक बोलियों और उर्दू को मिलाने पर सूची में ११३ भाषाएँ यह स्थान आठवाँ होगा. भाषाओं की वैश्विक शक्ति का यह अनुमान इन्सीड(INSEAD) के प्रतिष्ठित फेलो डॉ. काई एल. चान (Dr. Kai L. Chan) द्वारा मई, २०१६ में तैयार किए गए पावर लैंग्वेज इन्डेक्स (Power Language Index) पर आधारित है।
इंडेक्स में हिंदी की कई लोकप्रिय बोलियों भोजपुरी, मगही, मारवाड़ी, दक्खिनी, ढूंढाड़ी, हरियाणवी आदि को अलग स्वतंत्र स्थान दिया गया है। वीकिपीडिया और एथनोलॉग द्वारा जारी भाषाओं की सूची में हिंदी को इसकी आंचलिक बोलियों से अलग दिखाने का भारत में भारी विरोध भी हुआ था।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार हिंदी को खंडित और कमतर करके देखे जाने का सिलसिला जानबूझ कर हिंदी को कमजोर दर्शाने का षड़यंत्र है। ऐसी साजिशें हिंदी की सेहत के लिए ठीक नहीं। डॉ. चैन की भाषा- तालिका के अनुसार, हिंदी में सभी आंचलिक बोलियों को शामिल करने पर प्रथम भाषा के रूप में हिंदी बोलनेवालों की संख्या उसे विश्व में दूसरा स्थान दिला सकती है। इंडेक्स में अंग्रेजी प्रथम स्थान पर है, जबकि अंग्रेजी को प्रथम भाषा के रूप में बोलने वालों का संख्या की दृष्टि से चौथा स्थान है।
पावर लैंग्वेज इंडेक्स में भाषाओं की प्रभावशीलता का क्रम निर्धारण भाषाओं के भौगोलिक, आर्थिक, संचार, मीडिया-ज्ञान तथा कूटनीतिक प्रभाव पाँच कारकों को ध्यान में रखकर किया गया है। इनमें भौगोलिक व आर्थिक प्रभावशीलता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। हिंदी से उसकी आंचलिक बोलियों को निकालने पर इसका भौगोलिक क्षेत्र , भाषा को बोलने वाले देश, भूभाग और पर्यटकों के भाषायी व्यवहार के आंकड़ों में निश्चित तौर पर बहुत कमी आएगी। भौगोलिक कारक के आधार पर हिंदी को इस सूची में १० वाँ स्थान दिया गया है। डॉ. चैन के भाषायी गणना सूत्र के अनुसार हिंदी और उसकी सभी बोलियों के भाषा-भाषियों की विशाल संख्या के अनुसार गणना करने पर यह शीर्ष पांच में आ जाएगी ।
इन्डेक्स के दूसरे महत्वपूर्ण कारक आर्थिक प्रभावशीलता के अंतर्गत 'भाषा का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव' का अध्ययन कर हिंदी को १२ वां स्थान दिया गया है।
इस इन्डेक्स को तैयार करने का तीसरा कारक संचार (लोगों की बातचीत में संबंधित भाषा का उपयोग है। इंडेक्स का चौथा कारक मीडिया एवं ज्ञान के क्षेत्र में भाषा का इस्तेमाल है। इसमें भाषा की इंटरनेट पर उपलब्धता, फिल्मों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई, भाषा में अकादमिक शोध ग्रंथों की उपलब्धता के आधार पर गणना की गई है। इसमें हिंदी को द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है।
विश्वविद्यालयों में हिंदी अध्ययन और हिंदी फिल्मों का इसमें महत्वपूर्ण योगदान है। हिंदी की लोकप्रियता में बॉलीवुड की विशेष योगदान है। इंटरनेट पर हिंदी सामग्री का अभी घोर अभाव है। इंटरनेट पर अंग्रेजी सामग्री की उपलब्धता ९५% तथा हिंदी की उपलब्धता मात्र ०.०४% है। इस दिशा में हिंदी को अभी लंबा रास्ता तय करना है। इस इन्डेक्स का पांचवा और अंतिम कारक है- कूटनीतिक स्तर पर भाषा का प्रयोग। इस सूची में कूटनीतिक स्तर पर केवल ९ भाषाओं (अंग्रेजी, मंदारिन, फ्रेच, स्पेनिश, अरबी, रूसी, जर्मन, जापानी और पुर्तगाली) को प्रभावशाली माना गया है। हिंदी सहित बाकी सभी १०४ भाषाओं को कूटनीतिक दृष्टि से एक समान १० वां स्थान यानी अत्यल्प प्रभावी कहा गया है। जब तक वैश्विक संस्थाओं में हिंदी को स्थान नहीं दिया जाएगा तब तक यह कूटनीति की दृष्टि से कम प्रभावशाली भाषाओं में ही रहेगी।
विश्व में अनेक स्तरों पर हिंदी को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है। हिंदी को देश के भीतर हिंदी विरोधी ताकतों से तो नुकसान पहुंचाया ही जा रहा है, देश के बाहर भी तमाम साजिशें रची जा रही हैं। दुनिया भर में अंग्रेजी के अनेक रूप प्रचलित हैं, फिर भी इस इंडेक्स में उन सभी को एक ही रूप मानकर गणना की गई है। परन्तु हिंदी के साथ ऐसा नहीं किया गया है।
भारत में हिंदी की सहायक बोलियां एकजुट न हो अपना स्वतंत्र अस्तित्व तलाश कर हिंदी को कमजोर कर रही हैं. इस फूट का फायदा साम्राज्यवादी भाषा न उठ सकें इसके लिए हिंदी की बोलियों की आपसी लड़ाई को बंद कर सभी देशवासियों को हिंदी की प्रभावशीलता बढ़ाने के लिए निरंतर योगदान देना होगा।
***
एक दूर वार्ता
ला लौरा मौक़ा मारीशस में कार्यरत पत्रकार श्रीमती सविता तिवारी से
- सर नमस्ते
नमस्ते
= नमस्कार.
- आप बाल कविताएं काफी लिखते हैं
बाल साहित्य और बाल मनोविज्ञान पर आपके क्या विचार हैं?
= जितने लम्बे बाल उतना बढ़िया बाल साहित्यकार
-
अच्छा, यह आज के परिदृष्य पर टिप्पणी है
= बाल साहित्य के दो प्रकार है. १. विविध आयु वर्ग के बाल पाठकों के लिए और उनके द्वारा लिखा जा रहा साहित्य २. बाल साहित्य पर हो रहे शोध कार्य.
- मुझे इस विषय पर एक रेडियो कार्यक्रम करना है सोचा आपका विचार जान लेती.
= बाल साहित्य के अंतर्गत शिशु साहित्य, बाल साहित्य तथा किशोर साहित्य का वर्गीकरण आयु के आधार पर और ग्रामीण तथा नगरीय बाल साहित्य का वर्गीकरण परिवेश के आधार पर किया जा सकता है.
आप प्रश्न करें तो मैं उत्तर दूँ या अपनी ओर से ही कहूँ?
- बाल मन को बास साहित्य के जरिए कैसे प्रभावित किया जा सकता है?
= बाल मन पर प्रभाव छोड़ने के लिए रचनाकार को स्वयं बच्चे के स्तर पर उतार कर सोचना और लिखना होगा. जब वह बच्चा थी तो क्या प्रश्न उठते थे उसके मन में? उसका शब्द भण्डार कितना था? तदनुसार शब्द चयन कर कठिन बात को सरल से सरल रूप में रोचक बनाकर प्रस्तुत करना होगा.
बच्चे पर उसके स्वजनों के बाद सर्वाधिक प्रभाव साहित्य का ही होता है. खेद है कि आजकल साहित्य का स्थान दूरदर्शन और चलभाषिक एप ले रहे हैं.
- मॉरिशस जैस छोटेे देश में जहां हिदी बोलने का ही संकट है वहां इसे बच्चों में बढ़ावा देने के क्या उपाय हैं?
= जो सबका हित कर सके, कहें उसे साहित्य
तम पी जग उजियार दे, जो वह है आदित्य.
घर में नित्य बोली जा रही भाषा ही बच्चे की मातृभाषा होती है. माता, पिता, भाई, बहिनों, नौकरों तथा अतिथियों द्वारा बोले जाते शब्द और उनका प्रभाव बालम के मस्तिष्क पर अंकित होकर उसकी भाषा बनाते हैं. भारत जैस एदेश में जहाँ अंग्रेजी बोलना सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान है वहां बच्चे पर नर्सरी राइम के रूप में अपरिचित भाषा थोपा जाना उस पर मानसिक अत्याचार है.
मारीशस क्या भारत में भी यह संकट है. जैसे-जैसे अभिभावक मानसिक गुलामी और अंग्रेजों को श्रेष्ठ मानने की मानसिकता से मुक्त होंगे वैसे-वैसे बच्चे को उसकी वास्तविक मातृभाषा मिलती जाएगी.
इसके लिए एक जरूरत यह भी है कि मातृभाषा में रोजगार और व्यवसाय देने की सामर्थ्य हो. अभिभावक अंग्रेजी इसलिए सिखाता है कि उसके माध्यम से आजीविका के बेहतर अवसर मिल सकते हैं.
- सर! बहुत धन्यवाद आपके समय के लिए. आप सुनिएगा मेरा कार्यक्रम. मैं लिंक भेजुंगी आपको 3 june ko aayga.
अवश्य. शुभकामनाएँ. प्रणाम.
= सदा प्रसन्न रहें. भारत आयें तो मेरे पास जबलपुर भी पधारें.
वार्तालाप संवाद समाप्त |
३०-५-२०१७
***
पुस्तक चर्चा-
'सच कहूँ तो' नवगीतों की अनूठी भाव भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- सच कहूँ तो, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२ , चलभाष ९८३९८ २५०६२]
*
''इस संग्रह में कवि श्री निर्मल शुक्ल ने साक्षी भाव से अपनी अनुभूतियों के रंगपट्ट पर विविधावर्णी चित्र उकेरे हैं। संकलन का शीर्षक 'सच कहूँ तो' भी उसी साक्षी भाव को व्याख्यायित करता है। अधिकांश गीतों में सच कहने की यह भंगिमा सुधि पाठक को अपने परिवेश की दरस-परस करने को बाध्य करती है। वस्तुतः यह संग्रह फिलवक्त की विसंगतियों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वैयक्तिक राग-विरागों, संवेदनाओं से ये गीत रू-ब-रू नहीं हुए हैं। ... कहन एवं बिंबों की आकृति की दृष्टि से भी ये गीत अलग किसिम के हैं। '' नवगीतों के शिखर हस्ताक्षर कुमार रवींद्र जी ने विवेच्य कृति पर अभिमत में कृतिकार निर्मल शुक्ला जी को आस्तिक आस्था से प्रेरित कवि ठीक ही कहा है।
'सच कहूँ तो' के नवगीतों में दैनन्दिन जीवन के सहज उच्छ्वास से नि:सृत तथा मानवीय संवेदनाओं से सम्पृक्त मनोभावों की रागात्मक अन्विति महसूसी जा सकती है। इन गीतों में आम जन के सामाजिक परिवेश में होते व्याघातों के साथ करवट बदलती, असहजता के विरोध में स्वर गुँजाती परिवर्तनकामी वैचारिक चेतना यात्रा-तत्र अभिव्यक्त हुई है। संवेदन, चिंतन और अभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने 'सच कहूँ तो' को नवगीत-संकलनों में विशिष्ट और अन्यों से अलग स्थान का अधिकारी बनाया है। सामान्यत: रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों की सघनता और गहराई उसकी अंतश्चेतना में अन्तर्निहित तथा रचना में अभिव्यक्त होती रहती है। वैयक्तिक अनुभूति सार्वजनीन होकर रचना को जन सामान्य की आवाज़ बना देती है। तब कवि का कथ्य पाठक के मन की बात बन जाता है। निर्मल शुक्ल जी के गीतकार का वैशिष्ट्य यही है कि उनकी अभिव्यक्ति उनकी होकर भी सबकी प्रतीत होती है।
सच कहूँ तो / पढ़ चुके हैं
हम किताबों में लिखी / सारी इबारत / अब गुरु जी
शब्द अब तक / आपने जितने पढ़ाये / याद हैं सब
स्मृति में अब भी / तरोताज़ा / पृष्ठ के संवाद हैं अब
सच कहूँ तो / छोड़ आए / हम अँधेरों की बहुत / पीछे इमारत / अब गुरु जी
व्यक्ति और समाज के स्वर में जब आत्मविश्वास भर जाता है तो अँधेरों का पीछे छूटना ही उजाले की अगवानी को संकेतित करता है। नवगीत को नैराश्य, वैषम्य और दर्द का पर्याय बतानेवाले समीक्षकों को आशावादिता का यह स्वर पचे न पचे पाठक में नवचेतना का संचार करने में समर्थ है। राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान विश्ववाणी हिंदी को लेकर शासन-प्रशासन कितने भी उदासीन और कर्तव्यविमुख क्यों न हों निर्मल जी के लिये हिंदी राष्ट्रीयता का पर्याय है-
हिन्द की पहचान हिंदी / शब्दिता की शान हिंदी
सच कहूँ तो / कृत्य की परिकल्पना, अभिव्यंजनाएँ
और उनके बीच भूषित / भाल का है गर्व हिंदी
रूप हिंदी, भूप हिंदी / हर नया प्रारूप हिंदी
सच कहूँ तो / धरणि से / आकाश तक अवधारणाएँ
और उनके बीच / संस्कृत / चेतना गन्धर्व हिंदी
'स्व' से 'सर्व' तक आनुभूतिक सृजन सेतु बनते-बनाते निर्मल जी के नवगीत 'व्हिसिल ब्लोअर' की भूमिका भी निभाते हैं। 'हो सके तो' शीर्षक गीत में भ्रूण-हत्या के विरुद्ध अपनी बात पूरी दमदारी से सामने आती है-
सच कहूँ तो / हर किसी के दर्द को
अपना समझना / हो सके तो
एक पल को मान लेना / हाथ में सीना तुम्हारा
दर्द से छलनी हुआ हो / सांस ले-न-ले दुबारा
सच कहूँ तो / उन क्षणों में, एक छोटी / चूक से
बचना-सम्हलना / हो सके तो
एक पल को, कोख की / हारी-अजन्मी चीख सुनना
और बदनीयत / हवा के / हर कदम पर आँख रखना
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़े जाने की संभावनाओं, नदी-तालाबों के विनष्ट होने की आशंकाओं को देखते हुए 'नदी से जन्मती हैं' शीर्षक नवगीत में 'नदी से जन्मती है / सच कहूँ तो / आज संस्कृतियाँ', 'प्रवाहों में समाई / सच कहूँ तो / आज विकृतियाँ', तरंगों में बसी हैं / सच कहूँ तो / स्वस्ति आकृतियाँ, सिरा लें, आज चलकर / सच कहूँ तो / हर विसंगतियाँ ' रचनात्मकता का आव्हान है।
निर्मल जी के नवगीत सतयजित राय के चलचित्रों की तरह विसंगतियों और विडंबनाओं की प्रदर्शनी लगाकर आम जन की बेबसी की नीलामी नहीं करते अपितु प्रतिरोध का रचनात्मक स्वर गुँजाते हैं-
चिनगियों से आग / फिर जल कर रहेगी देख लेना / सच कहूँ तो
बादलों की, परत / फिर गल कर रहेगी देख लेना / सच कहूँ तो
तालियाँ तो आज / भी खुलकर बजेंगी देख लेना / सच कहूँ तो
निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं गाते हैं। इसलिए उनके नवगीतों में अंत्यानुप्रास तुकबन्दी मात्र नहीं करते, विचारों के बीच सेतु बनाते हैं। उर्दू ग़ज़ल में लम्बे - लम्बे रदीफ़ रखने की परंपरा घट चली है किन्तु निर्मल जी नवगीत के अंतरों में इसे अभिनव साज सज्जा के साथ प्रयोग करते हैं। जल तरंगों के बीच बहते कमल पुष्प की तरह 'फिर नया क्या सिलसिला होगा, देख लेना सच कहूँ तो, अब गुरु जी, फिर नया क्या सिलसिला होगा, आना होगा आज कृष्ण को, यही समय है, धरें कहाँ तक धीर, महानगर है' आदि पंक्त्यांश सरसता में वृद्धि करते हैं।
'सच कहूँ तो' इस संग्रह का शीर्षक मात्र नहीं है अपितु 'तकियाकलाम' की तरह हर नवगीत की जुबान पर बैठा अभिव्यक्ति का वह अंश है तो कथ्य को अधिक ताकत से पाठक - श्रोता तक इस तरह पहुंचाता है की बारम्बार आने के बाद भी बाह्य आवरण की तरह ओढ़ा हुआ नहीं अपितु अंतर्मन की तरह अभिन्न प्रतीत होता है। कहीं - कहीं तो समुच ानवगीत इस 'सच कहूं के इर्द - गिर्द घूमता है। यह अभिनव शैल्पिक प्रयोग कृति की पठनीयता औेर नवगीतों की मननीयत में वृद्धि करता है।
हिंदी साहित्य के महाकवियों और आधुनिक कवियों के सन्दर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है -
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास
अब के कवि खद्योत सैम, जँह - तँह करत प्रकास
निर्मल जी इस से सहमत होते हैं, किन्तु शर्मिंदा नहीं होते। वे जुगनू होने में भी अर्थवत्ता तलाश लेते हैं-
हम, संवेदन के जुगनू हैं / हम से / तम भी थर्राता है
पारिस्थितिक विडंबनाओं को उद्घाटित करते नवगीतों में दीनता, विवशता या बेबसी नहीं जूझने और परिवर्तन करने का संकल्प पाठक को दिशा देता है-
तंत्र राज में नाव पुरानी उतराती है
सच कह दूँ तो रोज सभ्यता आँख चुराती है
ऐसे में तो, जी करता है / सारी काया उलट-पुलट दें
दुत्कारें, इस अंधे युग को / मंत्र फूँक, सब पत्थर कर दें
इन नवगीतों का वैशिष्ट्य दे-पीड़ित को हौसला देने और सम्बल बनने का परोक्ष सन्देश अन्तर्निहित कर पाना है। यह सन्देश कहीं भी प्रवचन, उपदेश या भाषण की तरह नहीं है अपितु मीठी गोली में छिपी कड़वी दवाई की तरह ग्राह्य हो गया है-
इसी समय यदि / समय साधने का हम कोई
मंतर पढ़ लें / तो, आगे अच्छे दिन होंगे / यही समय है
सच कह दूँ तो / फिर जीने के / और अनूठे अवसर होंगे
आशाओं से हुआ प्रफुल्लित / जगर-मगर घर में उजियारा
सुख का सागर / समय बाँचकर / समां गया आँगन में सारा
उत्सव होंगे, पर्व मनेगा / रंग-बिरंगे अम्बर होंगे
सच कह दूँ तो / फिर जीने के वासन्ती / संवत्सर हौंगे
संवेदना को वेदना न बनाकर, वेदना के परिहार का हथियार बनाने का कौशल नवगीतों को एक नया तेवर दे सका है। वैषम्य को ही सुधार और परिष्कार का आधार बनाते हुए ये नवगीत निर्माल्य की तरह ग्रहणीय हैं। महाप्राण निराला पर रचा गया नवगीत और उसमें निराला जी की कृतियों के नामों का समावेश निर्मल जी की अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी है। नए नवगीतकारों के लिये यह कृति अनुकरणीय है। इस कृति के नवगीतों में कहीं भी आरोपित क्लिष्टता नहीं है, पांडित्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं है। सरलता, सरसता और सार्गर्भितता की इस त्रिवेणी में बार-बार अवगाहन करने का मन होता ही इन नवगीतों और नवगीतकार की सफलता है।
***
एक रचना
शुष्क मौसम, संदेशे मधुर रस भरे
*
शुष्क मौसम, संदेशे मधुर रस भरे, नेटदूतित मिले मन मगन हो गया
बैठ अमराई में कूक सुन कोकिली, दशहरी आम कच्चा भी मन भा गया
कार्बाइड पके नाम थुकवा रहे, रूप - रस - गंध नकली मगर बिक रहे
तर गये पा तरावट शिकंजी को पी, घोल पाती पुदीना मजा आ गया
काट अमिया, लगा नोन सेंधा - मिरच, चाट-चटखारकर आँख झट मुँद गयी
लीचियों की कसम, फालसे की शपथ, बेल शर्बत लखनवी प्रथम आ गया
जय अमरनाथ की बोल झट पी गये, द्वार निर्मल का फिर खटखटाने लगे
रूह अफ्जा की जयकार कर तृप्ति पा, मधुकरी गीत बिसरा न, याद आ गया
श्याम श्रीवास्तवी मूँछ मिल खीर से, खोजती रह गयी कब सुजाता मिले?
शांत तरबूज पा हो गया मन मुदित, ओज घुल काव्य में हो मनोजी गया
आजा माज़ा मिटा द्वैत अद्वैत वर, रोहिताश्वी न सत्कार तू छोड़ना
मोड़ना न मुख देख खरबूज को, क्या हुआ पानी मुख में अगर आ गया
लाड़ लस्सी से कर आड़ हो या न हो, जूस पी ले मुसम्बी नहीं चूकना
भेंटने का न अवसर कोई चूकना, लू - लपट को पटकनी दे पन्हा गया
बोई हरदोई में मित्रता की कलम, लखनऊ में फलूदा से यारी हुई
आ सके फिर चलाचल 'सलिल' इसलिए, नर्मदा तीर तेरा नगर आ गया
***
[लखनऊ प्रवास- अमरनाथ- कवि, समीक्षक, निर्मल- निर्मल शुक्ल नवगीतकार, संपादक उत्तरायण, मधुकरी मधुकर अष्ठाना नवगीतकार, श्याम श्रीवास्तव कवि, शांत- देवकीनंदन 'शांत' कवि, मनोजी- मनोज श्रीवास्तव कवि, रोहिताश्वी- डॉ. रोहिताश्व अष्ठाना होंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोधकर्ता, बाल साहित्यकार हरदोई]
३०-५-२०१६
***
मुक्तक:
तेरी नजरों ने बरबस जो देखा मुझे, दिल में जाकर न खंजर वो फिर आ सका
मेरी नज़रों ने सीरत जो देखी तेरी, दिल को चेहरा न कोई कभी भा सका
तेरी सुनकर सदा मौन है हर दिशा, तेरी दिलकश अदा से सवेरा हुआ
तेरे नखरों से पुरनम हुई है हवा, तेरे सुर में न कोइ कभी गा सका
*
***
दोहा सलिला:
*
अपने दिन फुटपाथ हैं, प्लेटफोर्म हैं रात
तुम बिन होता ही नहीं, उजला 'सलिल' प्रभात
*
भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान
*
धूप जलाती है बदन, धूल रही हैं ढांक
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते निर्मल-पाक
*
जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
*
अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब
***
द्विपदी सलिला :
*
कंकर-कंकर में शंकर हैं, शिला-शिला में शालिग्राम
नीर-क्षीर में उमा-रमा हैं, कर-सर मिलकर हुए प्रणाम
*
दूल्हा है कौन इतना ही अब तक पता नहीं
यादों की है हसीन सी बारात दोस्ती
*
जिसकी आँखें भर आती हैं उसके मन में गंगा जल है
नेह-नर्मदा वहीं प्रवाहित पोर-पोर उसका शतदल है
*
***
हाइकु का रंग पलाश के संग
*
करे तलाश
अरमानों की लाश
लाल पलाश
*
है लाल-पीला
देखकर अन्याय
टेसू निरुपाय
*
दीन न हीन
हमेशा रहे तीन
ढाक के पात
*
आप ही आप
सहे दुःख-संताप
टेसू निष्पाप
*
देख दुर्दशा
पलाश हुआ लाल
प्रिय नदी की
*
उषा की प्रीत
पलाश में बिम्बित
संध्या का रंग
*
फूल त्रिनेत्र
त्रिदल से पूजित
ढाक शिवाला
*
पर्ण है पन्त
तना दिखे प्रसाद
पुष्प निराला
*
मनुजता को
पत्र-पुष्प अर्पित
करे पलाश
*
होली का रंग
पंगत की पत्तल
हाथ का दौना
*
पहरेदार
विरागी तपस्वी या
प्रेमी उदास
३०-५-२०१५
***
चौपाल-चर्चा:
भारत में सावन में महिलाओं के मायके जाने की रीत है. क्यों न गृह स्वामिनी के जिला बदर के स्थान पर दामाद के ससुराल जाने की रीत हो. इसके अनेक फायदे हो सकते हैं. आप क्या सोचते हैं?
१. बीबी की तानाशाही से त्रस्त मानुष सेवक के स्थान पर अतिथि होने का सुख पा सकेगा याने नवाज़ शरीफ भारत में।
२. आधी घरवाली और सरहज के प्रभाव से बचने के लिये बेचारे पत्नी पीड़ित पति को घर पर भी कुछ संरक्षण मिलेगा याने बीजेपी के सहयोगी दलों को भी मंत्री पद।
३. निठल्ले और निखट्टू की विशेषणों से नवाज़े गये साथी की वास्तविक कीमत पता चल सकेगी याने जसोदा बेन प्रधान मंत्री निवास में।
४. खरीददारी के बाद थैले खुद उठाकर लाने से स्वस्थ्य होगी तो डॉक्टर और दवाई का खर्च आधा होने से वैसी ही ख़ुशी मिलेगी जैसी आडवाणी जो मोदी द्वारा चरण स्पर्श से होती है।
५. पति के न लौटने तक पली आशंका लौटते ही समाप्त हो जाएगी तो दांपत्य में माधुर्य बढ़ेगा याने सरकार और संघ में तालमेल।
६. जीजू की जेब काटकर साली तो खुश होगी ही, जेब कटाकर जीजू प्रसन्न नज़र आयेंगे अर्थात लूटनेवाले और लूटनेवाले दोनों खुश, और क्या चाहिए? इससे अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव बढ़ेगा ही याने घर-घर सुषमा स्वराज्य.
७. मौज कर लौटे पति की परेड कराने के लिए पत्नी को योजना बनाने का मौका याने संसाधन मंत्रालय मिल सकेगा. कौन महिला स्मृति ईरानी सा महत्त्व नहीं चाहेगी?
कहिए, क्या राय है?
३०-५-२०१४
***
तांका: एक परिचय
*
पंचपदी लालित्यमय, तांका शाब्दिक छन्द,
बंधन गण पदभार तुक, बिन रचिए स्वच्छंद।
प्रथम तीसरी पंक्तियाँ, पंचशब्दी मकरंद।।
शेष सात शब्दी रखें, गति-यति रहे न मंद।
जापानी हिंदी जुड़ें, दें पायें आनंद।।
*
जापान की प्राचीनतम क्लासिकल काव्य-विधा तांका ५ पंक्तियों की कविता है जिसमे पहली और तीसरी पंक्ति में पाँच शब्द तथा शेष पंक्तियों में सात शब्द होते हैं! इसके विषय प्रकृति, मौसम, प्रेम, उदासी आदि होते हैं!
उदाहरण :
निरंतर निनादित धवल धार अनुपम,
निरखो न परखो न सँकुचो न ठिठको
कहती टिटहरी प्रकृति पुत्र! आओ
झिझको न, टेरो मन-मीत को तुम
छप-छप-छपाक, नीर नद में नहाओ
*
बन्धन भुलाकर करो मुक्त खुदको
अंजुरी में जल भर, रवि को चढ़ाओ
मस्तक झुकाओ, भजन भी सुनाओ
माथे पे चन्दन, जिव्हा पर हरि-गुण
दिखा भोग प्रभु को, भर पेट खाओ
३०-५-२०१३
***
मुक्तिका :
भंग हुआ हर सपना
*
भंग हुआ हर सपना,
टूट गया हर नपना.
माया जाल में उलझे
भूले माला जपना..
तम में साथ न कोई
किसे कहें हम अपना?
पिंगल-छंद न जाने
किन्तु चाहते छपना..
बर्तन बनने खातिर
पड़ता माटी को तपना..
***
घनाक्षरी / मनहरण कवित्त
... झटपट करिए
*
लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो,
काम जो भी करना हो, झटपट करिए.
तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं,
मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए.
आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें,
खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए-
गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें,
'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये.
छंद विधान: वर्णिक छंद, आठ चरण,
८-८-८-७ पर यति, चरणान्त लघु-गुरु.
३०-५-२०११
***
मुक्तिका
.....डरे रहे.
*
हम डरे-डरे रहे.
तुम हरे-भरे रहे.
दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.
हौसलों के वृक्ष पा
जल मगन हरे रहे.
रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.
नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.
निज हितों में लीन जो
लें समझ मरे रहे.
सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.
***
: मुक्तिका :
मन का इकतारा
*
मन का इकतारा तुम ही तुम कहता है.
जैसे नेह नर्मदा में जल बहता है..
*
सब में रब या रब में सब को जब देखा.
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है..
*
जिसको कोई गैर न कोई अपना है.
हँस सबको वह, उसको सब जग सहता है..
*
मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है..
*
जिसने जोड़ा वह तो खाली हाथ गया.
जिसने बाँटा वह ही थोड़ा गहता है..
*
जिसको पाया सुख की करते पहुनाई.
उसको देखा बैठ अकेले दहता है..
*
सच का सूत न समय कात पाया लेकिन
सच की चादर 'सलिल' कबीरा तहता है.
***

मंगलवार, 30 मई 2023

तांका छंद, मनहरण घनाक्षरी, कवित्त, मुक्तिका, दिंडी छंद, हाइकु, पलाश, दूर वार्ता,

गीत
बावरा मन
*
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
भुला बैठा आत्म को, परमात्म को भी
मुग्ध हैं नित निरख नवता नवल तन की
बावरा मन जाग सुमिरे लय भजन की
*
तंत्र का बन यंत्र मिथ्या मंत्र पढ़ता
नहीं दिखता इसे जोशीमठ बिखरता
काट जंगल, खोद पर्वत यह ठठाता
ताप बढ़ता धरा का इसको न नाता
हुआ दूषित पवन दूभर श्वास लेना
सूखती नदियां इसे लेना न देना
घिरा भक्तों से न चिंता है सुजन की
बताता जुमला न रख लज्जा वचन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
रंग बदले देख गिरगिट भी लजाता
ढंग बेहद अहंकारी, सच न भाता
ध्वज तिरंगा नहीं, भगवा चाहता यह
देशद्रोही विपक्षी को नित रहा कह
करे मनमानी न सहमति-पथ सुहाता
इसे उससे उसे इससे नित लड़ाता
पीर सुनता ही नहीं मन कृषक मन की
जले मणिपुर पर न चिंता है स्वजन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
आम था हो खास, खासुलखास है अब
कह रहा लिखना नया इतिहास है अब
नष्ट कर सद्भावना, विद्वेष बोता
दूरियों को जन्म दे, अपनत्व खोता
कीर्ति अपनी आप गाते नहिं अघाता
निकल जाए समय तो ठेंगा दिखाता
आग सुलगा बात करता है अमन की
है कहानी हर असहमति के दमन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
अहंकारी विरासत को ही भुलाता
श्रेय औरों का सदा अपना बताता
लगता है हर जगह निज नाम-पत्थर
तीर्थों में देव-दर्शन पर लगा कर
व्यर्थ जन-धन भव्य संसद बना करता
लोकमत पर तंत्र को देता प्रमुखता
गालियाँ दे, चाह करता है नमन की
मरुथलों पर पट्टिका चिपका चमन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
२६-५-२०२३
***
नवगीत
*
१. बेला
*
मगन मन महका
*
प्रणय के अंकुर उगे
फागुन लगे सावन.
पवन संग पल्लव उड़े
है कहाँ मनभावन?
खिलीं कलियाँ मुस्कुरा
भँवरे करें गायन-
सुमन सुरभित श्वेत
वेणी पहन मन चहका
मगन मन महका
*
अगिन सपने, निपट अपने
मोतिया गजरा.
चढ़ गया सिर, चीटियों से
लिपटकर निखरा
श्वेत-श्यामल गंग-जमुना
जल-लहर बिखरा.
लालिमामय उषा-संध्या
सँग 'सलिल' दहका.
मगन मन महका
******
२. खिला मोगरा
*
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
***
३. बाँस के कल्ले
*
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
जुही-जुनहाई मिलीं
झट गले
महका बाग़ रे!
गुँथे चंपा-चमेली
छिप हाय
दहकी आग रे!
कबीरा हँसता ठठा
मत भाग
सच से जाग रे!
बीन भोगों की बजी
मत आज
उछले पाग रे!
जवाकुसुमी सदाव्रत
कर विहँस
जागे भाग रे!
हास के पल्ले तले हँस
दर्द सब मिटता गया
त्रास को चुप झेलता तन-
सुलगता-जलता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
प्रथाएँ बरगद हुईं
हर डाल
बैठे काग रे!
सियासत का नाग
काटे, नेह
उगले झाग रे!
घर-गृहस्थी लग रही
है व्यर्थ
का खटराग रे!
छिप न पाते
चदरिया में
लगे इतने दाग रे!
बिन परिश्रम कब जगे
हैं बोल
किसके भाग रे!
पीर के पल्ले तले पल
दर्द भी हँसता गया
जमीं में जड़ जमाकर
नभ छू 'सलिल' उठता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
बालगीत:
बिटिया रानी
*
आँख में आँसू, नाक से पानी
क्यों रूठी है बिटिया रानी?
*
पल में खिलखिल कर हँस देगी
झटपट कह दो 'बहुत सयानी'।
*
ठेंगा दिखा रही भैया को
नटखट याद दिलाती नानी।
*
बारिश में जा छप-छप करती
झबला पहने हरियल-धानी।
*
टप-टप टपक रही हैं बूँदें
भीग गया है छप्पर-छानी।
*
पैर पटककर मचल न जाए
करने दो इसको मनमानी।
***
***
मुक्तिका
विधान: उन्नीस मात्रिक, महापौराणिक जातीय दिंडी छंद
*
साँस में आस; यारों अधमरी है।
अधर में चाह; बरबस ही धरी है।।
*
हवेली-गाँव को हम; छोड़ आए
कुठरिया शहर में; उन्नति करी है।।
*
हरी थी टौरिया, कर नष्ट दी अब
तपी धरती; हुई तबियत हरी है।।
*
चली खोटी; हुई बाज़ार बाहर
वही मुद्रा हमेशा; जो खरी है।।
*
मँगा लो सब्जियाँ जो चाहता दिल
न खोजो स्वाद; सबमें इक करी है।।
*
न बीबी अप्सरा से मन भरा है
पड़ोसन पूतना लगती परी है।।
***
दोहे
पीछे मुड़ क्या देखना?, देखें आगे राह.
क्या जाने हो किस घड़ी, पूरी मन की चाह.
*
समय गया कब?, क्या पता? हाथ न आया वक्त.
फिर मिल तो दूंगा सबक, तुझे सख्त कमबख्त.
३०-५-२०१८
***
विश्ववाणी हिंदी और हम
समाचार है कि विश्व की सर्वाधिक प्रभावशाली १२४ भाषाओं में हिंदी का दसवाँ स्थान है। हिंदी की आंचलिक बोलियों और उर्दू को मिलाने पर सूची में ११३ भाषाएँ यह स्थान आठवाँ होगा. भाषाओं की वैश्विक शक्ति का यह अनुमान इन्सीड(INSEAD) के प्रतिष्ठित फेलो डॉ. काई एल. चान (Dr. Kai L. Chan) द्वारा मई, २०१६ में तैयार किए गए पावर लैंग्वेज इन्डेक्स (Power Language Index) पर आधारित है।
इंडेक्स में हिंदी की कई लोकप्रिय बोलियों भोजपुरी, मगही, मारवाड़ी, दक्खिनी, ढूंढाड़ी, हरियाणवी आदि को अलग स्वतंत्र स्थान दिया गया है। वीकिपीडिया और एथनोलॉग द्वारा जारी भाषाओं की सूची में हिंदी को इसकी आंचलिक बोलियों से अलग दिखाने का भारत में भारी विरोध भी हुआ था।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार हिंदी को खंडित और कमतर करके देखे जाने का सिलसिला जानबूझ कर हिंदी को कमजोर दर्शाने का षड़यंत्र है। ऐसी साजिशें हिंदी की सेहत के लिए ठीक नहीं। डॉ. चैन की भाषा- तालिका के अनुसार, हिंदी में सभी आंचलिक बोलियों को शामिल करने पर प्रथम भाषा के रूप में हिंदी बोलनेवालों की संख्या उसे विश्व में दूसरा स्थान दिला सकती है। इंडेक्स में अंग्रेजी प्रथम स्थान पर है, जबकि अंग्रेजी को प्रथम भाषा के रूप में बोलने वालों का संख्या की दृष्टि से चौथा स्थान है।
पावर लैंग्वेज इंडेक्स में भाषाओं की प्रभावशीलता का क्रम निर्धारण भाषाओं के भौगोलिक, आर्थिक, संचार, मीडिया-ज्ञान तथा कूटनीतिक प्रभाव पाँच कारकों को ध्यान में रखकर किया गया है। इनमें भौगोलिक व आर्थिक प्रभावशीलता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। हिंदी से उसकी आंचलिक बोलियों को निकालने पर इसका भौगोलिक क्षेत्र , भाषा को बोलने वाले देश, भूभाग और पर्यटकों के भाषायी व्यवहार के आंकड़ों में निश्चित तौर पर बहुत कमी आएगी। भौगोलिक कारक के आधार पर हिंदी को इस सूची में १० वाँ स्थान दिया गया है। डॉ. चैन के भाषायी गणना सूत्र के अनुसार हिंदी और उसकी सभी बोलियों के भाषा-भाषियों की विशाल संख्या के अनुसार गणना करने पर यह शीर्ष पांच में आ जाएगी ।
इन्डेक्स के दूसरे महत्वपूर्ण कारक आर्थिक प्रभावशीलता के अंतर्गत 'भाषा का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव' का अध्ययन कर हिंदी को १२ वां स्थान दिया गया है।
इस इन्डेक्स को तैयार करने का तीसरा कारक संचार (लोगों की बातचीत में संबंधित भाषा का उपयोग है। इंडेक्स का चौथा कारक मीडिया एवं ज्ञान के क्षेत्र में भाषा का इस्तेमाल है। इसमें भाषा की इंटरनेट पर उपलब्धता, फिल्मों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई, भाषा में अकादमिक शोध ग्रंथों की उपलब्धता के आधार पर गणना की गई है। इसमें हिंदी को द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है।
विश्वविद्यालयों में हिंदी अध्ययन और हिंदी फिल्मों का इसमें महत्वपूर्ण योगदान है। हिंदी की लोकप्रियता में बॉलीवुड की विशेष योगदान है। इंटरनेट पर हिंदी सामग्री का अभी घोर अभाव है। इंटरनेट पर अंग्रेजी सामग्री की उपलब्धता ९५% तथा हिंदी की उपलब्धता मात्र ०.०४% है। इस दिशा में हिंदी को अभी लंबा रास्ता तय करना है। इस इन्डेक्स का पांचवा और अंतिम कारक है- कूटनीतिक स्तर पर भाषा का प्रयोग। इस सूची में कूटनीतिक स्तर पर केवल ९ भाषाओं (अंग्रेजी, मंदारिन, फ्रेच, स्पेनिश, अरबी, रूसी, जर्मन, जापानी और पुर्तगाली) को प्रभावशाली माना गया है। हिंदी सहित बाकी सभी १०४ भाषाओं को कूटनीतिक दृष्टि से एक समान १० वां स्थान यानी अत्यल्प प्रभावी कहा गया है। जब तक वैश्विक संस्थाओं में हिंदी को स्थान नहीं दिया जाएगा तब तक यह कूटनीति की दृष्टि से कम प्रभावशाली भाषाओं में ही रहेगी।
विश्व में अनेक स्तरों पर हिंदी को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है। हिंदी को देश के भीतर हिंदी विरोधी ताकतों से तो नुकसान पहुंचाया ही जा रहा है, देश के बाहर भी तमाम साजिशें रची जा रही हैं। दुनिया भर में अंग्रेजी के अनेक रूप प्रचलित हैं, फिर भी इस इंडेक्स में उन सभी को एक ही रूप मानकर गणना की गई है। परन्तु हिंदी के साथ ऐसा नहीं किया गया है।
भारत में हिंदी की सहायक बोलियां एकजुट न हो अपना स्वतंत्र अस्तित्व तलाश कर हिंदी को कमजोर कर रही हैं. इस फूट का फायदा साम्राज्यवादी भाषा न उठ सकें इसके लिए हिंदी की बोलियों की आपसी लड़ाई को बंद कर सभी देशवासियों को हिंदी की प्रभावशीलता बढ़ाने के लिए निरंतर योगदान देना होगा।
***
एक दूर वार्ता
ला लौरा मौक़ा मारीशस में कार्यरत पत्रकार श्रीमती सविता तिवारी से
- सर नमस्ते
नमस्ते
= नमस्कार.
- आप बाल कविताएं काफी लिखते हैं
बाल साहित्य और बाल मनोविज्ञान पर आपके क्या विचार हैं?
= जितने लम्बे बाल उतना बढ़िया बाल साहित्यकार
-
अच्छा, यह आज के परिदृष्य पर टिप्पणी है
= बाल साहित्य के दो प्रकार है. १. विविध आयु वर्ग के बाल पाठकों के लिए और उनके द्वारा लिखा जा रहा साहित्य २. बाल साहित्य पर हो रहे शोध कार्य.
- मुझे इस विषय पर एक रेडियो कार्यक्रम करना है सोचा आपका विचार जान लेती.
= बाल साहित्य के अंतर्गत शिशु साहित्य, बाल साहित्य तथा किशोर साहित्य का वर्गीकरण आयु के आधार पर और ग्रामीण तथा नगरीय बाल साहित्य का वर्गीकरण परिवेश के आधार पर किया जा सकता है.
आप प्रश्न करें तो मैं उत्तर दूँ या अपनी ओर से ही कहूँ?
- बाल मन को बास साहित्य के जरिए कैसे प्रभावित किया जा सकता है?
= बाल मन पर प्रभाव छोड़ने के लिए रचनाकार को स्वयं बच्चे के स्तर पर उतार कर सोचना और लिखना होगा. जब वह बच्चा थी तो क्या प्रश्न उठते थे उसके मन में? उसका शब्द भण्डार कितना था? तदनुसार शब्द चयन कर कठिन बात को सरल से सरल रूप में रोचक बनाकर प्रस्तुत करना होगा.
बच्चे पर उसके स्वजनों के बाद सर्वाधिक प्रभाव साहित्य का ही होता है. खेद है कि आजकल साहित्य का स्थान दूरदर्शन और चलभाषिक एप ले रहे हैं.
- मॉरिशस जैस छोटेे देश में जहां हिदी बोलने का ही संकट है वहां इसे बच्चों में बढ़ावा देने के क्या उपाय हैं?
= जो सबका हित कर सके, कहें उसे साहित्य
तम पी जग उजियार दे, जो वह है आदित्य.
घर में नित्य बोली जा रही भाषा ही बच्चे की मातृभाषा होती है. माता, पिता, भाई, बहिनों, नौकरों तथा अतिथियों द्वारा बोले जाते शब्द और उनका प्रभाव बालम के मस्तिष्क पर अंकित होकर उसकी भाषा बनाते हैं. भारत जैस एदेश में जहाँ अंग्रेजी बोलना सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान है वहां बच्चे पर नर्सरी राइम के रूप में अपरिचित भाषा थोपा जाना उस पर मानसिक अत्याचार है.
मारीशस क्या भारत में भी यह संकट है. जैसे-जैसे अभिभावक मानसिक गुलामी और अंग्रेजों को श्रेष्ठ मानने की मानसिकता से मुक्त होंगे वैसे-वैसे बच्चे को उसकी वास्तविक मातृभाषा मिलती जाएगी.
इसके लिए एक जरूरत यह भी है कि मातृभाषा में रोजगार और व्यवसाय देने की सामर्थ्य हो. अभिभावक अंग्रेजी इसलिए सिखाता है कि उसके माध्यम से आजीविका के बेहतर अवसर मिल सकते हैं.
- सर! बहुत धन्यवाद आपके समय के लिए. आप सुनिएगा मेरा कार्यक्रम. मैं लिंक भेजुंगी आपको 3 june ko aayga.
अवश्य. शुभकामनाएँ. प्रणाम.
= सदा प्रसन्न रहें. भारत आयें तो मेरे पास जबलपुर भी पधारें.
वार्तालाप संवाद समाप्त |
३०-५-२०१७
***
पुस्तक चर्चा-
'सच कहूँ तो' नवगीतों की अनूठी भाव भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- सच कहूँ तो, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२ , चलभाष ९८३९८ २५०६२]
*
''इस संग्रह में कवि श्री निर्मल शुक्ल ने साक्षी भाव से अपनी अनुभूतियों के रंगपट्ट पर विविधावर्णी चित्र उकेरे हैं। संकलन का शीर्षक 'सच कहूँ तो' भी उसी साक्षी भाव को व्याख्यायित करता है। अधिकांश गीतों में सच कहने की यह भंगिमा सुधि पाठक को अपने परिवेश की दरस-परस करने को बाध्य करती है। वस्तुतः यह संग्रह फिलवक्त की विसंगतियों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वैयक्तिक राग-विरागों, संवेदनाओं से ये गीत रू-ब-रू नहीं हुए हैं। ... कहन एवं बिंबों की आकृति की दृष्टि से भी ये गीत अलग किसिम के हैं। '' नवगीतों के शिखर हस्ताक्षर कुमार रवींद्र जी ने विवेच्य कृति पर अभिमत में कृतिकार निर्मल शुक्ला जी को आस्तिक आस्था से प्रेरित कवि ठीक ही कहा है।
'सच कहूँ तो' के नवगीतों में दैनन्दिन जीवन के सहज उच्छ्वास से नि:सृत तथा मानवीय संवेदनाओं से सम्पृक्त मनोभावों की रागात्मक अन्विति महसूसी जा सकती है। इन गीतों में आम जन के सामाजिक परिवेश में होते व्याघातों के साथ करवट बदलती, असहजता के विरोध में स्वर गुँजाती परिवर्तनकामी वैचारिक चेतना यात्रा-तत्र अभिव्यक्त हुई है। संवेदन, चिंतन और अभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने 'सच कहूँ तो' को नवगीत-संकलनों में विशिष्ट और अन्यों से अलग स्थान का अधिकारी बनाया है। सामान्यत: रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों की सघनता और गहराई उसकी अंतश्चेतना में अन्तर्निहित तथा रचना में अभिव्यक्त होती रहती है। वैयक्तिक अनुभूति सार्वजनीन होकर रचना को जन सामान्य की आवाज़ बना देती है। तब कवि का कथ्य पाठक के मन की बात बन जाता है। निर्मल शुक्ल जी के गीतकार का वैशिष्ट्य यही है कि उनकी अभिव्यक्ति उनकी होकर भी सबकी प्रतीत होती है।
सच कहूँ तो / पढ़ चुके हैं
हम किताबों में लिखी / सारी इबारत / अब गुरु जी
शब्द अब तक / आपने जितने पढ़ाये / याद हैं सब
स्मृति में अब भी / तरोताज़ा / पृष्ठ के संवाद हैं अब
सच कहूँ तो / छोड़ आए / हम अँधेरों की बहुत / पीछे इमारत / अब गुरु जी
व्यक्ति और समाज के स्वर में जब आत्मविश्वास भर जाता है तो अँधेरों का पीछे छूटना ही उजाले की अगवानी को संकेतित करता है। नवगीत को नैराश्य, वैषम्य और दर्द का पर्याय बतानेवाले समीक्षकों को आशावादिता का यह स्वर पचे न पचे पाठक में नवचेतना का संचार करने में समर्थ है। राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान विश्ववाणी हिंदी को लेकर शासन-प्रशासन कितने भी उदासीन और कर्तव्यविमुख क्यों न हों निर्मल जी के लिये हिंदी राष्ट्रीयता का पर्याय है-
हिन्द की पहचान हिंदी / शब्दिता की शान हिंदी
सच कहूँ तो / कृत्य की परिकल्पना, अभिव्यंजनाएँ
और उनके बीच भूषित / भाल का है गर्व हिंदी
रूप हिंदी, भूप हिंदी / हर नया प्रारूप हिंदी
सच कहूँ तो / धरणि से / आकाश तक अवधारणाएँ
और उनके बीच / संस्कृत / चेतना गन्धर्व हिंदी
'स्व' से 'सर्व' तक आनुभूतिक सृजन सेतु बनते-बनाते निर्मल जी के नवगीत 'व्हिसिल ब्लोअर' की भूमिका भी निभाते हैं। 'हो सके तो' शीर्षक गीत में भ्रूण-हत्या के विरुद्ध अपनी बात पूरी दमदारी से सामने आती है-
सच कहूँ तो / हर किसी के दर्द को
अपना समझना / हो सके तो
एक पल को मान लेना / हाथ में सीना तुम्हारा
दर्द से छलनी हुआ हो / सांस ले-न-ले दुबारा
सच कहूँ तो / उन क्षणों में, एक छोटी / चूक से
बचना-सम्हलना / हो सके तो
एक पल को, कोख की / हारी-अजन्मी चीख सुनना
और बदनीयत / हवा के / हर कदम पर आँख रखना
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़े जाने की संभावनाओं, नदी-तालाबों के विनष्ट होने की आशंकाओं को देखते हुए 'नदी से जन्मती हैं' शीर्षक नवगीत में 'नदी से जन्मती है / सच कहूँ तो / आज संस्कृतियाँ', 'प्रवाहों में समाई / सच कहूँ तो / आज विकृतियाँ', तरंगों में बसी हैं / सच कहूँ तो / स्वस्ति आकृतियाँ, सिरा लें, आज चलकर / सच कहूँ तो / हर विसंगतियाँ ' रचनात्मकता का आव्हान है।
निर्मल जी के नवगीत सतयजित राय के चलचित्रों की तरह विसंगतियों और विडंबनाओं की प्रदर्शनी लगाकर आम जन की बेबसी की नीलामी नहीं करते अपितु प्रतिरोध का रचनात्मक स्वर गुँजाते हैं-
चिनगियों से आग / फिर जल कर रहेगी देख लेना / सच कहूँ तो
बादलों की, परत / फिर गल कर रहेगी देख लेना / सच कहूँ तो
तालियाँ तो आज / भी खुलकर बजेंगी देख लेना / सच कहूँ तो
निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं गाते हैं। इसलिए उनके नवगीतों में अंत्यानुप्रास तुकबन्दी मात्र नहीं करते, विचारों के बीच सेतु बनाते हैं। उर्दू ग़ज़ल में लम्बे - लम्बे रदीफ़ रखने की परंपरा घट चली है किन्तु निर्मल जी नवगीत के अंतरों में इसे अभिनव साज सज्जा के साथ प्रयोग करते हैं। जल तरंगों के बीच बहते कमल पुष्प की तरह 'फिर नया क्या सिलसिला होगा, देख लेना सच कहूँ तो, अब गुरु जी, फिर नया क्या सिलसिला होगा, आना होगा आज कृष्ण को, यही समय है, धरें कहाँ तक धीर, महानगर है' आदि पंक्त्यांश सरसता में वृद्धि करते हैं।
'सच कहूँ तो' इस संग्रह का शीर्षक मात्र नहीं है अपितु 'तकियाकलाम' की तरह हर नवगीत की जुबान पर बैठा अभिव्यक्ति का वह अंश है तो कथ्य को अधिक ताकत से पाठक - श्रोता तक इस तरह पहुंचाता है की बारम्बार आने के बाद भी बाह्य आवरण की तरह ओढ़ा हुआ नहीं अपितु अंतर्मन की तरह अभिन्न प्रतीत होता है। कहीं - कहीं तो समुच ानवगीत इस 'सच कहूं के इर्द - गिर्द घूमता है। यह अभिनव शैल्पिक प्रयोग कृति की पठनीयता औेर नवगीतों की मननीयत में वृद्धि करता है।
हिंदी साहित्य के महाकवियों और आधुनिक कवियों के सन्दर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है -
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास
अब के कवि खद्योत सैम, जँह - तँह करत प्रकास
निर्मल जी इस से सहमत होते हैं, किन्तु शर्मिंदा नहीं होते। वे जुगनू होने में भी अर्थवत्ता तलाश लेते हैं-
हम, संवेदन के जुगनू हैं / हम से / तम भी थर्राता है
पारिस्थितिक विडंबनाओं को उद्घाटित करते नवगीतों में दीनता, विवशता या बेबसी नहीं जूझने और परिवर्तन करने का संकल्प पाठक को दिशा देता है-
तंत्र राज में नाव पुरानी उतराती है
सच कह दूँ तो रोज सभ्यता आँख चुराती है
ऐसे में तो, जी करता है / सारी काया उलट-पुलट दें
दुत्कारें, इस अंधे युग को / मंत्र फूँक, सब पत्थर कर दें
इन नवगीतों का वैशिष्ट्य दे-पीड़ित को हौसला देने और सम्बल बनने का परोक्ष सन्देश अन्तर्निहित कर पाना है। यह सन्देश कहीं भी प्रवचन, उपदेश या भाषण की तरह नहीं है अपितु मीठी गोली में छिपी कड़वी दवाई की तरह ग्राह्य हो गया है-
इसी समय यदि / समय साधने का हम कोई
मंतर पढ़ लें / तो, आगे अच्छे दिन होंगे / यही समय है
सच कह दूँ तो / फिर जीने के / और अनूठे अवसर होंगे
आशाओं से हुआ प्रफुल्लित / जगर-मगर घर में उजियारा
सुख का सागर / समय बाँचकर / समां गया आँगन में सारा
उत्सव होंगे, पर्व मनेगा / रंग-बिरंगे अम्बर होंगे
सच कह दूँ तो / फिर जीने के वासन्ती / संवत्सर हौंगे
संवेदना को वेदना न बनाकर, वेदना के परिहार का हथियार बनाने का कौशल नवगीतों को एक नया तेवर दे सका है। वैषम्य को ही सुधार और परिष्कार का आधार बनाते हुए ये नवगीत निर्माल्य की तरह ग्रहणीय हैं। महाप्राण निराला पर रचा गया नवगीत और उसमें निराला जी की कृतियों के नामों का समावेश निर्मल जी की अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी है। नए नवगीतकारों के लिये यह कृति अनुकरणीय है। इस कृति के नवगीतों में कहीं भी आरोपित क्लिष्टता नहीं है, पांडित्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं है। सरलता, सरसता और सार्गर्भितता की इस त्रिवेणी में बार-बार अवगाहन करने का मन होता ही इन नवगीतों और नवगीतकार की सफलता है।
***
एक रचना
शुष्क मौसम, संदेशे मधुर रस भरे
*
शुष्क मौसम, संदेशे मधुर रस भरे, नेटदूतित मिले मन मगन हो गया
बैठ अमराई में कूक सुन कोकिली, दशहरी आम कच्चा भी मन भा गया
कार्बाइड पके नाम थुकवा रहे, रूप - रस - गंध नकली मगर बिक रहे
तर गये पा तरावट शिकंजी को पी, घोल पाती पुदीना मजा आ गया
काट अमिया, लगा नोन सेंधा - मिरच, चाट-चटखारकर आँख झट मुँद गयी
लीचियों की कसम, फालसे की शपथ, बेल शर्बत लखनवी प्रथम आ गया
जय अमरनाथ की बोल झट पी गये, द्वार निर्मल का फिर खटखटाने लगे
रूह अफ्जा की जयकार कर तृप्ति पा, मधुकरी गीत बिसरा न, याद आ गया
श्याम श्रीवास्तवी मूँछ मिल खीर से, खोजती रह गयी कब सुजाता मिले?
शांत तरबूज पा हो गया मन मुदित, ओज घुल काव्य में हो मनोजी गया
आजा माज़ा मिटा द्वैत अद्वैत वर, रोहिताश्वी न सत्कार तू छोड़ना
मोड़ना न मुख देख खरबूज को, क्या हुआ पानी मुख में अगर आ गया
लाड़ लस्सी से कर आड़ हो या न हो, जूस पी ले मुसम्बी नहीं चूकना
भेंटने का न अवसर कोई चूकना, लू - लपट को पटकनी दे पन्हा गया
बोई हरदोई में मित्रता की कलम, लखनऊ में फलूदा से यारी हुई
आ सके फिर चलाचल 'सलिल' इसलिए, नर्मदा तीर तेरा नगर आ गया
***
[लखनऊ प्रवास- अमरनाथ- कवि, समीक्षक, निर्मल- निर्मल शुक्ल नवगीतकार, संपादक उत्तरायण, मधुकरी मधुकर अष्ठाना नवगीतकार, श्याम श्रीवास्तव कवि, शांत- देवकीनंदन 'शांत' कवि, मनोजी- मनोज श्रीवास्तव कवि, रोहिताश्वी- डॉ. रोहिताश्व अष्ठाना होंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोधकर्ता, बाल साहित्यकार हरदोई]
३०-५-२०१६
***
मुक्तक:
तेरी नजरों ने बरबस जो देखा मुझे, दिल में जाकर न खंजर वो फिर आ सका
मेरी नज़रों ने सीरत जो देखी तेरी, दिल को चेहरा न कोई कभी भा सका
तेरी सुनकर सदा मौन है हर दिशा, तेरी दिलकश अदा से सवेरा हुआ
तेरे नखरों से पुरनम हुई है हवा, तेरे सुर में न कोइ कभी गा सका
*



***


दोहा सलिला:
*
अपने दिन फुटपाथ हैं, प्लेटफोर्म हैं रात
तुम बिन होता ही नहीं, उजला 'सलिल' प्रभात
*
भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान
*
धूप जलाती है बदन, धूल रही हैं ढांक
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते निर्मल-पाक
*
जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
*
अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब
***
द्विपदी सलिला :
*
कंकर-कंकर में शंकर हैं, शिला-शिला में शालिग्राम
नीर-क्षीर में उमा-रमा हैं, कर-सर मिलकर हुए प्रणाम
*
दूल्हा है कौन इतना ही अब तक पता नहीं
यादों की है हसीन सी बारात दोस्ती
*
जिसकी आँखें भर आती हैं उसके मन में गंगा जल है
नेह-नर्मदा वहीं प्रवाहित पोर-पोर उसका शतदल है
*
***

हाइकु का रंग पलाश के संग
*
करे तलाश
अरमानों की लाश
लाल पलाश
*
है लाल-पीला
देखकर अन्याय
टेसू निरुपाय
*
दीन न हीन
हमेशा रहे तीन
ढाक के पात
*
आप ही आप
सहे दुःख-संताप
टेसू निष्पाप
*
देख दुर्दशा
पलाश हुआ लाल
प्रिय नदी की
*
उषा की प्रीत
पलाश में बिम्बित
संध्या का रंग
*
फूल त्रिनेत्र
त्रिदल से पूजित
ढाक शिवाला
*
पर्ण है पन्त
तना दिखे प्रसाद
पुष्प निराला
*
मनुजता को
पत्र-पुष्प अर्पित
करे पलाश
*
होली का रंग
पंगत की पत्तल
हाथ का दौना
*
पहरेदार
विरागी तपस्वी या
प्रेमी उदास
३०-५-२०१५

***

चौपाल-चर्चा:
भारत में सावन में महिलाओं के मायके जाने की रीत है. क्यों न गृह स्वामिनी के जिला बदर के स्थान पर दामाद के ससुराल जाने की रीत हो. इसके अनेक फायदे हो सकते हैं. आप क्या सोचते हैं?
१. बीबी की तानाशाही से त्रस्त मानुष सेवक के स्थान पर अतिथि होने का सुख पा सकेगा याने नवाज़ शरीफ भारत में।
२. आधी घरवाली और सरहज के प्रभाव से बचने के लिये बेचारे पत्नी पीड़ित पति को घर पर भी कुछ संरक्षण मिलेगा याने बीजेपी के सहयोगी दलों को भी मंत्री पद।
३. निठल्ले और निखट्टू की विशेषणों से नवाज़े गये साथी की वास्तविक कीमत पता चल सकेगी याने जसोदा बेन प्रधान मंत्री निवास में।
४. खरीददारी के बाद थैले खुद उठाकर लाने से स्वस्थ्य होगी तो डॉक्टर और दवाई का खर्च आधा होने से वैसी ही ख़ुशी मिलेगी जैसी आडवाणी जो मोदी द्वारा चरण स्पर्श से होती है।
५. पति के न लौटने तक पली आशंका लौटते ही समाप्त हो जाएगी तो दांपत्य में माधुर्य बढ़ेगा याने सरकार और संघ में तालमेल।
६. जीजू की जेब काटकर साली तो खुश होगी ही, जेब कटाकर जीजू प्रसन्न नज़र आयेंगे अर्थात लूटनेवाले और लूटनेवाले दोनों खुश, और क्या चाहिए? इससे अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव बढ़ेगा ही याने घर-घर सुषमा स्वराज्य.
७. मौज कर लौटे पति की परेड कराने के लिए पत्नी को योजना बनाने का मौका याने संसाधन मंत्रालय मिल सकेगा. कौन महिला स्मृति ईरानी सा महत्त्व नहीं चाहेगी?
कहिए, क्या राय है?
३०-५-२०१४
***
तांका: एक परिचय
*
पंचपदी लालित्यमय, तांका शाब्दिक छन्द,
बंधन गण पदभार तुक, बिन रचिए स्वच्छंद।
प्रथम तीसरी पंक्तियाँ, पंचशब्दी मकरंद।।
शेष सात शब्दी रखें, गति-यति रहे न मंद।
जापानी हिंदी जुड़ें, दें पायें आनंद।।
*
जापान की प्राचीनतम क्लासिकल काव्य-विधा तांका ५ पंक्तियों की कविता है जिसमे पहली और तीसरी पंक्ति में पाँच शब्द तथा शेष पंक्तियों में सात शब्द होते हैं! इसके विषय प्रकृति, मौसम, प्रेम, उदासी आदि होते हैं!
उदाहरण :
निरंतर निनादित धवल धार अनुपम,
निरखो न परखो न सँकुचो न ठिठको
कहती टिटहरी प्रकृति पुत्र! आओ
झिझको न, टेरो मन-मीत को तुम
छप-छप-छपाक, नीर नद में नहाओ
*
बन्धन भुलाकर करो मुक्त खुदको
अंजुरी में जल भर, रवि को चढ़ाओ
मस्तक झुकाओ, भजन भी सुनाओ
माथे पे चन्दन, जिव्हा पर हरि-गुण
दिखा भोग प्रभु को, भर पेट खाओ
३०-५-२०१३
***
मुक्तिका :
भंग हुआ हर सपना
*
भंग हुआ हर सपना,
टूट गया हर नपना.
माया जाल में उलझे
भूले माला जपना..
तम में साथ न कोई
किसे कहें हम अपना?
पिंगल-छंद न जाने
किन्तु चाहते छपना..
बर्तन बनने खातिर

पड़ता माटी को तपना..

***

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त

... झटपट करिए

*

लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो,

काम जो भी करना हो, झटपट करिए.

तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं,

मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए.

आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें,

खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए-

गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें,

'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये.

छंद विधान: वर्णिक छंद, आठ चरण,

८-८-८-७ पर यति, चरणान्त लघु-गुरु.

३०-५-२०११

***
मुक्तिका
.....डरे रहे.
*
हम डरे-डरे रहे.
तुम हरे-भरे रहे.
दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.
हौसलों के वृक्ष पा
जल मगन हरे रहे.
रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.
नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.
निज हितों में लीन जो
लें समझ मरे रहे.
सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.
***
: मुक्तिका :
मन का इकतारा
*
मन का इकतारा तुम ही तुम कहता है.
जैसे नेह नर्मदा में जल बहता है..
*
सब में रब या रब में सब को जब देखा.
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है..
*
जिसको कोई गैर न कोई अपना है.
हँस सबको वह, उसको सब जग सहता है..
*
मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है..
*
जिसने जोड़ा वह तो खाली हाथ गया.
जिसने बाँटा वह ही थोड़ा गहता है..
*
जिसको पाया सुख की करते पहुनाई.
उसको देखा बैठ अकेले दहता है..
*
सच का सूत न समय कात पाया लेकिन
सच की चादर 'सलिल' कबीरा तहता है.
***

गुरुवार, 17 नवंबर 2022

दिंडी छंद, सगुण छंद, कीर्ति छंद,नेहरू,नवगीत,दीपक अलंकार,लघुकथा,हास्य मुक्तक

छंदशाला ५२
दिंडी छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष, तमाल, सगुण व नरहरी छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, यति ९-१०, पदांत गुरु गुरु।
लक्षण छंद
ग्रह-दिशा यति रख, लिखो छंद दिंडी।
घर घर विराजे, शिव जी की पिंडी।।
गुरु गुरु नमन लें, वर दें बनें छंद।
रस-लय सुसज्जित, दे भाव आनंद।।
(संकेत-ग्रह नौ, दिशा दस)
उदाहरण
हे हरि! दया कर, भक्तों को तारो।
भव सिंधु पीड़ा, मिटाओ उबारो।।
हमें लो शरण में, सुनो प्रार्थनाएँ-
हरकर तिमिर सब, जगत को उजारो।।
१७-११-२०२२
•••
छंदशाला ५०
सगुण छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष व तमाल छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, पदादि ल, पदांत ज।
लक्षण छंद
सगुण-निर्गुण दोनों है ईश एक।
यह सच सब जानते जिनमें विवेक।।
लघु-जगण हों आदि-अंत साथ-साथ।
करें देशसेवा सभी उठा माथ।।
उदाहरण
गुनगुना रहे भ्रमर, लखकर बसंत।
हिल-मिलकर घूमते, कामिनी-कंत।।
महक मोगरा कहे, मैं भी जवान।
मन मोहे चमेली, सुनाकर गान।।
१२-११-२०२२
•••
स्मरण - चाचा नेहरू 
                  जवाहरलाल नेहरू का जन्म इलाहाबाद में १४ नवम्बर १८८९ ई. को हुआ। वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के महान् सेनानी एवं स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री (१९४७-१९६४) थे। जवाहर लाल नेहरू, संसदीय सरकार की स्थापना और विदेशी मामलों में 'गुटनिरपेक्ष' नीतियों के लिए विख्यात हुए। १९३० - १९४० के दशक में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से वह एक थे। नेहरू कश्मीरी ब्राह्मण परिवार के थे, जो १८ वीं शताब्दी के आरंभ में इलाहाबाद आ गये थे। वे पं. मोतीलाल नेहरू और श्रीमती स्वरूप रानी के एकमात्र पुत्र थे। अपने सभी भाई-बहनों में, जिनमें दो बहनें थीं, जवाहरलाल सबसे बड़े थे। उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई, १४ वर्ष की आयु में नेहरू ने घर पर ही कई अंग्रेज़ अध्यापिकाओं और शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त की। इनमें से सिर्फ़ एक, फ़र्डिनैंड ब्रुक्स का, जो आधे आयरिश और आधे बेल्जियन अध्यात्मज्ञानी थे, उन पर कुछ प्रभाव पड़ा। जवाहरलाल के एक समादृत भारतीय शिक्षक भी थे, जो उन्हें हिन्दी और संस्कृत पढ़ाते थे। १५ वर्ष की उम्र में १९०५ में नेहरू एक अग्रणी अंग्रेज़ी विद्यालय इंग्लैण्ड के हैरो स्कूल में भेजे गए। हैरो में दाख़िल हुए, जहाँ वह दो वर्ष तक रहे। नेहरू का शिक्षा काल किसी तरह से असाधारण नहीं था। और हैरो से वह केंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहाँ उन्होंने तीन वर्ष तक अध्ययन करके प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की। उनके विषय रसायनशास्त्र, भूगर्भ विद्या और वनस्पति शास्त्र थे। केंब्रिज छोड़ने के बाद लंदन के इनर टेंपल में दो वर्ष बिताकर उन्होंने वकालत की पढ़ाई की और उनके अपने ही शब्दों में परीक्षा उत्तीर्ण करने में उन्हें 'न कीर्ति, न अपकीर्ति'। 
                  भारत लौटने के चार वर्ष बाद मार्च, १९१६ में नेहरू का विवाह कमला कौल के साथ हुआ, जो दिल्ली में बसे कश्मीरी परिवार की थीं। उनकी अकेली संतान इंदिरा प्रियदर्शिनी का जन्म १९१७ में हुआ; बाद में वह, विवाहोपरांत नाम 'इंदिरा गांधी', भारत की प्रधानमंत्री बनीं। तथा एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसकी शीघ्र ही मृत्यु हो गयी थी। १९१२ ई. में वे बैरिस्टर बने और उसी वर्ष भारत लौटकर उन्होंने इलाहाबाद में वकालत प्रारम्भ की। वकालत में उनकी विशेष रुचि न थी और शीघ्र ही वे भारतीय राजनीति में भाग लेने लगे। १९१२ ई. में उन्होंने बाँकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। भारत लौटने के बाद नेहरू ने पहले वकील के रूप में स्थापित होने का प्रयास किया लेकिन अपने पिता के विपरीत उनकी इस पेशे में कोई ख़ास रुची नहीं थी और उन्हें वकालत और वकीलों का साथ, दोनों ही नापसंद थे। उस समय वह अपनी पीढ़ी के कई अन्य लोगों की भांति भीतर से एक ऐसे राष्ट्रवादी थे, जो अपने देश की आज़ादी के लिए बेताब हो, लेकिन अपने अधिकांश समकालीनों की तरह उसे हासिल करने की ठोस योजनाएं न बना पाया हो। १९१६ ई. के लखनऊ अधिवेशन में वे सर्वप्रथम महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आये। गांधी उनसे २० साल बड़े थे। दोनों में से किसी ने भी आरंभ में एक-दूसरे को बहुत प्रभावित नहीं किया। बहरहाल, १९२९ में कांग्रेस के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष चुने जाने तक नेहरू भारतीय राजनीति में अग्रणी भूमिका में नहीं आ पाए थे। इस अधिवेशन में भारत के राजनीतिक लक्ष्य के रूप में संपूर्ण स्वराज्य की घोषणा की गई। उससे पहले मुख्य लक्ष्य औपनिवेशिक स्थिति की माँग था। नेहरू जी के शब्दों में:- कुटिलता की नीति अन्त में चलकर फ़ायदेमन्द नहीं होती। हो सकता है कि अस्थायी तौर पर इससे कुछ फ़ायदा हो जाए। 
                  जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन १४ नवंबर' बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही कारण था कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता था। एक बार चाचा नेहरू से मिलने एक सज्जन आए। बातचीत के दौरान उन्होंने नेहरू जी से पूछा, "पंडित जी, आप सत्तर साल के हो गये हैं, लेकिन फिर भी हमेशा बच्चों की तरह तरोताज़ा दिखते हैं, जबकि आपसे छोटा होते हुए भी मैं बूढ़ा दिखता हूँ।" नेहरू जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "इसके तीन कारण हैं। मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूँ। उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूँ, इससे मैं अपने आपको उनको जैसा ही महसूस करता हूँ। मैं प्रकृति प्रेमी हूँ, और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरनों, चाँद, सितारों से बहुत प्यार करता हूँ। मैं इनके साथ में जीता हूँ, जिससे यह मुझे तरोताज़ा रखते हैं। अधिकांश लोग सदैव छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसके बारे में सोच-सोचकर दिमाग़ ख़राब करते हैं। मेरा नज़रिया अलग है और मुझ पर छोटी-छोटी बातों का कोई असर नहीं होता।" यह कहकर नेहरू जी बच्चों की तरह खिलखिलाकर हँस पड़े। जवाहरलाल नेहरू हमारी पीढ़ी के एक महानतम व्यक्ति थे। वह एक ऐसे अद्वितीय राजनीतिज्ञ थे, जिनकी मानव-मुक्ति के प्रति सेवाएँ चिरस्मरणीय रहेंगी। स्वाधीनता-संग्राम के योद्धा के रूप में वह यशस्वी थे और आधुनिक भारत के निर्माण के लिए उनका अंशदान अभूतपूर्व था।- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन।  
                  जवाहरलाल नेहरू महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े। चाहे असहयोग आंदोलन की बात हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन की बात हो उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। मलिक ने बताया कि नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसीलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे। सन् १९२० में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया। १९२३ में वह अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए। संसदीय प्रणाली को आधार मान कर बनाए गए भारतीय संविधान के तहत हुआ यह पहला चुनाव था जिसमें जनता ने मतदान के अधिकार का प्रयोग किया। इस चुनाव के समय मतदाताओं की कुल संख्या १७ करोड़ ६० लाख थी जिनमें से १५ फ़ीसदी साक्षर थे। १९५२ में पहले आमचुनाव हुए जिसमें कांग्रेस पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। इससे पहले वह १९४७ में आज़ादी मिलने के बाद से अंतरिम प्रधानमंत्री थे। संसद की ४९७ सीटों के साथ-साथ राज्यों कि विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए। लेकिन जहाँ संसद में कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ वहीं कुछ राज्यों में इसे दूसरे दलों से ज़बर्दस्त टक्कर मिली। कांग्रेस पार्टी बहुमत हासिल करने में इस शहरों चेन्नई, हैदराबाद और त्रावणकोर में विफल रही जहाँ उसे कम्युनिस्ट पार्टी ने कड़ी टक्कर दी। हालाँकि इन चुनावों में हिन्दू महासभा और अलगाववादी सिक्ख अकाली पार्टी को मुँह की खानी पड़ी। पहले चुनाव के बाद से ही कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) ने दक्षिणी राज्यों में जनसमर्थन बढ़ाना शुरू कर दिया जिसके नतीजे १९५७ में हुए चुनाव में उसे मिले। त्रावणकोर-कोचिन और मालाबार को मिला कर बने केरल में कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई। १९२९ में जब लाहौर अधिवेशन में गांधी ने नेहरू को अध्यक्ष पद के लिए चुना था, तब से ३५ वर्षों तक १९६४ में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मृत्यु तक, १९६२ में चीन से हारने के बावजूद, नेहरू अपने देशवासियों के आदर्श बने रहे। 
                  राजनीति के प्रति उनका धर्मनिरपेक्ष रवैया गांधी के धार्मिक और पारंपरिक दृष्टिकोण से भिन्न था। गांधी के विचारों ने उनके जीवनकाल में भारतीय राजनीति को भ्रामक रूप से एक धार्मिक स्वरूप दे दिया था। गांधी धार्मिक रुढ़िवादी प्रतीत होते थे, किन्तु वस्तुतः वह सामाजिक उदारवादी थे, जो हिन्दू धर्म को धर्मनिरपेक्ष बनाने की चेष्ठा कर रहे थे। गांधी और नेहरू के बीच असली विरोध धर्म के प्रति उनके रवैये के कारण नहीं, बल्कि सभ्यता के प्रति रवैये के कारण था। जहाँ नेहरु लगातार आधुनिक संदर्भ में बात करते थे। वहीं गांधी प्राचीन भारत के गौरव पर बल देते थे। देश के इतिहास में एक ऐसा मौक़ा भी आया था, जब महात्मा गांधी को स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पद के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू में से किसी एक का चयन करना था। लौह पुरुष के सख्त और बागी तेवर के सामने नेहरू का विनम्र राष्ट्रीय दृष्टिकोण भारी पड़ा और वह न सिर्फ़ इस पद पर चुने गए, बल्कि उन्हें सबसे लंबे समय तक विश्व के सबसे विशाल लोकतंत्र की बागडोर संभालने का गौरव हासिल भी हुआ। हिन्दुस्तान एक ख़ूबसूरत औरत नहीं है। नंगे किसान हिन्दुस्तान हैं। वे न तो ख़ूबसूरत हैं, न देखने में अच्छे हैं- क्योंकि ग़रीबी अच्छी चीज़ नहीं है, वह बुरी चीज़ है। इसलिए जब आप 'भारतमाता' की जय कहते हैं- तो याद रखिए कि भारत क्या है, और भारत के लोग निहायत बुरी हालत में हैं- चाहे वे किसान हों, मज़दूर हों, खुदरा माल बेचने वाले दूकानदार हों, और चाहे हमारे कुछ नौजवान हों। -जवाहर लाल नेहरू 
                  जवाहरलाल नेहरू ने बाँधों को "आधुनिक भारत का तीर्थ" कहा था, इससे बाँधों के महत्व का अनुमान लगाया जा सकता है। सन १९६२ में भाखड़ा नांगल सबसे बड़ी नदी घाटी परियोजना राष्ट्र को समर्पित की गई। २२ अक्टूबर, १९६३ को जवाहरलाल नेहरू ने इसे जनता को समर्पित किया। यह बाँध हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर ज़िले के सतलुज नदी पर बना है। इस बाँध से १३२५ मेगावॉट बिजली का उत्पादन होता है। यह राजस्थान, पंजाब और हरियाणा की संयुक्त परियोजना है। पंडित नेहरू एक महान् राजनीतिज्ञ और प्रभावशाली वक्ता ही नहीं, ख्यातिलब्ध लेखक भी थे। उनकी आत्मकथा १९३६ ई. में प्रकाशित हुई और संसार के सभी देशों में उसका आदर हुआ। उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद विशेष उल्लेखनीय हैं। इनमें से अन्तिम दो पुस्तकें उनके फुटकर लेखों और भाषणों के संग्रह हैं। बात उस समय की है जब जवाहरलाल नेहरू किशोर अवस्था के थे। पिता मोतीलाल नेहरू उन दिनों अंग्रेजों से भारत को आज़ाद कराने की मुहिम में शामिल थे। इसका असर बालक जवाहर पर भी पड़ा। मोतीलाल ने पिंजरे में तोता पाल रखा था। एक दिन जवाहर ने तोते को पिंजरे से आज़ाद कर दिया। मोतीलाल को तोता बहुत प्रिय था। उसकी देखभाल एक नौकर करता था। नौकर ने यह बात मोतीलाल को बता दी। मोतीलाल ने जवाहर से पूछा, 'तुमने तोता क्यों उड़ा दिया। जवाहर ने कहा, 'पिताजी पूरे देश की जनता आज़ादी चाह रही है। तोता भी आज़ादी चाह रहा था, सो मैंने उसे आज़ाद कर दिया।' मोतीलाल जवाहर का मुँह देखते रह गये। 
                  जवाहरलाल नेहरू जी ने अपने बचपन का क़िस्सा बयान करते हुए अपनी पुस्तक मेरी कहानी में लिखा है कि वे अपने पिता मोतीलाल नेहरू जी का बहुत सम्मान करते थे। हालांकि वे कड़कमिजाज थे सो वे उनसे डरते भी बहुत थे क्योंकि उन्होंने नौकर चाकरों आदि पर उन्हें बिगड़ते कई बार देखा था। उनकी तेज मिजाजी का एक क़िस्सा बताते हुये नेहरू जी ने लिखा है कि उनकी तेज मिजाजी की एक घटना मुझे याद है क्योंकि बचपन में ही मैं उसका शिकार हो गया था। कोई ५-६वर्ष की उम्र रही होगी। एक रोज मैंने पिताजी की मेज पर दो फाउन्टेन पेन पड़े देखे। मेरा जी ललचाया मैंने दिन में कहा पिताजी एक साथ दो पेनों का क्या करेंगे? एक मैंने अपनी जेब मे डाल लिया। बाद में बड़ी ज़ोरों की तलाश हुई कि पेन कहाँ चला गया? तब तो मैं घबराया। मगर मैंने बताया नहीं। पेन मिल गया और मैं गुनहगार करार दिया गया। पिताजी बहुत नाराज़ हुए और मेरी खूब मरम्मत की। मैं दर्द व अपमान से अपना सा मुँह लिये माँ की गोद में दौड़ा गया और कई दिन तक मेरे दर्द करते हुए छोटे से बदन पर क्रीम और मरहम लगाये गये। लेकिन मुझे याद नहीं पड़ता कि इस सज़ा के कारण पिताजी को मैंने कोसा हो। मैं समझता हूँ मेरे दिल ने यही कहा होगा कि सज़ा तो तुझे वाजिब ही मिली है, मगर थी ज़रूरत से ज़्यादा।                                     जवाहरलाल नेहरू अपने कुछ ख़ास सहयोगियों के साथ एक दिन ग्रामीण क्षेत्रों का भ्रमण कर रहे थे। एक खेत में उन्होंने चने की फ़सल देखी। अधपके चने देखकर सबके मुँह में पानी आ गया और कच्चे चने खाने के लिये कार रुकवाई। सब लोग खेत में घुस गये। नेहरू जी ने चने की केवल फलियाँ ही फलियाँ तोड़ी। कुछ लोगों ने पौधे ही उखाड़ लिए। इस पर नेहरू जी ने उन्हें डाँटा, 'पौधों में कुछ फलियाँ अभी लगी ही हैं जिनमें दाना नहीं है। तुम केवल दानेवाली फलियाँ ही तोड़ो जिनकी तुम्हें जरूरत हैं। पौधे उखाड़ लेने से नुक़सान हो रहा है। ऐसा तो जानवर करते हैं। भाखड़ा बाँध से सिंचाई योजना का शिलान्यास होना था। नेहरूजी को योजना के व्यवस्थापकों ने चाँदी का फावड़ा उद्घाटन करने के लिए पकड़ाया। इस पर नेहरू झुँझला गये। उन्होंने पास में पड़ा लोहे का फावड़ा उठाया और उसे ज़मीन पर चलाते हुए कहा, 'भारत का किसान क्या चाँदी के फावड़े से काम करता है।                     महाराष्ट्र में अकाल पड़ा तो वहाँ भूख से तमाम मौतें हुईं। नेहरूजी अकालग्रस्त क्षेत्रों के मुआयने के लिए गये। एक स्थान पर लोगों की भीड़ में से नन्हें ग्रामीण बच्चे को हाथों में ऊपर उठा लिया और उसकी ठोड़ी पकड़ कर सिर ऊँचा किया। लोग नेहरूजी का आशय समझ गये कि मुसीबत में मनोबल बनाए रखकर साहस के साथ मुक़ाबला करना चाहिए। एक मेले से नेहरूजी की कार गुज़र रही थी और सुरक्षा बल लोगों को हटाकर कार के लिए रास्ता बना रहे थे। भीड़ में से एक बुढ़िया ने चिल्लाकर कहा, 'ओ नेहरू तू इत्ता बड़ा हो गया कि लोग तुझसे मिल नहीं सकते।' नेहरूजी कार से उतर पड़े, बुढ़िया के पास हाथ जोड़ते हुए गये और बोले, 'कहाँ बड़ा हो गया माँ, बड़ा हो जाता तो तू मुझसे ऐसे बोल पाती। फिर उन्होंने उसकी परेशानी पूछी। उसने अपनी फटेहाली बताई तो नेहरूजी ने अफ़सरों को सख्त हिदायत दी कि उसके लिए आर्थिक सहायता का इंतज़ाम तुरंत किया जाए। 
                    एक कार्यक्रम में एक छात्र ने उनसे ऑटोग्राफ लेने के लिए अपनी कॉपी उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा, 'इसमें सिग्नेचर कर दीजिए। 'नेहरू जी ने उसमें अपने दस्तखत अंग्रेज़ी में कर दिए। छात्र को पता था कि नेहरूजी आमतौर पर हिन्दी में ही हस्ताक्षर करते हैं। उसने पूछ लिया, 'आप तो हिन्दी में हस्ताक्षर करते हैं। फिर मेरी कॉपी में आपने अंग्रेज़ी में किए, ऐसा क्यों। नेहरूजी मुस्कराते हुए बोले, 'भाई, तुमने सिग्नेचर करने को बोला था, हस्ताक्षर करने को नहीं।' 
                    वैज्ञानिक प्रगति के प्रेरणा स्रोत गाँधी जी के विचारों के प्रतिकूल जवाहरलाल नेहरू ने देश में औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया। विज्ञान के विकास के लिए १९४७ ई. में नेहरू ने 'भारतीय विज्ञान कांग्रेस' की स्थापना की। उन्होंने कई बार 'भारतीय विज्ञान कांग्रेस' के अध्यक्ष पद से भाषण दिया। भारत के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के स्पष्ट प्रतीक हैं। खेलों में नेहरू की व्यक्तिगत रुचि थी। उन्होंने खेलों को मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए आवश्यक बताया। एक देश का दूसरे देश से मधुर सम्बन्ध क़ायम करने के लिए १९५१ ई. में उन्होंने दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया। समाजवादी विचारधारा से प्रभावित नेहरू ने भारत में लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना का लक्ष्य रखा। उन्होंने आर्थिक योजना की आवश्यकता पर बल दिया। वे १९३८ ई. में कांग्रेस द्वारा नियोजित 'राष्ट्रीय योजना समिति' के अध्यक्ष भी थे। स्वतंत्रता पश्चात् वे 'राष्ट्रीय योजना आयोग' के प्रधान बने। 
                    नेहरू जी ने साम्प्रदायिकता का विरोध करते हुए धर्मनिरपेक्षता पर बल दिया। उनके व्यक्तिगत प्रयास से ही भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया था। जवाहरलाल नेहरू ने भारत को तत्कालीन विश्व की दो महान् शक्तियों का पिछलग्गू न बनाकर तटस्थता की नीति का पालन किया। नेहरूजी ने निर्गुटता एवं पंचशील जैसे सिद्धान्तों का पालन कर विश्व बन्धुत्व एवं विश्वशांति को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, जातिवाद एवं उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ जीवनपर्यन्त संघर्ष किया। अपने क़ैदी जीवन में जवाहरलाल नेहरू ने 'डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया', 'ग्लिम्पसेज ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री' एवं 'मेरी कहानी' नामक ख्यातिप्राप्त पुस्तकों की रचना की। अपनी भारतीयता पर ज़ोर देने वाले नेहरू में वह हिन्दू प्रभामंडल और छवि कभी नहीं उभरी, जो गाँधी के व्यक्तित्व का अंग थी। अपने आधुनिक राजनीतिक और आर्थिक विचारों के कारण वह भारत के युवा बुद्धिजीवियों को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ गाँधी के अहिंसक आन्दोलन कि ओर आकर्षित करने में और स्वतन्त्रता के बाद उन्हें अपने आसपास बनाए रखने में सफल रहे। पश्चिम में पले-बढ़े होने और स्वतन्त्रता के पहले यूरोपीय यात्राओं के कारण उनके सोचने का ढंग पश्चिमी साँचे में ढल चुका था। 17 वर्षों तक सत्ता में रहने के दौरान उन्होंने लोकतांत्रिक समाजवाद को दिशा-निर्देशक माना। उनके कार्यकाल में संसद में कांग्रेस पार्टी के ज़बरदस्त बहुमत के कारण वह अपने लक्ष्यों की ओर अग्रसर होते रहे। लोकतन्त्र, समाजवाद, एकता और धर्मनिरपेक्षता उनकी घरेलू नीति के चार स्तंभ थे। वह जीवन भर इन चार स्तंभों से सुदृढ़ अपनी इमारत को काफ़ी हद तक बचाए रखने में कामयाब रहे। नेहरू की इकलौती संतान इंदिरा गाँधी १९६६ से १९७७ तक और फिर १९८० से १९८४ तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं। इंदिरा गाँधी के बेटे राजीव गाँधी १९८४ से १९८९ तक प्रधानमंत्री रहे। चीन के साथ संघर्ष के कुछ ही समय बाद नेहरू के स्वास्थ्य में गिरावट के लक्षण दिखाई देने लगे। उन्हें १९६३ में दिल का हल्का दौरा पड़ा, जनवरी १९६४ में उन्हें और दुर्बल बना देने वाला दौरा पड़ा। कुछ ही महीनों के बाद तीसरे दौरे में २७ मई, १९६४ में उनकी मृत्यु हो गई।
***
कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं २
*
गीत
फ़साना
(छंद- दस मात्रिक दैशिक जातीय, षडाक्षरी गायत्री जातीय सोमराजी छंद)
[बहर- फऊलुन फऊलुन १२२ १२२]
*
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हें देखता हूँ
तुम्हें चाहता हूँ
तुम्हें माँगता हूँ
तुम्हें पूजता हूँ
बनाना न आया
बहाना बनाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हीं जिंदगी हो
तुम्हीं बन्दगी हो
तुम्हीं वन्दना हो
तुम्हीं प्रार्थना हो
नहीं सीख पाया
बिताया भुलाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हारा रहा है
तुम्हारा रहेगा
तुम्हारे बिना ना
हमारा रहेगा
कहाँ जान पाया
तुम्हें मैं लुभाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
१७-११-२०१६
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शब्द चर्चा- सैलाब या शैलाब?
सही शब्द ’सैलाब’ ही है -’शैलाब ’ नहीं
’सैलाब’[ सीन,ये,लाम,अलिफ़,बे] -अरबी/फ़ारसी का लफ़्ज़ है अर्थात ’उर्दू’ का लफ़्ज़ है जो ’सैल’ और ’आब’ से बना है
’सैल’ [अरबी लफ़्ज़] मानी बहाव और ’आब’[फ़ारसी लफ़्ज़] मानी पानी
सैलाब माने पानी का बहाव ही होता है मगर हम सब इसका अर्थ अचानक आए पानी के बहाव ,जल-प्लावन.बाढ़ से ही लगाते है
सैल के साथ आब का अलिफ़ वस्ल [ मिल ] हो गया है अत: ’सैल आब ’ के बजाय ’सैलाब’ ही पढ़ते और बोलते है ।हिन्दी के हिसाब से इसे आप ’दीर्घ सन्धि’ भी कह सकते है’
चूँकि ’सैल’ मानी ’बहाव’ होता है तो इसी लफ़्ज़ से ’सैलानी’ भी बना है -वह जो निरन्तर सैर तफ़्रीह एक जगह से दूसरी जगह जाता रहता है।
आँसुओं की बाढ़ को सैल-ए-अश्क भी कहते है
हिन्दी के ’शैल’ से आप सब लोग तो परिचित ही हैं।
***
अलंकार सलिला: ३१
दीपक अलंकार
*
दीपक वर्ण्य-अवर्ण्य में, देखे धर्म समान।
धारण करता हो जिसे, उपमा संग उपमान।।
जहाँ वर्ण्य (प्रस्तुत) और अवर्ण्य (अप्रस्तुत) का एक ही धर्म स्थापित किया जाये, वहाँ दीपक अलंकार होता है।
अप्रस्तुत एक से अधिक भी हो सकते हैं।
तुल्ययोगिता और दीपक में अंतर यह है कि प्रथम में प्रस्तुत और प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत और अप्रस्तुत का धर्म
समान होता है जबकि द्वितीय में प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों का समान धर्म बताया जाता है।
जब प्रस्तुत औ' अप्रस्तुत, में समान हो धर्म।
तब दीपक जानो 'सलिल', समझ काव्य का मर्म।।
यदि प्रस्तुत वा अप्रस्तुत, गहते धर्म समान।
अलंकार दीपक कहे, वहाँ सभी मतिमान।।
दीपक वर्ण्य-अवर्ण्य के, देखे धर्म समान।
कारक माला आवृत्ति, तीन भेद लें जान।।
उदाहरण:
१. सोहत मुख कल हास सौं, अम्ल चंद्रिका चंद्र।
प्रस्तुत मुख और अप्रस्तुत चन्द्र को एक धर्म 'सोहत' से अन्वित किया गया है।
२. भूपति सोहत दान सौं, फल-फूलन-उद्यान।
भूपति और उद्यान का सामान धर्म 'सोहत' दृष्टव्य है।
३. काहू के कहूँ घटाये घटे नहिं, सागर औ' गन-सागर प्रानी।
प्रस्तुत हिंदवान और अप्रस्तुत कामिनी, यामिनी व दामिनी का एक ही धर्म 'लसै' कहा गया है।
४. डूँगर केरा वाहला, ओछाँ केरा नेह।
वहता वहै उतावला, छिटक दिखावै छेह।।
अप्रस्तुत पहाड़ी नाले, और प्रस्तुत ओछों के प्रेम का एक ही धर्म 'तेजी से आरम्भ तथा शीघ्र अंत' कहा है।
५. कामिनी कंत सों, जामिनी चंद सोन, दामिनी पावस मेघ घटा सों।
जाहिर चारहुँ ओर जहाँ लसै, हिंदवान खुमान सिवा सों।।
६. चंचल निशि उदवस रहैं, करत प्रात वसिराज।
अरविंदन में इंदिरा, सुन्दरि नैनन लाज।।
७. नृप मधु सों गजदान सों, शोभा लहत विशेष।
अ. कारक दीपक:
जहाँ अनेक क्रियाओं में एक ही कारक का योग होता है वहाँ कारक दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. हेम पुंज हेमंत काल के इस आतप पर वारूँ।
प्रियस्पर्श की पुलकावली मैं, कैसे आज बिसारूँ?
किन्तु शिशिर में ठंडी साँसें, हाय! कहाँ तक धारूँ?
तन जारूँ, मन मारूँ पर क्या मैं जीवन भी हारूँ।।
२. इंदु की छवि में, तिमिर के गर्भ में,
अनिल की ध्वनि में, सलिल की बीचि में।
एक उत्सुकता विचरती थी सरल,
सुमन की स्मृति में, लता के अधर में।।
३. सुर नर वानर असुर में, व्यापे माया-मोह।
ऋषि मुनि संत न बच सके, करें-सहें विद्रोह।।
४. जननी भाषा / धरती गौ नदी माँ / पाँच पालतीं।
५. रवि-शशि किरणों से हरें
तम, उजियारा ही वरें
भू-नभ को ज्योतित करें।
आ. माला दीपक:
जहाँ पूर्वोक्त वस्तुओं से उत्तरोक्त वस्तुओं का एकधर्मत्व स्थापित होता है वहाँ माला दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. घन में सुंदर बिजली सी, बिजली में चपल चमक सी।
आँखों में काली पुतली, पुतली में श्याम झलक सी।।
प्रतिमा में सजीवता सी, बस गर्भ सुछवि आँखों में।
थी एक लकीर ह्रदय में, जो अलग रही आँखों में।।
२. रवि से शशि, शशि से धरा, पहुँचे चंद्र किरण।
कदम-कदम चलकर करें, पग मंज़िल का वरण।।
३. ध्वनि-लिपि, अक्षर-शब्द मिल करें भाव अभिव्यक्त।
काव्य कामिनी को नहीं, अलंकार -रस त्यक्त।।
४. कूल बीच नदिया रे / नदिया में पानी रे
पानी में नाव रे / नाव में मुसाफिर रे
नाविक पतवार ले / कर नदिया पार रे!
५. माथा-बिंदिया / गगन-सूर्य सम / मन को मोहें।
इ. आवृत्ति दीपक:
जहाँ अर्थ तथा पदार्थ की आवृत्ति हो वहाँ पर आवृत्ति दीपक अलंकार होता है।इसके तीन प्रकार पदावृत्ति दीपक,
अर्थावृत्ति दीपक तथा पदार्थावृत्ति दीपक हैं।
क. पदावृत्ति दीपक:
जहाँ भिन्न अर्थोंवाले क्रिया-पदों की आवृत्ति होती है वहाँ पदावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. तब इस घर में था तम छाया,
था मातम छाया, गम छाया,
-भ्रम छाया।
२. दीन जान सब दीन, नहिं कछु राख्यो बीरबर।
३. आये सनम, ले नयन नम, मन में अमन,
तन ले वतन, कह जो गए, आये नहीं, फिर लौटकर।
ख. अर्थावृत्ति दीपक:
जहाँ एक ही अर्थवाले भिन्न क्रियापदों की आवृत्ति होती है, वहाँ अर्थावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. सर सरजा तब दान को, को कर सकत बखान?
बढ़त नदी गन दान जल उमड़त नद गजदान।।
२. तोंहि बसंत के आवत ही मिलिहै इतनी कहि राखी हितू जे।
सो अब बूझति हौं तुमसों कछू बूझे ते मेरे उदास न हूजे।।
काहे ते आई नहीं रघुनाथ ये आई कै औधि के वासर पूजे।
देखि मधुव्रत गूँजे चहुँ दिशि, कोयल बोली कपोतऊ कूजे।।
३. तरु पेड़ झाड़ न टिक सके, झुक रूख-वृक्ष न रुक सके,
तूफान में हो नष्ट शाखा-डाल पर्ण बिखर गये।
ग. पदार्थावृत्ति दीपक:
जहाँ पद और अर्थ दोनों की आवृत्ति हो वहाँ,पदार्थावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण
१. संपत्ति के आखर तै पाइ में लिखे हैं, लिखे भुव भार थाम्भिबे के भुजन बिसाल में।
हिय में लिखे हैं हरि मूरति बसाइबे के, हरि नाम आखर सों रसना रसाल में।।
आँखिन में आखर लिखे हैं कहै रघुनाथ, राखिबे को द्रष्टि सबही के प्रतिपाल में।
सकल दिशान बस करिबे के आखर ते, भूप बरिबंड के विधाता लिखे भाल में।।
२.
दीपक अलंकार का प्रयोग कविता में चमत्कार उत्पन्न कर उसे अधिक हृद्ग्राही बनाता है।।
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नव गीत
*
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
*
हम नहीं हैं एक
लेकिन एक हैं हम।
जूझने को मौत से भी
हम रखें दम।
फोड़ते हो तुम
मगर हम बोलते हैं
गगन जाए थरथरा
सुन बोल 'बम-बम'।
मारते तुम निहत्थों को
क्रूर-कायर!
तुम्हारा पुरखा रहा
दनु अंधकासुर।
हम शहादत दे
मनाते हैं दिवाली।
जगमगा देते
दिया बन रात काली।
जानते हैं देह मरती
आत्मा मरती नहीं है।
शक्ल है
कितनी घिनौनी, जरा
दर्पण तो निहारो
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
*
मनोबल कमजोर इतना
डर रहे परछाईं से भी।
रौंदते कोमल कली
भूलो न सच तुम।
बो रहे जो
वही काटोगे हमेशा
तडपते पल-पल रहोगे
दर्द होगा पर नहीं कम।
नाम मत लो धर्म का
तुम हो अधर्मी!
नहीं तुमसे अधिक है
कोई कुकर्मी।
जब मरोगे
हँसेगी इंसानियत तब।
शूल से भी फूल
ऊगेंगे नए अब ।
निरा अपना, नया सपना
नित नया आकार लेगा।
किन्तु बेटा भी तुम्हारा
तुम्हें श्रृद्धांजलि न देगा
जा उसे मारो।
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
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लघुकथा:
सहिष्णुता
*
'हममें से किसी एक में अथवा सामूहिक रूप से हम सबमें कितनी सहिष्णुता है यह नापने, मापने या तौलने का कोई पैमाना अब तक ईजाद नहीं हुआ है. कोई अन्य किसी अन्य की सहिष्णुता का आकलन कैसे कर सकता है? सहिष्णुता का किसी दल की हार - जीत अथवा किसी सरकार की हटने - बनने से कोई नाता नहीं है. किसी क्षेत्र में कोई चुनाव हो तो देश असहिष्णु हो गया, चुनाव समाप्त तो देेश सहिष्णु हो गया, यह कैसे संभव है?' - मैंने पूछा।
''यह वैसे हो संभव है जैसे हर दूरदर्शनी कार्यक्रमवाला दर्शकों से मिलनेवाली कुछ हजार प्रतिक्रियाओं को लाखों बताकर उसे देश की राय और जीते हुए उम्मीदवार को देश द्वारा चुना गया बताता है, तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती जबकि सब जानते हैं कि ऐसी प्रतियोगिताओं में १% लोग भी भाग नहीं लेते।'' - मित्र बोला।
''तुमने जैसे को तैसा मुहावरा तो सुना ही होगा। लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने ढेरों वायदे किये, जितने पर उनके दलाध्यक्ष ने इसे 'जुमला' करार दिया, यह छल नहीं है क्या? छल का उत्तर भी छल ही होगा। तब जुमला 'विदेशों में जमा धन' था, अब 'सहिष्णुता' है. जनता दोनों चुनावों में ठगी गयी।
इसके बाद भी कहीं किसी दल अथवा नेता के प्रति उनके अनुयायियों में असंतोष नहीं है, धार्मिक संस्थाएँ और उनके अधिष्ठाता समाज कल्याण का पथ छोड़ भोग-विलास और संपत्ति - अर्जन को ध्येय बना बैठे हैं फिर भी उन्हें कोई ठुकराता नहीं, सब सर झुकाते हैं, सरकारें लगातार अपनी सुविधाएँ और जनता पर कर - भार बढ़ाती जाती हैं, फिर भी कोई विरोध नहीं होता, मंडियां बनाकर किसान को उसका उत्पाद सीधे उपभोक्ता को बेचने से रोका जाता है और सेठ जमाखोरी कर सैंकड़ों गुना अधिक दाम पर बेचता है तब भी सन्नाटा .... काश! न होती हममें या सहिष्णुता।'' मित्र ने बात समाप्त की।
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नव गीत :
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
*
कहता है इतिहास
एक साथ लड़ते रहे
दानव गण सायास।
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निर्बल को दे दंड
पाते थे आनंद वे
रहे सदा उद्दंड।
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नहीं जीतती क्रूरता
चाहे जितने जुल्म कर
संयम रखती शूरता।
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रात नहीं कोई हुई
जिसके बाद न भोर
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
*
उठो, जाग, हो एक
भिड़ो तुरत आतंक से
रखो इरादे नेक।
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नहीं रिलीजन, धर्म
या मजहब आतंक है
मिटा कीजिए कर्म।
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भुला सभी मतभेद
लड़, वरना हों नष्ट सब
व्यर्थ न करिए खेद।
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कटे पतंग न शांति की
थाम एकता डोर
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
१६-११-२०१५
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छंद सलिला :
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कीर्ति छंद
छंद विधान:
द्विपदिक, चतुश्चरणिक, मात्रिक कीर्ति छंद इंद्रा वज्रा तथा उपेन्द्र वज्रा के संयोग से बनता है. इसका प्रथम चरण उपेन्द्र वज्रा (जगण तगण जगण दो गुरु / १२१-२२१-१२१-२२) तथा शेष तीन दूसरे, तीसरे और चौथे चरण इंद्रा वज्रा (तगण तगण जगण दो गुरु / २२१-२२१-१२१-२२) इस छंद में ४४ वर्ण तथा ७१ मात्राएँ होती हैं.
उदाहरण:
१. मिटा न क्यों दें मतभेद भाई, आओ! मिलाएं हम हाथ आओ
आओ, न जाओ, न उदास ही हो, भाई! दिलों में समभाव भी हो.
२. शराब पीना तज आज प्यारे!, होता नहीं है कुछ लाभ सोचो
माया मिटा नष्ट करे सुकाया, खोता सदा मान, सुनाम भी तो.
३. नसीहतों से दम नाक में है, पीछा छुड़ाएं हम आज कैसे?
कोई बताये कुछ तो तरीका, रोके न टोके परवाज़ ऐसे.
१६-११-२०१३
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हास्य मुक्तक
नम आँख देखकर हमारी आँख नम हुई
दिल से करी तारीफ मगर वह भी कम हुई
हमने जलाई फुलझड़ी 'सलिल' ये क्या हुआ
दीवाला हो गया है वो जैसे ही बम हुई.
१६-११-२०१३
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