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रविवार, 22 सितंबर 2013

kavita: rivaz -kirti vardhan






सामयिक कविता:
रिवाज़ ---
कीर्ति वर्धन               
रहते थे एक घर में ,परिवार एक साथ,
अकेले रहने का अब चल गया रिवाज़ |

टूटने लगे हैं घर जब से गली गाँव में,
बच्चों के मन से बुजुर्गों का मिट गया लिहाज |

दीवार खिंची आँगन में,मन भी बँट गए,
जब से अलग चूल्हे का चल गया रिवाज |

दीवारें क्या खिंची माँ-बाप बँट गए,
बताने लगे हैं बच्चे अब खर्च का हिसाब |

मुश्किल है आजकल बच्चों को डांटना,
देने लगे हैं बच्चे हर बात का जवाब |

दिखते नहीं हैं बूढों के भी बाल अब सफ़ेद,
लगाने लगे हैं जब से वो बालों में खिजाब |

दौलत की हबस ने "कीर्ति" कैसा खेल खेला,
बदल गया है आजकल हर शख्स का मिजाज |

डॉ अ कीर्तिवर्धन
8265821800