एक रचना:
जमींदार
*
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
.
इन्हें किया था नामजद
किसी शाह ने रीझ.
बख्शी थी जागीर कह
'कर मनमानी खूब.
पाल-पोस चेले बढ़ा
कह औरों को दूब.
बदल समय के साथ मत
खुद पर खुद ही खीझ.
लँगड़ा करता है सफर
खुद की बाजू थाम.
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
.
बँधवाया, अब बाँधना
तू गंडा-ताबीज़.
शब्द न समझें लोग जो
लिखना खोज अजूब.
गलत और का सही भी
कहना मद में डूब.
निज पीड़ा संवेदना
दर्द अन्य का चीज.
दाम-नाम के लिये कर
शब्दों का व्यायाम.
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
***
जमींदार
*
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
.
इन्हें किया था नामजद
किसी शाह ने रीझ.
बख्शी थी जागीर कह
'कर मनमानी खूब.
पाल-पोस चेले बढ़ा
कह औरों को दूब.
बदल समय के साथ मत
खुद पर खुद ही खीझ.
लँगड़ा करता है सफर
खुद की बाजू थाम.
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
.
बँधवाया, अब बाँधना
तू गंडा-ताबीज़.
शब्द न समझें लोग जो
लिखना खोज अजूब.
गलत और का सही भी
कहना मद में डूब.
निज पीड़ा संवेदना
दर्द अन्य का चीज.
दाम-नाम के लिये कर
शब्दों का व्यायाम.
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
***