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गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

नवगीत जन चाहता

द्विपदी 
लब तरसते रहे आयीं न, चाय भिजवा दी
आह दिल ने करी, लब दिलजले का जला.
*
नवगीत:
संजीव
.
जन चाहता 
बदले मिज़ाज 
राजनीति का
.
भागे न
शावकों सा
लड़े आम आदमी
इन्साफ मिले
हो ना अब
गुलाम आदमी
तन माँगता
शुभ रहे काज
न्याय नीति का
.
नेता न
नायकों सा
रहे आक आदमी
तकलीफ
अपनी कह सके
तमाम आदमी
मन चाहता
फिसले न ताज
लोकनीति का
(रौद्राक छंद)
*

१४-२-२०१५