भवनों के जंगल
घनेरे हजारों...
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कोई घर न मिलता
जहाँ चैन सुख हो।
कोई दर न दिखता
रहित दर्द-दुःख हो।
मन्दिर में हैरां
मनाता है हरि ही
हारा-थका हूँ
हटो रे कतारों...
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माटी को कुचलो
पर्वत भी खोदो।
जंगल भी काटो-
खुदी नाश बो दो।
मरघट बना जग
तू धूनी रमाना-
न फूलो अहम् से
ओ पंचर गुब्बारों...
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जो थोथा चना है,
वो बजता घना है।
धोता है, मन
तन तो माटी सना है।
सांसों से आसों का
है क़र्ज़ भारी-
लगा भी दो कन्धा
न हिचको कहारों...
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