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बुधवार, 3 नवंबर 2010

मुक्तिका: संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

संजीव 'सलिल'
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दीवाली को दीप-पर्व बोलें या तम-त्यौहार कहें?
लें उजास हम दीपशिखा से या तल से अँधियार गहें??....
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कंकर में शंकर देखें या शंकर को कंकर कह दें.
शीतल-सुरभित शुद्ध पवन को चुभती हुई बयार कहें??
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धोती कुरता धारे है जो देह खुरदुरी मटमैली.
टीम-टाम के व्याल-जाल से तौलें उसे गँवार कहें??
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कथ्य-शिल्प कविता की गाड़ी के अगले-पिछले पहिये.
भाव और रस इंजिन-ईंधन, रंग देख बेकार कहें??
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काम न देखें नाम-दाम पर अटक रहीं जिसकी नजरें.
नफरत के उस सौदागर को क्या हम रचनाकार कहें??
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उठा तर्जनी दोष दिखानेवाले यह भी तो सोचें.
तीन उँगलियों के इंगित उनको भी हिस्सेदार कहें??
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नेह-नर्मदा नित्य नहा हम शब्दब्रम्ह को पूज रहे.
सूरज पर जो थूके हो अनदेखा, क्यों निस्सार कहें??
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सहज मैत्री चाही सबसे शायद यह अपराध हुआ.
अहम्-बुद्धिमत्ता के पर्वत गरजें बरस गुहार कहें??
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पंकिल पद पखारकर निर्मल करने नभ से इस भू पर
आया, सागर जा नभ छूले 'सलिल' इसे क्यों हार कहें??
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मिले विजय या अजय बनें यह लक्ष्य 'सलिल' का नहीं रहा.
मैत्री सबसे चाही, सब में वह, न किसे अवतार कहें??
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बेटा बाप बाप का तो विद्यार्थी क्यों आचार्य नहीं?
हो विचार-आचार शब्दमय, क्यों न भाव-रस सार कहें??
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