दोहा-मुक्तिका:
तरु को तनहा कर गये, झर-झर झरते पात
संजीव 'सलिल'
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तरु को तनहा कर गये, झर-झर झरते पात.
यह जीवन की जीत है, क्यों कहते- हैं मात??
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सूखी शाखों पर नयी, कोपल फूटे प्रात.
झूम बताती: मृत्यु वर, जीवन देती रात..
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कोमल कलिका कुलिश सी, होती सह आघात.
गौरी ही काली हुई, सच मत भूलो तात..
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माँ बहिना भाभी सखी, पत्नि सदृश सौगात.
बिन बेटी कैसे मिले?, मत मारो नवजात..
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शूल-फूल, सुख-दुःख 'सलिल', धूप-छाँव बारात.
श्वास-आस दूल्हा-दुल्हन, श्रम-कोशिश नग्मात..
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सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
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