कुल पेज दृश्य

शब्द-यात्रा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
शब्द-यात्रा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

शब्द-यात्रा : अजित वडनेरकर

स रपत एक खास किस्म की घास का नाम हैं। पहाड़ों से मैदानों तक समूचे हिन्दुस्तान में यह हर उस जगह पाई जाती है जहां जलस्रोत होते हैं। खास तौर पर पानी के जमाव वाले इलाके, कछारी क्षेत्र, उथले पानी वाले इलाकों में इसकी बढ़वार काफी होती है। सरपत घास ज़रूर है पर वनस्पतिशास्त्र की नजर में बालियों वाली सारी वनस्पतियां घास की श्रेणी में ही आती है। गेहूं से धान तक तक सब। हां, सबसे प्रसिद्ध घास है गन्ना। उससे लोकप्रिय और मीठी वनस्पति और कोई नहीं। जहां तक भीमकाय घास का सवाल है, बांसों के झुरमुट को घास कहने का मन तो नहीं करता, पर है वह भी घास ही। सरपत भी सामान्य घास की तुलना में काफी बड़ी होती है। इसे झाड़ी कहा जा सकता है जो नरकुल की तरह ही होती हैं। आमतौर पर इनकी ऊंचाई दो-तीन फुट तक होती हैं। इसकी पत्तियां इतनी तेज होती हैं कि बदन छिल जाता है। बचपन में अक्सर बरसाती नालों को पार करते हुए हमने इससे अपनी कुहनियां और पिंडलियों पर घाव बनते देखे हैं। इसकी पत्तियां बेहद चमकदार होती हैं और सुबह के वक्त इसकी धार पर ओस की बूंदें मोतियों की माला सी खूबसूरत लगती हैं। बसोर जाति के लोग सरपत से कई तरह की वस्तुएं बनाते हैं जिनमें डलिया, बैग, चटाई, सजावटी मैट, बटुए, सूप हैं। हां, झोपड़ियों के छप्पर भी इनसे बनते हैं। सरपत शब्द बना है संस्कृत के शरःपत्र से। शरः का अर्थ होता है बाण, तीर, धार, चोट, घाव। पत्र का मतलब हुआ पत्ता यानी ऐसी घास जिसके पत्ते तीर की तरह नुकीले हों। सरपत का पत्ते को तीर की तुलना में तलवार या बर्छी कहना ज्याद सही है क्योंकि तीर तो सिर्फ अपने सिरे पर ही नुकीला होता है, सरपत तो अपनी पूरी लंबाई में धारदार होती है। सरपत के चरित्र को बतानेवाले इतने सारे अर्थ उसने यूं ही नहीं खोज लिए। ये तमाम अर्थ बताते हैं कि प्राचीनकाल से मनुष्य का सरपत से साहचर्य रहा है और किसी ज़माने में उसने इस घास का प्रयोग आत्मरक्षा के लिए भी ज़रूर किया होगा। इसीलिए इसे शरः कहा गया है। सभ्यता क्रम में मनुष्य ने सरपत से ही शत्रु की देह पर जख्म बनाए होंगे, उसे चीरा होगा। सिरे पर तीक्ष्णधार वाला तीर तो आत्मरक्षा की उन्नत तकनीक है जिसे विकासक्रम में उसने बाद में सीखा। तीर की तीक्ष्णता कृत्रिम और सायास है जबकि शर में तीर का भाव और गुण प्राकृतिक है। जाहिर है तीर का शरः नामकरण शरः घास के गुणो के आधार पर बाद में हुआ होगा। शरः बना है शृ धातु से जिसका मतलब होता है फाड़ डालना, टुकड़े टुकड़े कर देना, क्षति पहुंचाना आदि। हिन्दी संस्कृत में शरीर के लिए देह और काया जैसे शब्द भी हैं मगर सर्वाधिक इस्तेमाल होता है शरीर का। यह शरीर भी इसी शृ धातु से जन्मा है जिसका अर्थ नष्ट करना, मार डालना, क्षत-विक्षत करना होता है। इस शब्द संधान से साबित होता है कि चाहे देह के लिए शरीर शब्द आज सर्वाधिक पसंद किया जाता हो, मगर प्राचीनकाल में इसका आशय मृत देह से अर्थात शव से ही था। मनुष्य के विकासक्रम में इस शब्द को देखें तो पता चलता है कि प्राचीन मनुष्य के भाग्य में अप्राकृतिक कारणों से मृत्यु अधिक थी। वह राह चलते किसी मनुष्य से लेकर पशु तक का शिकार बनता था। यहां तक कि किन्हीं समुदायों में सामान्य मृत्यु होने पर भी शवों को वन्यप्राणियों का भोग लगाने के लिए उन्हें आबादी से दूर लावारिस छोड़ दिया जाता था ऐसे अभागों की क्षतिग्रस्त देह के लिए प्राचीनकाल से मनुष्य का सरपत से साहचर्य रहा है और किसी ज़माने में उसने इस घास का प्रयोग आत्मरक्षा के लिए भी ज़रूर किया होगा। ही शृ धातु से बने शरीर का अभिप्राय था। घास की एक और प्रसिद्ध किस्म है सरकंडा। इसमें भी चीर देने वाला शरः झांक रहा है। यह बना है शरःकाण्ड से। काण्ड का मतलब होता है हिस्सा, भाग, खण्ड आदि। सरकंडे की पहचान ही दरअसल उसकी गांठों से होती है। सरपत को तो मवेशी नहीं खाते हैं मगर गरीब किसान सरकंडा ज़रूर मवेशी को खिलाते हैं या इसकी चुरी बना कर, भिगो कर पशुआहार बनाया जाता है। वैसे सरकंडे से बाड़, छप्पर, टाटी आदि बनाई जाती है। सरकंडे के गूदे और इसकी छाल से ग्रामीण बच्चे खेल खेल में कई खिलौने बनाते हैं। हमने भी खूब खिलौने बनाए हैं। बल्कि मैं आज भी इनसे कुछ कलाकारी दिखाने की इच्छा रखता हूं, पर अब शहर में सरकंडा ही कहीं नजर नहीं आता। खरपतवार भी इसी शरःपत्र से बना शब्द लगता है। संस्कृत-हिन्दी में श वर्ण के ख में बदलने की प्रवृत्ति है। खरपतवार भी खेतों में फसलों के बीच उगने वाली हानिकारक घास-पात ही होती है। आमतौर पर इसे उखाड़ कर मेड़ पर फेंक दिया जाता है जिसे बाद में जलाने या खाद बनाने के में काम लिया जाता है।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

शब्द-यात्रा, अजित वडनेरकर

शब्द-यात्रा

अजित वडनेरकर

गर आप संगीत प्रेमी हैं और बाऊल संगीत नहीं सुना तो आपको अभागा माना जा सकता है । क्योंकि बाऊल तो भक्ति संगीत की एक ऐसी धारा है जिसमें डुबकी लगाए बिना गंगासागर में स्नान का पुण्य भी शायद निरर्थक है। बंगाल भूमि से उपजे इस भक्तिनाद में माधुर्य और समर्पण का ऐसा राग-विराग है जो श्रोता पर परमात्मा से मिलने की उत्कट अभिलाषा का रहस्यवादी प्रभाव छोड़ता है।

बाऊल भी इस देश की अजस्र निर्गुण भक्ति धारा के महान अनुगामी हैं जिनमें सूफी फ़कीर भी हैं तो वैष्णव संत भी। बाऊल बंगाल प्रांत के यायावर भजनिक हैं। ये आचार-व्यवहार से वैष्णव परिपाटी के होते हैं और चैतन्यमहाप्रभु की बहायी हुई भक्तिधारा का इन पर प्रभाव स्पष्ट है। मगर इन्हें पूरी तरह से वैष्णव कहना गलत होगा। बाऊल सम्प्रदाय में हिन्दू जोगी भी होते हैं और मुस्लिम फकीर भी। ये गांव-गांव जाकर एकतारे के साथ निर्गुण-निरंजन शैली के गीत गाते हैं। न सिर्फ बंगाल भर में बल्कि अब तो दुनियाभर में ये बेहद लोकप्रिय हैं।

आप अगर बाऊल संगीत सुन सकें तो हिन्दी फिल्मों के कई गीत याद आ जाएंगे, जो इस सरल संगीत शैली से प्रभावित हैं। इस सम्प्रदाय में सूफी मत से लेकर बौद्धों के तंत्र-मंत्रवादी रहस्यवाद का भी प्रभाव मिलता है। वैष्णवों की प्रेमपगी भक्तिसाधना तो इनकी पहली पहचान ही है।

बाऊल शब्द के विषय में कई तरह के मत प्रचलित हैं। एक मत के अनुसार यह शब्द फारस की सूफी परम्परा बा’अल से निकला है। यह पंथ बारहवीं सदी में यमन के प्रसिद्ध सूफी संत अली बा अलावी अल हुसैनी Ali Ba'Alawi al-Husaini के नाम से शुरू हुआ था। इस्लाम की सहज-सरल समानतावादी दृष्टि की शिक्षा देने वाले इस पंथ के सूफियों का भारत आगमन हुआ और बंगाल की संगीतमय पृष्ठभूमि में इन्हें अपने अध्यात्म को जोड़ते देर नहीं लगी।

एक अन्य मत के अनुसार बंगाल में बाऊल संगीत कब से शुरू हुआ कहना कठिन है मगर इसका रिश्ता संस्कृत के वातुल शब्द से है। वातुल बना है वात् धातु से जिसका मतलब है वायु, हवा। गौरतलब है कि शरीर के तीन प्रमुख दोषों में एक वायुदोष भी माना जाता है। बाहरी वायु और भीतरी वायु शरीर और मस्तिष्क पर विभिन्न तरह के विकार उत्पन्न करती है। आयुर्वेद में इस किस्म के बहुत से रोगों का उल्लेख है। वातुल शब्द में वायु से उत्पन्न रोग का ही भाव है। आमतौर पर जिसकी बुद्धि ठिकाने पर नहीं रहती उसके बारे में यही कहा जाता है कि इसे गैबी हवा लग गई है। बहकना शब्द पर ध्यान दीजिए। इसे आमतौर पर पागलपन से, उन्माद से ही जोड़ा जाता है। संस्कृत की वह् धातु का अर्थ भी वायु ही होता है अर्थात जो ले जाए। वायु की गति के आधार पर यह शब्द बना है। वह् का रूप हुआ बह जिससे बहाव, बहना या बहक-बहकना जैसे शब्द बने।

किसी रौ में चल पड़ना, या जिसका मन-मस्तिष्क किसी खास लहर पर सवार रहता हो, उसके संदर्भ में ही यह क्रिया बहक या बहकना प्रचलित हुई। जाहिर है, यहा वायुरोग के लिए ही संकेत है। वातुल के दार्शनिक भाव पर गौर करें। अपनी धुन में रहनेवाले, मनमौजी लोगों को भी समाज में पागल ही समझा जाता है। तमाम सूफी संतों, फकीरों, औलियाओं और पीरों की शख्सियत रहस्यवादी रही है। परमतत्व के प्रति इनकी निराली सोच, उसे पाने के अनोखे मगर आसान रास्ते और प्रचलित आराधना पद्धतियों-आराध्यों से हटकर अलग शैली में निर्गुण भक्ति का रंग इन्हें बावला साबित करने के लिए पर्याप्त था। स्पष्ट है कि वातुल से ही बना है बाऊल। इसी तरह वातुला से बना है बाउला या बावला। इसका एक अन्य रूप है बावरा। प्रख्यात गायक बैजू बावरा के नाम के साथ जुड़ा बावरा शब्द इसी वातुल से आ रहा है। बैजू की संगीत के प्रति दीवानगी के चलते उसे दीनो-दुनिया से बेखबर बनाती चली गई। सामान्य अर्थों में वह सामाजिक नहीं था, सो वातरोगी के लिए, उन्मादी के लिए प्रचलित बावला शब्द अपने दौर के एक महान गायक की पदवी बन गया।

किन्हीं विशिष्ट अवसरों पर चाहे आह्लादकारी हों या विशादकारी, प्रभावित व्यक्ति के विचित्र क्रियाकलापों को बौराना कहा जाता है। कुछ लोग इसे आम्रबौर से जोड़ते हैं। यह ठीक नहीं है। यह बौराना दरअसल बऊराना ही है यानी वातुल से उपजे बाऊल की कड़ी का ही शब्द। जिस मूल से बावरा जैसा शब्द बना है, उससे ही बौराना-बऊराना भी बना है। एक अन्य दृष्टकोण के अनुसार निर्गुण वैष्णव भक्तिमार्गियों के इस विशिष्ट सम्प्रदाय के लिए बाऊल शब्द के मायने इनकी उत्कटता, लगन और परमतत्व से मिलने की व्याकुलता है। व्याकुल शब्द ने ही ब्याकुल और फिर बाऊल रूप लिया। यूं देखा जाए तो वात या वातुल शब्द से बाऊल की व्युत्पत्ति का आधार मुझे ज्यादा तार्किक लगता है क्योंकि उसके पीछे भाषावैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण अधिक प्रभावी है। अली सरदार जा़फरी भी अपनी कबीरबानी में इन्हें बाऊल=बावला अर्थात उन्मत्त लिखते हैं जो सभी परम्परागत बंधनों से मुक्त होकर हवा की तरह मारे मारे फिरते हैं।

... अली सरदार ज़ाफरी साहब ने एके सेन की हिन्दुइज्म पुस्तक से एक बेहतरीन नजी़र दी है जो बाऊल क्या हैं, यह बताती है। सेन साहब ने ज्वार के वक्त गंगातट पर बैठे एक बाऊल से पूछा कि वे आने वाली पीढ़ियों के लिए अपना वृत्तांत क्यों नहीं लिखते। बाऊल ने कहा कि हम तो सहजगामी है, पदचिह्न छोड़ना ज़रूरी नहीं समझते। उसी वक्त पानी उतरा और मांझी पानी में नाव धकेलने लगे। बाऊल ने सेन महाशय को समझाया, ‘क्या भरे पानी में कोई नाव निशान छोड़ती है ? केवल वही मांझी जो मजबूरी की वजह से कीचड़ में नाव चलाते हैं, निशान छोड़ते हैं। बाऊल केवल बाऊल है। वह किसी भी वर्ग से आए।

******************