कुल पेज दृश्य

विधाता छंद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
विधाता छंद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 21 जनवरी 2025

जनवरी २१, विधाता छंद, दीप छंद, यमकीय गजल, रूप की आरती, सॉनेट, सोरठा, लघुकथा

सलिल सृजन जनवरी २१
पूर्णिका
खंजन
छंद-दोहा

खंजन के दर्शन मिले, बनती बिगड़ी बात।
हाथ जोड़ स्वागत करें, शीश नवाकर तात।।
.
हेर रहे खंजन नयन, कहाँ छिपे हो श्याम।
टेर रहे राधा सदृश, दर्शन दो अभिजात।।
.

भरे कल्पना गगन में, जी भर विहँस उड़ान।
निरख नीलिमा मुग्ध हो, खंजन पुलकित गात।।
.
मीनाक्षी खंजन नयन, मुक्ता सम अनमोल।
हों प्रसन्न रूठे अगर, तो जीते जी मात।।
.
विमल सलिल में मुग्ध हो, झाँक देख निज रूप।
करें सुमंगल कामना, खुश खंजन दिन-रात।।
००० 
छंद शाला 
सरस्वती वंदना
रजनी शर्मा, रायपुर

सकल जन जन करते हैं मां, नित तेरी ही अराधना।         १५-१४=२९  
जीवन बीते करते करते, सदा तेरी ही उपासना ।।           १६-१५=३१  
१.
हम तो हैं निर्बोध प्राणी, आप विद्या दायिका ।                  १५-१२=२७         
युगल कर संग धवल मन से, सामने है ये याचना ।।          १५-१४=२९  
२.
तुम हो गार्गी तुम शुचिता, तुम हो वीणा वाहिका ।            १४-१३=२७  
सुता हो तुम पुष्करपति की, सामने है ये भाविका ।।         १५-१९=२९ 
३.
फैले जब तम का गरल, कर वरद से इसे विरल।              १३-१३=२६ 
विनय का घृत सदा ही बरसे, मद की ना हो अतिरंजना।।  १६--१५=३१ 
४.
जग में गूंजे ज्ञान हमेशा, तुम जहां की शाश्विता।                १६-१२=२८     
वाणी की वीणा सदा हो झंकृत, सामने है ये गीतिका।।       १९-१४=३३  
***
इस सुंदर सरस्वती वंदना की छाँदस तथा कथ्यगत त्रुटियाँ दूर करने का प्रयास करें।
(१४-१२= २६ मात्रिक गीतिका छंद, पदांत लघु-गुरु)
सकल जन-जन कर रहे माँ!, सतत तव आराधना। 
बिता दें जीवन सभी हम, करें मातु उपासना।। 
हम निबल-निर्बोध प्राणी, आप विद्या दायिका। 
कर युगल जोड़े विनत सिर, पूर्ण करिए कामना।। 
तुम्हीं गार्गी अपाला हो, अदिति वीणावाहिका।
सुता पुष्करनाथ की हे!, सफल करिए साधना।। 
तम-गरल घातक हरो माँ!, करो वर देकर सफल।
विनय-अमृत वृष्टि कर दो, करो भव-भय भंजना।। 
ज्ञान गुंजित हो हमेशा, सृष्टि में हे शाश्विता
गीतिका अर्पित तुम्हें है, स्वीकार करिए वंदना।। 
*** 
२१.१.२०२५
०००
द्विपदी
राम मरा है, मरा राम है, माया छाया एक समान।
जिसने यह सच जान लिया है, वह इंसान बना भगवान।।
२१.१.२०२४
***
सोरठा सलिला

दृष्टि देखती द्वैत, श्याम-गौर दो हैं नहीं।
आत्म अमिट अद्वैत, दोनों में दोनों कहे।।

कान्ह कन्हैया लाल, कान्हा लला गुपाल जू।
श्याम कृष्ण गोपाल, गिरिधर मुरलीधर भजो।।

नटखट नटवर नैन, नटनागर के जब मिलें।
छीने मन का चैन, मिलन बिना बेचैन कर।।

वेणु हाथ आ; अधर चढ़, रही गर्व से ऐंठ।
रेणु चरण छू कह रही, यहाँ न तेरी पैठ।।

होता भव से पार, कृष्ण कांत जिसके वही।
वह सकता भव-तार, इष्ट जिसे हो राधिका।।
२१-१-२०२३
•••
सॉनेट
संकल्प

जैसी भी है यह दुनिया
हमको है रहकर जीना
शीश उठा तानें सीना
काँपे कभी न कहीं जिया
संकट जब जो भी आएँ
टकराकर हम जीतेंगे
विष भी हँसकर पी लेंगे
गीत सफलता के गाएँ
छोटा कद हौसला बड़ा
वार करेंगे हम तगड़ा र
ह न सकेगा शत्रु खड़ा
हिम्मत कभी न हारेंगे
खुद को सच पर वारेंगे
सारे जग को तारेंगे
२१-१-२०२३
•••
सॉनेट
छीछालेदर
*
है चुनाव हो छीछालेदर।
नूराकुश्ती खेले नेता।
सत्ता पाता वादे देकर।।
अनचाहे वोटर मत देता।।
नाग साँप बिच्छू सम्मुख हैं।
भोले भंडारी है जनता।
जिसे चुनो डँसता यह दुख है।।
खुद को खुद मतदाता ठगता।।
टोपी दाढ़ी जैकेट झंडा।
डंडा थामे है हर बंदा।
जोश न होता ठगकर ठंडा।।
खेल सियासत बेहद गंदा।।
राम न बाकी; नहीं सिया-सत।
लत न न्याय की; अदा अदालत।।
***
सॉनेट
हेरा-फेरी
*
इसकी टोपी उसके सर पर।
उसकी झोली इसके काँधे।
डमरू बजा नजर जो बाँधे।।
वही बैठता है कुर्सी पर।।
नेता बाज; लोक है तीतर।
पूँजीपति हँस डाले दाना।
चुग्गा चुगता सदा सयाना।।
बिन बाजी जो जीते अफसर।।
है गणतंत्र; तंत्र गन-धारी।
संसद-सांसद वाक्-बिहारी।
न्यायपालिका है तकरारी।
हक्का बक्का हैं त्रिपुरारी।।
पंडिताई धंधा बाजारी।।
पैसा फेंक देख छवि प्यारी।।
२१-१-२०२१
***
लघु व्यंग्य
विकास
*
हे गुमशुदा! तुम जहाँ कहीं हो चुपचाप लौट आओ. तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा. तुम्हारे दुःख में युवा बेरोजगार, दलित शोषण के शिकार, पिछड़े
परवरदिगार और अगड़े धारदार हथियार हो रहे हैं.
तुम्हारे बिना आयकर का बढ़ना, मँहगाई का चढ़ना और पड़ोसी का लड़ना बदस्तूर जारी है.
तुम्हारे नाम पर बनते शौचालय, महामार्ग और स्मार्ट शहर तुम्हारे वियोग में उद्घाटन होते ही चटकने लगते हैं. तुम्हारे आने का दावा कर रहे नेता जुमलों का हिमालय खड़ा कर चुनाव जीत रहे हैं. हम अपने घर को न सम्हाल पाने पर भी खुद को विश्व का मसीहा मानकर बूँद-बूँद रीत रहे हैं.
हम तुम्हारे वियोग में सद्भावों का कर रहे हैं विनाश, चौराहे पर रखे बैठे हैं सत्य की लाश, इससे पहले कि आशा हो जाए हताश अपने घर लौट आओ नहीं आना है तो भाड़ में जाओ हे विकास.
***
दोहा
लपक आपने ले लिया, हमसे हिंदी-फूल.
हाय! क्या कहें कह रहीं, हैं अंगरेजी-फूल
*
मुक्तक
बोलती हैं अबोले भी बोल कुछ आँखें.
भर सकें परवाज़ पंछी, खोलते पाँखें.
जड़ हुए तो क्या सलिल, चेतन हमीं होंगे-
तन तने सम, फूल-फलना चाहती शाखें।।
*
२१.१.२०१८
***
नवगीत:
*
मिली दिहाड़ी
चल बाजार
चावल-दाल किलो भर ले-ले
दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर भर
धनिया-मिर्ची ताजी
तेल पाव भर फ़ल्ली का
सिंदूर एक पुडिया दे
दे अमरूद पांच का, बेटी की
न सहूं नाराजी
खाली जेब पसीना चूता
अब मत रुक रे!
मन बेजार
निमक-प्याज भी ले लऊँ तन्नक
पत्ती चैयावाली
खाली पाकिट हफ्ते भर को
फिर छाई कंगाली
चूड़ी-बिंदी दिल न पाया
रूठ न मो सें प्यारी
अगली बेर पहलऊँ लेऊँ
अब तो दे मुस्का री!
चमरौधे की बात भूल जा
सहले चुभते
कंकर-खार
***
अभिनव प्रयोग:
नवगीत :
.
मिलती काय न ऊँचीवारी
कुरसी हमखों गुइयाँ
.
हमखों बिसरत नहीं बिसारे
अपनी मन्नत प्यारी
जुलुस, विशाल भीड़ जयकारा
सुविधा-संसद न्यारी
मिल जाती, मन की कै लेते
रिश्वत ले-दे भैया
.
पैलां लेऊँ कमीशन भारी
बेंच खदानें सारी
पाछूं घपले-घोटाले सौ
रकम बिदेस भिजा री
होटल फैक्ट्री टाउनशिप
कब्जा लौं कुआ तलैया
.
कौनौ सैगो हमरो नैयाँ
का काऊ सेन काने?
अपनी दस पीढ़ी खें लाने
हमें जोड़ रख जानें
बना लई सोने की लंका
ठेंगे पे राम-रमैया
.
(बुंदेली लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागों की लय पर आधारित, प्रति पद १६-१२ x ४ पंक्तियाँ, महाभागवत छंद )
***
एक छक्का:
.
पार एक से पा नहीं, पाते हैं हम-आप
घिरे चार के बीच में, रहे केजरी कांप
रहे केजरी कांप, आप है हक्का-बक्का
अमित जोर से लगा कमल का ऊंचा छ्क्का
कहे 'सलिल' कविराय, लडो! मत मानो हार
जनगण-मन लो जीत तभी हो नैया पार
***
मुक्तक:
*
चिंता न करें हाथ-पैर अगर सर्द हैं
कुछ फ़िक्र न हो चहरे भी अगर ज़र्द हैं
होशो-हवास शेष है, दिल में जोश है
गिर-गिरकर उठ खड़े हुए, हम ऐसे मर्द हैं.
*
जीत लेंगे लड़ के हम कैसा भी मर्ज़ हो
चैन लें उतार कर कैसा भी क़र्ज़ हो
हौसला इतना हमेशा देना ऐ खुदा!
मिटकर भी मिटा सकूँ मैं कैसा भी फ़र्ज़ हो
२१-१-२०१५
***
छंद सलिला:
दस मात्रिक दैशिक छंद:
*
दस दिशाओं के आधार पर दस मात्रिक छंदों को दैशिक छंद कहा जाता है. विविध मात्रा बाँट से ८९ प्रकार के दैशिक छंद रचे जा सकते हैं.
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रा वज्रा, उपेन्द्र वज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, माला, वाणी, शक्तिपूजा, शाला, सार, सुगति/शुभगति, सुजान, हंसी)
दस मात्रिक दीप छंद
*
दस मात्रक दीप छंद के चरणान्त में ३ लघु १ गुरु १ लघु अर्थात एक नगण गुरु-लघु या लघु सगण लघु या २ लघु १ जगण की मात्रा बाँट होती है.
उदाहरण:
१. दीप दस नित बाल, दे कुचल तम-व्याल
स्वप्न नित नव पाल, ले 'सलिल' करताल
हो न तनिक मलाल, विनत रख निज भाल
दे विकल पल टाल, ले पहन कर-माल
२. हो सड़क-पग-धूल, नाव-नद-नभ कूल
साथ रख हर बार, जीत- पर मत हार
अनवरत बढ़ यार, आस कर पतवार
रख सुदृढ़ निज मूल, फहर नभ पर झूल
३. जहाँ खरपतवार, करो जड़ पर वार
खड़ी फसल निहार, लुटा जग पर प्यार
धरा-गगन बहार, सलामत सरकार
हुआ सजन निसार, भुलाकर सब रार
२१.१.२०१४
***
मुक्तक
रूप की आरती
*
रूप की आरती उतारा कर.
हुस्न को इश्क से पुकारा कर.
चुम्बनी तिल लगा दे गालों पर-
तब 'सलिल' मौन हो निहारा कर..
*
रूप होता अरूप मानो भी..
झील में गगन देख जानो भी.
देख पाओगे झलक ईश्वर की-
मन में संकल्प 'सलिल' ठानो भी..
*
नैन ने रूप जब निहारा है,
सारी दुनिया को तब बिसारा है.
जग कहे वन्दना तुम्हारी थी-
मैंने परमात्म को गुहारा है..
*
झील में कमल खिल रहा कैसे.
रूप को रूप मिल रहा जैसे.
ब्रम्ह की अर्चना करे अक्षर-
प्रीत से मीत मिल रहा ऐसे..
*
दीप माटी से जो बनाता है,
स्वेद-कण भी 'सलिल' मिलाता है.
श्रेय श्रम को मिले दिवाली का-
गौड़ धन जो दिया जलाता है.
*
भाव में डूब गया है अक्षर,
रूप है सामने भले नश्वर.
चाव से डूबकर समझ पाया-
रूप ही है अरूप अविनश्वर..
*
हुस्न को क्यों कहा कहो माया?
ब्रम्ह को क्या नहीं यही भाया?
इश्क है अर्चना न सच भूलो-
छिपा माशूक में वही पाया..
२१-१-२०१३
***
अभिनव प्रयोग:
यमकमयी गजल:
*
नहीं समस्या कोई हल की.
कोशिश लेकिन रही न हलकी..
आशा शेष न उज्जवल कल की.
जब तब हरि प्रगटें बन कलकी..
सुना रही है सारे बृज को
छल की कथा गगरिया छलकी..
बिन पानी सब सून हो रहा
बंद हुई जब नलकी नल की..
फल की ओर निशाना साढेन
फ़िक्र न करिए सफल-विफल की..
नभ ताने चादर मखमल की.
चंदा बिछा रहा मलमल की..
खल की बात न बट्टा सुनता.
जब से संगत पायी खल की..
श्रम पर निष्ठां रही सलिल की
दुनिया सोचे लकी-अनलकी..
कर-तल की ध्वनि जग सुनता है.
'सलिल' अनसुनी ध्वनि पग-तल की..
२३-२-२०११
===
छंद - बहर दोउ एक हैं
मुक्तिका
*
तुझे भी क्या कभी गुजरे ज़माने याद आएँगे
मापनी - १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
गणसूत्र - य र त म य ग
मात्रभार - २८, यौगिक जातीय, विधाता मात्रिक छंद
वर्णभार - १६, अष्टादि: जातीय छंद
रुक्न - मुफाईलुं x ४
टीप : 'गुजरे' को 'बीते' करने पर १२२२ के स्थान पर १२११२ करने से बचा जा सकता है। गुरु को दो लघु करने की छूट लेने पर काव्य रचना आसान हो जाती है पर पिंगल शास्त्र के अनुसार ऐसा करने पर उन पंक्तियों में छंद भिन्न हो जाता है।
*
तुझे भी क्या कभी गुजरे ज़माने याद आएँगे
मिलें तन्हाईयाँ सपने सुहाने याद आएँगे
करोगे गुफ्तगू खुद से कभी तो जान लो जानां
लिखोगे मुक्तिका दोहे तराने याद आएँगे
बहाओगे पसीना, बादलों में देखना हमको
हँसेंगी खेत में फ़स्लें बहाने याद आएँगे
इसे देखो दिखा उसको न वो दिन अब रहे बाकी
नए साधो न तुम बीते निशाने याद आएँगे
न तुमसे दूर हैं, तुम भी न हमसे दूर हो यारां
हमें तुम याद आओगे, तुम्हें हम याद आएँगे
***
तुझे भी क्या कभी बीते ज़माने याद आएँगे
नहीं जो साथ वो भूले ज़माने याद आएँगे
हमेशा प्यार ही पाओ नहीं होता कभी ऐसा
न चाहो तो नहीं झूठे ज़माने याद आएँगे
नदी ने प्यास से पूछा कहाँ क्या दाम वो देगी?
लुटा दी तृप्ति पाने आ जमाने याद आएँगे
मिलेगा साथ साथी का न सच्चा आप खोजोगे
न चाहोगे जिसे वो ही जमाने याद आएँगे
न भूली हो, न भूलोगी, कहो या ना कहो प्यारी
रहे संजीव जो वो ही जमाने याद आएँगे
२१.१.२०१०
***

बुधवार, 12 जून 2024

१२ जून, दोहा, गीत, शिरीष, हास्य, ठेंगा, विधाता छंद, शुद्धगा छंद, सॉनेट

सलिल सृजन १२ जून
*
सॉनेट
अहंकार
*
अहंकार सिर पर चढ़ा,
खुद को कहते श्रेष्ठ खुद,
दिन-दिन अधिकाधिक बढ़ा,
सबसे ज्यादा नेष्ठ खुद।
औरों को उपदेश दें,
चाल-चलन विपरीत कर,
श्रेय न पर को लेश दें,
चाटुकार से प्रीत कर।
देख मलिन मुख तोड़ दें,
दर्पण मुख धोते नहीं,
ऐसों को झट छोड़ दें,
जो पछता-रोते नहीं।
अहंकार ही हार है,
शीघ्र पतन का द्वार है।
बेंगलुरू, १२.६.२०२४
***
दोहा दुनिया
मैं भारत हूँ कह करें, मनमानी दिन-रात।
भारत का दुख दिख रहा, किंचित तुम्हें न तात।।
*
मैं भारत हूँ मानकर, सत्ता मूँदे नैन।
जन-मन को पीड़ित करे, आप गँवाए चैन।।
*
मैं भारत हूँ कह सहे, जनगण चुप हो पीर।
मन ही मन में घुट रही, जनता हुई अधीर।।
*
मैं भारत हूँ कह रहीं, घुटती साँसें रोज।
अस्पताल धन लूटते, गिद्ध पा रहे भोज।।
*
मैं भारत हूँ बोलतीं, दबीं रेत में लाश।
सिसक रही है हर नदी, हर घर मौन-हताश।।
१२-६-२०२१
***
एक गीत
शिरीष के फूल
*
फूल-फूल कर बजा रहे हैं
बीहड़ में रमतूल,
धूप-रूप पर मुग्ध, पेंग भर
छेड़ें झूला झूल
न सुधरेंगे
शिरीष के फूल।
*
तापमान का पान कर रहे
किन्तु न बहता स्वेद,
असरहीन करते सूरज को
तनिक नहीं है खेद।
थर्मामीटर नाप न पाये
ताप, गर्व निर्मूल
कर रहे हँस
शिरीष के फूल।।
*
भारत की जनसँख्या जैसे
खिल-झरते हैं खूब,
अनगिन दुःख, हँस सहे न लेकिन
है किंचित भी ऊब।
माथे लग चन्दन सी सोहे
तप्त जेठ की धूल
तार देंगे
शिरीष के फूल।।
*
हो हताश एकाकी रहकर
वन में कभी पलाश,
मार पालथी, तुरत फेंट-गिन
बाँटे-खेले ताश।
भंग-ठंडाई छान फली संग
पीकर रहते कूल,
हमेशा ही
शिरीष के फूल।।
*
जंगल में मंगल करते हैं
दंगल नहीं पसंद,
फाग, बटोही, राई भाते
छन्नपकैया छंद।
ताल-थाप, गति-यति-लय साधें
करें न किंचित भूल,
नाचते सँग
शिरीष के फूल।।
*
संसद में भेजो हल कर दें
पल में सभी सवाल,
भ्रमर-तितलियाँ गीत रचें नव
मेटें सभी बबाल।
चीन-पाक को रोज चुभायें
पैने शूल-बबूल
बदल रँग-ढँग
शिरीष के फूल।।
***
हास्य रचना
ठेंगा
*
ठेंगे में 'ठ', ठाकुर में 'ठ', ठठा हँसा जो वह ही जीता
कौन ठठेरा?, कौन जुलाहा?, कौन कहाँ कब जूते सीता?
बिन ठेंगे कब काम चला है?, लगा, दिखा, चूसो या पकड़ो
चार अँगुलियों पर भारी है ठेंगा एक, न उससे अकड़ो
ठेंगे की महिमा भारी है, पूछो ठकुरानी से जाकर
ठेंगे के संग जीभ चिढ़ा दें, हो जाते बेबस करुणाकर
ठेंगा हाथों-लट्ठ थामता, पैरों में हो तो बेनामी
ठेंगा लगता, इसकी दौलत उसको दे देता है दामी
लोक देखता आया ठेंगा, नेता दिखा-दिखा है जीता
सीता-गीता हैं संसद में, लोकतंत्र को लगा पलीता
राम बाग़ में लंका जैसा दृश्य हुआ अभिनीत, ध्वंस भी
कान्हा गायब, यादव करनी देख अचंभित हुआ कंस भी
ठेंगा नितीश मुलायम लालू, ममता माया जया सोनिया
मौनी बाबा गुमसुम-अण्णा, आप बने तो मिले ना ठिया
चाय बेचकर छप्पन इंची, सीना बन जाता है ठेंगा
वादों को जुमला कहता है, अंधे को कहता है भेंगा
लोकतंत्र को लोभतंत्र कर, ठगता ठेंगा खुद अपने को
ढपली-राग हो गया ठेंगा, बेच रहा जन के सपने को
ठेंगे के आगे नतमस्तक, चतुर अँगुलियाँ चले न कुछ बस
ठेंगे ठाकुर को अर्पित कर भोग लगाओ, 'सलिल' मिले जस
१२-६-२०१६
***
मुक्तक
नेह नर्मदा में अवगाहो, तन-मन निर्मल हो जाएगा।
रोम-रोम पुलकित होगा प्रिय!, अपनेपन की जय गाएगा।।
हर अभिलाषा क्षिप्रा होगी, कुंभ लगेगा संकल्पों का,
कोशिश का जनगण तट आकर, फल पा-देकर तर जाएगा।।
७-६-२०१६
***
छंद सलिला:
विधाता/शुद्धगा छंद
*
छंद लक्षण: जाति यौगिक, प्रति पद २८ मात्रा,
यति ७-७-७-७ / १४-१४ , ८ वीं - १५ वीं मात्रा लघु
विशेष: उर्दू बहर हज़ज सालिम 'मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन' इसी छंद पर आधारित है.
लक्षण छंद:
विधाता को / नमन कर ले , प्रयासों को / गगन कर ले
रंग नभ पर / सिंधु में जल , साज पर सुर / अचल कर ले
सिद्धि-तिथि लघु / नहीं कोई , दिखा कंकर / मिला शंकर
न रुक, चल गिर / न डर, उठ बढ़ , सीकरों को / सलिल कर ले
संकेत: रंग =७, सिंधु = ७, सुर/स्वर = ७, अचल/पर्वत = ७
सिद्धि = ८, तिथि = १५
उदाहरण:
१. न बोलें हम न बोलो तुम , सुनें कैसे बात मन की?
न तोलें हम न तोलो तुम , गुनें कैसे जात तन की ?
न डोलें हम न डोलो तुम , मिलें कैसे श्वास-वन में?
न घोलें हम न घोलो तुम, जियें कैसे प्रेम धुन में?
जात = असलियत, पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात
२. ज़माने की निगाहों से , न कोई बच सका अब तक
निगाहों ने कहा अपना , दिखा सपना लिया ठग तक
गिले - शिकवे करें किससे? , कहें किसको पराया हम?
न कोई है यहाँ अपना , रहें जिससे नुमायाँ हम
३. है हक़ीक़त कुछ न अपना , खुदा की है ज़िंदगानी
बुन रहा तू हसीं सपना , बुजुर्गों की निगहबानी
सीखता जब तक न तपना , सफलता क्यों हाथ आनी?
कोशिशों में खपा खुदको , तब बने तेरी कहानी
४. जिएंगे हम, मरेंगे हम, नहीं है गम, न सोचो तुम
जलेंगे हम, बुझेंगे हम, नहीं है तम, न सोचो तुम
कहीं हैं हम, कहीं हो तुम, कहीं हैं गम, न सोचो तुम
यहीं हैं हम, यहीं हो तुम, नहीं हमदम, न सोचो तुम
*********
१२-६-२०१४

रविवार, 5 मई 2024

मई ५, छंद जग, नवगीत, विधाता छंद, ओशो चिंतन, लाओत्से, कुमार रवीन्द्र, दोहा दुनिया

 ओशो चिंतन: दोहा मंथन १.

लाओत्से ने कहा है, भोजन में लो स्वाद।
सुन्दर सी पोशाक में, हो घर में आबाद।।
रीति का मजा खूब लो
*
लाओत्से ने बताया, नहीं सरलता व्यर्थ।
रस बिन भोजन का नहीं, सत्य समझ कुछ अर्थ।।
रस न लिया; रस-वासना, अस्वाभाविक रूप।
ले विकृत हो जाएगी, जैसे अँधा कूप।।
छोटी-छोटी बात में, रस लेना मत भूल।
करो सलिल-स्पर्श तो, लगे खिले शत फ़ूल।
जल-प्रपात जल-धार की, शीतलता अनुकूल।।
जीवन रस का कोष है, नहीं मोक्ष की फ़िक्र।
जीवन से रस खो करें, लोग मोक्ष का ज़िक्र।।
मंदिर-मस्जिद की करे, चिंता कौन अकाम।
घर को मंदिर बना लो, हो संतुष्ट सकाम।।
छोटा घर संतोष से, भर होता प्रभु-धाम।
तृप्ति आदमी को मिले, घर ही तीरथ-धाम।।
महलों में तुम पाओगे, जगह नहीं है शेष।
सौख्य और संतोष का, नाम न बाकी लेश।।
जहाँ वासना लबालब, असंतोष का वास।
बड़ा महल भी तृप्ति बिन, हो छोटा ज्यों दास।।
क्या चाहोगे? महल या, छोटा घर; हो तृप्त?
रसमय घर या वरोगे, महल विराट अतृप्त।।
लाओत्से ने कहा है:, "भोजन रस की खान।
सुन्दर कपड़े पहनिए, जीवन हो रसवान।।"
लाओ नैसर्गिक बहुत, स्वाभाविक है बात।
मोर नाचता; पंख पर, रंगों की बारात।।
तितली-तितली झूमती, प्रकृति बहुत रंगीन।
प्रकृति-पुत्र मानव कहो, क्यों हो रंग-विहीन?
पशु-पक्षी तक ले रहे, रंगों से आनंद।
मानव ले; तो क्या बुरा, झूमे-गाए छंद।।
वस्त्राभूषण पहनते, थे पहले के लोग।
अब न पहनते; क्यों लगा, नाहक ही यह रोग?
स्त्री सुंदर पहनती, क्यों सुंदर पोशाक।
नहीं प्राकृतिक यह चलन, रखिए इसको ताक।।
पंख मोर के; किंतु है, मादा पंख-विहीन।
गाता कोयल नर; मिले, मादा कूक विहीन।।
नर भी आभूषण वसन, बहुरंगी ले धार।
रंग न मँहगे, फूल से, करे सुखद सिंगार।।
लाओ कहता: पहनना, सुन्दर वस्त्र हमेश।
दुश्मन रस के साधु हैं, कहें: 'न सुख लो लेश।।'
लाओ कहता: 'जो सहज, मानो उसको ठीक।'
मुनि कठोर पाबंद हैं, कहें न तोड़ो लीक।।
मन-वैज्ञानिक कहेंगे:, 'मना न होली व्यर्थ।
दीवाली पर मत जला, दीप रस्म बेअर्थ।।'
खाल बाल की निकालें, यह ही उनका काम।
खुशी न मिल पाए तनिक, करते काम तमाम।।
अपने जैसे सभी का, जीवन करें खराब।
मन-वैज्ञानिक शूल चुन, फेंके फूल गुलाब।।
लाओ कहता: 'रीति का, मत सोचो क्या अर्थ?
मजा मिला; यह बहुत है, शेष फ़िक्र है व्यर्थ।।
होली-दीवाली मना, दीपक रंग-गुलाल।
सबका लो आनंद तुम, नहीं बजाओ गाल।।
***
५-५-२०१८, १८.२०
दोहा मुक्तक
लता-लता पर छा रहा, नव वासंती रंग।
ताल ताल पर ताल दें, मछली सहित तरंग।।
नेह-नर्मदा में नहा, भ्रमर-तितलियाँ मौन-
कली-फूल पी मस्त हैं, मानो मद की भंग।।
५.५.२०१८
कृति चर्चा-
'अप्प दीपो भव' प्रथम नवगीतिकाव्य
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण- अप्प दीपो भव, कुमार रवीन्द्र, नवगीतीय प्रबंध काव्य, आवरण बहुरंगी,सजिल्द जेकेट सहित, आकार २२ से.मी. x १४.५ से.मी., पृष्ठ ११२, मूल्य ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन के ३९७ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, ९८३९८२५०६२, रचनाकार संपर्क- क्षितिज ३१०, अर्बन स्टेट २ हिसार हरयाणा ०१६६२२४७३४७]
*
'अप्प दीपो भव' भगवान बुद्ध का सन्देश और बौद्ध धर्म का सार है। इसका अर्थ है अपने आत्म को दीप की तरह प्रकाशवान बनाओ। कृति का शीर्षक और मुखपृष्ठ पर अंकित विशेष चित्र से कृति का गौतम बुद्ध पर केन्द्रित होना इंगित होता है। वृक्ष की जड़ों के बीच से झाँकती मंद स्मितयुक्त बुद्ध-छवि ध्यान में लीन है। कृति पढ़ लेने पर ऐसा लगता है कि लगभग सात दशकीय नवगीत के मूल में अन्तर्निहित मानवीय संवेदनाओं से संपृक्तता के मूल और अचर्चित मानक की तरह नवगीतानुरूप अभिनव कहन, शिल्प तथा कथ्य से समृद्ध नवगीति काव्य का अंकुर मूर्तिमंत हुआ है।
कुमार रवीन्द्र समकालिक नव गीतकारों में श्रेष्ठ और ज्येष्ठ हैं। नवगीत के प्रति समीक्षकों की रूढ़ दृष्टि का पूर्वानुमान करते हुए रवीन्द्र जी ने स्वयं ही इसे नवगीतीय प्रबंधकाव्य न कहकर नवगीत संग्रह मात्र कहा है। एक अन्य वरिष्ठ नवगीतकार मधुकर अष्ठाना जी ने विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा आयोजित संगोष्ठी में इसे 'काव्य नाटक' कहा है । अष्ठाना जी के अनुसार रचनाओं की प्रस्तुति नवगीत के शिल्प में तो है किन्तु कथ्य और भाषा नवगीत के अनुरूप नहीं है। यह स्वाभाविक है। जब भी कोई नया प्रयोग किया जाता है तो उसके संदर्भ में विविध धारणाएँ और मत उस कृति को चर्चा का केंद्र बनाकर उस परंपरा के विकास में सहायक होते हैं जबकि मत वैभिन्न्य न हो तो समुचित चर्चा न होने पर कृति परंपरा का निर्माण नहीं कर पाती।
एक और वरिष्ठ नवगीतकार निर्मल शुक्ल जी इसे नवगीत संग्रह कहा है। सामान्यत: नवगीत अपने आप में स्वतंत्र और पूर्ण होने के कारण मुक्तक काव्य संवर्ग में वर्गीकृत किया जाता है। इस कृति का वैशिष्ट्य यह है कि सभी गीत बुद्ध के जीवन प्रसंगों से जुड़े होने के साथ-साथ अपने आपमें हर गीत पूर्ण और अन्यों से स्वतंत्र है। बुद्ध के जीवन के सभी महत्वपूर्ण प्रसंगों पर रचित नवगीत बुद्ध तथा अन्य पात्रों के माध्यम से सामने आते हुए घटनाक्रम और कथावस्तु को पाठक तक पूरी संवेदना के साथ पहुँचाते हैं। नवगीत के मानकों और शिल्प से रचनाकार न केवल परिचित है अपितु उनको प्रयोग करने में प्रवीण भी है। यदि आरंभिक मानकों से हटकर उसने नवगीत रचे हैं तो यह कोई कमी नहीं, नवगीत लेखन के नव आयामों का अन्वेषण है।
काव्य नाटक साहित्य का वह रूप है जिसमें काव्यत्व और नाट्यत्व का सम्मिलन होता है। काव्य तत्व नाटक की आत्मा तथा नाट्य तत्व रूप व कलेवर का निर्माण करता है। काव्य तत्व भावात्मकता, रसात्मकता तथा आनुभूतिक तीव्रता का वाहक होता है जबकि नाट्य तत्व कथानक, घटनाक्रम व पात्रों का। अंग्रेजी साहित्य कोश के अनुसार ''पद्य में रचित नाटक को 'पोयटिक ड्रामा' कहते हैं। इनमें कथानक संक्षिप्त और चरित्र संख्या सीमित होती है। यहाँ कविता अपनी स्वतंत्र सत्ता खोकर अपने आपको नाटकीयता में विलीन कर देती है।१ टी. एस. इलियट के अनुसार कविता केवल अलंकरण और श्रवण-आनंद की वाहक हो तो व्यर्थ है।२ एबरकोम्बी के अनुसार कविता नाटक में पात्र स्वयं काव्य बन जाता है।३ डॉ. नगेन्द्र के मत में कविता नाटकों में अभिनेयता का तत्व महत्वपूर्ण होता है।४, पीकोक के अनुसार नाटकीयता के साथ तनाव व द्वंद भी आवश्यक है।५ डॉ. श्याम शर्मा मिथकीय प्रतीकों के माध्यम से आधुनिक युगबोध व्यंजित करना काव्य-नाटक का वैशिष्ट्य कहते हैं६ जबकि डॉ. सिद्धनाथ कुमार इसे दुर्बलता मानते हैं।७. डॉ. लाल काव्य नाटक का लक्षण बाह्य संघर्ष के स्थान पर मानसिक द्वन्द को मानते हैं।८.
भारतीय परंपरा में काव्य दृश्य और श्रव्य दो वर्गों में वर्गीकृत है। दृश्य काव्य मंचित किए जा सकते हैं। दृश्य काव्य में परिवेश, वेशभूषा, पात्रों के क्रियाकलाप आदि महत्वपूर्ण होते हैं। विवेच्य कृति में चाक्षुष विवरणों का अभाव है। 'अप्प दीपो भव' को काव्य नाटक मानने पर इसकी कथावस्तु और प्रस्तुतीकरण को रंगमंचीय व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में भी आकलित करना होगा। कृति में कहीं भी रंगमंच संबंधी निर्देश या संकेत नहीं हैं। विविध प्रसंगों में पात्र कहीं-कहीं आत्मालाप तो करते हैं किन्तु संवाद या वार्तालाप नहीं हैं। नवगीतकार द्वारा पात्रों की मन: स्थितियों को सूक्ष्म संकेतों द्वारा इंगित किया गया है। कथा को कितने अंकों में मंचित किया जाए, कहीं संकेत नहीं है। स्पष्ट है कि यह काव्य नाटक नहीं है। यदि इसे मंचित करने का विचार करें तो कई परिवर्तन करना होंगे। अत:, इसे दृश्य काव्य या काव्य नाटक नहीं कहा जा सकता।
श्रव्य काव्य शब्दों द्वारा पाठकों और श्रोताओं के हृदय में रस का संचार करता है। पद्य, गद्य और चम्पू श्रव्यकाव्य हैं। गत्यर्थक में 'पद्' धातु से निष्पन ‘पद्य’ शब्द गति प्रधान है। पद्यकाव्य में ताल, लय और छन्द की व्यवस्था होती है। पद्यकाव्य के दो उपभेद महाकाव्य और खण्डकाव्य हैं। खण्डकाव्य को ‘मुक्तकाव्य’ भी कहते हैं। खण्डकाव्य में महाकाव्य के समान जीवन का सम्पूर्ण इतिवृत्त न होकर किसी एक अंश का वर्णन किया जाता है— खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि च। – साहित्यदर्पण।
कवित्व व संगीतात्मकता का समान महत्व होने से खण्डकाव्य को ‘गीतिकाव्य’ भी कहते हैं। ‘गीति’ का अर्थ हृदय की रागात्मक भावना को छन्दोबद्ध रूप में प्रकट करना है। गीति की आत्मा भावातिरेक है। अपनी रागात्मक अनुभूति और कल्पना के कवि वर्ण्यवस्तु को भावात्मक बना देता है। गीतिकाव्य में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों और परम्पराओं से मुक्त होकर वैयक्तिक अनुभव को सरलता से अभिव्यक्त किया जाता है। स्वरूपत: गीतिकाव्य का आकार-प्रकार महाकाव्य से छोटा होता है। इस निकष पर 'अप्प दीपो भव' नव गीतात्मक गीतिकाव्य है। संस्कृत में गीतिकाव्य मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में प्राप्त होता है। प्रबन्धात्मक गीतिकाव्य मेघदूत है। मुक्तक काव्य में प्रत्येक पद्य अपने आप में स्वतंत्र होता है। इसके उदाहरण अमरूकशतक और भतृहरिशतकत्रय हैं। संगीतमय छन्द व मधुर पदावली गीतिकाव्य का लक्षण है। इन लक्षणों की उपस्थित्ति 'अप्प दीपो भव' में देखते हुए इसे नवगीति काव्य कहना उपयुक्त है। निस्संदेह यह हिंदी साहित्य में एक नयी लीक का आरम्भ करती कृति है।
हिंदी में गीत या नवगीत में प्रबंध कृति का विधान न होने तथा प्रसाद कृत 'आँसू' तथा बच्चन रचित 'मधुशाला' के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण कृति न लिखे जाने से उपजी शून्यता को 'अप्प दीपो भव' भंग करती है। किसी चरिते के मनोजगत को उद्घाटित करते समय इतिवृत्तात्मक लेखन अस्वाभाविक लगेगा। अवचेतन को प्रस्तुत करती कृति में घटनाक्रम को पृष्ठभूमि में संकेतित किया जाना पर्याप्त है। घटना प्रमुख होते ही मन-मंथन गौड़ हो जाएगा। कृतिकार ने इसीलिये इस नवगीतिकाव्य में मानवीय अनुभूतियों को प्राधान्य देने हेतु एक नयी शैली को अन्वेषित किया है। इस हेतु लुमार रवीन्द्र साधुवाद के पात्र हैं।
बुद्ध को विष्णु का अवतार स्वीकारे जाने पर भी पर स्व. मैथिलीशरण गुप्त रचित यशोधरा खंडकाव्य के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण काव्य कृति नहीं है जबकि महावीर को विष्णु का अवतार न माने जाने पर भी कई कवत कृतियाँ हैं। कुमार रवीन्द्र ने बुद्ध तथा उनके जीवन काल में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करनेवाले पात्रों में अंतर्मन में झाँककर तात्कालिक दुविधाओं, शंकाओं, विसंगतियों, विडंबनाओं, उनसे उपजी त्रासदियों से साक्षात कर उनके समाधान के घटनाक्रम में पाठक को संश्लिष्ट करने में सफलता पाई है। तथागत ११, नन्द ५, यशोधरा ५, राहुल ५, शुद्धोदन ५, गौतमी २, बिम्बसार २, अंगुलिमाल २, आम्रपाली ३, सुजाता ३, देवदत्त १, आनंद ४ प्रस्तुतियों के माध्यम से अपने मानस को उद्घाटित करते हैं। परिनिर्वाण, उपसंहार तथा उत्तर कथन शीर्षकान्तार्गत रचनाकार साक्षीभाव से बुद्धोत्तर प्रभावों की प्रस्तुति स्वीकारते हुए कलम को विराम देता है।
गृह त्याग पश्चात बुद्ध के मन में विगत स्मृतियों के छाने से आरम्भ कृति के हर नवगीत में उनके मन की एक परत खुलती है. पाठक जब तक पिछली स्मृति से तादात्म्य बैठा पाए, एक नयी स्मृति से दो-चार होता है। आदि से अंत तक औत्सुक्य-प्रवाह कहीं भंग नहीं होता। कम से कम शब्दों में गहरी से गहरी मन:स्थिति को शब्दित करने में कुमार रवीन्द्र को महारथ हासिल है। जन्म, माँ की मृत्यु, पिता द्वारा भौतिक सुख वर्षा, हंस की प्राण-रक्षा, विवाह, पुत्रजन्म, गृह-त्याग, तप से बेसुध, सुजाता की खीर से प्राण-रक्षा, भावसमाधि और बोध- 'गौतम थे / तम से थे घिरे रहे / सूर्य हुए / उतर गए पल भर में / कंधों पर लदे-हुए सभी जुए', 'देह के परे वे आकाश हुए', 'दुःख का वह संस्कार / साँसों में व्यापा', 'सूर्य उगा / आरती हुई सॉंसें', ''देहराग टूटा / पर गौतम / अन्तर्वीणा साध न पाए', 'महासिंधु उमड़ा / या देह बही / निर्झर में' / 'सभी ओर / लगा उगी कोंपलें / हवाओं में पतझर में', 'बुद्ध हुए मौन / शब्द हो गया मुखर / राग-द्वेष / दोनों से हुए परे / सड़े हुए लुगड़े से / मोह झरे / करुना ही शेष रही / जो है अक्षर / अंतहीन साँसों का / चक्र रुका / कष्टों के आगे / सिर नहीं झुका / गूँजे धम्म-मन्त्रों से / गाँव-गली-घर / ऋषियों की भूमि रही / सारनाथ / करुणा का वहीं उठा / वरद हाथ / क्षितिजों को बेध गए / बुद्धों के स्वर'
गागर में सागर समेटती अभिव्यक्ति पाठक को मोहे रखती है। एक-एक शब्द मुक्तामाल के मोती सदृश्य चुन-चुन कर रखा गया है। सन्यस्त बुद्ध के आगमन पर यशोधरा की अकथ व्यथा का संकेतन देखें 'यशोधरा की / आँख नहीं / यह खारे जल से भरा ताल है... यशोधरा की / देह नहीं / यह राख हुआ इक बुझा ज्वाल है... यशोधरा की / बाँह नहीं / यह किसी ठूँठ की कटी डाल है... यशोधरा की / सांस नहीं / यह नारी का अंतिम सवाल है'। अभिव्यक्ति सामर्थ्य और शब्द शक्ति की जय-जयकार करती ऐसी अभिव्यक्तियों से समृद्ध-संपन्न पाठक को धन्यता की प्रतीति कराती है। पाठक स्वयं को बुद्ध, यशोधरा, नंद, राहुल आदि पात्रों में महसूसता हुआ सांस रोके कृति में डूबा रहता है।
कुमार रवींद्र का काव्य मानकों पर परखे जाने का विषय नहीं, मानकों को परिमार्जित किये जाने की प्रेरणा बनता है। हिंदी गीतिकाव्य के हर पाठक और हर रचनाकार को इस कृति का वाचन बार-बार करना चाहिए।
--------------------------------
संदर्भ- १. दामोदर अग्रवाल, अंग्रेजी साहित्य कोश, पृष्ठ ३१४।२. टी. एस. इलियट, सलेक्ट प्रोज, पृष्ठ ६८। ३. एबरकोम्बी, इंग्लिश क्रिटिक एसेज, पृष्ठ २५८। ४. डॉ. नगेंद्र, अरस्तू का काव्य शास्त्र, पृष्ठ ७४। ५. आर. पीकोक, द आर्ट ऑफ़ ड्रामा, पृष्ठ १६०। ६. डॉ. श्याम शर्मा, आधुनिक हिंदी नाटकों में नायक, पृष्ठ १५५। ७. डॉ. सिद्धनाथ कुमार, माध्यम, वर्ष १ अंक १०, पृष्ठ ९६। ८. डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, आधुनिक हिंदी नाटक और रंगमंच, पृष्ठ १०। ९.
***
दोहा दुनिया
*
सरहद पर सर काट कर, करते हैं हद पार
क्यों लातों के देव पर, हों बातों के वार?
*
गोस्वामी से प्रभु कहें, गो स्वामी मार्केट
पिज्जा-बर्जर भोग में, लाओ न होना लेट
*
भोग लिए ठाकुर खड़ा, करता दंड प्रणाम
ठाकुर जी मुस्का रहे, आज पड़ा फिर काम
*
कहें अजन्मा मनाकर, जन्म दिवस क्यों लोग?
भले अमर सुर, मना लो मरण दिवस कर सोग
*
ना-ना कर नाना दिए, है आकार-प्रकार
निराकार पछता रहा, कर खुद के दीदार
५-५-२०१७
***
मुक्तिका
*
वार्णिक छंद: अथाष्टि जातीय छंद
मात्रिक छंद: यौगिक जातीय विधाता छंद
1 2 2 2 , 1 2 2 2 , 1 2 2 2 , 1 2 2 2.
मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन, मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन।
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम।।
*
दियों में तेल या बाती नहीं हो तो करोगे क्या?
लिखोगे प्रेम में पाती नहीं भी तो मरोगे क्या?
.
बुलाता देश है, आओ! भुला दो दूरियाँ सारी
बिना गंगा बहाए खून की, बोलो तरोगे क्या?
.
पसीना ही न जो बोया, रुकेगी रेत ये कैसे?
न होगा घाट तो बोलो नदी सूखी रखोगे क्या?
.
परों को ही न फैलाया, नपेगा आसमां कैसे?
न हाथों से करोगे काम, ख्वाबों को चरोगे क्या?
.
न ज़िंदा कौम को भाती कभी भी भीख की बोटी
न पौधे रोप पाए तो कहीं फूलो-फलोगे क्या?
...
इस बह्र में कुछ प्रचलित गीत
१. तेरी दुनिया में आकर के ये दीवाने कहाँ जाएँ
मुहब्बत हो गई जिनको वो परवाने कहाँ जाएँ
२. मुझे तेरी मुहब्बत का सहारा मिल गया होता
३. चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों
४. खुदा भी आसमाँ से जब जमीं पर देखता होगा
५. सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम कब आओगेे
६. कभी तन्हाइयों में भी हमारी याद आएगी
७. है अपना दिल तो अावारा न जाने किस पे आएगा
८. बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है
९. सजन रे! झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है
५-५-२०१७
***
दोहा प्रश्नोत्तर
कविता का है मूल क्या?,
और आप हैं कौन?
उत्तर दोनों प्रश्न का,
'सलिल' एक है- 'मौन'..
नवगीत:
*
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
.
दाँत दूध के टूट न पाये
पर वयस्क हैं.
नहीं सुंदरी नर्स इसलिए
अनमयस्क हैं.
चूस रहे अंगूठा लेकिन
आँख मारते
बाल भारती पढ़ न सके
डेटिंग परस्त हैं
हर उद्यान
काम-क्रीड़ा हित
इनको बाखर
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
.
मकरध्वज घुट्टी में शायद
गयी पिलायी
वात्स्यायन की खोज
गर्भ में गयी सुनायी
मान देह को माटी माटी से
मिलते हैं
कीचड किया, न शतदल कलिका
गयी खिलायी
मन अनजाना
तन इनको केवल
जलसाघर
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
५-५-२०१५
***
छंद सलिला:
जग छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १० - ८ - ५, चरणान्त गुरु लघु (तगण, जगण) ।
लक्षण छंद:
कदम-कदम मंज़िल / को छू पायें / पग आज
कोशिश-शीश रखेँ / अनथक श्रम कर / हम ताज
यति दस आठ पाँच / पर, गुरु लघु हो / चरणांत
तेइस मात्री जग / रच कवि पा यश / इस व्याज
उदाहरण:
१. धूप-छाँव, सुख-दुःख / धीरज धरकर / ले झेल
मन मत विचलित हो / है यह प्रभु / का खेल
सच्चे शुभ चिंतक / को दुर्दिन मेँ / पहचान
संग रहे तम मेँ / जो- हितचिंतक / मतिमान
२. चित्रगुप्त परब्रम्ह / ही निराकार / साकार
कंकर-कंकर मेँ / बसते लेकर / आकार
घट-घटवासी हैं / तन में आत्मा / ज्यों गुप्त
जागृत देव सदैव / होते न कभी / भी सुप्त
३. हम सबको रहना / है मिलकर हर/दम साथ
कभी न छोड़ेंगे / हमने थामे / हैं हाथ
एक-नेक होँ हम / सब भेद करें/गे दूर
'सलिल' न झुकने दें/गे हम भारत / का माथ
५-५-२०१४
***
मुखपुस्तकी गपशप- स्त्री विमर्श
women are like vehicles, everyone appreciate the outside beauty, but the inner beauty is embraced by her owner- - पायल शर्मा
*
संजीव
'स्त्री वाहन नहीं, संस्कृति की वाहक है.
मानव मूल्यों की स्त्री ही तो चालक है..
वाहन की चाबी कोई भी ले सकता है.
चाबी लगा घुमा कर उसको खे सकता है.
स्त्री चाबी बना पुरुष को सदा घुमाती.
जब जी चाहे रोके, उठा उसे दौडाती.
विधि-हरि-हर पर शारद-रमा-उमा हावी हैं.
नव दुर्गा बन पुजती स्त्री ही भावी है'
*
नवीन चतुर्वेदी, मुम्बई- आपकी भाषा जानी पहचानी सी लगती है |
*
राज भाटिया- बहुत सुंदर लगी आप की यह कविता
*
संजीव
स्त्री सदा 'नवीन' है, पुरुष सदा प्राचीन.
'राज' करे नाराज हो, यह उँगली वह बीन..
कौन 'चतुर्वेदी' जिसे, यह चतुरा न नचाय.
भाट बने जो 'भाटिया', का ख़िताब वह पाय..
नाच इशारों पर 'सलिल', तभी रहेगी खैर.
देव न दानव बच सके, स्त्री से कर बैर..
*
नवींन चतुर्वेदी
बात करें यूँ सार की, लगती मगर अजीब |
उनका ही तो नाम है, वर्मा सलिल संजीव ||
*
संजीव
बात सार की चाहता, करता जगत असार.
मतभेदों को पोसते, 'सलिल' न पालें प्यार..
है 'नवीन' जो आज वह, कल होता प्राचीन.
'राज' स्वराज विराजता, पर जनगण है दीन..
*
५.५.२०१०
प्रश्नोत्तर
कविता का है मूल क्या?,
कवि होता है कौन?
उत्तर दोनों प्रश्न का,
'सलिल' एक है- 'मौन'..
५-५-२०१०

शुक्रवार, 16 जून 2023

गीत, शिरीष, भगवत दुबे, समीक्षा, नवगीत, विधाता छंद, शुद्धगा छंद, रवींद्रनाथ, सोनेट, सदोका

सॉनेट
बादल
*
काले-काले बादल आए
आसमान पर दौड़ रहे हैं
झूम-झूमकर नाचे-गाए
जल की फोड़ रहे है।
धरती माँ की पीड़ा हरते
गर्मी हर राहत पहुँचाते
कागज-नौका सपने तिरते
बच्चे ताली झूम बजाते।
दादुर गुँजा रहे शहनाई
ताल दे रहे पीपल-पत्ते
नदियों पर आई तरुणाई
बारह देखने आए जत्थे।
हरियाली की चादर लाए
मोर झूमकर नाच दिखाए।
१६-६-२०२२
***
सदोका सलिला : ३
खिलखिलाई
इठलाई शर्माई
सद्यस्नाता नवोढ़ा।
चिलमन भी
रूप देख बौराया
दर्पण आहें भरे। १६।
*
लहराती है
नागिन जैसी लट,
भाल-गाल चूमती।
बेला की गंध
मदिर सूँघ-सूँघ
बेदनी सी नाचती। १७।
*
क्षितिज पर
मेघ घुमड़ आए
वसुंधरा हर्षाई।
पवन झूम
बिजली संग नाचा,
प्रणय पत्र बाँचा। १८।
*
लोकतंत्र में
नेता करे सो न्याय
अफसर का राज।
गौरैयों ने
राम का राज्य चाहा
बाजों को चुन लिया।१९।
*
घर को लगी
घर के चिराग से
दिन दहाड़े आग।
मंत्री का पूत
विधायकी का दावा
करे छाती फुलाए। २०।
१६-६-२०२२
***
कार्यशाला:
ये मेरी तिश्नगी, लेकर कहाँ चली आई?
यहाँ तो दूर तक सहरा दिखाई देता है.
- डॉ.अम्बर प्रियदर्शी
चला था तोड़ के बंधन मिलेगी आजादी
यहाँ तो सरहदी पहरा दिखाई देता है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'
***
तिश्नगी का न पूछिए आलम
मैं जहाँ हूँ, वहाँ समंदर है.
- अम्बर प्रियदर्शी
राह बारिश की रहे देखते सूने नैना
क्या पता था कि गया रीत सारा अम्बर है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'
मिला था ईद पे उससे गले हुलसकर मैं
किसे खबर थी वो पल में हलाल कर देगा.
ला दे दे, रम जान तू, चला गया रमजान
सूख रहा है हलक अब होने दे रस-खान.
***
छंद कोष की एक झलक:
लगभग ५५० नए छंद विधान और उदाहरण सहित रचे जा चुके हैं। आगे कार्य जारी है.
षड्मात्रीय रागी जातीय छंद (प्रकार १५)
*
महीयसी छंद:
विधान: लघु गुरु लघु गुरु (१२१२)।
लक्षण छंद:
महीयसी!
गरीयसी।
सदा रहीं
ह्रदै बसीं।।
*
उदाहरण
गीत:
निशांत हो,
सुशांत हो।
*
उषा उगी
कली खिली।
बही हवा
भली भली।
सुखी रहो,
न भ्रांत हो...
*
सही कहो,
सही करो।
चले चलो,
नहीं डरो।
विरोध क्यों
नितांत हो...
*
करो भला
वरो भला।
नरेश हो
तरो भला।
न दास हो,
न कांत हो...
*
विराट हो
विशाल हो।
रुको नहीं
निढाल हो।
सुलक्ष्य पा
दिनांत हो...
१६-६-२०१८

एक दोहा 
ला दे दे, रम जान तू, चला गया रमजान
सूख रहा है हलक अब होने दे रस-खान.
कार्यशाला:
ये मेरी तिश्नगी, लेकर कहाँ चली आई?
यहाँ तो दूर तक सहरा दिखाई देता है.
- डॉ.अम्बर प्रियदर्शी
चला था तोड़ के बंधन मिलेगी आजादी
यहाँ तो सरहदी पहरा दिखाई देता है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'
-----------------------------------
तिश्नगी का न पूछिए आलम
मैं जहाँ हूँ, वहाँ समंदर है.
- अम्बर प्रियदर्शी
राह बारिश की रहे देखते सूने नैना
क्या पता था कि गया रीत सारा अम्बर है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'

मिला था ईद पे उससे गले हुलसकर मैं
किसे खबर थी वो पल में हलाल कर देगा.
१६-६-२०१८ 
***
कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक
रचना का भावानुवाद:
*
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
***
रसानंद दे छंद नर्मदा ३४ : विधाता/शुद्धगा छंद
गुरुवार, १५ जून २०१६
*
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा तथा सखी छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए विधाता छन्द से
*
छंद लक्षण: जाति यौगिक, प्रति पद २८ मात्रा,
यति ७-७-७-७ / १४-१४ , ८ वीं - १५ वीं मात्रा लघु
विशेष: उर्दू बहर हज़ज सालिम 'मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन' इसी छंद पर आधारित है.
लक्षण छंद:
विधाता को / नमन कर ले , प्रयासों को / गगन कर ले
रंग नभ पर / सिंधु में जल , साज पर सुर / अचल कर ले
सिद्धि-तिथि लघु / नहीं कोई , दिखा कंकर / मिला शंकर
न रुक, चल गिर / न डर, उठ बढ़ , सीकरों को / सलिल कर ले
संकेत: रंग =७, सिंधु = ७, सुर/स्वर = ७, अचल/पर्वत = ७
सिद्धि = ८, तिथि = १५
उदाहरण:
१. न बोलें हम न बोलो तुम , सुनें कैसे बात मन की?
न तोलें हम न तोलो तुम , गुनें कैसे जात तन की ?
न डोलें हम न डोलो तुम , मिलें कैसे श्वास-वन में?
न घोलें हम न घोलो तुम, जियें कैसे प्रेम धुन में?
जात = असलियत, पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात
२. ज़माने की निगाहों से , न कोई बच सका अब तक
निगाहों ने कहा अपना , दिखा सपना लिया ठग तक
गिले - शिकवे करें किससे? , कहें किसको पराया हम?
न कोई है यहाँ अपना , रहें जिससे नुमायाँ हम
३. है हक़ीक़त कुछ न अपना , खुदा की है ज़िंदगानी
बुन रहा तू हसीं सपना , बुजुर्गों की निगहबानी
सीखता जब तक न तपना , सफलता क्यों हाथ आनी?
कोशिशों में खपा खुदको , तब बने तेरी कहानी
४. जिएंगे हम, मरेंगे हम, नहीं है गम, न सोचो तुम
जलेंगे हम, बुझेंगे हम, नहीं है तम, न सोचो तुम
कहीं हैं हम, कहीं हो तुम, कहीं हैं गम, न सोचो तुम
यहीं हैं हम, यहीं हो तुम, नहीं हमदम, न सोचो तुम
***
गीत,
यार शिरीष!
*
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
अब भी खड़े हुए एकाकी
रहे सोच क्यों साथ न बाकी?
तुमको भाते घर, माँ, बहिनें
हम चाहें मधुशाला-साकी।
तुम तुलसी को पूज रहे हो
सदा सुहागन निष्ठा पाले।
हम महुआ की मादकता के
हुए दीवाने ठर्रा ढाले।
चढ़े गिरीश
पर नहीं बिगड़े
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
राजनीति तुमको बेगानी
लोकनीति ही लगी सयानी।
देश हितों के तुम रखवाले
दुश्मन पर निज भ्रकुटी तानी।
हम अवसर को नहीं चूकते
लोभ नीति के हम हैं गाहक।
चाट सकें इसलिए थूकते
भोग नीति के चाहक-पालक।
जोड़ रहे
जो सपने बिछुड़े
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
तुम जंगल में धूनि रमाते
हम नगरों में मौज मनाते।
तुम खेतों में मेहनत करते
हम रिश्वत परदेश-छिपाते।
ताप-शीत-बारिश हँस झेली
जड़-जमीन तुम नहीं छोड़ते।
निज हित खातिर झोपड़ तो क्या
हम मन-मंदिर बेच-तोड़ते।
स्वार्थ पखेरू के
पर कतरे।
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
*
तुम धनिया-गोबर के संगी
रीति-नीति हम हैं दोरंगी।
तुम मँहगाई से पीड़ित हो
हमें न प्याज-दाल की तंगी।
अंकुर पल्लव पात फूल फल
औरों पर निर्मूल्य लुटाते।
काट रहे जो उठा कुल्हाड़ी
हाय! तरस उन पर तुम खाते।
तुम सिकुड़े
हम फैले-पसरे।
यार शिरीष!
तुम नहीं सुधरे
१६-६-२०१६
***
कृति चर्चा:
हम जंगल के अमलतास : नवाशा प्रवाही नवगीत संकलन
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४
[कृति विवरण: हम जंगल के अमलतास, नवगीत संग्रह, आचार्य भगवत दुबे, २००८, पृष्ठ १२०, १५० रु., आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेटयुक्त, प्रकाशक कादंबरी जबलपुर, संपर्क: २६७२ विमल स्मृति, समीप पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५]
*
विश्ववाणी हिंदी के समृद्ध वांग्मय को रसप्लावित करती नवगीतीय भावधारा के समर्थ-सशक्त हस्ताक्षर आचार्य भगवत दुबे के नवगीत उनके व्यक्तित्व की तरह सहज, सरल, खुरदरे, प्राणवंत ततः जिजीविषाजयी हैं. इन नवगीतों का कथ्य सामाजिक विसंगतियों के मरुस्थल में मृग-मरीचिका की तरह आँखों में झूलते - टूटते स्वप्नों को पूरी बेबाकी से उद्घाटित तो करता है किन्तु हताश-निराश होकर आर्तनाद नहीं करता. ये नवगीत विधागत संकीर्ण मान्यताओं की अनदेखी कर, नवाशा का संचार करते हुए, अपने पद-चिन्हों से नव सृअन-पथ का अभिषेक करते हैं. संग्रह के प्रथम नवगीत 'ध्वजा नवगीत की' में आचार्य दुबे नवगीत के उन तत्वों का उल्लेख करते हैं जिन्हें वे नवगीत में आवश्यक मानते हैं:
नव प्रतीक, नव ताल, छंद नव लाये हैं
जन-जीवन के सारे चित्र बनाये हैं
की सरगम तैयार नये संगीत की
कसे उक्ति वैचित्र्य, चमत्कृत करते हैं
छोटी सी गागर में सागर भरते हैं
जहाँ मछलियाँ विचरण करें प्रतीत की
जो विरूपतायें समाज में दिखती हैं
गीत पंक्तियाँ उसी व्यथा को लिखती हैं
लीक छोड़ दी पारंपरिक अतीत की
अब फहराने लगी ध्वजा नवगीत की
सजग महाकाव्यकार, निपुण दोहाकार, प्रसिद्ध गजलकार, कुशल कहानीकार, विद्वान समीक्षक, सहृदय लोकगीतकार, मौलिक हाइकुकार आदि विविध रूपों में दुबे जी सतत सृजन कर चर्चित-सम्मानित हुए हैं. इन नवगीतों का वैशिष्ट्य आंचलिक जन-जीवन से अनुप्राणित होकर ग्राम्य जीवन के सहजानंद को शहरी जीवन के त्रासद वैभव पर वरीयता देते हुए मानव मूल्यों को शिखर पर स्थापित करना है. प्रो. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' इन नवगीतों के संबंध में ठीक ही लिखते हैं: '...भाषा, छंद, लय, बिम्ब और प्रतीकों के समन्वित-सज्जित प्रयोग की कसौटी पर भी दुबे जी खरे उतरते हैं. उनके गीत थके-हरे और अवसाद-जर्जर मानव-मन को आस्था और विश्वास की लोकांतर यात्रा करने में पूर्णत: सफल हुए हैं. अलंकार लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रचुर प्रयोग ने गीतों में जो ताजगी और खुशबू भर दी है, वह श्लाघनीय है.'
निराला द्वारा 'नव गति, नव लय, ताल-छंद नव' के आव्हान से नवगीत का प्रादुर्भाव मानने और स्व. राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा स्व. शम्भुनाथ सिंह द्वारा प्रतिष्ठापित नवगीत को उद्भव काल की मान्यताओं और सीमाओं में कैद रखने का आग्रह करनेवाले नवगीतकार यह विस्मृत कट देते हैं कि काव्य विधा पल-पल परिवर्तित होती सलिला सदृश्य किसी विशिष्ट भाव-भंगिमा में कैद की ही नहीं जा सकती. सतत बदलाव ही काव्य की प्राण शक्ति है. दुबे जी नवगीत में परिवर्तन के पक्षधर हैं: "पिंजरों में जंगल की / मैना मत पालिये / पाँव में हवाओं के / बेड़ी मत डालिए... अब तक हैं यायावर'
यथार्थवाद और प्रगतिवाद के खोखले नारों पर आधरित तथाकथित प्रगतिवादी कविता की नीरसता के व्यूह को अपने सरस नवगीतों से छिन्न-भिन्न करते हुए दुबे जी अपने नवगीतों को छद्म क्रांतिधर्मिता से बचाकर रचनात्मक अनुभूतियों और सृजनात्मकता की और उन्मुख कर पाते हैं: 'जुल्म का अनुवाद / ये टूटी पसलियाँ हैं / देखिये जिस ओर / आतंकी बिजलियाँ हैं / हो रहे तेजाब जैसे / वक्त के तेव ... युगीन विसंतियों के निराकरण के उपाय भी घातक हैं: 'उर्वरक डाले विषैले / मूक माटी में / उग रहे हथियार पीने / शांत घाटी में'... किन्तु कहीं भी हताशा-निराशा या अवसाद नहीं है. अगले ही पल नवगीत आव्हान करता है: 'रूढ़ि-अंधविश्वासों की ये काराएँ तोड़ें'...'भ्रम के खरपतवार / ज्ञान की खुरपी से गोड़ें'. युगीन विडंबनाओं के साथ समन्वय और नवनिर्माण का स्वर समन्वित कर दुबेजी नवगीत को उद्देश्यपरक बना देते हैं.
राजनैतिक विद्रूपता का जीवंत चित्रण देखें: 'चीरहरण हो जाया करते / शकुनी के पाँसों से / छली गयी है प्रजा हमेशा / सत्ता के झाँसों से / राजनीti में सम्मानित / होती करतूतें काली' प्रकृति का सानिंध्य चेतना और स्फूर्ति देता है. अतः, पर्यावरण की सुरक्षा हमारा दायित्व है:
कभी ग्रीष्म, पावस, शीतलता
कभी वसंत सुहाना
विपुल खनिज-फल-फूल अन्न
जल-वायु प्रकृति से पाना
पर्यावरण सुरक्षा करके
हों हम मुक्त ऋणों से
नकारात्मता में भी सकरात्मकता देख पाने की दृष्टि स्वागतेय है:
ग्रीष्म ने जब भी जलाये पाँव मेरे
पीर की अनुभूति से परिचय हुआ है...
.....भ्रूण अँकुराये लता की कोख में जब
हार में भी जीत का निश्चय हुआ है.
प्रो. विद्यानंदन राजीव के अनुसार ये 'नवगीत वर्तमान जीवन के यथार्थ से न केवल रू-ब-रू होते हैं वरन सामाजिक विसंगतियों से मुठभेड़ करने की प्रहारक मुद्रा में दिखाई देते हैं.'
सामाजिक मर्यादा को क्षत-विक्षत करती स्थिति का चित्रण देखें: 'आबरू बेशर्म होकर / दे रही न्योते प्रणय के / हैं घिनौने चित्र ये / अंग्रेजियत से संविलय के / कर रही है यौन शिक्षा / मार्गदर्शन मनचलों का'
मौसमी परिवर्तनों पर दुबे जी के नवगीतों की मुद्रा अपनी मिसाल आप है: 'सूरज मार रहा किरणों के / कस-कस कर कोड़े / हवा हुई ज्वर ग्रस्त / देह पीली वृक्षों की / उलझी प्रश्नावली / नदी तट के यक्षों की / किन्तु युधिष्ठिर कृषक / धैर्य की वल्गा ना छोड़े.''
नवगीतकारों के सम्मुख नव छंद की समस्या प्राय: मुँह बाये रहती है. विवेच्य संग्रह के नवगीत पिन्गलीय विधानों का पालन करते हुए भी कथ्य की आवश्यकतानुसार गति-यति में परिवर्तन कर नवता की रक्षा कर पाते हैं.
'ध्वजा नवगीत की' शीर्षक नवगीत में २२-२२-२१ मात्रीय पंक्तियों के ६ अंतरे हैं. पहला समूह मुखड़े का कार्य कर रहा है, शेष समूह अंतरे के रूप में हैं. तृतीय पंक्ति में आनुप्रसिक तुकांतता का पालन किया गया है.
'हम जंगल के अमलतास' शीर्षक नवगीत पर कृति का नामकरण किया गया है. यह नवगीत महाभागवत जाति के गीतिका छंद में १४+१२ = २६ मात्रीय पंक्तियों में रचा गया है तथा पंक्त्यांत में लघु-गुरु का भी पालन है. मुखड़े में २ तथा अंतरों में ३-३ पंक्तियाँ हैं.
'जहाँ लोकरस रहते शहदीले' शीर्षक रचना महाभागवत जातीय छंद में है. मुखड़े तथा २ अंतरांत में गुरु-गुरु का पालन है, जबकि ३ रे अंतरे में एक गुरु है. यति में विविधता है: १६-१०, ११-१५, १४-१२.
'हार न मानी अच्छाई ने' शीर्षक गीत में प्रत्येक पंक्ति १६ मात्रीय है. मुखड़ा १६+१६=३२ मात्रिक है. अंतरे में ३२ मात्रिक २ (१६x४) समतुकांती पंक्तियाँ है. सवैया के समान मात्राएँ होने पर भी पंक्त्यांत में भगण न होने से यह सवैया गीत नहीं है.
'ममता का छप्पर' नवगीत महाभागवत जाति का है किन्तु यति में विविधता १६+१०, ११+१५, १५+११ आदि के कारण यह मिश्रित संकर छंद में है.
'बेड़ियाँ न डालिये' के अंतरे में १२+११=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ, पहले-तीसरे अंतरे में १२+१२=२४ मात्रिक २-२ पंक्तियाँ तथा दूसरे अंतरे में १०+१३=२३ मात्रिक २ पंक्तियाँ है. तीनों अंतरों के अंत में मुखड़े के सामान १२+१२ मात्रिक पंक्ति है. गीत में मात्रिक तथा यति की विविधता के बावजूद प्रवाह भंग नहीं है.
'नंगपन ऊँचे महल का शील है' शीर्षक गीत महापौराणिक जातीय छंद में है. अधिकांश पंक्तियों में ग्रंथि छंद के पिन्गलीय विधान (पंक्त्यांत लघु-गुरु) का पालन है किन्तु कहीं-कहीं अंत के गुरु को २ लघु में बदल लिया गया है तथापि लय भंग न हो इसका ध्यान रखा गया है.
वृद्ध मेघ क्वांर के (मुखड़ा १२+११ x २, ३ अन्तरा १२+१२ x २ + १२+ ११), वक्त यह बहुरुपिया (मुखड़ा १४+१२ , १-३ अन्तरा १४+१२ x ३, २ अन्तरा १२+ १४ x २ अ= १४=१२), यातनाओं की सुई (मुखड़ा १९,२०,१९,१९, ३ अन्तरा १९ x ६), हम त्रिशंकु जैसे तारे हैं, नयन लाज के भी झुक जाते - पादाकुलक छंद(मुखड़ा १६x २, ३ अन्तरा १६x ६), स्वार्थी सब शिखरस्थ हुए- महाभागवत जाति (२६ मात्रीय), हवा हुई ज्वर ग्रस्त २५ या २६ मात्रा, मार्गदर्शन मनचलों का-यौगिक जाति (मुखड़ा १४ x ४, ३ अन्तरा २८ x २ ), आचरण आदर्श के बौने हुए- महापौराणिक जाति (मुखड़ा १९ x २, ३ अन्तरा १९ x ४), पसलियाँ बचीं (मुखड़ा १२+८, १०=१०, ३ अन्तरा २०, २१ या २२ मात्रिक ४ पंक्तियाँ), खर्राटे भर रहे पहरुए (मुखड़ा १६ x २+१०, ३ अन्तरा १४ x ३ + १६+ १०),समय क्रूर डाकू ददुआ (मुखड़ा १६+१४ x २, ३ अन्तरा १६ x ४ + १४), दिल्ली तक जाएँगी लपटें (मुखड़ा २६x २, ३ अन्तरा २६x २ + २६), ओछे गणवेश (मुखड़ा २१ x २, ३ अन्तरा २० x २ + १२+१२ या ९), बूढ़ा हुआ बसंत (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा १६ x २ + २६), ब्याज रहे भरते (मुखड़ा २६ x २, ३ अन्तरा २६ x २ + २६) आदि से स्पष्ट है कि दुबे जी को छंदों पर अधिकार प्राप्त है. वे छंद के मानक रूप के अतिरिक्त कथ्य की माँग पर परिवर्तित रूप का प्रयोग भी करते हैं. वे लय को साधते हैं, यति-स्थान को नहीं. इससे उन्हें शब्द-चयन तथा शब्द-प्रयोग में सुविधा तथा स्वतंत्रता मिल जाती है जिससे भाव की समुचित अभिव्यक्ति संभव हो पाती है.
इन नवगीतों में खड़ी हिंदी, देशज बुन्देली, यदा-कदा उर्दू व् अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग, मुहावरों तथा लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है जो लालित्य में वृद्धि करता है. दुबे जी कथ्यानुसार प्रतीकों, बिम्बों, उपमाओं तथा रूपकों का प्रयोग करते हैं. उनका मत है: 'इस नयी विधा ने काव्य पर कुटिलतापूर्वक लादे गए अतिबौद्धिक अछ्न्दिल बोझ को हल्का अवश्य किया है.' हम जंगल के अमलतास' एक महत्वपूर्ण नवगीत संग्रह है जो छान्दस वैविध्य और लालित्यपूर्ण अभिव्यक्ति से परिपूर्ण है.
***
संपर्क: २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वाट्सऐप ९४२५१८३२४४
दोहा गीत:
*
अगर नहीं मन में संतोष
खाली हो भरकर भी कोष
*
मन-हाथी को साधिये
संयम अंकुश मार
विषधर को सर पर धरें
गरल कंठ में धार
सुख आये करिए संकोच
जब पायें तजिए उत्कोच
दुःख जय कर करिए जयघोष
अगर नहीं मन में संतोष
खाली हो भरकर भी कोष
*
रहें तराई में कदम
चढ़ना हो आसान
पहुँच शिखर पर तू 'सलिल'
पतन सुनिश्चित जान
मान मिले तो गर्व न कर
मनमर्जी को पर्व न कर
मिले नहीं तो मत कर रोष
अगर नहीं मन में संतोष
खाली हो भरकर भी कोष
***
मुक्तिका
*
अच्छे दिन आयेंगे सुनकर जी लिये
नोट भी पायेंगे सुनकर जी लिये
सूत तजकर सूट को अपना लिया
फ्लैग फहरायेंगे सुनकर जी लिये
रोज झंडा विदेशी फहरा रहे
मन वही भायेंगे सुनकर जी लिये
मौन साधा भाग, हैं वाचाल अब
भाग अजमायेंगे सुनकर जी लिये
चोर-डाकू स्वांग कर हैं एक अब
संत बन जायेंगे सुनकर जी लिये
बात अंग्रेजी में हिंदी की करें
काग ही गायेंगे सुनकर जी लिये
आम भी जब ख़ास बन लड़ते रहें
लोग पछतायेंगे सुनकर जी लिये
१६-६-२०१५
***