कुल पेज दृश्य

सुरेश तन्मय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सुरेश तन्मय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 29 जनवरी 2023

लघुकथा, सोरठा, समीक्षा, लघुकथा, सुरेश तन्मय, सुमनलता श्रीवास्तव, एम.एल. खरे

सोरठा सलिला

अमला-धवला धार, रूपवती लावण्यमय।
सुर-नर चकित निहार, दिव्य नर्मदा द्रुत बहे।।
*
शंकर सके तराश, कंकर-कंकर नर्मदा। 
पूजो रख विश्वास, नर्मदेश्वर शिव सदा।।
*
वंशलोचनी परी, नन्हीं ठिठक-मचल रही।
अमरकंटकी खरी, कूद-फाँदकर हँस पड़ी।।
रुद्रात्मजा प्रशांत, कलकल गाती गीत नित।
होती नहीं अशांत, जो चाहे ले जीत वह।। 
*
मेकलसुता अनन्य, छह-छपाक निर्झर नहा।
हिरणी चपला वन्य, खुद पर खुद ही रीझती।। 
*
पद्म पुष्प ले गोद, विहँस बालुकावाहिनी।
निर्झर सह आमोद, करती मकरासीन हो।।
*
अतुल रूप-सौंदर्य, जनहितकारी नर्मदा। 
अद्भुत है औदार्य, है जगमाता वर्मदा।। 
२९-१-२०२३ 
***
कृति चर्चा:
जिजीविषा : पठनीय कहानी संग्रह
चर्चाकार: डॉ. साधना वर्मा
*
[कृति विवरण: जिजीविषा, कहानी संग्रह, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, द्वितीय संस्करण वर्ष २०१५, पृष्ठ ८०, १५०/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक जेकट्युक्त, बहुरंगी, प्रकाशक त्रिवेणी परिषद् जबलपुर, कृतिकार संपर्क- १०७ इन्द्रपुरी, ग्वारीघाट मार्ग जबलपुर।]
*
हिंदी भाषा और साहित्य से आम जन की बढ़ती दूरी के इस काल में किसी कृति के २ संस्करण २ वर्ष में प्रकाशित हो तो उसकी अंतर्वस्तु की पठनीयता और उपादेयता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है। यह तथ्य अधिक सुखकर अनुभूति देता है जब यह विदित हो कि यह कृतिकार ने प्रथम प्रयास में ही यह लोकप्रियता अर्जित की है। जिजीविषा कहानी संग्रह में १२ कहानियाँ सम्मिलित हैं।
सुमन जी की ये कहानियाँ अतीत के संस्मरणों से उपजी हैं। अधिकांश कहानियों के पात्र और घटनाक्रम उनके अपने जीवन में कहीं न कहीं उपस्थित या घटित हुए हैं। हिंदी कहानी विधा के विकास क्रम में आधुनिक कहानी जहाँ खड़ी है ये कहानियाँ उससे कुछ भिन्न हैं। ये कहानियाँ वास्तविक पात्रों और घटनाओं के ताने-बाने से निर्मित होने के कारण जीवन के रंगों और सुगन्धों से सराबोर हैं। इनका कथाकार कहीं दूर से घटनाओं को देख-परख-निरख कर उनपर प्रकाश नहीं डालता अपितु स्वयं इनका अभिन्न अंग होकर पाठक को इनका साक्षी होने का अवसर देता है। भले ही समस्त और हर एक घटनाएँ उसके अपने जीवन में न घटी हुई हो किन्तु उसके अपने परिवेश में कहीं न कहीं, किसी न किसी के साथ घटी हैं उन पर पठनीयता, रोचकता, कल्पनाशक्ति और शैली का मुलम्मा चढ़ जाने के बाद भी उनकी यथार्थता या प्रामाणिकता भंग नहीं होती ।
जिजीविषा शीर्षक को सार्थक करती इन कहानियों में जीवन के विविध रंग, पात्रों - घटनाओं के माध्यम से सामने आना स्वाभविक है, विशेष यह है कि कहीं भी आस्था पर अनास्था की जय नहीं होती, पूरी तरह जमीनी होने के बाद भी ये कहानियाँ अशुभ पर चुभ के वर्चस्व को स्थापित करती हैं। डॉ. नीलांजना पाठक ने ठीक ही कहा है- 'इन कहानियों में स्थितियों के जो नाटकीय विन्यास और मोड़ हैं वे पढ़नेवालों को इन जीवंत अनुभावोब में भागीदार बनाने की क्षमता लिये हैं। ये कथाएँ दिलो-दिमाग में एक हलचल पैदा करती हैं, नसीहत देती हैं, तमीज सिखाती हैं, सोई चेतना को जाग्रत करती हैं तथा विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं।'
जिजीविषा की लगभग सभी कहानियाँ नारी चरित्रों तथा नारी समस्याओं पर केन्द्रित हैं तथापि इनमें कहीं भी दिशाहीन नारी विमर्ष, नारी-पुरुष पार्थक्य, पुरुषों पर अतिरेकी दोषारोपण अथवा परिवारों को क्षति पहुँचाती नारी स्वातंत्र्य की झलक नहीं है। कहानीकार की रचनात्मक सोच स्त्री चरित्रों के माध्यम से उनकी समस्याओं, बाधाओं, संकोचों, कमियों, खूबियों, जीवत तथा सहनशीलता से युक्त ऐसे चरित्रों को गढ़ती है जो पाठकों के लिए पथ प्रदर्शक हो सकते हैं। असहिष्णुता का ढोल पीटते इस समय में सहिष्णुता की सुगन्धित अगरु बत्तियाँ जलाता यह संग्रह नारी को बला और अबला की छवि से मुक्त कर सबल और सुबला के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
'पुनर्नवा' की कादम्बिनी और नव्या, 'स्वयंसिद्धा' की निरमला, 'ऊष्मा अपनत्व की' की अदिति और कल्याणी ऐसे चरित्र है जो बाधाओं को जय करने के साथ स्वमूल्यांकन और स्वसुधार के सोपानों से स्वसिद्धि के लक्ष्य को वरे बिना रुकते नहीं। 'कक्का जू' का मानस उदात्त जीवन-मूल्यों को ध्वस्त कर उन पर स्वस्वार्थों का ताश-महल खड़ी करती आत्मकेंद्रित नयी पीढ़ी की बानगी पेश करता है। अधम चाकरी भीख निदान की कहावत को सत्य सिद्ध करती 'खामियाज़ा' कहानी में स्त्रियों में नवचेतना जगाती संगीता के प्रयासों का दुष्परिणाम उसके पति के अकारण स्थानान्तारण के रूप में सामने आता है। 'बीरबहूटी' जीव-जंतुओं को ग्रास बनाती मानव की अमानवीयता पर केन्द्रित कहानी है। 'या अल्लाह' पुत्र की चाह में नारियों पर होते जुल्मो-सितम का ऐसा बयान है जिसमें नायिका नुजहत की पीड़ा पाठक का अपना दर्द बन जाता है। 'प्रीति पुरातन लखइ न कोई' के वृद्ध दम्पत्ति का देहातीत अनुराग दैहिक संबंधों को कपड़ों की तरह ओढ़ते-बिछाते युवाओं के लिए भले ही कपोल कल्पना हो किन्तु भारतीय संस्कृति के सनातन जवान मूल्यों से यत्किंचित परिचित पाठक इसमें अपने लिये एक लक्ष्य पा सकता है।
संग्रह की शीर्षक कथा 'जिजीविषा' कैंसरग्रस्त सुधाजी की निराशा के आशा में बदलने की कहानी है। कहूँ क्या आस निरास भई के सर्वथा विपरीत यह कहानी मौत के मुंह में जिंदगी के गीत गाने का आव्हान करती है। अतीत की विरासत किस तरह संबल देती है, यह इस कहानी के माध्यम से जाना जा सकता है, आवश्यकता द्रितिकों बदलने की है। भूमिका लेख में डॉ. इला घोष ने कथाकार की सबसे बड़ी सफलता उस परिवेश की सृष्टि करने को मन है जहाँ से ये कथाएँ ली गयी हैं। मेरा नम्र मत है कि परिवेश निस्संदेह कथाओं की पृष्ठभूमि को निस्संदेह जीवंत करता है किन्तु परिवेश की जीवन्तता कथाकार का साध्य नहीं साधन मात्र होती है। कथाकार का लक्ष्य तो परिवेश, घटनाओं और पात्रों के समन्वय से विसंगतियों को इंगित कर सुसंगतियों के स्रुअज का सन्देश देना होता है और जिजीविषा की कहानियाँ इसमें समर्थ हैं।
सांस्कृतिक-शैक्षणिक वैभव संपन्न कायस्थ परिवार की पृष्ठभूमि ने सुमन जी को रस्मो-रिवाज में अन्तर्निहित जीवन मूल्यों की समझ, विशद शब्द भण्डार, परिमार्जित भाषा तथा अन्यत्र प्रचलित रीति-नीतियों को ग्रहण करने का औदार्य प्रदान किया है। इसलिए इन कथाओं में विविध भाषा-भाषियों,विविध धार्मिक आस्थाओं, विविध मान्यताओं तथा विविध जीवन शैलियों का समन्वय हो सका है। सुमन जी की कहन पद्यात्मक गद्य की तरह पाठक को बाँधे रख सकने में समर्थ है। किसी रचनाकार को प्रथम प्रयास में ही ऐसी परिपक्व कृति दे पाने के लिये साधुवाद न देना कृपणता होगी।
*
समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
***

पुरोवाक :

यह बगुला मन - शब्द शब्द कंचन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
गीति वृक्ष पर गीत शाखाएँ और नवगीत टहनियाँ निरंतर बढ़ रही हैं। कथ्य कलियाँ, भाव पंखुड़ियाँ, रस सुरभि, अलंकार कुसुम, बिंब पत्ते, रूपक भ्रमर गीत-नवगीत दोनों के अभिन्न अंग हैं। गीति काव्य ने आदि मानव द्वारा वाक् का प्रयोग सीखने के साथ ही जन्म लिया। सलिल-प्रवाह की कलकल, पंछियों का कलरव, मेघ का गर्जन, आदि में ध्वनि के आरोह-अवरोह को देख-सुनकर मानव ने उस उच्चार के माध्यम से संदेश देते-देते भावाभिव्यक्ति कर लोरी के रूप में माँ की ममता शिशु तक पहुँचाई। लिपि के विकास के साथ उच्चार-लय और अर्थ के ताल-मेल को अंकित कर दुबारा पढ़ना-समझना संभव हुआ, साथ ही लंबे संदेश और गीत भी लिखे जा सके। आदिवासी समाजों से आज भी आरंभिक काव्य रचनाएँ सुनी जा सकती हैं। क्रमश: भाषिक व्याकरण और पिंगल के विकास के साथ गद्य-पद्य का वर्गीकरण हुआ। वैदिक संस्कृत ऋचाओं में विद्वानों द्वारा विशिष्ट ध्वनि में गाए जा सकनेवाले छंद व्याप्त हैं। विविध भाषाओँ में गीति काव्य का विकास होता रहा और अब आधुनिक हिंदी में विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में सर्वाधिक छंदों (छंद प्रभाकरकार जगन्न्थ प्रसाद 'भानु' के अनुसार ९२,२७,७६३ मात्रिक छंद तथा १,३४,२१,७६२ वर्णिक छंद) द्वारा गीति-प्रकारों से सारस्वत कोष में श्रीवृद्धि की जा रही है। छंद प्रभाकर में ७०० से कुछ अधिक छंदों के उदाहरण व लक्षण वर्णित हैं। तत्पश्चात लगभग इतने ही नए छंदों का आविष्कार माँ शारदा ने मुझसे करा लिया है। सामान्यत: रचनाकार लगभग ५० छंदों का ही अधिक प्रयोग करते हैं। छंद वैविध्य ने गीतिकाव्य में भावाभिव्यक्ति को सरस, लालित्यपूर्ण बनाने में महती भूमिका का निर्वहन किया है। मुखड़ों और अंतरों द्वारा सृजित विशिष्ट काव्य रचनाएँ 'गीत' संज्ञा से अभिषिक्त की गई हैं।
गीतों को लक्ष्य पाठकवर्ग के आधार पर बाल गीत, युवा गीत आदि, कथ्य के आधार पर पर्व गीत, ऋतु गीत आदि, रस के आधार पर श्रृंगार गीत, हास्य गीत आदि, छंद के आधार पर दोहा गीत, माहिया गीत आदि, संस्कारों व रीतियों के आधार पर सोहर गीत, ज्योनार गीत, विदाई गीत आदि, ऋतु चक्र के आधार पर पावस गीत, फागुन गीत, कजरी गीत आदि में वर्गीकृत किया जाने के बाद 'नवगीत' संज्ञा की आवश्यकता क्या है? गीत-नवगीत में अंतर क्या है? जैसे प्रश्न गत ७ दशकों से पूछे और बूझे जा रहे हैं। अनेक सम्मेलनों में लंबे विमर्शों के बाद भी ये और इन जैसे प्रश्न 'पहले मुर्गी हुई या अंडा?' प्रश्न की तरह भूलभुलैया में उलझानेवाला है। अनेक गीतकार दोनों में कोई अंतर नहीं मानते। कुछ गीतकार दोनों को भिन्न विधा सिद्ध करने का दुराग्रह पाले हैं। मेरी राय में 'गीत / और नवगीत / नहीं हैं भारत-पकिस्तान।'
डॉ. शुभा श्रीवास्तव ने अपनी शोधपरक कृति गीत से नवगीत (आईएसबीएन: ८१-८९०७६-१३-२, वर्ष : २००७) में 'गीत' को रूढ़ माना है जो वैदिक ऋचाओं, लोक गीतों, साहित्यिक गीतों चित्रपटीय गीतों आदि सभी के लिए प्रयोग किया जाता है। शुभा जी ने साहित्यिक गीतों से नवगीत की उत्पत्ति प्रतिपादित की है।
नवगीत प्रणेता का श्रेय प्राप्त राजेंद्र प्रसाद सिंह के अनुसार इसकी (नवगीत की) प्रेरणा सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई और लोकगीतों की समृद्ध भारतीय परम्परा से है। हिंदी में तो वैसे महादेवी वर्मा, निराला, बच्चन, सुमन, गोपाल सिंह नेपाली आदि कवियों ने काफी सुंदर गीत लिखे हैं और गीत लेखन की धारा भले ही कम रही है पर कभी भी पूरी तरह रुकी नहीं है। वैसे रूढ़ अर्थ में नवगीत की औपचारिक शुरुआत नयी कविता के दौर में उसके समानांतर मानी जाती है। "नवगीत" एक यौगिक शब्द है जिसमें नव (नयी कविता) और गीत (गीत विधा) का समावेश है।' - देखिए हिन्दी साहित्य का अद्यतन इतिहास, डा. मोहन अवस्थी, पृ० ३०२।
भक्तिकालीन काव्य और नई कविता सिक्के के दो पहलुओं या चुंबक के दो ध्रुवों की तरह परस्पर भिन्न हैं। भक्तिकालीन रचनाओं से प्रेरित कोई रचना नई कविता से कैसे मिल सकती है?
सामान्यत: गीत और नवगीत में शिल्पगत साम्य और कथ्यगत वैषम्य दृष्टव्य है। नवगीत सम सामयिक कथ्य को समेटता है जबकि गीत का विस्तार त्रिकालीन है। आस्वादन के स्तर पर दोनों को विभाजित किया जा सकता है। छायावादी गीत आज लिखा जाए तो भी छायावादी गीत ही होगा, भक्तिकालीन काव्य रचना किसी भी काल में रची गई हो 'भक्ति साहित्य' में ही गणनीय होगी। नवगीत का उद्भव काल गत शताब्दी का उत्तरार्ध है।
निराला के अनेक गीत (बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु, वह तोड़ती पत्थर आदि) नवगीत हैं, जबकि वे नवगीत की स्थापना काल के पहले के हैं। गीत-नवगीत रूपाकार का अंतर दृष्टव्य है। गीत लय प्रधान है जबकि नवगीत कथ्य प्रधान है। गीत में छंदानुरूप लय साधते हुए कथ्य की प्रस्तुति की जाती है जबकि नवगीत में कथ्य के लिए छंद का रूपाकार बदला जा सकता है। रूपाकार बदलने में लय महत्वपूर्ण 'घटक' है। गीत-नवगीत के कथ्य की भाषा में भी अंतर् है। गीत में भाषिक प्रांजलता को सराहा जाता है जबकि नवगीत में आंचलिक टटकेपन को प्रशंसा मिलती है। गीत की आत्मा व्यक्ति केन्द्रित है, जबकि नवगीत की आत्मा समग्रता में है। गीत वायवी अथवा कल्पना प्रधान होता है जबकि नवगीत के कथ्य में यथार्थ प्रमुख होता है।
इस पृष्ठभूमि में हिंदी-निमाड़ी के वरिष्ठ कवि श्री सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' के गीत-नवगीत संग्रह 'यह बगुला मन' की रचनाएँ यह बताती हैं कि उनका रचनाकार गीत-नवगीत में अंतर को अंतर में स्थान न देकर साम्य को अधिक महत्व देता है। वह 'अनेकता में एकता' को भारतीय संस्कृति की विशेषता मानते हुए अपनी गीति रचनाओं में कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर गीत नदी में नवगीत लहरों को नाचते देखता-दिखता है। इसलिए गीत-नवगीत को एक ही संकलन में एक साथ समेटता है, न तो उन्हें अलग-अलग खंड में रखता है, न ही उनके लिए अलग-अलग संकलन बनाता है। मैं भी गीत-नवगीत को नीर-क्षीर की तरह मानने का पक्षधर हूँ। कृति का श्री गणेश भारतीय परंपरानुसार माँ शारदा, गुरु व पिताश्री के श्री चरणों में रचनार्पण कर हुआ है। सामाजिक समरसता का संदेश देती रचना 'समय मिले तो' तन्मय जी के प्रौढ़ चिंतन की बानगी सहेजे है-
समय मिले तो
आकर हमको पढ़ लो
हम बहुत सरल हैं।
मिलकर खोजें बहुत दिशाएँ
बंजर भू पर पुष्प खिलाएँ
जो अभिलाषित है वो पाएँ
कलुषित भाव
विसर्जित सारे कर लो
मन गंगा जल है।
'शोर' वर्तमान समय की गंभीर समस्या है। कवि तन्मय इस समस्या का समाधान 'मौन' में देखता है तथा वर्तमान विसंगति पर तीक्षण व्यंग्य करता है -
चलो! जरा कुछ देर स्वयं के
अंतर में मुखरित हो जाएँ
अपने मन को मौन सिखाएँ .....
.....बिन जाने सर्वज्ञ हो गए
बिन अध्ययन मर्मज्ञ हो गए
भाव शून्य, धुँधुआते अक्षर
बिन आहुति के यज्ञ हो गए
समिधा बने शब्द अन्तस के
गीत समर्पण के तब गाएँ।
समकालिक पारिस्थितिक वैषम्य पर तीक्ष्ण शब्द-प्रहार करता कवि कलम से तलवार का कार्य लेता है-
गर्जना गहन कर रहे उन्माद में
आदमी सहमा हुआ अवसाद में
टरटराते उछलते दादुर सभी
नशे में उन्मत्त अवसरवाद में
झींगुरों ने रात उत्सव में
अमरता-गान गाए।
चींटियों के पर निकल आए।
भौतिक उपलब्धि पाकर चौंधियाया मनुष्य, आत्मिक उन्नयन की देहरी पर पग रखना भी भूल गया है। इंगितों में युगीन वैषम्य को लांछित करता कवि, शालीनता की मर्यादा लाँघे बिना, श्रम की अवमानना करते समाज के कदाचारी मलेरिया के उन्मूलन हेतु शक्कर में लपेट कर कुनैन सेवन कराता है-
आत्ममुग्धता के भ्रम में
हम ऐसे बौराए
झाँका, कभी न भीतर
खुद को परख नहीं पाए.....
... श्रम से रिश्ता तोड़
साधना से है मुँह मोड़ा
स्तुतिगान कीर्ति-यश से
नित नाता है जोड़ा
सब की प्यास यही है
कौन किसे अब समझाए?
यांत्रिक जीवन की व्यस्तता में विवश साँसों का बोझ ढोता मनुष्य इतना अकेला है कि मन की बात कहना ही भूल गया है। विविध माध्यमों से जा कि उसे सुनते-सुनते ही जिंदगी चुक जाती है।
सब सुननेवाले हैं
कहनेवाला कहीं नहीं
अलग-अलग अंदाज़
हाथ में खाते और बही
आजकल साहित्य सृजन साधना नहीं, मन बहलाव का माध्यम मात्र है। अनुभूत को अभिव्यक्त करने परंपरा समाप्तप्राय है। अत्यधिक खाने के बाद पचाने के लिए अपच की औषधि लेकर डकारते हुए भुखमरी पर नवगीत लिखने के इस दौर में लेखन मन बहलाने के लिए खेलने की तरह है -
आओ आओ कविता खेलें
मन से या फिर बेमन ही से
एक-दूसरे को हम झेलें
कवि तन्मय कृपण समय बनिए को नरम दूब का रस चूसते देखते है। 'मदर इण्डिया' के 'लाला' और 'बिरजू' आज भी समाज में हैं -
बरगद के नीचे मुरझाती
सुस्त हरी धनिया
चूस रहा रस नर्म दूब का
कृपण समय बनिया
'सीधी उँगली घी नहीं निकलता' मुहावरे का सटीक प्रयोग करते हुए नवगीतकार जनगण का करते हुए आशा रखता है कि ऊपर से नीचे तक गोलमाल करनेवालों पतन होगा-
घी निकालना है तो प्यारे
ऊँगली टेढ़ी कर
... सीधे-सादे लोगों की
कीमत, क्या है मोल
ऊपर से नीचे तक
नीचे से ऊपर तक पोल
किन्तु जगा अब देश
ढहेंगे इनके छत्र-चँवर
विसंगतियों चक्रव्यूह में विवश आदमी, जनतंत्र में खिलौना बनकर रह जाए, इससे अधिक बुरा और क्या हो सकता है? तन्मय जी मुखौटे लगाए व्यवस्था की सच्चाई उद्घाटित करते हुए, जन सामान्य को व्यंजना में फसल के बीच खरपतवार की उपमा देते हैं -
हम चाबी से चलनेवाले मात्र खिलौने हैं
बाहर से हैं भव्य किन्तु अंदर से बौने हैं
बीच फसल के पनप रहे हम खरपतवारों से
पहिन मुखौटे लगा लिए हैं चित्र दीवारों पे
भीतर से भेड़िए किन्तु बाहर मृग छौने हैं
जनतंत्र विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका हैं। जब ये तीनों आम आदमी दर्द दूर न कर सकें तो जनमत की अभिव्यक्ति का माध्यम पत्रकारिता होती है। इसीलिए उसे लोकतंत्र चौथा खंबा कहा जाता है। वर्तमान समय की विडंबना यह है कि यह चौथा खंबा भी धनपतियों के हाथ का कैदी होकर अपनी विश्वसनीयता गँवा चुका है। तन्मय जी इस परिस्थिति पर सटीक शब्द-प्रहार करते हैं।
पढ़ने में आया है कि अब
नहीं किसी को कोई डर है
अख़बारों में छपी खबर है
भूखे कोई नहीं रहेंगे
खुशियों से दामन भर देंगे
करते रहो नमन हमको तुम
सारी विपदाएँ हर लेंगे
डोंडी पीट रहा है हाकिम
नगर-नगर है।
माँग और पूर्ति का अर्थशास्त्रीय सिद्धांत भूख नहीं बख्शता। वह जानता है 'भूखे' को 'नंगा' करना बहुत आसान है। 'नंगई' के शौक़ीन तन के खरीददार बनकर भूखों का शिकार करने से चूकते, नैतिकता तोड़ने के अलावा अन्य राह ही नहीं रह जाती -
भूख जहाँ है वहीं
खड़ा हो जाता बाजार।
लगने लगीं बोलियाँ भी
तन की, मन की
सरे राह बिकती है
पगड़ी निर्धन की
नैतिकता का नहीं बचा है
अब कोई आधार
कबीर बकौल डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी 'भाषा के डिक्टेटर' होने के साथ-साथ सामाजिक विडंबनाओं के नासूर की शल्यक्रिया करने में माहिर शल्यज्ञ भी हैं। साखियों का 'साधो' गाँधी जी का 'आखिरी आदमी' तन्मय नवगीत नायक भी है। 'साधो' के माध्यम से तन्मय जी भीष्म-द्रोण जैसे विवश किरदारों की असलियत उद्घाटित करते हैं -
और कब तक
तुम रहोगे मौन साधो?
शब्द को स्वर, तुम नहीं तो
और देगा कौन साधो?
मनुजता पर लगे हैं प्रतिबंध
जिह्वा है सिली
जब करि कोशिश
कहीं संकेत करने की
उधर से
भृकुटियां टेढ़ी मिलीं
है विवश चुपचाप बैठे
भीष्म-गुरुवर द्रोण साधो
'साहित्य समाज का दर्पण' मात्र नहीं होता। 'साहित्य समाज का प्रतिबिंब और भविष्य' भी होता है। कहा जाता है 'अंधा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है।' वर्तमान संक्रांति काल की त्रासदी यह है कि 'साहित्य सृजन' भी मनबहलाव का शगल बनकर रह गया है। सुरेश तन्मय इस विरूपता को नहीं बख्शते, उस पर शब्दाघात करते हैं-
फुर्सत में हो तो आओ
अब तुकबंदियाँ करें ....
... शब्दों की धींगा मस्ती में
शब्द हुए बहरे ....
... अध्ययन चिंतन और मनन पर
लगे हुए पहरे ....
तन्मय जी का नवगीतकार जानता है 'रात भर का है मेहमां अँधेरा, किसके रोके रुका है सवेरा', वह आश्वस्त है कि 'हर 'मावस के बाद पूर्णिमा लाती उजियारा', इसीलिये कहता है-
बाढ़ है ये
फिर नदी निर्मल बहेगी
बोझ आखिर क्यों
कहाँ तक ये सहेगी?....
.... लक्ष्य को पाने
सतत चलती रहेगी।
'यह बगुला मन' के गीत-नवगीत बीमार समय की नब्ज़ टटोलते हुए कुशल वैद्य की तरह रोग की पड़ताल मात्र नहीं करते अपितु रोग के निवारण के साथ-साथ रोगी में नवाशा का संचार भी करते हैं। तन्मय के नवगीत छिद्रान्वेषण मात्र नहीं हैं। वे 'कीचड़ उछालने', 'कटघरे में खड़ा करने' या 'निशाना बनाने' के लिए नहीं लिखते, उनका लक्ष्य रात के गर्भ से भोर के प्रकाश को उगाना है। तन्मय के नवगीतों में अन्तर्निहित आशावादिता उन्हें अन्यों से अलग और सार्थक बनाती है। कथ्य की आवश्यकतानुसार अमिधा,व्यंजना और लक्षणा का उपयोग करते हुए, 'कम लिखे से अधिक समझना' की लोक परंपरा निर्वहन करते हुए, मिथकों, बिंबों, प्रतीकों, रूपकों और उपमाओं से तन्मय अपनी बात इस तरह कहते हैं कि पाठक के मन छू सके। ये गीत-नवगीत आश्वस्त करते हैं कि गीति साहित्य की धार अकुंठ है और वह युगीन त्रासदियों से पीड़ित मानव-मन को बेपीर करने में समर्थ है।
२९-१-२०२१
***
संस्कृत में नईं पढ़ो, हिंदी में नईं पढ़ो तो लो
बुंदेली में पढ़ लो महाभारत
- मोहन शशि
*
"साँच खों आँच का" पे जा बात सोई मन सें निकारें नईं निकरे के ए कलजुग में "साँची खों फाँसी" की दसा देखत करेजा धक् सें रै जात। बे दिन सोई लद गए जब 'बातहिं हाथी पाइए, बातहिं हाथी पांव' को डंका पिटत रओ। तुम लगे रओ 'कर्म खों धर्म मानकें', लगात रओ समंदर में गहरे-गहरे गोता, खोज-खोजकें लात रओ एक सें बढ़ कें एक मोेती, पै जा जान लो और मान लो कि आपके मोती रहे आएं आपखों अनमोल, ए तिकड़मबाजी के बजार में नईं लगने उनको कोई मोल। तमगा और इनाम उनके नाम जौन की अच्छी-खासी हे पहचान, भलई कछू लिखो होय के कोई गरीब साहित्यकार पे 'पेट की आगी बुझाबे' के एहसान खों लाद 'गाँव तोरो, नांव मोरो कर लओ होय। 'कऊँ ईगी बरे, काऊ को चूल्हा सदे, जाए भाड़ में, जे धुन के धुनी, आदमी कछू अलगई किसम के होत, हमीर सो हठ ठानो तो फिर नई मानी, काऊ की नई मानी। ऐंसई में से एक हैं अपने भैया डॉ. मुरारीलाल जी खरे। जा जान लो के बुंदेली पे मनसा वाचा कर्मणा से समर्पित, प्रन दए पड़े।
भैया!'हात कंगन खों आरसी का' खुदई देख लो। २०१३ में बुंदेली रामायण, २०१५ में 'शरशैया पर भीष्म पितामह' और बुंदेली में और भौत सों काम करके बी नें थके, नें रुके और धर पटको बुंदेली में संछिप्त महाभारत काव्य 'हस्तिनापुर की बिथा-कथा।'
डॉ.एम.एल.खरे नें ९ अध्याय में रचो है 'हस्तिनापुर की बिथा कथा।' पैले अध्याय में हस्तिनापुर के राजबंस को परिचय कुरुबंसी महाराज सांतनु से शुरू करके महाभारत के युद्ध के बाद तक के वर्णन में साहित्य के खरे हस्ताक्छर डॉ. खरे ने एक-एक पद मेम ऐसे ऐसे शबिद चित्र उकेरे हैं के पढ़बे के साथई साथ एक-एक दृष्य आंखन में उतरत जात और लगत कि सिनेमा घर में बैठे महाभारत आय देख रअ। कवि जी नें कही हे-
"गरब करतते अपने बल को जो, वे रण में मर-खप गए
व्द व्यास आँखन देखी जा। बिथा कथा लिखकें धर गए"
सांतनु-गंगा मिलन, देवव्रत (भीष्म) जन्म, सत्यवती-सान्तनु ब्याव, चित्रांगद-विचित्रवीर्य जन्म, कासीराज की कन्याओं अंबा, अंबिका, अंबालिका को हरण, अंबिका और अंबालिका के छेत्रज पुत्र धृतराष्ट्र और पाण्डु जनमें, धृतराष्ट्र-गांधारी और पाण्डु-कुंती को ब्याव, कर्ण के जन्म की कथा, माद्री-पाण्डु ब्याव, सौ और पाँच को जनम, पाण्डु मरण और फिर दुर्योधन-शकुनि के षड़यंत्र पे षड़यंत्र -
"भई मिसकौट सकुनि मामा, दुर्योधन, कर्ण, दुसासन में
जिअत जरा दए जाएँ पांडव, ठैरा लाख के भवन में"
कुंती रे साथ पांडवों के मरबे को शोक मना दुर्योधन को युवराज के रूप में का भओ के फिर तो नईं धरे ओने धरती पे पाँव। उते पांडवों को बनों में भटकवे से लेके द्रौपदी स्वयंवर और राज के बटबारे को बरनन खरे जी ने ऐसो करो कि पढ़तई बनत। बटबारे में धृतराष्ट्र नें कौरवों खों सजो-सजाओ हस्तिनापुर तो 'एक पांत दो भांत' पांडवों खों ऊबड़-खाबड़ जंगल भरो खांडवप्रस्थ देवे के बरनन में कविवर डॉ. खरे जा बताबे में नई चूके कि धृतराष्ट्र ने ुांडवों पे दिखावटी प्रेंम दरसाओ -
"और युधिष्ठिर लें बोले दै रए तुमें हम आधो राज
चले खांडवप्रस्थ जाव तुम, करो उते अच्छे सें राज"
पांडवों पे कृष्ण कृपा, विश्वकर्मा द्वारा इंद्रप्रस्थ नगरी को अद्भुत निर्माण फिर राजसूय यग्य और दरवाजा से दुर्योधन को टकरावे पे -
"जो सब देखीती पांचाली, अपने छज्जे पे आकें
'अंधे को बेटा अंधा' जो कहकें हँसी ठिलठिलाकें"
जा जान लो के महायुद्ध के बीजा इतई पर गए। चौथो अध्याय 'छल को खेल और पांडव बनबास' अब जा दान लो कि कहतई नई बनत। ऐसो सजीव बरनन के का कहिए। ऐमे द्रौपदी चीरहरन पढ़त गुस्सा आत तो कई जग्घा तरैंया लो भर आत। उते त्रेता में सीता मैया संगे और इते द्वापर में द्रौपती संगे जो सब नें होतो तो सायत कलजुग में बहुओं-बिटिओं के साथ और अत्याचार के रोज-रोज, नए-नए कलंक नें लगते, हर एक निर्भया निर्भय रहकें अपनी जिंदगी की नैया खेती। पे विधि के विधान की बलिहारी, बेटा से बेटी भली होबे पे बी अत्याचार की सिकार हो रई हे नारी।
पांचवें अध्याय में पांडवों के अग्यातवास में कीचक वध वरनन पढ़तई बनत। फिर का खूब घालो उत्तरामअभिमन्यु रो ब्याव। अग्सातवास खतम होवे पे सोच-विचार --
"नई मानें दुर्सोधन तो हम करें युद्ध की तैयारी
काम सांति सें निकर जाए तो काए होय मारामारी"
दुर्योधन तो दुर्योधन, स्वार्थी, हठी, घमंडी। ओने तो दो टूक और साफ - साफ कही, ओहे कवि खरे जी ने अपने बुंदेली बोलन में कछू ई भाँत ढालो -
"उत्तर मिलो पांच गांव की बात भूल पांडव जाएं
बिना युद्ध हम भूमि सुई की नोंक बराबर ना दै पाएं"
आनंदकंद सच्चिदानंद भगवान श्रीकृष्णचंद्र ने बहुतई कोसस करी के युद्ध टल जावे पे दुर्योधन टस से मस नें भओ और तब पाण्डव शिविर में लौट कें किशन जू नें कही -
"कृष्ण गए उपलंब्य ओर बोले दुर्योधन हे अड़ियल
करवाओ सेनाएं कूच सब जतन सांति के भए असफल"
कवि ने युद्ध की तैयारियों को जो बरनन करो वो तो पढ़बे जोग हेई, से सातवे अध्याय में पितामह की अगुआई में महायुद्ध (भाग १) ओर आठवें अध्याय में आखिरी आठ दिन महायुद्ध (भाग २) रो बखान पढ़त उके तो महाराद धृतराष्ट्र खों संजय जी सुनात रए जेहे आदिकवि वेदव्यास नें बखानो ओर प्रथम पूज्य भगवान गनेस जू ने लिखो , पे इते बुंदेली में ओ महायुद्ध पे जब डॉ. एम. एल. खरे ने बुंदेली में कलम चलाई तो कहे बिना परे ने रहाई के ओ महायुद्ध की तिल - तिल की घटना पढ़त - पढ़त आंखन के दोरन सें दिल में समाई । महायुद्ध को बड़ो सटीक हरनन करो हे कवि डॉ. खरे नें । कछू ऐंसो के पढ़तई बनत।
महायुद्ध के बाद नौवें अध्याय में अश्वत्थामा की घनघोर दुष्टता, सजा और श्राप को बरनन सोई नोंनो भओ। फिर पांडवों को हस्तिनापुर आवो, युधिष्ठिर को अनमनोयन, पितामह भीष्म से ग्यान, अश्वमेध, धृतराष्ट्र को गांधारी, कुंती, संजय ओर विदुर संग बनगमन को बरनन करत कविजी नें का खूब कही -
"जी पै कृपा कृष्ण की होय, बाको अहित कभऊँ नईं होत
दुख के दिन कट जात ओर अंत में जै सच्चे की होत"
समर्थ हस्ताक्षर कविवर डॉ. मुरारीलाल खरे ने बुंदेली में 'हस्तिनापुर की बिथा कथा' बड़ी लगन, निष्ठा और अध्ययन मनन चिंतन के साथ बड़ी मेंहनत सें लिखी। बुंदेली बोली - बानी के प्रेमिन के साथ हुंदेलखंड पे जे उनको जो एक बड़ो और सराहनीय उपकार है । ए किताब खें उठाके जो पढ़वो सुरू करहे वो ५ + १०३४ पद जब पूरे पढ़ लेहे तबई दम लेहे। डूबके पढ़हे तो ओहे ऐसो लगहे जेंसे बो पढ़बे के साथ - साथ ओ घटनाक्रम सें साक्षात्कार कर रहो।
कवि नें 'अपनी बात' में खुदई कही कि उन्हें 'गागर में सागर' भरबे के लानें कई प्रसंग छोड़नें पड़े तो हमें सोई बिस्तार सें बचबे कई प्रसंगन सें मोह त्यागनें पड़ो। बुंदेलों खों बुंदेली में संछेप में महाभारत सहज में उपलब्ध कराबे के लानें डॉ. एम. एल. खरे जी खों बहोतई बहोत बधाइयां तथा उनके स्वस्थ सुखी समृद्ध यशस्वी मंगल भविष्य के लानें मंगलमय सें अनगिनत मंगल कामनाएं। एक शाश्वत, सार्थक ओर अमूल्य रचना के प्रकासन में सहयोग करने ओर बुंदेली में भूमिका लिखाबे के लानें प्यारे भैया आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' खों साधुवाद।

२९-१-२०२० वन्दे।
मोहन शशि
कवि, पत्रकार, सूत्रधार मिलन

***
आंकिक उपमान और छंद शास्त्र :
*
छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, बताइये।
क्या नवगीतों में इन आंकिक प्रतिमानों का उपयोग इन अर्थों में किया जाना उचित होगा?
*
एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,
इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत, एकत्व,
दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,
महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,
तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि: पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: सत्व, रजस, तम। दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म/गर्मी।मामा:कंस, शकुनि, माहुल। व्रत: नित्य, नैमित्तिक, काम्य / मानस, कायिक, वाचिक।
तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,
त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज / त्रिकोण तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम, द्वारिका। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद। आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: करौंदा (दस्त, ज्वर, पित्त), शहतूत (लू, कृमि, रक्त, सूजन),। अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्व् : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।, तिथि: नंदा, भद्रा, विजया, ऋक्ता, पूर्ण वराह मिहिर। गज
इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र। वृत: एक भुक्त एक समय आहार, अयाचित बिना मांगे जो मिले ग्रहण करना, मितभुक निर्धारित अल्प मात्रा १० ग्रास लेना, चांद्रायण तिथि अनुसार १५ से घटते हुए १ ग्रास लें, प्राजापत्य ३-३ दिन क्रमश: २२, २६, २४ ग्रास अंतिम ३ दिन निराहार।
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र। षडपर्व: कृषि,ऋतु, कामना, राष्ट्रीय, जयंती, श्रद्धांजलि।
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: गज ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰] [स्त्री॰ गजी]
गज = १. हाथी, २. गजासुर राक्षस(महिषासुर का पुत्र), ३. एक बंदर जो रामचंद्र की सेना में था, ४. आठ की संख्या, ५. मकान की नींच या पुश्ता, ६. ज्योतिष में नक्षत्रों की वीथियों में से एक, ७. लंबाई नापने की एक प्राचीन माप जो साधारणतः ३० अंगुल की होती थी [को॰] । गज २ संज्ञा पुं॰ [फा़॰ गज]
१. लंबाई नापने की एक माप जो सोलह गिरह या तीन फुट की होती है । विशेष - गज कई प्रकार का होता है जिससे कपड़ा, जमीन, लकड़ी, दीवार आदि नापी जाती है । पुराने समय से भिन्न भिन्नः प्रांतों तथा भिन्न भिन्न व्यवसायों में भिन्न भिन्न माप के गज प्रचलित थे और उनके नाम भी अलग अलग थे । उनका प्रचार अभी भी है । सरकारी गज ३ फुट या ३६ इंच का होता है । कपड़ा नापने का गज प्रायः लोहे की छड़ या लकड़ी का होता है जिसमें १६ गिरहें होती हैं और चार चार गिरहों पर चौपाटे का चिह्न होता है । कोई कोई २० गिरह का भी होती है । राजगीरों का गज लकड़ी का होता है और उसमें १४ तसू होते हैं । एक एक इंच के बराबर तसू होता है । यही गज बढ़ई भी काम में लाते हैं । अब इसकी जगह विशेषकर विलायती दो फुटे से काम लिया जाता है । दर्जियों का गज कपड़े के फीते का होता है, जिसमें गिरह के चिह्न बने होते हैं । मुहा॰—गजभर = बनियों की बोलचाल में एक रुपए में सोलह सेर का भाव । गज भर की छाती होना = बहुत प्रसन्नता या संमान का बोध करना । गज भर की जबान होना = बड़बोला होना । उ॰—क्यों जान के दुश्मन हुए हो, इतनी सी जान गज भर की जबान—फिसाना॰, भा॰३, पृ॰ २१९ ।
२. वह पतली लकड़ी जो बैलगाड़ी के पाहिए में मूँड़ी से पुट्ठी तक लगाई जाती है । विशेष—यह आरे से पतली होती है और मूँड़ी के अंदर आरे को छेदकर लगाई जाती है । यह पुट्ठी और औरों को मूड़ी में जकड़े रहती है । गज चार होते हैं ।
३. लोहे या लकड़ी की वह छड़ जिससे पुराने ढंग की बंदूक में ठूसी जाती है । क्रि॰ प्र॰—करना ।
४. कमानी, जिससे सारंगी आदि बजाते हैं ।
५. एक प्रकार का तीर जिसमें पर और पैकान नहीं होता ।
६. लकड़ी की पटरी जो घोड़ियों के ऊपर रखी जाती है ।। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
नौ - दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
चतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह - तिथियाँ (प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।)
सोलह - षोडश मातृका: गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजय, जाया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, शांति, पुष्टि, धृति, तुष्टि, मातर, आत्म देवता। ब्रम्ह की सोलह कला: प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक, नाम।, चन्द्र कलाएं: अमृता, मंदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि, रति, धृति, ससिचिनी, चन्द्रिका, कांता, ज्योत्सना, श्री, प्रीती, अंगदा, पूर्ण, पूर्णामृता। १६ कलाओंवाले पुरुष के १६ गुण सुश्रुत शारीरिक से: सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्राण, अपान, उन्मेष, निमेष, बुद्धि, मन, संकल्प, विचारणा, स्मृति, विज्ञान, अध्यवसाय, विषय की उपलब्धि। विकारी तत्व: ५ ज्ञानेंद्रिय, ५ कर्मेंद्रिय तथा मन। संस्कार: गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह, अंत्येष्टि। श्रृंगार: ।
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ। २४ मिनिट = १ घड़ी।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।
छब्बीस - राशि-रत्न (१४-१२ =२६)
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
अड़तालीस - १ मुहूर्त = ४८ मिनिट या २ घड़ी।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
*
३३ कोटि देवता
*
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।
***
लघुकथा
छाया
*
गणतंत्र दिवस, देशभक्ति का ज्वार।
भ्रष्टाचार के आरोपों से- घिरा अफसर, मत खरीदकर चुनाव जीता नेता, जमाखोर अपराधी, चरित्रहीन धर्माचार्य और घटिया काम कर रहा ठेकेदार अपना-अपना उल्लू सीधा कर तिरंगे को सलाम कर रहे थे।
आसमान में उड़ रहा तिरंगा निहार रहा था जवान और किसान को जो सलाम नहीं, अपना काम कर रहे थे।
उन्हें देख तिरंगे का मन भर आया, आसमान से बोला "जब तक पसीने की हरियाली, बलिदान की केसरिया क्यारी समय चक्र के साथ है तब तक मुझे कोई झुका नहीं सकता।
सहमत होता हुआ कपसीला बादल तीनों पर कर रहा था छाया।
२९-१-२०१९
***
विमर्श - एक प्रश्न-उत्तर
संध्या सिंह-
न इतिहास के गौरव से प्रभावित न भविष्य के पतन से आशंकित ...... तटस्थ हो कर आप सबसे एक प्रश्न ;;;कितने लोग बदलती विचारधारा के परिपेक्ष्य में जौहर को आज भी वाजिब कहेंगे ...और महिमामंडित करेंगे .. ...और स्त्री को अस्मिता पर हमले के समय जौहर का सुझाव देंगे ?????
संजीव-
जौहर ऐसा साहस है जो हर कोई नहीं कर सकता। जौहर का सती प्रथा से कोई संबंध नहीं था।
जौहर विधर्मी स्वदेशी सेनाओं की पराजय के बाद शत्रुओं के हाथों में पड़कर बलात्कृत होने से बचने के लिए पराजित सैनिकों की पत्नियों द्वारा स्वेच्छा से किया जाता था जबकि पति की मृत्यु होने पर पत्नि (सब नहीं, अपवादस्वरूप) स्वेच्छा से प्राण त्याग कर सती होती थी। दोनों में कोई समानता नहीं है।
स्मरण हो जौहर अकेली पद्मिनी ने नहीं किया था। एक नारी के सम्मान पर आघात का प्रतिकार १५००० नारियों ने आत्मदाह कर किया जबकि उनके जीवन साथी लड़ते-लड़ते मर गए थे। ऐसा वीरोचित उदाहरण अन्य नहीं है। जब कोई अन्य उपाय शेष न रहे तब मानवीय अस्मिता और आत्म-गरिमा खोकर जीने से बेहतर आत्माहुति होती है। इसमें कोई संदेह नहीं है। ऐसे भी लाखों भारतीय स्त्री-पुरुष हैं जिन्होंने मुग़ल आक्रान्ताओं के सामने घुटने टेक दिए और आज के मुसलमानों को जन्म दिया जो आज भी भारत नहीं मक्का-मदीना को तीर्थ मानते हैं, जन गण मन गाने से परहेज करते हैं। ऐसे प्रसंगों पर इस तरह के प्रश्न जो पृष्ठभूमि से हटकर हों, आहत करते हैं। एक संवेदनशील विदुषी से यह अपेक्षा नहीं होती। प्रश्न ऐसा हो जो पूर्ण घटना और चरित्रों के साथ न्याय करे।
जान की बजी स्त्रियां जौहर में बाद लगाती थीं, उनके पहके पुरुष साका (अंतिम साँस तक युद्ध कर प्राणोत्सर्ग करना)करते थे। पुरुषों के शहीद हो जाने का समाचार मिलते ही स्त्रियाँ (सब नहीं, कुछ) जौहर कर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर सम्मान बचाती थीं।

आज भी यदि ऐसी परिस्थिति बनेगी तो ऐसा ही किया जाना उचित होगा। परिस्थिति विशेष में कोई अन्य मार्ग न रहने पर प्राण को दाँव पर लगाना बलिदान होता है। जौहर करनेवाली रानी पद्मिनी हों, या देश कि आज़ादी के लिए प्राण गँवानेवाले क्रांतिकारी या भ्रष्टाचार मिटाने हेतु आमरण अनशन करनेवाले अन्ना सब का कार्य अप्रतिम और अनुकरणीय हैं।
२९-१-२०१७
***

शनिवार, 24 अक्टूबर 2020

पुरोवाक बालगीत सुरेश तन्मय

पुरोवाक :
एक गीत गायें हम : देश नव बनायें हम 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
बच्चे मनुष्य का भविष्य और देश के निर्माता हैं। शिशु और बाल साहित्य बाल मन को संस्कारित कर आजीवन बच्चे के साथ रहकर कालजयी हो जाता है। यह बाल-मन की मिट्टी में सदाचार के बीज को सद्भाव से सींचकर, सहिष्णुता के बेल में सहयोग के पुष्प और सहकार के फल खिलाता है। भाषा संस्कार की वाहक है। बाल गीतों की भाषा सहज, सरल, स्पष्ट, संक्षिप्त, सरस तथा सारगर्भित होना आवश्यक है। मुहावरेदार भाषा में लिखे गए लयबद्ध गीत बालक को खेल-खेल में कंठस्थ हो जाते हैं। ऐसे गीतों को दोहराकर बच्चे सही उच्चारण करने, नए-नए शब्द सीखने, सही भाषा बोलने प्रस्तुत करने के साथ पारस्परिक सद्भाव स्थापित कर सद्भाव और सहिष्णुता के साथ जीना सीखते हैं। सुसंस्कारित बच्चे कठिन से कठिन परिस्थिति में भी गलत राह पर नहीं जाते। दीन-हीन ही नहीं, समृद्ध और संपन्न परिवारों के बच्चे भी गलत राह पर जाने लगें तो स्पष्ट है कि उन्हें बाल्यकाल में अच्छे संस्कार अर्थात  अच्छे गीत नहीं मिले। 
माँ की लोरियों में मिली ममता में पला-पूसा बच्चा चलना सीखते ही बाह्य जगत के संपर्क में आने लगता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चा पाँच वर्ष की आयु तक इतना सीख लेता है जितना वह शेष पूरी उम्र में नहीं सीखता। स्पष्ट है कि शिशु गीतों और बाल्य गीतों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण और बच्चे के पूरे जीवन को प्रभावित करने वाली होती है। वर्तमान द्रुत वैज्ञानिक प्रगति और आर्थिक मारामारी के संक्रांति काल में मनुष्य का प्रकृति के साथ संबंध छिन्न-भिन्न हो रहा है। शहरों में मनुष्य एकाकी और आत्मकेंद्रित होता जा रहा है। सबके साथ घुलने-मिलने की प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है। शिशु गीत, बाल गीत आदि बच्चों में सामुदायिक दायित्व और पारस्परिक समझ का विकास करते हैं। 
हिंदी और निमाड़ी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' की ये रचनाएँ बालकों को गुदगुदाने, रिझाने, हँसाने, मन बहलाने, नई जानकारियाँ देने और एक साथ हिलमिलकर रहने का संस्कार उत्पन्न करने में समर्थ हैं। ये गीत बाल मन में उचित-अनुचित, सदासद, भले-बुरे का भेद सनझाने की प्रवृत्ति विकसित करने में समर्थ हैं। तन्मय जी परम्परा के नाम पर अंधानुकरण और आधुनिकता के नाम पर जड़ों से दूर होने की दुष्प्रवृत्ति से दूर रहते हुए, बाल-मनोभावों को हुलसित-पुलकित करते हुए सही दिशा में बढ़ाने के प्रति सजग हैं। इन गीतों में सहज खिलंदड़ापन, निश्छल जिज्ञासा, भोले प्रश्न, सम्यक समाधान, सतरंगे सपने और अनगिन अरमान यत्र-तत्र गुँथे हुए हैं। 
हिंदी बाल साहित्य दो मिथ्या धारणाओं का शिकार है। पहली यह कि इसकी विशेष उपादेयता नहीं है तथा दूसरे यह कि इसे लिखना बहुत आसान है। वस्तुत:, बाल साहित्य लिखना फिल्मों में फ्लैश बैक लिखने की तरह है। वयस्क-प्रौढ़ मस्तिष्क को बचपन में ले जाकर गत को वर्तमान में जीने और आगत से आँखें मिलाने की तरह है। मजे की बात यह है कि दो भिन्न काल खण्डों को तीसरे काल खंड में जीकर बाल साहित्य की सर्जना की जाती है। तन्मय जी रस्सी पर चलते हुए नट की तरह कथ्य, भाव, रस के मध्य दुष्कर संतुलन सहजतापूर्वक स्थापित करते हुए सोद्देश्यता, सहजता और सरलता की त्रिवेणी में अवगाहन करा देते हैं। बाल साहित्य के समक्ष 'बचकाना साहित्य' न होने की कड़ी चुनौती होती है। तैत्तिरीयोपनिषद में 'रसो वै स:' कहकर जिस काव्यानंद को इंगित किया गया है वह तन्मय जी के इन बालगीतों में सहज प्राप्य है। तन्मय जी की बाल कविताएँ पढ़ना कथ्य, भाषा, भाव, रस, छंद. अलंकार, बिम्ब, प्रतीक आदि की लहरियों से लबालब नर्मदा में स्नान करने की तरह सुखद है। 
 'लें आशीषें' शीर्षक गीत में बच्चों को संस्कारित कर बड़ों का सम्मान करने का मनोभाव विकसित किया गया है-
रोज सवेरे बिस्तर से उठते ही 
प्रभु का ध्यान करें 
सभी बड़ों के छूकर चरण 
ह्रदय से उन्हें प्रणाम करें। 
माँ-बच्चे का नाता संसार में सर्वाधिक निकट संबंध है।  कई शब्द चित्र माँ की विविध छवियाँ उकेरते हैं- 
मीठी वाणी से मन मोहे 
मिश्री प्रेम दुलारी माँ 
*
खेले संग, तब जान-बूझकर 
खा जाती है गच्ची माँ 
*
हैं अनंत खुशियों की खान 
मेरी मम्मी बहुत महान 
*
नहीं भूलते हैं हम अब भी 
जो भी पाठ पढ़ाती मम्मी 
मम्मी के हाथों में रहता 
स्वाद है बड़ा कमाल 
*
'मम्मी जी ने डाँट पिलाई', 'मुनिया रानी', 'मेरी नानी', 'दादा जी के साथ-साथ में', 'अखबार और दादाजी' आदि रचनाएँ पारिवारिक संबंधों के जीवंत चित्र उपस्थित करती हैं। 
'स्कूल की तैयारी है', 'हमको भी स्कूल जाना है', 'मैं भी लेखक बन जाऊँगी', 'आलस से लड़', अक्षर ज्ञान बढ़ाएं', 'चलो चलें स्कूल', 'मिलकर करें पढ़ाई', 'स्कूल चलें', 'पढ़ें पढ़ाएँ' आदि गीतों में बाल मन को शिक्षानुराग से संस्कारित किया गया है। 
हमको भी स्कूल है जाना पापा जी 
अक्षर ज्ञान हमें भी पाना पापाजी 
*
धंत ततड़ ततड़ ततड़ 
धंत ततड़ तड़ 
ले किताब जल्दी से 
और पाठ पढ़ 
*
बाल मन खेल-कूद में असीम आनंद पाता है। 'नाचें कूदें जी बहलायें', 'आओ! अगली सदी चलें', 'तबइक तुम भइ तबइक तुम', 'बाल आनंद', 'चलें गाँव पिकनिक मनाने', 'चलें मनाने को पिकनिक', 'उड़नखटोला', 'अगर मुझे उड़ना आता तो', 'बोल जमूरे!, हाँ उस्ताद', 'भालू जी का सूट',  आदि में खिलंदड़पन का उल्लास-उत्साह अभिव्यक्त हुआ है।  
बच्चो! बोलो छिपन छिपैया
छिपन छिपैया, छिपन छिपैया 
प्रगट हुए तब बंदर भैया 
खी खी करके हाथ हिलाया 
फिर थोड़ा मन में शरमाया
पूछा, तेरी कहाँ बंदरिया? 
छिपन छिपैया, छिपन छिपैया 
घूँघट ओढ़ बंदरिया आई
देख सभी को वह मुस्काई 
यह बंदर क्या तेरा सैंया? 
छिपन छिपैया, छिपन छिपैया 
*
'बाल मन की बातें', 'गाँव के बच्चे', हो जाऊं मैं शीघ्र बड़ा', 'होंगे उजले भावी दिन', 'नियम सड़क के', 'लहर-लहर लहराती नदिया', 'करें ज्ञान-विज्ञान की बातें', 'अच्छे दिन आनेवाले हैं', 'पुस्तक मेला', 'बरखा ऋतु आई 'बादल काले काले हैं', 'बादल आये', 'जब से नभ छाए बादल', 'मौसमी फल','गर्मी के मौसम में', 'धूप तेज है गर्म हवाएँ', 'गर्मी का मौसम आया', 'सर्दी आई', 'शुरू हुआ अप्रैल' 'दस दोहे मेला दर्शन', 'पेड़ों में भी प्राण हैं', 'सपने की सीख', 'कष्ट हरो मजदूर के', 'शिक्षक दिवस गुरु वंदन', 'उठो भोर में जल्दी' जैसे गीतों में पढ़ते-बढ़ते बालकों में परिवेश, पर्यावरण, मौसम, ऋतुचक्र आदि के प्रति सजगता उत्पन्न करने का सफल प्रयास हुआ है। 
बीती वर्षा, सर्दी आई 
निकले कंबल, शाल, रजाई
थर-थर लगी कांपने ठंडी 
इस बारिश में खूब नहाई 
*
सिकुड़ी सिमटी ठंड जा रही
मौसम गर्मी का आया 
आइसक्रीम के दौर, बर्फ के गोले 
श्री खंड याद आया 
जब से नभ में छाये बादल 
तन-मन को हर्षाये बादल 
रिमझिम रिमझिम पानी बरसे 
सब के मन को भाये बादल 
*
'दादा जी कहते हैं मेरे', 'शुरू हुआ अप्रैल', 'गोलू को पानी की सीख', जीवन जीना बहुत चाव से', 'सहयोग भावना', 'एक गीत 'गायें हम', 'आसमान के हैं ये तारे', 'अपनी हिंदी', 'हरी कैरियाँ पीले आम', 'सुनो कहानी आम की', 'सुबह की धूप मखमली', 'सुबह की धुप गुनगुनी', 'सुबह सवेरे', 'यह  कैसी बरसात?', 'मच्छरदानी में', 'बाल सुलभ संसार चाहिए', 'बोझ पढ़ाई का', 'अच्छे दिन आनेवाले हैं', 'कुर्सी दौड़', ' अधिकार न छीनो', 'मेरा सपना', 'मक्खी और मिठाई', 'कोरोना को मार भगाए', 'वंदे मातरम', 'नव वर्ष अभिनंदन', 'वरदायी चक्की और मेरी चाह', 'तथा लोरी कौन सुनाएगा अब' आदि गीतों में अपेक्षाकृत अधिक विकसित मस्तिष्क और चेतना संपन्न बालको के लिए ऐसा कथ्य रख गया है जो उनमें अधिकारों और कर्तव्यों की समझ, राष्ट्रीयता की भावना आदि करे। 
देश प्रेम के गाएँ मंगल गान 
वंदे  मातरम   
तन-मन से हम करें राष्ट्र सम्मान 
वंदे मातरम 
तन्मय जी के बाल गीतों का वैशिष्ट्य तोतले बोल, किलकारी, कल्पना की उड़ान, नन्हें प्रयास, धूप-छाँव, चिंता-मजा, गीत-संगीत  सम्यक अनुपात में यथास्थान उपस्थित होना है। वे किसी विचार को लेकर को लेकर सप्रयास गीत नहीं लिखते अपितु गीत को तारी होने देते हैं। इसलिए इन बाल गीतों  में कहीं भी छंद या कथ्य थोपा हुआ नहीं है, स्वाभाविक रूप  अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हुआ है. फलत: गीत सहज ग्राह्य, सुमधुर और उपयोगी बन गए हैं। 
" जब तुम बच्चों के लिए हो तो उस विशेष अवसर  विशेष शैली मत अपनाओ। अपनी पूरी क्षमता से लिखो  वस्तु को सजीव होकर आने दो।" अनातोले फ़्रांस के इस विचार को तन्मय जी ने अनजाने ही अपना लिया है। 
पॉल हेजार्ड ने है "बच्चे उन पुस्तकों को पसंद नहीं करते जिनमें उन्हें बराबर का दर्जा नहीं दिया जाता और उन्हें 'प्यारे नन्हें साथियों आदि शब्दों से संबोधित किया जाता है अथवा जो उनकी प्रकृति अनुरूप नहीं होतीं जिनके चित्र आँखों को और जिनकी सजीवता उनके ह्रदय को आकृष्ट नहीं कर पातीं अथवा उन्हें केवल वही चीजें सिखाती हैं जिन्हें वे स्कूल में सीखते हैं और जो उन्हें नींद की गोद में सुला सकती हैं किन्तु सपनों की दुनिया में नहीं ले जा सकतीं।' तन्मय जी ने  अपने बाल गीतों में विशेष ध्यान रखा है कि  बालगीत रोचक, उत्सुकताकरक और।  ये बाल गीत बच्चों और बड़ों दोनों को पसं आएँगे और तन्मय जी के अगले बाल गीत संग्रह के प्रति उत्सुक बनायेंगे। 
***
संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 

सोमवार, 7 अगस्त 2017

samiksha

कृति चर्चा:
अरे! यह चिट्ठी तो मेरे नाम है.
सुरेंद्र पंवार 
‘शेष कुशल है’-- -- -श्री सुरेश तन्मय का चौथा काव्य-संग्रह है. वे नागझिरी,पश्चिमी निमाड़ के मूल निवासी हैं, नौकरी के सिलसिले में भोपाल रहे; सम्प्रति जबलपुर में सृजन-रत हैं. समीक्षित कृति में १९ छंद-मुक्त गीत संकलित हैं, जिनमें से एक ‘गाँव से बड़े भाई की चिट्ठी’ पर यहाँ सविस्तार चर्चा की जा रही है.
‘गाँव से बड़े भाई की चिट्ठी’ एक अतुकांत गीत है.इसमें सुरेश तन्मय की सरल-तरल भावनाओं की सुस्पष्ट अभिव्यक्ति है-- सादगी से, सीधे-सादे शब्दों में. वैसे तो गीतकार लिखता है कि गाँव छोड़े ४६ वर्ष से अधिक हो गए हैं और उसे अपने गाँव की, घर की, घर के लोगों की याद आती है, स्वाभाविकतः गाँव और घर को अपने ‘नगीना’(छोटू) की याद आती होगी—कितनी? कैसे? कब?----- इन्हीं मूर्त एवम् अमूर्त भावनाओं का उव्देलन और प्रकटीकरण इस लम्बे गीत को जन्म देता है.

चिट्ठी, पत्र या पाती अभिव्यक्ति का एक ऐसा सशक्त माध्यम है जो मनकी गांठें खोलती है, अपनों से अपनी-बात कहती है—वे जो उसे कहना चाहिए और वे जो उसे नहीं कहना चाहिए.बकौल गीतकार—“चिट्ठी लिखनेवाले और पढनेवाले दोनों की समझ जब एक हो जाती है, तब अंतर्मन की पीडायें खुलकर मुखरित होती है.” यह अलग बात है, कि अब चिट्ठी-पत्री लिखना आउट ऑफ़ डेट हो गया. मोबाईल और उससे भी एक कदम आगे, भावहीन-व्हाटएप और आभाहीन फेसबुक ने पत्र-लेखन की सनातनी-परंपरा को समाप्त कर दिया है.

तन्मय जी एक सुशिक्षित-सुसंस्कारी परिवार से हैं,.उन्हें रिश्तों का मूल्य मालूम है. उनके अनुसार ‘अपनत्व और आत्मीयता से भरे गाँव के रिश्ते, रिश्ते होते है. सगे रिश्तों से मजबूत.’ और फिर यदि उनमें अंतरंगता हो तो सोने पर सुहागा-- -- ‘भाई तू बेटा भी तू ही’. ऐसे में रामादाजी, नानू-नाई, फूलमती, चम्पाबाई, शिवदानी, अंसारी चाचा, रघुनंदन के बड़े पिताजी, केशव पंडित, बड़े डिसूजा, कोने की बूढी अम्माजी, दूर के रिश्ते की लगती सुमन बुआ, मंजी दाजी और छोटे के बचपन का मित्र राजाराम-- -- ये सभी अपने और सिर्फ अपने ही रहे होंगे और उनके हर्ष-विषाद, उनके मिलन-विछोह अपने निजी नफा-नुकसान. एक सामान्य ग्राम्य-जन की तरह रचनाकार की भी झाड-फूंक,टोने- टोटके,गंडा-तावीज,पूजा- पाठ,पंडा-पुजारी में अटूट-आस्था है. वह भी किसी
दुर्घटना,अनिष्ट या अनहोनी की आशंका में इन्हीं का आसरा लेता है-- -

मन्नत किसी देव की/कोई अधूरी हो तो/ 
विधि विधान से उसे/शीघ्र पूरी करवाना.

गीतकार जहाँ पारिवारिक-परिवेश के प्रति सजग नजर आता है,वहीं अपने सामाजिक दायित्व-बोध के प्रति भी पूर्णतया जागरूक है. एक मुखिया के नाते(मुखिया मुख सों चाहिए-- ) परिवार को एकजुट रखना, तदानुकूल कुछ कठोर निर्णय लेना और अपने हिस्से का दर्द पीना -उसका जेठापन या बडप्पन कहा
जा सकता है—

समय लगेगा/हो जाऊंगा ठीक/नहीं तुम चिंता करना/
सहते सहते दर्द/हो गयी है आदत अब जीने की.

बड़े भाई की पत्री में गीतकार यह तो चाहता है कि संयुक्त परिवार न टूटे. परन्तु यह भी मान चाहता है कि छोटे,लाड़ी और छुटकू के साथ गाँव आये,जो कि वह कर सकता है; साधन सम्पन्न है,उसके पास एक अदद कार है और इसलिए, अपनी और अन्य-परिजनों के न आ पाने की मज़बूरी जताता है-- -

धरा आकाश के जैसे/यह दूरी है.

इस सन्दर्भ से साम्य रखता चंद्रसेन विराट के मधुर-गीत का मुखड़ा उल्लेखनीय है-- --“गज भर की दूरी भी सौ जोजन की हो जाती है”. हम भी यही चाहते हैं कि समाज की सबसे छोटी इकाई ‘कुटुंब’ या ‘परिवार’ का अस्तित्व बना रहे, “गज भर की दूरी” मिटे, पहल कोई भी करे -- -‘छोटे’ या ‘बड़े’. गीतकार ने बड़े भाई की चिट्ठी में गाँव के घरों की छप्पर-छानी ,वहां व्याप्त बंदरों का आतंक, मूलभूत स्वास्थ्य-सुविधाओं का अभाव, खुद एवम्प त्नी की बीमार स्थिति, गाय का मरा बछड़ा पैदा होना,गाय के लात मारने से लगी चोट, बंद पड़ा हैण्डपंप, गाँव के पास भरा नवगृह का मेला, बैलों का बाजार और सामूहिक शादी-सम्मेलन सभी की मौलिक चर्चा की है. एक बात गौर करने लायक अवश्य है कि अपने गाँव की दिशा और गाँव वालों की दशा बखानते कवि का स्वर अमिधात्मक नहीं रहता बल्कि वह कभी लक्षणा में बात करता है तो कभी व्यंजनायें कसता दिखाई देता है-- -- -
बड़े वुजुर्गों ने/पहले से ठीक कहा है/आगे आने वाला समय/विकट आएगा/
अचरज होगा देख के./भेदभाव की वारिश/ऐसी होगी/सींग बैल का केवल/
एक गीला होगा/और एक सींग उसका/ सूखा रह जायेगा.

मंजी दाजी की मोटर जब्ती और सिंचाई के अभाव में उनकी सूखती फसल को देखकर रचनाकार एकदम भड़क उठता है और कहता है –
किस्मत में किसान की/बिन पानी के बादल/रहते छाए.

वहीँ वर्तमान-व्यवस्था पर किया गया व्यंग कुछ-अलग ही रंग बिखेरता है---
पञ्च और सरपंच/स्वयं को जिला कलेक्टर/लगे समझने./
पंचायत का सचिव अंगूठे लेकर इनके/इन्हें दिखाता रहता/ हरदम सुन्दर सपने.
यहाँ ‘अंगूठे लेकर’ का प्रशस्य-प्रयोग किया गया है जो यह दर्शाता है कि
कवि की प्रतीकों,रूपकों और बिम्बों पर अच्छी पकड़ है. हाँ ! बाकी रही ग्राम्य-

अराजकता की बात, यह तो गीतकार ने स्वयं स्पष्ट किया है कि लोग सिर्फ उपलब्धियों का आकलन करते हैं, जिम्मेदारियों का नहीं. बन्दर-बाँट और अपनी- अपनी जुगत भिडाते छुटभैया नेताओं के कारण योजनाओं का लाभ आम ग्रामीण-जनों तक नहीं पहुंच पाता. ऐसा भी नहीं है कि सभी शासकीय योजनायें अलाभकारी हैं-
वैसे शासन के पैसों से/अच्छे भी कुछ काम हुए हैं/कच्ची गलियां और
रास्ते/कियेपत्थरों से पक्के हैं/और नालियाँ/गंदे पानी की/जो बहती इधर उधर
थीं/वे भी सब हो गयीं व्यवस्थित/अब गलियों में पहले जैसा/नहीं अँधेरा फैला

रहता/बिजली के रहने से अब तो/चारों ओर उजाला रहता.

फिर भी, कृषि और कुटीर-उद्योगों के प्रति उदासीनता,कर्ज में डूबता-मरता किसान तथा कस्बाई चकाचौंध से भ्रमित-पलायित ग्राम्य-युवा -- -ये, कुछ भयावह तस्वीरें हैं; उस निमाड़ की, जिसकी “डग डग रोटी,-- --” जग-जाहिर है. मौजूदा हालत में ये स्थानीय चिंता के विषय हैं और राष्ट्रीय-चिंतन के भी. शहरी-परिवेश में रहते हुए भी गीतकार की जड़ें गाँव और ग्रामीण-संस्कृति से जुड़ीं हैं. भांजी की शादी में पिन्हावनी के कपडे ले जाना, बधावे में शकर-बतासे बांटना यह प्रदर्शित करता है कि उसे अपने संस्कारों का बखूबी ज्ञान है. वह अपने अभावों,अपेक्षाओं और संवेदनाओं को भी बहुत सहजता से व्यक्त कर देता है.उसे, ‘छोटे’ के शहर में कोठी बनवाने और कार खरीदने पर आत्मीय ख़ुशी है, वह, उसकी तरक्की और यशनाम के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता है, वहीं दूसरी ओर पत्नी के इलाज के लिए थोडी मदद करने और एक बार कार लेकर गाँव आने और लोगों को दिखाने का भी इच्छा रखता है. गीत की उत्तर-यात्रा में गीतकार दर्शन की ओर मुड़ा दिखाई देता है. ‘जीवन का यह अटल सत्य, सभी को जाना है’ मानते हुए गाता है—

सत्तर पार कर लिया/इस अषाढ़ में/और हो गई पैंसठ की/तेरी भाभी/इस कुंवार में/
लगा हुआ नंबर आगे/विधना ने जो बना रखीं हैं/मुक्तिधाम की कतारें.

तन्मय जी का शब्द-सामर्थ्य सराहनीय है. उन्होंने सरल तत्सम शब्दों से भाषा का श्रंगार किया है. जहां, मधु-गुन्जन, कुशल क्षेम, यश नाम, सेवानिवृत का साभिप्राय प्रयोग पत्र-गीत में विपुलता एवम् प्राणवत्ता का संचार करता है वहीं पूर्ण-पुनरुक्त-पदावली (सहते-सहते, बेच-बेच, थोडा-थोडा, पैसा-पैसा ), अपूर्ण- पुनरुक्त-पदावली (रहन-सहन, टूटी-फूटी, ठीक-ठाक, मोड़-माड़) तथा सहयोगी-शब्द (खेती-बाडी,खून- पसीना,नीम-हकीम) के प्रयोग से भाषा में विशेष लयात्मकता आभासित हुई है. वैसे, इस चिट्ठी में निमाड़ी-मिट्टी का सोंधापन कुछ कम है.(खासकर तब, जबकि कवि की प्रथम काव्य-कृति ‘प्यासो पनघट’ निमाड़ी में ही है) वहीँ, परिवेशानुगत ‘मुक्ति-धाम की कतारें’ का इतर-प्रयोग अटपटा-सा लगता है. अंत में, यह अवश्य कहा जा सकता है कि ग्राम्य-जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं, जो इससे अछूता रहा हो. इसे पढ़कर यूँ लगता है कि-‘अरे! यह चिट्ठी तो मेरे नाम है’. और, यही अहसास इस गीत-कृति की सफलता है.
( समीक्षित कृति: शेष कुशल है/ श्री सुरेश तन्मय /प्रकाशक भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल/मूल्य ६० रूपये )
----------------------------------
सुरेन्द्र सिंह पंवार, २०१, शास्त्रीनगर, गढ़ा, जबलपुर (म.प्र.)-४८२००३ /मोबाईल-९३००१०४२९६
/email-- -- pawarss2506@gmail.com / Blog-suryayash.blogspot.in

सोमवार, 1 जून 2015

kruti charcha: sanjiv

कृति चर्चा:
शेष कुशल है : सामायिक जनभावनाओं से सराबोर काव्य संग्रह 
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
[कृति विवरण: शेष कुशल है, कविता संग्रह, सुरेश 'तन्मय', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ८४, ६० रु., भेल हिंदी साहित्य परिषद् एल ३३/३ साकेत नगर, भेल, भोपाल , कवि संपर्क: २२६ माँ नर्मदे नगर, बिलहरी,जबलपुर ४८२०२०, चलभाष ९८९३२६६०१४, sureshnimadi@gmail.com ]
*
पिछले डेढ़ दशक से मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं में लगभग नहीं लिखने-छपने और साहित्यिक गोष्ठियों से अनुपस्थित रहने के बावजूद पुस्तकों की अबाध प्राप्ति सुख-दुःख की मिश्रित प्रतीति कराती है.


सुख दो कारणों से प्रथम अल्पज्ञ रचनाकार होने के बाद भी मित्रों के स्नेह-सम्मान का पात्र हूँ, द्वितीय यह कि शासन-प्रशासन द्वारा हिंदी की सुनियोजित उपेक्षा के बाद भी हिंदी देश के आम पाठक और रचनाकार भी भाषा बनी हुई है और उसमें लगातार अधिकाधिक साहित्य प्रकाशित हो रहा है.


दुःख के भी दो कारण हैं. प्रथम जो छप रहा है उसमें से अधिकांश को रचनाकार ने सँवारे-तराशे-निखारे बिना प्रस्तुत करना उचित समझा, रचनाओं की अंतर्वस्तु में कथ्य, शिल्प आदि अनगढ़ता कम फूहड़ता अधिक प्राप्य है. अधिकतम पुस्तकें पद्य की हैं जिनमें भाषा के व्याकरण और पिंगल की न केवल अवहेलनाहै अपितु अशुद्ध को यथावत रखने की जिद भी है. दुसरे मौलिकता के निकष पर भी कम ही रचनाएँ मिलती हैं. किसी लोकप्रिय कवि की रचना के विषय पर लिखने की प्रवृत्ति सामान्य है. इससे दुहराव तो होता ही है, मूल रचना की तुलना में नयापन या बेहतरी भी नहीं प्राप्त होती. प्रतिवर्ष शताधिक पुस्तकें पढ़ने के बाद दुबारा पढ़ने की इच्छा जगाने, अथवा याद रखकर कहीं उद्धृत करने के लिये उपयुक्त रचनांश कम ही मिलता है.
पुस्तक की आलोचना, विवेचना अथवा समीक्षा को सहन करने, उससे कुछ ग्रहण करने और बदलाव करने के स्थान पर उसमें केवल और केवल प्रशंसा पाने और न मिलने पर समीक्षक के प्रति दुर्भाव रखने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. किसी अचाही किताब को पढ़ना, फिर उस पर कुछ लिखना, उससे कुछ लाभ न होने के बाद भी सम्बन्ध बिगाड़ना कौन चाहेगा? इस कारण पुस्तक-चर्चा अप्रिय कर्म हो गया है और उसे करते समय सजगता आवश्यक हो गयी है. इस परिस्थिति में आलोचना शास्त्र के नये सिद्धांत विकसित होना, नयी पद्धतियों का अन्वेषण कैसे हो? वैचारिक प्रतिबद्धतायें, विधागत संकीर्णता अथवा उद्दंडता, शब्दरूपों और भाषारूपों में क्षेत्रीय विविधताएं भी कठिनाई उपस्थित करती हैं. पारिस्थितिक दुरूहताओं के संकेतन के बाद अब चर्चा हो काव्य संग्रह 'शेष कुशल है' की.


'शेष कुशल है' की अछान्दस कवितायें जमीन से जुड़े आम आदमी की संवेदनाओं की अन्तरंग झलकी प्रस्तुत करती हैं. सुरेश तन्मय निमाड़ी गीत संग्रह 'प्यासों पनघट', हिंदी काव्य संग्रह 'आरोह-अवरोह' तथा बाल काव्य संग्रह 'अक्षर दीप जलाये' के बाद अपनी चतुर्थ कृति 'शेष कुशल है' में उन्नीस लयात्मक-अछांदस काव्य-सुमनों की अंजुली माँ शारदा के चरणों में समर्पित कर रहे हैं. तन्मय जी वर्तमान पारिस्थितिक जटिलताओं, अभावों और विषमताओं से परिचित हैं किन्तु उन्हें अपनी रचनाओं पर हावी नहीं होने देते. आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के जानकार (आयुर्वेद रत्न ) होने के कारण तन्मय जी जानते हैं कि त्रितत्वों का संतुलन बनाये बिना व्याधि दूर नहीं होती. कविता में कथ्य, कहन और शिल्प के तीन तत्वों को बखूबी साधने में कवि सफल हुआ है.


कविताओं के विषय दैनंदिन जीवन और पारिवारिक-सामाजिक परिवेश से जुड़े हैं. अत:, पाठक को अपनत्व की अनुभूति होती है. कहन सहज-सरल प्रसाद गुण युक्त है. तन्मय जी वैयक्तिकता और सामाजिकता को एक-दूसरे का पूरक मानते हैं. संग्रह की महत्वपूर्ण रचना 'गाँव से बड़े भाई की चिट्ठी' (२५ पृष्ठ) घर के हर सदस्य से लेकर पड़ोस, गाँव के हर व्यक्ति के हाल-चाल, घटनाओं और संवादों के बहाने पारिस्थितिक वैषम्य और विसंगतियों का उद्घाटन मात्र नहीं करती अपितु मन को झिन्झोड़कर सोचने के लिए विवश कर देती है. बड़े भाई द्वारा छोटे को पढ़ाने-बढ़ाने के लिये स्वहितों का त्याग, छोटे द्वारा शहर में उन्नति के बाद भी गाँव से और चाहना, बड़े का अभावों से गहराते जाना, बड़ों और भाभी का अशक्त होना, छोटे से की गयी अपेक्षाओं का बहन होने की व्यथा-कथा पढ़ता पाठक करुणा विगलित होकर पात्रों से जुड़ जाता है. 'हम सब यहाँ / मजे में ही हैं' और 'तेरी मेहनत सफल हुई / कि अपना एक मकान हो गया / राजधानी भोपाल में' से आरम्भ पत्र क्रमश: 'छोटे! घर के हाल / बड़े बदहाल हो गए', 'तेरी भाभी को गठिया ने / घेर लिया है', 'भाई तू बेटा भी तू ही', 'सहते-सहते दरद / हो गयी है आदत / अब तो जीने की', 'इस राखी पर भाई मेरे / तू आ जाना / बहनों से हमसे मिल / थोडा सुख दे जाना', 'थोड़ी मदद मुझे कर देना / तेरी भाभी का इलाज भी करवाना है... ना कर पाया कुछ तो / फिर जीवन भर / मुझको पछताना है'', 'तूने पूछे हाल गाँव के / क्या बतलाऊँ? / पहले जैसा प्रेम भाव / अब नहीं रहा है', 'पञ्च और सरपंच / स्वयं को जिला कलेक्टर / लगे समझने', 'किस्मत में किसान की / बिन पानी के बादल / रहते छाये', 'एक नयी आफत सुन छोटे / टी वी और केबल टी वी ने / गाँवों में भी पैर पसारे', 'गाँवों के सब / खेत-जमीनें / शहरी सेठ / खरीद रहे हैं', ब्याज, शराब, को ओपरेटिव सोसायटी के घपले, निर्जला हैण्ड पंप, बिजली का उजाला, ग्रामीण युवकों का मेहनत से बचना, चमक-दमक, फ्रिज-टी वी आदि का आकर्षण, शादी-विवाह की समस्या के साथ बचपन की यादों का मार्मिक वर्णन और अंत में 'याद बनाये रखना भाई / कि तेरा भी एक भाई है'. यह एक कविता ही पाने आप में समूचे संग्रह की तरह है. कवि इसे बोझिलता से बचाए रखकर अर्थवत्ता दे सका है.


डॉ. साधना बलवटे ने तन्मय जी की रचनाओं में समग्र जीवन की अभिव्यक्ति की पहचान ठीक ही की है. ये कवितायें सरलता और तरलता का संगम हैं. एक बानगी देखें:
समय मिले तो / आकर हमको पढ़ लो
हम बहुत सरल हैं.
ना हम पंडित / ना हैं ज्ञानी
ना भौतिक / ना रस विज्ञानी
हम नदिया के / बहते पानी
भरो अंजुरी और /आचमन कर लो
हम बहुत तरल हैं


कन्या भ्रूण के साहसी स्वर, बहू-बल, मित्र, चैरेवती, मेरे पिता, माँ, बेटियाँ आदि रचनाएं रिश्तों की पड़ताल करने के साथ उनकी जड़ों की पहचान, युवा आकाक्षाओं की उड़ान और वृद्ध पगों की थकान का सहृदयता से शब्दांकन कर सकी हैं. वृक्ष संदेश पर्यावरणीय चेतना की संदेशवाही रचना है. नुक्कड़ गीत टोल-मोलकर बोल जमूरे, जाग जमूरे आदि नुक्कड़ गीत हैं जो जन जागरण में बहुत उपयोगी होंगे.


सुरेश तन्मय का यह काव्य संग्रह तन्मयतापूर्वक पढ़े जाने की मांग करता है. तन्मय जी आयुर्वेद के कम और सामाजिक रोगों के चिकित्सक अधिक प्रतीत होते हैं. कहीं भी कटु हुए बिना विद्रूपताओं को इंगित करना और बिना उपदेशात्मक मुद्रा के समाधान का इंगित कर पाना उन्हें औरों से अलग करता है. ये कवितायें कवी के आगामी संकलनों के प्रति नयी आशा जगाती है. आचार्य भगवत दुबे ठीक है कहते हैं कि 'ये (कवितायें) कहीं न कहीं हमारे मन की बातों का ही प्रतिबिम्ब हैं.
***
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४