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सोमवार, 22 सितंबर 2025

पुरोवाक्, हिंदी गजल, अर्जुन चव्हाण

पुरोवाक्
''सामयिक वैचारिकी का फेस्ट है''- आप सब दोस्तों से एक रिक्वेस्ट है
आचार्य इं. संजीव वर्मा 'सलिल'
*


            गजल विश्व के साहित्य जगत को भारत भूमि का अनुपम उपहार है। लोक साहित्य में सम तुकांती अथवा समान पदभार की दोपदियों में कथ्य कहने की परिपाटी आदिकाल से रही है। घाघ, भड्डरी जैसे लोक कवियों की कहावतों में समान अथवा भिन्न पदभार तथा समतुकांती एवं विषम तुकांती रचनाएँ सहज प्राप्त हैं।
सम तुकांत, समान पदभार-
शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय।
तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाय।। 
विषम तुकांत, समान पदभार-
सावन सुक्ला सप्तमी, जो गरजै अधिरात।
बरसै तो झूरा परै, नाहीं समौ सुकाल।।   
सम पदांत, असमान पदभार-
गेहूं गाहा, धान विदाहा।
ऊख गोड़ाई से है आहा।।
ग़ज़ल का जन्म 
            काल क्रम में संस्कृत साहित्य में इस शैली में श्लोक रचे गए। संस्कृत से छंद शास्त्र फारसी भाषा ने ग्रहण किया। द्विपदियों को फारसी में शे'र (बहुवचन अश'आर) कहा गया। फारसी में एक द्विपदी के बाद समान पदांत और समान पदभार की पंक्तियों को संयोजन कर रचना को 'ग़ज़ल' नाम दिया गया। भारत में कविता का उद्गम एक क्रौंच युगल के नर का व्याध के शर से मरण होने पर क्रौंची के करुण विलाप को सुनकर महर्षि वाल्मीक के मुख से नि:सृत पंक्तियों से माना जाता है। फारस में इसकी नकल कर शिकारी के तीर से हिरनी के शावक का वध होने पर हिरनी द्वारा किए विलाप को सुनकर निकली काव्य पंक्तियों से ग़ज़ल की उत्पत्ति मानी गई। संस्कृत काव्य में द्विपदिक श्लोकों की रचना आदि काल से की जाती रही है। ​संस्कृत की श्लोक रचना में समान तथा असमान पदांत-तुकांत दोनों का प्रयोग किया गया। भारत से ईरान होते हुए पाश्चात्य देशों तक शब्दों, भाषा और काव्य की यात्रा असंदिग्ध है। १० वीं सदी में ईरान के फारस प्रान्त में सम पदांती श्लोकों की लय को आधार बनाकर कुछ छंदों के लय खण्डों का फ़ारसीकरण नेत्रांध कवि रौदकी ने किया। इन लय खण्डों के समतुकांती दुहराव से काव्य रचना सरल हो गयी। इन लयखण्डों को रुक्न (बहुवचन अरकान) तथा उनके संयोजन से बने छंदों को 'बह्र' कहा गया। फारस में सामंती काल में '​तश्बीब' (​बादशाहों के मनोरंजन हेतु ​संक्षिप्त प्रेम गीत), 'कसीदे' (रूप/रूपसी ​या बादशाहों की ​की प्रशंसा) तथा ​'गजाला चश्म​'​ (मृगनयनी, महबूबा, माशूका) से वार्तालाप ​के रूप में ​ग़ज़ल लोकप्रिय हुई​। भारत में द्विपदियों में पदभार के अंतर पर आधारित अनेक छंद (दोहा, चौपाई, सोरठा, रोला, आल्हा आदि) रचे गए। फारसी में छंदों की लय का अनुकरण और फारसीकरण कर बह्रें बनाई गईं। कहते हैं इतिहास स्वयं को दुहराता है, साहित्य में भी यही हुआ। भारत से द्विपदियाँ ग्रहण कर फारस ने ग़ज़ल के रूप में भारत को लौटाई। फारसी और पश्चिमी सीमांत प्रदेशों की भाषाओं के सम्मिश्रण से क्रमश: लश्करी, रेख्ता, दहलवी, हिंदवी और उर्दू का विकास हुआ। खुसरो, कबीर जैसे रचनाकारों ने हिंदी ग़ज़ल को जन्म दिया। फारसी में 'गजाला चश्म' (मृगनयनी) के रूप की प्रशंसा और आशिको-माशूक की गुफ्तगू तक सीमित रही ग़ज़ल को हिंदी ने वतन परस्ती, इंसानियत और युगीन विसंगतियों की अभिव्यक्ति के जेवरों से नवाजा। फलत: महलों में कैद रही ग़ज़ल आजाद हवा में साँस ले सकी। उर्दू ग़ज़ल का दम बह्रों की बंदिशों में घुटते देखकर उसे 'कोल्हू का बैल' (आफताब हुसैन अली) और  'तंग गली' (ग़ालिब) के विशेषण दिए गए थे। हिंदी ने ग़ज़ल को आकाश में उड़ान भरने के लिए पंख दिए। 
हिंदी ग़ज़ल
            हिंदी ग़ज़ल को आरंभ में 'बेबह्री' होने का आरोप झेलना पड़ा। खुद को 'दां' समझ रहे उस्तादों ने दुष्यंत कुमार आदि की ग़ज़ल के तेवर को न पहचानते हुए खारिज करने की गुस्ताखी की किंतु वे नादां साबित हुए। वक्त ने गवाही दी कि हिंदी ग़ज़ल फारसी और उर्दू की जमीन से अलग अपनी पहचान आप बन और बना रही थी। हिंदी ग़ज़ल ने मांसल इश्क की जगह आध्यात्मिक प्रेम को दी, नाजनीनों से गुफ्तगू करने की जगह आम आदमी की बात की, 'बह्र' की बाँह में बंद होने की जगह छन्दाकाश् में उड़ान भरी, काफ़ियों में कैद होने की जगह तुकांत और पदांत योजना में नई छूट ली, नए मानक गढ़े हैं। हिंदी ग़ज़ल की मेरी परिभाषा देखिए- 

ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म की परमात्म से फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
मुक्तिका है, तेवरी है, गीतिका है, सजल भी
पूर्णिका अनुभूति से संवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।

            हिंदी ग़ज़ल में अनेक प्रयोग किए गए हैं। यह दीवान ''आप सब दोस्तों से यह रिक्वेस्ट है' हिंदी के प्रामाणिक विद्वान शायर प्रो. अर्जुन चव्हाण लिखित १०५ प्रयोगधर्मी ग़ज़लों का महकता हुआ गुलदस्ता है। 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे-बयां और' की तरह अर्जुन जी का भी अपना बात कहने के तरीका और सलीका है। वे शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हैं। 'या हंसा मोती कहने या भूख मार जाय' अर्जुन जी चुनने की स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं करते। वे हिंदी, संस्कृत, मराठी, फारसी, अंग्रेजी या अन्य भाषाओं के शब्द ग्रहण करने में संकोच नहीं करते। अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए उन्हें जो शब्द उपयुक्त लगता है, चुन लेते हैं। उनके लिए तत्सम और तद्भव शब्द संपदा सारस्वत निधि है। हिंदी के प्राध्यापक होते हुए भी वे 'भाषिक शुद्धता' के संकीर्ण आग्रह से मुक्त हैं। इसलिए अर्जुन जी की ग़ज़लें आम आदमी की भाषा में आम आदमी से संवाद कर पाती हैं। 

            कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की सामर्थ्य अर्जुन जी के शायर में है। ''ऐसे ही नहीं, अच्छे लोगों की भीड़ चाहिए;  बेरुके खिलाफ खड़े होने को रीढ़ चाहिए'' कहकर वे निष्क्रिय बातूनी आदर्शवादियों को आईना दिखाते हैं। समाज में महापुरुषों का गुणगान करने या उन्हें प्रणाम करने की प्रथा है किंतु उनका अनुकरण करने की प्रवृत्ति बहुत कम है। महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा को समर्पित रचना में अर्जुन जी लिखते हैं- ''वंदन स्मरण नहीं,अनुगमन भी हो 'अर्जुन जी' समाज और देश सेवा की जान बिरसा मुंडा।'' न्याय व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रहार करने में अर्जुन जी तनिक भी संकोच नहीं करते- 

भेड़ियों और बकरियों का खेल है; 
टॉस में मगर दोनों ओर टेल है।। 
लोमड़ी की अदालत भेड़िया बरी 
      मेमनों को फांसी, ताउम्र जेल है।।    

            सामाजिक विसंगतियों को इंगित करते हुए अर्जुन जी हँस पर कौए को वरीयता देने की प्रवृत्ति को संकेतित कर प्रश्न करते हैं कि पितृ पक्ष में दशमी के दिन हँस पर कौए को वरीयता क्यों दी जाति है? सवाल है कि अगर कौए को वरीयता देने का कोई कारण है तो उसे हर दिन वरीयता दें, सिर्फ एक दिन क्यों? - 

पिंड छूने के वक्त, दसवें के दिन  में उनको 
हंस से बढ़कर अहम वो काग ही क्यों लगे? 

            समाज में तन को सँवारने और मन की अनदेखी करने की कुप्रवृत्ति पर शब्दाघात करते हुए अर्जुन जी व्यंग्य करते हैं- 

लोग अक्सर तन का करवा लेते हैं 
भूल जाते हैं मन के भी मसाज हैं  

            भारतीय संस्कृति अपने मानवतावादी मूल्यों 'वसुधैव कुटुंबकम्' और 'विश्वैक नीड़म्' के लिए सनातन काल से जानी जाती है। शायर अर्जुन नफरत को बेमानी बताते हुए मानवता की कजबूती की कामना करते हैं- 

दोस्ती के पुल मजबतू सारे चाहिए
दुश्मनी की ध्वस्त सब दीवारें चाहिए

क्या रखा है नफ़रत की ज़िंदगानी में
मानवता की मजबूती के नारे चाहिए 

            समाज में बढ़ती जा रही मानसिक बीमारियों का कारण तनाव को बताते हुए मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि  अपने मन में बच्चे को जिंदा  रखा जाए। अर्जुन जी समस्या और समाधान दोनों को यूं बयान करते हैं- 

जिंदगी में जिंदा अपने अंदर का बच्चा रख  
सब पकाना न समझदारी, कुछ कच्चा रख 
औरों पे उंगली उठाने से कोई सुधरेगा नहीं 
अपने मन का मिजाज  सदा से सच्चा रख 

            लोकतंत्र में हर नागरिक को पहरुआ बनकर गुहार लगाना चाहिए 'जागते रहो', तबही शासन-प्रशासन और न्याय व्यवस्था जागेगी अन्यथा लोकतंत्र का दामन दागदार हो जाएगा। 
 
दान करने, बेच देने का सवाल नहीं 
मताधिकार को गर सयाना वोटर है! 

            अर्जुन जी ज़िंदगी के हर पहलू को जाँचते-परखते हैं और तब विसंगतियों को सुसंगतियों में बदलने के लिए गजल लिखते हैं। गत ७ दशक के हिंदी साहित्य में व्याप्त नकारात्मक ऊर्जा ने समाज में नफरत, अविश्वास, द्वेष, टकराव, बिखराव का अतिरेकी शब्दांकन कर मनुष्य, परिवार, देश और समाज को हानि पहुँचाई है। यही कारण है कि समाज आज भी साहित्य के नाम पर संदेशवाही सकारात्मक रचनाओं को पढ़ता है। सं सामयिक साहित्य के पाठक नगण्य हैं। उपन्यास, कहानी, व्यंग्य लेख, नवगीत, लघुकथा आदि विधाओं में यथार्थवाद के नाम पर विद्रूपताओं को स्थान दिया जा रहा है। अर्जुन जी उद्देश्यपूर्ण, संदेशवाही सकारात्मक साहित्य का सृजनकर कबीर की तरह आईना दिखने के साथ-साथ राह भी दिखा रहे हैं। उनकी लिखी गज़लें इसकी साक्षी हैं। 

  छोड़ देती है आत्मा हमेशा साथ तब 
जिंदगी में जब कभी तनादेश होता है!
० 
किसी से माफी माँग, किसी को माफ़ कर; 
खुशनुमा जिंदगी की कुंजी रखें ढाँक कर! 
घर-आँगन रोज-ब-रोज करते रहते हो 
कभी मन का आँगन भी सारा साफ़ कर!
०  
है ढील या पाबंदी का नतीजा,पर सच है 
बच्चा जहाँ नहीं जाना, वहीं पर जाता है!
० 
साजिश क्यों, कोशिश चाहिए अर्जुन जी 
कामयाबी से वो,जो बेशक मिलाती है!
० 
किसी वृद्धाश्रम की जरूरत नहीं होगी, 
यदि अपने माँ-बाप खुशहाल भाई-भैन चाहते हैं!
० 
सितारा होटल के खाने से बढ़िया 
ठेलेवाले के छोले-भटूरे होते हैं! 
० 
फिर भी नदियाँ साथ में रहती ही हैं 
भले सारे के सारे जो खारे सागर हैं!
० 
दिल में जीत की जबरदस्त चाह चाहिए; 
जद्दोजहद में भी जीने की राह चाहिए!
एक सच याद रखना, सूरज हो या चाँद 
जिस दिन चढ़ता, उसी दिन ढलता है! 
० 
उंगली पकड़ के रखने से काम नहीं होगा 
बच्चे को खुद-ब-खुद चलने दिया जाए!
० 
आप ताउम्र घूमते रहते हैं दुनिया भर में 
नौकर को तनिक तो टहलने दिया जाए!
० 
सिर्फ राजधानी या ख़ास राजमहल की नहीं 
गुलशन की हर डाली फलनी-फूलनी चाहिए!
० 
बड़ों की दुनिया  कुछ और है 'अर्जुन जी' मगर
कौन है,जो फिदा न बच्चों की किलकारी पर!

            'आप सब दोस्तों से एक रिक्वेस्ट है' हिंदी गजल संग्रह की हर गजल गजलकार की ईमानदार सोच, बेलाग साफ़गोई, सबकी भलाई की चाह और निडर अभिव्यक्ति की राह पर कलम को हल की तरह इस्तेमाल कर 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय' के सद्भावपरक विचारों और आचारों की फसल उगाने की मनोकामना का प्रमाण है। अपने बात वहीं खत्म करूँ जहाँ से शुरू की थी-

सामयिक वैचारिकी का फेस्ट है
'आप सब दोस्तों से एक रिक्वेस्ट है'
.
 दोस्तों की दोस्ती ही बेस्ट है
डिश अनोखी है अनोखा टेस्ट है
.
फ्लैट-बंगलों की इसे जरुरत नहीं
रहे दिल में हार्ट इसका नेस्ट है
.
एनिमी से लड़े अर्जुन की तरह
वज्र सा स्ट्रांग सचमुच चेस्ट है
.
टूट मन पाए नहीं संकट में भी
दोस्ती दिल जोड़ने का पेस्ट है
.
प्रोग्रेस इन्वेंशन हिलमिल करे
दोस्ती ही टैक्निक लेटेस्ट है
.
जिंदगी की बंदगी है दोस्ती
गॉड गिफ्टेड 'सलिल' यह ही फेस्ट है
.
जीव को 'संजीव' करती दोस्ती
कोशिशों का, परिश्रम का क्रेस्ट है
००० 
संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष- ९४२५१८३२४४

शुक्रवार, 24 मई 2024

हिंदी छंद मंजूषा, आचार्य अनमोल, पुरोवाक्

पुरोवाक्
उज्ज्वल पिंगल प्रत्यूषा : हिंदी छंद मंजूषा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*

            छंद सृष्टि का मूल है। आध्यात्म के अनुसार सृष्टि का मूल अनाहद नाद (ॐ) है। विज्ञान का महाविस्फोट सिद्धांत (बिग बैंग थ्योरी) इसकी पुष्टि करता है। तदनुसार ध्वनि तरंगों के लगातार खरबों वर्ष टकराने से भारहीन कण, भारयुक्त कण तथा कण में चेतना संचार से जीवों का जन्म हुआ। आचार्य जगदीश चंद्र बोस ने यह सिद्ध किया कि वनस्पति तथा शिला, मृदा आदि भी चेतना और अनुभूति शून्य नहीं हैं। 'छंद वह जो सर्वत्र छा जाए' का आशय भी यही है कि छंद रहित कोई स्थान नहीं है। 'छंद' को 'वेदों का चरण कहा गया है। चरण के बिना किसी लक्ष्य तक पहुँचा नहीं जा सकता अर्थात छंद के बिना वेदों को जाना नहीं जा सकता। किसी को प्रसन्न करना हो तो चरण स्पर्श कर आशीष लिया जाता है आशय यह कि वेद और विधाता को प्रसन्न करना हो अथवा सृष्टि का मूल जानना हो तो वेद (ईश-वाणी) के चरण अर्थात छंद को पाना, ह्रदय में बसाना होगा। कात्यायन के अनुसार छंद के बिना मंत्रों का अध्ययन-अध्यापन और देवताओं को प्रसन्न करना असंभव है। छंद को अक्षर का परिमाण (नियामक) कहा गया है। मेदिनी कोश में छंद का अर्थ पद्य (काव्य) है।  आचार्य भरत (ई.पू. चौथी सदी) अपने कालजयी ग्रंथ नाट्यशास्त्र के १८ वें अध्याय में छंद के दो प्रकार नियताक्षर बंध तथा अनियताक्षर बंध बताते हैं। अक्षर वह जो अविनाशी है, ध्वनि या नाद ही अविनाशी है। 

            हिंदी ने अपभ्रंश और संस्कृत से छंद की विरासत ग्रहण की है। सनातन काल से अनमोल रहा छंद-ज्ञान आजकल अंतर्जाल पर बिना मोल लुटाया और लूटा जा रहा है किंतु अधिकांश पटल और समूह अधकचरा छंद ज्ञान परोस कर नवोदितों को भ्रमित कर रहे हैं। गुरुओं और शिष्यों दोनों का ध्यान लघु पथ (शॉर्ट कट) से छंद रचना करने तक सीमित है। इस कारण काव्य रचनाओं में आनुभूतिक सघनता और हृदस्पर्शी मारकता का अभाव उन्हें प्रभावहीन बना देता है। आचार्य अनमोल कृत 'हिंदी छंद मंजूषा' इस संक्रांति काल में बालारुण की तरह अज्ञान तिमिर का अंत कर उज्जवल पिंगल प्रत्यूषा बिखर कर नए कवियों के पथ प्रदर्शन हेतु रची गई है। इस कृति का वैशिष्ट्य गूढ़तम ज्ञान सरल-सहज बनाकर इस तरह उपलब्ध कराना है कि हर जिज्ञासु मन छंद को जान-पढ़-समझ कर रच सके। छंद-महत्व, काव्य-दोष, शब्द-शक्ति, भाव, अंग, प्रकार आदि की आधारभूत प्रामाणिक जानकारी के साथ वर्ण वृत्त, अर्धसम वर्ण वृत्त, कवित्त, मुक्तक छंद, मुक्त छंद, नवगीत तथा कतिपय नव छंदों के रचना विधान और उदाहरणों से सुसज्जित यह कृति हर छंदविद् और छंद विद्यार्थी के लिए उपयोगी है।  

            आचार्य अनमोल जी ने अपनी विद्वता की कुनैन सरलता की चाशनी में लपेटकर छंद को कठिन मानकर उससे दूर भागनेवालों के लिए शुगर कोटेड गोली की तरह उपलब्ध कराकर सर्व हितकारी कार्य किया है। पारंपरिक छंदों के साथ जापानी हाइकु छंद, पंजाबी माहिया छंद, वर्ण पिरामिड आदि ने कृति की उपादेयता में वृद्धि की है। कृति का वैशिष्ट्य काव्य दोषों (सपाट बयानी, अतिशयोक्ति, अधिकथन, अवकथन, असंगत सर्वनाम दोष, अपशब्द दोष, असंगत उपमा दोष, शब्द-विसंगति दोष, पुनरावृत्ति दोष, निरर्थक शब्द प्रयोग दोष, शब्द-विरोधाभास दोष आदि) की सोदाहरण प्रस्तुति है। अन्य ग्रंथों में काव्य दोष लगभग अंत में दिए जाते हैं ताकि छंद ज्ञान पाने के बाद दोष देखे सुधारे जा सकें। संभवत:, अनमोल जी का ध्येय कृति के आरंभ में ही छंद दोष देकर जिज्ञासुओं को सजग करना है कि वे छंदाध्ययन करते समय ही दोषों को देखकर लिखते समय उनसे बच सकें। यह उचित भी है, बाद में दोष दूर करने की अपेक्षा आरंभ से ही दोषों का परिमार्जन करने क अभ्यास होना बेहतर है। 

            पिंगल ग्रंथों में कुछ वर्णों को दग्धाक्षर कहा गया है। कवयादी इनका प्रयोग सामान्यत: वर्जित है किंतु शुभ प्रसंगों में अनुमेय है। इस मान्यता का वैज्ञानिक या तार्किक आधार स्पष्ट नहीं है। बहुधा जो एक के लिए शुभ होता है वह विरोधी के लिए अशुभ होता है। ऐसी मान्यताओं की जानकारी होना चाहिए किंतु इन्हें बंधक न मन जाए। 

            भाषा की तीनों शब्द शक्तियों अमिधा, व्यंजना तथा लक्षणा का सम्यक-संक्षिप्त विश्लेषण अनमोल जी ने किया है। छंद के षडांगों (चरण, वर्ण, मात्रा, गण,  गति, यति तथा तुक), स्वर भेद, मात्रा-गणना नियम, छंद-भेद आदि सभी के लिए उपयोगी हो इस तरह सरल कर प्रस्तुत किया गया है। पिंगल में 'पद' शब्द का बहुअर्थी प्रयोग नवोदितों को भ्रमित करता है। शब्दकोश में चरण, पद, पाद समानार्थी हैं किंतु छंद शास्त्र में 'दोहा को दोपदी' भी कहा जाता है' किंतु 'सूरदास के कृष्ण भक्ति पद अप्रतिम हैं', 'चौपाई के चारों चरण सोलह मात्रिक होते हैं' में 'पद' का अर्थ क्रमश: पंक्ति, संपूर्ण काव्य रचना तथा पंक्ति का एक भाग है। यहाँ यह समझना होगा की साहित्य में विज्ञान की तरह शब्द का अर्थ 'रूढ़' नहीं 'लचीला' होता है। साहित्य में 'ह्रदय' प्रेम का धाम है जबकि विज्ञान में शरीर को रक्त देने वाला पंप मात्र। साहित्य में शब्द का अर्थ प्रसंगानुसार लिया जाता है। अनमोल जी ने नाव अध्येताओं के लिए ऐसे प्रसंगों को पर्याप्त स्पष्ट किया है। 

            छंद शास्त्र के अधिकांश लक्षण ग्रंथ अत्यधिक विस्तार या अतिरेकी संकुचन से ग्रस्त हैं जबकि अनमोल जी ने यथावश्यक जानकारी देते हुए भी अनावश्यक विस्तार से दूरी बनाए रखी है। वे छंद के शिल्प (छंद प्रकार, पद-चरण, तुक नियम, गति-यति, अन्य विधान आदि) की जानकारी के साथ स्वरचित उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। छंद और रस का अंतरसंबंध तथा छंद में अलंकार का महत्व इन दो महत्वपूर्ण पक्षों का किंचित समावेश हो सकता तो ग्रंथ का कुछ विस्तार होने के साथ उपादेयता में वृद्धि होगी। उदाहरणों की सटीकता के प्रति अनमोल जी की सजगता सराहनीय है। 

            समकालिक लोकप्रिय ग्रंथों छंद प्रभाकर - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु',  छंद विधान- छंदोदय - बाबा दौलत राम, हिंदी छंदोलक्षण - नारायण दास, रस-छंद-अलंकार और काव्य विधाएँ- राजेंद्र वर्मा रामदेव लाल 'विभोर' आदि का अनुसरण न कर स्वतंत्रचेता अनमोल जी ने अपनी राह आप बनाकर हिंदी छंद मंजूषा का सृजन नवोदितों में छन्दानुराग उत्पन्न करने की दृष्टि से किया है. यह सनातन सत्य है कि कठिन होना बहुत सरल तथा सरल होना बहुत कठिन होता है। अनमोल जी ने कथन कार्य को सरलतापूर्वक संपादित करते हुए छंदाध्ययन को सहज बनकर महत कार्य किया है। मुझे विश्वास है कि यह कृति न केवल नवोदितों में अपितु सामान्य पाठकों और विद्वज्जनों में भी समादृत होगी। 
***
संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com 








गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

पुरोवाक्, चुनाव चकल्लस, गुरु सक्सेना, हास्य, पिंगल, छंद, घनाक्षरी, सवैया

पुरोवाक्:
'चुनाव चकल्लस' : हास्य रस से लबालब छंद कलश 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                    'सर्वोत्तम जिंदा रहे' ('सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट') ही सृष्टि में जीवन का मूल सूत्र है। मानवेतर प्राणियों में सर्वोत्तम की पहचान दैहिक बल से होती है। मानव में बुद्धितत्व की प्रधानता तथा भाषा का विकास होने के कारण जीवन का निर्धारण तन, मन तथा मति तीन  आधार पर भी होता है। बुद्धि की प्रधानता विकल्पों को पहचानकर सर्वोत्तम के चयन की कसौटी की दो विधियों संघर्ष और चयन में से दूसरे को प्राथमिकता देती है। इसका कारण संघर्ष से जन-धन की हानि तथा चयन से शांति व विकास होना है। 

                    जीव और जीवन में सामंजस्य, अनुशासन, सुव्यवस्था, विकास तथा शांति के लिए शासक और शासित का होना अपरिहार्य है। मानवेतर जीवों में शासक का चयन संघर्ष से हत्या है जिसमें पर्याय: पराजित के समक्ष प्राणहनी या पलायन के अलावा अन्य विकल्प नहीं होता किंतु बुद्धिजीवी मनुष्य शासक का चयन शांतिपूर्ण तरीके से करने को प्रमुखता दे रहा है। राजनीति शास्त्र में वर्णित विविध शासन पद्धतियों में से लोकतंत्र, प्रजातन्त्र या गणतंत्र (डेमोक्रेसी) शांतिमे शासन व्यवस्था परिवर्तन की श्रेष्ठ और लोकप्रिय पद्धति है। भारत में यह पद्धति वैदिक काल से यत्र-तत्र प्रचलित रही है। वर्तमान में भारत विश्व का सबसे अधिक बड़ा और सबसे अधिक सफल लोकतन्त्र है जिसमें प्रति पाँच वर्ष बाद अगले पाँच वर्षों के लिए चयनित जनप्रतिनिधियों से सबड़े अधिक बड़े समूह द्वारा बहुमत से अगले शासक का चुनाव किया जाता है। अनेकता में एकता भारत की विशेषता है। इस विशेषता, वृहद आकार तथा विशाल जनसंख्या के कारण चुनाव का अनुष्ठान विविध रोचक दृश्य उपस्थित करता है।

                   मानव भाव्यभिव्यक्ति के लिए गद्य तथा पद्य दो माध्यमों का उपयोग करता है। पद्य की सरसता, सहजता, सरलता, संक्षिप्तता तथा लोकप्रियता रोचक प्रसंगों की अभिव्यक्ति हेतु अधिक उपयुक्त है। हिंदी भाषी काव्य के ९ रसों ( श्रृंगार, हास्य, वीर, भयानक, बीभत्स, रौद्र, अद्भुत, शांत और करुण) में से सर्वाधिक लोकप्रिय हास्य रस है। किसी पदार्थ या व्यक्ति की असाधारण आकृति, वेशभूषा, चेष्टा आदि को देखकर अथवा किसी काव्य को सुनकर हृदय में जो विनोद का भाव जाग्रत होता है, उसे हास्य कहा जाता है। हास्यजनित आनंद या भाव की  अनुभूति ही हास्य रस है। किसी विचार, व्यक्ति, वस्तु व घटना का स्वरूप वैचित्र्य ही हास्य का जनक है। यह वैचित्र्य विस्मय या आश्चर्य उत्पन्न कार लक्षित व्यक्ति को गुदगुदा जाता है। भरतमुनि के अनुसार 'दूसरों की चेष्टा से अनुकरण से' ‘हास’ की उत्पत्ति तथा स्मित, हास एवं अतिहसित द्वारा अभिव्यक्ति होती है।' पण्डितराज 'वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने आदि से हास ही उत्पत्ति मानते हैं।' डॉ. गणेश दत्त सारस्वत के मत में'हास्य जीवन की वह शैली है, जिससे मनुष्य के मन के भावों की सुंदरता झलक उठती है।' हास्य वास्तव में निच्छल मन से निकला, मानव मन का वह कवच है जो उद्दात्त भावों को नियंत्रण कर हमें पृथ्वी पर रहने योग्य बनाता है। विश्वप्रसिद्ध लेखक "वाल्तेयर" ने कहा था' जो हँसता नहीं वो लेखक नहीं हो सकता।' मार्क ट्वेन के अनुसार समाज की सही तस्वीर उतारने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी व्यंगकार पर ही है।


                   हास्य रस के दो प्रकार आत्मस्थ हास्य रस (किसी व्यक्ति या विषय की विचित्र वेशभूषा, वाणी, आकृति तथा चेष्टा आदि को देखने  से उत्पन्न) तथा परस्थ हास्य रस (हँसते हुए व्यक्ति को देखकर जो उत्पन्न हास्य) हैं। आचार्य केशवदास ने हास के ४ प्रकार मन्दहास, कलहास, अतिहास एवं परिहास माने हैं। आधुनिक काव्यशास्त्र ने हास्य के छ: प्रकार स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अपहसित तथा अतिहसित बताए हैं। हास्य रस का  स्थाई भाव- हास (हास्य), आलंबन विभाव-  विकृत वेशभूषा, आकार, क्रियाएँ, चेष्टाएँ आदि,  उद्दीपन विभाव- अनोखा पहनावा और आकार, बातचीत और क्रिया-कलाप, अनुभाव- आश्रय की मुस्कान, आँखों का मिचमिचाना, ठहाका, अट्ठहास आदि  तथा संचारी भाव हँसी, उत्सुकता, चपलता, कंपन, आलस्य आदि हैं। अमिधा-लक्षणा से हास्य तथा लक्षण-व्यंजना से व्यंग्य का सृजन होता है। 

                   भारतीय लोक साहित्य तथा हिंदी साहित्य में पुरातन काल हास्य की समृद्ध परंपरा है। नौटंकी, लोकनृत्य, लोकगीत, लोककथा,  आख्यायिका, नाटक, गीत, महाकाव्य, पंचतंत्र, जातक कथाएँ, अभिज्ञान शाकुन्तलम् आदि में हास्य चिर काल से है। उपनिषदों, पंचतंत्र, जातक कथाओं, पर्व कथाओं, बोध कथाओं, सूर रचित कृष्ण लीला के पदों, पृथ्वीराज रासो में चंदरबरदाई और जयचंद की वार्ता, भारतेंदु हरिश्चंद (अंधेर नगरी, ताजीराते शौहर), गोपालराम 'गहमरी', प्रताप नारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त, बालकृष्ण भट्ट, शिवपूजनसहाय, विश्वभरनाथ शर्मा 'कौशिक', बाबू गुलाबराय, रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी',  मुंशी प्रेमचन्द, काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, झलकन लाल वर्मा छैल, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्र नाथ त्यागी, पद्मश्री के.पी. सक्सेना, गुरु सक्सेना (साँड़ नरसिंहपुरी), सुरेश उपाध्याय, सुरेन्द्र शर्मा, हुल्लड़ मुरादाबादी, अशोक चक्रधर, अनूप श्रीवास्तव, संजीव वर्मा 'सलिल', राजेंद्र वर्मा, अरुण अर्णव खरे, इन्द्रबहादुर श्रीवास्तव आदि अगिन साहित्यकारों ने हास्य-व्यंग्य की श्रेष्ठ गाड़ी-पद्य रचनाओं के द्वारा हिंदी साहित्य को और समृद्ध किया। 

                   हास्य-व्यंगकार हँसते-हँसते सब कुछ कह जाता है और सुनने वाले भी बिना बुरा माने हँसते- हँसते सुनते हैं और फिर सोचने के लिए बाध्य भी होते हैं कि हम खुद की कारस्तानियों , खुद के द्वारा उत्पन्न की हुई परिस्थिति पर स्वयं ही हँस रहे हैं। वास्तव में जो बात क्रोध से, शांति से कहने में समझ नहीं आती वो इंसान हँसी -हँसी में समझ लेता है चूँकि उसका अहम् आहत नहीं होता। इसलिए हास्य-व्यंग्य प्रधान साहित्य से समाज को स्वास्थ्य दिशा दिखाकर सामाजिक परिवर्तन करना संभव हो पाता है।

                   इस पृष्ठ भूमि में सनातन सलिला नर्मदा के तट पर भारत के हृद प्रदेश के निवासी गुरु सक्सेना जी की नवीनतम कृति 'चुनाव चकल्लस' भारतीय राजनीति, लोकतंत्र तथा जन सामान्य के लिए पथ प्रदर्शक कृति है। गुरु सक्सेना ग्रामीण और नगरीय जीवनशैली, कृषक और शिक्षक वृत्ति, चिंतक और व्यंगकार मनोवृत्ति के कॉकटेल हैं। मसिजीवी कायस्थ कुल (मैं कायस्थ कुलोद्भव मेरे पुरखों ने इतना ढाला, मेरे लोहू में मिश्रित है पचहत्तर प्रतिशत हाला) उत्पन्न गुरु जी शुद्ध शाकाहार और सात्विक आचार-आहार के पक्षधर हैं। गुरु जी के व्यक्तित्व-कृतित्व को 'विचित्र किंतु सत्य' ही कहा जा सकता है।

                   १६ प्रकार के घनाक्षरी छंद (मनहरण, जनहरण, जलहरण, कलाधर, रूप, डमरू, कृपाण, विजया, देव, महीधर, सूर, नीलचक्र अशोक पुष्प मंजरी, सुधा निधि, अनंगशेखर व मत्त मातंग लीलाधर), १० प्रकार के सवैए (सुमुखी, वाम, मुक्तहरा, लवंगलता, मत्तगयंद, मदिरा, मंदारमाला, चकोर अरसात व किरीट)  तथा २१ अन्य छंद रत्नों (सरसी, कनकमंजरी, राधा, विजात, गीतिका, अहीर, दीनबंधु, चंद्र, दिग्पाल, मानव, हाकलि, प्रदीप, लावणी, ताटंक, शिव, भानु, राधिका, सुमेरु, तोटक, द्वि मनोरमा) के छंद विधान एवं उदाहरणों से समृद्ध 'चुनाव चकल्लस' 'एक के साथ एक फ्री' के समय में मनोरंजन के साथ-साथ छंद शास्त्र की पर्याप्त जानकारी भी देती है।   

                   'चुनाव चकल्लस' का रचनाकार कुशल छंदज्ञ, गंभीर विचारक, ओजस्वी मंचीय कवि तथा सहज-सरल व्यक्तित्व का धनी है। अपने आप पर हँसने का माद्दा कम ही लोगों में होता है। गुरु उन्हीं कम लोगों में से एक हैं। वे खुद अपना ही परिचय इस तरह देते हैं- 

करने को कोई काम नहीं
अण्टी में बिलकुल दाम नहीं
भारत माता के नूर हैं हम
हर हालत में मजबूर हैं हम

                   यह 'भारत माता का नूर' देश के राजनैतिक आकाओं को उनकी औकात निम्न पंक्तियों के आईने में दिखाता है-

नदियों से रेत साफ,जंगलों से पेड़ साफ, लड़कियों के भ्रूण साफ, भारत महान है ।
कविता से छंद साफ, नेह के संबंध साफ, सफाई का साफ साफ, हो रहा ऐलान है।
शांति के लगाव साफ, सारे सद्भाव साफ, धरने को देख संविधान परेशान है।
लगता है पूरा देश साफ करके रहेंगे, सड़क सड़क सफाई का अभियान है।

                   कवि गुरु सक्सेना की कलम सच कहने से न तो डरती है, न हिचकती है। सिर पर कफन बाँधकर, शासन-प्रशासन की बखिया उधेड़ने की कला का साहस और परिस्थितियों की विद्रूपता पर करारी चोट करने का कौशल गुरु को 'गुरु' बनाता है। शासन-प्रशासन द्वारा विधि के शासन की परवाह न कर बुलडोजर संस्कृति अपनाने के दौर में सत्य कहने का दुस्साहस करनेवाले अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला पत्रकार जगत सत्ता-स्तुति को ही लक्ष्य बना चुका है किंतु गुरु का गुरुत्व सत्ता को आईना दिखने से नहीं चूकता - 

यह चुनाव का पर्व मिला है पाँच साल के बाद। 
हे चुनाव का क्षेत्र बना है कुंभ इलाहाबाद।। 
जो भी घाट सामने आया गहरी डुबकी मार। 
पूजा नगद नरायण की कर हो जा सागर पार।। 
रंग रूप दल से क्या मतलब, किसमें क्या है खोट?
कुछ मत देख देखना है तो देख नोट ही नोट।। 
सारे ऐब सहज ढँक जाते जहाँ नोट की छाँव।
नोट बिछाकर सब निकले हैं पड़ने कुर्सी-पाँव।।
                   
                   वर्तमान बाजार संस्कृति 'एक के साथ एक फ्री' के पाखंड रचकर आमजन की जेब खाली कराने को ठगी नहीं, प्रबंध कौशल की संज्ञा देकार जेब खाली करा लेती है। गुरु की छांदस रचनाएँ 'एक (मनोरंजन) के साथ तीन (पिंगल-ज्ञान, कर्तव्य बोध तथा स्वस्थ्य चिंतन) फ्री देकर लोकतंत्र की नींव दृढ़ करने के लिए सजग जनमत बनाने का काम करती हैं। मतदान करने की प्रेरणा देने के साथ-साथ नवोढ़ा कुलवधुओं को कर्तव्य की सीख देती निम्न घनाक्षरी कवि गुरु जी के सामर्थ्य के परिचायक है-   

रखा रख फट नहीं जाए इस कारण से समय से दूध को उबालना जरूरी है। 
बहू बन घर में आ जाना बड़ी  बात नहीं, तरीके से घर को सम्हालना जरूरी है।।
बच्चे पैदा कर देना कोई बड़ी बात नहीं, फिकर के साथ उन्हें पालना जरूरी है। 
लोकतंत्र मजबूत रहे देश ठीक चले, हर आदमी को वोट डालना जरूरी है।।   

                वर्ण और मात्रा को लक्ष्मण रेखा मानकर किताबी यांत्रिक विधि से नीरस छंद रचे जाने के वर्तमान कल में गुरु जमीन से जुड़कर, छंद सृजन की वाचिक परंपरा के अग्रदूत की तरह सरस छंद रच रहे हैं। भाषा की तथाकथित शुद्धता के पत्थर उछालने-मारनेवाले नासामझों को तर्क नहीं सृजन से उत्तर देते हैं। गुरु के छंदों की भाषा देशज-तद्भव शब्दावली संपन्न है। कथ्य की पतली रस्सी पर गति-यति का बाँस थामे गुरु नट की तरह संतुलन कौशल साधकर श्रोता-पाठक को करतल ध्वनि और वाह वाह करने के लिए विवश कर देते हैं। मुझे भरोसा है कि कॉनवेंटी नई पीढ़ी, नगरीय अपसंस्कृति को जी रहे बाबू साहबों- नव धनाढ्य सेठों तथा ग्राम्य और वन्य क्षेत्रों में रह रहे कुशकों-श्रमिकों  को गुरु जी के इन छंदों से दायित्व बोध होगा तथा वे नकली दूरदर्शनी और मोबाइली दुनिया से निकलकार अपनी माटी से जुड़ने की दिशा ग्रहण कर सकेंगे। इस लोकोपयोगी कृति से विश्ववाणी हिंदी के सारस्वत कोश को समृद्ध करने के लिए गुरु सक्सेना साधुवाद के पात्र हैं। 
***
संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com 

बुधवार, 7 फ़रवरी 2024

घनाक्षरी, गुरु सक्सेना, पुरोवाक्

पुरोवाक्
छंदों की किताब - घनाक्षरी लाजवाब
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                    महा विस्फोट सिद्धांत (बिग बैंग थ्योरी) के अनुसार लगभग १५ अरब वर्ष पूर्व ब्रह्मांड का निर्माण आरंभ हुआ। विस्फोट जनित नाद-निनाद ही सृष्टि उत्पत्ति का कारण है। भारतीय मनीषा नाद ब्रह्म की उपासना 'ॐ' ध्वनि से करती है जो सूर्य के प्रभा मण्डल से भी निसृत होता है। यह विज्ञान ने भी प्रमाणित किया है। ज्ञान-विज्ञान-कला की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की वीणा से सप्त स्वर निनादित होते हैं। नाद तरंगों के सतत प्रवहण, टकराव, मिलन, बिखराव आदि के फल स्वरूप भारहीन कण तथा कालांतर में भारयुक्त कण का जन्म हुआ। यह निराकारी परब्रह्म का साकारी ब्रह्म में रूपांतरण होना है। चित्रगुप्त के गुप्त चित्र का प्रगटीकरण यही है। नाद-निनाद जो सकल सृष्टि पर छाया और निराकार के साकार होने में सहायक हुआ, यही छंद है। इस नाद की ध्वनि तरंगों की आवृत्ति सुनियोजित तथा लयबद्ध थी इसीलिए छंद में 'लय' का महत्व सर्वाधिक है। नाद-निनाद में लय तथा आवृत्ति की भिन्नता से सृष्टि के विविध तत्वों का निर्माण हुआ।

                    भौतिक विज्ञान के अनुसार लगभग १३.७ अरब वर्ष पूर्व एक बहुत छोटे से बिंदु से फैलते हुए ब्रह्माण्ड का निर्माण व क्रमश: विस्तार हुआ। चारों वेदों और स्कंद पुराण 'रेवा खंड' में वर्णित सनातन सलिला मेकलसुता शिवात्मजा-शिवप्रिया नर्मदा की लम्हेटा घाट संरचना लगभग ६.५ करोड़ वर्ष प्राचीन है। लगभग ५ करोड़ वर्ष पूर्व दक्षिणी गोंडवाना लैण्ड्स और उत्तरी अंगारा लैण्ड्स से प्रवहित नदियों द्वारा लाखों वर्षों तक टेथिस महासागर (वर्तमान हिमालय, कश्मीर, पंजाब, राजस्थान उत्तर प्रदेश, बिहार झारखंड, छतीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात आदि) में बहाई गई मिट्टी ने महासागर को पूर दिया। लगभग ३ करोड़ वर्ष पूर्व हिमालय तथा २ करोड़ वर्ष पूर्व गंगा नदी का उद्भव काल है। नर्मदा घाटी में विचरनेवाले भीमाकारी डायनासौर राजासौरस नर्मडेन्सिस का काल लगभग २० लाख वर्ष पूर्व का है। नर्मदा घाटी में आदि मानव द्वारा बनाए गए शैल चित्र लगभग २५ हजार से ३५ हजार वर्ष पूर्व के हैं। यह संकेत करने का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि 'छंदों की किताब' का रचयिता उस कलकल निनादिनी नर्मदा का सुत है जिसके दक्षिण में 'असुर' तथा उत्तर में 'सुर' सभ्यताओं का जन्म, विकास और टकराव हुआ तथा इस घटनाक्रम में नर्मदा घाटी की नाग सभ्यता 'दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय' की गति को प्राप्त हुई। वेदकालीन सूर्य ऋषि की तनया नंदिनी तथा नागकुल राजकन्या इरावती से विवाहित दोनों कुलों के पूज्य कर्मेश्वर धर्मेश्वर लिपि-लेखनी-अक्षर दाता श्री चित्रगुप्त के महावंश में जन्म लेने का सौभाग्य इस कृति के कृतिकार को और मुझे भी मिला है। स्वाभाविक है कि वृत्ति से शिक्षक और अभिरुचि से कवि (मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य - नीरज) शब्द ब्रह्म की सतत आराधना करते-करते छंद से साक्षात करे और कराए।

                    नर्मदा तट साधना से सिद्धि और गंगा तट सिद्धि से प्रसिद्धि के लिए चिरकाल से ख्यात है। 'नर्मम् ददाति इति नर्मदा' अर्थात जो आनंददेनेवाली है वह नर्मदा है। संस्कृत की 'चिद' धातु से बने 'छंद' का अर्थ आह्लादित करना है। नर्मदा-दर्शन से आनंद और छंद-सृजन से आह्लाद प्राप्ति का दुर्लभ सुख मुझ मूढ़मति को मिल रहा है तो मुझसे ज्येष्ठ गुरु जी की सुपात्रता असंदिग्ध है ही।

                    भगवान ब्रह्मा को कलुषित मति हेतु मिले श्राप से मुक्त कराने वाले ब्रह्मांड घाट (बरमान) में नर्मदा के सलिल-प्रवाह में अवगाहन का सौभाग्य कृतिकार को मिला है। बरमान घाट में  परमब्रह्म चित्रगुप्त भगवान के मंदिर निर्माण और विग्रह स्थापन का माध्यम बनने का सौभाग्य इन पंक्तियों के लेखक को मिला है। कृतिकार के पूर्व जन्म के संस्कार उसे कवि-मञ्च के प्रपंच की ऊँचाई तक पहुँचाने के बाद छंद-साधना और सिद्धि की दिशा में गतिमान कर चुके हैं। सिद्धि का प्रसाद श्रद्धालुओं को वितरित करने की परंपरा का निर्वाह इस कृति के माध्यम से हो रहा है, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है।

छंद-महत्व तथा विरासत

                    'यदक्षरं परिमाणं तच्छन्दः' अर्थात् जहाँ अक्षरों की गिनती की जाती है या परिगणन किया जाता है, वह छन्द है। पाणिनीय शिक्षा में छन्दों के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है-'छन्दः पादौ तु वेदस्य'। यहाँ 'पैर' से भाव 'लात' नहीं 'चरण' ग्राह्य है। वेद मंदिर में प्रवेश चरण के बिना नहीं किया जा सकता अर्थात छंद जाने बिना वेद को समझा नहीं जा सकता। संस्कृत वांगमय में ७ वैदिक छंद (गायत्री २४ अक्षर, उष्णिक २८ अक्षर, अनुष्टुप् ३२ अक्षर, बृहती ३६ अक्षर, पंक्ति: ४० अक्षर, त्रिष्टुप ४४ अक्षर तथा जगती ४८ अक्षर) तथा १४ अति छंद (अतिजगती ५२ अक्षर, शक्वरी ५६ अक्षर, अतिशक्वरी ६० अक्षर, अष्टि ६४ अक्षर, अत्यष्टि ६८ अक्षर, धृति ७२ अक्षर, अतिधृति ७६ अक्षर, कृति ८० अक्षर, प्रकृति ८४, अक्षर, आकृति ८८ अक्षर, विकृति ९२ अक्षर, संस्कृति ९६ अक्षर, अभिकृति १०० अक्षर तथा उत्कृति १०४ अक्षर) हैं। इसके अतिरिक्त वार्णिक (सम, अर्धसम, विषम) तथा मात्रिक वृत्तों में विभक्त लौकिक छंद हैं। हिंदी छंद शास्त्र को अपभ्रंश तथा संस्कृत पिंगल की उदात्त विरासत प्राप्त है। हिंदी पिंगल के सर्वमान्य ग्रंथ छंद प्रभाकर (रचयिता जगन्नाथ प्रसाद 'भानु') में लगभग ७०० लौकिक छंदों का रचना विधान तथा उदाहरण प्राप्त हैं। गुरु जी ने छंद शास्त्र के उपलब्ध ग्रंथों का अनुशीलन कर अपने प्रिय घनाक्षरी छंद को केंद्र में रखकर इस पिंगल ग्रंथ का सृजन किया है।

घनाक्षरी

                    हिंदी पिंगल के सर्वकालिक सर्वाधिक लोकप्रिय छंदों में एक 'घनाक्षरी' का सृजन कवि की काव्य कला की कसौटी है। घनाक्षरी (घन + अक्षरी) नाम ही संकेत करता है कि इस छंद में अक्षरों का संगुफन सघन है। घनाक्षरी में सघनता भावों, रसों, अलंकारों, शब्द शक्तियों आदि की सघनता होना घनाक्षरीकार की गुरुता की परिचायक होती है। इस कृति की घनक्षरियों में विविध आयामी सघनता पंक्ति-पंक्ति में दृष्टव्य है। यदि इस दृष्टि से विवेचन किया जाए तो एक स्वतंत्र ग्रंथ ही तैयार हो जाएगा। इसलिए, यह विवेचन भावी शोधकर्ताओं के लिए छोड़ता हूँ। 
  
                    घनाक्षरी में 'चार' का महत्व है। चार पंक्तियाँ, चार यति स्थल। परंपरा से प्राप्त घनाक्षरी छंद ४ x २ = ८ (३१ वर्ण- मनहरण व जनहरण तथा ३२ वर्ण - रूप, जलहरण, डमरू, विजया, कृपाण तथा हरिहरण ) हैं। गुरु जी ने अपनी गुरुता के हस्ताक्षर करते हुए ७ अन्य घनाक्षरियों (३१ वर्ण- कलाधर, ३२ वर्ण- अनंगशेखर, सुधानिधि, मदनहरण,  ३३ वर्ण- देव, महीधर, ३० वर्ण सूर) पर न केवल रचनाएँ की हैं, पुस्तकांत में सभी १५ घनक्षरियों का रचना विधान भी संलग्न कर दिया है ताकि नव घनाक्षरीकार जोर आजमाइश कर सकें। 

                    घनाक्षरी छंद का परिवार बहुत बड़ा है। वर्ण मर्यादा के अनुसार ३१, ३२ तथा ३३ वर्णों के छंदों को घनाक्षरी माना जाए तो कुल प्रकार के छंद इस कुल में सम्मिलित होते हैं जिनकी यति, तुकांत आदि खोजे जा सकते हैं किंतु ये सभी घनाक्षरी इसलिए नहीं हो सकते कि इनकी लय घनाक्षरी कुल के छंदों की लय से सादृश्य नहीं रख सकेगी। इन छंदों में से किन-किन में घनाक्षरी कुल की लय है यह अन्वेषण शोध परियोजना में ही हो सकता है। व्यावहारिकता का तकाजा है कि भावी पीढ़ी को घनाक्षरी के चारुत्व और लालित्य से परिचित कराने के लिए अब तक अन्वेषित घनाक्षरियों के रचना विधान और उत्तम उदाहरण सुलभ कराए जाएँ। अंतर्जाल पर ८ जनवरी २००९ को हिंदयुग्म.कॉम पर घनाक्षरी की चर्चा प्रथमत: इन पंक्तियों के लेखक ने की थी और लगभग २ वर्ष चली विश्व की सर्वाधिक लंबी छंद शिक्षण शृंखला में घनाक्षरी  लेखन का विधान, उदाहरण और शिक्षण किया था। इस कार्यशाला की दो घनाक्षरियाँ प्रस्तुत हैं- 

भारती की आरती उतारिये 'सलिल' नित, सकल जगत को सतत सिखलाइये.
जनवाणी हिंदी को बनायें जगवाणी हम, भूत अंगरेजी का न शीश पे चढ़ाइये.
बैर ना विरोध किसी बोली से तनिक रखें, पढ़िए हरेक भाषा, मन में बसाइये.
शब्द-ब्रम्ह की सरस साधना करें सफल, छंद गान कर रस-खान बन जाइए.
*
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर, मनहर घनाक्षरी, छंद कवि रचिए।
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में, 'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिए।।
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम, गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए।
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण- 'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए।।

मेरे वेब स्थल दिव्य नर्मदा.इन पर घनाक्षरी संबंधी ४७ प्रस्तुतियाँ उपलब्ध हैं। घनाक्षरी शिक्षण की दिशा में इस कृति के माध्यम से गुरु जी ने यह सराहनीय कार्य किया है। वे साधुवाद के पात्र हैं। आज बीसों वेब स्थलों पर घनाक्षरी शिक्षण का कार्य जारी है। 

                घनाक्षरी को समृद्ध करनेवाले कालजयी घनाक्षरीकारों में देव, दूलह, नंदराम, पजनेस, गोस्वामी तुलसीदास, रहीम, गंग, बोधा, ग्वाल, द्विज, नवनीत, सेनापति, केशव, बिहारी, पद्माकर, भूषण, घनानंद, वृंद,  प्रताप सिंह , मतिराम, चिंतामणि, भिखारीदास, रघुनाथ, बेनी, टीकाराम, ग्वाल, चन्द्रशेखर बाजपेई, हरनाम, कुलपति मिश्र, नेवाज, सुरति मिश्र , कवीन्द्र उदयनाथ, ऋषिनाथ, रतन कवि, बेनी बन्दीजन, प्रवीन, ब्रह्मदत्त, ठाकुर बुन्देलखण्डी, बोधा, गुमान मिश्र, महाराज जसवन्त सिंह, भगवन्त राय खीची, भूपति, रसनिधि, महाराज विश्वनाथ, महाराज मानसिंह, मतिराम, रत्नाकर, नरोत्तमदास, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, ब्रजेन्द्र अवस्थी, काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी आदि तथा समकालिक घनाक्षरीकारों में सत्यनारायण सत्तन, उदय प्रताप सिंह, विष्णु विराट, हरिओम पंवार, जगदीश सोलंकी, अल्हड़ बीकानेरी, ओमप्रकाश आदित्य, विनीत चैहान, वेदव्रत वाजपेयी, ओमपाल सिंह 'निडर', रामदेव लाल 'विभोर', संजीव वर्मा 'सलिल', गुरु सक्सेना, राजेन्द्र वर्मा, ब्रजेश सिंह, ॐ नीरव आदि तथा नवोदित घनाक्षरीकारों में प्रवीण शुक्ल, चोवाराम बादल, छाया सक्सेना, नीलम कुलश्रेष्ठ, मिथलेश बड़गैया, हरि सहाय पांडे,  बसंत शर्मा, अनिल बाजपेई, मीना भट्ट, मनीषा सहाय 'सुमन', अरुण श्रीवास्तव, 'अर्णव', अरुण दीक्षित अनभिज्ञ, सुरेन्द्र यादवेंद्र, शशिकांत यादव, राहुल राय, पवन पांडेय, गौरी शंकर धाकड़, कैलाश जोशी पर्वत, राजेन्द्र चौहान, विवेक सक्सेना, विजय बागरी, कैलाश सोनी सार्थक, अखिलेश प्रजापति, अखिलेश त्रिपाठी 'केतन', प्रतीक तिवारी, प्रीतिमा पुलक आदि उल्लेखनीय हैं। स्पष्ट है कि घनाक्षरी का सृजन दुरूह होने के बाद भी इसके प्रति नई पीढ़ी में लगाव है और इसीलिए घनाक्षरी का भविष्य उज्ज्वल है। 

गुरु की घनाक्षरियाँ 

                घनाक्षरी की किताबी शिक्षा दे रहे स्थलों पर घनाक्षरी को वार्णिक  छंद के रूप में यति स्थान तक सीमित कर सिखाया जा रहा है। मेरा और गुरु जी का मानना है कि अन्य छंदों की तरह घनाक्षरी भी वार्णिक या मात्रिक नहीं मूलत: वाचिक छंद है जिसका गायन उच्चार पर आधारित है। यही कारण है कि निरक्षर कवियों (कृषकों, श्रमिकों, संतों आदि) ने भी उत्कृष्ट और कालजयी घनक्षरियों का सृजन किया है। ये घनाक्षरियाँ लोक के कंठ में अमरत्व पा सकी हैं। इनमें लय को प्रमुखता देते हुए शब्दों को शब्दकोषीय रूप-बंधन से मुक्त कर लय की आवश्यकतानुसार परिवर्तित कर प्रयोग किया गया है। लोकभाषा हिंदी को लोक से जुड़ा रहना है तो उसे विश्वविद्यालायीन किताबी रूप से भिन्न होना होगा। घनाक्षरी छंद यह कार्य चिरकाल से कर रहा है। गुरु की घनाक्षरियाँ इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। 

                उच्चार और लय का समन्वय इस तरह करना कि शब्द-परिवर्तन के बाद भी उसके अर्थ और भाव में परिवर्तन न हो, कवि की कसौटी है। गुरु की घनाक्षरियाँ इस कसौटी पर शत-प्रतिशत खरी हैं। जिसने भी गुरु के कंठ से इन घनाक्षरियों का पाठ सुना है, वह जान सकेगा कि उच्चार और लय का सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाता है। मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं हैं कि वर्ण गणना और यति स्थान पर आधृत अधिकांश घनाक्षरियाँ लय के निकष पर खरी नहीं हैं और उनका कोई भविष्य भी नहीं है। 
                
                गुरु की घनाक्षरियाँ सम सामयिकता की चुनौती को स्वीकार करती हैं। गुरु केवल पारंपरिक विषयों तक सीमित नहीं रहते। वे समय के साथ आँखें मिलाते हुए पुरातन घनाक्षरी छंद को बोतल में आधुनिक परिप्रेक्षय और संदर्भों की सुरा भरकर अपनी घनाक्षरियों को नवागत पीढ़ी के लिए सहज ग्राह्य और उपयोगी बना सके हैं। स्थान-सीमा को देखते हुए मैं उदाहरण नहीं दे रह हूँ किंतु पाठक इस तथ्य से सहमत होंगे, यह मैं जानता हूँ। 

                गुरु की घनाक्षरियाँ अन्य घनाक्षरीकारों के लिए एक चुनौती की तरह हैं। घनाक्षरी के किताबी मानकों के समांतर, लोक में व्याप्त अचर्चित मानकों को साध सकना तलवार की धार पर चलने की तरह है। इन घनाक्षरियों का भाषिक संस्कार 'बुंदेली' है। हर कवि की अपनी भाषा शैली होती है। इस शैली से ही कवि की पहचान होती है। भूषण, घनानंद, प्रेमचंद, पंत, महादेवी, दिनकर आदि की भाषा-शैली उनकी पहचान है। आज के किताबी कवियों की भाषा-शैली उनकी पहचान नहीं बनाती।  बाजारू मसालों से गृहणियाँ एक से स्वाद का खाना बनती हैं। जबकि अपने मसाले पिसाकर उपयोग करनेवाली गृहणियों की पहचान उनकी पाक कला निपुणता से होती है। गुरु की अपनी भाषा-शैली लोक से नि:सृत भाषा के अनुसार है शब्दकोश के अनुसार नहीं। इसलिए गुरु की घनाक्षरियाँ यांत्रिक नहीं जमीनी हैं। यही उनकी सार्थकता है।    

                मुझे विश्वास है कि यह कृति गुरु के शिष्यों को ही नहीं, साहित्य प्रेमियों को ही नहीं, छन्दकारों को ही नहीं आम आदमी को भी भाएगी और यह लोक में स्थान पाकर उसे अलौकिक आनंद देगी। नर्मदा का आनंद और छंद का आह्लाद इन घनाक्षरियों के माध्यम से लोक को छंद, साहित्य और भाषा से जोड़कर राष्ट्रीय एकत्व भाव के प्रसार में सहायक होगा।
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रविवार, 21 जनवरी 2024

पुरोवाक्, अमिता मिश्रा "मीतू"

पुरोवाक्
मन से मन के तार जोड़ती कविताएँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कविता क्या है?  एक यक्ष प्रश्न जिसके उत्तर उत्तरदाताओं की संख्या से भी अधिक होते हैं। कविता क्यों है?,  कविता कैसे हो? आदि प्रश्नों के साथ भी यही स्थिति है। किसी प्रकाशक से काव्य संग्रह छापने बात कीजिए उत्तर मिलेगा 'कविता बिकती नहीं'। पाठक कविता पढ़ते नहीं हैं, पढ़ लें तो समझते नहीं हैं, जो समझते हैं वे सराहते नहीं हैं। विचित्र किंतु सत्य यह कि इसके बाद भी कविता ही सर्वाधिक लिखी जाती है। देश और दुनिया की किसी भी भाषा में कविता लिखने और कविता की किताबें छपानेवाले सर्वाधिक हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि तथाकथित  प्रकाशकों के घर का चूल्हा कविता ही जलाती है। 

दुनिया में लोगों की  केवल दो जातियाँ हैं। पहली वह जिसका समय नहीं कटता,  दूसरी वह जिसको समय नहीं मिलता। मजेदार बात यह है की कविता का वायरस दोनों को कोरोना-वायरस की  तरह पड़कता-जकड़ता है और फिर कभी नहीं छोड़ता।

दरवाजे पर खड़े होकर 'जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला' की टेर लगानेवाले की तरह कहें तो 'जो कविता लिखे उसका भी भला, जो कविता न लिखे उसका भी भला'। कविता है ऐसी बला कि जो कविता पढ़े उसका भी भला, जो कविता न पढ़े उसका भी भला', 'जो कविता समझे उसका भी भला, जो कविता न समझे उसका भी भला'। 

कविता अबला भी है, सबला भी है और तबला भी है। अबला होकर कविता आँसू बहाती है, सबला होकर सामाजिक क्रांति को जनम देती है और तबला होकर अपनी बात डंके पर चोट की तरह कहती है। 

'कहते हैं जो गरजते हैं वे बरसते नहीं', कविता इस बात को झुठलाती और नकारती है, वह गरजती भी, बरसती भी है और तरसती-तरसाती भी है।

कविता के सभी लक्षण और गुण कामिनी में भी होते हैं। शायद इसीलिए कि दोनों समान लिंगी हैं। कविता और कामिनी के तेवर किसी के सम्हालते नहीं सम्हलते। 

मीतू मिश्रा की कविता भी ऐसी ही है। सदियों से सड़ती-गलती सामाजिक कुरीतियों और कुप्रथाओं पर पूरी निर्ममता के साथ शब्दाघात करते हुए मीतू चलभाष और अंतर्जाल के इस समय में शब्दों का अपव्यय किए बिना 'कम लिखे से अधिक समझना' की भुलाई जा चुकी प्रथा को कविताई में जिंदा रखती है। मीतू की कविताओं के मूल में स्त्री विमर्श है किंतु यह स्त्री विमर्श तथा कथित प्रगति शीलों के अश्लील और दिग्भ्रमित स्त्री विमर्श की तरह न होकर शिक्षा, तर्क और स्वावलंबन पर आधारित सार्थक स्त्री विमर्श है। कुरुक्षेत्र में कृष्ण के शंखनाद की तरह मीतू इस संग्रह के शाब्दिक शिलालेख पर लिखती है-    

'निकल पड़ी है वो सतरंगी ख्वाबों में
भरती रंग.... स्वयं सिद्धा बनने की ओर।' 

मीतू यहीं नहीं रुकती, वह समय और समाज को फिर चेताती है- 

'चल पड़ी है वो औरत अकेली
छीनने अपने हिस्से का आसमान।' 

लोकोक्ति है 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता' लेकिन मीतू की यह 'अकेली औरत' हिचकती-झिझकती नहीं। यह तेवर इन कविताओं को जिजीविषाजयी बनाता है। अकेली औरत किसी से कुछ अपेक्षा न करे इसलिए कवयित्री उसे झकझोरकर कहती है-  

'हे स्त्री! मौन हो जाओ
नही है कोई जो महसूस कर सके
तुम्हारी अव्यक्त पीड़ा..
लगा सके मरहम, पोंछे आँसू 
कभी विद्रोही, कभी चरित्रहीन
कहकर चल देंगे समाज के जागरूक लोग
धीरे धीरे तुम्हें सुलगता छोड़कर।' 

समाज के जिन जागरूक लोगों (लुगाइयों समेत) की मनोवृत्ति का संकेत यहाँ है, वे हर देश-काल में रहे हैं। सीता हों या द्रौपदी, राधा हों या मीरां इन जागरूक लोगों ने पूरी एकाग्रता और पुरुषार्थ के साथ उन्हें कठघरे में खड़ा किया, बावजूद इस सच के कि वे कन्या पूजन भी करते रहे और त्रिदेवियों की उपासना भी। दोहरे चेहरे, दोहरे आचरण और दोहरे मूल्यों के पक्षधरों को मीतू बताती है-  

'कण कण में ही नारी है
नारी है तो नर जीवन है
बिन नारी क्या सृष्टि है?'

यह भी कहती है- 

'नारी
ढूँढ ही लेती है
निराशाओं के बीच
एक आशा की डोर
थामे टिमटिमाती लौ आस की
बीता देती है जीवन के अनमोल पल
एक धुँधले सुकून की तलाश में
एक पल जीती ..फिर टूटती अगले ही पल' 

इयान कविताओं की 'नारी' अंत में इन तथाकथित 'लोगों' की अक्षमता और असमर्थता को आईना दिखाते हुए  'साम्राज्य के आधे भाग की जगह केवल पाँच गाँव' की चाह करती है-   

'मध्यमवर्ग की कोमल स्त्री
जिंदगी की जमापूंजी से
खर्च करना चाहती है
कुछ वक्त अपने लिए अपने ही संग' 

इतिहास पाने को दुहराता है, पाँच गाँव चाहने पर 'सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं दूँगा' की गर्वोक्ति करने वाले सत्ताधीशों और उन्हें पोषित करनेवाले नेत्रहीनों को समय ने कुरुक्षेत्र में सबक सिखाया। वर्तमान समाज के ये 'लोग' भी यही आचरण कर रहे हैं। ये आँखवाले आँखें होते हुए भी नहीं देख पाते कि-     

'एक चेहरा
ढोता बोझ
कई किरदारों का' 

वे महसूस नहीं कर पाते कि- 

'नारी सबको उजियारा दे
खुद अँधियारे में रोती है।'

यह समाज जानकार भी नहीं जानना चाहता कि- 

'अपने ही हाथों
जला लेती हैं
अपना आशियाना
घर फूँक तमाशा देखती हैं
प्रपंच और दुनियादारी में
उलझी किस्सा फरेब
बेचारी औरतें'

इस समाज की आँखें खोलने का एक ही उपाय है कि औरत 'बेचारी' न होकर 'दुधारी' बने और बता दे-  

'कोमल देह इरादे दृढ़ हैं
हालातों से नही डरे
तोड़ पुराने बंधन देखो
नव समाज की नींव गढ़े।'

औरत के सामने एक ही राह है। उसे समझना और समझाना होगा कि वह खिलौना नहीं खिलाड़ी है, बेचारी नहीं चिंगारी है। मीतू की काव्य नायिका समय की आँखों में आँखें डालकर कहती है- 

'जीत पाओगे नहीं
पौरुष जताकर यूँ कभी
हार जाऊंगी स्वयं ही
प्रीत करके देखलो!
दंभ सारे तोड़कर
निश्छल प्रणय स्वीकार लो,
मैं तुम्हारी परिणीता
अनुगामिनी बन जाऊंगी!' 

समाज इन कविताओं के मर्म को धर्म की तरह ग्रहण कर सके तो ही शर्म से बच सकेगा। ये कविताएँ वाग्विलास नहीं हैं। इनमें कसक है, दर्द है, पीड़ा है, आँसू हैं लेकिन बेचारगी नहीं है, असहायता नहीं है, निरीहता नहीं है, यदि है तो संकल्प है, समर्पण है, प्रतिबद्धता है। ये कविताएँ तथाकथित स्त्री विमर्श से भिन्न होकर सार्थक दिशा तलाशती हैं। स्त्री पुरुष को एक दूसरे के पूरक और सहयोगी की तरह बनाना चाहती हैं। तरुण कवयित्री मीतू का प्रौढ़ चिंतन उसे कवियों की भीड़ में 'आम' से 'खास' बनाता है। उसकी कविता निर्जीव के संजीव होने की परिणति हेतु किया गया सार्थक प्रयास है। इस संग्रह को बहुतों के द्वारा पढ़, समझा और सराहा जाना चाहिए। 

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नाम-अमिता मिश्रा"मीतू"

जन्मतिथि -17/10/1978

जन्मस्थान -हरदोई(उत्तर प्रदेश)

माता-श्रीमती मधुबाला मिश्रा

पिता-स्व श्रीकांत मिश्रा

पति संजीव मिश्रा

निवास-हरदोई(उ.प्रदेश)

शिक्षा-स्नातक(माइक्रोबायोलॉजी),बी.एड और डिप्लोमा इन न्यूट्रीशन एंड हेल्थ एजुकेशन

पुस्तकें-पारुल और सुगंधा उपन्यास

बुधवार, 10 जनवरी 2024

गीता बोध, सुनीता सिंह

पुरोवाक -

प्रज्ञानिका कृष्णार्जुन संवाद : गीता चिंतन नाबाद, आबाद और आजाद 

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

*

गीता का महत्व और उपादेयता

विश्व साहित्य की सर्वकालिक श्रेष्ठ कृतियों में श्रीमद्भगवत गीता का स्थान अग्रगण्य था, है और रहेगा। हो भी क्यों ना? भ्रमित-शंकालु मन में आत्म विश्वास जगाने, कर्तव्य का पथ दिखलाने, करणीय-अकरणीय का अंतर समझाने तथा निष्काम कर्म योग की शिक्षा गागर में सागर की तरह देने वाला कोई अन्य ग्रंथ नहीं है। यह भारतीय सभ्यता-संस्कृति का जीवंत दस्तावेज है। यह अंधविश्वासों का निषेध कर पारंपरिक कुरीतियों को नकारने, बुराइयों से संघर्ष करने की प्रेरणा देती है। दैनंदिन जीवन की समस्याओं का समाधान गीता में अंतर्निहित है।

 

श्रीमद्भगवद्गीता की उत्पत्ति मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन कुरुक्षेत्र के मैदान में मौखिक वार्ता के रूप में हुई। विश्व में इस तरह और इन परिस्थितियों में अन्य कोई ग्रंथ नहीं रचा गया। गीता में कुल १८ अध्याय हैंजिनमें  अध्याय कर्मयोग अध्याय ज्ञानयोग और अंतिम ६ अध्याय भक्तियोग पर हैं गीता एकमात्र ग्रंथ है जिस पर विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में सर्वाधिक भाष्यटीकाव्याख्याटिप्पणीनिबंधशोधग्रंथ आदि लिखे गए हैं और निरंतर लिखे जा रहे हैं।गीता का सबसे पहला भाष्य शांकर भाष्य आद्य शंकराचार्य ने लिखा। संत ज्ञानेश्वरबालगंगाधर तिलकपरमहंस योगानंदमहात्मा गाँधीसर्वपल्ली डॉराधाकृष्णनमहर्षि अरविन्द घोषएनी बेसेन्टगुरुदत्तविनोबा भावेओशो रजनीशश्रीराम शर्मा आचार्य आदि अनगिनत विद्वानों ने गीता पर भाष्य लिखे हैं। गीता कर्म का संदेश ही नहीं देती है बल्कि जीवन की कशमकश में हमेशा पथ प्रदर्शन करती है।

 

धर्माचार्यों ने गीता को सांसारिकता का त्याग कर सन्यास का पथ बतानेवाले ग्रंथ के रूप में व्याख्यायित किया किंतु स्वामी विवेकानंद जी गीता का वैशिष्ट्य ‘धर्म के विविध मार्गों का समन्वय तथा निष्काम कर्म’ को मानते हैं। (२९ मई १९००, सैनफ्रांसिस्को में भाषण)

 

महर्षि अरबिंदो घोष के अनुसार- ‘वह चेतना की दो विशालतम और उच्चतम अवस्थाओं या शक्तियोंअर्थात् समता और एकता का मिलन है । इसकी पद्धति का सार है भगवान् को अपने जीवन में तथा अपनी अन्तरात्मा और आत्मा में निःशेष रूप से अंगीकार करना।

 

गीता रहस्यकार लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के अनुसार गीता का निष्काम कर्म योग ज्ञान, भक्ति तथा क्रम में समन्वत स्थापित करता है।  

गाँधी जी कहते हैं- ‘’गीता केवल मेरी बाइबिल या कुरान नहीं है, यह मेरी माँ है, शाश्वत माँ। ... जब कभी मुझे संदेह घेरते हैं और मेरे चेहरे पर निराश छाने लगती है तो मैं गीता को उम्मीद की एक किरण के रूप में देखता हूँ। गीता में मुझे एक छंद मिल जाता है जो मुझे सांत्वना देता है। मैं कष्टों के बीच मुस्कुराने लगता हूँ।’’

 

गीता प्रवचन के लेखक, भूदान आंदोलन के प्रणेता संत विनोबा भावे के मत में- अच्छी चीज की भी आसक्ति नहीं होनी चाहिएआसक्ति से घोर अनर्थ होता हैक्षय के कीटाणु यदि भूल से भी फेफड़ों में चले जाते हैंसारा जीवन भीतर से खा डालते हैंउसी तरह आसक्ति के कीटाणु भी असावधानी से सात्त्विक कर्म में घुस जायेंगेतो स्वधर्म सड़ने लगेगाउस सात्त्विक स्व-धर्म में भी राजस और तामस की दुर्गंध आने लगेगीअतः कुटुंब रूपी यह बदलने वाला स्व-धर्म यथा समय छूट जाना चाहिएयह बात राष्ट्र धर्म के लिए भी हैराष्ट्र-धर्म में अगर आसक्ति आ जाये और केवल अपने ही राष्ट्र के हित का विचार हम करने लगेंतो ऐसी राष्ट्र-भक्ति भी बड़ी भयंकर वस्तु होगीइससे आत्म-विकास रुक जाएगा

 

महर्षि महेश योगी जी के शब्दों में ‘’भगवद-गीता व्यावहारिक जीवन के लिए एक संपूर्ण मार्गदर्शिका है। यह किसी भी स्थिति में मनुष्य को बचाने के लिए हमेशा मौजूद रहेगा। यह समय की अशांत लहरों पर तैरते जीवन के जहाज के लिए एक लंगर की तरह है। यह जीवन का विश्वकोश है।’’

 

ओशो कहते हैं- कृष्ण की गीता समन्वय है। सत्य की उतनी चिंता नहीं है जितनी समन्वय की है चिंता है। समन्वय का आग्रह इतना गहरा है कि अगर सत्य थोड़ा खो भी जाए तो कृष्ण राजी हैं। कृष्ण की गीता खिचड़ी जैसी है, इसीलिए सभी को भाती है क्योंकि सभी का कुछ न कुछ उसमें मौजूद है। ऐसा कोई संप्रदाय खोजना मुश्किल है जो जो गीता में अपनी वाणी न खोज ले।’’

 

नव कृति का औचित्य


गीता पर हर चिन्तक की व्याख्या और मत अन्यों से भिन्न है। लोक कहता है जितने मुँह उतनी बातें, पंडित कहते हैं मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना। गीता पर जब इतना कहा जा चुका है तो एक और कृति क्यों? यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है।

 

 सुनीता जी ने गीता-प्रसंग पर एक कृति रचने के विचार की चर्चा की तो मैंने भी यही प्रश्न किया? कारण यह कि इन दिनों हिंदी में गीता का अनुवाद करने-छपाने की होड़ है। लगभग २० अनुवाद मेरे पास हैं। खेद यह कि इनमें चिंतन परकता या मौलिकता नहीं है। गीता मूलत: संस्कृत भाषा में है, अधिकांश अनुवादक संस्कृत नहीं जानते, केवल अर्थ पढ़कर भाषांतरण कर देते है जो नीरस, उबाऊ तथा निरुपयोगी होता है। मेरा सुझाव यह था कि गीता का अक्षरश: काव्यानुवाद न कर चयनित घटना प्रसंगों को इंगित करते हुए अंतर्वस्तु का विस्तार करें तथा कुछ ऐसा भी हो जो इसके पूर्व न लिखा गया हो ताकि यह प्रबंध काव्य अन्यों से भिन्न हो। प्रसन्नता है कि सुनीता ने सुझावों को सकारात्मकता तथा सहजता से मान्य किया। मैंने पूछा- संजय जब रणक्षेत्र का घटनाक्रम सुनाते थे तब कौन सुनता था? उत्तर मिला धृतराष्ट्र। मैंने प्रश्न किया- तुम्हारा पुत्र किसी गतिविधि में भाग ले और उसका वर्णन कोई करता हो तो क्या तुम बिना सुने रह सकती हो? उत्तर था- नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? माँ को पुत्र के बारे में सुनने की जिज्ञासा सबसे अधिक होती है। मैंने फिर पूछा- संजय १०५ पुत्रों का हालचाल कहता हो और उनकी २ माताएँ वहाँ हों तो क्या वे अपने पुत्रों के पराक्रम और युद्ध के परिणाम जानने को उत्सुक न होंगी? विदुषी कवयित्री में अंदर बैठी माँ ने संकेत समझ उत्तर दिया कुंती और गांधारी बिना सुने तो नहीं रह सकतीं पर ऐसा उल्लेख तो कहीं नहीं है। प्रश्न किया- जो अतीत में नहीं लिखा जा सका वह भविष्य में भी न लिखा जाए, ऐसा विधान तो कहीं नहीं है। रचनाकार अपनी रचना का स्वयंभू ब्रह्मा होता है। चर्चा का सार यह निकला कि गीता संजय ने केवल धृतराष्ट्र के लिए सुनाई किंतु वहाँ उपस्थित विदुर, गांधारी और कुंती ने भी सुनी। 


मैंने फिर प्रश्न किया कि तुम अपने कार्यालय में सब कर्मचारियों को एक साथ निर्देश तो क्या वे सब एक समान ग्रहण करते हैं? उत्तर मिला- 'नहीं, उनकी समझ, कार्यविधि और कार्य सामर्थ्य भिन्न-भिन्न होती है।' मैंने कहा- गीता कहने-सुननेवालों ने क्या उसका समान अर्थ ग्रहण किया होगा?' कुछ समय सोचने के बाद उत्तर आया- 'नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता। उनकी समझ, सामर्थ्य और जीवन दृष्टि भिन्न होने के कारण वे भिन्न अर्थ निकालेंगे।' मैंने कहा कि यही सब सोचना और लिखना है, यह पहले नहीं लिखा गया है। यह अंश इस कृति का वैशिष्ट्य होगा। पाठक और समीक्षक समर्थन-विरोध, प्रशंसा-आलोचना करेंगे, उसकी चिंता न कर अपने चिंतन को शब्द दो।' 


कृति का शीर्षक भी पर्याप्त विमर्श के बाद निर्धारित किया गया। सामान्यत:, कुरुक्षेत्र महायुद्ध संबंधी कृतियों के शीर्षक में 'गीता' शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। हमारी दृष्टि यह रही कि यह कृति गीता की छायामात्र न होकर स्वतंत्र कृति हो जिसकी रचना का आधार कुरुक्षेत्र महायुद्ध हो। कृष्णार्जुन संवाद को मथकर माखन की तरह प्राप्त 'प्रज्ञान' को अपनी शब्द-मंजूषा में समेटे 'प्रज्ञानिका' कृष्ण सखा पाठकों के रसास्वादन हेतु प्रस्तुत है।        


मौलिकता

 

कथा-प्रवेश सर्ग में प्रस्तुत कृति का श्री गणेश पुष्टिमार्ग प्रणेता वल्लभाचार्य जी के स्वप्न में संत ज्ञानेश्वर के आगमन तथा मराठी गीता सार सुनाने से होना सर्वथा मौलिक अवधारणा है।

 

देखा एक दिवस स्वप्नों में / गुरु ज्ञानेश्वर आए हैं।

गीता सार मराठी में जो / कर अनुवाद सुनाए हैं।।

 

किसी राज्य के नेत्रहीन अधिपति को संकटकाल में किसी बाहरी व्यक्ति के साथ नित्य प्रति अकेला नहीं छोड़ा जा सकता, इसलिए महामंत्री विदुर और कुरु माता गांधारी तथा पांडव माता कुंती सकल वृत्तान्त सुनें, यह स्वाभाविक है। वृत्तान्त सुनकर उन पर हुई प्रतिक्रिया या उनमें विचार-विनिमय कवयित्री को कल्पनाकाश में वैचारिक उड़ान भरने हेतु स्वतंत्रता देते हैं तथापि सुनीता ने संयम बरतते हुए सीमित स्वतंत्रता ही ली है।

 

धृतराष्ट्र घटनाक्रम जानने की उत्सुकता के साथ, उन पर लगे जाते लांछनों के प्रति चिंतित व दुखी हैं। संजय उन्हें रोकते हुए युद्ध क्षेत्र में खड़ी दोनों सेनाओं और योद्धाओं के बलाबल की जानकारी देते हैं। अर्जुन कुरु सेनाओं का निरीक्षण कर चिंतित और दुखी है। जिज्ञासा सर्ग में पुत्रों की कुशल जानने के लिए धृतराष्ट्र संजय से रणक्षेत्र का हाल सुनना चाहते हैं-

 

चिंतित से धृतराष्ट्र पूछते / कुरुक्षेत्र का हाल कहो

दिव्य दृष्टि डालो हे संजय! / नहीं व्यग्र हो मौन रहो

 

शंका-समाधान सर्ग में रणभूमि में पूज्यों और संबंधियों को देखकर विचलित अर्जुन, श्री कृष्ण से अंतर्मन की व्यथा कहते हुए शंका का समाधान चाहते हैं-

 

बोले अर्जुन कातर मन से / हे प्रभु! मुझको बतलाएँ

गुरु द्रोण और भीष्म पितामह / पर कैसे बाण चलाएँ?

 

दूर करें हे माधव! मेरी / मन की सब शंकाओं को

शोक उपजता भारी मन में / मूर्छित कर मृदु भावों को

 

श्री कृष्ण अर्जुन का समाधान करते हुए गूढ़ ज्ञान देते हैं-  

 

आत्मा अजर अमर अविनाशी / नित्य सनातन रहती है

चिंतित क्यों हो व्यर्थ सदा वह / नवल पुरातन रहती है

 

हे अर्जुन! जो सत्य जानते / वे निर्लिप्त रहा करते

जो अविनाशी और अजन्मी / उसको नहीं मार सकते


        धृतराष्ट्र के आचरण में उसकी कुटिलता सामने आती है। वह कौरव पक्ष की शक्ति का अनुमान कर, उनकी विजय की कल्पना कर मन में आनंदित होकर भी अपनी भावना व्यक्त न कर छिपाता है-    


महाराज धृतराष्ट्र सोचते, / मन ही मन मुसकाते हैं।
कौरव-जीत सुनिश्चित लगती, लेकिन खुशी छिपाते हैं।।
 
            महारानी गांधारी के चिंतन में अपेक्षाकृत अधिक संतुलन अभिव्यक्त हुआ है। वह अपने पुत्रों को राज्य सत्ता देना चाहती है, पर पांडु पुत्रों का अधिकार नकारती नहीं - 

लेकिन कुन्ती पुत्रों को भी, दोष नहीं मैं दे सकती।
नहीं पराये वे भी अपने, हृदय - दशा विचलित रहती।।

            कुंती अपने पुत्रों को धर्म मार्ग पर चलते देख और कृष्ण को उनके साथ देख पांडवों की जय के प्रति आश्वस्त होते हुए भी, कौरवों में भी अपनों को ही देखती हैं। उनका चिंतन अर्जुन की ही तरह है, वे कौरवों का अहित नहीं चाहतीं- 

कुन्ती सोच रही क्या दिन ये, विधना ने है दिखलाया।
बोल सकूं कुछ भी न किसी को, संकट अपनों पर आया।।
    
            महामति विदुर सबके प्रति अपनत्व भाव रखते हुए, शहीद होने वालों के लिए दुखी होते हैं- 

सोचे विदुर सभी अपने हैं, / हानि सभी की दुख देगी।
बिछड़ेगें जो युद्ध भूमि में, / कमी उन्हीं की खटकेगी।।

 

कर्म माहात्म्य सर्ग में श्री कृष्ण कर्म तथा ज्ञान का सम्यक विश्लेषण करते हुए दोनों को आवश्यक बताते हैं-

 

कृष्ण कहें हे अर्जुन ! सुन लो / इस जग की दो निष्ठाएँ

ज्ञान क्रम दोनों आवश्यक / पृथक रहीं परिभाषाएँ

 

ज्ञान की महत्ता प्रतिपादित कर, श्री कृष्ण अनासक्त कर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हैं-

 

मानव जैसा कर्म करेगा / वैसा ही फल पाएगा

सत्कर्मों से शुभ फल मिलता / वरना कर्म रुलाएगा


        इस सर्ग के घटनाक्रम को जानने के बाद धृतराष्ट्र कृष्ण को दोष देते हैं कि वे अर्जुन को युद्ध विमुख न होने देकर अधर्म कर रहे हैं, कुंती कृष्ण के कार्य को सार्थक और धर्मयुक्त कहती हैं, गांधारी किंकर्तव्यविमूढ़, विदुर तथा संजय मौन हैं। स्पष्ट है कि सभी श्रोता भावी के प्रति आशंकित हैं।    

 

दिव्य परंपरा सर्ग में गीता के सनातनत्व, अपने अवतरण, गुरु-माहात्म्य तथा ईश-शरणागति से पार्थ को अवगत कराते हैं-

 

रूप ब्रह्म का रहा क्रम भी / रत समाधि में हों जैसे

क्रम फलों की प्राप्ति ब्रह्म है / गति हो कर्मों के जैसी


        धृतराष्ट्र ज्येष्ठ होते हुए भी नेत्रहीन होने के कारण अनुज पांडु को सत्ता मिलने से हुई पीड़ा को व्यक्त कर, सत्ता पर अपने पुत्रों का अधिकार न्यायोचित मानते हैं। वे अनासक्ति को स्वीकारते नहीं और अपने मोह को उचित पाते हैं- 

 

कर्म करें क्यों अनासक्त रह, भोग न क्यों वैभव का हो?
आखिर जन्म लिया है क्योंकर, दूर सभी तम जड़ता हो॥ 

        गांधाती अपने विवेक का परिचय देते हुए कृष्ण से रन र न होने देने की अपेक्षा करती हैं, जबकि वे भली-भाँति जानती हैं कि दुर्योधन ने शांति दूत कृष्ण के प्रयासों को हठपूर्वक अमान्य कर द्रौपदी चीरहरण का दुष्प्रयास किया - 

सुना रहे अर्जुन को बातें,/ क्यों सन्यासी जीवन की?
सन्धि करें रोकें रण को वे, / व्यथा थमे अस्थिर मन की॥ 

        कुंती और विदुर सदा की तरह शांत हैं-

संजय मुख से कृष्ण वचन सुन, खोये विदुर विचारों में।
चिंतन करते सार - तत्व पर, कर्म ज्ञान अभिसारों में॥ 

 

        कर्म सन्यास और निष्काम काम सर्ग में अर्जुन की जिज्ञासा शांत करते हुए कृष्ण कहते हैं-

 

आसक्त कर्म से हो न सके / दास इंद्रियों का न बने

निर्लिप्त भाव से कर्म करे / हृदय नहीं अभिमान तने


        धृतराष्ट्र कृष्ण द्वारा कहे गए तत्वज्ञान को निरर्थक मानते हैं-


सुलझेगा परलोक कहो क्या, / अगर न सुलझा लोक यहाँ?
नहीं जरूरत तत्व ज्ञान की, / मिलता निश्छल हृदय कहाँ?

 

अष्टांग योग और समाधि सर्ग में ध्यान योग की महत्ता प्रतिपादित करते हुए ईश शरणागति को एकमात्र राह बताते हैं।

 

कार्य शुरू करने से पहले / जो ईश्वर को याद करे

सच्चे मन से मुझे सुमिर वह / मुझसे मृदु संवाद करे

वह श्रेष्ठ योगियों से रहता / मुझको भी आती प्रिय रहता

कार्य सिद्ध हो जाते उसके / मुझे ध्यान में जो रहता


        गांधारी धृतराष्ट्र से असहमत होते हुए कृष्ण के कथन की सार्थकता और विश्वसनीयता के प्रति कुंती की राय पूछती है। कुंती नम्र भाव से कृष्ण के प्रति विष्यवस वयुक्त करती है। 


गांधारी धृतराष्ट्र की तरफ, / मुड़कर बोली हे राजन!
मीठे लगते मोह रहे मन, / बोल रहे जो कृष्ण वचन॥  

 

ज्ञान-विज्ञान विमर्श सर्ग में कृष्ण स्वयं को कारणों का कारण बताते हैं।

 

अनासक्त जो शांत हृदय से / मोह मुक्त हो जाते हैं

दृढ़ मन हो पाता जिनका वह / भजकर मुझको पाते हैं


        धृतराष्ट्र कृष्ण के वचनाओं को सुनते-समझते हुए भी उन पर भरोसा नहीं कर पाते। उनकी मनस्थिति से गांधारी समेत कोई भी सहमत नहीं हो पाता। वे विदुर से पूछते हैं- 


धृतराष्ट्र कहें हे विदुर! कहो, / नीति ज्ञान के हो ज्ञाता।
बात कृष्ण की मन भरमाती, / सत्य नजर कुछ कम आता॥ 

 

प्रभु सुमिरन सर्ग में ईश स्मरण को श्री कृष्ण मुक्ति का मार्ग बताते हैं-

 

प्राण त्यागने से पहले जो / मुझको सुमिरन करता है

प्राप्त मुझे कर लेता है वह, जब भी प्राण निकलता है


        धृतराष्ट्र सत्य समझते हुए भी उसे झुठलाकर अपने मन को सांत्वना देते हुए तन ही नहीं माँ से भी चक्षुहीन दिखते हैं, जबकि गांधारी, कुंती और विदुर सत्य को समझते हैं। धृतराष्ट्र अंतत: अपनी विवशता व्यक्त कार ही देते हैं- 

चाह नहीं मैं पुत्रमोह का, / त्याग कभी कर पाऊँगा॥
बात न दुर्योधन मानेगा, / दुख न उसे दे पाऊँगा॥

 

गुह्य ज्ञान सर्ग में कृष्ण स्वयं को परब्रह्म बताते हुए, अर्जुन को अभिन्न होने की राह सुझाते हैं-

 

सबका निवास मुझमें ही है / ओंकार भी रहा मैं ही

बीज रूप हूँ मैं अविनाशी / जीवन मैं और मृत्यु भी

 

भक्ति करो तो ऐसी करना / घुल समग्र मुझमें जाना

जल जैसे जल में मिल जाता / संभव तभी मुझे पाना


        धृतराष्ट्र की कुटिल और मलिन मानसिकता क्रमश: सामने आती है। वे खुद को सर्वोच्च समझते हुए सत्य न कहने को अपना कर्तव्य माँ बैठते हैं- 


मन के भाव छुपाने होंगे, / महाराज हूँ मैं आखिर।
सोच रहे धृतराष्ट्र हृदय में, / करना होगा मन को स्थिर॥  

 

ऐश्वर्य सर्ग में सकल कारणों के कारण स्वरूप श्री कृष्ण को सब विभूतियों का अक्षरे और परम पूज्य बताया गया है।

 

मैं ही जनक व नाशक सबका / पूज्य परम अनतर्यामी

मैं पौष माह मैं विष्णु सूर्य / मैं सबसे बढ़कर निष्कामी

 

संपूर्ण जगत को मैंने ही / एक अंग पर धारा है

हे पार्थ! जान लो बस इतना / जितना अधिकार तुम्हारा है


        नेत्रहीन धृतराष्ट्र अक्षम होकर भी देखने पा प्रयास करते हैं मानो अपनी नियति बदल देंगे। पत्नी गांधारी, अनुज वधू कुंती, महामंत्री विदुर तथा संजय किसी की सहमति न मि,ने से खिन्न होकर वे भौंहें सिकोड़ लेते हैं- 


महाराज की भौंहे ऊपर, / कृष्ण - वचन सुन उठ जातीं।
शक्ति - पुंज निज को कहने की, / बातें तनिक नहीं भातीं॥

 

ग्यारहवें विराट रूप सर्ग में नत मस्तक अर्जुन की के निवेदन को स्वीकारते हुए कृष्ण उसे दुवय दृष्टि देकर अपने विराट रूप की झलक दिखाने के साथ-साथ उसे अभीत भी करते हैं-  

 

मैं प्रसन्न तुम पर हे अर्जुन! / अत: रूप यह दिखलाया

लेकिन तुम भयभीत न होना / सत्पथ सन्मार्ग सुझाया


        धृतराष्ट्र की एकांगी सोच कृष्ण को महासमर रोकने में समर्थ मानती है और युद्ध न रोकने के लिए दोषी भी कहती है। वे दुर्योधन की कोई गलती नहीं देखते, चल चलने के लिए कृष्ण को ही दोषी मानते हैं-  

 

टाल महाभारत सकते थे, / डटी न होतीं सेनाएँ ।
वासुदेव बस चालें चलते, / अपनी ही करते जाएँ॥

भक्ति माहात्म्य सर्ग में कृष्ण अपने सामान्य रूप में अर्जुन को भक्त-भगवान के संबंध की महत्ता समझाते हुए निर्भय करते हैं-

 

अर्पण कर्मों को मुझमें कर / याद करे परमेश्वर को

शुद्ध हृदय वाले भक्तों का / ध्यान रहे परमेश्वर को


        विदुर कृष्ण के दिव्य रूप को देखकर अवाक् रह जाते हैं- 


दिव्य कृष्ण का रूप देखकर, / संजय शब्द विहीन हुए।
विस्मय से विस्तारित आँखें, / सुध - बुध खोकर लीन हुए॥

        कुंती भी विविध आशंकाओं से घिरी हैं किंतु कृष्ण पर उनका विश्वास अधिग है की वे पांडवों का अहित नहीं होने देंगे। 

कुन्ती के मन में भी चलता, / अलग तरह का ही मन्थन।
पूर्ण भरोसा वासुदेव पर, / अन्तर से कर अभिनन्दन॥ 

चेतना सर्गांतर्गत अर्जुन ने प्रकृति-पुरुष का रहस्य जानना चाहा। श्री कृष्ण ने अर्जुन का समाधान करते हुए बताया-

 

प्रकृति-पुरुष दोनों अनादि हैं / इनके प्रति रूप सृष्टि में होते

पदार्थ विकार राग-द्वेष सब उत्पन्न प्रकृति से ही होते

 

काया स्थित आत्मा होती / अंश उसी परमात्मा का

साक्षी होने से उपदृष्टा यथार्थ सम्मति अनुमंता

 

सबका धारण-पोषण करके, आत्मा ही भर्ता होती

वही सच्चिदानंद महेश्वर, जीव रूप भोक्ता होती


        धृतराष्ट्र जब युद्ध को अवश्यंभावी देखते हैं तो अनिष्ट की आशंका सम्मुख देख सोचते हैं कि ५ गाँव देकर इस संकट से बचना बेहतर होता किंतु 'अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुँग गई खेत'- 


हानि किसी की युद्ध भूमि में, / हो सकती है सत्य यही।
पाँच गाँव पाण्डव को देना, / हो सकता था कृत्य सही॥    

 

त्रिगुण सर्ग में भौतिक प्रकृति के मूल ३ गुणों की चर्चा है जिनसे हर देहधारी नियंत्रित होता है। श्री कृष्ण त्रिगुण के प्रभाव तथा परिणाम बताते हुए कहते हैं-

 

ज्ञान सत्व गुण से जन्मे तो / लोभ तमोगुण से होता

मोह-प्रमाद तमोगुण से हो / खुले अज्ञान का सोता

 

स्वर्ग लोक में जाते प्राणी / जो सत्व गुणों में स्थित हों

और रजोगुण वाले प्राणी / भू आने को शापित हों

 

लें जन्म तमो गुण के प्राणी / पशु-पक्षियों की योनि में


        धृतराष्ट्र कृष्ण से तत्वज्ञान सुनकर सोचते हैं की पांडव कौरवों की तुलना में अधिक धर्म प्रेमी हैं किंतु सत्य को जानकर भी माँ से बचते दिखते हैं। वे कौरवों को अधिक ताकतवर मानते हुए भी युद्ध के परिणामों के प्रति इसलिए शंकित हैं कि कृष्ण पांडवों के साथ हैं- 


पाण्डव तुलना में कौरव की, / पुण्यात्मा हैं कहीं अधिक।
परिणाम न जाने क्या होगा, / किस पथ का हो कौन पथिक?

 

परम पुरुष सर्ग में जीवन का चरम लक्ष्य मोह-पाश से बचते हुए परम सत्ता के परम स्वरूप को समझ कर उनकी भक्ति बताया गया है-

 

अविनाशी या नाशवान द्वय / प्राणी इस जग में होते

कायाएँ मिट जाती लेकिन / नाश न आत्मा के होते


        गांधारी श्रीकृष्ण द्वारा पाँच गाँव पांडवों को देकर शांति स्थापना चाहते थे। धृतराष्ट्र तथा गांधारी ने यह प्रस्ताव स्वीकारने हेतु सलाह भी दी थी किंतु दंभी और हठी दुर्योधन न माना। गांधारी नियति को स्वीकारने हेतु विवश हैं- 


अब दोष किसी का क्या कहना, / बदल नहीं कुछ पाना है।
गांधारी सोचे निज मन में, / भाग्य लिखा जो आना है॥ 

 

स्वभाव सर्ग में चंचल मन को नियंत्रित कर योग साधना द्वारा वैराग्य तथा कल्याण मार्ग पर ले जाने का मार्गदर्शन है।

 

योग साधना से वश में मन / वैराग्य सहज पथ कर दे


        कुंती वासुदेव के प्रति विश्वास होने के कारण मन की ऊहापोह को हावी नहीं होने देतीं, शेष सभी भयाक्रांत हैं-  


कुंती थाम विचार हृदय के, / लगी देखने इधर-उधर।
विदुर ज्येष्ठ गांधारी संजय, / सबके अपने-अपने डर॥  

 

श्रद्धा सर्ग त्रिगुणों से उत्पन्न तीन तरह की श्रद्धा का उपदेश है।

 

जिस प्राणी की जैसी श्रद्धा / हो स्वरूप उसका वैसा

सात्विक प्राणी देव पूजते / हो सत् श्रद्धा का ऐसा

पूजें राक्षस तमो रजो गुण / विदयाहीन बने रहते

कल्पित घोर तपों में रत हो / मुक्ति-कामना से दहते


        विदुर महामंत्री होने के कारण धृतराष्ट्र से सहमत होते हुए भी असहमति बोलकर नहीं जताते और मौन रहते हैं किंतु एक दिन उनका भी धैर्य चुक जाता है- 


पाण्डव कौरव दोनों मुझको / हे महाराज! प्रिय लगते ।
पर उचित न पथ दुर्योधन का, / मेरे नीति - वचन कहते॥ 

 

अठारहवें सन्यास-सिद्धि सर्ग में वैराग्य का अर्थ, ब्रह्म की अनुभूति तथा श्री कृष्ण शरणागति से मोक्ष प्राप्ति का संकेत देकर यह कृष्णार्जुन संवाद पूर्ण होता है।

 

करता जो निष्काम कर्म वह / दृढ़ वैरागी भी होता

संपूर्ण कर्म करता योगी / इच्छा का भार नहीं ढोता

आश्रय त्याग सभी कर्मों का / बस मेरा ही ध्यान करो

मुक्त पाप स्व कर दूँगा मैं / अन्य न मेरी शरण गहो


         दूत होते हुए भी संजय अंतत:, परामर्श देने से खुद को नहीं रोक पाता- 


निष्काम कर्म करते रहना, / ध्यान सदा रख ईश्वर का।
संजय बोले बड़ा मन्त्र यह, / सुख लाएगा अन्तर का॥

 

अंतिम प्रभाव सर्ग कवयित्री की मौलिक उद्भावना है जिसके अंतर्गत कृष्ण-अर्जुन संवाद सुन रहे धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती व विदुर तथा वक्ता संजय पर हुई प्रतिक्रिया का सूक्ष्म संकेतन है।

 

धृतराष्ट्र गीता-ज्ञान ग्रहण न कर पांडवों को दोषी मानकर उनकी मृत्यु कामना करते हैं-

 

कहते धृतराष्ट्र पांडवों को / नहीं चाहिए रन लड़ना

अति विशाल कौरव सेना से / व्यर्थ उन्हें होगा मरना

 

गांधारी अधिकांश समय अपने पुत्रों के हित चिंतन में लीन रहीं, उन्हें ज्ञान खंड रुचा-

 

रहीं वहीं पर गांधारी / खंड खंड ही सुन पाईं

निकल विचारों से अपने वह / ज्ञान खंड को गुन पाईं

 

कुंती को श्री कृष्ण के दैव्यत्व में अडिग विश्वास है। वे गीता-ज्ञान ग्रहण कर धृतराष्ट्र को भावी का संकेत कर देती हैं-

 

जिस पक्ष रहेंगे कृष्ण सदा, जीत उसी की होनी है

समग्र सृष्टि मदद है करती / बहस व्यर्थ ही होनी है

 

संजय इस दिव्य वार्ता को सुनते-सुनाते हुए वैराग्य भाव में स्थित हो जाते हैं-

 

वैरागी ज्ञानी जैसी गति / हुई मगर अब संजय की

सारा गीता ज्ञान सुन लिया / छवि देखि परमात्मा की


       पुस्तकांत में कृष्णार्जुन संवाद का श्रवण कर रहे पंच महाभागी जनों का मानस मंथन कर पाँच अध्याय रचकर सुनीता ने सकल प्रसंग को विविध दृष्टियों से पाठकों के लिए मननीय बनाया है। इस अंश से यह स्पष्ट होता है कि हर मनुष्य अपनी चेतन, संस्कारों और विचारों के अनुरूप घटनाओं का विश्लेषण और चरित्रों का मूल्यांकन करता है, तदनुसार निष्कर्ष निकालता है, कार्य करता है और उसका परिणाम पाता है। विधि के विधान या भाग्य को दोष देना निरर्थक है। धृतराष्ट्र और गांधारी यदि अन्यों के दृष्टिकोण को ग्रहण कर सके होते तो श्री कृष्ण को शापित नहीं होना पड़ता, विजय पश्चात भीम आदि को नष्ट करने के दुष्प्रयास धृतराष्ट्र नहीं करते। लोक कहता है- 


                                    होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय 

                                   जाको राखे साइयाँ, मार सके नहिं कोय'

 

‘कृष्ण वचन प्रज्ञानिका’ का वैशिष्ट्य भाषिक सारल्य, शाब्दिक सटीकता, सम्यक विवेचन, लय बद्धता तथा संक्षिप्तता है। सुनीता ने गीता के पाँचों श्रोताओं की मानसिकता, पात्रता और ग्रहण सामर्थ्य का संकेत मात्र किया है, यदि वह इन्हें पाँच अध्यायों में विस्तार से विवेचित करतीं और समकालिक परिदृश्य से संबद्ध कर देतीं तो यह कृति और अधिक विचारोत्तेजक, मननीय और भीमाकारी होकार सामान्य पाठक के लिए गरिष्ठ और केवल विद्वज्जनों के लिए ग्राह्य होती। वर्तमान रूप में यह विद्वज्जनों ही नहीं, सामान्य पाठकों को भी मुक्त चिंतन के उस धरातल पर ले जाने में समर्थ है जहाँ से वे श्री कृष्ण भक्ति मार्ग पर पग बढ़ा सकें। सुनीता को इस महत सारस्वत अनुष्ठान के लिए बधाई और इसकी सफलता हेतु अनंताशीष।

                                                                                संजीव

संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष ९४२५१८३२४४,  ईमेल salil.sanjiv@gmail.com




धृतराष्ट्र

नेत्रहीन धृतराष्ट्र जन्म से, दुखी कुपित रहते अक्सर ।
भाग्य विहीन हुआ मैं ऐसा मेरे साथ हुआ क्योंकर?

ईर्ष्या भ्राता पांडु से रही, पलती बढ़ती बचपन से ।
देख नहीं सकते दृग फिर भी, द्वेष न निकला जीवन से॥

सिंहासन भी गया हाथ से, दृष्टिहीनता के कारण।
शब्द मौन भूचाल हृदय में, नहीं दूर तक था तारण ॥

विधना मुझसे खेल रही क्यों, भाव उठें ये ही मन में ।
अत्याचार सहूँ मैं कितना, लिखा यही क्या जीवन में ?

कुंठित होकर जा सिमटे सब वैचारिक आयाम कहीं ।
स्वार्थ साधना लक्ष्य बन गया, इससे बढ़कर धाम नहीं॥

विधना मोड़ नया ले आयी, भ्राता पाण्डु गये वन को ।
सिंहासन धृतराष्ट्र पा गये, प्राण मिला नव जीवन को॥

मेरा पुत्र बनेगा राजा, हर प्रयास होगा मेरा।
प्राणों से प्रिय सुत दुर्योधन, काटूंगा हर तम - घेरा॥

भ्राता - सुत भी तो प्रिय मुझको, निज सुत प्रिय अतिशय लेकिन।
अगर न मैं सरंक्षण दूंगा, गद्दी जाएगी फिर छिन॥

कहने दो जग को जो कहता, क्या अंतर पड़ता मुझको ?
अधिकार छिना जब था मेरा, नहीं समझ आया उनको ॥

लोग कहेंगे पुत्र - मोह में न्याय नहीं कर पाता हूं।
उनके अनुचित कर्मों पर भी मैं उनको दुलराता हूं॥

कैसे बढ़ने दे सकता मैं, पाण्डव को कुरु गौरव से?
चाह रहा निज कुल हित ही तो, जिसमें मेरे प्राण बसे॥

बनूं त्याग की मूरत क्योंकर, कुछ पाण्डव भी त्याग करें।
मेरे हेतु किया क्या किसने, कुछ वो भी तो धीर धरें॥

भीष्म विदुर के परामर्श से, पत्थर रख कर निज मन पर।
युवराज युधिष्ठिर को घोषित, किया मगर आखिर थककर॥

माना लाक्षागृह अनुचित था, भूल किया दुर्योधन ने।
क्या करता यदि क्षमा न करता, क्या लगता मैं भी कहने?

क्या दे देता दण्ड उसे मैं, अपना कुल - घातक बनता।
भ्राता ज्येष्ठ रहा हूँ मैं ही, नृप का निज - सुत हक बनता॥

राज चाहते क्यों पाण्डव ही, टाल विवाद वही सकते। 
बनने दें नृप दुर्योधन को, साये स्याह सभी टलते ॥

पाण्डव लाक्षागृह से जीवित, बच निकलेंगे पता न था।
बात खुशी की जीवित वे पर, समझे मेरी कौन व्यथा?

मृत जान उन्हें दुर्योधन को, घोषित था युवराज किया।
अब न छोड़ना पद वह चाहे, समझ स्वयं का ताज लिया॥

फिर मैं क्या कर सकता आखिर, प्राणों से प्रिय दुर्योधन।
छोड़ युधिष्ठिर ही दें पद को, शान्त रहे सबका जीवन॥

जाने कृष्ण उन्हें भड़काते, क्योंकर रहते हैं अक्सर?
अधिकार दिलाने को तत्पर न्याय धर्म की बातें कर॥

हित मेरे सुत दुर्योधन का, दिखता उनको कभी नहीं।
पाण्डव ही प्रिय उनको जैसे, लें सुधि कौरव की न कहीं॥

माना चक्र सुदर्शनधारी, शूरवीर अति बलशाली।
बनते तारणहारा अक्सर, वार न उनका हो खाली ॥

तो क्या डरकर हार मान लूँ, निज सुत का हित जाने दूं ?
राज्य सौंप कर पाण्डु - सुतों को तो क्या दुर्दिन आने दूँ ?

अगर न मैं सोचूंगा तो फिर, और कौन सोचेगा क्यों?
अपने सुत का भला चाहता, दूजा तो चाहेगा क्यों?

अगर पाण्डवों ने किंचित भी, अहित किया कौरव कुल का,
प्रश्न क्षमा का नहीं उठेगा, मिटा चिन्ह दूंगा सबका॥

मन करता है लगा गले से, फोड़ उन्हें दूं मूरत सा।
बार - बार का क्लेश मिटे यह, जो अनहोनी सूरत सा॥

नृप हूँ वाचाल न हो सकता, मौन साधना ही होगा।
साम दाम या दण्ड भेद पथ, का ये मन राही होगा॥

गान्धारी


धर्मपरायण सदाचारिणी, उदार दयालु गुणी कन्या ।
गान्धार कुमारी अति सुन्दर सदगुण धारे भी धन्या॥

शत पुत्रवती वरदान मिला, गुरु वेदव्यास से उसको।
सात्विक भाव प्रसिद्धि दिलाते, ख्याति गयी थी चहुँ दिश को॥

ख्याति बनी अभिशाप वहीं जब, आये भीष्म लगन लेकर।
दृष्टिहीन धृतराष्ट्र के लिए, जिन्हें बनाना उसका वर॥

अगर मना करते पितु उनको, दण्ड भुगतना भी पड़ता।
चिन्तित परिजन बोल न पायें, छायी मुख पर भी जड़ता॥

गान्धारी ने लेकर निर्णय, दिया उबार संकट से कुल।
बनूं धृतराष्ट्र की परिणीता, जाये कठिनाई रज धुल॥

बाँध रही हूँ निज आँखों पर, पट्‌टी अपने हाथों से।
नेत्रहीन वर लिखा भाग्य में, क्या होगा अब बातों से॥

देख नहीं सकते स्वामी यदि, अन्धकार उनका जीवन।
मुझको भी वैसे ही तम में, रहना पति अनुगामी बन॥

चाहे मेरी निष्ठा समझो या मानो प्रतिरोध इसे
मुझ पर क्या बीते मैं जानूं लेकिन है परवाह किसे ?

कुन्ती को छोटी बहना सम मान दिया मैं करती हूँ
सुख दुख पीड़ा मन की बातें बाँट लिया मै करती हूँ

पांचाली को भी पुत्री सा, प्रेम किया मैं करती हूँ।
ऑच न आये उस पर कोई ध्यान दिया मैं करती हूँ॥

पर पुत्र मोह में निज पुत्रों को ॥ सत राह न दिखला पाती।
कैसे कर्कश होऊं उन पर मेरे सुत मेरी थाती॥

जानूं कृष्ण बड़े बलशाली, दिव्य शक्तियों के धारक।
कूटनीति के कुशल प्रबन्धक अस्त्र - शस्त्र उनके मारक॥

कौरव पुत्रों का संरक्षण, वे चाहें तो कर सकते ।
पर बस पाण्डव हित में उनके सोच विचार चला करते ॥

अगर चाहते कृष्ण हृदय से, रोक युद्ध को सकते थे।
टल भी जाता विनाश भारी, बात धर्म की करते थे॥

जीवित होते सुत सब मेरे, चहुँदिश खुशहाली होती ।
खूब लबालब भरी सुधा से जीवन की प्याली होती ॥

 पाण्डव जैसे कौरव भी तो, इस कुल के बालक ही थे।
अगर कृपा उन पर थी इतनी, मेरे सुत क्यों भारी थे ?

बालक तो हठ करते ही हैं, भूल भी कभी हो जाती ।
मृत्युदण्ड क्या देना ही हल, राह न दूजी मिल पाती?

पुत्र अगर त्रुटि करता कोई, उद्दण्ड निकल ही जाये।
अर्थ न इसका दोषी कह दें, प्राणों पर ही बन आये ॥

पथ से थोड़ा गया भटक सुत, अन्यायी पदवी पाये॥
नहीं अधर्मी हो जाता वह, दण्ड कठोर दिया जाये॥

राह निकाली जा सकती थी, अगर कृष्ण चाहे होते।
पक्षपात क्यों किया उन्होंने, आँसू अब धीरज खोते॥

क्या दोष पाण्डवों को दूँ मैं, वे भी हैं बालक सम ही।
मारे पुत्र गये उनके भी, जीत मिला उनको तम ही॥

पाण्डव तो मोहरे की तरह, उन पर नीर बहाऊंगी।
किंतु कृष्ण को क्षमा नहीं मैं, कभी कहीं कर पाऊंगी।

बाद युद्ध के गान्धारी से, मिलने जब माधव आये।
कौरव - माता के मुख पर वह, क्रोध रोष लाली पाये॥

स्वाभाविक था संयम खोना, ज्ञात कृष्ण को था लेकिन।
बुलवाया था गान्धारी ने, रहते कैसे जाये बिन ?

धधक उठी बातों में ज्वाला, गान्धारी रोक न पायी।
मन के भीतर दबी हुई जो, चिंगारी बाहर आयी॥

डूबा जैसे वंश हमारा, एक न शत सुत शेष बचा।
देखोगे वैसी गति तुम भी, खेल तुम्हीं ने सभी रचा॥

शाप यही देती हूं तुमको, वंश हीन हो जाओगे।
जो पीड़ा मैंने भोगी वह, पीड़ा तुम भी भोगोगे॥

कुन्ती

पुत्री राजा शूरसेन की, वसुदेव बहन सुकुमारी।
नाम पृथा जिसका बचपन में भातु मारिशा थी वारी॥

चाचा कुन्तीभोज ने लिया, गोद पृथा सुकुमारी को।
निःसन्तान रहे थे अब तक, मिली सुता अति पुलकित वो॥

नव नाम मिला कुन्ती उसको, रही लाडली सबकी जो।
शान्त मृदुल सत्कारी सुन्दर, हृदय जीत लेती थी वो॥

दुर्वासा ऋषि ने सेवा से प्रसन्न हो वरदान दिया।
पंचदेव होंगे वश में जब, तुमने उनको याद किया॥

लगी परखने एक दिवस जब, गुरु के वर की सच्चाई।
याद सूर्य को किया उसी क्षण, दृग सम्मुख रवि - छवि आई॥

कुंती बोली हे देव! सुनें, दर्शन पाकर धन्य हुई।
अब वापस आप चले जाएं, शंका हिय अनुमन्य हुई॥

बिना दिए वर जा न सकूं मैं, अतः यही कर देता हूं।
तेजस्वी सुत मेरे जैसा, पाने का वर देता हूँ॥

बिन ब्याही माता कहलाऊं, अपयश झेल नहीं सकती।
पुत्र मिला तेजस्वी रवि सम, साथ मगर कैसे रखती ?

अतः टोकरी में रख उसको, गंगा - धार बहा आयी।
पत्थर रखकर मन पर अपने, अपराध ग्लानि भर लायी॥

शेष न कोई पथ दूजा था, अतः नियति स्वीकार लिया।
आया जो भी समझ मुझे वह मैंने अंगीकार किया॥

ब्याही गयी हस्तिनापुर में, प्रथम पाण्डु - परिणीता बन॥
टीस उठाती स्मृतियों से तब, धीरे - धीरे उबरा मन॥

रानी बनी हस्तिनापुर की, दिन बीते खुशहाली में।
मन को जैसे पंख लग गये, जगमग जगत दिवाली में॥

एक समान न रहते सब दिन, नियति व्यथा पीड़ा लायी।
मद्र देश की राजकुमारी, माद्री सौतन बन आयी॥

सहज उदार सरल मन कुन्ती, पुनः नियति स्वीकार लिया।
मिलता वह जो भाग्य लिखा हो, बस यह हृदय विचार किया॥

शाप पाण्डु को आखेटन में ऋषि किंदामा से मिलता।
पश्चाताप करें वह वन जा, वैचारिक मन्थन चलता॥

कुंती पतिव्रत धर्म निभाती बाधा खड़ी न वह करती
माद्री भी सहमति जतलाती वन जाने को हठ करती ॥

वरदान मिला जो कुंती को उनसे त्रय सुत पाती है।
बहन मान कर माद्री को भी, द्वय सुत - सुख दिलवाती है॥

मोहित माद्री पर पांडु हुए, भूल शाप रति - लीन सहज।
प्राण पखेरू तत्क्षण निकले, असर शाप का हुआ महज॥

फिर एक बार था कुंती पर घन साया सा लहराया ।
सती हुई माद्री तज निज सुत पालन कुंती पर आया॥

पालन पोषण पाण्डु - सुतों का, अब कुन्ती को करना था।
लौट हस्तिनापुर आई वह, धीरज निज मन धरना था॥

गान्धारी के साथ सदा वह घुल-मिल कर रहती थी ।
दुर्योधन धृतराष्ट्र दुशासन सबके प्रति मृदु कहती थी॥

भाव न प्रतिहिंसा का किंचित, कौरव प्रति कुंती - मन में।
चाहे शूल न बिछाये कितने निज पुत्रों के जीवन में॥

सदा भतीजे कृष्ण पर रहा, विश्वास अटूट हृदय में।
रक्षण न्याय नीति का करके, रहते सत्य धर्म जय में॥

नैतिक सामाजिक मूल्यों की, डोर सदा थामे रहती ।
एक सूत्र में सब पुत्रों को, कर प्रयास बाँधे रखती॥

पुत्रवधू के साथ भी रहा, रिश्ता मधुरिम कुन्ती का।
बुद्धिमती दृढ़ निश्चय वाली, सार समझती जगती का॥

ज्ञात हुआ जब कर्ण पुत्र निज करती रही प्रयास सभी।
कर्ण पाण्डवों संग मिल रहे, भूल हुई जो हुई कभी॥

तत्पर अब अपयश स्वीकारूं , जीवित सारे पुत्र रहें।
अग्रज कर्ण सभी पुत्रों के, मिलकर सब एकत्र रहें॥

भरा विसंगतियों से जीवन पीड़ा का सामान रहा।
माता बलशाली पुत्रों की, पर न समय आसान रहा॥

विदुर

दासी पुत्र विदुर धर्मात्मा, सुत थे व्यास महामुनि के।
धृतराष्ट्र पाण्डु के भ्राता सम, परित: आभा ज्ञान दिखे॥

लेते रहते पक्ष धर्म का, नीति-परक संवादों में।
संग सत्य के रहें हमेशा, दिखता साहस बातों में॥

दासी - सुत होने की पीड़ा, मनोदशा चाकर वाली।
विश्वास स्वयं पर कम रहता, साहस ज्ञान रहे खाली॥

भाव दीनता का हावी था, अन्तरमन के प्रांगण में।
ओज न आ पाया वाणी में, मन दशा रही ज्यो रण में ॥

विदुर सोचते कभी कहीं क्या, कोई मुझको समझेगा?
दुर्योधन को समझाऊं तो क्रोध उसे आ जाएगा॥

जन्मा दासी - पुत्र रूप में, सीख न युद्ध - कला पाया।
भीष्म पितामह मुझे सिखाएं, ऐसा भाग्य कहाँ पाया?

क्षत्रिय जन ही युद्ध कलाएं, सीख सकेंगें नियम यही।
सब अपने विद्रोह करूं क्या, गुरुजन मे यह बात कही॥

शास्त्रों वेदों राजनीति का ज्ञानार्जन कर पाया हूँ।
बुद्धिमान विद्वान सरल छवि, मन्त्री पद तक आया हूँ॥

वरना दासी - सुत को कितना मान यहाँ मिल पाता है?
चाह रही रण - कौशल सीखूँ, युद्ध पराक्रम भाता है॥

करता हूँ स्वीकार हृदय से, नियति जहाँ ले आयी है।
कुछ विधना ने सोचा होगा, जो यह किस्मत पायी है॥

शांत सरल मन दूरदर्शिता, गुण मेरे हैं ज्ञात मुझे।
करते मुझको कृष्ण प्रेम हैं, भाती है यह बात मुझे॥

चर्चा करते महाराज भी, नीति विषय पर हैं मुझसे।
विदुर नीति पहचान बन रही, ये भी मुझको बात रुचे॥

संतोष सरलता भक्ति सहज, नीति निपुणता मेरा बल।
डगर धर्म की चलना मुझको, तनिक न भाता मुझको छल॥

रखनी भी पहचान जरूरी, अपने और पराये की।
संकट ज्ञात करा जाता सब, भला समय भरमाये भी॥

पितृ विहीन हुए पाण्डव यदि क्यों उनका अधिकार छिने?
जब पथ-भ्रष्ट हुए कौरव - जन, उनके भी तो पाप गिने॥

असहाय विवश पाता निज को, बस कह ही तो सकता हूँ।
मगर डिगूँगा नहीं डगर से, सच को थामे रहता हूँ॥

दुर्योधन दुःशासन कौरव, या फिर हो धृतराष्ट्र सभी।
भरी हुई है हृदय कुटिलता, मुझको तो है ज्ञात सभी।

धर्मपरायण रहे युधिष्ठिर, संग सभी निज भ्रात लिए।
अतुलित बलशाली सब के सब, नीति न्याय के कार्य किए॥

कौरव चालें चलें हमेशा, पाण्डव - जीवन संकट में।
काट सकूं हर कुटिल चाल को, झेल सकें पाण्डव झटके॥

पांचाली के चीर हरण में, किया विरोध यथासंभव।
मगर बाध्य नृप आज्ञा मानूँ, हा। धिक जीवन का वैभव॥

पुत्र-मोह में महाराज भी, अन्याय बहुत कर जाते।
पाण्डु - सुतों के संग नहीं वह, न्याय कभी कर पाते॥

माना देख नहीं सकते पर अन्तर - दृष्टि न खोलें क्यों ?
अधिकार पाण्डवों का भी है, बात नहीं वे समझें क्यों ?

जो भी मैं कह सकता हूँ वह, बिन भय के कह जाऊंगा।
चक्षु खुले रख जो भी कर सकता हूँ कर जाऊंगा॥

पाण्डु - सुतों पर मेरे रहते, आँच न कोई आ पाये।
सदा प्रयास रहेगा मेरा, अधिकार उन्हें मिला जाये॥

कुन्ती भाभी धर्म - परायण कृष्ण धर्म के रक्षक हैं।
धर्मराज युधिष्ठिर के संग, पाण्डव सतपथ तक्षक हैं॥

मौन समर्थन मेरा उनको, पक्ष न खुलकर ले सकता।
संभव यथा रहा है जितना, रक्षण को तत्पर रहता॥

कृष्ण त्याग कर राजभोग को, गृह मेरे जो आते हैं।
अपना मान बढ़ा पाता हूँ, धन्य प्राण हो जाते हैं॥

संजय

गावाल्गण विद्वान सूत थे, सुत उनका संजय बुनकर।
विनम्र धार्मिक स्वभाव मधुरिम राजसभा में रहें मुखर॥

रहे सारथी महाराज के, सलाहकार बने संजय।
बातें राज्य हितों की करते, कर पाते न कभी अभिनय॥

बात खरी ही बोलें संजय, कड़े वचन कह जाते थे।
धृतराष्ट्र रहे या सुत उनके, धर्म - नीति समझाते थे॥

अन्यायों का विरोध करते,बिन किंचित भय रख मन में।
सहानुभूति रही पाण्डव से, कृष्ण - भक्ति की जीवन में॥

मन्त्री थे धृतराष्ट्र राज्य में, सत्य सलाह दिया करते ।
होते क्षुब्ध महाराज मगर, बातें स्पष्ट किया करते॥

जब पाण्डव वनवास गये थे, चेताया नृप को तब भी।
नाश समूल लिखा कुरु कुल का, पर प्रजा निरीह मरेगी॥

पूर्व महाभारत के भेजा, पास युधिष्ठिर राजन ने ।
धर्मराज के संदेशे को, लौट सुनाया संजय ने॥

दोनों पक्षों को समझाया, जैसे भी हो युद्ध टले।
अथक प्रयास करें जो संभव, संजय को यह युद्ध खले॥

हुआ सुनिश्चित जब यह सबको टल सकता अब युद्ध नहीं।
दिव्य दृष्टि दी वेद व्यास ने संजय सकते देख कहीं॥

पल-पल का हाल सुना सकते, रण स्थल हाल बता सकते।
कौरव पाण्डव सेनाओं का, आँखों देखा वर्णन कहते॥

साथ सुनाया भगवद्गीता, संवादों की शैली में।
अर्जुन माधव से क्या पूछें, कृष्ण कहें क्या रैली में ?

हाल सुनाते संजय सोचें, अद्भुत ज्ञान सुनें सारे।
मनोदशा अनुकूल ग्रहण कर, सबने ज्ञान हृदय धारे॥

एकाग्र नहीं मन अगर हुआ, व्यर्थ ज्ञान हो जाएगा।
बस निज हित की बात सुनें यदि, क्षीण असर हो जाएगा॥

गान्धारी धृतराष्ट रहें या कुन्ती विदुर उपस्थित सब।
खो जाते अपने चिन्तन में वर्णन मध्य कहें क्या अब?

विस्तृत इतना वृहद ज्ञान वह, समझेंगे बस ईश्वर ही।
छलकी जाती ज्ञान गगरिया, पर कहती आयाम सही॥

क्षुद्र बहुत अपने को मानूं, अल्प बुद्धि क्या समझूंगा?
धन्य हुआ मैं दिव्य दृष्टि पा, संभव ज्ञान समेटूंगा॥

कृपा रही ईश्वर की मुझ पर, दिव्य दृष्टि पाया मैंने।
देख सका अर्जुन के जैसे, कृष्ण - रूप देखा मैनें॥

सफल हो गया जीवन जीना, रोष न कोई अब मन में।
लीलाधर की लीला देखी, मैने भी इस जीवन में॥

रूप दिव्य जो कृष्ण दिखाते अर्जुन को रण के स्थल पर।
रूप वही संजय ने भी था, देखा अन्तः सिहरन भर॥

दिव्य कृष्ण छवि दर्शन करके, रहा न पहले सा जीवन।
अन्तः करण हुआ परिवर्तित, हो आया वैरागी मन॥

तटस्थ होकर हाल सुनाते, यथारूप वर्णन करते। 
पक्ष - विपक्ष भाव अब धूमिल, रंजित रक्त - कथा कहते॥

अन्दर रहती उदासीनता, वैरागी सम भावों में।
दायित्व नहीं था पूर्ण हुआ, व्यर्थ समय न सुझावों में॥

धर्म - युद्ध यह नियति कराये, सबके अपने लेखे हैं।
ज्ञान कृष्ण का ग्रहण कर लिया, फल कर्मों के देखें हैं॥

भाया अब सन्यासी जीवन, गूढ़ ज्ञान की सुन बातें।
कृष्ण - भक्ति में बीते जीवन, चाहें दिन हों या रातें॥

दिव्य दृष्टि खो दी संजय ने, जब वह युद्ध समाप्त हुआ।
आमूल - चूल परिवर्तन भी, संजय भीतर व्याप्त हुआ॥

बातें गूढ़ बहुत थीं लेकिन, समझ सका जो ज्ञान न कम।
धन्य हुआ जीवन यह मेरा अब न हृदय में रहता तम॥

वाद विवाद न बहस लगे प्रिय, भक्ति मौन में मुखर हुई।
अन्तर दिशा दशा सुधरी मृदु, अन्तर आत्मा निखर हुई॥