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बुधवार, 21 अक्टूबर 2020

आलेख : शब्दों की सामर्थ्य

आलेख :
शब्दों की सामर्थ्य - 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                     पिछले कुछ दशकों से यथार्थवाद के नाम पर साहित्य में अपशब्दों के खुल्लम खुल्ला प्रयोग का चलन बढ़ा है. इसके पीछे दिये जाने वाले तर्क २ हैं: प्रथम तो यथार्थवाद अर्थात रचना के पात्र जो भाषा प्रयोग करते हैं उसका प्रयोग और दूसरा यह कि समाज में इतनी गंदगी आचरण में है कि उसके आगे इन शब्दों की बिसात कुछ नहीं. सरसरी तौर से सही दुखते इन दोनों तर्कों का खोखलापन चिन्तन करते ही सामने आ जाता है.
                     हम जानते हैं कि विवाह के पश्चात् नव दम्पति वे बेटी-दामाद हों या बेटा-बहू शयन कक्ष में क्या करनेवाले हैं? यह यथार्थ है पर क्या इस यथार्थ का मंचन हम मंडप में देखना चाहेंगे? कदापि नहीं, इसलिए नहीं कि हम अनजान या असत्यप्रेमी पाखंडी हैं, अथवा नव दम्पति कोई अनैतिक कार्य करेने जा रहे होते हैं अपितु इसलिए कि यह मानवजनित शिष्ट, सभ्यता और संस्कारों का तकाजा है. नव दम्पति की एक मधुर चितवन ही उनके अनुराग को व्यक्त कर देती है. इसी तरह रचना के पत्रों की अशिक्षा, देहातीपन अथवा अपशब्दों के प्रयोग की आदत का संकेत बिना अपशब्दों का प्रयोग किए भी किया जा सकता है. रचनाकार की शब्द सामर्थ्य तभी ज्ञात होती है जब वह अनकहनी को बिना कहे ही सब कुछ कह जाता है, जिनमें यह सामर्थ्य नहीं होती वे रचनाकार अपशब्दों का प्रयोग करने के बाद भी वह प्रभाव नहीं छोड़ पाते जो अपेक्षित है.
                    दूसरा तर्क कि समाज में शब्दों से अधिक गन्दगी है, भी इनके प्रयोग का सही आधार नहीं है. साहित्य का सृजन करें के पीछे साहित्यकार का लक्ष्य क्या है? सबका हित समाहित करनेवाला सृजन ही साहित्य है. समाज में व्याप्त गन्दगी और अराजकता से क्या सबका हित, सार्वजानिक हित सम्पादित होता है? यदि होता तो उसे गन्दा नहीं माना जाता. यदि नहीं होता तो उसकी आंशिक आवृत्ति भी कैसे सही कही जा सकती है? गन्दगी का वर्णन करने पर उसे प्रोत्साहन मिलता है.
                     समाचार पात्र रोज भ्रष्टाचार के समाचार छापते हैं... पर वह घटता नहीं, बढ़ता जाता है. गन्दगी, वीभत्सता, अश्लीलता की जितनी अधिक चर्चा करेंगे उतने अधिक लोग उसकी ओर आकृष्ट होंगे. इन प्रवृत्तियों की नादेखी और अनसुनी करने से ये अपनी मौत मर जाती हैं. सतर्क करने के लिये संकेत मात्र पर्याप्त है.
                  तुलसी ने असुरों और सुरों के भोग-विलास का वर्णन किया है किन्तु उसमें अश्लीलता नहीं है. रहीम, कबीर, नानक, खुसरो अर्थात हर सामर्थ्यवान और समयजयी रचनाकार बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाता हैं और पाठक, चिन्तक, समलोचालक उसके लिखे के अर्थ बूझते रह जाते हैं. समस्त टीका शास्त्र और समीक्षा शास्त्र रचनाकार की शब्द सामर्थ्य पर ही टिका है.
                   अपशब्दों के प्रयोग के पीछे सस्ती और तत्कालिल लोकप्रियता पाने या चर्चित होने की मानसिकता भी होती है. रचनाकार को समझना चाहिए कि साथी चर्चा किसी को साहित्य में अजर-अमर नहीं बनाती. आदि काल से कबीर, गारी और उर्दू में हज़ल कहने का प्रचलन रहा है किन्तु इन्हें लिखनेवाले कभी समादृत नहीं हुए. ऐसा साहित्य कभी सार्वजानिक प्रतिष्ठा नहीं पा सका. ऐसा साहित्य चोरी-चोरी भले ही लिखा और पढ़ा गया हो, चंद लोगों ने भले ही अपनी कुण्ठा अथवा कुत्सित मनोवृत्ति को संतुष्ट अनुभव किया हो किन्तु वे भी सार्वजनिक तौर पर इससे बचते ही रहे.
                    प्रश्न यह है कि साहित्य रचा ही क्यों जाता है? साहित्य केवल मनुष्य ही क्यों रचता है?
                 केवल मनुष्य ही साहित्य रचता है चूंकि ध्वनियों को अंकित करने की विधा (लिपि) उसे ही ज्ञात है. यदि यही एकमात्र कारण होता तो शायद साहित्य की वह महत्ता न होती जो आज है. ध्वन्यांकन के अतिरिक्त साहित्य की महत्ता श्रेष्ठतम मानव मूल्यों को अभिव्यक्त करने, सुरक्षित रखने और संप्रेषित करने की शक्ति के कारण है. अशालीन साहित्य श्रेष्ठतम मूल्यों को नहीं निकृष्टतम मूल्यों को व्यक्त कर्ता है, इसलिए वह सदा त्याज्य माना गया और माना जाता रहेगा.
                    साहित्य सृजन का कार्य अक्षर और शब्द की आराधना करने की तरह है. माँ, मातृभूमि, गौ माता और धरती माता की तरह भाषा भी मनुष्य की माँ है. चित्रकार हुसैन ने सरस्वती और भारत माता की निर्वस्त्र चित्र बनाकर यथार्थ ही अंकित किया पर उसे समाज का तिरस्कार ही झेलना पड़ा. कोई भी अपनी माँ को निर्वस्त्र देखना नहीं चाहता, फिर भाषा जननी को अश्लीलता से आप्लावित करना समझ से परे है.
                     सारतः शब्द सामर्थ्य की कसौटी बिना कहे भी कह जाने की वह सामर्थ्य है जो अश्लील को भी श्लील बनाकर सार्वजनिक अभिव्यक्ति का साधन तो बनती है, अश्लीलता का वर्णन किए बिना ही उसके त्याज्य होने की प्रतीति भी करा देती है. इसी प्रकार यह सामर्थ्य श्रेष्ट की भी अनुभूति कराकर उसको आचरण में उतारने की प्रेरणा देती है. साहित्यकार को अभिव्यक्ति के लिये शब्द-सामर्थ्य की साधना कर स्वयं को सामर्थ्यवान बनाना चाहिए न कि स्थूल शब्दों का भोंडा प्रयोग कर साधना से बचने का प्रयास करना चाहिए.
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२१-१०-२०१० 

शनिवार, 17 मार्च 2012

आलेख: ई-शिक्षा डॉ. नीलाभ तिवारी

आलेख:

ई-शिक्षा

डॉ. नीलाभ तिवारी
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 ई-शिक्षा (ई-लर्निंग) को सभी प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक समर्थित शिक्षा और अध्यापन के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो स्वाभाविक तौर पर क्रियात्मक होते हैं और जिनका उद्देश्य शिक्षार्थी के व्यक्तिगत अनुभव, अभ्यास और ज्ञान के सन्दर्भ में ज्ञान के निर्माण को प्रभावित करना है. सूचना एवं संचार प्रणालियां, चाहे इनमें नेटवर्क की व्यवस्था हो या न हो, शिक्षा प्रक्रिया को कार्यान्वित करने वाले विशेष माध्यम के रूप में अपनी सेवा प्रदान करती हैं[1].
ई-शिक्षा अनिवार्य रूप से कौशल एवं ज्ञान का कंप्यूटर एवं नेटवर्क समर्थित अंतरण है. ई-शिक्षा इलेक्ट्रॉनिक अनुप्रयोगों और सीखने की प्रक्रियाओं के उपयोग को संदर्भित करता है. ई-शिक्षा के अनुप्रयोगों और प्रक्रियाओं में वेब-आधारित शिक्षा, कंप्यूटर-आधारित शिक्षा, आभासी कक्षाएं और डिजीटल सहयोग शामिल है. पाठ्य-सामग्रियों का वितरण इंटरनेट, इंट्रानेट/एक्स्ट्रानेट, ऑडियो या वीडियो टेप, उपग्रह टीवी, और सीडी-रोम (CD-ROM) के माध्यम से किया जाता है. इसे खुद ब खुद या अनुदेशक के नेतृत्व में किया जा सकता है और इसका माध्यम पाठ, छवि, एनीमेशन, स्ट्रीमिंग वीडियो और ऑडियो है.
ई-शिक्षा के समानार्थक शब्दों के रूप में सीबीटी (CBT) (कंप्यूटर आधारित प्रशिक्षा ), आईबीटी (IBT) (इंटरनेट-आधारित प्रशिक्षा ) या डब्ल्यूबीटी (WBT) (वेब-आधारित प्रशिक्षा ) जैसे संक्षिप्त शब्द-रूपों का इस्तेमाल किया जा सकता है. आज भी कोई व्यक्ति ई-शिक्षा (ई-लर्निंग/e-learning) के विभिन्न रूपों, जैसे - elearning, Elearning, और eLearning (इनमें से प्रत्येक - ईलर्निंग/ईशिक्षा), के साथ-साथ उपरोक्त शब्दों का भी इस्तेमाल होता देख सकता है.

लाभ ई-शिक्षा इससे जुड़े संगठनों एवं व्यक्तियों को लाभ प्रदान कर सकता है.
1. संशोधित प्रदर्शन : अमेरिकी शिक्षा विभाग द्वारा किए गए 12 वर्षों के अनुसन्धान के एक मेटा-विश्लेषण से पता चला कि आम तौर पर प्रत्यक्ष पाठ्यक्रमों का अनुसरण करके उच्चतर शिक्षा के लिए अध्ययन करने वाले छात्रों की तुलना में ऑनलाइन अध्ययन करने वाले छात्रों का प्रदर्शन काफी बेहतर था.[2]
2. वर्धित उपयोग : सबसे अधिक बुद्धि वाले प्रशिक्षक अपनी हदों के बाहर भी अपने ज्ञान का साझा कर सकते हैं, जिससे छात्रगण अपने शारीरिक, राजनीतिक, और आर्थिक के बाहर भी इन पाठ्यक्रमों का लाभ उठा सकते हैं. मान्यता प्राप्त विशेषज्ञों के पास किसी भी इच्छुक व्यक्ति को न्यूनतम लागत पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सूचना उपलब्ध कराने का अवसर होता है. उदाहरण के लिए, एमआईटी ओपनकोर्सवेयर (MIT OpenCourseWare) कार्यक्रम ने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम और व्याख्यान के पर्याप्त अंशों को मुफ्त ऑनलाइन उपलब्ध करा दिया है.
3. शिक्षार्थियों की सुविधा एवं नम्यता : कई परिस्थितियों में, ईलर्निंग/ईशिक्षा खुद से भी किया जाता है और इसका शिक्षा सत्र 24x7 उपलब्ध रहता है. शारीरिक रूप से कक्षाओं में भाग लेने के लिए शिक्षार्थी किसी विशेष दिन/समय के अधीन नहीं होते हैं. वे अपनी सुविधानुसार शिक्षा सत्रों को कुछ देर के लिए रोक भी सकते हैं. सभी ऑनलाइन पाठ्यक्रमों के लिए उच्च प्रौद्योगिकी की आवश्यकता नहीं होती है. इसके लिए आम तौर पर केवल बुनियादी इंटरनेट उपयोग, ऑडियो, और वीडियो की जानकारी होना ही काफी है.[3] इस्तेमाल किए जाने वाले प्रौद्योगिकी के आधार पर छात्र काम के वक़्त भी अपना पाठ्यक्रम शुरू कर सकते हैं और इस पाठ्यक्रम को किसी दूसरे कंप्यूटर पर अपने घर में भी पूरा कर सकते हैं.
4. ख़ास तौर पर 21वीं सदी में शिक्षार्थियों के अनुशासन, पेशे या करियर में आवश्यक डिजीटल साक्षरता कौशल की मौजूदगी को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कौशल एवं क्षमताओं को विकसित करना : बेट्स (2009)[4] कहते हैं कि ई-शिक्षा के हित में एक प्रमुख तर्क यह है कि यह पाठ्यक्रम के भीतर सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकियों के उपयोग को अंतःस्थापित कर ज्ञान के आधार पर काम करने वाले लोगों के लिए आवश्यक कौशल को विकसित करने में शिक्षार्थी को समर्थ बनाता है. वह यह भी तर्क देते हैं कि इस तरह से ई-शिक्षा के उपयोग में शिक्षार्थियों के पाठ्यक्रम डिजाइन और मूल्यांकन का प्रमुख आशय निहित होता है.
पारंपरिक कक्षा प्रशिक्षा पर कंप्यूटर आधारित प्रशिक्षा के अतिरिक्त लाभों में निम्नलिखित कार्य करने की क्षमता शामिल है:
1. प्रति क्रेडिट घंटे के हिसाब से कम भुगतान करना
2. समग्र प्रशिक्षा समय को कम करना
3. समय की विस्तारित अवधि (महीना भी) के ऊपर प्रशिक्षा का प्रसार करना
4. प्रगति को चिह्नित करना (कंप्यूटर छात्र के छोड़े गए स्थान को याद रखता है ताकि वे वहां से अपने पाठ्यक्रम को फिर से शुरू कर सकें)
5. एक जगह रहना (उदाहरणार्थ, घर, कार्यालय, हवाई अड्डा, कॉफ़ी की दूकान, इत्यादि) जहां किसी यात्रा की आवश्यकता न हो (शारीरिक कक्षाओं और फायदेमंद वातावरण के परिवहन की लागत को भी कम करता है).
6. सुविधानुसार कक्षा की गतिविधियों में भाग लेना (कक्षा की बैठक के समय से बंधा नहीं)
7. वेबकास्ट या अन्य पाठ्यक्रम सामग्री जैसे सार्वजनिक पाठ्यक्रम का उपयोग करना
8. विभिन्न प्रकार के स्थानों से पाठ्यक्रमों का उपयोग करना[citation needed]