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सोमवार, 14 जुलाई 2025

जुलाई १४, श्वान दंश, कीट दंश, आशा, रात, हाइकु, विंध्याचल, कमल, सरस्वती

सलिल सृजन जुलाई १४
विश्व चिंपांजी दिवस
*
प्रार्थना
दर्शन दो हे शारद माँ! भव पार लगाओ रे!
.
नाद अनाहद सुनवा दो माँ!
सत्-शिव-सुंदर दिखला दो माँ!
ढाई आखर सबद साखियाँ
सुनवा समझा गुनवा दो माँ!
भटक रहा हूँ जन्म जन्म से राह दिखाओ रे!
दर्शन दो हे शारद माँ! भव पार लगाओ रे!
.
अक्षर अक्षर अजर अमर है
पनघट पनघट नटनागर है
बिंदु-बिंदु में सिंधु समाया
गागर गागर में सागर है
आदि-अनादि, अनंत-सांत छवि-छटा दिखाओ रे!
दर्शन दो हे शारद माँ! भव पार लगाओ रे!
.
दुनिया याचक, मैया दाता
जग नश्वर, माँ भाग्य विधाता
जग जा सोया बहुत मूढ़ मन
है बड़भागी, माता त्राता
आत्म-दीप प्रज्वलित करो अज्ञान मिटाओ रे!
दर्शन दो हे शारद माँ! भव पार लगाओ रे!
.
१४.७.२०२५

दोहा-दोहा चिकित्सा
श्वान दंश
*
पीस-घोल चौलाई जड़, बार-बार पी आप।
श्वान जहर हो शीघ्र कम, भैरव का कर जाप।।
*
पिसी प्याज मधु मिलाकर, बाँधें दिखे न घाव।
विष-प्रभाव हो नष्ट अरु, बढ़े न तनिक प्रभाव।।
*
आक धतूरा पुनर्नवा जड़ लेकर सम भाग।
मधु में पीस लगाइए, मिटे दंश की आग।।
*
लाल मिर्च का पाउडर, श्वान दंश पर बाँध।
जलन न यदि पागल कुकुर, अगर न जानें आँध।।
*
मुर्ग-बीट पानी मिला, श्वान दंश पर लेप।
शयन न कर जागे रहें, विष कम हो मत झेंप।।
*
गूदा कड़वी तुरई का, घोल-छान पी मीत।
पाँच दिनों दोनों समय, करिए स्वस्थ्य प्रतीत।।
*
सेंधा नमक-गिलोय का गूदा बाँधें रोज।
श्वान जहर हो नष्ट फिर, हो चेहरे पर ओज।।
*
काली मिर्च पिसी सहित, सरसों तेल सुलेप।
श्वान दंश विष नष्ट कर, हरे दर्द की खेप।।
*
हींग पीस पानी सहित, श्वान-दंश पर बाँध।।
शीघ्र स्वस्थ्य हो जाइए, मिले न माँगे काँध।।
*
सबसे सरल उपाय है, रहें श्वान से दूर।
हो समीप तो सजगता, रखें आप भरपूर।।
*
श्वान काट ले तो सलिल, हो सकता उपचार।
नेता काटे तो नहीं, बचते किसी प्रकार।।
*
गए चिकित्सालय अगर, लूट मचेगी खूब।
जान बचे या मत बचे, क़र्ज़ चढ़ेगा खूब।।
***
दोहा दोहा चिकित्सा
कीट दंश
*
मधुमक्खी काटे अगर, गेंदा पत्ती आप।
मलें दर्द हो दूर झट, शांति सके मन व्याप।।
*
पीस सोंठ केसर तगर, पानी संग सम भाग।
मधुमक्खी के दंश पर, लेप सराहें भाग।।
*
मधुमक्खी के दंश पर, काट रगड़िए प्याज।
दर्द घटे पीड़ा मिटे, बन जाए झट काज।।
*
बर्रैया काटे मलें, सिरका-शहद तुरंत।
चिंता तनिक न कीजिए, पीड़ा का हो अंत।।
*
बर्र काट दे अगर तो, आक दूध मल मीत।
मुक्ति दर्द से पाइए, मर बिसराएँ रीत।।
*
बर्र ततैया दंश से, पीड़ित हो यदि चाम।
मिटटी तेल लगाइए, मिले तुरत आराम।।
*
माचिस-तीली-मसाला, गीला कर लें लेप।
कीट दंश में लाभ हो, बिसरा दें आक्षेप।।
*
दंश ततैया का मिटे, मिर्च लेपिए पीस।
शीघ्र मिले आराम तो, आप निपोरें खीस।।
*
डंक ततैया मार दे, मलिए मूली काट।
झट पीड़ा हरा दे, मनो धोबीपाट।।
*
कीट दंश पर लगाएँ, झटपट अर्क कपूर।
दर्द मिटा सूजन करे, बिना देर यह दूर।।
*
चौलाई-जड़ पीसकर गौ-घी संग कर पान।
कीट जहर से मुक्त हों, पड़े जान में जान।।
*
सिरका और कपूर संग, धनिया-पत्ती-अर्क।
कीट दंश पर लगाएँ, मारिए नहीं कुतर्क।।
१४-७-२०२१
***
दोहा सलिला
दिव्या भव्या बन सकें, हम मन में हो चाह.
नित्य नयी मंजिल चुनें, भले कठिन हो राह.
*
प्रेम परिश्रम ज्ञान के, तीन वेद का पाठ.
करे 'सलिल' पंकज बने, तभी सही हो ठाठ..
*
छंद शर्करा-नमक है, कविता में रस घोल.
देता नित आनंद नव, कहे अबोले बोल..
*
कर्ता कारक क्रिया का, करिए सही चुनाव.
सहज भाव अभिव्यक्ति हो, तजिए कठिन घुमाव..
*
बिम्ब-प्रतीकों से 'सलिल', अधिक उभरता भाव.
पाठक समझे कथ्य को, मन में लेकर चाव..
*
अलंकार से निखरता, है भाषा का रूप.
बिन आभूषण भिखारी, जैसा लगता भूप..
*
रस शब्दों में घुल-मिले, करे सारा-सम्प्राण.
नीरसता से हो 'सलिल', जग-जीवन निष्प्राण..
*
कथनी-करनी में नहीं, 'सलिल' रहा जब भेद.
तब जग हमको दोष दे, क्यों? इसका है खेद..
*
मन में कुछ रख जुबां पर, जो रखते कुछ और.
सफल वही हैं आजकल, 'सलिल' यही है दौर..
*
हिन्दी के शत रूप हैं, क्यों उनमें टकराव?
कमल पंखुड़ियों सम सजें, 'सलिल' न हो बिखराव..
*
जगवाणी हिन्दी हुई, ऊँचा करिए माथ.
जय हिन्दी, जय हिंद कह, 'सलिल' मिलाकर हाथ..
१४-७-२०२०
***
काटे दुर्जन शीश, सुगीता पाठ पढ़ाया।
साथ पांडवों का दे, कौरव राज्य मिटाया।।
काम करो निष्काम, कन्हैया बोले हँसकर।
अर्जुन का रथ थाम, चले झट मोहन तजकर।।
१-७-२०१९
***
गीत
साक्षी
*
साक्षी
देगा समय खुद
*
काट दीवारें रही हैं
तोड़ना है रीतियाँ सब
थोपना निज मान्यताएँ
भुलाना है नीतियाँ अब
कौन-
किसका हाथ थामे
छोड़ दे कब?
हुए कपड़ों की तरह
अब
देह-रिश्ते,
नेह-नाते
कूद मीनारें रही हैं
साक्षी देगा समय खुद
*
घरौंदे बंधन हुए हैं
आसमानों की तलब है
लादना अपना नजरिया
सकल झगड़ों का सबब है
करूँ
मैं हर चाह पूरी
रोक मत तू
बगावत हो
या अदावत
टोंक मत तू
मनमर्जियाँ
हावी हुई हैं
साक्षी
देगा समय खुद
*
१४-७-२०१९
***
दोहा सलिला
आशा
*
आशा मत तजना कभी, रख मन में विश्वास।
मंजिल पाने के लिए, नित कर अथक प्रयास।।
*
आशा शैली; निराशा, है चिंतन का दोष।
श्रम सिक्का चलता सदा, कर सच का जयघोष।।
*
आशा सीता; राम है, कोशिश लखन अकाम।
हनुमत सेवा-समर्पण, भरत त्याग अविराम।।
*
आशा कैकेयी बने, कोशिश पा वनवास।
अहं दशानन मारती, जीवन गहे उजास।।
*
आशा कौशल्या जने, मर्यादा पर्याय।
शांति सुमित्रा कैकयी, सुत धीरज पर्याय।
*
आशा सलिला बह रही, शिला निराशा तोड़।
कोशिश अंकुर कर रहे, जड़ें जमाने होड़।।
*
आशा कोलाहल नहीं, करती रहती मौन।
जान रहा जग सफलता, कोशिश जाने कौन?
*
आशा सपने देखती, श्रम करता साकार।
कोशिश उनमें रंग भर, हार न देती हार।।
*
आशा दिख-छिपती कभी, शशि-बादल सम खेल।
कहे धूप से; छाँव से, रखना सीखो मेल।।
*
आशा माँ बहिना सखी, संगिन बेटी साध।
श्वास-आस सम साथ रख, आजीवन आराध।।
*
आशा बिन होता नहीं, जग-जीवन संजीव।
शैली सलिल सदृश रहे, निर्मल पा राजीव।।
१४-७-२०१९
***
दोहे- रात रात से बात की
*
रात रात से बात की, थी एकाकी मौन।
सिसक पड़ी मिल गले; कह, कभी पूछता कौन?
*
रहा रात की बाँह में, रवि लौटा कर भोर।
लाल-लाल नयना लिए, ऊषा का दिल-चोर।।
*
जगजननी है रात; ले, सबको गोद-समेट।
स्वप्न दिखा बहला रही, भुज भर; तिमिर लपेट।।
*
महतारी है प्रात की, रात न करती लाड़।
कहती: 'झटपट जाग जा, आदत नहीं बिगाड़।।'
*
निशा-नाथ है चाँद पर, फिरे चाँदनी-संग।
लौट अँधेरे पाख में, कहे: 'न कर दिल संग।।'
*
राका की चाहत जयी, करे चाँद से प्यार।
तारों की बारात ले, झट आया दिल हार।।
*
रात-चाँद माता-पिता, सुता चाँदनी धन्य।
जन्म-जन्म का साथ है, नाता जुड़ा अनन्य।।
*
रजनी सजनी शशिमुखी, शशि से कर संबंध।
समलैंगिकता का करे, क्या पहला अनुबंध।।
*
रात-चाँदनी दो सखी, प्रेमी चंदा एक।
घर-बाहर हों साथ; है, समझौता सविवेक।।
*
सौत अमावस-पूर्णिमा, प्रेमी चंदा तंग।
मुँह न एक का देखती, दूजी पल-पल जंग।।
*
रात श्वेत है; श्याम भी, हर दिन बदले रंग।
हलचल को विश्राम दे, रह सपनों के संग।।
*
बात कीजिए रात से, किंतु न करिए बात।
जब बोले निस्तब्धता, चुप गहिए सौगात।।
*
दादुर-झींगुर बजाते, टिमकी-बीन अभंग।
बादल रिमझिम बरसता, रात कुँआरी संग।।
*
तारे घेरे छेड़ते, देख अकेली रात।
चाँद बचा; कर थामता, बनती बिगड़ी बात।।
*
अबला समझ न रात को, झट दे देगी मात।
अँधियारा पी दे रही, उजियाला सौगात।।
14.7.2018
***
दोहे
दोष गैर का देख जब, ऊँगली उठती एक
तीन कहें निज दोष लख, बन जा मानव नेक
*
जब करते निर्माण हम, तब लाते विध्वंस
पूर्व कृष्ण के जगत में, आ जाता है कंस
***
देश प्रथम, दल रहे बाद में
शुभ प्रभात
आम प्रथम, हो खास बाद में
शुभ प्रभात
दीनबंधु बन खुशी लुटाये
शुभ प्रभात
कुछ पौधों को वृक्ष बना दें
शुभ प्रभात
***
हाइकु
(एक प्रयोग)
*
भोर सुहानी
फूँक रही बेमोल
जान में जान। .
*
जान में जान
आ गयी, झूमी-नाची
बूँदों के साथ।
*
बूँदों के साथ
जी लिया बचपन
आज फिर से।
*
आज फिर से
मचेगा हुडदंग
संसद सत्र।
*
संसद सत्र
दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध
फैलाओ इत्र।
***
मुक्तक:
मत सोच यार, पा-बाँट प्यार,
सह दर्द, दे ख़ुशी तू उधार।
पतवार-नाव, हो जोश-होश
कर-करा पार, तू सलिल-धार।।
१४-७-२०१७
***
एक रचना:
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा
कोयल का स्वर रुद्ध
कर रहेे रक्षित
कागा काँव
*
कह असभ्य सभ्यता मिटा दी
ठगकर अपनों ने.
नहीं कहीं का छोड़ा घर में
बेढब नपनों ने.
शोषण-अत्याचार द्रोह को
नक्सलवाद कहा-
वनवासी-भूसुत से छीने
जंगल
धरती-ठाँव.
*
२८-७-२०१५
मुक्तक:
*
ऊँचाई पर उड़कर भी कागा काला, नीचे बैठा हंस श्वेत ही रहता है
जो न प्राप्त पद-मद से होता अभिमानित, उससे शोभा पद की जग यह कहता है
जो पद पाकर बिसराता औकात 'सलिल', पद बिन उसका जीवन दूभर हो जाता-
नभ, पर्वत, झरनों, नदियों से सागर तक, संभावित जल प्यास बुझा चुप रहता है
१४-७-२०१५
***
गीत:
हारे हैं...
*
कौन किसे कैसे समझाए
सब निज मन से हारे हैं?.....
*
इच्छाओं की कठपुतली हम
बेबस नाच दिखाते हैं.
उस पर भी तुर्रा यह खुद को
तीसमारखाँ पाते हैं.
रास न आये सच कबीर का
हम बुदबुद गुब्बारे हैं...
*
बिजली के जिन तारों से
टकरा पंछी मर जाते हैं.
हम नादां उनसे बिजली ले
घर में दीप जलाते हैं.
कोई न जाने कब चुप हों
नाहक बजते इकतारे हैं...
*
पान, तमाखू, जर्दा, गुटका,
खुद खरीदकर खाते हैं.
जान हथेली पर लेकर
वाहन जमकर दौड़ाते हैं.
'सलिल' शहीदों के वारिस,
या दिशाहीन गुब्बारे हैं...
*
करें भोर से भोर शोर हम,
चैन न लें, ना लेने दें.
अपनी नाव डुबाते, औरों को
नैया ना खेने दें.
वन काटे, पर्वत खोदे,
सच हम निर्मम हत्यारे है...
*
नदी-सरोवर पाट दिये,
जल-पवन प्रदूषित कर हँसते.
सर्प हुए हम खाकर अंडे-
बच्चों को खुद ही डंसते.
चारा-काँटा फँसा गले में
हम रोते मछुआरे हैं...
१४-७-२०१२
***
नवगीत:
पैर हमारे लात हैं....
*
पैर हमारे लात हैं,
उनके चरण
कमल
ह्रदय हमारे सरोवर-
उनके हैं पंकिल...
*
पगडंडी काफी है हमको,
उनको राजमार्ग भी कम है.
दस पैसे में हम जी लेते,
नब्बे निगल रहा वह यम है.
भारतवासी आम आदमी -
दो पाटों के बीच पिस रहे.
आँख मूँद जो न्याय तौलते
ऐश करें, हम पैर घिस रहे.
टाट लपेटे हम फिरें
वे धारे मलमल.
धरा हमारा बिछौना
उनका है मखमल...
*
अफसर, नेता, जज, व्यापारी,
अवसरवादी-अत्याचारी.
खून चूसते नित जनता का,
देश लूटते भ्रष्टाचारी.
म मर-खप उत्पादन करते,
लूट तिजोरी में वे भरते.
फूट डाल हमको लड़वाते.
थाना कोर्ट जेल भिजवाते.
पद-मद उनका साध्य है,
श्रम है अपना बल.
वे चंचल ध्वज, 'सलिल' हम
नींवें अविचल...
*
पुष्कर, पुहुकर, नीलोफर
हम,
उनमें कुछ काँटें बबूल के.
कुई, कुंद, पंकज, नीरज
हम,
वे बैरी तालाब-कूल के.
'सलिल'ज क्षीरज
हम, वे गगनज
हम अपने हैं, वे सपने हैं.
हम
हरिकर, वे
श्रीपद-लोलुप
मनमाने थोपे नपने हैं.
उन्हें स्वार्थ आराध्य है,
हम न चाहते छल.
दलदल वे दल बन करें
हम
उत्पल शतदल
***
युगल गीत:
बात बस इतनी सी थी...
*
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
चाहते तुम कम नहीं थे, चाहते कम हम न थे.
चाहतें क्यों खो गईं?, सपने सुनहरे कम न थे..
बात बस इतनी सी थी, रिश्ता लगा उलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
बाग़ में भँवरे-तितलियाँ, फूल-कलियाँ कम न थे.
पर नहीं आईं बहारें, सँग हमारे तुम न थे..
बात बस इतनी सी थी, चेहरा मिला मुरझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
दोष किस्मत का नहीं, हम ही न हम बन रह सके.
सुन सके कम दोष यह है, क्यों न खुलकर कह सके?.
बात बस इतनी सी थी, धागा मिला सुलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
***
***
गीत:
स्नान कर रहा.....
*
शतदल, पंकज, कमल, सूर्यमुख
श्रम-सीकर से
स्नान कर रहा.
शूल चुभा
सुरभित गुलाब का फूल-
कली-मन म्लान कर रहा...
*
जंगल काट, पहाड़ खोदकर
ताल पाटता महल न जाने.
भू करवट बदले तो पल में-
मिट जायेंगे सब अफसाने..
सरवर सलिल समुद्र नदी में
खिल इन्दीवर कुई बताता
हरिपद-श्रीकर, श्रीपद-हरिकर
कृपा करें पर भेद न माने..
कुंद कुमुद क्षीरज नीरज
नित सौगन्धिक का गान कर रहा.
सरसिज, अलिप्रिय, अब्ज, रोचना
श्रम-सीकर से
स्नान कर रहा.....
*
पुण्डरीक सिंधुज वारिज
तोयज उदधिज नव आस जगाता.
कुमुदिनि, कमलिनि, अरविन्दिनी के
अधरों पर शशि हास सजाता..
पनघट चौपालों अमराई
खलिहानों से अपनापन रख-
नीला लाल सफ़ेद जलज हँस
सुख-दुःख एक सदृश बतलाता.
उत्पल पुंग पद्म राजिव
निर्मलता का भान कर रहा.
जलरुह अम्बुज अम्भज कैरव
श्रम-सीकर सेस्नान कर रहा.....
*
बिसिनी नलिन सरोज कोकनद
जाति-धर्म के भेद न मानें.
मन मिल जाए ब्याह रचायें-
एक गोत्र का खेद न जानें..
दलदल में पल दल न बनाते,
ना पंचायत, ना चुनाव ही.
शशिमुख-रविमुख रह अमिताम्बुज
बैर नहीं आपस ठानें..
अमलतास हो या पलाश
पुहकर पुष्कर का गान कर रहा.
सौगन्धिक पुन्नाग अलोही
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.....
*
चित्र : कमलासना, कमलनयन, पद कमल, कमल मुखी के कर कमलों की कमल मुद्रा, कमल-जड़, कमल-बीज, कमल-नाल (मृणाल), कमल- पत्र, कमल-जड़ के टुकड़े, कमल-गट्टा.
***
दोहा सलिला
दिव्या भव्या बन सकें, आत्मा यदि हो चाह.
नित्य नयी मंजिल चुने, भले कठिन हो राह..
*
प्रेम परिश्रम ज्ञान के, तीन वेद का पाठ.
करे 'सलिल' पंकज बने, तभी सही हो ठाठ..
*
छंद शर्करा-नमक है, कविता में रस घोल.
देता नित आनंद नव, कहे अबोले बोल..
*
कर्ता कारक क्रिया का, करिए सही चुनाव.
सहज भाव अभिव्यक्ति हो, तजिए कठिन घुमाव..
*
बिम्ब-प्रतीकों से 'सलिल', अधिक उभरता भाव.
पाठक समझे कथ्य को, मन में लेकर चाव..
*
अलंकार से निखरता, है भाषा का रूप.
बिन आभूषण भिखारी, जैसा लगता भूप..
*
रस शब्दों में घुल-मिले, करे सारा-सम्प्राण.
नीरसता से हो 'सलिल', जग-जीवन निष्प्राण..
*
कथनी-करनी में नहीं, 'सलिल' रहा जब भेद.
तब जग हमको दोष दे, क्यों? इसका है खेद..
*
मन में कुछ रख जुबां पर, जो रखते कुछ और.
सफल वही हैं आजकल, 'सलिल' यही है दौर..
*
हिन्दी के शत रूप हैं, क्यों उनमें टकराव?
कमल पंखुड़ियों सम सजें, 'सलिल' न हो बिखराव..
*
जगवाणी हिन्दी हुई, ऊँचा करिए माथ.
जय हिन्दी, जय हिंद कह, 'सलिल' मिलाकर हाथ..
*
१४-७-२०१०

बुधवार, 9 जुलाई 2025

जुलाई ९, मोहन छंद, सुमेरु छंद, द्वि इंद्रवज्रा सवैया, हिंदी ग़ज़ल, गुरु, जान, सॉनेट, रामदास,कमल

 सलिल सृजन जुलाई ९

*
सॉनेट
अज्ञान वंदना
*
ज्ञान न मिले प्रयास बिन, मिले आप अज्ञान।
व्यर्थ वंदना प्रार्थना, चल न साधना-राह।
पढ़ना-लिखना क्यों कहो, खा पी मस्त सुजान।।
कभी न कर सत्संग मन, पा कुसंग कर वाह।।
नित नव करें प्रपंच हँस, कभी नहीं सत्संग।
खा-पी जी भर मौज कर, कभी न कुछ भी त्याग।
भोग लक्ष्य कर योग तज, नहीं नहाना गंग।।
प्रवचन कीर्तन हो जहाँ, तुरत वहाँ से भाग।।
सुरापान कर कर्ज ले, करना अदा न जान।
द्यूत निरंतर खेलना, चौर्य कर्म ले सीख।
तज विनम्रता पालकर, निज मन में अभिमान।।
अपराधी सिरमौर बन, दुष्ट-रत्न तू दीख।।
वंदन कर अज्ञान का, मूर्खराज का ताज।
सिर पर रख ले बेहया, बन निर्लज्ज न लाज।।
८-७-२०२३
***
सॉनेट
समर्थ स्वामी रामदास
*
संत 'दीपमाला' सदृश, करते सतत प्रकाश।
'रानी' आत्मा मानते, राजा ब्रह्म अनंत।
'नारायण' की कीर्ति गा, तोड़ें भव का पाश।।
'एकनाथ' छवियाँ अगिन, देखें दिशा-दिगंत।।
नीलगगन खुद 'राणु' बन, 'सूर्या' स्वामी साथ।
'सूर्य स्रोत' के पाठ से, ले 'मोनिका' प्रकाश।
'गंगाधर' अग्रज सहित, गह 'नारायण' हाथ।।
चाहें बनें ग्रहस्थ पर, तोड़ें भव के पाश।।
'सावधान' हो तपस्या, पथ पर बढ़े सुसंत।
'दासबोध' को बताया, 'सुगमोपाय' महान।
हो 'समर्थ' गुरु 'शिवा' के, हुए दिखाया पंथ।
'छत्रसाल' आशीष पा, असि रख पाए तान।।
'रामदास' वैराग से, करें लोक कल्याण।
कंकर से शंकर रचें, शव को कर संप्राण।।
८-७-२०२३
***
स्नेहिल सलिला सवैया ​​ : १.
द्वि इंद्रवज्रा सवैया
सम वर्ण वृत्त छंद इन्द्रवज्रा (प्रत्येक चरण ११-११ वर्ण, लक्षण "स्यादिन्द्र वज्रा यदि तौ जगौ ग:" = हर चरण में तगण तगण जगण गुरु)
SSI SSI ISI SS
तगण तगण जगण गुरु गुरु
विद्येव पुंसो महिमेव राज्ञः, प्रज्ञेव वैद्यस्य दयेव साधोः।
लज्जेव शूरस्य मुजेव यूनो, सम्भूषणं तस्य नृपस्य सैव॥
उदाहरण-
०१. माँगो न माँगो भगवान देंगे, चाहो न चाहो भव तार देंगे।
होगा वही जो तकदीर में है, तदबीर के भी अनुसार देंगे।।
हारो न भागो नित कोशिशें हो, बाधा मिलें जो कर पार लेंगे।
माँगो सहारा मत भाग्य से रे!, नौका न चाहें मँझधार लेंगे।
०२ नाते निभाना मत भूल जाना, वादा किया है करके निभाना।
या तो न ख़्वाबों तुम रोज आना, या यूँ न जाना करके बहाना।
तोड़ा भरोसा जुमला बताया, लोगों न कोसो खुद को गिराया।
छोड़ो तुम्हें भी हम आज भूले, यादों न आँसू हमने गिराया।
_ ८.७.२०१९
***
एक मुक्तिका:
महापौराणिक जातीय, सुमेरु छंद
विधान: १९ मात्रिक, यति १०-९, पदांत यगण
*
न जिंदा है; न मुर्दा अधमरी है.
यहाँ जम्हूरियत गिरवी धरी है.
*
चली खोटी; हुई बाज़ार-बाहर
वही मुद्रा हमेशा जो खरी है.
*
किये थे वायदे; जुमला बताते
दलों ने घास सत्ता की चरी है.
*
हरी थी टौरिया; कर नष्ट दी अब
तपी धरती; हुई तबियत हरी है.
*
हवेली गाँव की; हम छोड़ आए.
कुठरिया शहर में, उन्नति करी है.
*
न खाओ सब्जियाँ जो चाहता दिल.
भरा है जहर दिखती भर हरी है.
*
न बीबी अप्सरा से मन भरा है
पड़ोसन पूतना लगती परी है.
***
कार्यशाला: एक रचना दो रचनाकार
सोहन परोहा 'सलिल'-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'सलिल!' तुम्हारे साथ भी, अजब विरोधाभास।
तन है मायाजाल में, मन में है सन्यास।। -सोहन परोहा 'सलिल'
मन में है सन्यास, लेखनी रचे सृष्टि नव।
जहाँ विसर्जन वहीं निरंतर होता उद्भव।।
पा-खो; आया-गया है, हँस-रो रीते हाथ ही।
अजब विरोधाभास है, 'सलिल' हमारे साथ भी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
***
दोहा सलिला:
जान जान की जान है
*
जान जान की जान है, जान जान की आन.
जहाँ जान में जान है, वहीं राम-रहमान.
*
पड़ी जान तब जान में, गई जान जब जान.
यह उसके मन में बसी, वह इसका अरमान.
*
निकल गई तब जान ही, रूठ गई जब जान.
सुना-अनसुना कर हुई, जीते जी बेजान.
*
देता रहा अजान यह, फिर भी रहा अजान.
जिसे टेरता; रह रहा, मन को बना मकान.
*
है नीचा किरदार पर, ऊँचा बना मचान.
चढ़ा; खोजने यह उसे, मिला न नाम-निशान.
*
गया जान से जान पर, जान देखती माल.
कुरबां जां पर जां; न हो, जब तक यह कंगाल.
*
नहीं जानकी जान की, तनिक करे परवाह.
आन रहे रघुवीर की, रही जानकी चाह.
*
जान वर रही; जान वर, किन्तु न पाई जान.
नहीं जानवर से हुआ, मनु अब तक इंसान.
*
कंकर में शंकर बसे, कण-कण में भगवान.
जो कहता; कर नष्ट वह, बनता भक्त सुजान.
*
जान लुटाकर जान पर, जिन्दा कैसे जान?
खोज न पाया आज तक, इसका हल विज्ञान.
*
जान न लेकर जान ले, जो है वही सुजान.
जान न देकर जान दे, जो वह ही रस-खान.
*
जान उड़ेले तब लिखे, रचना रचना कथ्य.
जान निकाले ले रही, रच ना; यह है तथ्य.
*
कथ्य काव्य की जान है, तन है छंद न भूल.
अलंकार लालित्य है, लय-रस बिन सब धूल.
*
९.७.२०१८
***
दोहे साहित्यकारों पर
*
नहीं रमा का, दिलों पर, है रमेश का राज.
दौड़े तेवरी कार पर, पहने ताली ताज.
*
आ दिनेश संग चंद्र जब, छू लेता आकाश.
धूप चांदनी हों भ्रमित, किसको बाँधे पाश.
*
श्री वास्तव में साथ ले, तम हरता आलोक.
पैर जमाकर धरा पर, नभ हाथों पर रोक.
*
चन्द्र कांता खोजता, कांति सूर्य के साथ.
अग्नि होत्री सितारे, करते दो दो हाथ.
*
देख अरुण शर्मा उषा, हुई शर्म से लाल.
आसमान के गाल पर, जैसे लगा गुलाल.
*
खिल बसन्त में मंजरी, देती है पैगाम.
देख आम में खास तू, भला करेंगे राम.
*
जो दे सबको प्रेरणा, उसका जीवन धन्य.
गुप्त रहे या हो प्रगट, है अवदान अनन्य.
*
वही पूर्णिमा निरूपमा,जो दे जग उजियार
चंदा तारे नभ धरा, उस पर हों बलिहार
*
श्वास सुनीता हो सदा, आस रहे शालीन
प्यास पुनीता हो अगर, त्रास न कर दे दीन
*
प्रभा लाल लख उषा की, अनिल रहा है झूम
भोर सुहानी हो गई क्यों बतलाये कौन?
***
दोहा सलिला:
*
गुरु न किसी को मानिये, अगर नहीं स्वीकार
आधे मन से गुरु बना, पछताएँ मत यार
*
गुरु पर श्रद्धा-भक्ति बिन, नहीं मिलेगा ज्ञान
निष्ठा रखे अखंड जो, वही शिष्य मतिमान
*
गुरु अभिभावक, प्रिय सखा, गुरु माता-संतान
गुरु शिष्यों का गर्व हर, रखे आत्म-सम्मान
*
गुरु में उसको देख ले, जिसको चाहे शिष्य
गुरु में वह भी बस रहा, जिसको पूजे नित्य
*
गुरु से छल मत कीजिए, बिन गुरु कब उद्धार?
गुरु नौका पतवार भी, गुरु नाविक मझधार
*
गुरु को पल में सौंप दे, शंका भ्रम अभिमान
गुरु से तब ही पा सके, रक्षण स्नेह वितान
*
गुरु गुरुत्व का पुंज हो, गुरु गुरुता पर्याय
गुरु-आशीषें तो खुले, ईश-कृपा-अध्याय
*
तुलसी सदा समीप हो, नागफनी हो दूर
इससे मंगल कष्ट दे, वह सबको भरपूर
***
९-७-२०१७
***
हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका
[रौद्राक जातीय, मोहन छंद, ५,६,६,६]
*
''दिलों के / मेल कहाँ / रोज़-रोज़ / होते हैं''
मिलन के / ख़्वाब हसीं / हमीं रोज़ / बोते हैं
*
बदन को / देख-देख / हो गये फि/दा लेकिन
न मन को / देख सके / सोच रोज़ / रोते हैं
*
न पढ़ अधि/क, ले समझ/-सोच कभी /तो थोड़ा
ना समझ / अर्थ राम / कहें रोज़ / तोते हैं
*
अटक जो / कदम गए / बढ़ें तो मि/ले मंज़िल
सफल वो / जो न धैर्य / 'सलिल' रोज़ / खोते हैं
*
'सलिल' न क/रिए रोक / टोक है स/फर बाकी
करम का / बोझ मौन / काँध रोज़ / ढोते हैं
९-७-२०१६
***
अभिनव प्रयोग- गीत:
कमल-कमलिनी विवाह
*
अंबुज शतदल कमल
अब्ज हर्षाया रे!
कुई कमलिनी का कर
गहने आया रे!...
*
अंभज शीतल उत्पल देख रहा सपने
बिसिनी उत्पलिनी अरविन्दिनी सँग हँसने
कुंद कुमुद क्षीरज अंभज नीरज के सँग-
नीलाम्बुज नीलोत्पल नीलोफर के रंग.
कँवल जलज अंबोज नलिन पुहुकर पुष्कर
अर्कबन्धु जलरुह राजिव वारिज सुंदर
मृणालिनी अंबजा अनीकिनी वधु मनहर
यह उसके, वह भी
इसके मन भाया रे!...
*
बाबुल ताल, तलैया मैया हँस-रोयें
शशिप्रभ कुमुद्वती किराविनी को खोयें.
निशापुष्प कौमुदी-करों मेंहदी सोहे.
शारंग पंकज पुण्डरीक मुकुलित मोहें.
बन्ना-बन्नी, गारी गायें विष्णुप्रिया.
पद्म पुंग पुन्नाग शीतलक लिये हिय.
रविप्रिय शीकर कैरव को बेचैन किया
अंभोजिनी अंबुजा
हृदय अकुलाया रे!...
*
चंद्रमुखी-रविमुखी हाथ में हाथ लिये
कर्णपूर सौगन्धिक सहरापद साथ लिये.
इन्दीवर सरसिज सरोज फेरे
लेते.
मौन अलोही अलिप्रिय सात वचन देते.
असिताम्बुज असितोत्पल-शोभा कौन कहे?
सोमभगिनी शशिकांति-कंत सँग मौन रहे.
'सलिल'ज हँसते नयन मगर जलधार बहे
श्रीपद ने हरिकर को
पूर्ण बनाया रे!...
*
टिप्पणी: कमल, कुमुद, व कमलिनी का प्रयोग कहीं-कहीं भिन्न पुष्प प्रजातियों के रूप में है, कहीं-कहीं एक ही प्रजाति के पुष्प के पर्याय के रूप में. कमल के रक्तकमल, नीलकमल तथा श्वेतकमल तीन प्रकार रंग के आधार पर वर्णित हैं. कमल-कमलिनी का विभाजन बड़े-छोटे आकर के आधार पर प्रतीत होता है. कुमुदको कहीं कमल कहीं कमलिनी कहा गया है. कुमद के साथ कुमुदिनी का भी प्रयोग हुआ है. कमल सूर्य के साथ उदित होता है, उसे सूर्यमुखी, सूर्यकान्ति, रविप्रिया आदि कहा गया है. रात में खिलनेवाली कमलिनी को शाशिमुखी, चन्द्रकान्ति कहा गया है. रक्तकमल के लाल रंग की हरि तथा लक्ष्मी के कर-पद पल्लवों से समानता के कारण हरिपद, श्रीकर जैसे पर्याय बने हैं, सूर्य, चन्द्र, विष्णु, लक्ष्मी, जल, नदी, समुद्र, सरोवर आदि के पर्यायों के साथ जोड़ने पर कमल के अनेक और पर्यायी शब्द बनते हैं. मुझसे अनुरोध था कि कमल के सभी पर्यायों को गूँथकर रचना करूँ. माँ शारदा के श्री चरणों में यह कमल माल अर्पित करने का सुअवसर देने के लिये पाठशाला-संचालकों का आभारी हूँ. सभी पर्यायों को गूंथने से रचना लंबी है. पाठकों की प्रतिक्रिया ही बताएगी कि गीतकार निकष पर खरा उतर सका या नहीं.
९.७.२०१०
***

शनिवार, 28 जून 2025

जून २८, सॉनेट, चंद्र छंद, सुलोचना, दोहा, मोगरा, लघु कथा, कमल, तुम, अमलतास,

सलिल सृजन जून २८
सॉनेट
साँझ
*
साँझ सपने सजा निहाल हुई,
देख छैला करे मधुर बतियाँ,
आँख रतनार हो सवाल हुई,
दूर रहना, न हम कुम्हड़बतियाँ।
काम दिन भर करे न रुकती है,
रात भर जाग बाँचती पुस्तक,
कोशिशें कर कभी न थकती है,
भाग्य के द्वार दे रही दस्तक।
आप अपनी कही कहानी है,
मुश्किलों से तनिक नहीं डरती,
न, किसी की न निगहबानी है,
तारती है, न आप ही तरती।
बात सच्ची कहूँ कमाल हुई,
साँझ सबके लिए मिसाल हुई।
(महासंस्कारी जातीय, चंद्र छंद)
२८-६-२०२३
***
सती सुलोचना
सुलोचना वासुकी नाग की पुत्री और लंका के राजा रावण के पुत्र मेघनाद की पत्नी थी।
कायस्थों के मूल श्री चित्रगुप्त जी के १२ पुत्रों के विवाह नागराज वासुकि की १२ कन्याओं ही हुए थे। इस नाते मेघनाद कायस्थों का साढ़ू होता था। मेघनाद द्वारा लक्ष्मण पर शक्ति प्रहार के बाद कायस्थ वैद्य सुषेण ने ही लक्ष्मण की प्राण रक्षा की थी। अयोध्या में चारों भाइयों की श्रेष्ठ शिक्षा-दीक्षा करनेवाली राजमाता कैकेई भी कायस्थ थीं। कायस्थों को अपनी कन्याओं के नाम कैकेई और सुलोचना के नाम पर रखकर इन नारी रत्नों की जयंतियाँ मनानी चाहिए, उनके नाम पर अलंकरण देने चाहिए।
रावण के महापराक्रमी पुत्र इन्द्रजीत (मेघनाद) का वध करने की प्रतिज्ञा लेकर लक्ष्मण जिस समय युद्ध भूमि में जाने के लिये प्रस्तुत हुए, तब राम उनसे कहते हैं- "लक्ष्मण, रण में जाकर तुम अपनी वीरता और रणकौशल से रावण-पुत्र मेघनाद का वध कर दोगे, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है परंतु एक बात का विशेष ध्यान रखना कि मेघनाद का मस्तक भूमि पर किसी भी प्रकार न गिरे। क्योंकि मेघनाद एकनारी-व्रत का पालक है और उसकी पत्नी परम पतिव्रता है। ऐसी साध्वी के पति का मस्तक अगर पृथ्वी पर गिर पड़ा तो हमारी सारी सेना का ध्वंस हो जाएगा और युद्ध में विजय की आशा त्याग देनी पड़ेगी। लक्ष्मण अपनी सैना लेकर चल पड़े। युद्ध में अपने बाणों से उन्होंने मेघनाद का मस्तक उतार लिया, पर उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया। हनुमान उस मस्तक को राम के पास ले आए।
मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़ती हुई उसकी पत्नी सुलोचना के पास जाकर गिरी। सुलोचना चकित हो गयी। दूसरे ही क्षण अन्यंत दु:ख से कातर होकर विलाप करने लगी पर उसने भुजा को स्पर्श नहीं किया। उसने सोचा, सम्भव है यह भुजा किसी अन्य व्यक्ति की हो। ऐसी दशा में पर-पुरुष के स्पर्श का दोष मुझे लगेगा। निर्णय करने के लिये उसने भुजा से कहा- "यदि तू मेरे स्वामी की भुजा है, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का सारा वृत्तांत लिख दे। भुजा में दासी ने लेखनी पकड़ा दी। लेखिनी ने लिख दिया- "प्राणप्रिये, यह भुजा मेरी ही है। युद्ध भूमि में श्रीराम के भाई लक्ष्मण से मेरा युद्ध हुआ। लक्ष्मण ने कई वर्षों से पत्नी, अन्न और निद्रा छोड़ रखी है। वे तेजस्वी तथा समस्त दैवी गुणों से सम्पन्न है। संग्राम में उनके साथ मेरी एक नहीं चली। अन्त में उन्हीं के बाणों से विद्ध होने से मेरा प्राणान्त हो गया। मेरा शीश श्रीराम के पास है।
पति की भुजा-लिखित पंक्तियाँ पढ़ते ही सुलोचना व्याकुल हो गई। पुत्र-वधु के विलाप को सुनकर लंकापति रावण ने आकर कहा- 'शोक न कर पुत्री। प्रात: होते ही सहस्त्रों मस्तक मेरे बाणों से कट-कट कर पृथ्वी पर लोट जाऐंगे। मैं रक्त की नदियाँ बहा दूंगा। करुण चीत्कार करती हुई सुलोचना बोली- "पर इससे मेरा क्या लाभ होगा? सहस्त्रों नहीं, करोड़ों शीश भी मेरे स्वामी के शीश के अभाव की पूर्ति नहीं कर सकेंगे। सुलोचना ने निश्चय किया कि 'उसे सती हो जाना चाहिए किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती? जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा, तब रावण ने उत्तर दिया- "देवी ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो।''
जिस समाज में बाल ब्रह्मचारी हनुमान, परम जितेन्द्रिय लक्ष्मण तथा एक पत्नीव्रती श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटाई जाओगी।"
सुलोचना के आने का समाचार सुनते ही श्रीराम खड़े हो गए और स्वयं चलकर सुलोचना के पास आए और बोले- "देवी! तुम्हारे पति विश्व के अन्यतम योद्धा और पराक्रमी थे। उनमें बहुत-से सद्गुण थे; किंतु विधि की लिखी को कौन बदल सकता है? आज तुम्हें इस तरह देखकर मेरे मन में पीड़ा हो रही है।'' सुलोचना भगवान की स्तुति करने लगी।
श्रीराम ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा- "देवी, मुझे लज्जित न करो। पतिव्रता की महिमा अपार है, उसकी शक्ति की तुलना नहीं है। मैं जानता हूँ कि तुम परम सती हो। तुम्हारे सतीत्व से तो विश्व भी थर्राता है। बताओ कि मैं तुम्हारी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ?''
सुलोचना ने अश्रुपूरित नयनों से प्रभु की ओर देखा और बोली- "राघवेन्द्र, मैं सती होने के लिये अपने पति का मस्तक लेने के लिये यहाँ पर आई हूँ।'' श्रीराम ने शीघ्र ही ससम्मान मेघनाद का शीश मँगवाया और सुलोचना को दे दिया।
पति का छिन्न शीश देखते ही सुलोचना का हृदय अत्यधिक द्रवित हो गया। उसकी आँखें जोरों से बरसने लगीं। रोते-रोते उसने पास खड़े लक्ष्मण की ओर देखा और कहा- "सुमित्रानन्दन, तुम भूलकर भी गर्व मत करना कि इनका वध तुमने किया है। मेरे स्वामी को धराशायी करने की शक्ति विश्व में किसी के पास नहीं थी। यह तो दो पतिव्रता नारियों का भाग्य था। आपकी पत्नी भी पतिव्रता हैं और मैं भी पति चरणों में अनुरक्ती रखनेवाली उनकी अनन्य उपसिका हूँ। दुर्भाग्य से मेरे पति पतिव्रता नारी का अपहरण करनेवाले पिता का अन्न खाते थे और उन्हीं के लिये युद्ध में उतरे थे, इसी कारण मेरे जीवनधन परलोक सिधारे।''
सभी योद्धा सुलोचना को राम शिविर में देखकर चकित थे। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि सुलोचना को यह कैसे पता चला कि उसके पति का शीश भगवान राम के पास है। जिज्ञासा शान्त करने के लिये सुग्रीव ने पूछ ही लिया कि यह बात उन्हें कैसे ज्ञात हुई कि मेघनाद का शीश श्रीराम के शिविर में है। सुलोचना ने स्पष्टता से बता दिया- "मेरे पति की भुजा युद्ध भूमि से उड़ती हुई मेरे पास चली गई थी। उसी ने लिखकर मुझे बता दिया।''
व्यंग्य भरे शब्दों में सुग्रीव बोल उठे- "निष्प्राण भुजा यदि लिख सकती है फिर तो यह कटा हुआ सिर भी हँस सकता है।''
श्रीराम ने कहा- "व्यर्थ बातें मन करो मित्र! पतिव्रता के माहात्म्य को तुम नहीं जानते।''
सुग्रीव की मुखाकृति देखकर सुलोचना उनके भावों को समझ गई कि सुग्रीव को तब भी विश्वास नहीं हुआ था।। उसने कहा- "यदि मैं मन, वचन और कर्म से पति को देवता मानती हूँ, तो मेरे पति का यह निर्जीव मस्तक हँस उठे।'' सुलोचना की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि कटा हुआ मस्तक जोरों से हँसने लगा।
यह देखकर सभी दंग रह गये। सभी ने पतिव्रता सुलोचना को प्रणाम किया। सभी पतिव्रता की महिमा से परिचित हो गये थे। चलते समय सुलोचना ने श्रीराम से प्रार्थना की- "भगवन! आज मेरे पति की अन्त्येष्टि क्रिया है और मैं उनकी सहचरी उनसे मिलने जा रही हूँ। आज युद्ध बंद रहे।'' श्रीराम ने सुलोचना की प्रार्थना स्वीकार कर ली। सुलोचना पति का सिर लेकर वापस लंका आ गई। लंका में समुद्र के तट पर एक चंदन की चिता तैयार की गयी। पति का शीश गोद में लेकर सुलोचना चिता पर बैठी और धधकती हुई अग्नि में कुछ ही क्षणों में सती हो गई।
***
कालजयी गीतकार गोपाल सिंह नेपाली
चीनी आक्रमण के समय अपने ओजपूर्ण गीत एवं कविताओं द्वारा जनांदोलन का शंख फूँकनेवाले तथा ''चौवालिस करोड़ को हिमालय ने पुकारा'' के रचयिता आधुनिक काल के जनप्रिय हिंदी कवि और गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह नेपाली का जन्म ११ अगस्त, १९११ ई. को बिहार राज्य के पश्चिम चम्पारण जिले के कारी दरबार में हुआ था। एक फौजी पिता की संतान के रूप में जगह-जगह भटकते रहने के कारण आपकी स्कूली शिक्षा बहुत कम हो पायी थी। आप मात्र प्रवेशिका तक ही पढ़ पाए थे, परन्तु आपने आम लोगों की भावनाओं को खूब पढ़ा और उनकी अपेक्षाओं एवं आकांक्षाओं को आवाज दी।
साधारण वेश-भूषा, पतला चश्मा, थोड़े घुँघराले बाल, रंग साँवला और कोई गंभीर्य नहीं। विनोदपूर्ण और सरल व्यक्तित्व के स्वामी गोपाल सिंह नेपाली लहरों के विपरीत चलकर सफलता के झण्डे गाड़ने वाले अपराजेय योद्धा थे। आप साहित्य की प्राय: सभी विधाओं में पारंगत थे। आपकी रचना पाठ का एक अलग ही अनूठा अंदाज होता था। यही वजह थी कि आप जिस भी आयोजन में जाते, उसके प्राण हो जाते थे। आपके द्वारा गाये गीत तुरंत लोगों के दिलो-दिमाग पर छा जाते थे और लोग उन्हें बरबस गुनगुनाने लगते थे-
'जिस पथ से शहीद जाते है, वही डगरिया रंग दे रे/ अजर अमर प्राचीन देश की, नई उमरिया रंग दे रे। / मौसम है रंगरेज गुलाबी, गांव-नगरिया रंग दे रे। / तीस करोड़ बसे धरती की, हरी चदरिया रंग दे रे॥'
१९६५ ई. में पाकिस्तानी फौज की अचानक गोली-बारी में हमारे देश के शांतिप्रिय मेजर बुधवार और उनके साथी शहीद हो गए तो केंद्र में बैठे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को संबोधित कर कविवर नेपाली ने लिखा था- 'ओ राही! दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से, चरखा चलता हाथों से, शासन चलता तलवार से।' कविवर नेपाली का नाम सिर्फ हिन्दी साहित्य में ही नहीं बल्कि सिने जगत के इतिहास में भी अविस्मरणीय है। आप १९४४ई. में बम्बई की फिल्म कम्पनी फिल्मिस्तान में गीतकार के रूप में पहुँचे और सर्वप्रथम 'मजदूर' जैसी ऐतिहासिक फिल्म के गीत लिखे, जिसके कथाकार स्वयं कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द थे और संवाद लेखन किया था उपेन्द्र नाथ 'अश्क' ने। गीत इतने लोकप्रिय हुए कि बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन की ओर से नेपाली जी को सन् १९४५ का सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार मिला। भारत पर चीनी हमले से पूर्व तक आप बम्बई में रहे और करीब चार दर्जन से भी अधिक फिल्मों में एक से एक लोकप्रिय गीत लिखे, फिल्म तुलसीदास का वह गीत आज भी हमारे लिए उस महाकवि का एक उद्बोधन-सा ही लगता है- 'सच मानो तुलसी न होते, तो हिन्दी कहीं पड़ी होती, उसके माथे पर रामायण की बिन्दी नहीं जड़ी होती।'
आपने खुद की एक फिल्म-कम्पनी 'हिमालय-फिल्मस' के नाम से बनाई थी, जिसके तहत 'नजराना' और 'खुशबू' जैसी फिल्में बनी थीं। फिल्म में लिखे इनके गीत, चली आना हमारे अँगना, तुम न कभी आओगे पिया, दिल लेके तुम्हीं जीते दिल देके हमी हारे, दूर पपीहा बोल, ओ नाग कहीं जा बसियो रे मेरे पिया को न डसियो रे, इक रात को पकड़े गये दोनों जंजीर में जकड़े गये दोनों, रोटी न किसी को मोतियों का ढेर भगवान तेरे राज में अंधेर है अंधेर तथा प्यासी ही रह गई पिया मिलन को अँखियाँ राम जी कैसे अनेक गीत इतने लोकप्रिय हुए कि आज भी 'रीमिक्स' के जमाने में कभी-कभार सुनने को मिल जाते है तो बरबस नेपाली जी की याद दिलो दिमाग को कचोट जाती है। फिल्म नागपंचमी का वह गीत जो आज भी लोगों के ओठों पर बसा है- 'आरती करो हरिहर की, करो नटवर की, भोले शंकर की, आरती करो नटवर की..'
देश पर चीनी आक्रमण के दिनों में नेपाली जी लगातार समूचे देश का साहित्यिक दौरा करते हुए, आमजन को चीनी हमले के विरुद्ध जगा रहे थे- 'युद्ध में पछाड़ दो दुष्ट लाल चीन को, मारकर खदेड़ दो तोप से कमीन को, मुक्त करो साथियों हिन्द की जमीन को, देश के शरीर में नवीन खून डाल दो।'और इसी प्रकार लोगों को जगाते-जगाते अचानक १७ अप्रैल, १९६३ को दिन के करीब ११ बजे जीवन के अंतिम कवि सम्मेलन से कविता पाठ कर लौटते समय भागलपुर रेलवे जंक्शन के प्लेटफार्म नं. २ पर सदा के लिए सो गये। उनके पार्थिव शरीर को लोगों के दर्शनार्थ स्थानीय मारवाड़ी पाठशाला में करीब बीस घंटे तक रखा गया, वहीं से इनकी ऐतिहासिक शवयात्रा निकली, जिसमें जनसैलाब उमड़ पड़ा था। भागलपुर के ही बरारी घाट पर उन्हें पाँच साहित्यकारों ने संयुक्त रूप से मुखाग्नि दी और तब उनकी चिता जलाई गई। नेपाली के गीतों के साथ जनता की आकांक्षाएँ और कल्पनाएँ गुथीं हुई थीं। तभी तो नेपाली जी ने साहित्य में उभरती हुई राजनीति और चापलूसी को देखकर बहुत दु:ख प्रकट करते हुए लिखा था- 'तुझ सा लहरों में बह लेता तो मैं भी सत्ता गह लेता। ईमान बेचता चलता तो मैं भी महलों में रह लेता। तू दलबंदी पर मरे, यहाँ लिखने में है तल्लीन कलम, मेरा धन है स्वाधीन कलम।'
हिन्दी साहित्य जगत में गोपाल सिंह नेपाली के योगदान का महत्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि इनकी मौत के बाद उस समय की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं ने इनके जीवन और कृतित्व पर विशेषांकों की झड़ी-सी लगा दी थी। नेपाली जी के ऐसे अनेक साहित्यिक गीत है जो आज भी सुनने वालों के मन प्राण को अभिभूत कर देते है, खासकर- नौ लाख सितारों ने लूटा, दो तुम्हारे नयन दो हमारे नयन, तथा तन का दिया रूप की बाती, दीपक जलता रहा रातभर आदि गीत काफी अनूठे है।
आज हम उस महान जनप्रिय कवि गीतकार को याद करे न करे पर उनकी कृतियाँ- उमंग, पंछी, रागिनी, पंचमी, नवीन, हिमालय ने पुकारा, पीपल का पेड़, कल्पना, नीलिमा और तूफानों को आवाज दो जैसी कालजयी रचनाओं के माध्यम से साहित्य इतिहास में सदा-सदा अमर रहेगे। अंत में उन्हीं की पंक्तियों के साथ- 'बाबुल तुम बगिया के तरुवर, हम तरुवर की चिड़ियाँ, दाना चुगते उड़ जाएँ हम, पिया मिलन की घड़ियाँ।'
***
दोहा दोहा चिकित्सा
गर्म दूध-गुड़ नित पिएँ, त्वचा नर्म हो आप
हर विकार मिट वजन घट, रोग न पाए व्याप
नित गुड़ अदरक चबाएँ, जोड़ दर्द हो दूर
मासिक समय न दर्द हो, केश बढ़ें भरपूर
श्वास फूलती है अगर, दवा श्रेष्ठ अंजीर
कफ-बलगम कर दूर यह, शीघ्र मिटाए पीर
रात फुला अंजीर त्रय, पानी में खा भोर
पानी पी लें माह भर, करें न नाहक शोर
काढ़ा तुलसी सौंठ का, श्वसन तंत्र का मीत
श्वास फूलने दमा में, सेवन उत्तम रीत
सोंठ चूर्ण चुटकी, नमक काला, काली मिर्च
सेवन से खांसी मिटे, व्यर्थ न करिए खर्च
तुलसी पत्ते पाँच सँग, काला नमक उबाल
काली मिर्ची सौंठ सँग, सेवन करे कमाल
अजवाइन को पीसकर, पानी संग उबाल
पिएँ भाप लें यदि दमा, मिटे न करे निढाल
तिल का तेल गरम मलें, छाती पर लें सेक
दमा श्वास पीड़ा मिटे, है सलाह यह नेक
श्वास दमा पीड़ा घटे, खाएँ फल अंगूर
अंगूरी से दूर हों, लाभ मिले भरपूर
चौलाई रस-शहद पी, नित्य खाइए साग
कष्ट न दे हो दूर झट, श्वास रोग खटराग
तीन कली लहसुन डला, दूध उबालें मीत
शयन पूर्व पी लीजिए, श्वास रोग लें जीत
काढ़ा सेवन सौंफ का, बलगम करता दूर
श्वसन रोग से मुक्ति पा, बजे श्वास संतूर
लौंग-शहद काढ़ा बना, पीते रहें हुजूर
श्वसन तंत्र मजबूत हो, श्वास मिले भरपूर
शहद-दालचीनी मिला, पिएँ गुनगुना नीर
या पी लें गोमूत्र तो, घटे श्वास की पीर
हींग-शहद चुप चाटिए, चार बार रह शांत
साँस फूलने से मिले, मुक्ति न रहें अशांत
नीबू रस पानी गरम, पिएँ मिले आराम
केला सेवन मत करें, लेती श्वास विराम
गुड़-सरसों के तेल में, डाल मिला लें मौन
नित करिए सेवन मलें, रोग न जाने कौन
ताजे फल सब्जी हरी, चने अंकुरित श्रेष्ठ
चिकनाई एसिड तजें, कार्बोहाइड्रेट नेष्ठ
२८.६.२०२०
***
दोहा मुक्तिका:
काम न आता प्यार
काम न आता प्यार यदि, क्यों करता करतार।।
जो दिल बस; ले दिल बसा, वह सच्चा दिलदार।।
*
जां की बाजी लगे तो, काम न आता प्यार।
सरहद पर अरि शीश ले, पहले 'सलिल' उतार।।
*
तूफानों में थाम लो, दृढ़ता से पतवार।
काम न आता प्यार गर, घिरे हुए मझधार।।
*
गैरों को अपना बना, दूर करें तकरार।
कभी न घर में रह कहें, काम न आता प्यार।।
*
बिना बोले ही बोलना, अगर हुआ स्वीकार।
'सलिल' नहीं कह सकोगे, काम न आता प्यार।।
*
मिले नहीं बाज़ार में, दो कौड़ी भी दाम।
काम न आता प्यार जब, रहे विधाता वाम।।
*
राजनीति में कभी भी, काम न आता प्यार।
दाँव-पेंच; छल-कपट से, जीवन हो निस्सार।।
*
काम न आता प्यार कह, करें नहीं तकरार।
कहीं काम मनुहार दे, कहीं काम इसरार।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
***
दोहा संवाद:
बिना कहे कहना 'सलिल', सिखला देता वक्त।
सुन औरों की बात पर, कर मन की कमबख्त।।
*
आवन जावन जगत में,सब कुछ स्वप्न समान।
मैं गिरधर के रंग रंगी, मान सके तो मान।। - लता यादव
*
लता न गिरि को धर सके, गिरि पर लता अनेक।
दोहा पढ़कर हँस रहे, गिरिधर गिरि वर एक।। -संजीव
*
मैं मोहन की राधिका, नित उठ करूँ गुहार।
चरण शरण रख लो मुझे, सुनकर नाथ पुकार।। - लता यादव
*
मोहन मोह न अब मुझे, कर माया से मुक्त।
कहे राधिका साधिका, कर मत मुझे वियुक्त।। -संजीव
*
ना मैं जानूँ साधना, ना जानूँ कुछ रीत।
मन ही मन मनका फिरे,कैसी है ये प्रीत।। - लता यादव
*
करे साधना साधना, मिट जाती हर व्याध।
करे काम ना कामना, स्वार्थ रही आराध।। -संजीव
*
सोच सोच हारी सखी, सूझे तनिक न युक्ति ।
जन्म-मरण के फेर से, दिलवा दे जो मुक्ति।। -लता यादव
*
नित्य भोर हो जन फिर, नित्य रात हो मौत।
तन सो-जगता मन मगर, मौन हो रहा फौत।। -संजीव
*
वाणी पर संयम रखूँ, मुझको दो आशीष।
दोहे उत्तम रच सकूँ, कृपा करो जगदीश।। -लता यादव
*
हरि न मौन होते कभी, शब्द-शब्द में व्याप्त।
गीता-वचन उचारते, विश्व सुने चुप आप्त।। -संजीव
*
२८-६-२०१८, ७९९९५५९६१८
***
दोहा सलिला:
*
हर्ष; खुशी; उल्लास; सुख, या आनंद-प्रमोद।
हैं आकाश-कुसुम 'सलिल', अब आल्हाद विनोद।।
*
कहीं न हैपीनेस है, हुआ लापता जॉय।
हाथों में हालात के, ह्युमन बीइंग टॉय।।
*
एक दूसरे से मिलें, जब मन जाए झूम।
तब जीवन का अर्थ हो, सही हमें मालूम।।
*
मेरे अधरों पर खिले, तुझे देख मुस्कान।
तेरे लब यदि हँस पड़ें, पड़े जान में जान।।
*
तू-तू मैं-मैं भुलकर, मैं तू हम हों मीत।
तो हर मुश्किल जीत लें, यह जीवन की रीत।।
*
श्वास-आस संबंध बो, हरिया जीवन-खेत।
राग-द्वेष कंटक हटा, मतभेदों की रेत।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
***
दोहा दुनिया
चंपा तुझ में तीन गुण ,रूप ,रंग और बास
अवगुण केवल एक है ,भ्रमर ना आवै पास
चंपा बदनी राधिका भ्रमर कृष्ण का दास
निज जननी अनुहार के भ्रमर न जाये पास
इन दोनों दोहों के दोहाकारों के नाम भूल गया हूँ. बताइये
***

नवगीत
खिला मोगरा
*
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
***
गीत-
*
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
राकेशी ज्योत्सना न शीतल, लिये क्रांति की नव मशाल है
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है
*
कल तक रही विदेशी सत्ता, क्षति पहुँचाना लगा सार्थक
आज स्वदेशी चुने हुए से टकराने का दृश्य मार्मिक
कुरुक्षेत्र की सीख यही है, दु:शासन से लड़ना होगा
धृतराष्ट्री है न्याय व्यवस्था मिलकर इसे बदलना होगा
वादों के अम्बार लगे हैं, गांधारी है न्यायपीठ पर
दुर्योधन देते दलील, चुक गये भीष्म, पर चलना होगा
आप बढ़ा जी टकराने अब उसका तिलकित नहीं भाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
हाथ हथौड़ा तिनका हाथी लालटेन साइकिल पथ भूले
कमल मध्य को कुचल, उच्च का हाथ थाम सपनों में झूले
निम्न कटोरा लिये हाथ में, अनुचित-उचित न देख पा रहा
मूल्य समर्थन में, फंदा बन कसा गले में कहर ढा रहा
दाल टमाटर प्याज रुलाये, खाकर हवा न जी सकता जन
पानी-पानी स्वाभिमान है, चारण सत्ता-गान गा रहा
छाते राहत-मेघ न बरसें, टैक्स-सूर्य का व्याल-जाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
महाकाल जा कुंभ करायें, क्षिप्रा में नर्मदा बहायें
उमा बिना शिव-राज अधूरा, नंदी चैन किस तरह पायें
सिर्फ कुबेरों की चाँदी है, श्रम का कोई मोल नहीं है
टके-तीन अभियंता बिकते, कहे व्यवस्था झोल नहीं है
छले जा रहे अपनों से ही, सपनों- नपनों से दुःख पाया
शानदार हैं मकां, न रिश्ते जानदार कुछ तोल नहीं है
जल पलाश सम 'सलिल', बदल दे अब न सहन के योग्य हाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
२८.६.२०१६
***
मुक्तिका:
संजीव
*
पढ़ेंगे खुदका लिखा खुद निहाल होना है
पढ़े जो और तो उसको निढाल होना है
*
हुई है बात सलीके की कुछ सियासत में
तभी से तय है कि जमकर बबाल होना है
*
कहा जो हमने वही सबको मानना होगा
यही जम्हूरियत की अब मिसाल होना है
*
दियों से दुश्मनी, बाती से अदावत जिनको
उन्हीं के हाथों में जलती मशाल होना है
*
कहाँ से आये मियाँ और कहाँ जाते हो?
न इससे ज्यादा कठिन कुछ सवाल होना है
***
दोहा मुक्तिका:
*
उगते सूरज की करे, जगत वंदना जाग
जाग न सकता जो रहा, उसका सोया भाग
*
दिन कर दिनकर ने कहा, वरो कर्म-अनुराग
संध्या हो निर्लिप्त सच, बोला: 'माया त्याग'
*
तपे दुपहरी में सतत, नित्य उगलता आग
कहे: 'न श्रम से भागकर, बाँधो सर पर पाग
*
उषा दुपहरी साँझ के, संग खेलता फाग
दामन पर लेकिन लगा, कभी न किंचित दाग
*
निशा-गोद में सर छिपा, करता अचल सुहाग
चंद्र-चंद्रिका को मिला, हँसे- पूर्ण शुभ याग
*
भू भगिनी को भेंट दे, मार तिमिर का नाग
बैठ मुँड़ेरे भोर में, बोले आकर काग
*
'सलिल'-धार में नहाये, बहा थकन की झाग
जग-बगिया महका रहा, जैसे माली बाग़
२८.६.२०१५
***
लघु कथा:
बाँस
.
गेंड़ी पर नाचते नर्तक की गति और कौशल से मुग्ध जनसमूह ने करतल ध्वनि की. नर्तक ने मस्तक झुकाया और तेजी से एक गली में खो गया।
आश्चर्य हुआ प्रशंसा पाने के लिये लोग क्या-क्या नहीं करते? चंद करतल ध्वनियों के लिये रैली, भाषण, सभा, समारोह, यहाँ ताक की खुद प्रायोजित भी कराते हैं। यह अनाम नर्तक इसकी उपेक्षा कर चला गया जबकि विरागी-संत भी तालियों के मोह से मुक्त नहीं हो पाते। मंदिर से संसद तक और कोठों से अमरोहों तक तालियों और गालियों का ही राज्य है।
संयोगवश अगले ही दिन वह नर्तक फिर मिला गया। आज वह पीठ पर एक शिशु को बाँधे हाथ में लंबा बाँस लिये रस्से पर चल रहा था और बज रही थीं तालियाँ लेकिन वह फिर गायब हो गया।
कुछ दिन बाद नुक्कड़ पर फिर दिख गया वह... इस बार कंधे पर रखे बाँस के दोनों ओर जलावन के गट्ठर टँगे थे जिन्हें वह बेचने जा रहा था।
मैंने पुकारा तो वह रुक गया। मैंने उसके नृत्य और रस्से पर चलने की कला की प्रशंसा कर पूछा कि इतना अच्छा कलाकार होने के बाद भी वह अपनी प्रशंसा से दूर क्यों चला जाता है? कला साधना के स्थान पर अन्य कार्यों को समय क्यों देता है?
कुछ पल वह मुझे देखता रहा फिर लम्बी साँस भरकर बोला : 'क्या कहूँ? कला साधना और प्रशंसा तो मुझे भी मन भाती है पर पेट की आग न तो कला से, न प्रशंसा से बुझती है। तालियों की आवाज़ में रमा रहूँ तो बच्चे भूखे रह जायेंगे.' मैंने जरूरत न होते हुए भी जलावन ले ली... उसे परछी में बैठाकर पानी पिलाया और रुपये दिए तो वह बोल पड़ा: 'सब किस्मत का खेल है।अच्छा-खासा व्यापार करता था। पिता को किसी से टक्कर मार दी। उनके इलाज में हुए खर्च में लिये कर्ज को चुकाने में पूँजी ख़त्म हो गयी। बचपन का साथी बाँस और उस पर सीखे खेल ही पेट पालने का जरिया बन गये।' इससे पहले कि मैं उसे हिम्मत देता वह फिर बोला: 'फ़िक्र न करें, वे दिन न रहे तो ये भी न रहेंगे। अभी तो मुझे कहीं झुककर, कहीं तनकर बाँस की तरह परिस्थितियों से जूझना ही नहीं उन्हें जीतना भी है।' और वह तेजी से आगे बढ़ गया। मैं देखता रह गया उसके हाथ में झूलता बाँस।
***
* ब्रम्ह कमल
* कमल, कुमुद, व कमलिनी का प्रयोग कहीं-कहीं भिन्न पुष्प प्रजातियों के रूप में है, कहीं-कहीं एक ही प्रजाति के पुष्प के पर्याय के रूप में. कमल के रक्तकमल, नीलकमल तथा श्वेतकमल तीन प्रकार रंग के आधार पर वर्णित हैं. कमल-कमलिनी का विभाजन बड़े-छोटे आकार के आधार पर प्रतीत होता है. कुमुद को कहीं कमल, कहीं कमलिनी कहा गया है. कुमद के साथ कुमुदिनी का भी प्रयोग हुआ है. कमल सूर्य के साथ उदित होता है, उसे सूर्यमुखी, सूर्यकान्ति, रविप्रिया आदि कहा गया है. रात में खिलनेवाली कमलिनी को शशिमुखी, चन्द्रकान्ति, रजनीकांत, कहा गया है. रक्तकमल के लाल रंग की श्री तथा हरि के कर-पद पल्लवों से समानता के कारण हरिपद, श्रीकर जैसे पर्याय बने हैं, सूर्य, चन्द्र, विष्णु, लक्ष्मी, जल, नदी, समुद्र, सरोवर आदि से जन्म के आधार पर बने पर्यायों के साथ जोड़ने पर कमल के अनेक और पर्यायी शब्द बनते हैं. मुझसे अनुरोध था कि कमल के सभी पर्यायों को गूँथकर रचना करूँ. माँ शारदा के श्री चरणों में यह कमल-माल अर्पित कर आभारी हूँ. सभी पर्यायों को गूंथने पर रचना लंबी होगी. पाठकों की प्रतिक्रिया ही बताएगी कि गीतकार निकष पर खरा उतर सका या नहीं?
गीत
शतदल पंकज कमल
*
शतदल, पंकज, कमल, सूर्यमुख
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.
शूल चुभा सुरभित गुलाब का फूल-
कली-मन म्लान कर रहा...
*
जंगल काट, पहाड़ खोदकर
ताल पाटता महल न जाने.
भू करवट बदले तो पल में-
मिट जायेंगे सब अफसाने..
सरवर सलिल समुद्र नदी में
खिल इन्दीवर कुई बताता
हरिपद-श्रीकर, श्रीपद-हरिकर
कृपा करें पर भेद न माने..
कुंद कुमुद क्षीरज नीरज नित
सौगन्धिक का गान कर रहा.
सरसिज, अलिप्रिय, अब्ज, रोचना
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.....
*
पुण्डरीक सिंधुज वारिज
तोयज उदधिज नव आस जगाता.
कुमुदिनि, कमलिनि, अरविन्दिनी के
अधरों पर शशिहास सजाता..
पनघट चौपालों अमराई
खलिहानों से अपनापन रख-
नीला लाल सफ़ेद जलज हँस
सुख-दुःख एक सदृश बतलाता.
उत्पल पुंग पद्म राजिव
कब निर्मलता का भान कर रहा.
जलरुह अम्बुज अम्भज कैरव
श्रम-सीकर से स्नान कर रहा.....
*
बिसिनी नलिन सरोज कोकनद
जाति-धर्म के भेद न मानें.
मन मिल जाए ब्याह रचायें-
एक गोत्र का खेद न जानें..
दलदल में पल दल न बनाते,
ना पंचायत, ना चुनाव ही.
शशिमुख-रविमुख रह अमिताम्बुज
बैर नहीं आपस ठानें..
अमलतास हो या पलाश
पुहकर पुष्कर का गान कर रहा.
सौगन्धिक पुन्नाग अलोही
श्रम-सीकर से
स्नान कर
*
१०-७-२०१०
-----------------
अभिनव प्रयोग-
१९. कमल-कमलिनी विवाह
*
* रक्त कमल
अंबुज शतदल कमल
अब्ज हर्षाया रे!
कुई कमलिनी का कर
गहने आया रे!...
**
हिमकमल
अंभज शीतल उत्पल देख रहा सपने
बिसिनी उत्पलिनी अरविन्दिनी सँग हँसने
कुंद कुमुद क्षीरज अंभज नीरज के सँग-
नीलाम्बुज नीलोत्पल नीलोफर भी दंग.
कँवल जलज अंबोज नलिन पुहुकर पुष्कर
अर्कबन्धु जलरुह राजिव वारिज सुंदर
मृणालिनी अंबजा अनीकिनी वधु मनहर
यह उसके, वह भी
इसके मन भाया रे!...
*
* नील कमल
बाबुल ताल, तलैया मैया हँस-रोयें
शशिप्रभ कुमुद्वती कैरविणी को खोयें.
निशापुष्प कौमुदी-करों मेंहदी सोहे.
शारंग पंकज पुण्डरीक मुकुलित मोहें.
बन्ना-बन्नी, गारी गायें विष्णुप्रिया.
पद्म पुंग पुन्नाग शीतलक लिये हिया.
रविप्रिय श्रीकर कैरव को बेचैन किया
अंभोजिनी अंबुजा
हृदय अकुलाया रे!...
**
श्वेत कमल
चंद्रमुखी-रविमुखी हाथ में हाथ लिये
कर्णपूर सौगन्धिक श्रीपद साथ लिये.
इन्दीवर सरसिज सरोज फेरे लेते.
मौन अलोही अलिप्रिय सात वचन देते.
असिताम्बुज असितोत्पल-शोभा कौन कहे?
सोमभगिनी शशिकांति-कंत सँग मौन रहे.
'सलिल'ज हँसते नयन मगर जलधार बहे
श्रीपद ने हरिकर को
पूर्ण बनाया रे!...
*
२०-७-२०१२
* कमल हर कीचड़ में नहीं खिलता. गंदे नालों में कमल नहीं दिखेगा भले ही कीचड़ हो. कमल का उद्गम जल से है इसलिए वह नीरज, जलज, सलिलज, वारिज, अम्बुज, तोयज, पानिज, आबज, अब्ज है. जल का आगर नदी, समुद्र, तालाब हैं... अतः कमल सिंधुज, उदधिज, पयोधिज, नदिज, सागरज, निर्झरज, सरोवरज, तालज भी है. जल के तल में मिट्टी है, वहीं जल और मिट्टी में मेल से कीचड़ या पंक में कमल का बीज जड़ जमता है इसलिए कमल को पंकज कहा जाता है. पंक की मूल वृत्ति मलिनता है किन्तु कमल के सत्संग में वह विमलता का कारक हो जाता है. क्षीरसागर में उत्पन्न होने से वह क्षीरज है. इसका क्षीर (मिष्ठान्न खीर) से कोई लेना-देना नहीं है. श्री (लक्ष्मी) तथा विष्णु की हथेली तथा तलवों की लालिमा से रंग मिलने के कारण रक्त कमल हरि कर, हरि पद, श्री कर, श्री पद भी कहा जाता किन्तु अन्य कमलों को यह विशेषण नहीं दिया जा सकता. पद्मजा लक्ष्मी के हाथ, पैर, आँखें तथा सकल काया कमल सदृश कही गयी है. पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना के नेत्र गुलाबी भी हो सकते हैं, नीले भी. सीता तथा द्रौपदी के नेत्र क्रमशः गुलाबी व् नीले कहे गए हैं और दोनों को पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना विशेषण दिए गये हैं. करकमल और चरणकमल विशेषण करपल्लव तथा पदपल्लव की लालिमा व् कोमलता को लक्ष्य कर कहा जाना चाहिए किन्तु आजकल चाटुकार कठोर-काले हाथोंवाले लोगों के लिये प्रयोग कर इन विशेषणों की हत्या कर देते हैं. श्री राम, श्री कृष्ण के श्यामल होने पर भी उनके नेत्र नीलकमल तथा कर-पद रक्तता के कारण करकमल-पदकमल कहे गये. रीतिकालिक कवियों को नायिका के अन्गोंपांगों के सौष्ठव के प्रतीक रूप में कमल से अधिक उपयुक्त अन्य प्रतीक नहीं लगा. श्वेत कमल से समता रखते चरित्रों को भी कमल से जुड़े विशेषण मिले हैं. मेरे पढ़ने में ब्रम्हकमल, हिमकमल से जुड़े विशेषण नहीं आये... शायद इसका कारण इनका दुर्लभ होना है. इंद्र कमल (चंपा) के रंग चम्पई (श्वेत-पीत का मिश्रण) से जुड़े विशेषण नायिकाओं के लिये गर्व के प्रतीक हैं किन्तु पुरुष को मिलें तो निर्बलता, अक्षमता, नपुंसकता या पाण्डुरोग (पीलिया ) इंगित करते हैं. कुंती तथा कर्ण के पैर कोमलता तथा गुलाबीपन में साम्यता रखते थे तथा इस आधार पर ही परित्यक्त पुत्र कर्ण को रणांगन में अर्जुन के सामने देख-पहचानकर वे बेसुध हो गयी थीं.
*
हिम कमल
विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से
चीन के सिन्चांग वेवूर स्वायत्त प्रदेश में खड़ी थ्येनशान पर्वत माले में समुद्र सतह से तीन हजार मीटर ऊंची सीधी खड़ी चट्टानों पर एक विशेष किस्म की वनस्पति उगती है, जो हिम कमल के नाम से चीन भर में मशहूर है। हिम कमल का फूल एक प्रकार की दुर्लभ मूल्यवान जड़ी बूटी है, जिस का चीनी परम्परागत औषधि में खूब प्रयोग किया जाता है। विशेष रूप से ट्यूमर के उपचार में, लेकिन इधर के सालों में हिम कमल की चोरी की घटनाएं बहुत हुआ करती है, इस से थ्येन शान पहाड़ी क्षेत्र में उस की मात्रा में तेजी से गिरावट आयी। वर्ष 2004 से हिम कमल संरक्षण के लिए व्यापक जनता की चेतना उन्नत करने के लिए प्रयत्न शुरू किए गए जिसके फलस्वरूप पहले हिम कमल को चोरी से खोदने वाले पहाड़ी किसान और चरवाहे भी अब हिम कमल के संरक्षक बन गए हैं।
***
प्रस्तुत है एक रचना - प्रतिरचना आप इस क्रम में अपनी रचना टिप्पणी में प्रस्तुत कर सकते हैं.
रचना - प्रति रचना : इंदिरा प्रताप / संजीव 'सलिल'
*
रचना:
अमलतास का पेड़
इंदिरा प्रताप
*
वर्षों बाद लौटने पर घर
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
पेड़ पुराना अमलतास का,
सड़क किनारे यहीं खड़ा था
लदा हुआ पीले फूलों से|
पहली सूरज की किरणों से
सजग नीड़ का कोना–कोना,
पत्तों के झुरमुट के पीछे,
कलरव की धुन में गाता था,
शिशु विहगों का मौन मुखर हो|
आँखें अब भी ढूँढ रही हैं
तेरी–मेरी
पेड़ पुराना अमलतास का
लदा हुआ पीले फूलों से
कुछ दिन पहले यहीं खड़ा था|
गुरुवार, २३ अगस्त २०१२
*****
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in
प्रतिरचना:
अमलतास का पेड़
संजीव 'सलिल'
**
तुम कहते हो ढूँढ रहे हो
पेड़ पुराना अमलतास का।
*
जाकर लकड़ी-घर में देखो
सिसक रही हैं चंद टहनियाँ,
कचरा-घर में रोती कलियाँ,
बिखरे फूल सड़क पर करते
चीत्कार पर कोई न सुनता।
करो अनसुना.
अपने अंतर्मन से पूछो:
क्यों सन्नाटा फैला-पसरा
है जीवन में?
घर-आंगन में??
*
हुआ अंकुरित मैं- तुम जन्मे,
मैं विकसा तुम खेल-बढ़े थे।
हुईं पल्लवित शाखाएँ जब
तुमने सपने नये गढ़े थे।
कलियाँ महकीं, कँगना खनके
फूल खिले, किलकारी गूँजी।
बचपन में जोड़ा जो नाता
तोड़ा सुन सिक्कों की खनखन।
तभी हुई थी घर में अनबन।
*
मुझसे जितना दूर हुए तुम,
तुमसे अपने दूर हो गए।
मन दुखता है यह सच कहते
आँखें रहते सूर हो गए।
अब भी चेतो-
व्यर्थ न खोजो,
जो मिट गया नहीं आता है।
उठो, फिर नया पौधा रोपो,
टूट गये जो नाते जोड़ो.
पुरवैया के साथ झूमकर
ऊषा संध्या निशा साथ हँस
स्वर्गिक सुख धरती पर भोगो
बैठ छाँव में अमलतास की.
*
salil.sanjiv@gmail.com
***
श्रृंगार-गीत :
तुम
*
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सूरज करता ताका-झाँकी
मन में आँकें सूरत बाँकी
नाच रहे बरगद बब्बा भी
झूम दे रहे ताल।
तुम इठलाईं
तो पनघट पे
कूकी मौन रसाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
सद्यस्नाता बूँदें बरसें
देख बदरिया हरषे-तरसे
पवन छेड़ता श्यामल कुंतल
उलझें-सुलझे बाल।
तुम खिसियाईं
पल्लू थामे
झिझक न करो मलाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
बजी घंटियाँ मन मंदिर में
करी अर्चना कोकिल स्वर में
रीझ रहे नटराज उमा पर
पहना, पहनी माल।
तुम भरमाईं
तो राधा लख
नटवर हुए निहाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
करछुल-चम्मच बाजी छुनछन
बटलोई करती है भुनभुन
लौकी हाथ लगाए हल्दी
मुकुट टमाटर लाल।
तुम पछताईं
नमक अधिक चख
स्वेद सुशोभित भाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
*
पूर्वा सँकुची कली नवेली
हुई दुपहरी प्रखर हठीली
संध्या सुंदर, कलरव सस्वर
निशा नशीली चाल।
तुम हुलसाईं
अपने सपने
पूरे किये कमाल।
तुम मुस्काईं
तो ऊषा के
हुए गुलाबी गाल।
२८-६-२०१७
***
गीत-
*
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
राकेशी ज्योत्सना न शीतल, लिये क्रांति की नव मशाल है
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है
*
कल तक रही विदेशी सत्ता, क्षति पहुँचाना लगा सार्थक
आज स्वदेशी चुने हुए से टकराने का दृश्य मार्मिक
कुरुक्षेत्र की सीख यही है, दु:शासन से लड़ना होगा
धृतराष्ट्री है न्याय व्यवस्था मिलकर इसे बदलना होगा
वादों के अम्बार लगे हैं, गांधारी है न्यायपीठ पर
दुर्योधन देते दलील, चुक गये भीष्म, पर चलना होगा
आप बढ़ा जी टकराने अब उसका तिलकित नहीं भाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
हाथ हथौड़ा तिनका हाथी लालटेन साइकिल पथ भूले
कमल मध्य को कुचल, उच्च का हाथ थाम सपनों में झूले
निम्न कटोरा लिये हाथ में, अनुचित-उचित न देख पा रहा
मूल्य समर्थन में, फंदा बन कसा गले में कहर ढा रहा
दाल टमाटर प्याज रुलाये, खाकर हवा न जी सकता जन
पानी-पानी स्वाभिमान है, चारण सत्ता-गान गा रहा
छाते राहत-मेघ न बरसें, टैक्स-सूर्य का व्याल-जाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
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महाकाल जा कुंभ करायें, क्षिप्रा में नर्मदा बहायें
उमा बिना शिव-राज अधूरा, नंदी चैन किस तरह पायें
सिर्फ कुबेरों की चाँदी है, श्रम का कोई मोल नहीं है
टके-तीन अभियंता बिकते, कहे व्यवस्था झोल नहीं है
छले जा रहे अपनों से ही, सपनों- नपनों से दुःख पाया
शानदार हैं मकां, न रिश्ते जानदार कुछ तोल नहीं है
जल पलाश सम 'सलिल', बदल दे अब न सहन के योग्य हाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
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१८-६-२०१६
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नवगीत
खिला मोगरा
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खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
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हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
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ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
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सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
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२८-६-२०१६
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मुक्तिका:
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पढ़ेंगे खुदका लिखा खुद निहाल होना है
पढ़े जो और तो उसको निढाल होना है
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हुई है बात सलीके की कुछ सियासत में
तभी से तय है कि जमकर बबाल होना है
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कहा जो हमने वही सबको मानना होगा
यही जम्हूरियत की अब मिसाल होना है
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दियों से दुश्मनी, बाती से अदावत जिनको
उन्हीं के हाथों में जलती मशाल होना है
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कहाँ से आये मियाँ और कहाँ जाते हो?
न इससे ज्यादा कठिन कुछ सवाल होना है
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दोहा मुक्तिका:
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उगते सूरज की करे, जगत वंदना जाग
जाग न सकता जो रहा, उसका सोया भाग
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दिन कर दिनकर ने कहा, वरो कर्म-अनुराग
संध्या हो निर्लिप्त सच, बोला: 'माया त्याग'
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तपे दुपहरी में सतत, नित्य उगलता आग
कहे: 'न श्रम से भागकर, बाँधो सर पर पाग
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उषा दुपहरी साँझ के, संग खेलता फाग
दामन पर लेकिन लगा, कभी न किंचित दाग
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निशा-गोद में सर छिपा, करता अचल सुहाग
चंद्र-चंद्रिका को मिला, हँसे- पूर्ण शुभ याग
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भू भगिनी को भेंट दे, मार तिमिर का नाग
बैठ मुँड़ेरे भोर में, बोले आकर काग
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'सलिल'-धार में नहाये, बहा थकन की झाग
जग-बगिया महका रहा, जैसे माली बाग़
२८-६-२०१५
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विमर्श -
जन का पैगाम - जन नायक के नाम
प्रिय नरेंद्र जी, उमा जी
सादर वन्दे मातरम
मुझे आपका ध्यान नदी घाटियों के दोषपूर्ण विकास की ओर आकृष्ट करना है।
मूलतः नदियाँ गहरी तथा किनारे ऊँचे पहाड़ियों की तरह और वनों से आच्छादित थे। कालिदास का नर्मदा तट वर्णन देखें। मानव ने जंगल काटकर किनारों की चट्टानें, पत्थर और रेत खोद लिये तो नदी का तक और किनारों का अंतर बहुत कम बचा। इससे भरनेवाले पानी की मात्रा और बहाव घाट गया, नदी में कचरा बहाने की क्षमता न रही, प्रदूषण फैलने लगा, जरा से बरसात में बाढ़ आने लगी, उपजाऊ मिट्टी बाह जाने से खेत में फसल घट गई, गाँव तबाह हुए।
इस विभीषिका से निबटने हेतु कृपया, निम्न सुझावों पर विचार कर विकास कार्यक्रम में यथोचित परिवर्तन करने हेतु विचार करें:
१. नदी के तल को लगभग १० - १२ मीटर गहरा, बहाव की दिशा में ढाल देते हुए, ऊपर अधिक चौड़ा तथा नीचे तल में कम चौड़ा खोदा जाए।
२. खुदाई में निकली सामग्री से नदी तट से १-२ किलोमीटर दूर संपर्क मार्ग तथा किनारों को पक्का बनाया जाए ताकि वर्षा और बाढ़ में किनारे न बहें।
३. घाट तक आने के लिये सड़क की चौड़ाई छोड़कर शेष किनारों पर घने जंगल लगाए जाएँ जिन्हें घेरकर प्राकृतिक वातावरण में पशु-पक्षी रहें मनुष्य दूर से देख आनंदित हो सके।
४. गहरी हुई बड़ी नदियों में बड़ी नावों और छोटे जलयानों से यात्री और छोटी नदियों में नावों से यातायात और परिवहन बहुत सस्ता और सुलभ हो सकेगा। बहाव की दिशा में तो नदी ही अल्प ईंधन में पहुंचा देगी। सौर ऊर्जा चलित नावों से वर्ष में ८-९ माह पेट्रोल -डीज़ल की तुलना में लगभग एक बटे दस धुलाई व्यय होगा। प्राचीन भारत में जल संसाधन का प्रचुर प्रयोग होता था।
५. घाटों पर नदी धार से ३००-५०० मीटर दूर स्नानागार-स्नान कुण्ड तथा पूजनस्थल हों जहाँ जलपात्र या नल से नदी उपलब्ध हो। नदी के दर्शन करते हुए पूजन-तर्पण हो। प्रयुक्त दूषित जल व् अन्य सामग्री घाट पर बने लघु शोधन संयंत्र में उपचारित का शुद्ध जल में परिवर्तित की जाने के बाद नदी के तल में छोड़ा जाए। तथा नदी का प्रदुषण समाप्त होगा तथा जान सामान्य की आस्था भी बनी सकेगी। इस परिवर्तन के लिये संतों-पंडों तथा स्थानी जनों को पूर्व सहमत करने से जन विरोध नहीं होगा।
६. नदी के समीप हर शहर, गाँव, कस्बे, कारखाने, शिक्षा संस्थान, अस्पताल आदि में लघु जल-मल निस्तारण केंद्र हो। पूरे शहर के लिए एक वृहद जल-नल केंद्र मँहगा, जटिल तथा अव्यवहार्य है जबकि लघु ईकाइयां कम देखरेख में सुविधा से संचालित होने के साथ स्थानीय रोजगार भी सृजित करेंगी। इनके द्वारा उपचारित जल नदियों में छोड़ना सुरक्षित होगा।
७. एक राज्यों में बहने वाली नदियों पर विकास योजना केंद्र सरकार की देख-रेख और बजट से हो जबकि एक राज्य की सीमा में बह रही नदियों की योजनों की देखरेख और बजट राज्य सरकारें देखें।जिन स्थानों पर निवासी २५ प्रतिशत जन सहयोग दान करें उन्हें प्राथमिकता दी जाए। हिस्सों में स्थानीय जनों ने बाँध बनाकर या पहाड़ खोदकर बिना सरकारी सहायता के अपनी समस्या का निदान खोज लिया है और इनसे लगाव के कारण वे इनकी रक्षा व मरम्मत भी खुद करते है जबकि सरकारी मदद से बनी योजनाओं को आम जन ही लगाव न होने से हानि पहुंचाते हैं। इसलिए श्रमदान अवश्य हो। ७० के दशक में सरकारी विकास योजनाओं पर ५० प्रतिशत श्रमदान की शर्त थी, जो क्रमशः काम कर शून्य कर दी गयी तो आमजन लगाव ख़त्म हो जाने के कारण सामग्री की चोरी करने लगे और कमीशन माँगा जाने लगा।श्रमदान करनेवालों को रोजगार मिलेगा।
८. नर्मदा में गुजरात से जबलपुर तक, गंगा में बंगाल से हरिद्वार तक तथा राजस्थान, महाकौशल, बुंदेलखंड और बघेलखण्ड में छोटी नदियों से जल यातायात होने पर इन पिछड़े क्षेत्रों का कायाकल्प हो जाएगा।
९. इससे भूजल स्तर बढ़ेगा और सदियों के लिए पेय जल की समस्या हल हो जाएगी।भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी।
कृपया, इन बिन्दुओं पर गंभीरतापूर्वक विचारण कर, क्रियान्वयन की दिशा में कदम उठाये जाने हेतु निवेदन है।
संजीव वर्मा
एक नागरिक
२८-६-२०१४