बैठते-उठते मशीनों के संग,
मशीन बन गया हूँ मैं,
नैतिक मूल्यों से दूर,
निर्जीव, सजीव रह गया हूँ मैं।
मस्तिष्क के पुर्जों का जंग,
विचारों को करता प्रभावहीन,
और अंगों में पड़ता जड़त्व,
स्फूर्ति को बनाता है।
दिनचर्या का हर काम,
बन चुका पर-संचालित,
और मेरे उद्योग का परिणाम,
लगता है पूर्व - नियोजित।
नूतनता का अभाव,
व्यक्तित्व को निष्क्रिय बनाए,
कार्य-प्रणाली के प्रदूषण,
जर्जरता को सक्रिय कर जाए।
जब स्पर्धा के पेंचों का कसाव,
स्वार्थी बना जाता है,
तब मैत्री के क्षणों का तेल,
द्वंद - घर्षण दूर भगाता है।
अन्य नए मशीनों में,
अनदेखा हो गया हूँ,
मशीन से बिगड़ अब,
कबाड़ हो रहा हूँ।
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शुक्रवार, 15 मई 2009
कविता: मशीनी जीवन -अवनीश तिवारी
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जड़त्व,
प्रदूषण,
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व्यक्तित्व
आचार्य संजीव वर्मा सलिल
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1 टिप्पणी:
सामयिक प्रतीकों को समेटती हुई अच्छी रचना...
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