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सोमवार, 22 जुलाई 2019

कार्यशाला : घनाक्षरी

कार्यशाला : घनाक्षरी
माँ कोख में न मारिए, गोद में ले दुलारिए, प्यार से पुचकारिए, बेटी उपहार है। सजाती घर आँगन, बहाती रस पावन, लगती मनभावन, घर की शृंगार है। तपस्वी साधिका वह, श्याम की राधिका वह ब्रज की वाटिका वह, बरसाती प्यार है दो कुल की शान बेटी, देश की गुमान बेटी, माँ की अभिमान बेटी अमि रसधार है।
*
विमर्श: सरस्वती कुमारी रचित उक्त मनहरण
घनाक्षरी में ८-८-८-७ का वर्ण संतुलन होते हुए
भी लय का अभाव है। उनकर आग्रह पर कुछ
बदलाव के साथ इसे पढ़िए और परिवर्तनों का
कारण व प्रभाव समझिये।
कोख में न मारिए माँ, गोद में दुलारिए भी,
प्यार से पुकार कहें, बेटी उपहार है। शोभा घर-अँगना की, बहे स्नेह सलिला सी, लगे मनभावन, ये घर का शृंगार है। तापसी है साधिका है, गोकुल की राधिका है, शिवानी भवानी भी है, बरसाती प्यार है। दो कुलों की शान बेटी, देश का गुमान बेटी, माँ की अभिमान बेटी, अमि रसधार है।

रविवार, 19 नवंबर 2017

ghanaksharee

घनाक्षरी
मेरा सच्चा परिचय, केवल इतना बेटा, हिंदी माता का हूँ बेटा, गाता हिंदी गीत हमेशा। चारण हूँ अक्षर का, सेवक शब्द-शब्द का, दास विनम्र छंद का, पाली प्रीत हमेशा।। नेह नरमदा नहा, गही कविता की छैया, रस गंगा जल पीता, जीता रीत हमेशा। भाव प्रतीक बिंब हैं, साथी-सखा अनगिने, पाठक-श्रोता बाँधव, पाले नीत हमेशा।।
*

ghanaksharee

घनाक्षरी
हिंदी मैया का जैकारा, गुंजा दें सारे विश्वों, देवों, यक्षों-रक्षों में, वे भी आ हिंदी बोलें। हिंदी मैया दिव्या-भव्या, श्रव्या-नव्या, दूजी कोई भाषा ऐसी ना थी, ना है, ना होगी हिंदी बोलें।। हिंदी मैया गैया रेवा भू, माताएँ पाँचों पूजें, दूरी मेटें आओ भेंटें, एका हो हिंदी बोलें हिंदी है छंदों से नाता, हिंदी गीतों की उद्गाता, ऊषा-संध्या चंदा-तारे, सीखें रे हिंदी बोलें
***

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

मनहरण कवित्त: - अनिल कुमार वर्मा

मनहरण कवित्त भारतीय रीति लिये जन-गण प्रीति...

6:29pm Jul 5
मनहरण कवित्त
अनिल कुमार वर्मा

भारतीय रीति लिये जन-गण प्रीति लिये,

कुशल प्रतीति युक्त नीति की डगर हो.
कामना को पाँव मिलें भावना को ठाँव मिलें,
कल्पना के गाँव बसी साधना प्रवर हो.
जीवन की नाव बढ़े भव सिंधु में अबाध,
प्रबल प्रवाह हो या भीषण भँवर हो.
प्रार्थना यही है मातु वीणापाणि बारबार,
कालजयी गीत लिखूं कोकिल सा स्वर हो.

सोमवार, 8 अगस्त 2011

घनाक्षरी सलिला: सावनी घनाक्षरी संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी सलिला:                                                                        
सावनी घनाक्षरी
संजीव 'सलिल'
*
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम, झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह, एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह, मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं, भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
*
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी, कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका, बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी, आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें, बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
*
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये, स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें, कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व, निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो, धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
*
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी, शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
कर्मावती महारानी, पूजतीं माता भवानी, शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी, बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया, नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
*
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का, तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई, हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया, हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ, हरि की शरण गया, सेवा व्रत  ले धुनी.

बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने, एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली, हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी.
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये, शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े, साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

घनाक्षरी सलिला: संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
बुन्देली-
जाके कर बीना सजे, बाके दर सीस नवे, मन के विकार मिटे, नित गुन गाइए.
ज्ञान, बुधि, भासा, भाव, तन्नक न हो अभाव, बिनत रहे सुभाव, गुनन सराहिए..
किसी से नाता लें जोड़, कब्बो जाएँ नहीं तोड़, फालतू न करें होड़, नेह सों निबाहिए.
हाथन तिरंगा थाम, करें सदा राम-राम, 'सलिल' से हों न वाम, देस-वारी जाइए..
*
छत्तीसगढ़ी-
अँचरा मा भरे धान, टूरा गाँव का किसान, धरती मा फूँक प्राण, पसीना बहावथे.
बोबरा-फार बनाव, बासी-पसिया सुहाव, महुआ-अचार खाव, पंडवानी भावथे..
बारी-बिजुरी बनाय, उरदा के पीठी भाय, थोरको न ओतियाय, टूरी इठलावथे.
भारत के जय बोल, माटी मा करे किलोल, घोटुल मा रस घोल, मुटियारी भावथे..
*
निमाड़ी-
गधा का माथा का सिंग, जसो नेता गुम हुयो, गाँव खs बटोsर वोsट, उल्लू की दुम हुयो.
मनख को सुभाव छे, नहीं सहे अभाव छे, करे खांव-खांव छे, आपs से तुम हुयो.. 
टीला पाणी झाड़ नद्दी, हाय खोद रए पिद्दी, भ्रष्टs सरsकारs रद्दी, पता नामालुम हुयो.
'सलिल' आँसू वादला, धरा कहे खाद ला, मिहsनतs का स्वाद पा,  दूर मातम हुयो..
*
मालवी: 
दोहा:
भणि ले  म्हारा देस की, सबसे राम-रहीम.
जल ढारे पीपल तले, अँगना चावे नीम.

शरद की चांदणी से, रात सिनगार करे, गगन से फूल झरे, बिजुरी भू पे गिरे.
आधी राती भाँग बाटी, दिया की बुझाई बाती, मिसरी-बरफ़ घोल्यो, नैना हैं भरे-भरे.
भाभीनी जेठानी रंगे, काकीनी मामीनी भीजें, सासू-जाया नहीं आया, दिल धीर न धरे..
रंग घोल्यो हौद भर, बैठी हूँ गुलाल धर, राह में रोके हैं यार, हाय! टारे न टरे..
*
राजस्थानी:
जीवण का काचा गेला, जहाँ-तहाँ मेला-ठेला, भीड़-भाड़ ठेलमठेला, मोड़ तरां-तरां का.
ठूँठ सरी बैठो काईं?, चहरे पे आई झाईं, खोयी-खोयी परछाईं, जोड़ तरां-तरां का...
चाल्यो बीच बजारा क्यों?, आवारा बनजारा क्यों?, फिरता मारा-मारा क्यों?, हार माने दुनिया .
नाव कनारे लागैगी, सोई किस्मत जागैगी, मंजिल पीछे भागेगी, तोड़ तरां-तरां का....
*
छंद विधान : चार पद, हर पद में चार चरण, ८-८-८-७ पर यति,  

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com


शुक्रवार, 17 जून 2011

एक घनाक्षरी: एक सुर में गाइए..... संजीव 'सलिल'

एक घनाक्षरी:
एक सुर में गाइए.....
संजीव 'सलिल'
*
नया या पुराना कौन?, कोई भी रहे न मौन, 
करके अछूती बात, दिल को छू जाइए. 
छंद है 'सलिल'-धार, अभिव्यक्ति दें निखार, 
शब्दों से कर सिंगार, रचना सजाइए..
भाव, बिम्ब, लय, रस, अलंकार पञ्चतत्व,
हो विदेह देह ऐसी, कविता सुनाइए.
रसखान रसनिधि, रसलीन करें जग,
आरती सरस्वती की, साथ मिल गाइए..
************

शनिवार, 11 जून 2011

घनाक्षरी: नार बिन चले ना.. -----संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी:
संजीव 'सलिल'
नार बिन चले ना..
*
घर के न घाट के हैं, राह के न बाट के हैं, जो न सच जानते हैं, प्यार बिन चले ना.
जीत के भी हारते हैं, जो न प्राण वारते हैं, योद्धा यह जानते हैं, वार बिन चले ना..
दिल को जो जीतते हैं, कभी नहीं रीतते हैं, मन में वे ठानते हैं, हार बिन चले ना.
करते प्रयास हैं जो, वरते उजास हैं जो, सत्य अनुमानते हैं, नार बिन चले ना..
*
रम रहो राम जी में, जम रहो जाम जी में, थम रहो काम जी में, यार बिन चले ना.
नमन करूँ वाम जी, चमन करो धाम जी, अमन आठों याम जी, सार बिन चले ना..
कौन सरकार यहाँ?, कौन सरदार यहाँ?, कौन दिलदार यहाँ?, प्यार बिन चले ना.
लगाओ कचनार जी, लुभाओ रतनार जी, न तोडिये किनार जी, नार बिन चले ना..
*
वतन है बाजार जी, लीजिये उधार जी, करिए न सुधार जी, रार बिन चले ना. 
सासरे जब जाइए, सम्मान तभी पाइए, सालीजी को लुभाइए, कार बिन चले ना..
उतार हैं चढ़ाव हैं,  अभाव हैं निभाव हैं, स्वभाव हैं प्रभाव हैं, सार बिन चले ना.
करिए प्रयास खूब, वरिए हुलास खूब, रचिए उजास खूब, नार बिन चले ना..
*
नार= ज्ञान, पानी, नारी, शिशु जन्म के समय काटे जाने वाली नस.

शनिवार, 28 मई 2011

छंद परिचय: मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त -- संजीव 'सलिल'

मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त

संजीव 'सलिल'
*
मनहरण घनाक्षरी छंद एक वर्णिक छंद है.
इसमें मात्राओं की नहीं, वर्णों अर्थात अक्षरों की गणना की जाती है. ८-८-८-७ अक्षरों पर यति या विराम रखने का विधान है. चरण (पंक्ति) के अंत में लघु-गुरु हो. इस छंद में भाषा के प्रवाह और गति पर विशेष ध्यान दें. स्व. ॐ प्रकाश आदित्य ने इस छंद में प्रभावी हास्य रचनाएँ की हैं.

इस छंद का नामकरण 'घन' शब्द पर है जिसके हिंदी में ४ अर्थ १. मेघ/बादल, २. सघन/गहन, ३. बड़ा हथौड़ा, तथा ४. किसी संख्या का उसी में ३ बार गुणा (क्यूब) हैं. इस छंद में चारों अर्थ प्रासंगिक हैं. घनाक्षरी में शब्द प्रवाह इस तरह होता है मेघ गर्जन की तरह निरंतरता की प्रतीति हो. घंक्षरी में शब्दों की बुनावट सघन होती है जैसे एक को ठेलकर दूसरा शब्द आने की जल्दी में हो. घनाक्षरी पाठक/श्रोता के मन पर प्रहर सा कर पूर्व के मनोभावों को हटाकर अपना प्रभाव स्थापित कर अपने अनुकूल बना लेनेवाला छंद है.

घनाक्षरी में ८ वर्णों की ३ बार आवृत्ति है. ८-८-८-७ की बंदिश कई बार शब्द संयोजन को कठिन बना देती है. किसी भाव विशेष को अभिव्यक्त करने में कठिनाई होने पर कवि १६-१५ की बंदिश अपनाते रहे हैं. इसमें आधुनिक और प्राचीन जैसा कुछ नहीं है. यह कवि के चयन पर निर्भर है. १६-१५ करने पर ८ अक्षरी चरणांश की ३ आवृत्तियाँ नहीं हो पातीं. 

मेरे मत में इस विषय पर भ्रम या किसी एक को चुनने जैसी कोई स्थिति नहीं है. कवि शिल्पगत शुद्धता को प्राथमिकता देना चाहेगा तो शब्द-चयन की सीमा में भाव की अभिव्यक्ति करनी होगी जो समय और श्रम-साध्य है. कवि अपने भावों को प्रधानता देना चाहे और उसे ८-८-८-७ की शब्द सीमा में न कर सके तो वह १६-१५ की छूट लेता है.

सोचने का बिंदु यह है कि यदि १६-१५ में भी भाव अभिव्यक्ति में बाधा हो तो क्या हर पंक्ति में १६+१५=३१ अक्षर होने और १६ के बाद यति (विराम) न होने पर भी उसे घनाक्षरी कहें? यदि हाँ तो फिर छन्द में बंदिश का अर्थ ही कुछ नहीं होगा. फिर छन्दबद्ध और छन्दमुक्त रचना में क्या अंतर शेष रहेगा. यदि नहीं तो फिर ८-८-८ की त्रिपदी में छूट क्यों?

उदाहरण हर तरह के अनेकों हैं. उदाहरण देने से समस्या नहीं सुलझेगी. हमें नियम को वरीयता देनी चाहिए. इसलिए मैंने प्रचालन के अनुसार कुछ त्रुटि रखते हुए रचना भेजी ताकि पाठक पढ़कर सुधारें और ऐसा न हों पर नवीन जी से अनुरोध किया कि वे सुधारें. पाठक और कवि दोनों रचनाओं को पढ़कर समझ सकते हैं कि बहुधा कवि भाव को प्रमुख मानते हुए और शिल्प को गौड़ मानते हुए या आलस्य या शब्दाभाव या नियम की जानकारी के अभाव में त्रुटिपूर्ण रचना प्रचलित कर देता है जिसे थोडा सा प्रयास करने पर सही शिल्प में ढाला जा सकता है.

अतः, मनहरण घनाक्षरी छंद का शुद्ध रूप तो ८-८-८-७ ही है. ८+८, ८+७ अर्थात १६-१५, या ३१-३१-३१-३१ को शिल्पगत त्रुटियुक्त घनाक्षरी ही माँना जा सकता है. नियम तो नियम होते हैं. नियम-भंग महाकवि करे या नवोदित कवि दोष ही कहलायेगा. किन्हीं महाकवियों के या बहुत लोकप्रिय या बहुत अधिक संख्या में उदाहरण देकर गलत को सही नहीं कहा जा सकता. शेष रचना कर्म में नियम न मानने पर कोई दंड तो होता नहीं है सो हर रचनाकार अपना निर्णय लेने में स्वतंत्र है.

घनाक्षरी रचना विधान :

आठ-आठ-आठ-सात पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
वर्षा-वर्णन :
उमड़-घुमड़कर, गरज-बरसकर,
जल-थल समकर, मेघ प्रमुदित है.
मचल-मचलकर, हुलस-हुलसकर,
पुलक-पुलककर, मोर नरतित है..
कलकल,छलछल, उछल-उछलकर,
कूल-तट तोड़ निज, नाद प्रवहित है.
टर-टर, टर-टर, टेर पाठ हेर रहे,
दादुर 'सलिल' संग स्वागतरत है..
*
भारत गान :
भारत के, भारती के, चारण हैं, भाट हम,
नित गीत गा-गाकर आरती उतारेंगे.
श्वास-आस, तन-मन, जान भी निसारकर,
माटी शीश धरकर, जन्म-जन्म वारेंगे..
सुंदर है स्वर्ग से भी, पावन है, भावन है,
शत्रुओं को घेर घाट मौत के उतारेंगे-
कंकर भी शंकर है, दिक्-नभ अम्बर है,
सागर-'सलिल' पग नित्य ही पखारेंगे..
*
हास्य घनाक्षरी
 सत्ता जो मिली है तो जनता को लूट खाओ,
मोह होता है बहुत घूस मिले धन का|

नातों को भुनाओ सदा, वादों को भुलाओ सदा,
चाल चल लूट लेना धन जन-जन का|

घूरना लगे है भला, लुगाई गरीब की को,
फागुन लगे है भला, साली-समधन का|

विजया भवानी भली, साकी रात-रानी भली,
चौर्य कर्म भी भला है आँख-अंजन का||

मंगलवार, 24 मई 2011

छंद परिचय: मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त -- संजीव 'सलिल'

छंद परिचय:
मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त

संजीव 'सलिल' *
मनहरण घनाक्षरी छंद एक वर्णिक छंद है.
इसमें मात्राओं की नहीं, वर्णों अर्थात अक्षरों की गणना की जाती है. ८-८-८-७ अक्षरों पर यति या विराम रखने का विधान है. चरण (पंक्ति) के अंत में लघु-गुरु हो. इस छंद में भाषा के प्रवाह और गति पर विशेष ध्यान दें. स्व. ॐ प्रकाश आदित्य ने इस छंद में प्रभावी हास्य रचनाएँ की हैं.
इस छंद का नामकरण 'घन' शब्द पर है जिसके हिंदी में ४ अर्थ १. मेघ/बादल, २. सघन/गहन, ३. बड़ा हथौड़ा, तथा ४. किसी संख्या का उसी में ३ बार गुणा (क्यूब) हैं. इस छंद में चारों अर्थ प्रासंगिक हैं. घनाक्षरी में शब्द प्रवाह इस तरह होता है मेघ गर्जन की तरह निरंतरता की प्रतीति हो. घंक्षरी में शब्दों की बुनावट सघन होती है जैसे एक को ठेलकर दूसरा शब्द आने की जल्दी में हो. घनाक्षरी पाठक/श्रोता के मन पर प्रहर सा कर पूर्व के मनोभावों को हटाकर अपना प्रभाव स्थापित कर अपने अनुकूल बना लेनेवाला छंद है. घनाक्षरी में ८ वर्णों की ३ बार आवृत्ति है.
घनाक्षरी रचना विधान :
आठ-आठ-आठ-सात पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधर सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
वर्षा-वर्णन:
उमड़-घुमड़कर, गरज-बरसकर,
जल-थल समकर, मेघ प्रमुदित है.
मचल-मचलकर, हुलस-हुलसकर,
पुलक-पुलककर, मोर नरतित है..
कलकल,छलछल, उछल-उछलकर,
कूल-तट तोड़ निज, नाद प्रवहित है.
टर-टर, टर-टर, टेर पाठ हेर रहे,
दादुर 'सलिल' संग स्वागतरत है..
*
भारत वंदना:
भारत के, भारती के, चारण हैं, भाट हम,
नित गीत गा-गाकर आरती उतारेंगे.
श्वास-आस, तन-मन, जान भी निसारकर,
माटी शीश धरकर, जन्म-जन्म वारेंगे..
सुंदर है स्वर्ग से भी, पवन है, भवन है,
शत्रुओं को घेर घात मौत के उतारेंगे-
कंकर भी शंका रही, दिक्-नभ अम्बर है,
सागर-'सलिल' पग नित्य ही पखारेंगे..
*
षडऋतु वर्णन : मनहरण घनाक्षरी/कवित्त छंद
संजीव 'सलिल'
*

वर्षा :
गरज-बरस मेघ, धरती का ताप हर, बिजली गिराता जल, देता हरषाता है. 
शरद:
हरी चादर ओढ़ भू, लाज से सँकुचती है, देख रवि किरण से, संदेशा पठाता है.
शिशिर:
प्रीत भीत हो तो शीत, हौसलों पर बर्फ की, चादर बिछाता फिर, ठेंगा दिखलाता है. 
हेमन्त :
प्यार हार नहीं मान, कुछ करने की ठान, दरीचे से झाँक-झाँक, झलक दिखाता है.
वसंत :
रति-रतिनाथ साथ, हाथों में लेकर हाथ, तन-मन में उमंग, नित नव जगाता है.
ग्रीष्म :
देख क्रुद्ध होता सूर्य, खिलते पलाश सम, आसमान से गरम, धूप बरसाता है..
*
टिप्पणी : घनाक्षरी छंद को लय में पढ़ते समय बहुधा शब्दों को तोड़कर पड़ा जाता ताकि आरोह-अवरोह (उतर-चढ़ाव) बना रहे.

मंगलवार, 10 मई 2011

सांगोपांग सिंहावलोकन छंद - घनाक्षरी कवित्त : नवीन चतुर्वेदी

सांगोपांग सिंहावलोकन छंद - घनाक्षरी कवित्त

नवीन चतुर्वेदी 

कवित्त का विधान
कुल ४ पंक्तियाँ
हर पंक्ति ४ भागों / चरणों में विभाजित
पहले, दूसरे और तीसरे चरण में ८ वर्ण
चौथे चरण में ७ वर्ण
इस तरह हर पंक्ति में ३१ वर्ण

सिंहावलोकन का विधान
कवित्त के शुरू और अंत में समान शब्द
जैसे प्रस्तुत कवित्त शुरू होता है "लाए हैं" से और समाप्त भी होता है "लाए हैं" से

सांगोपांग विधान
ये मुझे प्रात:स्मरणीय गुरुवर स्व. श्री यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम' जी ने बताया कि छंद के अंदर भी हर पंक्ति जिस शब्द / शब्दों से समाप्त हो, अगली पंक्ति उसी शब्द / शब्दों से शुरू हो तो छंद की शोभा और बढ़ जाती है| वो इस विधान के छंन्द को सांगोपांग सिंहावलोकन छंद कहते थे|


कवित्त:
लाए हैं बाजार से दीप भाँति भाँति के हम,
द्वार औ दरीचों पे कतार से सजाए हैं|
सजाए हैं बाजार हाट लोगों ने, जिन्हें देख-
बाल बच्चे खुशी से फूले ना समाए हैं|
समाए हैं संदेशे सौहार्द के दीपावली में,
युगों से इसे हम मनाते चले आए हैं|
आए हैं जलाने दीप खुशियों के जमाने में,
प्यार की सौगात भी अपने साथ लाए हैं|| 
*

रविवार, 25 अप्रैल 2010

एक घनाक्षरी: फूली-फूली राई...... --पारस मिश्र, शहडोल..

एक घनाक्षरी
पारस मिश्र, शहडोल..
फूली-फूली राई, फिर तीसी गदराई.
बऊराई अमराई रंग फागुन का ले लिया.
मंद-पाटली समीर, संग-संग राँझा-हीर,
ऊँघती चमेली संग फूँकता डहेलिया..
थरथरा रहे पलाश, काँप उठे अमलतास,
धीरे-धीरे बीन सी बजाये कालबेलिया.
आँखिन में हीरकनी, आँचल में नागफनी,
जाने कब रोप गया प्यार का बहेलिया..
******************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम  

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com