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गुरुवार, 16 जून 2016

navgeet

एक रचना
यार शिरीष!
*
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
अब भी खड़े हुए एकाकी
रहे सोच क्यों साथ न बाकी?
तुमको भाते घर, माँ, बहिनें
हम चाहें मधुशाला-साकी।
तुम तुलसी को पूज रहे हो
सदा सुहागन निष्ठा पाले।
हम महुआ की मादकता के
हुए दीवाने ठर्रा ढाले।
चढ़े गिरीश
पर नहीं बिगड़े
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
राजनीति तुमको बेगानी
लोकनीति ही लगी सयानी।
देश हितों के तुम रखवाले
दुश्मन पर निज भ्रकुटी तानी।  
हम अवसर को नहीं चूकते 
लोभ नीति के हम हैं गाहक।
चाट सकें इसलिए थूकते 
भोग नीति के चाहक-पालक।
जोड़ रहे
जो सपने बिछुड़े
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
तुम जंगल में धूनि रमाते
हम नगरों में मौज मनाते।
तुम खेतों में मेहनत करते 
हम रिश्वत परदेश-छिपाते।
ताप-शीत-बारिश हँस झेली
जड़-जमीन तुम नहीं छोड़ते।
निज हित खातिर झोपड़ तो क्या
हम मन-मंदिर बेच-तोड़ते।
स्वार्थ पखेरू के
पर कतरे।
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
तुम धनिया-गोबर के संगी
रीति-नीति हम हैं दोरंगी।
तुम मँहगाई से पीड़ित हो
हमें न प्याज-दाल की तंगी।  
अंकुर पल्लव पात फूल फल
औरों पर निर्मूल्य लुटाते।
काट रहे जो उठा कुल्हाड़ी
हाय! तरस उन पर तुम खाते। 
तुम सिकुड़े
हम फैले-पसरे।
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
***

रविवार, 12 जून 2016

navgeet

एक रचना
शिरीष के फूल












फूल-फूल कर बजा रहे हैं 
बीहड़ में रमतूल,
धूप-रूप पर मुग्ध, पेंग भर
छेड़ें झूला झूल
न सुधरेंगे
शिरीष के फूल।
*
तापमान का पान कर रहे
किन्तु न बहता स्वेद,
असरहीन करते सूरज को
तनिक नहीं है खेद।
थर्मामीटर नाप न पाये
ताप, गर्व निर्मूल
कर रहे हँस
शिरीष के फूल।।
*
भारत की जनसँख्या जैसे
खिल-झरते हैं खूब,
अनगिन दुःख, हँस सहे न लेकिन
है किंचित भी ऊब।
माथे लग चन्दन सी सोहे
तप्त जेठ की धूल
तार देंगे
शिरीष के फूल।।
*
हो हताश एकाकी रहकर
वन में कभी पलाश,
मार पालथी, तुरत फेंट-गिन
बाँटे-खेले ताश।
भंग-ठंडाई छान फली संग
पीकर रहते कूल,
हमेशा ही
शिरीष के फूल।।
*
जंगल में मंगल करते हैं
दंगल नहीं पसंद,
फाग, बटोही, राई भाते
छन्नपकैया छंद।
ताल-थाप, गति-यति-लय साधें
करें न किंचित भूल,
नाचते सँग
शिरीष के फूल।।
*
संसद में भेजो हल कर दें
पल में सभी सवाल,
भ्रमर-तितलियाँ गीत रचें नव
मेटें सभी बबाल।
चीन-पाक को रोज चुभायें
पैने शूल-बबूल
बदल रँग-ढँग
शिरीष के फूल।।
*****

मंगलवार, 7 जून 2016

doha

दोहा सलिला



दोहा सलिला

आओ! भेंट शिरीष से, हो जमीन की बात
कैसे हँस जी रहा है, नित सह-सह आघात?
*
खड़ा सिरस निज पैर पर, ज्यों हठयोगी सिद्ध
हाय! नोंचने आ गये, मानव रूपी गिद्ध
*
कुछ न किसी से माँगता, करे नहीं अभिमान
देख पराई चूपड़ी, मत ललचा इंसान
*
गिरि, घाटी, बस्तियों को, खिल करता गुलज़ार
मनुज काटकर जलाता, कैसा अत्याचार?
*
फिर खिलने को झर रहा, सिरस नहीं गमगीन
तनिक कष्ट में क्यों हुआ, मुखड़ा मनुज मलीन?
***


सोमवार, 6 जून 2016

navgeet

एक गीत -
बाँहों में भर शिरीष
जरा मुस्कुराइए
*
धरती है अगन-कुंड, ये
फूलों से लदा है
लू-लपट सह रहा है पर
न पथ से हटा है
ये बाल-हठ दिखा रहा
न बात मानता-
भ्रमरों का नहीं आज से
सदियों से सगा है
चाहों में पा शिरीष
मिलन गीत गाइए
*
संसद की खड़खड़ाहटें
सुन बज रही फली
सरहद पे हड़बड़ाहटें
बंदूक भी चली
पत्तों ने तालियाँ बजाईं
झूमता पवन-
चिड़ियों की चहचहाहटें
लो फिर खिली कली
राहों पे पा शिरीष
भीत भूल जाइए
*
अवधूत है या भूत
नहीं डर से डर रहा
जड़ जमा कर जमीन में
आदम से लड़ रहा
तू एक काट, सौ उगाऊँ
ले रहा शपथ-
संघर्षशील है, नहीं
बिन मौत रह रहा
दाहों में पसीना बहा
तो चहचहाइए
***
६-६-२०१६, ००.४५
जबलपुर

रविवार, 5 जून 2016

नवगीत

एक रचना 
*
दिखते कोमल सिरस, 
न समझो 
दुर्बल होगी भूल जी 
*
संसद में जाए शिरीष यदि 
ले पलाश को साथ 
करतल ध्वनि से अमलतास  
हो साथ उठाकर माथ  
नेताओं पर डालें मिलकर 
उद्यानों की धूल जी 
पाप नाश हो, महक सकें तब 
राजनीति में फूल जी 
*
परिमल से महकायेंगे मिल 
सुमन समूचा देश 
कहीं कलुषता नहीं रहेगी 
किसी ह्रदय में शेष 
रिश्वतखोरों के हाथों में 
चुभें नुकीले शूल जी 
अनाचार के संग सोएंगे 
गोखरू और बबूल जी 
*
अंकुर, पल्लव, कलियाँ महकें 
चहकें कोयल कूक 
सदा सुहागन हो कोशिश हर 
सपने हों बंधूक 
गगनबिहारी रहे न शासन 
याद रखे निज मूल जी 
माली बरगद कस पाएगा 
हर दिन ढीली चूल जी 


muktika

मुक्तिका
*
मन शिरीष खिलता रहे
व्यथा किसी से क्यों कहे?
*
सुन हँस सके न जड़ जगत
सूरज सम हर दिन दहे
*
नेह-नर्मदा नित नहा
अपनापन पल-पल तहे
*
अवमूल्यन की बाढ़ को
मुस्काता अविचल सहे
*
नए स्वप्न निज नयन में
नवपीढ़ी खातिर गहे
*
[भागवत जातीय, चण्डिका छंद]
५-६-२०१५

बुधवार, 1 जून 2016

kundalini

कुंडलिनी 

*
देख रहे गिरजेश हँस, गिरि पर खिला शिरीष 

गिरिजा से बोले विहँस, देखो मौन मनीष

देखो मौन मनीष, न नाहक शोर मचाता 

फूल लुटाता दाम न लेकिन कुछ भी पाता 

वैरागी सा खड़ा, मिटाता - खींच न रेख 

करता काम न औरों के गुण-अवगुण देख

***

navgeet

नवगीत
संजीव
*
खिलखिलाती उषा
                  हँसकर सिरस संग।
*
कहाँ गौरैया गयी?,
चुप खोजती।
फुदक शाखों पर नहीं
क्यों डोलती?
परागित पुष्पों से 
बतियाती पुलक-
रात की बातें बता
रस घोलती।
कुँआरी कलियों में
                  भर देती उमंग।
महमहाती धूप
                  मिलकर सिरस संग।
*
बजाते करताल
फलियाँ-बीज बज।
फूल झरते कहें-
'माया- मोह तज।'
छोड़ पत्ते शाख
बैरागिन हुई-
गया कान्हा भूल
कालिंदी-बिरज।
बिसारे बिसरें न
                  बीते राग-रंग।
मुस्कुराती साँझ
                  छिपकर सिरस संग।

जमीं में जड़ जमी
पतझड़ झेलता।
सिरस बरखा में
किलकता-खेलता।
बन जलावन, शीत
हरता, प्राण दे-
राख होता सिरस
विपदा झेलता।
लड़ रहा अस्तित्व की
                  नित नयी जंग।
कुनमुनाती रात
                  जगकर सिरस संग।
****