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शुक्रवार, 1 मई 2009

एक ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस, दिल्ली

कड़कती धूप को सुबहे-चमन लिखा होगा

फ़रेब खा के सुहाना सुखन लिखा होगा

कटे यूँ होंगे शबे-हिज़्र में पहाड़ से पल

ख़ुद को शीरी औ मुझे कोहकन लिखा होगा

लगे उतरने सितारे फलक से उसने ज़रूर

बाम को अपनी कुआरा गगन लिखा होगा

शौके-परवाज़ को किस रंग में ढाला होगा

कफ़स को तो चलो सब्ज़ा-चमन लिखा होगा

हर इक किताब के आख़िर सफे के पिछली तरफ़

मुझी को रूह, मुझी को बदन लिखा होगा

ये ख़त आख़िर का मुझे उसने अपनी गुरबत को

सुनहरी कब्र में करके दफ़न लिखा होगा
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गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

गज़ल: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली.

असर दिखला रहा है खूब, मुझ पे गुलबदन मेरा,

उसी के रंग जैसा हो चला है, पैराहन मेरा।

कोई मूरत कहीं देखी, वहीं सर झुक गया अपना

मुझे काफ़िर कहो बेशक, यही है पर चलन मेरा।

हजारों बोझ हैं रूह पर, मेरे बेहिस गुनाहों के,

तेरे अहसां से लेकिन दब रहा है, तन-बदन मेरा।

उस इक कूचे में मत देना बुलावे मेरी मय्यत के,

शहादत की वजह ज़ाहिर न कर डाले कफ़न मेरा।

मैं इस आख़िर के मिसरे में, जरा रद्दो-बदल कर लूँ

ख़फा वो हो ना बैठे, खूब समझे है सुखन मेरा।

मुझे हर गाम पर लूटा है, मेरे रहनुमाओं ने,

ज़रा देखूं के ढाए क्या सितम, अब राहजन मेरा।

यहाँ शोहरत-परस्ती है, हुनर का अस्ल पैमाना

इन्हीं राहों पे शर्मिंदा रहा है, मुझसे फन मेरा।

कभी आ जाए शायद हौसला, परबत से भिड़ने का,

ज़रा तुम नाम तो रख कर के देखो, कोहकन मेरा

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