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बुधवार, 3 अक्टूबर 2012

सामयिक कविता टूट रही हैं मर्यादाएं... संजीव सलिल'

प्रति रचना:
सामयिक कविता 
टूट रही हैं मर्यादाएं...

 

संजीव सलिल'
*

टूट रही हैं मर्यादाएं, काल-पात्र में पात्र पड़े हैं,
वर्तमान के अभिशापों में, काल-पुरुष के पाँव गड़े हैं.

*
महाकाल के पूजक हम, भगवान भरोसे जीते आये.
धृतराष्ट्रों का करें अनुकरण, आँखोंवाले हुए पराये.
 
सत्य वही जो प्रिय लगता है, प्रिय वह जिससे हित सधता है-
अप्रिय सत्य जो कह दे, ऐसे अपने भी हो गये पराये.
द्रोण बने आदर्श, लिये जो द्रोण, चाहते स्वार्थ साधना-
एकलव्य-जनमत के पथ में बनकर बाधा सतत अड़े हैं.
टूट रही हैं मर्यादाएं, काल-पात्र में पात्र पड़े हैं,
वर्तमान के अभिशापों में, काल-पुरुष के पाँव गड़े हैं.

*

कथनी-करनी के अंतर को, अंतर्मन ने अपनाया है.
सीताओं को शूर्पणखा ने, कुटिल चाल चल भरमाया है.
श्रेष्ठों-ज्येष्ठों की करनी- नाजायज कर्म करे नारायण-
पाँव कब्र में लटके फिर भी, भोग हेतु मन ललचाया है.
हरि-पत्नी पुजतीं गणेश सँग, ऋद्धि-सिद्धि-हरि हुए अनसुने-
पर्व वसंतोत्सव भूले हम, वैलेंटाइन हेतु लड़े हैं.
टूट रही हैं मर्यादाएं, काल-पात्र में पात्र पड़े हैं,
वर्तमान के अभिशापों में, काल-पुरुष के पाँव गड़े हैं.

*
प्रकृति-पुत्र शोषण प्रकृति का करते, भोग्या माँ को मानें.
एकेश्वरवादी बहुदेवी-भक्तों का परिवर्तन ठानें?
करुणा-दया इष्ट है जिनका, वे ही निर्मम-क्रूर हो रहे-
जनगण के जनमत को जनप्रतिनिधि ही 'सलिल' उपेक्षित जानें.
 
परदेशी पूँजी चाहें अब, राशि स्वदेशी रख विदेश में-
दस प्रतिशत खुश नब्बे प्रतिशत दुखी फैसले व्यर्थ कड़े हैं.
टूट रही हैं मर्यादाएं, काल-पात्र में पात्र पड़े हैं,
वर्तमान के अभिशापों में, काल-पुरुष के पाँव गड़े हैं.

*

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

दोहा-मुक्तिका: तरु को तनहा... संजीव 'सलिल'

दोहा-मुक्तिका:

तरु को तनहा कर गये, झर-झर झरते पात



संजीव 'सलिल'
*
तरु को तनहा कर गये, झर-झर झरते पात.
यह जीवन की जीत है, क्यों कहते- हैं मात??
*
सूखी शाखों पर नयी, कोपल फूटे प्रात.
झूम बताती: मृत्यु वर, जीवन देती रात..
*
कोमल कलिका कुलिश सी, होती सह आघात.
गौरी ही काली हुई, सच मत भूलो तात..
*
माँ बहिना भाभी सखी, पत्नि सदृश सौगात.
बिन बेटी कैसे मिले?, मत मारो नवजात..
*
शूल-फूल, सुख-दुःख 'सलिल', धूप-छाँव बारात.
श्वास-आस दूल्हा-दुल्हन, श्रम-कोशिश नग्मात..
*
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
http://divyanarmada.blogspot.com
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बुधवार, 19 सितंबर 2012

हास्य सलिला: उमर क़ैद संजीव 'सलिल'



हास्य सलिला:

उमर क़ैद

संजीव 'सलिल'



नोटिस पाकर कचहरी पहुँचे चुप दम साध.
जज बोलीं: 'दिल चुराया, है चोरी अपराध..'

हाथ जोड़ उत्तर दिया, 'क्षमा करें सरकार!.
दिल देकर ही दिल लिया, किया महज व्यापार..'

'बेजा कब्जा कर बसे, दिल में छीना चैन.
रात स्वप्न में आ किया, बरबस ही बेचैन..

लाख़ करो इनकार तुम, हम मानें इकरार.
करो जुर्म स्वीकार- अब, बंद करो तकरार..'

'देख अदा लत लग गयी, किया न कोई गुनाह.
बैठ अदालत में भरें, हम दिल थामे आह..'

'नहीं जमानत मिलेगी, सात पड़ेंगे फंद.
उम्र क़ैद की अमानत, मिली- बोलती बंद..

***


Acharya Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
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रविवार, 16 सितंबर 2012

अभियंता दिवस (१५ सितंबर) पर विशेष रचना: हम अभियंता... संजीव 'सलिल'

अभियंता दिवस (१५ सितंबर) पर विशेष रचना:
हम अभियंता...



संजीव 'सलिल'
*
हम अभियंता!, हम अभियंता!!
मानवता के भाग्य-नियंता...



माटी से मूरत गढ़ते हैं,
कंकर को शंकर करते हैं.
वामन से संकल्पित पग धर,
हिमगिरि को बौना करते हैं.



नियति-नटी के शिलालेख पर
अदिख लिखा जो वह पढ़ते हैं.
असफलता का फ्रेम बनाकर,
चित्र सफलता का मढ़ते हैं.

श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे-
फिर भविष्य की क्यों हो चिंता...



अनिल, अनल, भू, सलिल, गगन हम,
पंचतत्व औजार हमारे.
राष्ट्र, विश्व, मानव-उन्नति हित,
तन, मन, शक्ति, समय, धन वारे.



वर्तमान, गत-आगत नत है,
तकनीकों ने रूप निखारे.
निराकार साकार हो रहे,
अपने सपने सतत सँवारे.

साथ हमारे रहना चाहे,
भू पर उतर स्वयं भगवंता...


 
भवन, सड़क, पुल, यंत्र बनाते,
ऊसर में फसलें उपजाते.
हमीं विश्वकर्मा विधि-वंशज.
मंगल पर पद-चिन्ह बनाते.



प्रकृति-पुत्र हैं, नियति-नटी की,
आँखों से हम आँख मिलाते.
हरि सम हर हर आपद-विपदा,
गरल पचा अमृत बरसाते.

'सलिल' स्नेह नर्मदा निनादित,
ऊर्जा-पुंज अनादि-अनंता...

.


सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
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शनिवार, 15 सितंबर 2012

नवगीत: अपना हर पल है हिन्दीमय.... संजीव 'सलिल'

नवगीत:
अपना हर पल है हिन्दीमय....
संजीव 'सलिल'
*
अपना हर पल है हिन्दीमय
एक दिवस क्या खाक मनाएँ?

बोलें-लिखें नित्य अंग्रेजी
जो वे एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को कहते पिछडी.
पर भाषा उन्नत बतलाते.

घरवाली से आँख फेरकर
देख पडोसन को ललचाते.

ऐसों की जमात में बोलो,
हम कैसे शामिल हो जाएँ?...
*
हिंदी है दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक की भाषा.

जिसकी ऐसी गलत सोच है,
उससे क्या पालें हम आशा?

इन जयचंदों की खातिर
हिंदीसुत पृथ्वीराज बन जाएँ...
*
ध्वनिविज्ञान-नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में माने जाते.

कुछ लिख, कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम हिंदी में पाते.

वैज्ञानिक लिपि, उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में साम्य बताएँ...
*
अलंकार, रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की बिम्ब अनूठे.

नहीं किसी भाषा में मिलते,
दावे करलें चाहे झूठे.

देश-विदेशों में हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएँ...
*
अन्तरिक्ष में संप्रेषण की
भाषा हिंदी सबसे उत्तम.

सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन में
हिंदी है सर्वाधिक सक्षम.

हिंदी भावी जग-वाणी है
निज आत्मा में 'सलिल' बसाएँ...
*

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

दोहा सलिला हिंदी प्रातः श्लोक है..... -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला
हिंदी प्रातः श्लोक है.....
-- संजीव 'सलिल'
*
हिंदी भारत भूमि के, जनगण को वरदान.
हिंदी से ही हिंद का, संभव है उत्थान..
*
संस्कृत की पौत्री प्रखर, प्राकृत-पुत्री शिष्ट.
उर्दू की प्रेमिल बहिन, हिंदी परम विशिष्ट..
*
हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल.
'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल..
*
ईंट बनें सब बोलियाँ, गारा भाषा नम्य.
भवन भव्य है हिंद का, हिंदी बसी प्रणम्य..
*
संस्कृत, पाली, प्राकृत, हिंदी उर्दू पाँच.
भाषा-बोली अन्य हैं, स्नेहिल बहने साँच..
*
सब भाषाएँ-बोलियाँ, सरस्वती के रूप.
स्नेह् पले, साहित्य हो, सार्थक सरस अनूप..
*
भाषा-बोली श्रेष्ठ हर, त्याज्य न कोई हेय.
सबसे सबको स्नेह ही, हो जीवन का ध्येय..
*
उपवन में कलरव करें, पंछी नित्य अनेक.
भाषाएँ हैं अलग पर, पलता स्नेह-विवेक..
*
भाषा बोलें कोई भी, किन्तु बोलिए शुद्ध.
दिल से दिल तक जा सके, बनकर प्रेम प्रबुद्ध..
*
मौसी-चाची ले नहीं, सकतीं माँ का स्थान.
सिर-आँखों पर बिठा पर, उनको माँ मत मान..
*
ज्ञान गगन में सोहती, हिंदी बनकर सूर्य.
जनहित के संघर्ष में, है रणभेरी तूर्य..
*
हिंदी सजती भाल पर, भारत माँ के भव्य.
गौरव गाथा राष्ट्र की, जनवाणी यह दिव्य..
*
हिंदी भाषा-व्याकरण, है सटीक अरु शुद्ध.
कर सटीक अभिव्यक्तियाँ, पुजते रहे प्रबुद्ध..
*
हिंदी सबके माँ बसी, राजा प्रजा फकीर.
केशव देव रहीम घन, तुलसी सूर कबीर..
*
हिंदी प्रातः श्लोक है, दोपहरी में गीत.
संध्या वंदन-प्रार्थना, रात्रि प्रिया की प्रीत..
**************
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
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दोहा सलिला: किरण-कीर्ति संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला: किरण-कीर्ति 




संजीव 'सलिल'
*
सूर्य-चन्द्र बिन किरण के, हो जाते हैं दीन.
तिमिर घेर ले तो लगे, नभ में हुए विलीन..




आस-किरण बिन ज़िंदगी, होती सून-सपाट.
भोर-उषा नित जोहतीं, मिलीं किरण की बाट..
 

 

भक्त करे भगवान से, कृपा-किरण की चाह.
कृपा-किरण बिन दे सके, जग में कौन पनाह?


 



किरण न रण करती मगर, लेती है जग जीत.
करे प्रकाशित सभी को, सबसे सच्ची प्रीत..
 



किरण-शरण में जो गया, उसको मिला प्रकाश.
धरती पर पग जमा कर, छू पाया आकाश..
 



किरण पड़े तो 'सलिल' में, देखें स्वर्णिम आभ.
सिकता कण भी किरण सँग, दिखें स्वर्ण-पीताभ..
 



शरतचंद्र की किरण पा, 'सलिल' हुआ रजिताभ.
संगमरमरी शिलाएँ, हँसें हुई श्वेताभ..
 

 

क्रोध-किरण से सब डरें, शोक-किरण से दग्ध.
ज्ञान-किरण जिसको वरे, वही प्रतिष्ठा-लब्ध..
 



हर्ष-किरण से जिंदगी, होती मुदित-प्रसन्न.
पा संतोष-किरण लगे, स्वर्ग हुआ आसन्न..
 



जन्म-दिवस सुख-किरण का, पल-पल को दे अर्थ.
शब्द-शब्द से नमन लें, सार्थक हो वागर्थ..
 


___________________________
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
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0761 2411131 / 94251 83244




गुरुवार, 13 सितंबर 2012

हास्य सलिला: खोज -संजीव 'सलिल'

हास्य सलिला:
 


आई लव यू 
 
 








संजीव 'सलिल'
*

लालू से कालू कहे, 'यारां यह तो सोच.
कौन देश जिसने करी, 'आई लव यू' की खोज?'
समझ गये लालू तुरत, बेढब किया सवाल.
जान बचाने के लिये किसी तरह दूँ टाल.

भाषण देना सहज है, प्रश्न लगे आसान.
सूझ नहीं उत्तर रहा, आफत में है जान..
कालू बोला: 'मान लो, हार- बढ़ेगा ज्ञान.
मैं उत्तर बतलाऊँगा', है बेहद आसान..

सिर खुजलाया, मूँदकर बैठे लालू नैन.
लेकिन उत्तर ना मिला, थे बेहद बेचैन.
मरता क्या करता नहीं, आखिर मानी हार.
अट्टहास कालू करे, जीता अब की बार.

फिर बोला: 'चाइना ने, 'आई लव यू' की खोज.
करी वापरें लोग सब, दुनिया भर में रोज.
कोई गारंटी नहीं, पल भर में हो अंत.
कभी जिंदगी भर चले, जैसे सृष्टि अनंत.

चाइना का प्रोडक्ट जो, ले वह तो पछताय.
और न ले जो उसे भी देखो नित ललचाय..
'आई लव यू' की विफलता, देती दुःख-अफ़सोस.
'सलिल' सफल ज़िंदगी भर, रोता खुद को कोस..

https://encrypted-tbn3.google.com/images?q=tbn:ANd9GcR2PMy_GXi6OBm0rQ0ffqjUgUHeOMvWObRbtmbIFkOejWZPC-TM

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मंगलवार, 11 सितंबर 2012

तुलसी वंदन दीप्ति गुप्ता / संजीव 'सलिल'


तुलसी वंदन 



'तुलसी  के बिरवे तले'




-- दीप्ति गुप्ता



तुलसी  के छोटे बिरवे तले
देखे   है  शांत  रौशन  दिये
नन्हे से,छोटे से, हों वे भले
दिव्यता  से  हैं   होते   भरे



मन्नतें घर-भर   की  लिये
अपनी दमकती लौ  में  धरे
पहुंचाते  प्रभु को  सांझ ढले
सबकी अरज  आस पूरी करें



मन में उगाओ तुलसी का बिरवा
और जलाओ  एक  नेह का दिया
देखो  फिर,  कैसा   उजाला  भरे
मन   में   भरा   तम    दूर   करे



दोहा सलिला:
तुलसी वंदन 
संजीव 'सलिल'
 

तुलसी वंदन कर मिला, शांति-सौख्य अनमोल.
कौन तराजू कर सके, जग में इसका तोल..




रामा तुलसी से कहे, श्यामा तुलसी सत्य.
मन का नाता सत्य है, तन का मोह असत्य..

 

तुलसी हुलसी तो लिया, तुलसी ने अवतार.
राम-भक्ति से तर गया, दिया जगत को तार..


 

तुलसी चौरे पर दिया, देता दीप्ति अनूप.
करें प्रणव-उच्चार नित, किंकर के सँग भूप..


 

अमल कमल सम हो 'सलिल', रहो पंक से दूर.
लहर-लहर कहती हहर, ठहर न होना सूर..






tulsi = ocemumsanctum -kraphao, holy basil

रविवार, 9 सितंबर 2012

दोहा सलिला: गले मिले दोहा यमक संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक
संजीव 'सलिल'
*
जीना मुश्किल हो रहा, जी ना कहते आप.
जीना चढ़िए आस का, प्यास सके ना व्याप..

पान मान का लीजिए, मानदान श्रीमान.
कन्या को वर-दान दें, जीवन हो वरदान..

रखा सिया ने लब सिला, रजक मूढ़-वाचाल.
जन-प्रतिनिधि के पाप से, अवध-ग्रास गया काल..

अवध अ-वध-पथ-च्युत हुआ, सच का वध अक्षम्य.
रम्य राम निन्दित हुए, सीता जननि प्रणम्य..

खो-खो कर ईमान- सच, खुद से खुद ही हार.
खो-खो खेलें झूठ संग, मानव-मति बलिहार..

मत ललचा आकाश यूं, बाँहों में आ काश.
गले दामिनी के लागून, तोड़ देह का पाश..

कंठ कर रहे तर लिये, अपने मन में आस.
तर जाएँ भव-समुद से,  ले अधरों पर आस..

अधिक न ढीला छोड़ या, मत कस तार-सितार.
राग और वैराग का, सके समन्वय तार..

तारा दिप दिप दमकता, अगर न तारानाथ.
तारा तारानाथ को, रवि ने किया सनाथ.. 



हास्य सलिला: करो समय पर काम संजीव 'सलिल'


हास्य सलिला:




करो समय पर काम



संजीव 'सलिल'
*
गये लिवाने पत्नि जी को, लालू जी ससुराल
साली जी ने आवभगत की, खुश थे लालू लाल..

सासू ने स्वादिष्ट बनाये, जी भरकर पकवान.
खूब खिलाऊँगी लाल को, जी में था अरमान..

लेट लतीफी लालू की, आदत से सब हैरान.
राह देखते भूख लगी, ज्यों निकल जायेगी जान..

जमकर खाया, गप्पे मरीन, टी.व्ही. भी था चालू.
झपकी लगी, घुसे तब घर में बिन आहट के लालू..

उठा न कोई, भुखियाए थे, गये रसोई अन्दर.
थाली में जो मिला खा रहे, ज्यों हो कोई बन्दर..

खटपट सुन जागी सासू जी, देखा तो खिसियाईं.
'बैला का हिस्सा खा गये तुम, लाला!' वे रुस्वाईं..

झुंझलाई बीबी, सालों ने, जमकर किया मजाक.
'बुला रहे हल-बक्खर' सुनकर, नाक हो गयी लाल..

लालू जी को मिला सबक, सब करो समय पर काम.
'सलिल' अन्यथा हो सकता है, जीना कठिन हराम..


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शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

हास्य रचना: प्रवचन संजीव 'सलिल'


हास्य रचना:
प्रवचन



संजीव 'सलिल'
 
*



आधी रात पुलिस अफसर ने पकड़ा एक मुसाफिर.
'नाम बात, तू कहाँ जा रहा?, क्या मकसद है आखिर?'

घुड़की सुन, गुम सिट्टी-पिट्टी, वह घबराकर बोला:
' जी हुजूर! प्रवचन सुनने जाता, न चोर, मैं भोला.'

हँसा ठठाकर अफसर 'तेरा झूठ पकड़ में आया.
चल थाने, कर कड़ी ठुकाई, सच जानूंगो भाया.'

'माई-बाप! है कसम आपकी, मैंने सच बोला है.
जाता किसका प्रवचन सुनने? राज न यह खोला है.'

'कह जल्दी, वरना दो हत्थड़ मार राज जानूँगा.'
'वह बोला: क्या सच न बोलकर व्यर्थ रार ठानूँगा.'

'देर रात को प्रवचन केवल मैं न, आप भी सुनते.
और न केवल मैं, सच बोलूँ? शीश आप भी धुनते.'

सब्र चुका डंडा फटकारा, गरजा थानेदार.
जल्दी पूरी बात बता वरना खायेगा मार.'

यात्री बोला:'मैं, तुम, यह, वह सबकी व्यथा निराली.
देर रात प्रवचन सुनते सब, देती नित घरवाली.



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मंगलवार, 4 सितंबर 2012

काव्य धारा: असंगतियों का जल प्रलय संजीव 'सलिल'

काव्य धारा:

असंगतियों का जल प्रलय



संजीव 'सलिल'
*
तुम भूलते हो:
'जो डर गया वह मर गया'
तम्हें मरना नहीं हैं,
हम तुम्हें मरने नहीं दे सकते.'
इसलिए नहीं कि
इसमें हमारा कोई स्वार्थ है,
इसलिए भी नहीं कि
तुम कोई महामानव हो
जिसके बिना यह दुनिया
अनाथ हो जायेगी,
अपितु इसलिए कि तुम भी
हमारी तरह पूरी तरह
भावनाओं और संवेदनाओं को
स्मृतियों और यथार्थ के धरातल पर
जीनेवाले सामान्य मानव हो.



प्रिय स्मृतियों की बाढ़ को
अप्रिय यादों के तटबंधों से
मर्यादित करना तुम्हें खूब आता है.
असंगतियों और विसंगतियों के
कालिया नागों का
मान-मर्दन करना तुम्हें मन भाता है.
संकल्पों के अश्व पर विकल्पों की रास
खींचना और ढीली छोड़ना
तुम्हारे बायें हाथ का खेल है.
अनचाहे रिश्तों से डरने और
मनचाहे रिश्तों को वरने का
तुम्हारे व्यक्तित्व से मेल है.



इसलिए तुम
ठिठककर खड़े नहीं रह सकते,
चोटों की कसक को चुपचाप
अनंत काल तक नहीं सह सकते.
तुम्हें रिश्तों, नातों और संबंधों के
मल्हम, रुई और पट्टी का
प्रयोग करना ही होगा.
छूट गयी मंजिलों को
फिर-फिर वरना ही होगा.
शीत की बर्फ से सूरज
गर्मी में सर्द नहीं होता.
चक्रव्यूह समाप्ति पर याद रहे:
'मर्द को दर्द नहीं होता'




Acharya Sanjiv verma 'Salil'
९४२५१८३२४४ / ०७६१ २४१११३१
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