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बुधवार, 13 सितंबर 2017

kundaliya - hindi divas

 कुण्डलिया, कुंडली, कुण्डलिनी
*
'कुण्डलिनी चक्र' आधारभूत ऊर्जा को जागृत कर ऊर्ध्वमुखी करता है। कुण्डलिनी छंद एक कथ्य से प्रारंभ होकर सहायक तथ्य प्रस्तुत करते हुए उसे अंतिम रूप से स्थापित करता है।

नाग के बैठने की मुद्रा को कुंडली मारकर बैठना कहा जाता है। इसका भावार्थ जमकर या स्थिर होकर बैठना है। इस मुद्रा में सर्प का मुँह और पूँछ आस-पास होती है। इस गुण के आधार पर कुण्डलिनी छंद बना है जिसके आदि-अंत में एक समान शब्द या शब्द समूह होता है।

कुंडली की प्रथम दो पंक्तिया दोहा (१३-११, पदादि में जगण वर्जित, पदांत लघु गुरु) तथा शेष चार रोला छंद ( १३-११) में होती हैं। दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है. हिंदी दिवस पर प्रस्तुत हैं कुंडलिया छंद-
*
हिंदी की जय बोलिए, उर्दू से कर प्रीत
अंग्रेजी को जानिए, दिव्य संस्कृत रीत
दिव्य संस्कृत रीत, तमिल-असमी रस घोलें
गुजराती डोगरी, मराठी कन्नड़ बोलें
बृज मलयालम गले मिलें गारो से निर्भय
बोलें तज मतभेद, आज से हिंदी की जय
*
हिंदी की जय बोलिए, हो हिंदीमय आप.
हिंदी में नित कार्य कर, सकें विश्व में व्याप..
सकें विश्व में व्याप, नाप लें समुद ज्ञान का.
नहीं व्यक्ति का, बिंदु 'सलिल' राष्ट्रीय आन का..
नेह-नरमदा नहा, बोलिए होकर निर्भय.
दिग्दिगंत में गूँज उठे, फिर हिंदी की जय..
*
हिंदी की जय बोलिए, तज विरोध-विद्वेष
विश्व नीड़ लें मान तो, अंतर रहे न शेष
अंतर रहे न शेष, स्वच्छ अंतर्मन रखिए
जगवाणी हिंदी अपनाकर, नव सुख गहिए
धरती माता के माथे पर, शोभित बिंदी
मूक हुए 'संजीव', बोल-अपनाकर हिंदी
***
परमपिता ने जो रचा, कहें नहीं बेकार
ज़र्रे-ज़र्रे में हुआ, ईश्वर ही साकार
ईश्वर ही साकार, मूलतः: निराकार है
व्यक्त हुआ अव्यक्त, दैव ही गुणागार है
आता है हर जीव, जगत में समय बिताने
जाता अपने आप, कहा जब परमपिता ने
*
निर्झर - नदी न एक से, बिलकुल भिन्न स्वभाव
इसमें चंचलता अधिक, उसमें है ठहराव
उसमें है ठहराव, तभी पूजी जाती है
चंचलता जीवन में, नए रंग लाती है
कहे 'सलिल' बहते चल,हो न किसी पर निर्भर
रुके न कविता-क्रम, नदिया हो या हो निर्झर
*

बुधवार, 14 सितंबर 2016

हाइकू गीत
*
बोल रे हिंदी
कान में अमरित
घोल रे हिंदी
*
नहीं है भाषा
है सभ्यता पावन
डोल रे हिंदी
*
कौन हो पाए
उऋण तुझसे, दे
मोल रे हिंदी?
*
आंग्ल प्रेमी जो
तुरत देना खोल
पोल रे हिंदी
*
झूठा है नेता
कहाँ सच कितना?
तोल रे हिंदी
*
मुक्तक
हिंदी का उद्घोष छोड़, उपयोग सतत करना है
कदम-कदम चल लक्ष्य प्राप्ति तक संग-संग बढ़ना है
भेद-भाव की खाई पाट, सद्भाव जगाएँ मिलकर
गत-आगत को जोड़ सके जो वह पीढ़ी गढ़ना है
*
गीत
*
देश-हितों हित
जो जीते हैं
उनका हर दिन अच्छा दिन है।
वही बुरा दिन
जिसे बिताया
हिंद और हिंदी के बिन है।
*
अपने मन में
झाँक देख लें
क्या औरों के लिए किया है?
या पशु, सुर,
असुरों सा जीवन
केवल निज के हेतु जिया है?
क्षुधा-तृषा की
तृप्त किसी की,
या अपना ही पेट भरा है?
औरों का सुख छीन
बना जो धनी
कहूँ सच?, वह निर्धन है।
*
जो उत्पादक
या निर्माता
वही देश का भाग्य-विधाता,
बाँट, भोग या
लूट रहा जो
वही सकल संकट का दाता।
आवश्यकता
से ज्यादा हम
लुटा सकें, तो स्वर्ग रचेंगे
जोड़-छोड़ कर
मर जाता जो
सज्जन दिखे मगर दुर्जन है।
*
बल में नहीं
मोह-ममता में
जन्मे-विकसे जीवन-आशा।
निबल-नासमझ
करता-रहता
अपने बल का व्यर्थ तमाशा।
पागल सांड
अगर सत्ता तो
जन-गण सबक सिखा देता है
नहीं सभ्यता
राजाओं की,
आम जनों की कथा-भजन है
***
हिंदी दिवस २०१६

रविवार, 15 सितंबर 2013

article: HINDI - pushp lata chaswal

विशेष आअलेख:
हिन्दी भाषा की मानकता पर सांस्कृतिक प्रभाव  
पुष्प लता चसवाल 
*
भाषा भावों और विचारों की वाहक होती है जिसके माध्यम से मनुष्य परस्पर व्यवहार करने में सक्षम होते हैं। मानव द्वारा संचालित सृष्टि के सभी कार्यों में भाषा की भूमिका सर्वोत्तम मानी गई है और यह एक आधारभूत सच्चाई है कि जिस भी भाषा को मनुष्य अपने परिवेश से सहज रूप में अपना लेता है वह कोई जन्मजात प्रवृति नहीं होती और न ही उसके या उसके तत्कालीन जनसमुदाय द्वारा रची गई भाषा होती है, वह भाषा तो युग-युगान्तरों से जन समूहों के सांस्कृतिक व सभ्याचारिक सन्दर्भों से निर्मित होती है और उस समाज के विकास के साथ-साथ ही विकसित होती जाती है। यही कारण है कि जो समाज जितना अधिक विकसित होता है उस समाज की भाषा उतनी ही उन्नत होती है अथवा यह भी कहा जा सकता है कि किसी समाज के विकास की पहचान उसकी भाषा से की जा सकती है।

वस्तुतः संस्कृति भाषा के विकास का मूलाधार होती है और फिर यही भाषा संस्कृति का संरक्षण एवं संवर्धन करती है। इसलिए भाषा और संस्कृति का परस्पर गहरा सम्बन्ध माना जाता है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति बहुत प्राचीन एवं सनातन है और संस्कृत भाषा इसकी मूलभाषा है। देवनागरी लिपि में रचित इस भाषा का विधान वैज्ञानिक पद्धति युक्त व्यवस्था पर आधारित है। भाषा का भौतिक आधार ध्वनि होता है। हिंदी भाषा की ध्वनियों का प्राचीनतम रूप वैदिक ध्वनि समूह है, जिन्हें वर्ण या अक्षर कहते हैं। संस्कृत के व्याकरणकार पाणिनी ने वैदिक ध्वनियों की संख्या ६३ या ६४ बताई है जिनमें से ५९ स्वर एवं व्यंजन ध्वनियाँ हिन्दी में भी आती हैं - इन में पर्याप्त ध्वनियाँ वैदिक हैं। हिन्दी भाषा का विकास संस्कृत से हुआ है और इसकी पुरातन विकास धारा वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत से पाली, पाली से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश और शौरसेनी अपभ्रंश से हिन्दी भाषा के विकास की मानी जाती है।

हिन्दी भाषा की लिपि देवनागरी है जो ध्वनि प्रधान हैं। इसे विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक, सरल एवं सुबोध भाषा माना गया है क्योंकि इसमें सूक्ष्म-सी ध्वनि भेद होने पर नए ध्वनि चिह्न का प्रावधान किया जाता है, यथा- स, श, ष चाहे समान ध्वनि वर्ण हैं किन्तु थोड़ी-थोड़ी ध्वनि में भिन्नता आने पर ही इनके वर्णों के आकार में अन्तर आ जाता है।

हिन्दी की विकास यात्रा में कई स्थानीय समृद्ध बोलियों का योगदान रहा है, जिन्हें वर्तमान हिंदी की सहयोगी भाषाओं के रूप में भी जाना जाता है।

वस्तुतः हिंदी भाषा के संवर्धन में गंगा-जमुनी सभ्यता की झलक विविध रूपों में दिखाई पड़ती है। इसका उत्कृष्ट साहित्य इसी गंगा-जमुनी संस्कृति की देन है। इसके प्राचीन ग्रंथ रामचरितमानस, पद्मावत, सूरसागर कबीर दोहावली जैसे भक्तिकालीन काव्य की उपादेयता एवं प्रसिद्धी आज भी जन-जन के हृदय पटल पर अंकित है, बिहारी, केशव, तथा अष्टछाप या अन्य कवियों की रचनाएं चाहे अवधी, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी या खड़ी बोली में ही क्यों न रची गई हों इन सभी में गंगा-जमुनी सभ्यता की विविध छाप-छवियाँ अंकित हैं। यही कारण हैं कि आज की हिन्दी की प्रारम्भिक अवस्था खड़ी बोली को विद्वानों ने हिन्दुस्तानी, सरहिन्दी, वर्नाक्युलर आदि नामों से अभिहित किया। देखा जाए तो ‘खड़ी बोली’ का विकास जन-जीवन के सरोकारों को साहित्य में विषय-वस्तु के रूप में व्यक्त करने के साथ हुआ जो आगे चल कर आधुनिक हिन्दी के रूप में विकसित हुआ। ‘खड़ी बोली’ को विद्वानों ने अनेक रूपों में अभिहित किया है - हिन्दी भाषा-शास्त्री सुनीति कुमार चटर्जी इसे ऐसी भाषा मानते हैं जो आवश्यकतानुसार स्थिति से खड़ी हुई थी। कामता प्रसाद गुरु 'खड़ी' का अर्थ कर्कश भाषा के रूप में और किशोरी दास वाजपेयी 'खड़ी पाई' होने के कारण खड़ी बोली मानते हैं। गिल्क्राईस्ट ने इसकी 'खड़ी' की अपेक्षा 'खरी' नाम से पहचान करवाई जिसका अर्थ उन्होंने 'परिनिष्ठित' अथवा 'मानक' भाषा के रूप में लिया। कुछ अन्य विद्वान 'खड़ी बोली,' को 'खरी बोली' कहते हैं जिसका अभिप्रायः 'शुद्ध बोली' से है तो कुछ इसे 'खड़ी हुई' बोली मानते हैं यानी 'स्टैंडिंग' -'स्टैण्डर्ड' अथवा 'मानक' भाषा, जबकि भोलानाथ तिवारी ने 'खड़ी बोली' को दो अर्थों में व्यक्त किया है- एक तो साहित्यिक हिन्दी जिस में आज का सारा साहित्यिक रूप आ जाता है और दूसरी दिल्ली, मेरठ के आस-पास की भाषा।(भोला नाथ तिवारी, मानक हिन्दी का स्वरूप, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली)  

ऐसे में जब हिन्दी के उद्भव और विकास की यात्रा पर विचार करते हैं तो इसके विकास में भारतवर्ष के अधिकांश क्षेत्रों की स्थानीय भाषाओं का योगदान दिखाई पड़ता है, जिसे सर्वप्रथम डा. ग्रियर्सन ने हिन्दी भाषा की तीन शाखाओं के रूप में वर्गीकृत किया है - पहली: बहिरंग शाखा जिसमें पश्चिमी समुदाय की भाषाएं सिन्धी-लहंदा, पूर्वी समुदाय की उड़िया, बिहारी, बंगला, असमिया और दक्षिणी समुदाय की मैथिली भाषाएँ आती हैं। दूसरी: मध्य देशीय शाखा में मध्यवर्ती समुदाय की पूर्वी हिन्दी। और, तीसरी: अन्तरंग शाखा के केन्द्रीय समुदाय की पश्चिमी हिन्दी समुदाय में, पंजाबी, गुजराती, भीली, राजस्थानी, खानदेशी तथा पहाड़ी समुदाय में पूर्वी पहाड़ी या नेपाली, मध्य पहाड़ी, पश्चिमी पहाड़ी भाषाएँ सम्मिलित हैं। ये सभी भाषाएँ हिन्दी की सहयोगी व सहोदर भाषाएँ हैं जिनका प्रभाव हिन्दी की ध्वनियों पर प्रचुर मात्रा में पड़ता रहा है। हिन्दी भाषा-शास्त्री सुनीति कुमार चटर्जी ने भी इसे उदीच्य (उत्तरी) भाषाएँ, प्रतीच्य (पश्चिमी) भाषाएँ, मध्य देशीय भाषाएँ, प्राच्य (पूर्वी) भाषाएँ, दक्षिणात्य भाषाओं में वर्गीकृत किया जो तात्विक दृष्टि से डा. ग्रियर्सन के वर्गीकरण के समान ही प्रतीत होता है।

आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने हिन्दी का प्रारम्भ १८८३ ई. के आस पास 'अमीर खुसरो' के साहित्य से माना है जिसमें सरल भाषा में तत्कालीन जन-जीवन का प्रतिपादन काव्य द्वारा किया गया है। जबकि डा. राम कुमार वर्मा हिन्दी के विकास काल का आरम्भ गोरख नाथ की काव्य रचनाओं के साथ मानते हैं। उनका मानना है कि खड़ीबोली जनपदीय भाषा का परिष्कृत रूप होने के कारण इसका विकास काल आर्य भाषा काल से ही माना जाता है जब नाथ पंथियों की भाषा में नागर अपभ्रंश तथा ब्रज भाषा का समावेश मिलाता है। (डा. राम कुमार वर्मा, हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास,२८) यथा -
         “नौ लाख पात्री आगे नाचै पीछे सहज अखाड़ा।
          ऐसे मन ले जोगी खेलै, तब अन्तर बसे भंडारा।।” (गोरख नाथ)
इसी प्रकार की भाषा का प्रयोग सरहपाद की साधुकड़ी भाषा में भी दृष्टव्य है जहाँ खड़ी बोली के शब्दों व ध्वनियों का प्रयोग स्पष्ट झलकता है,
         “जह मन पवन न संचरइ, रवि शशि नाह पवेश।
          तहि वड चित्त विसाम करू, सरहे कहीअ उवेश॥”(डा. राम कुमार वर्मा, हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास,४३)

खड़ी बोली तत्कालीन राजनैतिक शोषण के विरूद्ध भी खड़ी हुई जान पड़ती है इसकी पुष्टि नाथ काव्य में दिखाई पड़ती है (शिव कुमार शर्मा; हिंदी साहित्य: युग और प्रवृत्तियां;२४), यथा-
      "हिन्दू मुसलमान खुदाई के बन्दे
      हम जोगी न कोई किसी के छन्दे।"
नाथ जोगियों की ऐसी भाषा उनके सबदियों और पदों में व्यक्त हुई है। खड़ीबोली अपने प्रारम्भिक रूप में आदान प्रदान करने वाली सशक्त भाषा बन कर उभरी जिसे जहाँ अरबी-फ़ारसी के विद्वानों ने अपनी बात आम जनता को समझाने के लिए प्रयुक्त किया तो वहीँ साधू-संतों ने जन-सामान्य को जागृत करने के लिए इसे अपनाया। इसके प्रमुख कवियों में नरपति नाल्ह, अमीर खुसरो, गोरख नाथ, विद्यापति और कबीर हैं जिनकी रचनाओं में जन-जीवन की झाँकियाँ झलकती हैं। इन सभी में 'अमीर खुसरो' की भाषा में अधिक शुद्ध खड़ीबोली का रूप दिखाई पड़ता है।      

खड़ी बोली ऐसी भाषा है जो जन-जन में समझी जाती रही और जन-जन की आपेक्षाओं के अनुरूप उनके पक्षधर के रूप में साहित्य में आई एवं सभी को मान्य थी। देखने में आता है कि 'मानक भाषा’ का मूल आधार चाहे क्षेत्रीय होता है किन्तु कालान्तर में शनैः-शनैः वही भाषा सर्व क्षेत्रीय बन जाती है। हिन्दी के विकास में जहाँ भिन्न-भिन्न भाषाओं और बोलियों का योगदान रहा है तो इस के एक मानक स्वरूप को निर्धारित करने का प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है। तब 'मानक भाषा’ का अर्थ जानना आवश्यक हो जाता है।
भोला नाथ तिवारी के मतानुसार-
'मानक भाषा किसी भाषा के उस रूप को कहते हैं जो उस भाषा के पूरे क्षेत्र में शुद्ध माना जाता है तथा जिसे उस प्रदेश का शिक्षित वर्ग और शिष्ट समाज अपनी भाषा का आदर्श रूप मानता है और प्रायः सभी औपचारिक परिस्थितियों में, लेखन में, प्रशासन में, और शिक्षा के माध्यम के रूप में यथा साध्य उसी का प्रयोग करने का प्रयत्न करता है।'

किसी भी भाषा को एक मानक रूप प्रदान करना उस भाषा का मानकीकरण कहलाता है। ऐसा रूप जिसमें उस भाषा के प्राप्त सभी विकल्पों में से किसी एक रूप को मानक मान लिया जाए और उस भाषा रूप को उस भाषा के सभी भाषा-भाषी सहज ही मान्यता प्रदान करें।

हिन्दी भाषा को भारत की राजभाषा का दर्जा मिलने के बाद इसके मानकीकरण का मुद्दा बहुत संजीदगी से उठा तथा इस सन्दर्भ में ‘नागरी लिपि’ तथा हिन्दी का मानकीकरण केन्द्रीय सरकार की संस्था 'हिन्दी निदेशालय' ने भारत के चुने हुए भाषा विज्ञान के मनीषियों की सहायता से किया है।

हिन्दी भाषा के मानक रूप को जानने से पहले भाषा की मानकता के विषय में जानकारी प्राप्त करना अनिवार्य हो जाता है। ‘मानक’ शब्द को ‘मान’ से निर्मित किया गया है जिसका अर्थ ‘मापदण्ड’, ‘मानदण्ड’ या ‘पैमाना’ है। राम चन्द्र वर्मा कृत 'प्रामाणिक हिन्दी' में सर्वप्रथम मानक शब्द की अर्थ-व्याख्या की गई, जिसे सर्वमान्य माना जाता है।

'मान' का अभिप्राय है 'माप' ऐसा माप जिससे किसी की योग्यता, श्रेष्ठता व गुण आदि का अनुमान या कल्पना की जाए यानी ‘मानक भाषा’ का अर्थ हुआ साधुभाषा, टकसालीभाषा, शुद्ध भाषा, आदर्श भाषा, परिनिष्ठित भाषा। (भोला नाथ तिवारी, मानक हिन्दी का स्वरूप, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली) मोटे तौर पर यह माना जाता है कि भाषा उच्चारण अवयवों से उच्चरित ध्वनि प्रतीकों की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा एक समुदाय के लोग आपस में भावों और विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। ये उच्चारित ध्वनियाँ व्यक्ति के भावों एवं विचारों को प्रतीक रूप में व्यक्त करती हैं। हिन्दी भाषा के रूप-संरचना विज्ञान में शब्दों की प्रतीकता को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि- व्यक्ति के विचारों के प्रतीक रूप में उच्चारित की जाने वाली ध्वनियों के समूह या संकेतों को 'शब्द' कहते हैं। शब्दों के माध्यम से ही व्यक्ति अपने भावों व विचारों युक्त सार्थक भाषा का सम्प्रेषण कर पाता है। ऐसे ही महाभारत के ‘शान्ति पर्व’ में श्वेतकेतु ने शब्द के विषय में लिखा है - 'क्ल्पयेन च परिवादकृतो हि यः। स शब्द इति विज्ञेयः।' (भाई योगेन्द्र जीत, हिन्दी भाषा शिक्षण,२३)

उच्चारण का हिंदी भाषा की मानकता पर गहरा प्रभाव पड़ता है इसके सम्बन्ध में डा. भोला नाथ तिवारी का मानना है कि ऐसे उच्चारण और प्रयोग आदि ही मानक माने जाए जो परम्परा समर्थित हों ही, सुशिक्षित मातृभाषियों को मान्य भी हों।"

किन्तु भाषा की एक सहज प्रवृत्ति यह भी है कि वह परिवर्तनशील होती है, यह परिवर्तन ध्वनि तथा रूप दोनों स्तरों पर दृष्टव्य होता है यही कारण है कि हिन्दी के वर्ण जिनके दो-दो रूप मिलते थे (अ, ल, ण ) उनका अब केवल एक रूप ही मानक माना जाता है। इसके साथ ही हिन्दी भाषा की एक और सहज प्रवृत्ति है कि यह अन्य भाषा के शब्दों और उन की उपयुक्त ध्वनियों को सहज रूप से आत्मसात कर लेती है।

ज्यों-ज्यों भारतीय संस्कृति विकसित हो कर अपने अन्दर अन्य संस्कृतियों के उत्कृष्ट तथ्यों का समावेश करती गई त्यों-त्यों हिंदी भाषा भी अन्य संस्कृतियों के शब्दों, ध्वनियों को सहज रूप से आत्मसात करती रही है। यहाँ तक कि जिन विदेशी, तत्सम, तद्भव अथवा स्थानीय शब्दों को हिन्दी भाषा ने आत्मसात किया है उनकी भिन्न ध्वनियों के लिए भी नए ध्वनि चिह्नों का प्रावधान किया गया है, जैसे - ग़ज़ल, कॉलेज, इसके साथ ही जो ध्वनि चिह्न शब्द में जिस स्थान पर आता है वह उसी क्रम में बोली जाता है। (कुछ एक अपवादों को छोड़ कर जैसे ' ि ' की मात्रा वर्ण से पहले लगती है किन्तु उसका उच्चारण बाद में होता है) कोई भी ध्वनि चिह्न मौन नहीं होता। हिन्दी भाषा के सरल ग्राह्य स्वभाव के विषय में स्पष्ट किया गया है -
“इसकी देवनागरी लिपि में उच्चारण के लिए निर्धारित चिह्न 'वर्ण' प्रत्येक स्थिति में निश्चित ध्वनियों की अभिव्यक्ति करते हैं जिनमें किन्हीं परिस्थितियों या वर्ण-संयोजन के कारण किसी प्रकार का ध्वनि परिवर्तन नहीं होता, जबकि पाश्चात्य भाषाओं में वर्ण अन्य वर्णों के सान्निध्य या वर्तनी के कारण अलग-अलग ध्वनियों की अभिव्यक्ति करते हैं, उदाहरणार्थ -अंग्रेज़ी का वर्ण (c) अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग ध्वनियों को संप्रेषित करता है। देवनागरी लिपि में प्रत्येक ध्वनि के लिए वागेंद्रियों से उत्पत्ति स्थल का निर्धारण, मात्रा चिह्न, संयुक्त वर्ण या सामान ध्वनियों में सूक्ष्म अन्तर वाले वर्ण-चिह्न बड़े वैज्ञानिक ढंग से निर्धारित किये गए हैं। सरल, वैज्ञानिक और ध्वनि-प्रधान इस भाषा को सीखना भी सरल है।" (डॉ. प्रेम लता; हिन्दी भाषा शिक्षण ;६५)

पूरा विश्व जब 'वैश्विक-ग्राम' बन कर 'साइबर-कैफे, 'आई-पैड', या आप के 'कम्प्यूटर स्क्रीन' पर चौपाल की पहचान बनता जा रहा है और हिंदी भाषा मात्र भारत की भाषा न रह कर अपनी विश्व स्तरीय पहचान अंकित करने में तत्पर होती दिखाई पड़ रही है, तब हिन्दी की मानकता का प्रश्न और भी समसामयिक हो जाता है। हिन्दी अब अपनी सार्वभौमिक सत्ता को अर्जित करने के लिए निरंतर अग्रसर हो रही है। यह हमारी राष्ट्रभाषा है और किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उस देश का गौरव मानी जाती है साथ ही यह राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यवहार करने, सामाजिक व मानवीय संबंधों को सुदृढ़ करने का प्रमुख साधन है। भारतीय संस्कृति में 'वसुधैव कुटुम्बकं' की उक्ति को चरितार्थ करने के लिए हिन्दी जहाँ विभिन्न संस्कृतियों के उच्च संस्कारों तथा व्यावहारिक शब्दों को सहजता से अपनाती जा रही है वहीँ यह अपने भाषायी स्वरूप को भी परिष्कृत करने में संलग्न है। ऐसे में जब अपने ही देश में हिन्दी के प्रति असम्पृक्तता के भाव देखने को मिलते हैं या फिर भाषा की परिवर्तनशीलता के नाम से वर्तनी के स्तर पर विशेष ध्वनि चिह्नों पर ध्यान न दे कर हिन्दी के मानक स्वरूप को बिगाड़ने के प्रयास किये जाते हैं तो विद्वत-जनों में क्षोभ पैदा होना स्वाभाविक हो जाता है।    

हिन्दी भाषा के पाठ्यक्रम के लिए निर्धारित पुस्तकों में कई बार जब वर्तनी की अशुद्धियों पर अधिक ध्यान न देकर इसे टंकन के माथे मढ़ दिया जाता है तो बहुत खेद होता है। किन्हीं राज्य स्तरीय शिक्षा बोर्ड की पुस्तकों में संयुक्त वर्णों को हिंदी के मानक संयुक्त रूप में न लिख कर अलग-अलग लिखने का प्रचलन प्रायः देखने में आता है, जैसे -
'द् वारा,  'प् र सिद् ध'  क्रमशः ‘द्वारा’ और ‘प्रसिद्ध’ के लिए लिखे जाते हैं।
सबसे ज़्यादा दुःख तो तब होता है जब हिन्दी भाषा की परिवर्तनशीलाता के नाम पर, भाषा मनीषियों के कड़े अनुसंधान के फलस्वरूप विदेशी, तत्सम व स्थानीय शब्दों की सही ध्वनियों के उच्चारण हेतु गढ़े गए मानक ध्वनि चिह्नों को यह कह कर नकार दिया जाता है कि हिन्दी में बिंदी का प्रचलन अब कम होता जा रहा है, बिन्दी की अशुद्धि को ग़लती न माना जाए। ऐसे में मानकता का प्रश्न यूँ ही निरर्थक-सा हो जाता है। पुस्तकें, समाचारपत्र या पत्रिकाएँ भाषा के स्वरूप की सही पहचान करवाती हैं, लेकिन आजकल इनमें भी भाषा अभिव्यक्ति उतनी विश्वसनीय नहीं कही जा सकती। हस्त लिखित अभिव्यक्ति का तो कहना ही क्या!

जीवन की भागम-दौड़ की स्पष्ट झलक हिन्दी के हस्त लेखन पर है। किसी भी हिन्दी भाषी प्रदेश के विद्यालय या विश्व विद्यालय के पर्चे उठा कर देख लीजिए, प्रायः उनमें ९०% हस्त लेखन ऐसा होगा जिसमें शब्दों पर शिरोरेखा डालने की ज़हमत ही नहीं उठाई जाती। उसे पर्चे लम्बे होने की दुहाई दे कर नज़रअंदाज़ कर देना इस प्रवृत्ति को निरंतर बढ़ावा दे रहा है।
यह हिन्दी की मानकता के साथ कैसा खिलवाड़ है या कोई भाषा के स्तर पर सांस्कृतिक साज़िश? भाषा को संस्कृति की वाहक माना जाता है। हिन्दी की देवनागरी लिपि एक संयुक्त लिपि है जो अक्षरों को एक शिरोरेखा से जोड़ कर सार्थक शब्दों में ढालती है, ठीक वैसे ही जैसे एक परिवार के सदस्य एक दूसरे से जुड़ कर अधिक सार्थक भूमिका निभा सकते हैं। फिर संयुक्त वर्णों को अलग-अलग दर्शाने में क्या प्रयोजन हो सकता है? या फिर विदेशी आगम शब्दों की सही पहचान को बरक़रार न रखने में कौन-सा हेतु सिद्ध हो जाता है?!
हिन्दी की सहजता और लचीलेपन की प्रवृत्ति इसकी विशेष पहचान है, जिसके द्वारा यह विदेशी आगम शब्दों को इतने स्वाभाविक रूप से आत्मसात कर लेती है कि मानो वे शब्द उसके अपने ही हों, चाहे उसके लिए चाहे नए ध्वनि चिह्न ही क्यों न खोजने पड़ें, इसे शब्द ध्वनियों के रूप बिगाड़ने के लचीलेपन से किसी प्रकार न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। यदि हमें हिन्दी का विस्तार विश्वपटल पर रेखांकित करना है तो इसकी भाषाई व सांस्कृतिक उत्कृष्टता को आत्मसात करने की प्रवृत्ति को भी विश्व पटल तक विस्तृत करने के प्रयास इसकी मानकता को सुनिश्चित करते हुए करने होंगे।

शनिवार, 15 सितंबर 2012

नवगीत: अपना हर पल है हिन्दीमय.... संजीव 'सलिल'

नवगीत:
अपना हर पल है हिन्दीमय....
संजीव 'सलिल'
*
अपना हर पल है हिन्दीमय
एक दिवस क्या खाक मनाएँ?

बोलें-लिखें नित्य अंग्रेजी
जो वे एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को कहते पिछडी.
पर भाषा उन्नत बतलाते.

घरवाली से आँख फेरकर
देख पडोसन को ललचाते.

ऐसों की जमात में बोलो,
हम कैसे शामिल हो जाएँ?...
*
हिंदी है दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक की भाषा.

जिसकी ऐसी गलत सोच है,
उससे क्या पालें हम आशा?

इन जयचंदों की खातिर
हिंदीसुत पृथ्वीराज बन जाएँ...
*
ध्वनिविज्ञान-नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में माने जाते.

कुछ लिख, कुछ का कुछ पढने की
रीत न हम हिंदी में पाते.

वैज्ञानिक लिपि, उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में साम्य बताएँ...
*
अलंकार, रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की बिम्ब अनूठे.

नहीं किसी भाषा में मिलते,
दावे करलें चाहे झूठे.

देश-विदेशों में हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएँ...
*
अन्तरिक्ष में संप्रेषण की
भाषा हिंदी सबसे उत्तम.

सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन में
हिंदी है सर्वाधिक सक्षम.

हिंदी भावी जग-वाणी है
निज आत्मा में 'सलिल' बसाएँ...
*

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

हिन्दी दिवस, श्यामल सुमन




हिन्दी दिवस पर विशेष :

श्यामल सुमन  

भाषा जो सम्पर्क की, हिन्दी उसमे मूल।
भाषा बनी न राष्ट्र की, यह दिल्ली की भूल।।

राज काज के काम हित, हिन्दी है स्वीकार।
लेकिन विद्यालय सभी, हिन्दी के बीमार।।

भाषा तो सब है भली, सीख बढ़ायें ज्ञान।
हिन्दी बहुमत के लिए, नहीं करें अपमान।।

मंत्री की सन्तान सब, अक्सर पढ़े विदेश।
भारत में भाषण करे, हिन्दी में संदेश।।

दिखती अंतरजाल पर, हिन्दी नित्य-प्रभाव।
लेकिन हिन्दुस्तान में, है सम्मान अभाव।।

सिसक रही हिन्दी यहाँ, हम सब जिम्मेवार।
बना राष्ट्र-भाषा इसे, ऐ दिल्ली सरकार।।

दिन पन्द्रह क्यों वर्ष में, हिन्दी आती याद?
हो प्रति पल उपयोग यह, सुमन करे फ़रियाद।।
 _____________________________________
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।

www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@yahoo.co.in 

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

हिंदी दिवस पर विशेष रचना: हिन्दी, हिन्दी, हिन्दवी... नवीन सी. चतुर्वेदी

हिंदी दिवस पर विशेष रचना: 
हिन्दी, हिन्दी, हिन्दवी...
 नवीन सी. चतुर्वेदी
 *
हिन्दी, हिन्दी, हिन्दवी, गूँजे चारों ओर |
हिन्दी-हिन्दुस्तान का, दुनिया भर में शोर ||
दुनिया भर में शोर, होड़ सी मची हुई है |
पहले पहुँचे कौन, शर्त सी लगी हुई है |
करो नहीं तुम भूल, समझ कर इस को चिंदी |
गूगल, माय्क्रोसोफ्ट, आज सिखलातेहिंदी। 



हिन्दी में ही देखिये, अपने सारे ख़्वाब |
हिन्दी में ही सोचिये, करिये सभी हिसाब ||
करिये सभी हिसाब, ताब है किस की प्यारे |
ऐसा करते देख, आप को जो दुत्कारे |
एप्लीकेशन-फॉर्म, भले न भरें हिन्दी में |
पर अवश्य परिहास-विलाप करें हिन्दी में ||

हिन्दी भाषा से अगर, तुम को भी हो प्रेम |
तो फिर मेरे साथ में तुम भी लो यह नेम |
तुम भी लो यह नेम, सभी मुमकिन हिस्सों में |
हिन्दी इस्तेमाल - करें सौदों-किस्सों में |
छोटी सी बस मित्र यही अपनी अभिलाषा |
दुनिया में सिरमौर बने यह हिन्दी भाषा ||

हिन्दुस्तानी बोलियों, को दे कर सम्मान |
अंग्रेजी को भी मिले, कहीं-कहीं पर स्थान ||
कहीं-कहीं पर स्थान, तभी भाषा फैलेगी |
पब्लिक ने इंट्रेस्ट लिया, तब ही पनपेगी |
भरी सभा के मध्य, बात कहते एलानी |
अपनी वही ज़ुबान, जो कि है हिन्दुस्तानी ||
____________________________

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

नवगीत: हिंद और/ हिंदी की जय हो... संजीव 'सलिल'

नवगीत:
हिंदी की जय हो...
संजीव 'सलिल'
*
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
जनगण-मन की
अभिलाषा है.
हिंदी भावी
जगभाषा है.
शत-शत रूप
देश में प्रचलित.
बोल हो रहा
जन-जन प्रमुदित.
ईर्ष्या, डाह, बैर
मत बोलो.
गर्व सहित
बोलो निर्भय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
ध्वनि विज्ञानं
समाहित इसमें.
जन-अनुभूति
प्रवाहित इसमें.
श्रुति-स्मृति की
गहे विरासत.
अलंकार, रस,
छंद, सुभाषित.
नेह-प्रेम का
अमृत घोलो.
शब्द-शक्तिमय
वाक् अजय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
*
शब्द-सम्पदा
तत्सम-तद्भव.
भाव-व्यंजना
अद्भुत-अभिनव.
कारक-कर्तामय
जनवाणी.
कर्म-क्रिया कर
हो कल्याणी.
जो भी बोलो
पहले तौलो.
जगवाणी बोलो
रसमय हो.
हिंद और
हिंदी की जय हो...
**************

नवगीत: अपना हर पल है हिन्दीमय... -- संजीव 'सलिल'






नवगीत:
अपना हर पल है हिन्दीमय...
संजीव 'सलिल'
*

*
अपना हर पल है हिन्दीमय
एक दिवस क्या खाक मनाएँ?
बोलें-लिखें नित्य अंग्रेजी
जो वे एक दिवस जय गाएँ...
*
निज भाषा को कहते पिछडी.
पर भाषा उन्नत बतलाते.      
घरवाली से आँख फेरकर                                             
देख पडोसन को ललचाते.                                                     
ऐसों की जमात में बोलो,                                                                       
हम कैसे शामिल हो जाएँ?...
*
हिंदी है दासों की बोली,
अंग्रेजी शासक की भाषा.
जिसकी ऐसी गलत सोच है,
उससे क्या पालें हम आशा?
इन जयचंदों  की खातिर
हिंदीसुत पृथ्वीराज बन जाएँ...
*

ध्वनिविज्ञान-नियम हिंदी के
शब्द-शब्द में  माने जाते.
कुछ लिख, कुछ का कुछ पढ़ने की
रीत न हम हिंदी में पाते.
वैज्ञानिक लिपि, उच्चारण भी
शब्द-अर्थ में साम्य बताएँ...
*
अलंकार, रस, छंद बिम्ब,
शक्तियाँ शब्द की, बिम्ब अनूठे.
नहीं किसी भाषा में  मिलते,
दावे करलें चाहे झूठे.
देश-विदेशों में हिन्दीभाषी
दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएँ...
*
अन्तरिक्ष में संप्रेषण की
भाषा हिंदी सबसे उत्तम.
सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन में
हिंदी है सर्वाधिक सक्षम.
हिंदी भावी जग-वाणी है
निज आत्मा में 'सलिल' बसाएँ...
*****************

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

दोहा सलिला: हिंदी वंदना --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
हिंदी वंदना
संजीव 'सलिल'
*
हिंदी भारत भूमि की आशाओं का द्वार.
कभी पुष्प का हार है, कभी प्रचंड प्रहार..
*
हिन्दीभाषी पालते, भारत माँ से प्रीत.
गले मौसियों से मिलें, गायें माँ के गीत..

हृदय संस्कृत- रुधिर है, हिंदी- उर्दू भाल.
हाथ मराठी-बांग्ला, कन्नड़ आधार रसाल..
*
कश्मीरी है नासिका, तमिल-तेलुगु कान.
असमी-गुजराती भुजा, उडिया भौंह-कमान..
*
सिंधी-पंजाबी नयन, मलयालम है कंठ.
भोजपुरी-अवधी जिव्हा, बृज रसधार अकुंठ..
*
सरस बुंदेली-मालवी, हल्बी-मगधी मीत.
ठुमक बघेली-मैथली, नाच निभातीं प्रीत..
*
मेवाड़ी है वीरता, हाडौती असि-धार,
'सलिल'अंगिका-बज्जिका, प्रेम सहित उच्चार ..
*
बोल डोंगरी-कोंकड़ी, छत्तिसगढ़िया नित्य.
बुला रही हरियाणवी, ले-दे नेह अनित्य..
*
शेखावाटी-निमाड़ी, गोंडी-कैथी सीख.
पाली, प्राकृत, रेख्ता, से भी परिचित दीख..
*
डिंगल अरु अपभ्रंश की, मिली विरासत दिव्य.
भारत का भाषा भावन, सकल सृष्टि में भव्य..
*
हिंदी हर दिल में बसी, है हर दिल की शान.
सबको देती स्नेह यह, सबसे पाती मान..
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

बुधवार, 14 सितंबर 2011

राष्ट्रभाषा: मनन-मंथन-मंतव्य -- संजय भारद्वाज, अध्यक्ष-हिंदी आंदोलन

राष्ट्रभाषा: मनन-मंथन-मंतव्य संजय भारद्वाज,...


राष्ट्रभाषा: मनन-मंथन-मंतव्य
संजय भारद्वाज, अध्यक्ष-हिंदी आंदोलन

            भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भॉंति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएं लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियॉं उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।

                 यहॉं तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी सभ्यता के अनुरूप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हें वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था। किंतु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। फिरंगी देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का "लॉलीपॉप' जरुर दिया गया। धीरे-धीरे "लॉलीपॉप' भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया। अब तो देसी चमड़ी के फिरंगियों की धूर्तता देखकर गोरी चमड़ी का फिरंगी भी दंग रह गया है।

                  प्रश्न है कि जब राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा माना जाता है तो क्या हमारी व्यवस्था को एक डरा-सहमा लोकतंत्र अपेक्षित था जो मूक और अपाहिज हो? विगत इकसठ वर्षों का घटनाक्रम देखें तो उत्तर "हॉं' में मिलेगा। 

                 राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहॉं की जा रही है।

                राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर सामान्य बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहॉं अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस्क़ृति के तत्वों को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं? भीरु व दिशाहीन मानसिकता दुःशासन का कारक बनती है जबकि सुशासन स्पष्ट नीति और पुरुषार्थ के कंधों पर टिका होता है।

                     सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। राजधानी के एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया- Seeta was sweetheart of Rama! ठीक इसके विपरीत श्रीरामचरित मानस में श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मणजी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मणजी का कहना कि मैंने सदैव भाभी मॉं के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?- यह भाव संस्कृति की आत्मा है। कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में "चार भिंतीत नाचली' का भाव तलाशने के लिए सारा यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।

                  शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने प्राथनिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें आज कूड़े-दानों में पड़ी हैं। त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ उठाते हैं।
                   छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात संविधान को इत्थमभूत धर्मग्रंथ-सा मानकर अशोभनीय व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में "हर-हर महादेव' और "पीरबाबा सलामत रहें' जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासन कठोर होता हो तो भावुकता अनिवार्य रूप से देश पर लाद दी जानी चाहिए। 

                  वर्तमान में सीनाजोरी अपने चरम पर है। काली चमड़ी के अंगे्रज पैदा करने के लिए भारत में अंग्रेजी शिक्षा लानेवाले मैकाले के प्रति नतमस्तक होता आलेख पिछले दिनों एक हिंदी अखबार में पढ़ने को मिला। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जनरल डायर और जनरल नील-छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान के स्थान पर देश में शौर्य के प्रतीक के रूप में पूजे जाने लगेंगे।

                         सामान्यतः श्राद्धपक्ष में आयोजित होनेवाले हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वह सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को राष्ट्रभर में मुद्दा बनाएं। 

                   लगभग तीन दशक पूर्व दक्षिण अफ्रीका का एक छोटा सा देश आज़ाद हुआ। मंत्रिमंडल की पहली बैठक में निर्णय लिया गया कि देश आज से "रोडेशिया' की बजाय "जिम्बॉब्वे' कहलायेगा। राजधानी "सेंटलुई' तुरंत प्रभाव से "हरारे' होगी। नई सदी प्रतीक्षा में है कि कब "इंडिया'की केंचुली उतारकर "भारत' बाहर आयेगा। आवश्यकता है महानायकों के जन्म की बाट जोहने की अपेक्षा भीतर के महानायक को जगाने की। अन्यथा भारतेंदु हरिशचंद्र की पंक्तियॉं - "

आवहु मिलकर रोवहुं सब भारत भाई,
हा! हा! भारत दुर्दसा न देखन जाई!' 

क्या सदैव हमारा कटु यथार्थ बनी रहेंगी?

सामयिकी: हिंदी का वैश्विक परिदृश्य -- डा. करुणाशंकर उपाध्याय

सामयिकी

हिंदी का वैश्विक परिदृश्य
डा. करुणाशंकर उपाध्याय
 

इक्कीसवीं सदी बीसवीं शताब्दी से भी ज्यादा तीव्र परिवर्तनों वाली तथा चमत्कारिक उपलब्धियों वाली शताब्दी सिद्ध हो रही है। विज्ञान एवं तकनीक के सहारे पूरी दुनिया एक वैश्विक गाँव में तब्दील हो रही है और स्थलीय व भौगोलिक दूरियां अपनी अर्थवत्ता खो रहीं हैं। वर्तमान विश्व व्यवस्था आर्थिक और व्यापारिक आधार पर ध्रुवीकरण तथा पुनर्संघटन की प्रक्रिया से गुजर रही है। ऐसी स्थिति में विश्व के शक्तिशाली राष्ट्रों के महत्त्व का क्रम भी बदल रहा है।
बदलती दुनिया बदलते भाषिक परिदृष्य

यदि हम विगत तीन शताब्दियों पर विचार करें तो कई रोचक निष्कर्ष पा सकते हैं। यदि अठारहवीं सदी आस्ट्रिया और हंगरी के वर्चस्व की रही है तो उन्नीसवीं सदी ब्रिटेन और जर्मनी के वर्चस्व का साक्ष्य देती है। इसी तरह बीसवीं सदी अमेरिका एवं सोवियत संघ के वर्चस्व के रूप में विश्व नियति का निदर्शन करने वाली रही है। आज स्थिति यह है कि लगभग विश्व समुदाय दबी जुबान से ही सही, यह कहने लगा है कि इक्कीसवीं सदी भारत और चीन की होगी। इस सदी में इन दोनों देशों की तूती बोलेगी। इस भविष्यवाणी को चरितार्थ करने वाले ठोस कारण हैं। आज भारत और चीन विश्व की सबसे तीव्र गति से उभरने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से हैं तथा विश्व स्तर पर इनकी स्वीकार्यता और महत्ता स्वत: बढ रही है। इन देशों के पास अकूत प्राकृतिक संपदा तथा युवतर मानव संसाधन है जिसके कारण ये भावी वैश्विक संरचना में उत्पादन के बडे स्रोत बन सकते हैं। अपनी कार्य निपुणता तथा निवेश एवं उत्पादन के समीकरण की प्रबल संभावना को देखते हुए ही भारत और चीन को निकट भविष्य की विश्व शक्ति के रूप में देखा जाने लगा है।

जाहिर है कि जब किसी राष्ट्र को विश्व बिरादरी अपेक्षाकृत ज्यादा महत्त्व और स्वीकृति देती है तथा उसके प्रति अपनी निर्भरता में इजाफा पाती है तो उस राष्ट्र की तमाम चीजें स्वत: महत्त्वपूर्ण बन जाती हैं। ऐसी स्थिति में भारत की विकासमान अंतरराष्ट्रीय हैसियत हिंदी के लिए वरदान-सदृश है। यह सच है कि वर्तमान वैश्विक परिवेश में भारत की बढती उपस्थिति हिंदी की हैसियत का भी उन्नयन कर रही है। आज हिंदी राष्ट्रभाषा की गंगा से विश्वभाषा का गंगासागर बनने की प्रक्रिया में है।
भाषा के वैश्विक संदर्भ की विशेषताएँ-
आखिर, वे कौन सी विशेषताएँ हैं जो किसी भाषा को वैश्विक संदर्भ प्रदान करती हैं। ऐसा करके हम हिंदी के विश्व संदर्भ का वस्तुपरक विश्लेषण कर सकते हैं। जब हम हिंदी को विश्व भाषा में रूपांतरित होते हुए देख रहे हैं और यथावसर उसे विश्वभाषा की संज्ञा प्रदान कर रहे हैं, तब यह जरूरी हो जाता है कि हम सर्वप्रथम विश्वभाषा का स्वरूप विश्लेषण कर लें। संक्षेप में विश्वभाषा के निम्नलिखित लक्षण निर्मित किए जा सकते हैं:-
  •  उसके बोलने-जानने तथा चाहने वाले भारी तादाद में हों और वे विश्व के अनेक देशों में फैले हों।
  • उस भाषा में साहित्य-सृजन की प्रदीर्घ परंपरा हो और प्राय: सभी विधाएँ वैविध्यपूर्ण एवं समृद्ध हों। उस भाषा में सृजित कम-से-कम एक विधा का साहित्य विश्वस्तरीय हो।
  • उसकी शब्द-संपदा विपुल एवं विराट हो तथा वह विश्व की अन्यान्य बडी भाषाओं से विचार-विनिमय करते हुए एक -दूसरे को प्रेरित -प्रभावित करने में सक्षम हो।
  • उसकी शाब्दी एवं आर्थी संरचना तथा लिपि सरल, सुबोध एवं वैज्ञानिक हो। उसका पठन-पाठन और लेखन सहज-संभाव्य हो। उसमें निरंतर परिष्कार और परिवर्तन की गुंजाइश हो।
  • उसमें ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों में वाङमय सृजित एवं प्रकाशित हो तथा नए विषयों पर सामग्री तैयार करने की क्षमता हो।
  • वह नवीनतम वैज्ञानिक एवं तकनीकी उपलब्धियों के साथ अपने-आपको पुरस्कृत एवं समायोजित करने की क्षमता से युक्त हो।
  • वह अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक संदर्भों, सामाजिक संरचनाओं, सांस्कृतिक चिंताओं तथा आर्थिक विनिमय की संवाहक हो।
  • वह जनसंचार माध्यमों में बडे पैमाने पर देश-विदेश में प्रयुक्त हो रही हो।
  •  उसका साहित्य अनुवाद के माध्यम से विश्व की दूसरी महत्त्वपूर्ण भाषाओं में पहुँच रहा हो।
  •  उसमें मानवीय और यांत्रिक अनुवाद की आधारभूत तथा विकसित सुविधा हो जिससे वह बहुभाषिक कम्प्यूटर की दुनिया में अपने समग्र सूचना स्रोत तथा प्रक्रिया सामग्री (सॉफ्टवेयर) के साथ उपलब्ध हो। साथ ही, वह इतनी समर्थ हो कि वर्तमान प्रौद्योगिकीय उपलब्धियों मसलन ई-मेल, ई-कॉमर्स, ई-बुक, इंटरनेट तथा एस.एम.एस. एवं वेब जगत में प्रभावपूर्ण ढंग से अपनी सक्रिय उपस्थिति का अहसास करा सके ।
  • उसमें उच्चकोटि की पारिभाषिक शब्दावली हो तथा वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की नवीनतम आविष्कृतियों को अभिव्यक्त करते हुए मनुष्य की बदलती जरूरतों एवं आकांक्षाओं को वाणी देने में समर्थ हो।
  • वह विश्व चेतना की संवाहिका हो। वह स्थानीय आग्रहों से मुक्त विश्व दृष्टि सम्पन्न कृतिकारों की भाषा हो, जो विश्वस्तरीय समस्याओं की समझ और उसके निराकरण का मार्ग जानते हों।
वैश्विक संदर्भ में हिंदी की सामर्थ्य
जब हम उपर्युक्त प्रतिमानों पर हिंदी का परीक्षण करते हैं तो पाते हैं कि वह न्यूनाधिक मात्रा में प्राय: सभी निष्कर्षों पर खरी उतरती है। आज वह विश्व के सभी महाद्वीपों तथा महत्त्वपूर्ण राष्ट्रों- जिनकी संख्या लगभग एक सौ चालीस है- में किसी न किसी रूप में प्रयुक्त होती है। वह विश्व के विराट फलक पर नवल चित्र के समान प्रकट हो रही है। आज वह बोलने वालों की संख्या के आधार पर चीनी के बाद विश्व की दूसरी सबसे बडी भाषा बन गई है। इस बात को सर्वप्रथम सन १९९९ में "मशीन ट्रांसलेशन समिट' अर्थात् यांत्रिक अनुवाद नामक संगोष्ठी में टोकियो विश्वविद्यालय के प्रो. होजुमि तनाका ने भाषाई आँकडे पेश करके सिद्ध किया है। उनके द्वारा प्रस्तुत आँकडों के अनुसार विश्वभर में चीनी भाषा बोलने वालों का स्थान प्रथम और हिंदी का द्वितीय है। अंग्रेजी तो तीसरे क्रमांक पर पहुँच गई है। इसी क्रम में कुछ ऐसे विद्वान अनुसंधित्सु भी सक्रिय हैं जो हिंदी को चीनी के ऊपर अर्थात् प्रथम क्रमांक पर दिखाने के लिए प्रयत्नशील हैं। डॉ. जयन्ती प्रसाद नौटियाल ने भाषा शोध अध्ययन २००५ के हवाले से लिखा है कि, विश्व में हिंदी जानने वालों की संख्या एक अरब दो करोड पच्चीस लाख दस हजार तीन सौ बावन (१, ०२, २५, १०,३५२) है जबकि चीनी बोलने वालों की संख्या केवल नब्बे करोड चार लाख छह हजार छह सौ चौदह (९०, ०४,०६,६१४) है। यदि यह मान भी लिया जाय कि आँकडे झूठ बोलते हैं और उन पर आँख मूँदकर विश्वास नहीं किया जा सकता तो भी इतनी सच्चाई निर्विवाद है कि हिंदी बोलने वालों की संख्या के आधार पर विश्व की दो सबसे बडी भाषाओं में से है। लेकिन वैज्ञानिकता का तकाजा यह भी है कि हम इस तथ्य को भी स्वीकार करें कि अंग्रेजी के प्रयोक्ता विश्व के सबसे ज्यादा देशों में फैले हुए हैं। वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशासनिक, व्यावसायिक तथा वैचारिक गतिविधियों को चलाने वाली सबसे प्रभावशाली भाषा बनी हुई है। चूंकि हिंदी का संवेदनात्मक साहित्य उच्चकोटि का होते हुए भी ज्ञान का साहित्य अंग्रेजी के स्तर का नहीं है अत: निकट भविष्य में विश्व व्यवस्था परिचालन की दृष्टि से अंग्रेजी की उपादेयता एवं महत्त्व को कोई खतरा नहीं है। इस मोर्चे पर हिंदी का बडे ही सबल तरीके से उन्नयन करना होगा। उसके पक्ष में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आज अंग्रेजी के बाद वह विश्व के सबसे ज्यादा देशों में व्यवहृत होती है।
आने वाली पीढ़ी की भाषा-
वर्तमान उत्तर आधुनिक परिवेश में विशाल जनसंख्या भारत और चीन के साथ-साथ हिंदी और चीनी के लिए भी फायदेमंद सिद्ध हो रही है। हमारे देश में १९८० के बाद ६५ करोड से ज्यादा बच्चे पैदा हुए हैं। जो विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों तथा अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षित प्रशिक्षित हो रहे हैं। वे सन् २०२५ तक विधिवत प्रशिक्षित पेशेवर के रूप में अपनी सेवाएँ देने के लिए विश्व के समक्ष उपलब्ध होंगे। दूसरी ओर जापान की साठ प्रतिशत से ज्यादा आबादी साठ साल पार करके बुढापे की ओर बढ रही है। यही हाल आगामी पंद्रह सालों में अमेरिका और यूरोप का भी होने वाला है । ऐसी स्थिति में विश्व का सबसे तरुण मानव संसाधन होने के कारण भारतीय पेशेवरों की तमाम देशों में लगातार मांग बढेगी। जाहिर है कि जब भारतीय पेशेवर भारी तादाद में दूसरे देशों में जाकर उत्पादन के स्रोत बनेंगे। वहाँ की व्यवस्था परिचालन का सशक्त पहिया बनेंगे तब उनके साथ हिंदी भी जाएगी। ऐसी स्थिति में जहाँ भारत आर्थिक महाशक्ति बनने की प्रक्रिया में होगा वहाँ हिंदी स्वत: विश्वमंच पर प्रभावी भूमिका का वहन करेगी। इस तरह यह माना जा सकता है कि हिंदी आज जिस दायित्व बोध को लेकर संकल्पित है वह निकट भविष्य में उसे और भी बडी भूमिका का निर्वाह करने का अवसर प्रदान करेगा। हिंदी जिस गति तथा आंतरिक ऊर्जा के साथ अग्रसर है उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि सन २०२० तक वह दुनिया की सबसे ज्यादा बोली व समझी जाने वाली भाषा बन जाएगी।
समर्थ भाषा और वैज्ञानिक लिपि-

यदि हम इन आँकडों पर विश्वास करें तो संख्याबल के आधार पर हिंदी विश्वभाषा है। हाँ, यह जरूर संभव है कि यह मातृभाषा न होकर दूसरी, तीसरी अथवा चौथी भाषा भी हो सकती है। हिंदी में साहित्य-सृजन की परंपरा भी बारह सौ साल पुरानी है। वह ८वीं शताब्दी से लेकर वर्तमान २१वीं शताब्दी तक गंगा की अनाहत-अविरल धारा की भाँति प्रवाहमान है। उसका काव्य साहित्य तो संस्कृत के बाद विश्व के श्रेष्ठतम साहित्य की क्षमता रखता है। उसमें लिखित उपन्यास एवं समालोचना भी विश्वस्तरीय है। उसकी शब्द संपदा विपुल है। उसके पास पच्चीस लाख से ज्यादा शब्दों की सेना है। उसके पास विश्व की सबसे बडी कृषि विषयक शब्दावली है। उसने अन्यान्य भाषाओं के बहुप्रयुक्त शब्दों को उदारतापूर्वक ग्रहण किया है और जो शब्द अप्रचलित अथवा बदलते जीवन संदर्भों से दूर हो गए हैं उनका त्याग भी कर दिया है। आज हिंदी में विश्व का महत्त्वपूर्ण साहित्य अनुसृजनात्मक लेखन के रूप में उपलब्ध है और उसके साहित्य का उत्तमांश भी विश्व की दूसरी भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से जा रहा है।
जहाँ तक देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता का सवाल है तो वह सर्वमान्य है। देवनागरी में लिखी जाने वाली भाषाएँ उच्चारण पर आधारित हैं। हिंदी की शाब्दी और आर्थी संरचना प्रयुक्तियों के आधार पर सरल व जटिल दोनों है। हिंदी भाषा का अन्यतम वैशिष्ट्य यह है कि उसमें संस्कृत के उपसर्ग तथा प्रत्ययों के आधार पर शब्द बनाने की अभूतपूर्व क्षमता है। हिंदी और देवनागरी दोनों ही पिछले कुछ दशकों में परिमार्जन व मानकीकरण की प्रक्रिया से गुजरी हैं जिससे उनकी संरचनात्मक जटिलता कम हुई है। हम जानते हैं कि विश्व मानव की बदलती चिंतनात्मकता तथा नवीन जीवन स्थितियों को व्यंजित करने की भरपूर क्षमता हिंदी भाषा में है बशर्ते इस दिशा में अपेक्षित बौद्धिक तैयारी तथा सुनियोजित विशेषज्ञता हासिल की जाए। आखिर, उपग्रह चैनल हिंदी में प्रसारित कार्यक्रमों के जरिए यही कर रहे हैं।
मीडिया और वेब पर हिंदी-
यह सत्य है कि हिंदी में अंग्रेजी के स्तर की विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर आधारित पुस्तकें नहीं हैं। उसमें ज्ञान विज्ञान से संबंधित विषयों पर उच्चस्तरीय सामग्री की दरकार है। विगत कुछ वर्षों से इस दिशा में उचित प्रयास हो रहे हैं। अभी हाल ही में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा द्वारा हिंदी माध्यम में एम.बी.ए.का पाठ¬क्रम आरंभ किया गया। इसी तरह "इकोनामिक टाइम्स' तथा "बिजनेस स्टैंडर्ड' जैसे अखबार हिंदी में प्रकाशित होकर उसमें निहित संभावनाओं का उद्घोष कर रहे हैं। पिछले कई वर्षों में यह भी देखने में आया कि "स्टार न्यूज' जैसे चैनल जो अंग्रेजी में आरंभ हुए थे वे विशुद्ध बाजारीय दबाव के चलते पूर्णत: हिंदी चैनल में रूपांतरित हो गए। साथ ही, "ई.एस.पी.एन' तथा "स्टार स्पोर्ट्स' जैसे खेल चैनल भी हिंदी में कमेंट्री देने लगे हैं। हिंदी को वैश्विक संदर्भ देने में उपग्रह-चैनलों, विज्ञापन एजेंसियों, बहुराष्ट्रीय निगमों तथा यांत्रिक सुविधाओं का विशेष योगदान है। वह जनसंचार-माध्यमों की सबसे प्रिय एवं अनुकूल भाषा बनकर निखरी है।
आज विश्व में सबसे ज्यादा पढे जानेवाले समाचार पत्रों में आधे से अधिक हिन्दी के हैं। इसका आशय यही है कि पढा-लिखा वर्ग भी हिन्दी के महत्त्व को समझ रहा है। वस्तुस्थिति यह है कि आज भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया, मॉरीशस,चीन,जापान,कोरिया, मध्य एशिया, खाडी देशों, अफ्रीका, यूरोप, कनाडा तथा अमेरिका तक हिंदी कार्यक्रम उपग्रह चैनलों के जरिए प्रसारित हो रहे हैं और भारी तादाद में उन्हें दर्शक भी मिल रहे हैं। आज मॉरीशस में हिंदी सात चैनलों के माध्यम से धूम मचाए हुए है। विगत कुछ वर्षों में एफ.एम. रेडियो के विकास से हिंदी कार्यक्रमों का नया श्रोता वर्ग पैदा हो गया है। हिंदी अब नई प्रौद्योगिकी के रथ पर आरूढ होकर विश्वव्यापी बन रही है। उसे ई-मेल, ई-कॉमर्स, ई-बुक, इंटरनेट, एस.एम.एस. एवं वेब जगत में बडी सहजता से पाया जा सकता है। इंटरनेट जैसे वैश्विक माध्यम के कारण हिंदी के अखबार एवं पत्रिकाएँ दूसरे देशों में भी विविध साइट्स पर उपलब्ध हैं।
माइक्रोसाफ्ट, गूगल, सन, याहू, आईबीएम तथा ओरेकल जैसी विश्वस्तरीय कंपनियाँ अत्यंत व्यापक बाजार और भारी मुनाफे को देखते हुए हिंदी प्रयोग को बढावा दे रही हैं। संक्षेप में, यह स्थापित सत्य है कि अंग्रेजी के दबाव के बावजूद हिंदी बहुत ही तीव्र गति से विश्वमन के सुख-दु:ख, आशा-आकांक्षा की संवाहक बनने की दिशा में अग्रसर है। आज विश्व के दर्जनों देशों में हिंदी की पत्रिकाएँ निकल रही हैं तथा अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, जापान, आस्ट्रिया जैसे विकसित देशों में हिंदी के कृति रचनाकार अपनी सृजनात्मकता द्वारा उदारतापूर्वक विश्व मन का संस्पर्श कर रहे हैं। हिंदी के शब्दकोश तथा विश्वकोश निर्मित करने में भी विदेशी विद्वान सहायता कर रहे हैं।

राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में हिंदी
जहाँ तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक विनिमय के क्षेत्र में हिंदी के अनुप्रयोग का सवाल है तो यह देखने में आया है कि हमारे देश के नेताओं ने समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में भाषण देकर उसकी उपयोगिता का उद्घोष किया है। यदि अटल बिहारी वाजपेयी तथा पी.वी.नरसिंहराव द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में दिया गया वक्तव्य स्मरणीय है तो श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा राष्ट्र मंडल देशों की बैठक तथा चन्द्रशेखर द्वारा दक्षेस शिखर सम्मेलन के अवसर पर हिंदी में दिए गए भाषण भी उल्लेखनीय हैं। यह भी सर्वविदित है कि यूनेस्को के बहुत सारे कार्य हिंदी में सम्पन्न होते हैं। इसके अलावा अब तक विश्व हिंदी सम्मेलन मॉरीशस, त्रिनिदाद, लंदन, सुरीनाम तथा न्यूयार्क जैसे स्थलों पर सम्पन्न हो चुके हैं जिनके माध्यम से विश्व स्तर पर हिंदी का स्वर सम्भार महसूस किया गया। अभी आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव बान की मून ने दो-चार वाक्य हिंदी में बोलकर उपस्थित विश्व हिंदी समुदाय की खूब वाह-वाही लूटी। हिंदी को वैश्विक संदर्भ और व्याप्ति प्रदान करने में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्वारा विदेशों में स्थापित भारतीय विद्यापीठों की केन्द्रीय भूमिका रही है जो विश्व के अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रों में फैली हुई है। इन विश्वविद्यालयों में शोध स्तर पर हिन्दी अध्ययन अध्यापन की सुविधा है जिसका सर्वाधिक लाभ विदेशी अध्येताओं को मिल रहा है।

विदेशो में हिंदी
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हिंदी विश्व के प्राय: सभी महत्त्वपूर्ण देशों के विश्व विद्यालयों में अध्ययन अध्यापन में भागीदार है। अकेले अमेरिका में ही लगभग एक सौ पचास से ज्यादा शैक्षणिक संस्थानों में हिंदी का पठन-पाठन हो रहा है। आज जब २१वीं सदी में वैश्वीकरण के दबावों के चलते विश्व की तमाम संस्कृतियाँ एवं भाषाएँ आदान -प्रदान व संवाद की प्रक्रिया से गुजर रही हैं तो हिंदी इस दिशा में विश्व मनुष्यता को निकट लाने के लिए सेतु का कार्य कर सकती है। उसके पास पहले से ही बहु सांस्कृतिक परिवेश में सक्रिय रहने का अनुभव है जिससे वह अपेक्षाकृत ज्यादा रचनात्मक भूमिका निभाने की स्थिति में है। हिंदी सिनेमा अपने संवादों एवं गीतों के कारण विश्व स्तर पर लोकप्रिय हुए हैं। उसने सदा-सर्वदा से विश्वमन को जोडा है। हिंदी की मूल प्रकृति लोकतांत्रिक तथा रागात्मक संबंध निर्मित करने की रही है। वह विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र की ही राष्ट्र भाषा नहीं है बल्कि पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, फिजी, मॉरीशस, गुयाना, त्रिनिदाद तथा सुरीनाम जैसे देशों की सम्पर्क भाषा भी है। वह भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के बीच खाडी देशों, मध्य एशियाई देशों, रूस, समूचे यूरोप, कनाडा, अमेरिका तथा मैक्सिको जैसे प्रभावशाली देशों में रागात्मक जुडाव तथा विचार-विनिमय का सबल माध्यम है।
यदि निकट भविष्य में बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था निर्मित होती है और संयुक्त राष्ट्र संघ का लोकतांत्रिक ढंग से विस्तार करते हुए भारत को स्थायी प्रतिनिधित्व मिलता है तो वह यथाशीघ्र इस शीर्ष विश्व संस्था की भाषा बन जाएगी। यदि ऐसा नहीं भी होता है तो भी वह बहुत शीघ्र वहाँ पहुँचेगी। वर्तमान समय भारत और हिंदी के तीव्र एवं सर्वोन्मुखी विकास का द्योतन कर रहा है और हम सब से यह अपेक्षा कर रहे हैं कि हम जहाँ भी हैं, जिस क्षेत्र में भी कार्यरत हैं वहाँ ईमानदारी से हिंदी और देश के विकास में हाथ बँटाएँ। सारांश यह कि हिंदी विश्व भाषा बनने की दिशा में उत्तरोत्तर अग्रसर है।

गुण और परिमाण में समृद्ध भाषा
आज स्थिति यह है कि गुण और परिमाण दोनों ही दृष्टियों से हिंदी का काव्य साहित्य अपने वैविध्य एवं बहुस्तरीयता में संपूर्ण विश्व में संस्कृत काव्य को छोड कर सर्वोपरि है। "पद्मावत', "रामचरित मानस' तथा "कामायनी' जैसे महाकाव्य विश्व की किसी भी भाषा में नहीं है। वर्तमान समय में हिंदी का कथा साहित्य भी फ्रेंच, रूसी तथा अंग्रेजी के लगभग समकक्ष है। हाँ, इतना जरूर है कि जयशंकर प्रसाद को छोड कर हिंदी के पास विश्वस्तरीय नाटककार नहीं हैं। इसकी क्षतिपूर्ति हिंदी सिनेमा द्वारा भलीभाँति होती है। वह देश की सभ्यता, संस्कृति तथा बदलते संदर्भों एवं अभिरुचियों की अभिव्यक्ति का बडा ही सफल माध्यम रहा है। आज हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में जितने रचनाकार सृजन कर रहे हैं उतने बहुत सारी भाषाओं के बोलने वाले भी नहीं हैं। केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में ही दो सौ से अधिक हिंदी साहित्यकार सक्रिय हैं जिनकी पुस्तकें छप चुकी हैं। यदि अमेरिका से "विश्वा', हिंदी जगत तथा श्रेष्ठतम वैज्ञानिक पत्रिका "विज्ञान प्रकाश' हिंदी की दीपशिखा को जलाए हुए हैं तो मॉरीशस से विश्व हिंदी समाचार, सौरभ, वसंत जैसी पत्रिकाएँ हिंदी के सार्वभौम विस्तार को प्रामाणिकता प्रदान कर रही हैं। संयुक्त अरब इमारात से वेब पर प्रकाशित होने वाले हिंदी पत्रिकाएँ अभिव्यक्ति और अनुभूति पिछले ग्यारह से भी अधिक वर्षों से लोकमानस को तृप्त कर रही हैं और दिन पर दिन इनके पाठकों की संख्या बढ़ती ही जा रही है।
आज जरूरत इस बात की है कि हम विधि, विज्ञान, वाणिज्य तथा नवीनतम प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पाठ¬सामग्री उपलब्ध कराने में तेजी लाएँ। इसके लिए समवेत प्रयास की जरूरत है। यह तभी संभव है जब लोग अपने दायित्वबोध को गहराइयों तक महसूस करें और सुदृढ़ इच्छाशक्ति के साथ संकल्पित हों। आज समय की माँग है कि हम सब मिलकर हिंदी के विकास की यात्रा में शामिल हों ताकि तमाम निकषों एवं प्रतिमानों पर कसे जाने के लिये हिंदी को सही मायने में विश्व भाषा की गरिमा प्रदान कर सकें।

साभार : अभिव्यक्ति.