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शनिवार, 31 जनवरी 2015

कृति चर्चा (पद्य समीक्षा): संजीव

kruti-charcha: sanjiv

काव्याभिनंदन: भाव-चन्दन
चर्चाकार: आचार्य संजीव
.
[कृति विवरण: काव्याभिनंदन, काव्य संग्रह, संपादक विकास मिश्र, आकार डिमाई, आवरण पेपर बैक, २००६, पृष्ठ ५६, यू.एस.एम. पत्रिका २ बी १३६ नेहरू नगर गाज़ियाबाद २०१००१]
पूत धरा के धरा पर, रहे जमाये पैर
माँ हिंदी को सेवते, वाणी-सुर निर्वैर
शंकाएँ निर्मूल कर, वरा सदा विश्वास
कर्मवीर ने कर्म पर, कभी न छोड़ी आस
रजनी का तम पी लिया, देकर सृजन-उजास
मिला कलम में ही तुम्हें, ईश्वर का आभास
श्रम-निष्ठा के गीत नित, रचे अनवरत मीत
शब्द-जगत प्रति समर्पण, तुम्हें सुहाई रीत
तरु तुम शाखाएँ हुईं, रचनाएँ-अखबार
जीवन को दे पूर्णता, सरस सृजन-संसार
वीतराग-अनुराग मिल, जब जाते हैं खिल
कहे उमाशंकर जगत, सृजन-धार अविकल
कवि मित्रों ने समर्पित, किया भाव-चंदन
काव्य पंक्तियों से किया, अर्पित अभिनन्दन
छोटे-बड़े सभी खड़े, शब्द-सिपाही साथ
कवितांजलि अर्पित करें, मिला हाथ से हाथ
पृष्ठभूमि सबकी अलग, किन्तु भाव है एक
वंदन-चंदन समर्पित, उसे रहा जो नेक
मृदुल किन्तु दृढ़ मनस है, संकल्पी है आत्म
सत-शिव-सुंदर सृजन में, देख रहे परमात्म
नेह-नर्मदा-नीर ले, आया है संजीव
सफल साधना सुयश दे, कलम बने गांडीव
***

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

नवगीत: संजीव

navgeet:  sanjiv

नवगीत:
विश्वासों का
सूर्य न दिखता
.
बहुमत छल-दल बादल का
घाय है स्वर मादल का
जनमत हुआ अवैधानिक
सही फैसला शासक का
जनगण-मन में
क्रोध सुलगता
.
आन्दोलन का दावानल
जन-धरने का बड़वानल
जन-नायक लाचार हुआ
चेले कुर्सी हित पागल
घातक लावा
उबल-उफनता
.
चाहें खेत, नहीं दाना
उद्योगों हित दीवाना
है दलाल हर जन-नेता
सेठों से धन है पाना
जमा विदेशों में
है रखता
२९.१.२०१५
.

कृति चर्चा: संजीव

kruti charcha : sanjiv

धरती से नभ तक: कविता की दस्तक     
चर्चाकार: आचार्य  संजीव 
[कृति विवरण: धरती से नभ तक, कविता संग्रहडॉ. राजकुमारी पाठक, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, २००५, पृष्ठ ८०, ८०/-, सारंग प्रकाशन मथुरा]

जब से मनुष्य ने कलकल करती सलिलाओं, कलरव करते पंछियों और गर्जन करते मेघों की ध्वनि में आरोह-अवरोह की अनुभूति कर गुनगुनाना आरम्भ किया तभी से गीत और कविता ने जन्म लिया। भाषा और लिपि के जन्म से सदियों पूर्व धरती से नभ तक और नभ से धरती तक पहुँचनेवाली कविता आज भी मानव की भावाभिव्यक्ति का सर्वसुलभ, सर्वमान्य और सर्वश्रुत माध्यम है। कहन की सहजता, अभिव्यक्ति की स्पष्टता, कथ्य की सार्वजनीनता, लय की सरसता और रूपक की मर्मबेधकता कविता को चारुत्व, लालित्य और ग्राह्यता प्रदान करती हैं। डॉ. राजकुमारी pathakपाठक मुक्तिबोध साहित्य की अध्येता, मीमांसक और शोधक हैं किन्तु उनकी ये कवितायें मुक्तिबोध-चितन की छायामात्र नहीं अपितु स्वतंत्र चिंतन से उपजी रचनाएँ हैं। छंद मुक्त २८ कविताओं का विवेच्य संग्रह कवयित्री की कारयित्री प्रतिभा का परिचायक है। ये रचनाएँ सरस, सहज, स्पष्ट, सुबोध तथा जीवंत हैं।

अच्छा लगता है, बरगद, कल्पना तरंग, समता-समरसता, अमल कमल, लोकमंगल, कीर्ति की सुगंध, आदि में कवयित्री प्रफुल्लता लुटाती चलती है। भुखमरी, भूखा, विवशता, रोटी, मुट्ठी हबर आटा आदि सामाजिक वैषम्यजनित कविताओं पर प्रगतिवाद की छाप है। पार्क जो तालाब बना, लोकोपकारी बरगद, आदि कविताओं में राजकुमारी जी की पर्यावरणीय चिंतायें शब्दित हुई हैं। यदि काँटों को / तुम पालोगे / तो कीर्ति की सुगंध / निश्चय ही पा लोगे (यमक दृष्टव्य)- पृष्ठ ६, और हम अपनी दृढ़ इच्छा, संकल्पशक्ति / सुकर्मोम में अनुरक्ति और गुरुभक्ति से जीतते रहे / जीवन की जंग- पृष्ठ ६८, जैसे अच्छे समय को मुदित हो स्वीकारा / वैसे ही कुसमय को हबी स्वीकारो / समझकर ईश का वरद उपहार मनो न हार- पृष्ठ ६१, गुदगुदी बालू के गद्दे पर / शिशुओं का लोटना / कभी घर बनाना, इस सफलता पर / खिलखिलाना, अच्छा लगता है- पृष्ठ १२, कब सुधरेगी मानसिकता / मेरे देशवासियों की / कब इनकी चेतना होगी पूर्ण स्वस्थ?- पृष्ठ १८, जीवन का सत्य / इच्छाएं रहती हैं / जीवन में नित्य- पृष्ठ २१ आदि पंक्तियाँ साक्षी हैं की राजकुमारी जी की कवितायेँ ताजमहली वाग्विलास या आकाश कुसुम सी काल्पनिक नहीं अपितु आम आदमी के दैनंदिन सरोकारों से जुडी हैं।

इन कविताओं का एक वैशिष्ट्य यह भी है कि ये परदोषदर्शनी वृत्ति का वैचारिक वमन मात्र नहीं हैं, ये विषमताओं और विसंगतियों के समाधान भी सुझाती है।व्यवसाय से प्राध्यापक डॉ. राजकुमारी के लिए यह उनके दैनंदिन दायित्वों के निर्वहन की तरह स्वाभाविक है। यह काव्य संग्रह ‘सामान्य जन का, के लिए और के द्वारा है’ यही इसकी सफलता है।

***       

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

आइये कविता करें १०

आइये कविता करें:  १०
आभा जी का यह नवगीत पढ़िए. यह एक सामान्य घटना क्रम है जिसमें रोचकता की कमी है. यह वर्णनात्मक हो गया है. दोहे या नव्गीय के कथ्य में कुछ चमत्कार या असाधारणता होना चाहिए, साथ ही कहन में भी कुछ खास बात हो.
कुछ तो मुझसे बातें करते.....
सुबह को जाकर 
सांझ ढले
घर को आते हो
ना जाने 
कितने हालातों से
टकराते हो
प्रियतम मेरे
सारे दिन मैं
करूं प्रतीक्षा
थकी थकी सी
मुद्रा में तुम जब
आते हो
कितनी बातें
करनी होतीं
साथ चाय भी
पीनी होती
कैसे मैं मन टटोलूं
कैसे अपना मुंह खोलूं
जब निढाल हो
बिस्तर में
तुम गिर जाते हो
चाहूं मन ही मन तुम मुझसे
हाले दिल थोड़ा
सा कहते
कुछ तो मुझसे बातें करते...
.......

हम इसमें कम से कम बदलाव कर इसे नव गीत का रूप देने का प्रयास करते हैं:
कुछ तो 
मुझसे बातें कर लो  
(यह मुखड़ा हुआ. मुखड़ा हर अंतरे के बाद दोहराया जाता है ताकि पूरे नवगीत या दोहे को एक सूत्र में बाँध सके)  
अलस्सुबह जा     ८  
सांझ ढले            ६ 
घर को आते हो    १०  
(अंतरे के प्रथम चरण में ८+६+१० = २४ मात्राएँ हुईं, सामान्यतः दूसरे चरण में भी २४ मात्राएँ चाहिए, पंक्ति संख्या या पंक्ति का पदभार भिन्न भी हो सकता है.)     
क्या जाने 
किन हालातों से
टकराते हो?
प्रियतम मेरे!
सारे दिन मैं
करूँ प्रतीक्षा- 

(यह ३रा चरण हुआ, इसमें भी २४ मात्राएँ हैं. यदि और अधिक चरण जोड़ने हैं तो इसी तरह जोड़े जा सकते हैं पर जितने चारण यहाँ होंगे उतने ही चरण बाकी के अंतरों में भी रखना होंगे. अब मुखड़े के समान पदभार की पंक्ति चाहिए ताकि उसके बाद मुखड़ा उसी प्रवाह में पढ़ा जा सके.) 
मुझ को 
निज बाँहों में भर लो    

थका-चुका सा
तुम्हें देख  

कैसे मुँह खोलूँ?
बैठ तुम्हारे निकट
पीर क्या?
हिचक टटोलूँ
श्लथ बाँहों में
गिर सोते 

शिशु से भाते हो  
मन इनकी 
सब पीड़ा हर लो  

नवगीत का अंत सामान्य से कुछ भिन्न हुआ क्या? अब आभा जी विचार करें और चाहें तो कथ्य में और भी प्रयोग कर सकती हैं.  


बुधवार, 28 जनवरी 2015

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.


नज़र फेरकर जा रहे
हो कहाँ तुम?
.
यकायक ह्रदय की हुई मौन सरगम
गिरा दिल कहीं कह रही हो गिरा नम
सुनाई न देती पायल की छमछम
मुझे पर सुनो तुम धड़कन है गुमसुम
पाओगे जाओगे जब
भी जहाँ तुम
.
लटें श्याम कहतीं कहानी कहे बिन
रहना है संग में मुझे संग रहे बिन
उठतीं न पलकें, धडकनें रहीं गिन
युगों से हुए हैं हमें क्यों ये पल-छिन?
दिखते नहीं हो, मगर
हो  यहाँ तुम
... 

muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
समय चक्र ने झपट गंसा
मैं दुनिया के साथ हँसा

जिसको दूध पिला-पाला
उसने मौका खोज डंसा

दौड़ लगी जब सत्ता की
जिसको कुर्सी मिली ठँसा

जब तक मिली न चाह रही
मिली तो लगा व्यर्थ फँसा

जीत महाभारत लेता
चका भूमि में मगर धँसा
.




muktika: sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.
 घर जलाते हैं दिए ही आजकल
बहकते पग बिन पिये ही आजकल

बात दिल की दिल को कैसे हो पता?
लब सिले हैं बिन सिले ही आजकल

गुनाहों की रहगुजर चाही न थी
हुए मुजरिम जुर्म बिन ही आजकल

लाजवंती है न देखो घूरकर
घूमती है बिन वसन ही आजकल

बेबसी-मासूमियत को छीनकर
जिंदगी जी बिन जिए ही आजकल

आपदाओं को लगाओ मत गले
लो न मुश्किल बिन लिये ही आजकल

सात फेरे जिंदगी भर आँसते
कहा बिन अनुभव किये ही आजकल
... 

navgeet: sanjiv

नवगीत:
नाम बड़े हैं
संजीव
.
नाम बड़े हैं
दर्शन छोटे
.
दिल्ली आया उड़न खटोला
देख पड़ोसी का दिल डोला
पडी डांट मत गड़बड़ करना
वरना दंड पड़ेगा भरना
हो शरीफ तो
हो शरीफ भी
मत हो
बेपेंदी के लोटे
 .
क्या देंगे?, क्या ले जायेंगे?
अपनी नैया खे जायेंगे
फूँक-फूँककर कदम उठाना
नहीं देश का मान घटाना
नाता रखना बराबरी का
सम्हल न कोई
बहला-पोटे
.
देख रही है सारी दुनिया
अद्भुत है भारत का गुनिया
बदल रहा बिगड़ी हालत को
दूर कर रहा हर शामत को
कमल खिलाये दसों दिशा में
चल न पा रहे
सिक्के खोटे
..
२५.१.२०१५     

navgeet: -sanjiv

नवगीत:
भाग्य कुंडली
संजीव
.
भाग्य कुंडली
बाँच रहे हो
कर्म-कुंडली को ठुकराकर
.
पंडित जी शनि साढ़े साती
और अढ़ैया ही मत देखो
श्रम भाग्येश कहाँ बैठा है?
कोशिश-दृष्टि कहाँ है लेखो?
संयम का गुरु
बता रहा है
.
डरो न मंगल से अकुलाकर
बुध से बुद्धि मिली है हर को
सूर्य-चन्द्र सम चमको नभ में
शुक्र चमकता कभी न डूबे
ध्रुवतारा हों हम उत्तर के
राहू-केतु को
धता बतायें
चुप बैठे हैं क्यों संकुचाकर?

navgeet: sanjiv

नवगीत:
भाग्य बांचते हैं
संजीव
.
भाग्य बाँचते हो औरों का
खुद की किस्मत
बाँच न पाते
.
तोता लेकर सड़क किनारे
बैठा स्याना कागा पंडित
मूल्य नये गढ़ नहीं सके पर
मूल्य पुराने करते खंडित
सुख-समृद्धि कब किसे मिलेगी
बतला दें, हों आप अचंभित
बिन ध्वज-दंड पताका कल की
नील गगन पर
छिप फहराते
.
संसद में सेवा हित बैठे
दूर-दूर से जाकर सांसद
सेवापथ को भुला राजपथ
का चढ़ गया सभी पर क्यों मद?
सूना जनपथ राह हेरता
बिछड़े पग फिर आयें शायद
नेताजी, जेपी, अन्ना संग  
कल के सपने
आज सजाते
.


kruti charcha: hiran sugandhon ke

कृति चर्चा: 
हिरण सुगंधों के: नवगीत का नवान्तरण    
चर्चाकार: आचार्य  संजीव 
[कृति विवरण: हिरण सुगंधों के, नवगीत संग्रहआचार्य भगवत दुबे, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, २००४, पृष्ठ १२१, १२०/-, अनुभव प्रकाशन ई २८ लाजपत नगर साहिबाबाद २०१००५ वार्ता ०१२० २६३०६९९ / २६३५२७७] 


विश्व वांग्मय के आदिग्रंथ ‘ऋग्वेद’ में गिर, गिरा, गातु, गान आदि नामों से जिस गीति विधा को संबोधित किया गया है वह पद्य के पुरातन, मौलिक, भाव प्रवण, कलात्मक, लोकप्रिय तथा उर्वरतम छांदस सृजन पथ पर पग रखते हुए वर्तमान में ‘नवगीत’ नाम से अभिषिक्त lहै। गीत का उद्भव ऋग्वेद से सहस्त्रों वर्ष पूर्व जलप्रवाह की कलकल, पंछियों की कलरव, मेघों की गर्जन आदि सुनते आदिम मनुष्य की गुनगुनाहट से हुआ होगा। प्रस्फुटित होते सुमन-गुच्छ, कुलांचे भरते मृग वृन्द, नीलाभ नभ का विस्तार नापते खगगण और मंद-मंद प्रवाहित होते पुरवैया के झोंके मनुष्य के अंतस का साक्षात् स्वर्गिक अनंग से कराया होगा और उसके कंठ से अनजाने ही निनादित हो उठी होगी नाद-ब्रम्ह की प्रतीति से ऊर्जस्वित स्वर लहरी। आरंभ में यह इस स्वर लहरी में समाहित ‘हिरण सुगंधों के’ शब्दभेदी बाण की तरह खेत-खलिहान, पनघट-चौपाल, आँगन-दालान में कुलांचे भरते भरते रहे पर सभ्यता के विस्तार के साथ भाषिक-पिंगलीय अनुशासन में कैद होकर आज इस नवगीत संग्रह की शक्ल में हमारे हाथ में हैं। 

सनातन सलिला नर्मदा के अंचल में जन्मे-बढ़े विविध विधाओं में गत ५ दशकों से सृजनरत वरिष्ठ रचनाधर्मी आचार्य भगवत दुबे रचित ‘हिरण सुगंधों के’ के नवगीत किताबी कपोल कल्पना मात्र न होकर डगर-डगर में जगर-मगर करते अपनों के सपनों, आशाओं-अपेक्षाओं, संघर्षों-पीडाओं के जीवंत दस्तावेज हैं। ये नवगीत सामान्य ग्राम्य जनों की मूल मनोवृत्ति का दर्पण मात्र नहीं हैं अपितु उसके श्रम-सीकर में अवगाहन कर, उसकी संस्कृति में रचे-बसे भावों के मूर्त रूप हैं। इन नवगीतों में ख्यात समीक्षक नामवर सिंह जी की मान्यता के विपरीत ‘निजी आत्माभिव्यक्ति मात्र’ नहीं है अपितु उससे वृहत्तर आयाम में सार्वजनिक और सार्वजनीन यथार्थपरक सामाजिक चेतना, सामूहिक संवाद तथा सर्वहित संपादन का भाव अन्तर्निहित है। इनके बारे में दुबे जी ठीक ही कहते हैं:
‘बिम्ब नये सन्दर्भ पुराने
मिथक साम्यगत लेकर
परंपरा से मुक्त
छान्दसिक इनका काव्य कलेवर
सघन सूक्ष्म अभिव्यक्ति दृष्टि
सारे परिदृश्य प्रतीत के
पुनः आंचलिक संबंधों से
हम जुड़ रहे अतीत के’

अतीत से जुड़कर वर्तमान में भविष्य को जोड़ते ये नवगीत रागात्मक, लयात्मक, संगीतात्मक, तथा चिन्तनात्मक भावभूमि से संपन्न हैं। डॉ. श्याम निर्मम के अनुसार: ‘इन नवगीतों में आज के मनुष्य की वेदना, उसका संघर्ष और जीवन की जद्दोजहद को भली-भांतिदेखा जा सकता है। भाषा का नया मुहावरा, शिल्प की सहजता और नयी बुनावट, छंद का मनोहारी संसार इन गीतों में समाया है। आम आदमी का दुःख-दर्द, घर-परिवार की समस्याएँ, समकालीन विसंगतियाँ, थके-हांरे मन का नैराश्य और स्न्वेदान्हीनाता को दर्शाते ये नवगीत नवीन भंगिमाओं के साथ लोकधर्मी, बिम्बधर्मी और संवादधर्मी बन पड़े हैं।’

महाकाव्य, गीत, दोहा, कहानी, laghukatha, gazal, आदि विविध विधाओं की अनेक कृतियों का सृजन कर राष्ट्रीय ख्याति अर्जित्कर चुके आचार्य दुबे अभंव बिम्बों, सशक्त लोक-प्रतीकों, जीवंत रूपकों, अछूती उपमाओं, सामान्य ग्राम्यजनों की आशाओं-अपेक्षाओं की रागात्मक अभिव्यक्ति पारंपरिक पृष्ठभूमि की आधारशिला पर इस तरह कर सके हैं कि मुहावरों का सटीक प्रयोग, लोकोक्तियों की अर्थवत्ता. अलंकारों का आकर्षण इन नवगीतों में उपस्थित सार्थकता, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, बेधकता तथा रंजकता के पंचतत्वों के साथ समन्वित होकर इन्हें अर्थवत्ता दे सका है

आम आदमी का दैनंदिन दुःख-सुख इन नवगीतों का उत्स और लक्ष्य है। दुबे जी के गृहनगर जबलपुर के समीप पतित पावनी नर्मदा पर बने बरगी बाँध के निर्माण से डूब में आयी जमीन गंवा चुके किसानों की व्यथा-कथा कहता नवगीत पारिस्थितिक विषमता व पीड़ा को शब्द देता है:

विस्थापन कर दिया बाँध ने
ढूंढें ठौर-ठिकाना
बिके ढोर-डंगर, घर-द्वारे
अब सbbब कुछ अनजाना
बाड़ी, खेत, बगीचा डूबे
काटा आम मिठौआ
उड़ने लगे उसी जंगल में
अब काले कौआ

दुबे जी ने अपनी अभिव्यक्ति के लिये आवश्यकतानुसार नव शब्द भी गढ़े हैं:

सीमा कभी न लांघी हमने
मानवीय मरजादों की
भेंट चाहती है रणचंडी
शायद अब दनुजादों की

‘साहबजादा’ शब्द की तर्ज़ पर गढ़ा गया शब्द ‘दनुजादा’ अपना अर्थ आप ही बता देता है। ऐसे नव प्रयोगों से भाषा की अभिव्यक्ति ही नहीं शब्दकोष भी समृद्ध होता है।

दुबे जी नवगीतों में कथ्य के अनुरूप शब्द-चयन करते हैं: खुरपी से निन्वारे पौधे, मोची नाई कुम्हार बरेदी / बिछड़े बढ़ई बरौआ, बखरी के बिजार आवारा / जुते रहे भूखे हरवाहे आदि में देशजता, कविता की सरिता में / रेतीला पड़ा / शब्दोपllल मार रहा, धरती ने पहिने / परिधान फिर ललाम, आयेगी क्या वन्य पथ से गीत गाती निर्झरा, ओस नहाये हैं दूर्वादल / नीहारों के मोती चुगते / किरण मराल दिवाकर आधी में परिनिष्ठित-संस्कारित शब्दावली, हलाकान कस्तूरी मृग, शीतल तासीर हमारी है, आदमखोर बकासुर की, हर मजहबी विवादों की यदि हवा ज़हरी हुई, किन्तु रिश्तों में सुरंगें हो गयीं में उर्दू लफ्जों के सटीक प्रयोग के साथ बोतलें बिकने लगीं, बैट्समैन मंत्री की हालत, जब तक फील्डर जागें, सौंपते दायित्व स्वीपर-नर्स को, आवभगत हो इंटरव्यू में, जीत रिजर्वेशन के बूते आदि में आवश्यकतानुसार अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग जिस सहजता से हुआ है, वह दुबेजी के सृजन सामर्थ्य का प्रमाण है।

गीतों के छांदस विधान की नींव पर आक्रामक युगबोधी तेवरपरक कथ्य की दीवारें, जन-आकांक्षाओं के दरार तथा जन-पीडाओं के वातायन के सहारे दुबे जी इन नवगीतों के भवन को निर्मित-अलंकृत करते हैं। इन नवगीतों में असंतोष की सुगबुगाहट तो है किन्तु विद्रोह की मशाल या हताशा का कोहरा कहीं नहीं है। प्रगतिशीलता की छद्म क्रन्तिपरक भ्रान्ति से सर्वथा मुक्त होते हुए भी ये नवगीत आम आदमी के लिये हितकरी परिवर्तन की चाह ही नहीं मांग भी पूरी दमदारी से करते हैं। शहरी विकास से क्षरित होती ग्राम्य संस्कृति की अभ्यर्थना करते ये नवगीत अपनी परिभाषा आप रचते हैं। महानगरों के वातानुकूलित कक्षों में प्रतिष्ठित तथाकथित  पुरोधाओं द्वारा घोषित मानकों के विपरीत ये नवगीत छंद व् अलंकारों को नवगीत के विकास में बाधक नहीं साधक मानते हुए पौराणिक मिथकों के इंगित मात्र से कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अभिव्यक्त कर pathakpathakपाठक के चिंतन-मनन की आधारभूमि बनाते हैं। प्रख्यात नवगीतकार, समीक्षक श्री देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अनुसार: ‘अन्र्क गीतकारों ने अपनी रचनाओं में लोक जीवन और लोक संस्कृति उअताराने की कोशिश पहले भी की है तथापि मेरी जानकारी में जीतनी प्रचुर और प्रभूत मात्रा में भगवत दुबे के गीत मिलते हैं उतने प्रमाणिक गीत अन्य दर्जनों गीतकारों ने मिलकर भी नहीं लिखे होंगे।’

हिरण सुगंधों के के नवगीत पर्यावरणीय प्रदूषण और सांस्कृतिक प्रदूषण से दुर्गंधित वातावरण को नवजीवन देकर सुरभित सामाजिक मर्यादों के सृजन की प्रेरणा देने में समर्थ हैं। नयी पीढ़ी इन नवगीतों का रसास्वादन कर ग्राम-नगर के मध्य सांस्कृतिक राजदूत बनने की चेतना पाकर अतीत की विरासत को भविष्य की थाती बनाने में समर्थ हो सकती है।


...              

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

kruti charcha: waqt adamkhor- madhukar ashthana

कृति चर्चा: 
वक्त आदमखोर: सामयिक वैषम्य का दस्तावेज़    
चर्चाकार: आचार्य  संजीव 
[कृति विवरण: वक्त आदमखोर, नवगीत संग्रहमधुकर अष्ठाना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, १९९८, पृष्ठ १२६, नवगीत १०१, १५०/-, अस्मिता प्रकाशन, इलाहाबाद] 

साहित्य का लक्ष्य सबका हित साधन ही होता है, विशेषकर दीन-हीन-कमजोर व्यक्ति का हित। यह लक्ष्य विसंगतियों, शोषण और अंतर्विरोधों के रहते कैसे प्राप्त हो सकता है? कोई भी तंत्र, प्रणाली, व्यवस्था, व्यक्ति समूह या दल प्रकृति के नियमानुसार दोषों के विरोध में जन्मता, बढ़ता, दोषों को मिटाता तथा अंत में स्वयं दोषग्रस्त होकर नष्ट होता है। साहित्यकार शब्द ब्रम्ह का आराधक होता है, उसकी पारदर्शी दृष्टि अन्यों से पहले सत्य की अनुभूति करती है। उसका अंतःकरण इस अभिव्यक्ति को सृजन के माध्यम से उद्घाटित कर ब्रम्ह के अंश आम जनों तक पहुँचाने के लिये बेचैन होता है। सत्यानुभूति को ब्रम्हांश आम जनों तक पहुँचाकर साहित्यकार व्यव्ष्ठ में उपजी गये सामाजिक रोगों की शल्यक्रिया करने में उत्प्रेरक का काम करता है। 

विख्यात नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना अपनी कृति ‘वक्त आदमखोर’ के माध्यम से समाज की नब्ज़ पर अँगुली रखकर तमाम विसंगतियों को देख-समझ, अभिव्यक्तकर उसके निराकरण का पथ संधानने की प्रेरणा देते हैं। श्री पारसनाथ गोवर्धन का यह आकलन पूरी तरह सही है: ‘इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूते शब्द विन्यास, मौलिक उद्भावनाएँ, यथार्थवादी प्रतीक, अनछुए बिम्बों का संयोजन, मुहावरेदारी तथा देशज शब्दों का संस्कारित प्रयोग उन्हें अन्य रचनाकारों से पृथक पहचान देने में समर्थ है।

नवगीतों में प्रगतिवादी कविता के कथ्य को छांदस शिल्प के साथ अभिव्यक्त कर सहग ग्राह्य बनाने के उद्देश्य को लेकर नवगीत रच रहे नवगीतकारों में मधुर अष्ठाना का सानी नहीं है। स्वास्थ्य विभाग में सेवारत रहे मधुकर जी स्वस्थ्य समाज की चाह करें, विसंगतियों को पहचानने और उनका निराकरण करने की कामना से अपने नवगीतों के केंद्र में वैषम्य को रखें यह स्वाभाविक है। उनके अपने शब्दों में ‘मानवीय संवेदनाओं के प्रत्येक आयाम में विशत वातावरण से ह्त्प्रह्ब, व्यथित चेतना के विस्फोट ने कविताओं का आकार ग्रहण कर लिया.... भाषा का कलेवर, शब्द-विन्यास, शिल्प-शैली तथा भावनाओं की गंभीरता से निर्मित होता है... इसीलिए चुस्त-दुरुस्त भाषा, कसे एवं गठे शब्द-विन्यास, पूर्व में अप्रयुक्त, अनगढ़-अप्रचलित सार्थक शब्दों का प्रयोग एवं देश-kaalkaalकाल-परिस्थिति के अनुकूल आंचलिक एवं स्थानीय प्रभावों को मुखरित करने की कोशिश को मैंने प्रस्तुत गीतों में प्राथमिकता देकर अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।’

मधुकर जी की भाषा हिंदी-उर्दू-देशज मिश्रित है। ‘तन है वीरान खँडहर / मन ही इस्पात का नगर, मजबूरी आम हो गयी / जिंदगी हराम हो गयी, कदम-कदम क्रासों का सिलसिला / चूर-चूर मंसूबों का किला, प्यासे दिन हैं भूखी रातें / उम्र कटी फर्जी मुस्काते, टुकड़े-टुकड़े अपने राम रह गये / संज्ञाएँ गयीं सर्वनाम रह गये, जीवन भर जो रिश्ते ढोये हैं / कदम-कदम पर कांटे बोये हैं, प्याली में सुबह ढली, थाली में दोपहर / बुझी-बुझी आँखों में डूबे शामो-सहर, जीवन यों तो ठहर गया है / एक और दिन गुजर गया है, तर्कों पर लाद जबर्दस्तियाँ / भूल गयीं दीवारें हस्तियाँ आदि पंक्तियाँ pathakको आत्म अनुभूत प्रतीत होती हैं। इन नवगीतों में कहीं भी आभिजात्यता को ओढ़ने या संभ्रांतता को साध्य बताने की कोशिश नहीं है। मधुकर जी को भाषिक टटकापन तलाशकर आरोपित नहीं करना पड़ता। उन्हें सहज-साध्य मुहावरेदार शब्दावली के भाव-प्रवाह में संस्कृतनिष्ठ, देशज, ग्राम्य और उर्दू मिश्रित शब्द अपने आप नर्मदा के सलिला-प्रवाह में उगते-बहते कमल दल और कमल पत्रों की तरह साथ-साथ अपनी जगह बनाकर सुशोभित होते जाते हैं। निर्मम फाँस गड़ी मुँहजोरी / तिरस्कार गढ़ गया अघोरी, जंगली विधान की बपौती / परिचय प्रतिमान कहीं उड़ गये / भकुआई भीड़ है खड़ी, टुटपुंजिया मिन्नतें तमाम / फंदों में झूलें अविराम, चेहरों को बाँचते खड़े / दर्पण खुद टूटने लगे आदि पंक्तियों में दैनंदिन आम जीवन में प्रयुक्त होते शब्दों का सघन संगुफन द्रष्टव्य है। भाषी शुद्धता के आग्रही भले ही इन्हें पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ें किन्तु नवगीत का पाठक इनमें अपने परिवेश को मुखर होता पाकर आनंदित होता है। अंग्रेजी भाषा से शिक्षित शहरी नयी पीढ़ी के लिए इनमें कई शब्द अपरिचित होंगे किन्तु उन्हें  शब्द भण्डार बढ़ाने का सुनहरा अवसर इन गीतों से मिलेगा, आम के आम गुठलियों के दाम...

मधुकर जी इन नवगीतों में सामयिक युगबोधजनित संवेदनाओं, पारिस्थितिक वैषम्य प्रतिबिंबित करती अनुभूतियों, तंत्रजनित विरोधाभासी प्रवृत्तियों तथा सतत ध्वस्त होते मानव-मूल्यों से उत्पन्न तनाव को केंद्र में रखकर अपने चतुर्दिक घटते अशुभ को पहचानकर उद्घाटित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। उनकी इस प्रवृत्ति पर आनंद-मंगल, शुभ, उत्सव, पर्व आदि की अनदेखी और उपेक्षा करने का आरोप लगाया जा सकता है किन्तु इन समसामयिक विद्रूपताओं की उपस्थिति और प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। घर में अपनों के साथ उत्सव मनाकर आनंदमग्न होने के स्थान पर किसी अपरिचित की आँखों के अश्रु पोछने का प्रयास अनुकरणीय ही हो सकता है।

मधुकर जी के इन नवगीतों की विशिष्ट भाषा, अछूता शब्द चयन, मौलिक सोच, यथार्थवादी प्रतीक, अछूता बिम्ब संयोजन, देशज-परिनिष्ठित शब्द प्रयोग, म्हावारों और कहावतों की तरह सरस लच्छेदार शब्दावली, सहज भाव मुद्रा, स्पष्ट वैषम्य चित्रण तथा तटस्थ-निरपेक्ष अभिव्यक्ति उनकी पहचान स्थापित करती है। नवगीत की प्रथम कृति में ही मधुकर जी परिपक्व नवगीतकार की तरह प्रस्तुत हुए हैं। उन्हें विधा के विधान, शिल्प, परिसीमाओं, पहुच, प्रभाव तथा वैशिष्ट्य की पूर्ण जानकारी है। उनकी शब्द-सामर्थ्य, रूपक गढ़न-क्षमता, नवोपमायें खोजन एकी सूक्ष्म दृष्टि, अनुभूत और अनानुभूत दोनों को समान अंतरंगता से अभिव्यक्त कर सकने की कुशलता एनी नवगीतकारों से अलग करती है। अपने प्रथम नवगीत संग्रह से ही वे नवगीत की दोष-अन्वेषणी प्रवृत्ति को पहचान कर उसका उपयोग लोक-हित के लिए करने के प्रति सचेष्ट प्रतीत होते हैं।

मधुकर जी muktikगजल (muktikamuktikaमुक्तिका) तथा लोकभाषा में काव्य रचना में निपुण हैं। स्वाभाविक है कि गजलgazal में मतला (आरम्भिका) लेखन का अभ्यास उनके नवगीतों में मुखड़ों तथा अंतरों को अधिकतर द्विपंक्तीय रखने के रूप में द्रष्टव्य है। अंतरों की पंक्तियाँ लम्बी होने पर उन्हें चार चरणों में विभक्त किया गया है। अंतरांत में स्थाई या टेक के रूप में कहीं-कहीं २-२ पंक्तियाँ का प्रयोग किया गया है।

मधुकर जी की कहाँ की बानगी के तौर पर एक नवगीत देखें:

पत्थर पर खींचते लकीरें
बीत रहे दिन धीरे-धीरे

चेहरे पर चेहरे, शंकाओं की बातें
शीतल सन्दर्भों में दहक रही रातें
धारदार पल अंतर चीरें

आँखों में तैरतीं अजनबी कुंठायें
नंगे तारों पर फिर जिंदगी बिठायें
अधरों पर अनगूंजी पीरें

बार-बार सूरज की लेकर कुर्बानी
सुधियों की डोर कटी, डूबी नादानी
स्याह हैं चमकती तस्वीरें

एक सौ एक नवगीतों की यह माला रस वैविध्य की दृष्टि से निराश करती है। मधुकर जी लिखते हैं: ‘ इंद्रढनुष में सातों सरगम लहरायें / लहरों पर गंध तिरे पाले छितरायें’ (चुभो न जहरीले डंक) किन्तु संग्रह के अधिकाँश नवगीत डंक दंशित प्रतीत होते हैं। मधुकर जी के साथ इस नवगीत कुञ्ज में विचरते समय कलियों-कुसुमों के पराग की अभिलाषा दुराशा सिद्ध होने पर भी गुलाब से लेकर नागफनी और बबूलों के शूलों की चुभन की प्रतीति और उस चुभन से मुक्त होकर फूलों की कोमलता का स्पर्श पाने की अनकही चाह pathak को बांधे रखती है। नवगीत की यथार्थवादी भावधारा का प्रतिनिधित्व करति यह कृति पठनीय होने के साथ-साथ विचारणीय भी है।

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kruti charcha: galiyare gandh ke - संजीव

कृति चर्चा: 
गलियारे गंध के: प्रणयपरक नवगीत नर्मदा  
चर्चाकार: आचार्य  संजीव 
[कृति विवरण: गलियारे गंध के, नवगीत संग्रहडॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, दोरंगी, १९९८, पृष्ठ ८४, नवगीत ६५, ७०/-, कलरव प्रकाशन, १२४७/८६ शांति नगर, त्रि नगर दिल्ली ११००३५] 

हिंदी गीतिकाव्य को छायावाद के वायवी भाव जगत से ठोस यथार्थ की धरती पर ले जाने के लिये नयी कविता ने अंतर्विरोध, वैषम्यता और विसंगतिजनित विडम्बनाओंसे जनाक्रोश को उभाड़ने के लिये शोषण तथा दीनता का अतिरेकी चित्रण चित्रण किया किन्तु काव्यात्मक स्तरहीनता तथा नीरसता के कारण वह वर्ग विशेष तक सीमित रह गया। परम्परागत गीतिकाव्य तथा छन्दहीन कविता के एकांगी सृजन से उपजे शून्य को सरसता, गेयता, लयात्मकता, भावप्रवणता, फैंटेसीपरक बिम्ब संयोजन तथा हृदग्राही रूपकों से भरने में नवगीत सफल हुआ। नवगीत की सृजन धारा में पारंपरिक छान्दसिक लयबद्धता तथा यथार्थवादी छन्दहीन कविता के दो किनारों के मध्य आम आदमी के संकल्पों, आशाओं, अपेक्षाओं, सपनों, संघर्षों, आशा-निराशा और उपलब्धियों की सलिल-तरंगें जैसे-जैसे प्रवाहित होती गयीं, नवगीत का कलकल निनाद जन-मन को रसानंदित करने में सफल होता गया। 

नवगीत के अंकुर की जड़ें ज़मने पर उसका पल्लवित, पुष्पित और फलित होना स्वाभाविक है। डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ के प्रणयपरक नवगीतों का संग्रह ‘गलियारे गंध के’ सुवासित नवगीत पुष्पों की ऐसी अंजुरी है जो काव्य रसिकों को मोगरे की भीनी-भीनी सुरभि की तरह मुग्ध और आनंदित करती है, जिसे बार-बार पाने और पीने का मन करता है। इन नवगीतों में एक ओर परिपक्व-उत्कृष्ट कव्यशास्त्रीयता अन्तर्निहित है तो दूसरी ओर नितांत वैयक्तिक प्रणयाभिव्यक्ति में सामाजिक अनुभूतियों की गंगो-जमुनी छवि और छटा काय-छाया की तरह दृष्टव्य है। श्रेष्ठ भाव सम्प्रेषण, उत्तम काव्यत्व, सरस लयात्मकता, छान्दसिक नैपुण्य तथा  भाषिक प्रांजलता के पंचतत्व इस संग्रह को पढ़ने ही नहीं इसके गीतों को गुनगुनाने के निकष पर भी खरा सिद्ध करते हैं:

तन की पोथी पर महाकाव्य
तुम भी बाँचो
मैं भी बाँचूं
शब्दों का अर्थ न करें वरण
यह लिपि का कैसा धुंधलापन
आदिम गंधों से भरी पवन
हृत चेतन करती मन कानन
यह सृजन तन्त्र
यह संविधान
तुम भी जांचो
मैं भी जाँचूं

‘संविधान’ शब्द का यह प्रयोग चौंकाने के साथ-साथ डॉ. यायावर की नव दृष्टिपरक भाषिक सामर्थ्य का भी परिचायक है।

ये नवगीत प्रमाणित करते हैं कि अभिव्यक्ति में उक्ति-वैचित्र्य, जीवंत बिम्ब-प्रेक्षण तथा प्रतीकों का अभिनव रूपायन डॉ, यायावर का वैशिष्ट्य है। ये नवगीत pathak को चाक्षुस तथ मानसिक दोनों धरातलों पर रसानन्दित करने में समर्थ हैं:

हर बार समय लिख देता है
मस्तक पर
अग्नि परीक्षा क्यों?
क्यों अधरों पर लिख दिया ‘तृषा’
इस प्राण-पटल पर ‘आकर्षण’
मोती के भाग्य लिखा ‘बिंधना’
सीपी को सौंपा ‘खालीपन’
मेघों को तड़प-तड़प गलना
चातक को
विकल प्रतीक्षा क्यों? 

दिनोंदिन अधिकाधिक निर्मम होते परिवेश, मूल्यों का लाक्षागृह बनता समाज, चतुर्दिक पीड़ा के तांडव नर्तन से उपजी असंतुष्टि, सार्वजनिक जीवन में उमडत मिथ्या का तूफ़ान, तंत्र में दम तोड़ते सत्य की निरीहता, पुरस्कृत होने के लोभ में अस्मिता नीलाम करती कलमें, स्वानुशासन को कापुरुषता मनाने की प्रवृत्ति, अनाचार को घटते देखके अनदेखा करने की कायरता आदि से उपजा आक्रोश व घृणा सर्वस्व को नष्ट करने को औचित्यपूर्ण बताये- यह दृष्टि और राह यायावर को मान्य नहीं है। वे तमाम विसंगतियों, विद्रूपताओं और विषमताओं के बाद भी तिमिर पर उजास की जयजयकार देख सकने की सामर्थ्य रखते हैं:

निर्मम पैसों से कुचले जाते हों
जब भोले दिवास्वप्न
हम-तुम मिलकर
कैसे कोई इतिहास लिखें?
जब रिश्ते ही संत्रास लिखें
हम-तुम
अपना अनुबंध लिखें
ये अधर गीत-गोविंद लिखें

मन का ययाति न अतृप्त रहे
प्रतिबंध-गंध परिसुप्त रहे
तन भोजपत्र बन जाए अमर
लिख जाए तरल गीतों के स्वर
चिर मिलन कामना
तृप्त बनें 
ये अधर गीत-गोविंद लिखें

शब्दों को मूलार्थ के साथ-साथ लाक्षणिक अर्थ में प्रयोग करने में यायावर जी सिद्धहस्त हैं। अर्जुन, शकुंतला, ययाति, तथागत, सुजाता, पुरुरवा, राधा-माधव, रति-अनंग, अहल्या, मीरा, श्याम, सुकरात, वृन्दावन, पनघट, वंशीवट, गगरी, यमुना तट, गोकुल, कण्वाश्रम, खाजिराहो, होरी, गोदान, लक्ष्मण रेखा, क्रौंच मिथुन, मृग मरीचिका, सागर मंथन आदि शब्दों लाक्षणिक प्रयोग नवगीतों को भावार्थ की दृष्टि से संपन्न बना सका है। ऐसे प्रयोग नवगीतों के चटव में चार चाँद लगाते हैं।

डॉ. यायावर ने नवगीतों को शिकायत पुस्तिका बनाने के स्थान पर लालित्यमय रस-कोष बनाया है। महारास, आलिंगन, परिरम्भण, चुम्बन, मिथुन, पीयूष कलश, मदिराघट, तृषा, तृप्ति, प्रणय पूजा, कामना, वर्जना, समर्पण, प्रणय पिपासा, प्राण यजन, देह धर्म, रस समाधि, वर्जित फल. आदिम युग जैसे शब्द इन नवगीतों में पूर्ण अस्मिता और अर्थवत्ता के साथ प्रतिष्ठित ही नहीं हैं अपितु नवगीतों में प्राण भी फूँक सके हैं। इन नवगीतों को भाषिक सांस्कारिकता अद्भुत है:

सरिता का तट वह मुक्त-पवन
संग्रथित उँगलियाँ भुज-बंधन
तुलसी-दल जैसे अधर
वक्ष पर लिखें प्रणय
जब देह-धर्म के साथ
हुआ जग पूर्ण विलय
रस की समाधि में विस्मृत क्षण
अनियंत्रित पल

डॉ. यायावर युगीन विसंगतियों की अनदेखी नहीं करते किन्तु उन्हें उद्घाटित करने के लिये नागफनी का फसल नहीं उअगते, गुलाबों की क्यारी सजाते हैं:

पतझर से जीते बार-बार 
हारे मन के मधुमासों से
संदेहों की चौखट पर
हम फिर ठगे गये विश्वासों से

‘कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और’ की तरह नवगीतकारों में डॉ. यायावर का किसी बात की कहने का अपना अलग अंदाज़ है। नवगीत की भाषा और अभिव्यक्ति का तरीका ही नवगीतकार की पहचान स्थापित करती है। नवगीत रचना में लालित्य, चारुत्व, सौष्ठव, तथा कोमलता ही उसे नयी कविता से पृथक करती है। नयी कविता से प्रभावित नवगीतकारों में शैल्पिक भिन्नता तो होती है किन्तु कथ्य नयी कविता से सादृश्य रखने के कारण उनकी अभिव्यक्ति में भाषिक सौष्ठव की श्रेष्ठता कम ही मिलाती है किन्तु डॉ. यायावर नवगीतों में भाषा में प्राण फूँकते दिखते हैं। उन्होंने गीत विधा में ही डी. लिट्. उपाधि प्राप्त की है। स्वाभाविक है की वे गीत रचना के तत्वों, विधान, प्रक्रिया तथा प्रभावों पर पूर्ण अधिकार रखें।

डॉ. यायावर के ये प्रणयपरक नवगीत प्रकृति से एकाकारित प्रतीत होते हैं। इस गीतों में पवन, लहर, ज्वार, सिन्धु, सागर, यमुना तट, प्रभंजन, शंख, सीप, घोंघे, मोती, सरिता, मीन, चाँद, चाँदनी, नील गगन, धरा, गृह, सूर्य, नक्षत्र, नभ गंगा, प्रभाकर, समीर, मरुस्थल, कूप आदि के साथ मधुवन, चन्दन वन, महुआ वन, कुञ्ज, मौलश्री, बरगद, नीम, नागफनी, बेला, कचनार, कल्प वृक्ष, वंशी वट, बबूल, बांस, कांस, पीपल, तुलसी, गुलमोहर, हरसिंगार, सोनजुही, शतदल, गुलाब, अमलतास, मेंहदी, माधवी, शेफाली, पलाश, पल्लव, आम, कदंब ही नहीं कस्तूरी मृग, कामधेनु, शृगाल, मर्कट, सर्प, नाग, हिरण, विहाग, कपोत, चकवा, चकवी, चिड़िया, पाखी, तोता, मैना, मोर, कोयल, गौरैया, सारस. खंजन, कागा, हीरामन, तितलियाँ, मधुप और पखावज, मृदंग, वीणा, ढोल, बीन, बांसुरी, वंशी, शहनाई और इकतारा भी हैं। उत्सवधर्मी भारतीय जन मानस की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए इनसे बेहतर अन्य शब्द नहीं हो सकते।
इस नवगीत संग्रह का वैशिष्ट्य हन्दी के शुद्ध-सहज रूप का व्यवहार करना है। पूरें संग्रह मेंकहीं भी अनावश्यक हिंदीतर शब्द का प्रयोग नहीं है। परिनिष्ठित हिंदी में रचित हर नवगीत मन-वीणा को झंकृत कर आन्नद मग्न करता है। छंदानुशासन में कसे-सजे-संवरे ये नवगीत नव्ये नवगीतकारों के लिये पठनीय हे इन्हीं अनुकरणीय भी हैं। इस नवगीतों को  काव्य-दोषों से मुक्त रखने के प्रति यायावर जी सजग रहे हैं। एक नवगीत के छंद विधान और मात्रा संतुलन का आनंद लें:

हो गयीं                             ५     
दिशायें मौन                          ८
कहा संकेतों ने                       ११
घेरा पूरा वट वृक्ष भयानक प्रेतों ने       २४ 
बढ़ गयी                             ५
अबोधित एक भीड़                     ११
मर्कट के                             ६
हाथों बया-नीड़                        १०
स्वप्नों को दी आवाज़ किन्हीं अनिकेतों ने  २४
यह अंतर्ज्योति                         ९
न हो मलीन                           ७
सूखे तट पर                           ८
आ गयी मीन                          ८
संकेत दिया है घातक के अभिप्रेतों ने      २४

‘गलियारे गंध के’ नवगीतो का एक विशिष्ट संग्रह है जिसके सही गीत प्रणय परकता से सराबोर होने पर भी शील तथा श्लील से युक्त स्वानुशासित हैं। इन नवगीतों की प्रांजल भाषा लालित्य तथा चारूत्व से मन मोहती है। यह कृति गीतानंद मात्र नहीं देती अपितु भाषा संस्कारित करने में भी समर्थ है।


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