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सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

अक्टूबर १३, सॉनेट, नयन, राजस्थानी, भाषा-गीत, मुक्तक, ग़ज़ल, गीत, वृन्दावन, हिंदी, अनन्वय अलंकार

 सलिल सृजन अक्टूबर १३

सॉनेट
नयन
नयन खुले जग जन्म हुआ झट
नयन खोजते नयन दोपहर
नयन सजाए स्वप्न साँझ हर
नयन विदाई मुँदे नयन पट
नयन मिले तो पूछा परिचय
नयन झुके लज बात बन गई
नयन उठे सँग सपने कई कई
नयन नयन में बसे मिटा भय
नयन आईना देखें सँवरे
नयन आई ना कह अकुलाए
नयन नयन को भुज में भरे
नय न नयन तज, सकुँचे-सिहरे
नयन वर्जना सुनें न बहरे
नयन न रोके रुके न ठहरे
१३•१०•२०२२
●●●
राजस्थानी मुक्तिका
*
आसमान में अटक्या सूरज
गेला भूला भटक्या सूरज
संसद भीतर बैठ कागलो
काँव-काँव सुन थकग्या सूरज
कोरोना ने रस्ता छेंका
बदरी पीछे छिपग्या सूरज
भरी दफेरी बैठ हाँफ़ र् यो
बिना मजूरी चुकग्या सूरज
धूली चंदण नै चपकेगी
भेळा करता भटक्या सूरज
चादर सीतां सीतां थाका
लून-तेल में फँसग्या सूरज
साँची-साँची कहें सलिल जी
नेता बण ग्यो ठग र् या सूरज
१३-१०-२०२०
***
मुक्तक
*
वन्दना प्रार्थना साधना अर्चना
हिंद-हिंदी की करिये, रहे सर तना
विश्व-भाषा बने भारती हम 'सलिल'
पा सकें हर्ष-आनंद नित नव घना
*
चाँद हो साथ में चाँदनी रात हो
चुप अधर, नैन की नैन से बात हो
पानी-पानी हुई प्यास पल में 'सलिल'
प्यार को प्यार की प्यार सौगात हो
*
चाँद को जोड़कर कर मनाती रही
है हक़ीक़त सजन को बुलाती रही
पी रही है 'सलिल' हाथ से किंतु वह
प्यास अपलक नयन की बुझाती रही
*
चाँद भी शरमा रहा चाँदनी के सामने
झुक गया है सिर हमारा सादगी के सामने
दूर रहते किस तरह?, बस में न था मन मान लो
आ गया है जल पिलाने ज़िंदगी के सामने
*
गगन का चाँद बदली में मुझे जब भी नज़र आता
न दिखता चाँद चेहरा ही तेरा तब भी नज़र आता
कभी खुशबू, कभी संगीत, धड़कन में कभी मिलते-
बसे हो प्राण में, मन में यही अब भी नज़र आता
*
मुक्तिका
*
अर्चना कर सत्य की, शिव-साधना सुंदर करें।
जग चलें गिर उठ बढ़ें, आराधना तम हर करें।।
*
कौन किसका है यहाँ?, छाया न देती साथ है।
मोह-माया कम रहे, श्रम-त्याग को सहचर करें।।
*
एक मालिक है वही, जिसने हमें पैदा किया।
मुक्त होकर अहं से, निज चित्त प्रभु-चाकर करें।।
*
वरे अक्षर निरक्षर, तब शब्द कविता से मिले।
भाव-रस-लय त्रिवेणी, अवगाह चित अनुचर करें।।
*
पूर्णिमा की चंद्र-छवि, निर्मल 'सलिल में निरखकर।
कुछ रचें; कुछ सुन-सुना, निज आत्म को मधुकर करें।।
करवा चौथ २७-१०-२०१८
***
नवगीत:
हार गया
लहरों का शोर
जीत रहा
बाँहों का जोर
तांडव कर
सागर है शांत
तूफां ज्यों
यौवन उद्भ्रांत
कोशिश यह
बदलावों की
दिशाहीन
बहसें मुँहजोर
छोड़ गया
नाशों का दंश
असुरों का
बाकी है वंश
मनुजों में
सुर का है अंश
जाग उठो
फिर लाओ भोर
पीड़ा से
कर लो पहचान
फिर पालो
मन में अरमान
फूँक दो
निराशा में जान
साथ चलो
फिर उगाओ भोर
***
मुक्तिका
*
ख़त ही न रहे, किस तरह पैगाम हम करें
आगाज़ ही नहीं किया, अंजाम हम करें
*
यकीन पर यकीन नहीं, रह गया 'सलिल'
बेहतर है बिन यकीन ही कुछ काम हम करें.
*
गुमनाम हों, बदनाम हों तो हर्ज़ कुछ नहीं
कुछ ना करें से बेहतर है काम हम करें.
*
हो दोस्ती या दुश्मनी, कुछ तो कभी तो हो
जो कुछ न हो तो, क्यों न राम-राम हम करें
*
मिल लें गले, भले ही ईद हो या दिवाली
बस हेलो-हाय का न ताम-झाम हम करे
*
क्यों ख़ास की तलाश करे कल्पना कहो
जो हमसफ़र हो साथ उसे आम हम करें
***
हिंदी ग़ज़ल -
बहर --- २२-२२ २२-२२ २२२१ १२२२
*
है वह ही सारी दुनिया में, किसको गैर कहूँ बोलो?
औरों के क्यों दोष दिखाऊँ?, मन बोले 'खुद को तोलो'
*
​खोया-पाया, पाया-खोया, कर्म-कथानक अपना है
क्यों चंदा के दाग दिखाते?, मन के दाग प्रथम धो लो
*
जो बोया है काटोगे भी, चाहो या मत चाहो रे!
तम में, गम में, सम जी पाओ, पीड़ा में कुछ सुख घोलो
*
जो होना है वह होगा ही, जग को सत्य नहीं भाता
छोडो भी दुनिया की चिंता, गाँठें निज मन की खोलो
*
राजभवन-शमशान न देखो, पल-पल याद करो उसको
आग लगे बस्ती में चाहे, तुम हो मगन 'सलिल' डोलो
***
***
भाषा-गीत
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरी होती है हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें विधि जगवाणी की
संस्कृत-पुत्री को अपना गलहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
अवधी, असमी, कन्नड़, गढ़वाली, गुजराती
बुन्देली, बांगला, मराठी, बृज मुस्काती
छतीसगढ़ी, तेलुगू, भोजपुरी, मलयालम
तमिल, डोगरी, राजस्थानी, उर्दू भाती
उड़िया, सिंधी, पंजाबी गलहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
देश, विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
***
दोहा सलिला
सुधियों के संसार में, है शताब्दि क्षण मात्र
श्वास-श्वास हो शोभना, आस सुधीर सुपात्र
*
मृदुला भाषा-काव्य की, धारा, बहे अबाध
'सलिल' साधना कर सतत, हो प्रधान हर साध
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्वमय देह
ईश्वर का उपहार है, पूजा करें सनेह
*
हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल
'सलिल'संस्कृत सान दे,पुड़ी बने कमाल
*
जन्म ब्याह राखी तिलक,गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दे 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
*
बिन अपनों के हो सलिल', पल-पल समय पहाड़
जेठ-दुपहरी मिले ज्यों, बिन पाती का झाड़
*
विरह-व्यथा को कहें तो, कौन सका है नाप?
जैसे बरखा का सलिल, या गर्मी का ताप
*
कंधे हों मजबूत तो, कहें आप 'आ भार'
उठा सकें जब बोझ तो, हम बोलें 'आभार'
*
कविता करना यज्ञ है, पढ़ना रेवा-स्नान
सुनना कथा-प्रसाद है, गुनना प्रभु का ध्यान
*
कांता-सम्मति मानिए, हो घर में सुख-चैन
अधरों पर मुस्कान संग, गुंजित मीठे बैन
***
मुक्तक
वन्दना प्रार्थना साधना अर्चना
हिंद-हिंदी की करिये, रहे सर तना
विश्व-भाषा बने भारती हम 'सलिल'
पा सकें हर्ष-आनंद नित नव घना
*
नवगीत:
हार गया
लहरों का शोर
जीत रहा
बाँहों का जोर
तांडव कर
सागर है शांत
तूफां ज्यों
यौवन उद्भ्रांत
कोशिश यह
बदलावों की
दिशाहीन
बहसें मुँहजोर
छोड़ गया
नाशों का दंश
असुरों का
बाकी है वंश
मनुजों में
सुर का है अंश
जाग उठो
फिर लाओ भोर
पीड़ा से
कर लो पहचान
फिर पालो
मन में अरमान
फूँक दो
निराशा में जान
साथ चलो
फिर उगाओ भोर
***
एक रचना: मन-वृन्दावन
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
किस पग-रज की दिव्य स्वामिनी का मन-आँगन राज सखे!
*
कलरव करता पंछी-पंछी दिव्य रूप का गान करे.
किसकी रूपाभा दीपित नभ पर संध्या अभिमान करे?
किसका मृदुल हास दस दिश में गुंजित ज्यों वीणा के तार?
किसके नूपुर-कंकण ध्वनि में गुंजित हैं संतूर-सितार?
किसके शिथिल गात पर पंखा झलता बृज का ताज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
*
किसकी केशराशि श्यामाभित, नर्तन कर मन मोह रही?
किसके मुखमंडल पर लज्जा-लहर जमुन सी सोह रही?
कौन करील-कुञ्ज की शोभा, किससे शोभित कली-कली?
किस पर पट-पीताम्बरधारी, मोहित फिरता गली-गली?
किसके नयन बाणकान्हा पर गिरते बनकर गाज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
*
किसकी दाड़िम पंक्ति मनोहर मावस को पूनम करती?
किसके कोमल कंठ-कपोलों पर ऊषा नर्तन करती?
किसकी श्वेताभा-श्यामाभित, किससे श्वेताभित घनश्याम?
किसके बोल वेणु-ध्वनि जैसे, करपल्लव-कोमल अभिराम?
किस पर कौन हुआ बलिहारी, कैसे, कब-किस व्याज सखे?
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
*
किसने नीरव को रव देकर, भव को वैभव दिया अनूप?
किसकी रूप-राशि से रूपित भवसागर का कण-कण भूप?
किससे प्रगट, लीन किसमें हो, हर आकार-प्रकार, विचार?
किसने किसकी करी कल्पना, कर साकार, अवाक निहार?
किसमें कर्ता-कारण प्रगटे, लीन क्रिया सब काज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
१३-१०-२०१७
***
दोहा
सुधियों के संसार में, है शताब्दि क्षण मात्र
श्वास-श्वास हो शोभना, आस सुधीर सुपात्र
*
मृदुला भाषा-काव्य की, धारा, बहे अबाध
'सलिल' साधना कर सतत, हो प्रधान हर साध
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्वमय देह
ईश्वर का उपहार है, पूजा करें सनेह
*
हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल
'सलिल'संस्कृत सान दे,पुड़ी बने कमाल
*
जन्म ब्याह राखी तिलक,गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दे 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
१३-१०-२०१६
***
अलंकार सलिला
: २१ : अनन्वय अलंकार
बने आप उपमेय ही, जब खुद का उपमान
'सलिल' अनन्वय है वहाँ, पल भर में ले जान
*
किसी काव्य प्रसंग में उपमेय स्वयं ही उपमान हो तथा पृथक उपमान का अभाव हो तो अनन्वय अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. लही न कतहुँ हार हिय मानी। इन सम ये उपमा उर जानी।।
२. हियौ हरति औ' करति अति, चिंतामनि चित चैन।
वा सुंदरी के मैं लखे, वाही के से नैन ।।
३. अपनी मिसाल आप हो, तुम सी तुम्हीं प्रिये!
उपमान कैसे दे 'सलिल', जूठे सभी हुए।।
४. ये नेता हैं नेता जैसे, चोर-उचक्के इनसे बेहतर।
५. नदी नदी सम कहाँ रह गयी?, शेष ढूह है रेत के
जहाँ-तहाँ डबरों में पानी, नदी हो गयी खेत रे!
*
कार्यशाला
पहचानिए अलंकार :
जाने बहार हुस्न तेरा बेमिसाल है
( गायक मो. रफ़ी, गीतकार शकील बदायूनी, संगीतकार रवि, चलचित्र प्यार किया तो डरना क्या, वर्ष १९६३)
पास बैठो तबियत बहल जाएगी
मौत भी आ गयी हो तो टल जाएगी
( गायक मो. रफ़ी, गीतकार इंदीवर, संगीतकार , चलचित्र पुनर्मिलन)
तोरा मन दरपन कहलाये
नहले-बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाये
( गायक आशा भोंसले, गीतकार , संगीतकार रवि, चलचित्र काजल १९६५)
****
एक रचना
*
जय हिंदी जगवाणी!
जय मैया भारती!!
*
क्षर जग को दे अक्षर
बहा शब्द के निर्झर
रस जल, गति-यति लहरें
भाव-बिंब बह-ठहरें
रूपक-उपमा ललाम
यमक-श्लेष कर प्रणाम
अनुप्रासिक छवि देखें
वक्र-उक्ति अवरेखें
शब्द-शक्ति ज्योत बाल
नित करती आरती
जय हिंदी जगवाणी!
जय मैया भारती!!
*
हास्य करुण शांत वीर
वत्सल श्रृंगार नीर
अद्भुत वीभत्स रौद्र
जन-मन की हरें पीर
गोहा, चौपाई, गीत
अमिधा-लक्षणा प्रीत
व्यंजना उकेर चित्र
छंदों की बने मित्र
लघु-गुरु, गण, गुण तुम पर
शारद माँ वारती
*
लेख, कथा, उपन्यास,
व्यंग्य कहे मिटे त्रास
क्रिया संज्ञा सर्वनाम
कर अनाम को प्रणाम
कह रहे कहावतें
रच रुचिर मुहावरे
अद्भुत सामर्थ्यवान
दिग्दिगंत करे गान
स्नेह-'सलिल' गंग बहा
दे सुज्ञान तारती
जबलपुर बैठकी १३.१०.२०१५
***
नवगीत:
हार गया
लहरों का शोर
जीत रहा
बाँहों का जोर
तांडव कर
सागर है शांत
तूफां ज्यों
यौवन उद्भ्रांत
कोशिश यह
बदलावों की
दिशाहीन
बहसें मुँहजोर
छोड़ गया
नाशों का दंश
असुरों का
बाकी है वंश
मनुजों में
सुर का है अंश
जाग उठो
फिर लाओ भोर
पीड़ा से
कर लो पहचान
फिर पालो
मन में अरमान
फूँक दो
निराशा में जान
साथ चलो
फिर उगाओ भोर
१३.१०-२०१४
***
गीत:
वेदना पर.…
*
वेदना पर चेतना की जीत होगी
जिंदगी तब ही मधुर संगीत होगी…
*
दर्द है सौभाग्य यदि हँस झेल पाओ
पीर है उपहार यदि हँस खेल पाओ
निकष जीवट का कठिन तूफ़ान होता-
है सुअवसर यदि उसे हँस ठेल पाओ
विरह-पल में साथ जब-जब प्रीत होगी
वेदना पर चेतना की जीत होगी
जिंदगी तब ही मधुर संगीत होगी…
*
कशिश कोशिश की कहेगी कथा कोई
हौसला हो हमकदम-हमराज कोई
रति रमकती रात रानी रंग-रसमय
रास थामे रास रचती रीत कोई
रातरानी श्वास का संगीत होगी
वेदना पर चेतना की जीत होगी
जिंदगी तब ही मधुर संगीत होगी…
*
स्वेद-सीकर से सुवासित संगिनी सम
स्नेह-सलिला नर्मदा सद्भाव संगम
सियाही पर सिपाही सम सीध साधे-
सीर-सीता सुयोगित सोपान अनुपम
सभ्यता सुदृढ़ सफल संनीत होगी
वेदना पर चेतना की जीत होगी
जिंदगी तब ही मधुर संगीत होगी…
१३.१०.२०१३
***
रासलीला :
*
रासलीला दिव्य क्रीड़ा परम प्रभु की.
करें-देखें-सुन तरें, आराध्य विभु की.
चक्षु मूँदे जीव देखे ध्यान धरकर.
आत्म में परमात्म लेखे भक्ति वरकर.
जीव हो संजीव प्रभु का दर्श पाए.
लीन लीला में रहे जग को भुलाए.
साधना का साध्य है आराध्य दर्शन.
पूर्ण आशा तभी जब हो कृपा वर्षण.
पुष्प पुष्पा, किरण की सुषमा सुदर्शन.
शांति का राजीव विकसे बिन प्रदर्शन
वासना का राज बहादुर मिटाए.
रहे सत्य सहाय हरि को खोज पाए.
मिले ओम प्रकाश मन हनुमान गाए.
कृष्ण मोहन श्वास भव-बाधा भुलाए.
आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.
रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.
झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.
फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.
कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.
कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.
अधर शतदल पाँखुरी से रस भरे हैं.
नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.
नील आँचल पर टके तारे चमकते.
शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.
खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.
राधिका है साधिका जग को बताते.
कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.
तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.
सिर्फ तू ही तो नहीं मैं भी यहाँ हूँ.
खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.
चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.
करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.
अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.
कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.
भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.
मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.
कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है.
कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?
पग युगल द्वय कब धरा पर?, कब अधर में?
कौन बूझे?, कौन-कब?, किसकी नजर में?
कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?
कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?
क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?
क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?
कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाए.
सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाए.
जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.
कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?
ताल में बेताल का कब विलय होता?
नाद में निनाद मिल कब मलय होता?
थाप में आलाप कब देता सुनाई?
हर किसी में आप वह देता दिखाई?
अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?
कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?
कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?
कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?
कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?
कब नयन में बस नयन नयना निरखते?
कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?
नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.
भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.
कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?
द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?
कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?
कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?
कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?
अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.
अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.
नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.
गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.
आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.
साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.
अंत में अनंत कैसे आ समाया?
दिक् दिगादि दिगंत जैसे एक पाया.
कंकरों में शंकरों का वास देखा.
जमुन रज में आज बृज ने हास देखा.
मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.
नटी नट में, नट नटी में रास देखा.
रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.
रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.
रास जिसमें आम भी था, खास भी था.
रास जिसमें लीन खासमखास भी था.
रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.
रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.
रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.
रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.
रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.
रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.
रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.
रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..
रासलीला विहारी खुद नाचते थे.
रासलीला सहचरी को बाँचते थे.
राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचती थीं.
साधिका होकर साध्य को ही बाँचती थीं.
'सलिल' ने निज बिंदु में वह छवि निहारी.
जग जिसे कहता है श्री बांकेबिहारी.
नर्मदा सी वर्मदा सी शर्मदा सी.
स्नेह-सलिला बही ब्रज में धर्मदा सी.
वेणु झूमी, थिरक नाची, स्वर गुँजाए.
अर्धनारीश्वर वहीं साकार पाए.
रहा था जो चित्र गुप्त, न गुप्त अब था.
सुप्त होकर भी न आत्मन् सुप्त अब था.
दिखा आभा ज्योति पावन प्रार्थना सी.
उषा संध्या वंदना मन कामना सी.
मोहिनी थी, मानिनी थी, अर्चना थी.
सृष्टि सृष्टिद की विनत अभ्यर्थना थी.
हास था पल-पल निनादित लास ही था.
जो जहाँ जैसा घटित था, रास ही था.
*******************************
३०-४-२०१०

शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

जून २५, दीप्ति, दोहा गीत, त्रिप्रमाणिका सवैया, सरस्वती, राम, पिता, सॉनेट, अखिलेश, नयन

सलिल सृजन जून २५
*
नयनावली 
नयन न मन की सुन रहे, करें नमन दिन-रैन। 
नयन नयन से मिल हुए, चैन गँवा बेचैन।। 
नयन चार जबसे हुए, भूल गए हैं द्वैत। 
जब तक नैना चार हैं, तब तक प्रिय अद्वैत।। 
नय न नयन को याद अब, नयन अनयन एक। 
नयन न सुनते क्या कहें, अनुभव बुद्धि विवेक।। 
नयन देखकर रूप को, कैसे करें बखान। 
जिव्हा न देखे रूप को, पर करती गुणगान।। 
नयन बोलते अबोले, देख न देखें सत्य। 
भोगें चुप परिणाम पर, आप न करते कृत्य।। 
.
शारद-शक्ति नयन बसें, नयन लक्ष्मी भक्त। 
वाक् अवाक निहारती, किसको कहे सशक्त।। 
नयन डूबकर नयन में, हो जाते भव पार। 
जो नैना डूबन डरे, क्या जाने मझधार।। 
नयन लड़े झुक उठ मिले, करे न युद्ध विराम। 
साथ न होकर साथ हो, बन गुलाम बेदाम।। 
२६.५.२०२५
***
सोनेट
नर्तन
*
नर्तन करते खुद को भूल शिव ले डमरू, विषधर झूम,
सलिल करे अभिषेक, पखारे पद प्रलयंकर के हो धन्य,
नाद अनाहद सुनें उमा माँ बाजे घुँघरू, तिक तिक धूम,
गणपति कार्तिक नंदी मूषक सिंह नाचते दृश्य अनन्य।
शारद वीणा सुने पवन नभ धरा दिशा दिगंत जीवंत,
ग्रह-उपग्रह नक्षत्र सितारे, हुए परिक्रमित रचने सृष्टि,
शंख-नाद हरि करें, रमा की वाणी का माधुर्य अनंत,
मंत्र मुग्ध विधि, सकल सिद्धि दे शारद कहे रखो सम दृष्टि।
वादन-गायन करें कान्ह नटवर, नटराज विलोक प्रसन्न,
राग-ताल ठाणे कर जोड़े, राग-रागिनी जन्म सफल,
रसानंद की छंद कहे जय, गोपी-गोप मुग्ध आसन्न,
चित्र गुप्त अनहद अरु अनुपम, ह्रदय विराजित अचल अटल।
नर्तन परिवर्तन का साक्षी, दर्शन करे सुदर्शन का
दूर विकर्षण पल में कर, नैकट्य रचे आकर्षण का।
२५-६-२०२३
***
मुक्तक
निंगा देव मूल भारत के लिंगायत ले परम विराग
प्रकृति-पुरुष को बोल शिवा-शिव सृष्टि वृद्धि हित वरते राग
सिर पर अमृत, कंठ गरल धर, सलिल धार दे प्यास मिटा,
वृषभ कृषक, सिंह वन्यबंधु, मूषक लघु सबका अमर सुहाग
२५-६-२०२३
***
सॉनेट
अखिलेश
घटघटवासी औघड़दानी
हे अखिलेश! तुम्हारी जय जय।
विषपायी बाबा शमशानी
करो कृपा जिस पर हो निर्भय।
हे कामारि! कलाविद तुमसा
अन्य न कोई हुआ, न होगा।
शशिधर डमरूधर उमेश हे!
भक्त करें वंदन नित यश गा।
अखिल विश्व के भाग्यनियंता
सकल सृष्टि संप्राणित तुमसे।
लेकिन यह भी तो सच ही है
जगतपूज्य हो प्रभु तुम हमसे।
हें ओंकारनाथ! विपदा हर
हर्षित कर, गाए जन हर हर।
२५-६-२०२२
•••
दोहा सलिला
गीता पढ़कर नित पिता, रहे पढ़ाते पाठ
सदानंद कर्त्तव्य से, मिले करो हंस ठाठ
*
विभा-रश्मि जब साथ हो, तब न तिमिर को भूल
भूमि रेणु से जो जुड़े, वह सरला मति फूल
*
पिता शिवानी पूजते, माँ शंकर की भक्त
भोर दुपहरी रीझती, संध्या थी अनुरक्त
*
करते भजन रमेश का, थे न रमा आधीन
शेख मान शहजाद सम, दें आदर बन दीन
*
राहुल और यशोधरा, साथ रहे बन बुद्ध
थे अनुराग-विराग के मूर्त रूप सन्नद्ध
*
प्रतिमा मन में पिता की, शोभित माँ के साथ
जीव हुआ संजीव तब, धर पग में नत माथ
*
श्वास आस माता पिता, हैं श्रद्धा-विश्वास
इंद्र-इंदिरा ले गए, अब है शेष उजास
२५-६-२०२१
****
विमर्श:
कब हुए थे राम?
भारतीय कालगणना के अनुसार सृष्टि निर्मित हुए १ ९६ ०८ ५३ १२१ वर्ष हो चुके हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिक गणना कालांश से पीछे भी जाते है। वे काल गणना ईसा के जन्म से मानते रहे जब देखा कि भारत का इतिहास इससे भी पुराना है, तब इन्होंने AD( anno Domini) ईसा के बाद, BC (Before christ)ईसा पूर्व की कल्पना गढ़ी।
आज से ५५५० वर्ष पूर्व द्वापर युग के अंत में महाभारत युद्ध हुआ था।रामायण त्रेतायुग में हुई थी जिसका काल वर्तमान वैवस्वत मन्वंतर की २८ वीं चतुर्युगी के त्रेतायुग का है। वैदिक गणित/विज्ञान के अनुसार सृष्टि १४ मन्वंतर तक चलती है। प्रत्येक मन्वंतर में ७१ चतुर्युग होते हैं। एक चतुर्युग में ४ युग- सत,त्रेता,द्वापर एवं कलियुग होते है। ७ वाँ मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।
सतयुग १७,२८,००० वर्ष का, त्रेतायुग १२ ९६,००० वर्ष का, द्वापरयुग ८,६४,००० वर्ष एवं कलियुग ४,३२,००० वर्ष का कालखंड है। वर्तमान मे २८ वे चतुर्युग का कलियुग चल रहा है अर्थात् श्रीराम के जन्म होने और हमारे समय के बीच ८,६४,००० वर्ष का द्वापरयुग तथा कलियुग के लगभग ५२०० वर्ष बीत चुके हैं। महान गणितज्ञ एवं ज्योतिष वराहमिहिर जी के अनुसार -
असन्मथासु मुनय: शासति पृथिवी: युधिष्ठिरै नृपतौ:
षड्द्विकपञ्चद्वियुत शककालस्य राज्ञश्च:
युधिष्ठिर के शासनकाल मे सप्तऋषि मघा नक्षत्र में थे। भारतीय ज्योतिष में २७ नक्षत्र होते हैं, सप्तऋषि प्रत्येक नक्षत्र मे १०० वर्ष रहते है`। यह चक्र चलता रहता है। युधिष्ठिर के समय सप्तऋषियों के २७ चक्र, उसके बाद २४, कुल मिलाकर ५१ चक्र अर्थात् ५,१०० वर्ष हो चुके हैं। युधिष्ठिर ने लगभग ३८ वर्ष शासन किया। उसके कुछ समय बाद आरंभ कलियुग के ५१५५ वर्ष बीत चुके हैं।
इस प्रकार कलियुग से द्वापरयुग तक ८,६९,१५५ वर्ष।
श्रीराम का जन्म हुआ था त्रेतायुग के अंत में। इस प्रकार कम से कम ९ लाख वर्ष के आसपास श्रीराम और रामायण का काल आता है।
रामायण सुन्दरकांड सर्ग ५, श्लोक १२ मे महर्षि वाल्मीकि जी लिखते हैं-
वारणैश्चै चतुर्दन्तै श्वैताभ्रनिचयोपमे
भूषितं रूचिद्वारं मन्तैश्च मृगपक्षिभि:||
अर्थात् जब हनुमान जी वन में श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाते हैं तब सफेद रंग और ४ दाँतोंवाले हाथी को देखते हैं। ऐसे हाथी के जीवाश्म सन १८७७० मे॔ मिले थे। कार्बन डेटिंग पद्धति से इनकी आयु लगभग १० लाख से ५० लाख के आसपास निकलती है।
वैज्ञानिक भाषा मे इस हाथी को Gomphothere नाम दिया गया। इससे रामायणकालीन घटनाएँ लगभग १० लाख साल के आसपास घटित होने का वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध होता है।
•••
अक्षरस्वामिनी आप इष्ट, ईश्वरी उजालावाही,
ऊपर एकल ऐश्वर्यी ओ!, औसरदाई अंबे।
अ: कर कृपा कविता करवा, छंद सिखा जगदंबे!!
*
सलिल करे अभिषेक धन्य हो, मैया! चरण पखार।
हृदयानंदित बसा मातु छवि, आप पधारें द्वार।।
हंसवाहिनी! स्वर-सरगम दे, कीर्ति-कथा कह पाऊँ।
तार बनूँ वीणा का शारद!, तुम छेड़ो तर जाऊँ।।
निर्मलवसने! मीनाक्षी हे! पद्माननी दयाकर।
ममतामयी! मृदुल अनुकंपा कर सुत को अपनाकर।।
ढाई आखर पोथी पढ़कर भाव साधना साधूँ।
रास-लास आवास हृदय को करें, तुम्हें आराधूँ।।
ध्यान धरूँ नित नयन मूँदकर, रूप अरूप निहारूँ।
सुध-बुध खोकर विश्वमोहिनी अपलक खुद को वारूँ।।
विधि-हरि-हर की कृपा मिले, हर चित्र गुप्त चुप देखूँ।
जो न अन्य को दिखे, वही लख, अक्षर-अक्षर लेखूँ।।
भवसागर तर आ पाए सुत, अहं भूल तव द्वार।
अविचल मति दे मैया मोरी शब्द ब्रह्म-सरकार।।
नमन स्वीकार ले, कृपा कर तार दे।
बिसर अपराध मम, जननि अँकवार ले।।
***
अभिनव प्रयोग-
नवान्वेषित त्रिप्रमाणिका सवैया
*
गणसूत्र - ज र ल ग, ज र ल ग, ज र ल ग।
*
चलो ध्वजा उठा चलें, प्रयाण गीत गा चलें, सभी सुलक्ष्य पा सकें।
कहीं नहीं कमी रहे, विकास की हवा बहे, गरीब सौख्य पा सकें।
नया उगे विहान भी, नया तने वितान भी, न भेद-भाव भा सकें।
उठो! उठो!! न हारना, जहां हमें सुधारना, सुछंद नित्य गा सकें।
***
दोहा सलिला
*
लाक्षणिकता हो प्रबल, सहज व्यंजना साध्य।
गति-यति-लय पच तत्वमय दोहा ही आराध्य।
*
दोहा-सुषमा सहजता, भाषिक सलिल प्रवाह।
पाठक करता वाह हो, श्रोता भरता आह।।
*
भाव बिंब रस भाव दें, दोहा के माधुर्य।
मिथक-प्रतीक सटीक हों, किन हो क्लिष्ट-प्राचुर्य।।
*
२५-६-२०१९
***
विमर्श:
कृष्णा अग्निहोत्री: ९०% पुरुष सामंती धारणा के हैं. आपकी क्या राय है?
*
और स्त्रियाँ? शत प्रतिशत...
विवाह होते ही स्वयं को हरः स्वामिनी मानकर पति के पूरे परिवार को बदलने या बेदखल करने की कोशिश, सफल न होने पर शोषण का आरोप, सम्बन्ध न निभा पाने पर खुद को न सुधार कर शेष सब को दंडित करने की कोशिश. जन्म से मरण तक खुद को पुरुष से मदद पाने का अधिकारी मानेंगी और उसी पर निराधार आरोप भी लगाएँगी. पिता की ममता, भाई का साथ, मित्र का अपनापन, पति का संरक्षण, ससुराल की धन-संपत्ति, बच्चों का लाड़, दामाद का आदर सब स्त्री का प्राप्य है किन्तु यह देनेवाला सामन्ती, शोषक, दुर्जन और न जाने क्या-क्या है. पुरुष प्रधान समाज में एक अकेली स्त्री आकर पति गृह की स्वामिनी हो जाती है जबकि पुरुष अपनी ससुराल में केवल अतिथि ही हो पाता है. यदि स्त्री प्रधान समाज हो तो स्त्री पुरु को जन्म ही न लेने दे या जन्मते ही दफना दे. इसीलिए प्रकृति ने पुरुष का अस्तित्व बचाए रखने के लिए प्राणी जगत में पुरुष को सबल बनाया.
*
डॉ.बिपिन पाण्डेय
बिल्कुल सही कहा आपने सर
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Kanta Roy
मुंह ना खुले तो ही अच्छा है ,नहीं तो यहाँ आप हर दूसरी नारी कृष्णा अग्निहोत्री सी ही पायेंगे, संस्कारों व् अपमान का भय,सामजिक तिरस्कार का भय, घर में वापस कैद कर लिए जाने का भय .........इस भयों के कारण ही परिवार की पसंद पर खरी उतरने वाली आचरण व् रचनाएं लिखने को मजबूर है लेखिकाएं
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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संजीव वर्मा 'सलिल'
नारी अपना तन मन दोनों उघाड़ती जा रही है. पुरुष यह नहीं कर रहा इसे उसकी कमजोरी नहीं माना जाए. एक चका पंचर होने पर भी गाडी घसिटती है, दोनों पंचर हुए तो भगवान ही मालिक है.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल' ने जवाब दिया
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12 जवाब
डॉ. रजनी कांत पांडेय
मै सलिल जी से पूर्णत: सहमत हूँ । तरह-तरह के अपराध का ठीकरा पुरुषो पर फोडने वाली स्त्री बिना पुरुष के चल भी नही पाती है । पुरुष बिना किसी शिकायत के कोल्हू के बैल जैसा दिन-रात चलता रहता है । अपनी खुशियाँ अपनी पत्नी तथा बच्चों के लिए बरबाद कर देता है फिर भी उसका कही नाम नही होता । मेरा मानना है कि स्त्री विमर्श के नाम पर केवल पुरुष को ही दोषी ठहराना उचित नही है ।आज के आधुनिक युग मे पुरुषों से किसी माने मे स्त्रियाँ कम नही है ।
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Kanta Roy
आन्हाक उपस्थिति से मोन प्रसन्न भेल
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Kanta Roy
ई जे हमर ज्येष्ठ छथिन संजीव जी, झगड़ा करैत रहैत छैथ हमेशा लेकिन स्नेह सय ओत प्रोत सेहो रहैत छैथ
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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डॉ. रजनी कांत पांडेय
तुमने कसम खायी, दिल से मुझे मिटाने की ।
तो जिद मेरी भी है, दिल से नही जाने की ।
© डा. रजनी कान्त पान्डेय
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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डॉ. रजनी कांत पांडेय
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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2
Kanta Roy
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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संजीव वर्मा 'सलिल' के तौर पर कमेंट करें
Kiran Shrivastava
Bilkul sahi kaha he.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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Harihar Jha
कहा जाता था दहेज प्रथा से स्त्रियों को सताया जा रहा है। जैसे ही 498A का लाभ स्त्रियों के पक्ष में मिला, बहू ने पति और सास-ससुर पर मुकदमें ठोकने शुरू कर दिये। तो फिर इसका ठीकरा पुरूषों पर मढ़ना कहाँ तक उचित है?
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल'
अब तो लड़के डर के कारण विवाह ही नहीं करना चाहते. लड़कियाँ सास ससुर नहीं चाहती सो लिव इन में जीवन नष्ट कर रही हैं.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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अरुण शर्मा
पूर्णतः सहमत सर जी।
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम
अच्छी व्याख्या है !
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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एक्टिव
संजीव वर्मा 'सलिल'
कृष्णा जी ने पुरुष को लांछित नहीं महिमा-मंडित किया है. तभी वे राजेन्द्र जी की प्रशस्ति करती हैं. एकांगी सोच पुरुष-प्रशंसा के अंशों की अनदेखी कर पुरुष-निंदा के अंश को शीर्षक और नारे बना कर उछलती रहती है जिसका उद्देश्य सस्ती लोकप्रियता और सनसनी मात्र है. सुधरने की आवश्यकता पुरुष और स्त्री दोनों में उपस्थित रुग्ण मानसिकता को है. स्त्री और पुरुष दोनों में उपस्थित विवेक, सामर्थ्य और प्रयास को दिशा चाहिए. सुधरना दोनों को है. प्रकृति, परिवेश, परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढलते हुए सामंजस्य बैठाने की सामर्थ्य चुकने पर अन्यों को आरोपित कर खुद को दोषमुक्त समझना सरल तो है सत्य नहीं.
7 वर्ष7 वर्ष पहले
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दर्शन बेजा़र
सभी विद्वानों के अलग अलग अनुभव अलग अलग टिप्पणियां जो स्वाभाविक भी है
6 वर्ष6 वर्ष पहले
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Pushpa Saxena
स्त्री पुरुष दोनो एक दूसरे के पूरक हैं ।केवल एक के ही बल पर परिवार की रचना नही होती ।आपसी सामंजस्य स्नेह त्याग धैर्य संस्कार अच्छी सोच ही आदर्श परिवार व समाज गठित होता है ।एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप निराधार हैं ।कुंठित सोच है ।हमें उदार द्दष्टिकोण अपनाना चाहिए
***
रचना-प्रति रचना
राकेश खण्डेलवाल-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दिन सप्ताह महीने बीते
घिरे हुए प्रश्नों में जीते
अपने बिम्बों में अब खुद मैं
प्रश्न चिन्ह जैसा दिखता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावों की छलके गागरिया, पर न भरे शब्दों की आँजुर
होता नहीं अधर छूने को सरगम का कोई सुर आतुर
छन्दों की डोली पर आकर बैठ न पाये दुल्हन भाषा
बिलख बिलख कर रह जाती है सपनो की संजीवित आशा
टूटी परवाज़ें संगवा कर
पंखों के अबशेष उठाकर
नील गगन की पगडंडी को
सूनी नजरों से तकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
पीड़ा आकर पंथ पुकारे, जागे नहीं लेखनी सोई
खंडित अभिलाषा कह देती होता वही राम रचि सोई
मंत्रबद्ध संकल्प, शरों से बिंधे शायिका पर बिखरे हैं
नागफ़नी से संबंधों के विषधर तन मन को जकड़े हैं
बुझी हुई हाथों में तीली
और पास की समिधा गीली
उठते हुए धुंए को पीता
मैं अन्दर अन्दर रिसता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
धरना देती रहीं बहारें दरवाजे की चौखट थामे
अंगनाई में वनपुष्पों की गंध सांस का दामन थामे
हर आशीष मिला, तकता है एक अपेक्षा ले नयनों में
ढूँढ़ा करता है हर लम्हा छुपे हुए उत्तर प्रश्नों में
पन्ने बिखरा रहीं हवायें
हुईं खोखली सभी दुआयें
तिनके जैसा, उंगली थामे
बही धार में मैं तिरता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मानस में असमंजस बढ़ता, चित्र सभी हैं धुंधले धुंधले
हीरकनी की परछाईं लेकर शीशे के टुकड़े निकले
जिस पद रज को मेंहदी करके कर ली थी रंगीन हथेली
निमिष मात्र न पलकें गीली करने आई याद अकेली
परिवेशों से कटा हुआ सा
समीकरण से घटा हुआ सा
जिस पथ की मंज़िल न कोई
अब मैं उस पथ पर मिलता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावुकता की आहुतियां दे विश्वासों के दावानल में
धूप उगा करती है सायों के अब लहराते आँचल में
अर्थहीन हो गये दुपहरी, सन्ध्या और चाँदनी रातें
पड़ती नहीं सुनाई होतीं जो अब दिल से दिल की बातें
कभी पुकारा पनिहारी ने
कभी संभाला मनिहारी ने
चूड़ी के टुकडों जैसा मैं
पानी के भावों बिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मन के बंधन कहाँ गीत के शब्दों में हैं बँधने पाये
व्यक्त कहां होती अनुभूति चाहे कोई कितना गाये
डाले हुए स्वयं को भ्रम में कब तक देता रहूँ दिलासा
नीड़ बना, बैठा पनघट पर, लेकिन मन प्यासा का प्यासा
बिखराये कर तिनके तिनके
भावों की माला के मनके
सीपी शंख बिन चुके जिससे
मैं तट की अब वह सिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
***
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित -
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
जैसे हो तुम मन के अंदर
वैसे ही बाहर दिखते हो
बहुत बधाई तुमको भैया!
*
अब न रहा कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान् कहाँ है?
कनककशिपु तो पग-पग पर हैं, पर प्रहलाद न कहीं यहाँ है
शील सती का भंग करें हरि, तो कैसे भगवान हम कहें?
नहीं जलंधर-हरि में अंतर, जन-निंदा में क्यों न वे दहें?
वर देते हैं शिव असुरों को
अभय दान फिर करें सुरों को
आप भवानी-भंग संग रम
प्रेरित करते नारि-नरों को
महाकाल दें दण्ड भयंकर
दया न करते किंचित दैया!
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जन-हित राजकुमार भेजकर, सत्तासीन न करते हैं अब
कौन अहल्या को उद्धारे?, बना निर्भया हँसते हैं सब
नाक आसुरी काट न पाते, लिया कमीशन शीश झुकाते
कमजोरों को मार रहे हैं, उठा गले से अब न लगाते
हर दफ्तर में, हर कुर्सी पर
सोता कुम्भकर्ण जब जागे
थाना हो या हो न्यायालय
सदा भुखमरा रिश्वत माँगे
भोग करें, ले आड़ योग की
पेड़ काटकर छीनें छैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जब तक था वह गगनबिहारी, जग ने हँस आरती उतारी
छलिये को नटनागर कहकर, ठगी गयी निष्ठा बेचारी
मटकी फोड़ी, माखन खाया, रास रचाई, नाच नचाया
चला गया रणछोड़ मोड़ मुख, युगों बाद सन्देश पठाया
कहता प्रेम-पंथ को तज कर
ज्ञान-मार्ग पर चलना बेहतर
कौन कहे पोंगा पंडित से
नहीं महल, हमने चाहा घर
रहें द्वारका में महारानी
हमें चाहिए बाबा-मैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
असत पुज रहा देवालय में, अब न सत्य में है नारायण
नेह नर्मदा मलिन हो रही, राग-द्वेष का कर पारायण
लीलावती-कलावतियों को 'लिव इन' रहना अब मन भाया
कोई बाँह में, कोई चाह में, खुद को ठगती खुद ही माया
कोकशास्त्र केजी में पढ़ती,
नव पीढ़ी के मूल्य नये हैं
खोटे सिक्कों का कब्ज़ा है
खरे हारकर दूर हुए हैं
वैतरणी करने चुनाव की
पार, हुई है साधन गैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
दाँत शेर के कौन गिनेगा?, देश शत्रु से कौन लड़ेगा?
बोधि वृक्ष ले राजकुँवरि को, भेज त्याग-तप मौन वरेगा?
जौहर करना सर न झुकाना, तृण-तिनकों की रोटी खाना
जीत शौर्य से राज्य आप ही, गुरु चरणों में विहँस चढ़ाना
जान जाए पर नीति न छोड़ें
धर्म-मार्ग से कदम न मोड़ें
महिषासुरमर्दिनी देश-हित
अरि-सत्ता कर नष्ट, न छोड़ें
सात जन्म के सम्बन्धों में
रोज न बदलें सजनी-सैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
युद्ध-अपराधी कहा उसे जिसने, सर्वाधिक त्याग किया है
जननायक ने ही जनता की, पीठ में छुरा भोंक दिया है
सत्ता हित सिद्धांत बेचते, जन-हित की करते नीलामी
जिसमें जितनी अधिक खोट है, वह नेता है उतना दामी
साथ रहे सम्पूर्ण क्रांति में
जो वे स्वार्थ साध टकराते
भूले, बंदर रोटी खाता
बिल्ले लड़ते ही रह जाते
डुबा रहे मल्लाह धार में
ले जाकर अपनी ही नैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
कहा गरीबी दूर करेंगे, लेकिन अपनी भरी तिजोरी
धन विदेश में जमा कर दिया, सब नेता हो गए टपोरी
पति पत्नी बच्चों को कुर्सी, बैठा देश लूटते सब मिल
वादों को जुमला कह देते, पद-मद में रहते हैं गाफिल
बिन साहित्य कहें भाषा को
नेता-अफसर उद्धारेंगे
मात-पिता का जीना दूभर
कर जैसे बेटे तारेंगे
पर्व त्याग वैलेंटाइन पर
लुक-छिप चिपकें हाई-हैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
२५-६-२०१६
***
विमर्श :
हिन्दू - मुसलमान और शिक्षा - विज्ञान
गत १५० वर्ष में हुई प्रगति में पश्चिमी देशों अर्थात यहूदी और ईसाइयों की भागीदारी बहुत अधिक है, हिन्दुओं और मुस्लिमों की अपरक्षकृत बहुत कम। इस काल खंड में हिंदू और मुसलमान सत्ता और धर्म के लिए लड़ते-मरते रहे।
इस समय में हुए १०० महान वैज्ञानिकों के नाम लिखें तो हिन्दू और मुसलमान नाम मात्र को ही मिलेंगे।
दुनिया में ६१ इस्लामी देशों की जनसंख्या लगभग १.७५ अरब और उनमें विश्वविद्यालय लगभग ४५० हैं जबकि हिन्दुओं की जनसंख्या लगभग १.५० अरब और विश्वविद्यालय लगभग ४९० हैं। अमेरिका में ३००० से अधिक और जापान में ९०० से अधिक विश्वविद्यालय हैं।
लगभग ४५ % ईसाई युवक तथा ७५ % यहूदी युवक, २०% हिन्दू युवक तथा ३% मुस्लिम युवक उच्च शिक्षा लेते हैं।
दुनिया के २०० प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से ५४ अमेरिका, २४इंग्लेंड, १७ ऑस्ट्रेलिया, १० चीन, १० जापान, १० हॉलॅंड, ९ फ़्राँस, 8 जर्मनी, २ भारत और १ इस्लामी मुल्क में हैं।
अमेरिका का जी.डी.पी १५ ट्रिलियन डॉलर से अधिक है जबकि पूरे इस्लामिक जगत का कुल जी.डी.पी लगभग ३.५ ट्रिलियन डॉलर है और भारत का लगभग१.९ ट्रिलियन डॉलर है।
दुनिया में ३८००० मल्टिनॅशनल कम्पनियाँ हैं जिनमें से ३२००० कम्पनियाँ अमेरिका और युरोप में हैं।
दुनिया के १०,००० बड़े अविष्कारों में से ६१०३ अमेरिका में और ८४१० ईसाइयों या यहूदियों ने किये हैं।
दुनिया के ५० अमीरो में से २० अमेरिका, ५ इंग्लेंड, ३ चीन, २ मक्सिको, ३ भारत और १ अरब मुल्क से हैं।
हम हिन्दू और मुसलमान जनहित, परोपकार या समाज सेवा मे भी ईसाईयों और यहूदियों से पीछे हैं। रेडक्रॉस दुनिया का सब से बड़ा मानवीय संगठन है।
बिल गेट्स ने १० बिलियन डॉलर से बिल- मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की बुनियाद रखी जो कि पूरे विश्व के ८ करोड़ बच्चों की सेहत का ख्याल रखती है।
जबकि हम जानते है कि भारत में कई अरबपति हैं। मुकेश अंबानी अपना घर बनाने में ४००० करोड़ खर्च कर सकते हैं और अरब का अमीर शहज़ादा अपने स्पेशल जहाज पर ५०० मिलियन डॉलर खर्च कर सकते हैं। मगर मानवीय सहायता के लिये दोनों ही आगे नहीं आते।
ओलंपिक खेलों में अमेरिका ही सब से अधिक गोल्ड जीतता है। रूस, चीन, जापान, आदि कई देशों के बाद भारत का नाम अत है और मुस्लिम देश तो लगभग अंत में ही होते हैं। हम अतीत पर थोथा गर्व करते हैं किन्तु व्यवहार से वास्तव में व्यक्तिवादी और स्वार्थी हैं। आपस में लड़ने पर अधिक विश्वास रखते हैं। मानसिक रूप में हम हीनताग्रस्त और विदेशों खासकर पश्चिमी देशों की नकल कर गर्व अनुभव करते हैं। धर्म के नाम पर आपस में लड़ने में हम सबसे आगे हैं।
जरा सोचिये कि हमें किस तरफ अधिक ध्यान देने की जरूरत है, आपस में लड़ने या एक होकर देश और खुद को आगे बढ़ाने की? एक-दूसरे के धर्मस्थान तोड़े की या कल-कारखाने खड़े करने की। स्वर्ग और जन्नत के काल्पनिक स्वप्न देखने की या इस धरती और अपने जीवन को अधिक सुखमय बनाने की?
***
मुक्तक: दीप्ति
*
दीप्ति दुनिया की बढ़े नित, देव! यह वरदान देना,
जब कभी तूफां पठाओ, सिखा देना नाव खेना।
नहीं मोहन भोग की है चाह- लेकिन तृप्ति देना-
उदर अपना भर सकूँ, मेहमान भी पायें चबेना।।
*
दीप्ति निश-दिन हो अधिक से अधिक व्यापक,
लगें बौने हैं सभी दुनिया के मापक।
काव्यधारा रहे बहती, सत्य कहती -
दूर दुर्वासा सरीखे रहें शापक।।
*
दीप्ति चेहरे पर रहे नित नव सृजन की,
छंद में छवि देख पायें सब स्वजन की।
ह्रदय का हो हार हिंदी विश्व वाणी-
पत्रिका प्रेषित चरण में प्रभु! नमन की।।
*
दीप्ति आगत भोर का सन्देश देती,
दीप्ति दिनकर को बढ़ो आदेश देती।
दीप्ति संध्या से कहे दिन को नमन कर-
दीप्ति रजनी को सुला बांहों में लेती।।
*
दीप्ति सपनों से सतत दुनिया सजाती,
दीप्ति पाने ज़िंदगी दीपक जलाती।
दीप्ति पाले मोह किंचित कब किसी से-
दीप्ति भटके पगों को राहें दिखाती।।
*
दीप्ति की पाई विरासत धन्य भारत,
दीप्ति कर बदलाव दे, कर-कर बगावत।
दीप्ति बाँटें स्नेह सबको अथक निश-दिन-
दीप्ति से हो तम पराजित कर अदावत।।
*
दीप्ति की गाथा प्रयासों की कहानी,
दीप्ति से मैत्री नहीं होती जुबानी।।
दीप्ति कब मुहताज होती है समय की =-
दीप्ति का स्पर्श पा खिलती जवानी।।
२५.६.२०१३
***
दोहागीत :
मनुआ बेपरवाह.....
*
मन हुलसित पुलकित बदन, छूले नभ है चाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
*
ठेंगे पर दुनिया सकल,
जो कहना है- बोल.
अपने मन की गाँठ हर,
पंछी बनकर खोल..
गगन नाप ले पवन संग
सपनों में पर तोल.
कमसिन है लेकिन नहीं
संकल्पों में झोल.
आह भरे जग देखकर, या करता हो वाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
*
मौन करे कोशिश सदा,
कभी न पीटे ढोल.
जैसा है वैसा दिखे,
चाहे कोई न खोल..
बात कर रहा है खरी,
ज्ञात शब्द का मोल.
'सलिल'-धर में मीन बन,
चंचल करे किलोल.
कोमल मत समझो इसे, हँस सह ले हर दाह.
झूले पर पेंगें भरे, मनुआ बेपरवाह.....
२५.६.२०११
***
मुक्तिका:
लिखी तकदीर रब ने...
*
लिखी तकदीर रब ने फिर भी हम तदबीर करते हैं.
फलक उसने बनाया है, मगर हम रंग भरते हैं..
न हमको मौत का डर है, न जीने की तनिक चिंता-
न लाते हैं, न ले जाते मगर धन जोड़ मरते हैं..
कमाते हैं करोड़ों पाप कर, खैरात देते दस.
लगाकर भोग तुझको खुद ही खाते और तरते हैं..
कहें नेता- 'करें क्यों पुत्र अपने काम सेना में?
फसल घोटालों-घपलों की उगाते और चरते हैं..
न साधन थे तो फिरते थे बिना कपड़ों के आदम पर-
बहुत साधन मिले तो भी कहो क्यों न्यूड फिरते हैं..
न जीवन को जिया आँखें मिलाकर, सिर झुकाए क्यों?
समय जब आख़िरी आया तो खुद से खुद ही डरते हैं..
'सलिल' ने ज़िंदगी जी है, सदा जिंदादिली से ही.
मिले चट्टान तो थमते, नहीं सूराख करते हैं..
२५-६-२०१०
***


सभी रिएक्शन:11

सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

५ फरवरी, सॉनेट, कुण्डलिया, दोहा, नयन, सोरठा, सरस्वती, शीत, रोहिताश्व, रामा छंद, गीत, महिया, यमक

सलिल सृजन ५ फरवरी
कार्य शल्य
दो कवि एक कुण्डलिया
जन्म दिवस की मंगल कामना। आप शतायु हों और स्वास्थ्य-मस्त रहिए। 

प्रत्यूषा उठ, पूर्व के, खोले बंद किवाड़।
सोते को हर दिन रहा, सूरज प्रहरी ताड़। -राजकुमार महोबिया

सूरज प्रहरी ताड़, कह रहा है उड़ान भर।
पूरे कर अरमान, आसमां झट करले सर।।
राजकुमारों! उठो, खोल श्रम की मंजूषा।
हो जाओ संजीव, जगाती है प्रत्यूषा।। - संजीव
•••
दोहा सलिला

ज्यों का त्यों संजय कहे, करे न निंदा-वाह।
मौन सुने धृतराष्ट्र फिर, मुँह से निकले आह।।
दृष्टिकोण हो रुकावट, तब करिए बदलाव।
हों न निगेटिव, पॉजिटिव बनकर पाएँ वाह।।
किसे प्राथमिकता मिले, किसे रखेंगे बाद।
पहले तय कर लीजिए, समय न कर बर्बाद।।
अग्र वाल पर जो रहे, उसे सराहें आप।
कर न आय का वाह पर, सदा सदय हो आप।।
•••
प्रसंग
हिंदी गजल
है प्रसंग मकबूल, अमर नयन अभियान।
करते सभी कुबूल,आस श्वास की शान।।
रुही हो संजीव, सत-शिव-सुंदर गान।
शब्द-शब्द राजीव, गीत-गजल रस-खान
होकर संत बसंत, बन जाता रहमान।
मिलें कामिनी-कंत, तृप्त करें रस-पान।।
दुर्गा सिंह आसीन, हरे अशिव अभिमान।
नत सिर कह आमीन, हो आकाश समान।।
करते रहें विनोद, सतत सृजन पहचान।
नेह-नर्मदा ओद, जबलपूर की शान।।
किसलय अगर प्रवीण, हो तरुवर गुणवान।
हो आलोक न क्षीण, अंबर भू महमान।।
हो चिर तरुण प्रसंग, मिले कीर्ति यश मान।
नित नव सृजन अभंग, सलिल-धार सम ठान।।
मकबूल = सर्वप्रिय, रुही = आत्मावान,
संजीव = प्राणवान,रहमान = कृपालु,
आमीन = ऐसा ही हो, ओद = पौधे की कलम,
•••
विमर्श
*
किस पौधे में बिना फूल के फल लगते हैं?

वनस्पति विज्ञान के संदर्भ में, परिजात को 'ऐडानसोनिया डिजिटाटा' के नाम से जाना जाता है, तथा इसे एक विशेष श्रेणी में रखा गया है, क्योंकि यह अपने फल या उसके बीज का उत्पादन नहीं करता है, और न ही इसकी शाखा की कलम से एक दूसरा परिजात वृक्ष पुन: उत्पन्न किया जा सकता है। अंजीर ऐसा पेड़ है जिस पर फल आते हैं फूल नहीं। अफ्रीका में विटीशिया नामक वृक्ष में बिना फूल के ही फल लगते हैं।
•••
दो नयन दो सॉनेट दो शैली
१.
नयन अबोले सत्य बोलते
नयन असत्य देख मुँद जाते
नयन मीत पा प्रीत घोलते
नयन निकट प्रिय पा खुल जाते


नयन नयन में रच-बस जाते
नयन नयन में आग लगाते
नयन नयन में धँस-फँस जाते
नयन नयन को नहीं सुहाते


नयन नयन-छवि हृदय बसाते
नयन फेरकर नयन भुलाते
नयन नयन से नयन चुराते
नयन नयन को नयन दिखाते


नयन नयन को जगत दिखाते
नयन नयन सँग रास रचाते
(इंग्लिश शैली)
•••
सॉनेट
नयन
नयन खुले जग जन्म हुआ झट
नयन खोजते नयन दोपहर
नयन सजाए स्वप्न साँझ हर
नयन विदाई मुँदे नयन पट
नयन मिले तो पूछा परिचय
नयन झुके लज बात बन गई
नयन उठे सँग सपने कई कई
नयन नयन में बसे मिटा भय


नयन आईना देखें सँवरे
नयन आई ना कह अकुलाए
नयन नयन को भुज में भरे
नय न नयन तज, सकुँचे-सिहरे
नयन वर्जना सुनें न, बहरे
नयन न रोके रुके, न ठहरे
(इटैलियन शैली)
●●●

सोरठा सलिला
उसे नमन कर मौन, जो अपना मन जीत ले।
छिपा आपमें कौन?, निज मन से यह पूछिए।।
*
जब हो कन्यादान, नारी पाती दो जगत।
भले न हो वर-दान, पा-देती वरदान वह।।
*
उछल छुएँ आकाश, अब बैसाखी छोड़कर।
वे जो रहें हताश, गिर उठ फिर बढ़ते नहीं।।
*
'जो घर में बेकार, सब रद्दी सामान दें।'
गृहणी कहे पुकार, 'फिर आना, बाहर गए'।।
*
भू से नभ पर रोज, चंद्र-कांता कूदती।
हो इसकी कुछ खोज, हिम्मत लाती कहाँ से।।
वचन दोष-
तुम हो मेरे साथ, नेता बोले भीड़ से, ।
रखें हाथ में हाथ, हम यह वादा कर रहे।।
***
सॉनेट
सुरेश पाल वर्मा
*
बहुमुखी प्रतिभा के हैं धनी
मेहनत करें सतत हैं धुनी
मंज़िल से मित्रता है घनी
सपनों की चादर नव बुनी
है सुरेश पर्याय जसाला
मन का मनका मन से फेरा
वर्ण पिरामिड गूँथी माला
शारद मैया को नित टेरा
छंद नए रच; करी साधना
छंद सिखा नव दीप जलाए
प्रसरित पल-पल पुण्य भावना
बालारुण शत शत मुस्काए
गगन छुए तव कीर्ति पताका
तुम सा हुआ न दूजा बाँका
५-२-२०२३
***
शारद वंदन
*
शारद मैया शस्त्र उठाओ,
हंस छोड़ सिंह पर सज आओ...
.
सीमा पर दुश्मन आया है, ले हथियार रहा ललकार।
वीणा पर हो राग भैरवी, भैरव जाग भरें हुंकार।।
रुद्र बने हर सैनिक अपना, चौंसठ योगिनी खप्पर ले।
पिएँ शत्रु का रक्त तृप्त हो, गुँजा जयघोषों से जग दें।।
नव दुर्गे! सैनिक बन जाओ
शारद मैया! शस्त्र उठाओ...
.
एक वार दो को मारे फिर, मरे तीसरा दहशत से।
दुनिया को लड़ मुक्त कराओ, चीनी दनुजों के भय से।।
जाप महामृत्युंजय का कर, हस्त सुमिरनी हाे अविचल।
शंखघोष कर वक्ष चीर दो, भूलुंठित हों अरि के दल।।
रणचंडी दस दिश थर्राओ,
शारद मैया शस्त्र उठाओ...
.
कोरोना दाता यह राक्षस,मानवता का शत्रु बना।
हिमगिरि पर अब शांति-शत्रु संग, शांति-सुतों का समर ठना।।
भरत कनिष्क समुद्रगुप्त दुर्गा राणा लछमीबाई।
चेन्नम्मा ललिता हमीद सेंखों सा शौर्य जगा माई।।
घुस दुश्मन के किले ढहाओ,
शारद मैया! शस्त्र उठाओ...
***
शारद! अमृत रस बरसा दे।
हैं स्वतंत्र अनुभूति करा दे।।
*
मैं-तू में बँट हम करें, तू तू मैं मैं रोज।
सद्भावों की लाश पर, फूट गिद्ध का भोज।।
है पर-तंत्र स्व-तंत्र बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
अमर शहीदों को भूले हम, कर आपस में जंग।
बिस्मिल-भगत-दत्त आहत हैं, दुर्गा भाभी दंग।।
हैं आजाद प्रतीति करा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
प्रजातंत्र में प्रजा पर, हावी होकर तंत्र।
छीन रहा अधिकार नित, भुला फर्ज का मंत्र।।
दीन-हीन को सुखी बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
ज॔गल-पर्वत-सरोवर, पल पल करते नष्ट।
कहते हुआ विकास है, जन प्रतिनिधि हो भ्रष्ट।।
जन गण मन को इष्ट बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
शोक लोक का बढ़ रहा, लोकतंत्र है मूक।
सारमेय दलतंत्र के, रहे लोक पर भूँक।।
दलदल दल का मातु मिटा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
'गण' पर 'गन' का निशाना, साधे सत्ता हाय।
जन भाषा है उपेक्षित, पर-भाषा मन भाय।।
मैया! हिंदी हृदय बसा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
जन की रोटी छिन रही, तन से घटते वस्त्र।
मन आहत है राम का, सीता है संत्रस्त।।
अस्त नवाशा सूर्य उगा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
रोजी-रोटी छीनकर, कोठी तानें सेठ।
अफसर-नेता घूस लें, नित न भर रहा पेट।।
माँ! मँहगाई-टैक्स घटा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
जिए आखिरी आदमी, श्रम का पाए दाम।
ऊषा गाए प्रभाती, संध्या लगे ललाम।।
रात दिखाकर स्वप्न सुला दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
***
कृति चर्चा
'चुनिंदा हिंदी गज़लें' संग्रहणीय संकलन
*
[कृति विवरण : चुनिंदा हिंदी गज़लें, संपादक डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ १८४, मूल्य ५९५/-, प्रकाशक - ज्ञानधारा पब्लिकेशन, २६/५४ गली ११, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली ११००३२]
*
विश्ववाणी हिंदी की काव्य परंपरा लोक भाषाओँ प्राकृत, अपभृंश और संस्कृत से रस ग्रहण करती है। द्विपदिक छंद रचना के विविध रूपों को प्रकृत-अपभृंश साहित्य में सहज ही देखा जा सकता है। संस्कृत श्लोक-परंपरा में भिन्न पदभार और भिन्न तुकांत प्रयोग किए गए हैं तो दोहा, चौपाई, सोरठा आदि में समभारिक-संतुकांती पंक्तियों का प्रयोग किया जाता रहा है। द्विपदिक छंद की समतुकान्तिक एक अतिरिक्त आवृत्ति ने चतुष्पदिक छंद का रूप ग्रहण किया जिसे मुक्तक कहा गया। मुक्तक की तीसरी पंक्ति को भिन्न तुकांत किन्तु समान पदभार के साथ प्रयोग से चारुत्व वृद्धि हुई। भारतीय भाषा साहित्य अरब और फारस गया तो भारतीय लयखण्डों के फारसी रूपान्तरण को 'बह्र' कहा गया। मुक्तक की तीसरी और चौथी पंक्ति की तरह अन्य पंक्तियाँ जोड़कर रची गयी अपेक्षाकृत लंबी काव्य रचनाओं को 'ग़ज़ल' कहा गया। भारत में लोककाव्य में यह प्रयोग होता रहा किन्तु भद्रजगत ने इसकी अनदेखी की। मुग़ल आक्रांताओं के विजयी होकर सत्तासीन होनेपर उनकी अरबी-फारसी भाषाओं और भारतीय सीमंती भाषाओँ का मिश्रण लश्करी, रेख़्ता, उर्दू के रूप में प्रचलित हुआ। लगभग २००० वर्ष पूर्व 'तश्बीब' (लघु प्रणय गीत), 'ग़ज़ाला-चश्म' (मृगनयनी से वार्तालाप) या 'कसीदा' (प्रेयसी प्रशंसा के गीत) के रूप में प्रचलित हुई ग़ज़ल भारत में आने पर सूफ़ी रंगत में रंगने के साथ-साथ, क्रांति के आह्वान-गान और सामाजिक परिवर्तनों की वाहक बन गई। अरबी ग़ज़ल का यह भारतीय रूपांतरण ही हिंदी ग़ज़ल का मूल है।
डॉ. रोहिताश्व अस्थाना हिंदी ग़ज़ल के प्रथम शोधार्थी ही नहीं उसके संवर्धक भी हैं। कबीर, खुसरो, वली औरंगाबादी, ज़फ़र, ग़ालिब, रसा, बिस्मिल, अशफ़ाक़, सामी, नादां, साहिर, अर्श, फैज़, मज़ाज़, जोश, नज़रुल, नूर, फ़िराक, मज़हर, शकील, केशव, अख्तर, कैफ़ी, जिगर, सौदा, तांबा, चकबस्त, दाग़, हाली, इक़बाल, ज़ौक़, क़तील, रंग, अंचल, नईम, फ़ुग़ाँ, फ़ानी, निज़ाम, नज़ीर, राही, बेकल, नीरज, दुष्यंत, विराट, बशीर बद्र, अश्क, साज, शांत, यति, परवीन हक़, प्रसाद, निराला, दिनकर, कुंवर बेचैन, अंबर, अनंत, अंजुम, सलिल, सागर मीरजापुरी, बेदिल, मधुकर, राजेंद्र वर्मा, समीप, हस्ती, आदि सहस्त्राधिक हिंदी ग़ज़लकारों ने हिंदी ग़ज़ल को समृद्ध-संपन्न करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
डॉ. रोहिताश्व अस्थाना ने हिंदी ग़ज़ल को लेकर शोध ग्रन्थ 'हिंदी ग़ज़ल : उद्भव और विकास', व्यक्तिगत ग़ज़ल संग्रह 'बांसुरी विस्मित है', हिंदी ग़ज़ल पंचदशी संकलन श्रृंखला आदि के पश्चात् 'चुनिंदा हिंदी गज़लें' के समापदं का सराहनीय कार्य किया है। इस पठनीय, संग्रहणीय संकलन में ४४ ग़ज़लकारों की ४-४ ग़ज़लें संकलित की गयी हैं। डॉ, अस्थाना के अनुसार "मैं आश्वस्त हूँ कि संकलित कवि अथवा गज़लकार किसी मिथ्याडंबर अथवा अहंकार से मुक्त होकर निस्वार्थ भाव से हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में साधनारत हैं।'' इस संकलन में वर्णमाला क्रमानुसार अजय प्रसून, अनिरुद्ध सिन्हा, अशोक आलोक, अशोक 'अंजुम', अशोक 'मिज़ाज', ओंकार 'गुलशन, उर्मिलेश, किशन स्वरूप, सजल, कृष्ण सुकुमार, कौसर साहिरी, ख़याल खन्ना, गिरिजा मिश्रा, नीरज, विराट, चाँद शेरी, पथिक, वियजय, नलिन, याद राम शर्मा, महर्षि, रोहिताश्व, विकल सकती, निर्मम, श्याम, अंबर, बिस्मिल, विशाल, संजीव 'सलिल', मुहसिन, हस्ती, वहां, प्रजापति, विनम्र, दिनेश रस्तोगी, दिनेश सिंदल, दीपक, राकेश चक्र, विद्यासागर वर्मा, सत्य, भगत, मिलान, अडिग, रऊफ परवेज की सहभागिता है। ग़ज़लकारों के वरिष्ठ और कनिष्ठ दोनों ही हैं। ग़ज़लकारों और ग़ज़लों का चयन करने में रोहिताश्व जी विषय वैविध्य और शिल्प वैविध्य में संतुलन स्थापित कर संकलन की गुणवत्ता बनाए रखने में सफल हैं।
डॉ. अजय प्रसून 'हर कोई अपनी रक्षा को व्याकुल है' कहकर असुरक्षा की जन भावना को सामने लाते हैं। अनिरुद्ध सिन्हा 'दर्द अपना छिपा लिया उसने' कहकर आत्मगोपन की सहज मानवीय प्रवृत्ति का उल्लेख करते हैं। 'सच बयानी धुंआ धुंआ ही सही' - अशोक अंजुम, धीरे-धीरे शोर सन्नाटों में गुम हो जायेगा' - मिज़ाज, अपने कदमों पे खड़े होने के काबिल हो जा - उर्मिलेश, अंधियारे ने सूरज की अगवानी की - किशन स्वरूप, आँसू पीकर व्रत तोड़े हैं - गिरिजा मिश्रा, बढ़ता था रोज जिस्म मगर घाट रही थी उम्र - नीरज, कालिख है कोठरी की लगेगी अवश्य ही - विराट, शहर के हिन्दोस्तां से कुछ अलग / गाँव का हिन्दोस्तां है और हम - महर्षि, राहत के दो दिन दे रब्बा - श्याम, सुविधा से परिणय मत करना -अंबर, रिश्तों की कब्रों पर मिटटी मत डालो - विशाल, छोड़ चलभाष प्रिय! / खत-किताबत करो -संजीव 'सलिल', सच है लहूलुहान अगर झूठ है तो बोल - हस्ती, सर उठाकर न जमीन पर चलिए - वहम, सुख मिथ्या आश्वासन जैसा - विनम्र, रोज ही होता मरण है - राकेश चक्र, एक सागर नदी में रहता है - मिलन, घर में पूजा करो, नमाज पढ़ो - रऊफ परवेज़ आदि हिंदी जगत के सम सामायिक परिवेश की विसंगतियों, विडंबनाओं, अपेक्षाओं, आशंकाओं आदि को पूरी शिद्दत से उद्घाटित करते हैं।
डॉ. अस्थाना ने रचना-चयन करते समय पारंपरिकता पर अधुनातन प्रयोगधर्मिता को वरीयता ठीक ही दी है। इससे संकलन सहज ग्राह्य और विचारणीय बन सका है। हर दिन प्रकाशित हो रहे सामूहिक संकलनों की भीड़ में यह संकलन अपनी पृथक पहचान स्थापित करने में सफल है। आकर्षक आवरण, त्रुटिहीन मुद्रण, स्तरीय रचनाएँ इसे 'सोने में सुहागा' की तरह पाठकों में लोकप्रिय और शोधार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध करेगी।
*
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वॉट्सऐप ९४२५१८३२४४
***
सॉनेट
शीत
पलट शीत फिर फिर है आती।
सखी! चुनावी नेता जैसे।
रँभा रहीं पगुराती भैंसे।।
यह क्यों बे मौसम टर्राती।।
कँपा रही है हाड़-माँस तक।
छुड़ा रही छक्के, छक्का जड़।
खड़ी द्वार पर, बन छक्का अड़।।
जमी जा रही हाय श्वास तक।।
सूरज ओढ़े मेघ रजाई।
उषा नवेली नार सुहाई।
रिसा रही वसुधा महताई।।
पाला से पाला है दैया।
लिपटे-चिपटे सजनी-सैंया।
लल्ला मचले लै लै कैंया।।
५-२-२०२२
•••
गीत
छंद - दोहा
पदभार- २४।
यति - १३-११।
पदांत - लघु गुरु।
*
तू चंदा मैं चाँदनी, तेरी-मेरी प्रीत।
युगों-युगों तक रहेगी, अमर रचें कवि गीत।।
*
सपना पाला भगा दें
हम जग से तम दूर।
लोक हितों की माँग हो,
सहिष्णुता सिंदूर।।
अनगिन तारागण बनें,
नभ के श्रमिक-किसान।
श्रम-सीकर वर्षा बने, कोशिश बीज पुनीत।
चल हम चंदा-चाँदनी, रचें अनश्वर रीत।।
*
काम अकाम-सकाम वर,
बन पाएँ निष्काम।
श्वासें अल्प विराम हों,
आसें अर्ध विराम।।
पूर्ण विराम अनाम हो, छोड़ें हम नव नीत।
श्री वास्तव में पा सकें, मन हारें मन जीत।।
*
अमल विमल निर्मल सलिल, छप्-छपाक् संजीव।
शैशव वर वार्धक्य में, हो जाएँ राजीव।।
भू-नभ की कुड़माई हो, भावी बने अतीत।
कलरव-कलकल अमर हो, बन सत स्वर संगीत।।
५-२-२०२१
***
सोरठा गीत
पदभार- २४।
यति - १३-११।
पदांत - लघु गुरु।
*
तेरी-मेरी प्रीत, युगों-युगों तक रहेगी।
अमर रचें कवि गीत, तू चंदा मैं चाँदनी।।
*
कर जग से तम दूर, हम मिल पाला भगा दें।
सहिष्णुता सिंदूर, लोक हितों की माँग हो।।
नभ के श्रमिक-किसान, अनगिन तारागण बनें।
कोशिश बीज पुनीत, श्रम-सीकर वर्षा बने।
रचें अनश्वर रीत, चल हम चंदा-चाँदनी।।
*
बन पाएँ निष्काम, काम अकाम-सकाम वर।
आसें अर्ध विराम, श्वासें अल्प विराम हों।।
रच दें हम नव नीत, पूर्ण विराम अनाम हो।
मन हारें मन जीत, श्री वास्तव में पा सकें।।
*
छप्-छपाक् संजीव, विमल निर्मल सलिल।
हो जाएँ राजीव, शैशव वर वार्धक्य में।।
भावी बने अतीत, भू-नभ की कुड़माई हो।
बन सत स्वर संगीत, कलरव-कलकल अमर हो।।
५-२-२०२१
***

प्रार्थना
छंद मुक्तक
*
अजर अमर माँ शारद जय जय।
आस पूर्ण कर करिए निर्भय।।
इस मन में विश्वास अचल हो।
ईश कृपा प्रति श्रद्धा अक्षय।।
उमड़ उजाला सब तम हर ले।
ऊसर ऊपर सलिल प्रचुर दे।।
एक जननि संतान अगिन हम
ऐक्य भाव पथ, माँ! अक्षर दे।।
ओसारे चहके गौरेया।
और रँभाए घर घर गैया।
अंकुर अंबर छू ले बढ़कर
अः हँसे सँग बहिना-भैया।।
क्षणभंगुर हों शंका संशय।
त्रस्त रहे बाधा, शुभ की जय।
ज्ञान मिले सत्य-शिव-सुंदर का
ऋद्धि-सिद्धि दो मैया जय जय।।
*
५-२-२०१०
***
सामयिक माहिया
*
त्रिपदिक छंद।
मात्रा भार - १२-१०-१२।
*
भारत के बेटे हैं
किस्मत के मारे
सड़कों पर बैठे हैं।
*
गद्दार नहीं बोलो
विवश किसानों को
नेता खुद को तोलो।
*
मत करो गुमान सुनो,
अहंकार छोड़ो,
जो कहें किसान सुनो।
*
है कुछ दिन की सत्ता,
नेता सेवक है
है मालिक मतदाता।
*
मत करना मनमानी,
झुक कर लो बातें,
टकराना नादानी।
*
सब जनता सोच रही
खिसियानी बिल्ली
अब खंबा नोच रही।
*
कितनों को रोकोगे?
पूरी दिल्ली में
क्या कीले ठोंकोगे?
*
जनमत मत ठुकराओ
रूठी यदि जनता
कह देगी घर जाओ।
*
फिर है चुनाव आना
अड़े रहे यूँ ही
निश्चित फिर पछताना।
५-२-२०२१
***
दोहा सलिला अब बैसाखी छोड़कर, उछल छुएं आकाश।
चल गिर उठ बढ़ते नहीं, जो वे रहें हताश।।
*
चंद्र कांता कूदती, भू से नभ पर रोज।
हिम्मत लाती कहाँ से, हो इसकी कुछ खोज।।
***
विमर्श
वचन दोष-
उदाहरण:
नेता बोले भीड़ से,
तुम हो मेरे साथ।
हम यह वादा कर रहे,
रखें हाथ में हाथ।।
टीप- नेता एकवचन, बोले बहुवचन, भीड़ बहुवचन, तुम एकवचन, हम बहुवचन।
*
छाया सक्सेना जबलपुर- वचन दोष का सटीक उदाहरण देकर आपने हम सभी को लाभान्वित किया।
नेता कहते भीड़ से, रखें हाथ में हाथ।
हम ये वादा कर रहे, सब हो मेरे साथ ।।
क्या यह ठीक है?
संजीव वर्मा 'सलिल'

नेता बोला भीड़ से, तुम सब मेरे साथ।
मैं यह वादा कर रहा, रखो हाथ में हाथ।।
बीनू भटनागर दिल्ली- बोले आदर सूचक भी तो है , इसलिये ग़लत नहीं है। भीड़ शब्द एकवचन की तरह प्रयोग होता है। 'हम' बहुवचन होता है पर बहुत अधिक लोग उत्तर प्रदेश में इसे एकवचन की तरह प्रयोग करते हैं।
संजीव वर्मा 'सलिल'

अब बैसाखी छोड़कर, उछल छुएँ आकाश।
चल गिर उठ बढ़ते नहीं, जो वे रहें हताश।।
अवनीश तिवारी

संजीव जी, प्रणाम। कभी कभी सम्मान सूचक के रूप में एक वचन संज्ञा के साथ बहुवचन क्रिया उपयोग करते हैं। जैसे यहाँ 'नेता' और 'बोले'।
क्या यह सही नही ?
संजीव वर्मा 'सलिल'- ऐसे तर्क हर अंचल में दिए जाते हैं। बिहार में कारक और क्रिया में भिन्नता होती है। मानक हिंदी को उन्हें अपवाद मान अनदेखी कर बढ़ना ही है।

बीनू भटनागर, दिल्ली- लेकिन हिन्दी में इंगलिश की तरह collective noun को एक वचन नहीं माना जाता क्या? जैसे भीड़! आदर सूचक के लिये तो मानक हिंदी क्रिया में बहुवचन लगाना ही सही मानती है। एक और जिज्ञासा कि नेता का बहुवचन क्या होगा? "नेता हमेशा झूठ बोलते है।" इस वाक्य में नेता बहुवचन के रूप में सही नहीं है? यदि ग़लत है तो सही क्या है? 'हम'को एकवचन में प्रयोग करना तो मानक हिन्दी के हिसाब से ग़लत है, आंचलिक भाषा का प्रयोग है।
काव्य में क्या आंचलिक भाषा का प्रयोग वर्जित है?
संजीव वर्मा 'सलिल'- काव्य में आंचलिक भाषा का प्रयोग वर्जित नहीं है। वह रचनाकार की शैलीगत विशेषता है। जाना व्याकरण का प्रश्न हो वहाँ उसे मानक नहीं कहा जाएगा।
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कार्यशाला
दोहे पर दोहे
'सब रद्दी सामान दें, जो घर में बेकार।'
'फिर आना, बाहर गए,' गृहणी कहे पुकार।।
- दर्शन बेजा़र, आगरा

ना पति रद्दी ना कभी पत्नी रद्दी होय-
बृद्धावस्था में यही रह पाते संग दोय।।
रह पाते संग दोय, शिथिल जब तन हो जाये-
ज्यादा तर को छोड़ पुत्र अमरीका जाये।।
बात सलिल"बेज़ार" हो रही संस्कार क्षति-
रद्दी होते नहीं कभी पत्नी या ना पति।।
बहुत सुंदर वक्रोक्ति सलिल जी , अद्भुत प्रयोग
- संजीव वर्मा 'सलिल'
क्या रहते हैं यहां ही, शायर श्री बेजा़र?
गृहस्वामिन ने आ कहा, मैं भी हूँ बेजा़र।।
- मनोरमा सक्सेना, गुड़गाँव
संस्कार ,संस्कृति सुखद भूल गए परिवार ।
घर के बूढ़े हो गए ज्यूँ रद्दी अखबार।।
-जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर
वंदन करता हूँ सखे, वक्रोक्ति मे प्यार ।
चुहल चाल से ही खुशी, रहता यह संसार ।
५.२.२०१८
गले मिले दोहा-यमक
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नारी पाती दो जगत, जब हो कन्यादान
पाती है वरदान वह, भले न हो वर-दान
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दिल न मिलाये रह गए, मात्र मिलकर हाथ
दिल ने दिल के साथ रह, नहीं निभाया साथ
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निर्जल रहने की व्यथा, जान सकेगा कौन?
चंद्र नयन-जल दे रहा, चंद्र देखता मौन
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खोद-खोदकर थका जब, तब सच पाया जान
खो देगा ईमान जब, खोदेगा ईमान
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कौन किसी का सगा है, सब मतलब के मीत
हार न चाहें- हार ही, पाते जब हो जीत
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निकट न होकर निकट हैं, दूर न होकर दूर
चूर न मद से छोर हैं, सूर न हो हैं सूर
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इस असार संसार में, खोज रहा है सार
तार जोड़ता बात का, डिजिटल युग बे-तार
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५-२-२०१७
बाल गीत:
"कितने अच्छे लगते हो तुम "
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कितने अच्छे लगते हो तुम |
बिना जगाये जगते हो तुम ||
नहीं किसी को ठगते हो तुम |
सदा प्रेम में पगते हो तुम ||
दाना-चुग्गा चुगते हो तुम |
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ करते हो तुम ||
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम |
बिल्ली से डर बचते हो तुम ||
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते हो तुम |
चूजे भाई! रुचते हो तुम |
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बासंती दोहा ग़ज़ल:
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स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार
किंशुक कुसुम दहक रहे, या दहके अंगार?
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पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री-श्रृंगार
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महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार
मधुशाला में बिन पिये, सिर पर नशा सवार
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नहीं निशाना चूकती, पञ्चशरों की मार
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार
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नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार
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मैं-तुम, यह-वह ही नहीं, बौराया संसार
सब पर बासंती नशा, मिल लें गले खुमार
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ढोलक, टिमकी, मंजीरा, करें ठुमक इसरार
दुनियावी चिंता भुला, नाचो-झूमो यार
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घर आँगन तन धो दिया, तन का रूप निखार
अंतर्मन का मेल भी, प्रियवर! कभी बुहार।
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बासंती दोहा-गज़ल, मन्मथ की मनुहार
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार
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छंद सलिला:
रामा छंद
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(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, मधुभार, रामा, माला, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)
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रामा छंद में माला छंद के सर्वथा विपरीत प्रथम पद में दो चरण इंद्र वज्रा छंद के तथा द्वितीय पद में उपेन्द्र वज्रा छंद के दो चरण होते हैं.
उदाहरण:
१. पूजा उसे ही हमने हमेशा, रामा हमारा सबका सहारा
उसे सभी की रहती सदा ही, फ़िक्र न भूले वह देव प्यारा
२. कैसे बहलायें परदेश में जो, भाई हमारे रहने गये हैं
कहीं रहें वे हमको न भूलें, बसे हमारे दिल में वही हैं
३. कोई नहीं है अपना-पराया, जैसा जहाँ जो सब है तुम्हारा
तुम्हें मनायें दिन-रात देवा!, हमें न मोहे भ्रम-मोह-माया
५-२-२०१४
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एक दोहा
जो निज मन को जीत ले, उसे नमन कर मौन.
निज मन से यह पूछिए, छिपा आपमें कौन?
५.२.२०१०
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