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गुरुवार, 22 अगस्त 2013

doha salila: bhavan -sanjiv

दोहा सलिला :
भवन माहात्म्य
संजीव
*
गत से आगत तक बनें, भवन सभ्यता-सेतु।
शिल्प और तकनीक का, संगम सबके हेतु।४१।
*
ताप-शीत-बरखा सहें, भवन खड़े रह मौन।
रक्षा करने भवन की, आगे आये कौन?४२।
*
इमारतें कहतीं कथा, युग की- सुनिए चेत।
जो न सत्य पहचानता, वह रहता है खेत।४३।
*
भवन भेद करते नहीं, सबके शरणागार।
सबके प्रति हों समर्पित, क्षमता के अनुसार।४४।
*
भवनों का आकार हो, सम्यक भव्य सुरूप।
हर रहवासी सुखी हो, खुद को समझे भूप।४५।
*
भवन-सुरक्षा कीजिए, मान सुखद कर्त्तव्य।
भवन सुरक्षित तो मिलें, शीघ्र सभी गंतव्य।४६।
*
भवन-इमारत चाहते, संरक्षण दें मीत।
संरक्षित रहिए विहँस, गढ़ नव जीवन-रीत।४७।
*
साथ मनुज का दे रहे, भवन आदि से अंत।
करते पर उपकार ज्यों, ऋषि-मुनि तारक संत।४८।
*
भवन क्रोध करते नहीं' रहें हमेशा शांत।
सहनशक्ति खो हो रहा, मानव क्यों उद्भ्रांत।४९।
*
भवन-सुरक्षा कीजिए, मानक के अनुरूप।
अवहेला कर दीन हों, पालन कर हों भूप।५०।
*
आम आदमी के लिये, भवन-सड़क वरदान।
बना-बचा खुद भी बचें, जो नर वे मतिमान।५१।
*
जनगण की संपत्ति पुल, भवन-सड़क अनमोल।
हों न तनिक क्षतिग्रस्त ये, रखिए आँखें खोल।५२।
*
लड़के लड़ के माँगते, नित अपना अधिकार।
भवन न कुछ भी चाहते, देकर माँ सा प्यार।५३।
*
भवन-सड़क-पुल-वृक्ष की, हानि करें जो लोग।
भीषण पाप उन्हें लगे, सकें नहीं सुख-भोग।५४।
*
भवन सड़क-पुल-वृक्ष से, उन्नत होता देश।
जो इनकी रक्षा करे, पाये कीर्ति अशेष।५५।
*
गगन चूमते भवन तब, जब हो सुदृढ़ नींव।
जड़ें जमा ज्यों पंक में, खिलते हैं राजीव।५६।
*
मिलें ईंट से ईंट जब, बनती दृढ़ दीवार।
जो टकराये उसी पर, होता तीक्ष्ण प्रहार।५७।
*
दीवारें भुज भेंटतीं, ज्यों आचार-विचार।
संयम भवन न खो सके, हो सुदृढ़ आगार।५८।
*
सहती धूप इमारतें, भवन रोकते शीत।
बिल्डिंग बारिश झेलती, गाकर जीवन-गीत।५९।
*
मुक्त पवन सम मत बहें, रखें पगों को थाम।
आश्रयदाता वहीं है, जो निश्चल-निष्काम।६०।
*
गुणवत्तामय कार्य से, मिलता सुख-यश-नाम।
बना श्रेष्ठ-सुदृढ़ भवन, पायें कीर्ति ललाम।६१।
*
भवन भुवन त्रिभुवन बने, सुर-नर-असुर अनेक।
कवि-वैज्ञानिक-कलाविद, बसे- कार्य कर नेक।६२।
*
भवन मनुज की सभ्यता, ईश्वर का वरदान।
रहना चाहें भवन में, भू पर आ भगवान।६३।
*
नीड़-गुफा-बिल बनाते, पशु-पक्षी बिन सीख।
सजा-तोड़ता मनुज ही, क्यों पड़ता है दीख।६४।
*
कुटिया घर अट्टालिका, भवन इमारत गेह।
बिल्डिंग टपरा झुपडिया, सुख दें यदि हो नेह।६५।
*
जो अनाम उसको 'सलिल', क्यों देते हम नाम?
प्रकृति न लेती भवन का, मनुज लगाता दाम।६६।
*
पुत्री से चिंता बढ़े, फ़िक्र बढ़ाये पूत।
सभी फ़िक्र-चिंता हरे, भवन शांति-सुख-दूत।६७।
*
मंदिर मस्जिद धाम या, गिरजाघर दें नाम।
मठ आश्रम सबमें मिला, एक वही गुमनाम।६८।
*
अस्पताल शाला नहीं, भवन मात्र शुचि धाम।
मानव जीवन को मिले, इनसे नव आयाम६९।
*
जगत धरमशाला बने, दुनिया बने सराय।
क्या लाया?, ले जाए क्या?, माया-मोह बलाय।६९।
*
भूमि फर्श हों दिशाएँ, जिस घर की दीवार।
नभ की छत जिसमें 'सलिल', वहीं बसे करतार।७०।
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

गीत: साँसों की खिड़की पर... संजीव 'सलिल'


गीत: 

साँसों की खिड़की पर... 

संजीव 'सलिल'


 
 
 
 
*
साँसों की खिड़की पर बैठी, अलस्सुबह की किरण सरीखी 
आसों की चिड़िया का कलरव, सुनकर गहरी नींद खुली है...

 

सत्य जानकर नहीं मानता, उहापोह में मन जी लेता
अमिय चाहता नहीं मिले तो, खूं के आँसू ही पी लेता..
अलकापुरी न जा पायेगा, मेघदूत यह ज्ञात किन्तु नित-
भेजे पाती अमर प्रेम की, उफ़ न करे लब भी सी लेता..
सुधियों के दर्पण में देखा चाह चदरिया बिछी धुली है...
आसों की चिड़िया का कलरव, सुनकर गहरी नींद खुली है...



ढाई आखर पढ़ा न जिसने, कैसे बाँचे-समझे गीता?
भरा नहीं आकंठ सोम से, जो वह चषक जानिए रीता.
मीठापन क्या होता? कैसे जान सकेगी रसना यदि वह-
चखे न कडुआ तिक्त चरपरा, स्वाद कसैला फीका तीता..
मनमानी कुछ करी नहीं तो, तन का वाहक आत्म कुली है...
आसों की चिड़िया का कलरव, सुनकर गहरी नींद खुली है...



कनकाभित सिकता कण दिखते, सलिल-धार पर पड़ी किरण से.
तम होते खो देते निज छवि, ज्यों तन माटी बने मरण से..
प्रस्तर प्रस्तर ही रहता है, तम हो या प्रकाश जीवन में-
चोटें सह बन देव तारता, चोटक को निज पग-रज-कण से..
माया-छाया हर काया में, हो अभिन्न रच-बसी-घुली है...
आसों की चिड़िया का कलरव, सुनकर गहरी नींद खुली है...



श्वास चषक से आस सुधा का, पान किया जिसने वह जीता.
जो शरमाया हो अतृप्त वह, मरघट पहुँचा रीता-रीता..
जिया आज में भी कल जिसने, वह त्रिकालदर्शी सच जाने-
गत-आगत शत बार हुआ है, आगत होता पल हर बीता..
लाख़ करे तू बंद तिजोरी, रम्य रमा हो चपल डुली है...
आसों की चिड़िया का कलरव, सुनकर गहरी नींद खुली है...



देह देह से मिल विदेह हो, हो अगेह जो मिले गेह हो.
तृप्ति मिले जब तुहिन बिंदु से, एकाकारित मृदुल मेह हो..
रूपाकार न जब मन मोहे, निराकार तब 'सलिल' मोहता-
विमल वर्मदा, धवल धर्मदा, नवल नर्मदा अमित नेह हो..
नयन मूँद मत पगले पहले, देख कि मूरत-छवि उजली है...
आसों की चिड़िया का कलरव, सुनकर गहरी नींद खुली है...



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Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

नवगीत: पोथी ले बाँच... --संजीव 'सलिल'

नवगीत:
पोथी ले बाँच...
संजीव 'सलिल'
*
हरसिंगार सुधियों की
पोथी ले बाँच...
*
कैसे कर हो अनाथ?
कल्पवृक्ष कर्म नाथ.
माटी में सना हाथ,
स्वेद-बिंदु चुआ माथ,
कोशिश कर लिये साथ-
कंडे कुछ रहा पाथ.

होने मत दे जुदा
पारिजात साँच.
हरसिंगार सुधियों की
पोथी ले बाँच...
*
कोशिश की कलम थाम
आप बदल भाग्य वाम.
लघु है कोई न काम.
साथ 'सलिल' के अनाम.
जिसका कोई न दाम.
रख न नाम, वही राम.

मंदारी मन दर्पण
शुक्लांगी काँच.
हरसिंगार सुधियों की
पोथी ले बाँच...
*
चाहत की शेफाली.
रोज उगा बन माली.
हरिचंदन-छाँह मिले
कण-कण में वनमाली.
मन को गोपी बना
रास रचा दे ताली.

परजाता निशाहासा
तले पले आँच.
हरसिंगार सुधियों की
पोथी ले बाँच...
*
टीप: हरसिंगार के पर्याय पारिजात, मंदार, शुक्लांग, शेफाली, हरिचंदन, परजाता, निशाहासा.
५ स्वर्ग वृक्ष- हर सिंगार, कल्प वृक्ष, संतान वृक्ष, मंदार, पारिजात.