कुल पेज दृश्य

आँगन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आँगन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 17 दिसंबर 2017

navgeet

नवगीत-
आँगन टेढ़ा 
नाच न आये 
*
अपनी-अपनी 
चाल चल रहे
खुद को खुद ही
अरे! छल रहे
जो सोये ही नहीं
जान लो
उन नयनों में
स्वप्न पल रहे
सच वह ही
जो हमें सुहाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
हिम-पर्वत ही
आज जल रहे
अग्नि-पुंज
आहत पिघल रहे
जो नितांत
अपने हैं वे ही
छाती-बैठे
दाल दल रहे
ले जाओ वह
जो थे लाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*
नित उगना था
मगर ढल रहे
हुए विकल पर
चाह कल रहे
कल होता जाता
क्यों मानव?
चाह आज की
कल भी कल रहे
अंधे दौड़े
गूँगे गाये
आँगन टेढ़ा
नाच न आये
*

१७-१२-२०१५ 

शनिवार, 16 मई 2009

काव्य किरण : गीत : -कृपाशंकर शर्मा 'अचूक', जयपुर

अनजानी अनसुनी

कहानी सुनते आये हैं।

अरमानों के धागों से

कुछ बुनते आये हैं...



कान लगाकर सुना नहीं

संदेश फकीरों का।

जीवन व्यर्थ गँवाया कर

विश्वास लकीरों का।

सब अतीत की बातों

को ही चुनते आये हैं...



आँगन-आँगन अमलतास ने

डाला डेरा है।

सूरज की किरणें तो आतीं

किन्तु अँधेरा है।

धुनकी रीति-रिवाजों की

नित धुनते आये हैं...


याद किसी की जैसे

कोई शूल चुभोती हो।

खड़ी ज़िंदगी द्वारे पर

बतियाती होती हो।

अपने पाँवों की 'अचूक'

गति गुनते आये हैं...

********************