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सोमवार, 19 मई 2025

मई १९, जबलपुर, नाक, भजन जिकड़ी, मुहावरेदार दोहे, आँख, मुक्तिका,

 सलिल सृजन मई १९

*
चमकते पत्थरों का शहर - जबलपुर
प्रकृति की गोद में पर्यटन करना माँ की आँचल में किलकारी भरते हुए करवट बदलने की तरह है। पर्यटन आत्मिक शांति देने के साथ साथ सांस्कृतिक-सामाजिक संबंधों को सुदृढ़ करता है। अशांत मन कोशांत करने के लिए पर्यटन करना चाहिए। पर्यटन से पर्यटक का ज्ञान वर्धन होता है। पर्यटन स्थल की लोक संस्कृति और लोक जीवन के बारे में बहुत सारी गूढ़ जानकारी प्राप्त होती है। भारतवर्ष भिन्न-भिन्न विविधताओं, संस्कृतियों, संस्कारों, धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थलों से भरा हुआ देश है। हमारे देश के प्रत्येक राज्य में धार्मिक, प्राकृतिक, ऐतिहासिक महत्व के पर्यटक स्थल मिल जाएंगे जो भारत की विशालता और वैभवशाली प्राचीन विरासत को दर्शाते है। आइये, आज जबलपुर की सैर करते हैं। जबलपुर मध्यप्रदेश का प्रमुख महानगर है। यह समुद्र तट से ४१२ मी. की ऊँचाई पर स्थित है। इसका क्षेत्रफल ५२११ वर्ग किलोमीटर तथा जनसंख्या लगभग २५ लाख है। जबलपुर के निकट नर्मदा क्षेत्र साधना भूमि के रूप में प्रसिद्ध रहा है। महर्षि अगस्त्य, जाबालि, भृगु, दत्तात्रेय आदि ने यहाँ तपस्या की है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार त्रेता में राम सीता लक्षमण तथा द्वापर में कृष्ण व पांडवों का यहाँ आगमन हुआ था। यह गोंड़ तथा कलचुरी राजाओं के समय समृद्ध क्षेत्र रहा है। भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रथम प्रयास इसी अञ्चल में बुंदेला क्रांति १८४२ के रूप में सामने आया जिसने अग्रेजों का हृदय कँपा दिया था। सन १७८१ के बाद ही मराठों के मुख्यालय के रूप में चुने जाने पर इस नगर की सत्ता बढ़ी, बाद में यह सागर और नर्मदा क्षेत्रों के ब्रिटिश कमीशन का मुख्यालय बन गया। यहाँ १८६४ में नगरपालिका का गठन हुआ था।
पुरातन वैभव
जबलपुर के समीप राष्ट्रीय जीवाश्म उद्यान, घुघवा (डिंडोरी) में ७५ एकड़ में पत्तियों और पेड़ों के आकर्षक और दुर्लभ जीवाश्म हैं जो ४ करोड़ से १५ करोड़ साल पहले मौजूद थे।नर्मदाघाटी के भू स्तरों की खोजों से पता चलता है कि नर्मदाघाटी की सभ्यता सिन्धु घाटी की सभ्यता से बहुत पुरानी है। लम्हेटा घाट के चट्टानों को कार्बन डेटिंग परीक्षण में लगभग ६ करोड़ वर्ष पुराना अनुमानित किया गया है। आयुध निर्माणी खमारिया के समीप पाटबाबा की पहाड़ियों से लगभग २ करोड़ वर्ष पूर्व विचरनेवाले भीमकाय डायनासौर राजासौरस नर्मदेडेंसिस के जीवाश्म तथा अंडे शिकागो विश्वविद्यालय के पेलियनोलिस्ट्स पॉल सेरेनो, मिशिगन विश्वविद्यालय के जेफ विल्सन और सुरेश श्रीवास्तव ने खोजे। नर्मदाघाटी में प्राप्त भैंसा, घोड़े, रिनोसिरस, हिप्पोपोटेमस, हाथी और मगर की हड्डियों तथा प्रस्तर-उद्योग संपन्न यह भूभाग आदि मानव का निवास था। १८७२ ई. में मिली स्फटिक चट्टान से निर्मित एक तराशी पूर्व-चिलयन युग की प्रस्तर कुल्हाड़ी भारत में प्राप्त प्रागैतिहासिक चिन्हों में सबसे प्राचीन है। भेड़ाघाट में पुरापाषाण युग के अनेक वृहत् जीवाश्म और प्रस्तरास्त्र मिले हैं। जबलपुर से लगभग २० कि.मी. दूर भेड़ाघाट विश्व का एकमात्र स्थान है जहाँ बहुरंगी संगमरमरी पहाड़ के बीच से नर्मदा की धवल सलिल धार प्रवाहित होती है। पंचवटी घाट से बंदरकूदनी तक नौकायन करते समय आकर्षित करते रंग-बिरंगे पत्थर मानो हमसे कहते हैं, आओ मुझे छूकर तो देखो… नर्मदा अञ्चल के ग्रामों में बंबुलिया और लमटेरा लोकगीतों की मधुर ध्वनि आज भी गूँजती है -
* नरबदा तो ऐसी मिलीं रे
जैसैं मिल गए मताई उन बाप रे
इस बंबुलिया लोकगीत में नवविवाहिता अपने मायके को याद करते हुए नर्मदा को माता और पिता, दोनों के रूप में देख रही है। प्रकृति का मानव के साथ घनिष्ठ संबंध म,आँव सभ्यता की धरोहर है।
* नरबदा मैया उल्टी तो बहै रे,
उल्टी बहै रे तिरबैनी बहै सूधी धार रे।
भारत उपमहाद्वीप की शेष नदियों के सर्वथा विपरीत दिशा में नर्मदा तथा ताप्ती नदियाँ बहती हैं। यह भौगोलिक तथ्य एक लोक कथा के प्रचलित है है। तदनुसार व्यासजी से मुनियों ने प्रार्थना की, जिससे व्यासजी ने नर्मदा का स्मरण किया और नर्मदा ने अपने बहाव की दिशा बदल दी।
* नरबदा अरे माता तो लगै रे,
माता लगै रे तिरबैनी लगै मौरी बैन रे, नरबदा हो....।
कालक्रम की दृष्टि से नर्मदा बहुत ज्येष्ठ और गंगा कनिष्ठ हैं। उक्त पंक्तियों में में नर्मदा को माता कहा गया है और त्रिवेणी को बहिन कहकर इस तथ्य को इंगित किया गया है। दश के विविध अंचलों को एक सूत्र में बाँधने की यही लोक रीति सफलराष्ट्रीय एकता का मूल है।
नर्मदा विश्व की एकमात्र नदी है जिसके उद्गम स्थल अमरकंटक पर्वत से सागर में विलय स्थल भरूच गुजरात तक सैंकड़ों परकम्मावासी (पदयात्री) पैदल परिक्रमा करते हैं। वे टोलियों में नदी के एक किनारे से चलकर भरुच में सागर में दूसरे किनारे पर आकर वापिस लौटते हैं। जबलपुर में नर्मदा के कई घाट हैं। हर घाट की अपनी कहानी और मनोरम छटा मन मोह लेती है। सिद्ध घाट, गौरीघाट, दरोगाघाट, खारीघाट, लम्हेटा घाट, तिलवाराघाट भेड़ाघाट, सरस्वती घाट आदि का सौन्दर्य अद्भुत है। चौंसठ योगिनी मंदिर के केंद्र में गौरीशंकर की प्राचीन किन्तु भव्य प्रतिमा है जिसके चारों ओर वृत्ताकार में चौंसठ योगिनियों की मूर्तियाँ हैं। समीप ही धुआँधार जल प्रपात की नैसर्गिक दिव्य छवि छटा अलौकिक है। सरस्वती घाट से बंदरकूदनी तक नौकायन करते समय दोनों ओर बहुरंगी संगमरमरी पहाड़ की छटा मनमोहक है। यह विश्व का एकमात्र स्थल है जहाँ सौन्दर्यमयी नर्मदा संगमरमारी पहाड़ के बीच से बहती है। जिस देश में गंगा बहती है, प्राण जाए पाए वचन न जाए, अशोका, मोहनजोदाड़ो आदि अनेक फिल्मों में यहाँ के भव्य दृश्यों का फिल्कमांन किया जा चुका है।
गिरि दुर्ग मदन महल
जबलपुर एक पहाड़ी पर गिरि दुर्ग मदन महल स्थित है जिसे ११०० ई. में राजा मदन सिंह द्वारा बनवाया गया एक पुराना गोंड महल है। इसके ठीक पश्चिम में गढ़ा है, जो १४ वीं शताब्दी के चार स्वतंत्र गोंड राज्यों का प्रमुख नगर-किला था। मदन महल के समीप ही कौआ डोल चट्टान (संतुलित शिला) है। यहाँ एक शिला ऊपर दूसरी विशाल शिला इस तरह रखी है कि मिलन स्थल सुई की नोक की तरह है। देखने से प्रतीत होता है कि कौए के बैठते ही ऊपरवाली चट्टान लुढ़क जाएगी पर भूकंप आने पर भी यह सुरक्षित रही।
भारत का वेनिस
संग्राम सागर, बाजना मठ, अधारताल, रानी ताल, चेरी ताल आदि जबलपुर को गोंड काल की देन है। जबलपुर ५२ तालाबों से संपन्न ऐसा शहर था जिसे भारत का वेनिस कहा जा सकता था। इनका निर्माण भू वैज्ञानिक दृष्टि से इस प्रकार किया गया था कि वर्षा जल सबसे पहले ऊपरी तालाब को भरे, फिर दूसरे, तीसरे चौथे और पाँचवे तालाब को भरने के बाद नर्मदा नदी में बहे। वर्तमान में अधिकांश तालाब पूरकर बस्ती बसा ली गई है तथापि कई तालाब अब भी अवशेष रूप में हैं। रामलला मंदिर, बड़े गणेश मंदिर ग्वारीघाट, गुप्तेश्वर, चित्रगुप्त मंदिर फूटाताल, राम जानकी मंदिर लाल माटी, पुष्टिमार्ग प्रवर्तक गोस्वामी विट्ठल दास जी की बैठकी देव ताल, ओशो आश्रम, ओशो संबोधि वृक्ष भँवरताल, राजा रघुनाथ शाह बलिदान स्थल, त्रिपुर सुंदरी मंदिर, ब्योहार निवास साठिया कुआं, गोपाल लाल मंडी हनुमानताल, बड़ी खरमाई मंदिर, बूडी खरमाई मंदिर आदि महत्वपूर्ण स्थल हैं।
साहित्यिक अवदान
जबलपुर अञ्चल में आधुनिक हिन्दी अपने शुद्ध साहित्यिक रूप में आम लोगों में बोली लिखी पढ़ी जाते है। हिंदी का पहला व्याकरण जबलपुर में ही कामता प्रसाद गुरु जी द्वारा लिखा गया। पिंगल शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रंथ छंद प्रभाकर रचनेवाले जगन्नाथ प्रसाद भानु भी जबलपुर से जुड़े हुए थे। जबलपुर की समृद्ध सारस्वत साधना के कालजयी हस्ताक्षरों में जगद्गुरु ब्रह्मानन्द सरस्वती जी, स्वरूपानन्द सरस्वती जी, क्रांतिकारी माखन लाल चतुर्वेदी, क्रांतिकारी ज्ञानचंद वर्मा, महीयसी महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेव प्रसाद 'सामी', केशव प्रसाद पाठक, रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर', ब्योहार राजेन्द्र सिंह, भवानी प्रसाद तिवारी, सेठ गोविन्द दास, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश (ओशो), द्वारका प्रसाद मिश्र, जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण', हरिशंकर परसाई, प्रेमचंद श्रीवास्तव 'मज़हर', इंद्र बहादुर खरे, रामकृष्ण श्रीवास्तव, अमृत लाल वेगड़ आदि अविस्मरणीय हैं।
वर्तमान काल में हिंदी भाषा विज्ञान के विद्वान डॉक्टर सुरेश कुमार वर्मा, ५०० से अधिक नए छंदों की रचना करनेवाले तथा शिशु मंदिर विद्यालयों में गाई जाती दैनिक प्रार्थना 'हे हंसवाहिनी, ज्ञान-दायिनी,अंब- विमल मति दे' के रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा "सलिल", राम वनवास यात्रा के अन्वेषक डॉ. गिरीश कुमार अग्निहोत्री, पाली विशेषज्ञ आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी, वैदिक वांगमय विशेषज्ञ डॉ. इला घोष, ख्यात वनस्पति शास्त्री डॉ. अनामिका तिवारी, समाजसेवी साधन उपाध्याय, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त रसायनविद डॉ. अनिल बाजपेयी आदि सारस्वत साधन की अलख आज भी जलाए हुए हैं। जबलपुर के ख्यात चित्रकारों में ब्योहार राममनोहर सिन्हा, अमृत लाल वेगड़, हरी भटनागर, हरी श्रीवास्तव, सुरेश श्रीवास्तव, राजेन्द्र कामले, अस्मिता शैली आदि उल्लेखनीय हैं।
तिलवारा एक्वाडक्ट
जबलपुर में एशिया का सबसे अधिक लंबा एक्वाडक्ट तिलवारा घाट नें है। एक्वाडक्ट एक जटिल संरचना अभियांत्रिकी संरचना होती है जिसमें नदी के ऊपर से नहर बहती है। तिलवार एक्वाडक्ट की खासियत यह है कि नर्मदा नदी के ऊपर से नर्मदा की ही नहर बहती है और उसके ऊपर से जबलपुर नागपूर राष्ट्रीय राजमार्ग का भारी सड़क यातायात भी जारी रहता है।
भारत रत्न विश्वेश्वरैया की ९ मूर्तियाँ
जबलपुर ने एक कीर्तिमान इंजीनियर्स फोरम के माध्यम से स्थापित किया है। किसी देश के निर्माण और विकास में अभियंताओं का योगदान सर्वाधिक होता है किन्तु सामन्यात: उसे पहचान नहीं जाता। आधुनिक भारतीय अभियांत्रिकी के मुकुटमणि डॉ. भारत रत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया हैं जिनके जन्म दिवस को 'अभियंता दिवस' के रूप में मनाया जाता है। जबलपुर के अभियंताओं ने विश्वेश्वरैया जी को शरुद्धाञ्जली देने के लिए उनकी ९ मूर्तियाँ नगर में स्थापित की हैं। अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' की पहल और प्रयासों से शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय, मुख्य अभियंता लोक निर्माण विभाग कार्यालय, शासकीय कला निकेतन पॉलिटेकनिक, नर्मदा सर्किल कार्यालय, हितकारिणी अभियांत्रिकी महाविद्यालय, इन्स्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स कार्यालय, अतिथि गृह बरगी हिल्स, अधीक्षण अभियंता लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी कार्यालय तथा विद्युत मण्डल रामपुर में स्थापित एम. व्ही. की प्रतिमाएँ अभियंताओं की प्रेरणा स्रोत हैं। विश्व में अन्यत्र किसी भी नगर में एक अभियंता की इतनी मूर्तियाँ नहीं हैं।
शिक्षा केंद्र
जबलपुर में ५ शासकीय विश्वविद्यालय हैं। यह महाकौशल बुंदेलखंड का सबसे बड़ा शिक्षा केंद्र है। यहाँ हर विधा और शाखा की उच्च शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, सुभाषचंद्र बोस मेडिकल यूनिवर्सिटी, पशु चिकित्सा विश्वविद्यालय तथा विधि विश्वविद्यालय जबलपुर की शान हैं। जबलपुर में आई.आई.आई.टी. तथा आई.आई.एम. दोनों राष्ट्रीय संस्थान हैं। अभियांत्रिकी शिक्षा के २० संस्थान, मेडिकल शिक्षा के २८ संस्थानों सहित जबलपुर में २३० विविध शिक्षा संस्थान हैं।
भारत का रखवाला
जबलपुर अपनी भौगोलिक स्थितियों के कारण चिरकाल से सुरक्षा का केंद्र रहा है। यहाँ आयुध निरामनीनिर्माणी खमरिया, सेंट्रल ऑर्डिनेंस डिपो, भारी वाहन कारखाना, धूसर लोहा फ़ाउन्ड्री आदि कारखानों में देख की रक्ष में महती भूमिका निभानेवाले अस्त्र-शस्त्र, वाहन आदि का निर्माण होता है। जबलपुर रक्षा क्लस्टर बनना प्रस्तावित है। बांग्ला देश के स्वतंत्रता के पश्चात आत्मसर्पण करनेवाली पकिस्तानी सेना के कमांडर नियाजी तथा सनिक जबलपुर में ही बंदी रखे गए थे।
जाकी रही भावना जैसी
जबलपुर भारत का हृदय स्थल है। यह मध्यप्रदेश राज्य का सर्वाधिक प्राचीन पवित्र शहर है। सनातन सलिला नर्मदा की गोद में बसा जबलपुर श्यामल बैसाल्ट शिलाओं से संपन्न है, इसे 'पत्थरों का शहर' कहा जाता है। संत विनोबा भावे ने जबलपुर के साँस्कृतिक वैभव से प्रभावित होकर इसे 'संस्कारधानी' का विशेषण दिया तो नेहरू जी ने अपनी सभा में शोर कर रहे युवाओं पर नाराज होकर 'गुंडों का शहर' कहकर अपनी नाराजगी व्यक्त की। जबलपुर अनेकता में एकता परक समन्वय और सहिष्णुता की नगरी है। यहाँ के खान-पान में भी मिश्रित संस्कृति झलकती है। इडली-डोसा', 'वड़ा-सांभर' से लेकर 'दाल-बाफला' ठेठ मालवा फूड, खोवे (मावे) की जलेबी खाने के बाद तो बस आपको आनंद ही आने वाला है। जबलपुर के चप्पे चप्पे में इतिहास है। निस्संदेह आपने जबलपुर नहीं देखा तो आपका भारत भ्रमण पूर्ण नहीं हो सकता।
***
दोहा सलिला:
दोहा का रंग नाक के संग
*
मीन कमल मृग से नयन, शुक जैसी हो नाक
चंदन तन में आत्म हो, निष्कलंक निष्पाप
*
बैठ न पाये नाक पर, मक्खी रखिये ध्यान
बैठे तो झट दें उड़ा, बने रहें अनजान
*
नाक घुसेड़ें हर जगह, जो पाते हैं मात
नाक अड़ाते बिन वजह, हो जाते कुख्यात
*
नाक न नीची हो तनिक, करता सब जग फ़िक्र
नाक कटे तो हो 'सलिल', घर-घर हँसकर ज़िक्र
*
नाक सदा ऊँची रखें, बढ़े मान-सम्मान
नाक अदाए व्यर्थ जो, उसका हो अपमान
*
शूर्पणखा की नाक ने, बदल दिया इतिहास
ऊँची थी संत्रास दे, कटी सहा संत्रास
*
नाक छिनकना छोड़ दें, जहाँ-तहाँ हम-आप
'सलिल' स्वच्छ भारत बने, मिटे गंदगी शाप
*
नाक-नार दें हौसला, ठुमक पटकती पैर
ख्वाब दिखा पुचकार लो, 'सलिल' तभी हो खैर
*
जिसकी दस-दस नाक थीं, उठा न सका पिनाक
बीच सभा में कट गयी, नाक मिट गयी धाक
*
नाक नकेल बिना नहीं, घोड़ा सहे सवार
बीबी नाक-नकेल बिन, हो सवार कर प्यार
*
आँख कान कर पैर लब, दो-दो करते काम
नाक शीश मन प्राण को, मिलता जग में नाम
*
मुक्तक
भावना की भावना है शुद्ध शुभ सद्भाव है
भाव ना कुछ, अमोली बहुमूल्य है बेभाव है
साथ हैं अभियान संगम ज्योति हिंदी की जले
प्रकाशित सब जग करे बस यही मन में चाव है
१६-५-२०२०
मुक्तिका
कोयल कूक कह रही कल रव जैसा था, वैसा मत करना
गौरैया कहती कलरव कर, किलकिल करने से अब डरना
पवन कहे मत धूम्र-वाहनों से मुझको दूषित कर मानव
सलिल कहे निर्मल रहने दे, मलिन न पंकिल मुझको करना
कोरोना बोले मैं जाऊँ अगर रहेगा अनुशासित तू
खुली रहे मधुशाला पीने जाकर बिन मारे मत मरना
साफ-सफाई करो, रहो घर में, मत घर को होटल मानो
जो न चाहते हो तुमसे, व्यवहार न कभी किसी से करना
मेहनतकश को इज्जत दो, भूखा न रहे कोई यह देखो
लोकतंत्र में लोक जगे, जाग्रत हो, ऐसा पथ मिल वरना
***
मुक्तिका
इसने मारा उसने मारा
क्या जानूँ किस-किस ने मारा
श्रमिक-कृषक जोरू गरीब की
भौजी कहकर सबने मारा
नेता अफसर सेठ मजे में
पत्रकार-भक्तों ने मारा
चोर-गिरहकट छूटे पीछे
संतों-मुल्लों ने भी मारा
भाग्यविधाता भागा फिरता
कौन न जिसने जी भर मारा
१९-५-२०२०
***
अभिनव प्रयोग:
प्रस्तुत है पहली बार खड़ी हिंदी में बृजांचल का लोक काव्य भजन जिकड़ी
जय हिंद लगा जयकारा
(इस छंद का रचना विधान बताइए)
*
भारत माँ की ध्वजा, तिरंगी कर ले तानी।
ब्रिटिश राज झुक गया, नियति अपनी पहचानी।। ​​​​​​​​​​​​​​
​अधरों पर मुस्कान।
गाँधी बैठे दूर पोंछते, जनता के आँसू हर प्रात।
गायब वीर सुभाष हो गए, कोई न माने नहीं रहे।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
रास बिहारी; चरण भगवती; अमर रहें दुर्गा भाभी।
बिन आजाद न पूर्ण लग रही, थी जनता को आज़ादी।।
नहरू, राजिंदर, पटेल को, जनगण हुआ सहारा
जय हिंद लगा जयकारा।।
हुआ विभाजन मातृभूमि का।
मार-काट होती थी भारी, लूट-पाट को कौन गिने।
पंजाबी, सिंधी, बंगाली, मर-मिट सपने नए बुने।।
संविधान ने नव आशा दी, सूरज नया निहारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
बनी योजना पाँच साल की।
हुई हिंद की भाषा हिंदी, बाँध बन रहे थे भारी।
उद्योगों की फसल उग रही, पञ्चशील की तैयारी।।
पाकी-चीनी छुरा पीठ में, भोंकें; सोचें: मारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
पल-पल जगती रहती सेना।
बना बांग्ला देश, कारगिल, कहता शौर्य-कहानी।
है न शेष बासठ का भारत, उलझ न कर नादानी।।
शशि-मंगल जा पहुँचा इसरो, गर्वित हिंद हमारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
सर्व धर्म समभाव न भूले।
जग-कुटुंब हमने माना पर, हर आतंकी मारेंगे।
जयचंदों की खैर न होगी, गाड़-गाड़कर तारेंगे।।
आर्यावर्त बने फिर भारत, 'सलिल' मंत्र उच्चारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
६.७.२०१८
***
एक शे'र
चतुर्वेदी को मिला जब राह में कोई कबीर
व्यर्थ तत्क्षण पंडितों की पंडिताई देख ली
*
सुना रहा गीता पंडित जो खुद माया में फँसा हुआ
लेकिन सारी दुनिया को नित मुक्ति-राह बतलाता है.
***
दोहा सलिला
*
देव लात के मानते, कब बातों से बात
जैसा देव उसी तरह, पूजा करिए तात
*
चरण कमल झुक लात से, मना रहे हैं खैर
आये आम चुनाव क्या?, पड़ें पैर के पैर
*
पाँव पूजने का नहीं, शेष रहा आनंद
'लिव इन' के दुष्काल में, भंग हो रहे छंद
*
पाद-प्रहार न भाई पर, कभी कीजिए भूल
घर भेदी लंका ढहे, चुभता बनकर शूल
*
'सलिल न मन में कीजिए, किंचित भी अभिमान
तीन पगों में नाप भू, हरि दें जीवन-दान
*
मुक्तिका
कल्पना की अल्पना से द्वार दिल का जब सजाओ
तब जरूरी देखना यह, द्वार अपना या पराया?
.
छाँह सर की, बाँह प्रिय की. छोड़ना नाहक कभी मत
क्या हुआ जो भाव उसका, कुछ कभी मन को न भाया
.
प्यार माता-पिता, भाई-भगिनी, बच्चों से किया जब
रागमय अनुराग में तब, दोष किंचित भी न पाया
.
कौन क्या कहता? न इससे, मन तुम्हारा हो प्रभावित
आप अपनी राह चुन, मत करो वह जो मन न भाया
.
जो गया वह बुरा तो क्यों याद कर तुम रो रहे हो?
आ रहा जो क्यों न उसके वास्ते दीपक जलाया?
.
मुक्तिका
जिनसे मिले न उनसे बिछुड़े अपने मन की बात है
लेकिन अपने हाथों में कब रह पाये हालात हैं?
.
फूल गिरे पत्थर पर चोटिल होता-करता कहे बिना
कौन जानता, कौन बताये कहाँ-कहाँ आघात है?
.
शिकवे गिले शिकायत जिससे उसको ही कुछ पता
रात विरह की भले अँधेरी उसके बाद प्रभात है
.
मिलने और बिछुड़ने का क्रम जीवन को जीवन देता
पले सखावत श्वास-आस में, यादों की बारात है
.
तन दूल्हे ने मन दुल्हन की रूप छटा जब-जब देखी
लूट न पाया, खुद ही लुटकर बोला 'दिल सौगात है'
.***
मुहावरेदार दोहे
*
पाँव जमाकर बढ़ 'सलिल', तभी रहेगी खैर
पाँव फिसलते ही हँसे, वे जो पाले बैर
*
बहुत बड़ा सौभाग्य है, होना भारी पाँव
बहुत बड़ा दुर्भाग्य है, होना भारी पाँव
*
पाँव पूजना भूलकर, फिकरे कसते लोग
पाँव तोड़ने से मिटे, मन की कालिख रोग
*
पाँव गए जब शहर में, सर पर रही न छाँव
सूनी अमराई हुई, अश्रु बहाता गाँव
*
जो पैरों पर खड़ा है, मना रहा है खैर
धरा न पैरों तले तो, अपने करते बैर
*
सम्हल न पैरों-तले से, खिसके 'सलिल' जमीन
तीसमार खाँ भी हुए, जमीं गँवाकर दीन
*
टाँग अड़ाते ये रहे, दिया सियासत नाम
टाँग मारते वे रहे, दोनों है बदनाम
*
टाँग फँसा हर काम में, पछताते हैं लोग
एक पूर्ण करते अगर, व्यर्थ न होता सोग
*
बिन कारण लातें न सह, सर चढ़ती है धूल
लात मार पाषाण पर, आप कर रहे भूल
*
चरण कमल कब रखे सके, हैं धरती पर पैर?
पैर पड़े जिसके वही, लतियाते कह गैर
*
धूल बिमाई पैर का, नाता पक्का जान
चरण कमल की कब हुई, इनसे कह पहचान?
१९-५-२०१६
***
दोहा सलिला:
दोहा के रंग आँखों के संग ४
*
आँख न रखते आँख पर, जो वे खोते दृष्टि
आँख स्वस्थ्य रखिए सदा, करें स्नेह की वृष्टि
*
मुग्ध आँख पर हो गये, दिल को लुटा महेश
एक न दो, लीं तीन तब, मिला महत्त्व अशेष
*
आँख खुली तो पड़ गये, आँखों में बल खूब
आँख डबडबा रह गयी, अश्रु-धार में डूब
*
उतरे खून न आँख में, आँख दिखाना छोड़
आँख चुराना भी गलत, फेर न, पर ले मोड़
*
धूल आँख में झोंकना, है अक्षम अपराध
आँख खोल दे समय तो, पूरी हो हर साध
*
आँख चौंधियाये नहीं, पाकर धन-संपत्ति
हो विपत्ति कोई छिपी, झेल- न कर आपत्ति
*
आँखें पीली-लाल हों, रहो आँख से दूर
आँखों का काँटा बनें, तो आँखें हैं सूर
*
शत्रु किरकिरी आँख की, छोड़ न कह: 'है दीन'
अवसर पा लेता वही, पल में आँखें छीन
*
आँख बिछा स्वागत करें,रखें आँख की ओट
आँख पुतलियाँ मानिये, बहू बेटियाँ नोट
*
आँखों का तारा 'सलिल', अपना भारत देश
आँख फाड़ देखे जगत, उन्नति करे विशेष
१९-५-२०१५
*

मंगलवार, 23 मई 2023

बुन्देली, मुक्तिका, गीत, दोहा, अरिल्ल छंद, संविधान, भारत विभाजन, मुहावरेदार दोहे

गीत
चलें गाँव की ओर
स्नेह की सबल बँधी जहँ डोर
*
अलस्सुबह ऊषा-रवि आगत,
गुँजा प्रभाती करिए स्वागत।
गौ दुह पय पी किशन कन्हैया,
नाचें-खेलें ता ता थैया।
पवन बहे कर शोर
चलें गाँव की ओर
*
पनघट जाए मेंहदी पायल,
खिलखिल गूँजे, हो दिल घायल।
स्नान-ध्यान कर पूजे देवा
छाछ पिए, कर धनी कलेवा।
सुनने कलरव शोर
चलें गाँव की ओर
*
पूजें नीम शीतला मैया,
चल चौपाल मिले वट छैंया।
शुद्ध ओषजन धूप ग्रहणकर
बहा पसीना रोग दूर धर।
सुख-दुख संग अँजोर
चलें गाँव की ओर
२३-५-२०२१

***

चिट्ठी संविधान की
प्रिय नागरिकों।
खुश रहो कहूँ या प्रसन्न रहो?
- बहुत उलझन है, यह कहूँ तो फिरकापरस्ती का आरोप, वह कहूँ तो सांप्रदायिकता का। बचने की एक ही राह है 'कुछ न कहो, कुछ भी न कहो'।
क्या एक संवेदनशील समाज में कुछ न कहना उचित हो सकता है?
- कुछ न कहें तो क्या सकल साहित्य, संगीत और अन्य कलाएँ मूक रहें? चित्र न बनाया जाए, नृत्य न किया जाए, गीत न गाया जाए, लेख न लिखा जाए, वसन न पहने जाएँ, भोजन न पकाया जाए, सिर्फ इसलिए कि इससे कुछ व्यक्त होता है और अर्थ का अनर्थ न कर लिया जाए।
- राजनीति ने सत्ता को साध्य समझकर समाज नीति की हत्या कर स्वहित साधन को सर्वोच्च मान लिया है।
- देश के सर्वोच्च पदों पर आसीन महानुभाव दलीय हितों को लिए आक्रामक मुद्राओं में पूर्ववर्तियों पर अप्रमाणित आरोपों का संकेत करते समय यह भूल जाते हैं कि जब इतिहास खुद को दोहराएगा तब उनके मुखमंडल का शोभा कैसी होगी?
- सत्तासीनों से सत्य, संयम सहित सर्वहित की अपेक्षा न की जाए तो किससे की जाए?
- दलीय स्पर्धा में दलीय हितों को संरक्षण हेतु दलीय पदाधिकारी आरोप-प्रत्यारोप करें किंतु राष्ट्र प्रमुख अपनी निर्लिप्तता प्रदर्शित करें या क्या वातावरण स्वस्थ्य न होगा?
- मुझे बनाते व अंगीकार करते समय जो सद्भाव तुम सबमें था, वह आज कहाँ है? स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र या निशस्त्र दोनों तरह के प्रयास करनेवालों की लक्ष्य और विदेशी संप्रभुओं की उन पर अत्याचार समान नहीं था क्या?
- स्वतंत्र होने पर सकल भारत को एक देखने की दृष्टि खो क्यों रही है? अपने कुछ संबंधियों के बचाने के लिए आतंकवादियों को छोड़ने का माँग करनेवाले नागरिक, उन्हें समर्थन देनेवाला समाचार माध्यम और उन्हें छोड़नेवाली सरकार सबने मेरी संप्रभुता के साथ खिलवाड़ ही किया।
- आरक्षण का आड़ में अपनी राजनैतिक रोटी सेंकनेवाले देश की संपत्ति को क्षति पहुँचानेवाले अपराधी ही तो हैं।
- चंद कोसों पर बदलनेवाली बोली के स्थानीय रूप को राजभाषा का स्पर्धी बनाने की चाहत क्यों? इस संकीर्ण सोच को बल देती दिशा-हीन राजनीति कभी भाषा के आधार पर प्रांतों का गठन करती है, कभी प्रांतों को नाम पर प्रांत भाषा (छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी, राजस्थान में राजस्थानी आदि) की घोषणा कर देती है, भले ही उस नाम की भाषा पहले कभी नहीं रही हो।
- साहित्यकारों के चित्रों स् सुसज्जित विश्व हिंदी सम्मेलन के मंच से यह घोषित किया जाना कि 'यह भाषा सम्मेलन है, साहित्य सम्मेलन नहीं' राजनीति के 'बाँटो और राज्य करो' सिद्धांत का जयघोष था जिसे समझकर भी नहीं समझा गया।
- संशोधनों को नाम पर बार-बार अंग-भंग करने के स्थान पर एक ही बार में समाप्त क्यों न कर दो? मेरी शपथ लेकर पग-पग पर मेरी ही अवहेलना करना कितना उचित है?
- मुझे पल-पल पीड़ा पहुँचाकर मेरी अंतरात्मा को दुखी करने के स्थान पर तुम मुझे हटा ही क्यों नहीं देते?
-आम चुनाव लोकतंत्र का महोत्सव होना चाहिए किंतु तुमने इसे दलतंत्र का कुरुक्षेत्र बना दिया है। मैंने आम आदमी को मनोनुकूल प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दिया था पर पूँजीपतियों से चंदा बटोरकर उनके प्रति वफादार दलों ने नाग, साँप, बिच्छू, मगरमच्छ आदि को प्रत्याशी बनाकर जनाधिकार का परोक्षत: हरण कर लिया।
- विडंबना ही है कि जनतात्र को जनप्रतिनिधि जनमत और जनहित नहीं दलित और दल-हित साधते रहते हैं।
- 'समर शेष नहीं हुआ है, उठो, जागो, आगे बढ़ो। लोक का, लोक के लिए, लोक के द्वारा शासन-प्रशासन तंत्र बनाओ अन्यथा समय और मैं दोनों तुम्हें क्षमा नहीं करेंगे।
- ईश्वर तुम्हें सुमति दें।
शुभेच्छु
तुम्हारा संविधान
२३-५-२०१९

***
भारत विभाजन का सत्य:
= दो देशों का सिद्धांत प्रतिपादक सावरकर, समर्थक हिन्दू महासभा,
मुस्लीम लीग, चौधरी.
= पाकिस्तान बनाने पर क्रमश: सहमत हुए: सरदार पटेल, नेहरू, राजगोपालाचारी. इनके बाद मजबूरी में जिन्ना
= अंत तक असहमत गांधी जी, लोहिया जी, खान अब्दुल गफ्फार खान
= लाहौर से ढाका तक एक राज्य बनाने तक अन्न-लवण न खाने का व्रत लेने और निभानेवाले स्वामी रामचंद्र शर्मा 'वीर' (आचार्य धर्मेन्द्र के स्वर्गवासी पिता).
इतिहास पढ़ें, सचाई जानें.पटेल को हृदयाघात हो चुका था, जिन्ना की लाइलाज टी. बी. अंतिम चरण में थी. दोनों के जीवन के कुछ ही दिन शेष थे, दोनों यह सत्य जानते थे.
पटेल ने अखंड भारत की सम्भावना समाप्त करते हुए सबसे पहले पकिस्तान को मंजूर किया, जिन्ना ने कोंग्रेसी नेताओं द्वारा छले जाने से खिन्न होकर पाकिस्तान माँगा किन्तु ऐसा पकिस्तान उन्हें स्वीकार नहीं था. वे आखिर तक इसके विरोध में थे. कोंग्रेस द्वारा माने जाने के बाद उन्हें बाध्य होकर मानना पड़ा.

***

दोहा सलिला:
मन में अब भी रह रहे, पल-पल मैया-तात।
जाने क्यों जग कह रहा, नहीं रहे बेबात।।
*
रचूँ कौन विधि छंद मैं,मन रहता बेचैन।
प्रीतम की छवि देखकर, निशि दिन बरसें नैन।।
*
कल की फिर-फिर कल्पना, कर न कलपना व्यर्थ।
मन में छवि साकार कर, अर्पित कर कुछ अर्ध्य।।
*
जब तक जीवन-श्वास है, तब तक कर्म सुवास।
आस धर्म का मर्म है, करें; न तजें प्रयास।।
*
मोह दुखों का हेतु है, काम करें निष्काम।
रहें नहीं बेकाम हम, चाहें रहें अ-काम।।
*
खुद न करें निज कद्र गर, कद्र करेगा कौन?
खुद को कभी सराहिए, व्यर्थ न रहिए मौन.
*
प्रभु ने जैसा भी गढ़ा, वही श्रेष्ठ लें मान।
जो न सराहे; वही है, खुद अपूर्ण-नादान।।
*
लता कल्पना की बढ़े, खिलें सुमन अनमोल।
तूफां आ झकझोर दे, समझ न पाए मोल।।
*
क्रोध न छूटे अंत तक, रखें काम से काम।
गीता में कहते किशन, मत होना बेकाम।।
*
जिस पर बीते जानता, वही; बात है सत्य।
देख समझ लेता मनुज, यह भी नहीं असत्य।।
*
भिन्न न सत्य-असत्य हैं, कॉइन के दो फेस।
घोडा और सवार हो, अलग न जीतें रेस।।
७.५.२०१८


***
मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल
.
किस सा किस्सा?, कहे कहानी
गल्प- गप्प हँस कर मनमानी
.
कथ्य कथा है जी भर बाँचो
सुन, कह, समझे बुद्धि सयानी
.
बोध करा दे सत्य-असत का
बोध-कथा जो कहती नानी
.
देते पर उपदेश, न करते
आप आचरण पंडित-ज्ञानी
.
लाल बुझक्कड़ बूझ, न बूझें
कभी पहेली, पर ज़िद ठानी
***
[ सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय, अरिल्ल छन्द]
२३-५-२०१६
तक्षशिला इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंजीनियरिंग एन्ड टेक्नालॉजी
जबलपुर, ११.३० ए एम
***
दोहा सलिला
*
कर अव्यक्त को व्यक्त हम, रचते नव 'साहित्य'
भगवद-मूल्यों का भजन, बने भाव-आदित्य
.
मन से मन सेतु बन, 'भाषा' गहती भाव
कहे कहानी ज़िंदगी, रचकर नये रचाव
.
भाव-सुमन शत गूँथते, पात्र शब्द कर डोर
पाठक पढ़-सुन रो-हँसे, मन में भाव अँजोर
.
किस सा कौन कहाँ-कहाँ, 'किस्सा'-किस्सागोई
कहती-सुनती पीढ़ियाँ, फसल मूल्य की बोई
.
कहने-सुनने योग्य ही, कहे 'कहानी' बात
गुनने लायक कुछ कहीं, कह होती विख्यात
.
कथ्य प्रधान 'कथा' कहें, ज्ञानी-पंडित नित्य
किन्तु आचरण में नहीं, दीखते हैं सदकृत्य
.
व्यथा-कथाओं ने किया, निश-दिन ही आगाह
सावधान रहना 'सलिल', मत हो लापरवाह
.
'गल्प' गप्प मन को रुचे, प्रचुर कल्पना रम्य
मन-रंजन कर सफल हो, मन से मन तक गम्य
.
जब हो देना-पावना, नातों की सौगात
ताने-बाने तब बनें, मानव के ज़ज़्बात
.
कहानी गोष्ठी, २२-५-२०१६
कान्हा रेस्टॉरेंट, जबलपुर, १९.३०

***
मुहावरेदार दोहे
*
पाँव जमकर बढ़ 'सलिल', तभी रहेगी खैर
पाँव फिसलते ही हँसे, वे जो पाले बैर
*
बहुत बड़ा सौभाग्य है, होना भारी पाँव
बहुत बड़ा दुर्भाग्य है होना भारी पाँव
*
पाँव पूजना भूलकर, फिकरे कसते लोग
पाँव तोड़ने से मिटे, मन की कालिख रोग
*
पाँव गए जब शहर में, सर पर रही न छाँव
सूनी अमराई हुई, अश्रु बहाता गाँव
*
जो पैरों पर खड़ा है, मन रहा है खैर
धरा न पैरों तले तो, अपने करते बैर
*
सम्हल न पैरों-तले से, खिसके 'सलिल' जमीन
तीसमार खाँ हबी हुए, जमीं गँवाकर दीन
*
टाँग अड़ाते ये रहे, दिया सियासत नाम
टाँग मारते वे रहे, दोनों है बदनाम
*
टाँग फँसा हर काम में, पछताते हैं लोग
एक पूर्ण करते अगर, व्यर्थ न होता सोग
*
बिन कारण लातें न सह, सर चढ़ती है धूल
लात मार पाषाण पर, आप कर रहे भूल
*
चरण कमल कब रखे सके, हैं धरती पर पैर?
पैर पड़े जिसके वही, लतियाते कह गैर
*
धूल बिमाई पैर का, नाता पक्का जान
चरण कमल की कब हुई, इनसे कह पहचान?
१९-५-२०१६
***
मुक्तिका
*
धीरे-धीरे समय सूत को, कात रहा है बुनकर दिनकर
साँझ सुंदरी राह हेरती कब लाएगा धोती बुनकर
.
मैया रजनी की कैयां में, चंदा खेले हुमस-किलककर
तारे साथी धमाचौकड़ी मच रहे हैं हुलस-पुलककर
.
बहिन चाँदनी सुने कहानी, धरती दादी कहे लीन हो
पता नहीं कब भोर हो गयी?, टेरे मौसी उषा लपककर
.
बहकी-महकी मंद पवन सँग, क्लो मोगरे की श्वेतभित
गौरैया की चहचह सुनकर, गुटरूँगूँ कर रहा कबूतर
.
सदा सुहागन रहो असीसे, बरगद बब्बा करतल ध्वनि कर
छोड़न कल पर काम आज का, वरो सफलता जग उठ बढ़ कर
हरदोई
८-५-२०१६
***
मुक्तक:
*
पैर जमीं पर जमे रहें तो नभ बांहों में ले सकते हो
आशा की पतवार थामकर भव में नैया खे सकते हो.
शब्द-शब्द को कथ्य, बिंब, रस, भाव, छंद से अनुप्राणित कर
स्नेह-सलिल में अवगाहन कर नित काव्यामृत दे सकते हो
२३-५-२०१५
***
एक दोहा
करें आरती सत्य की, पूजें श्रम को नित्य
हों सहाय सब देवता, तजिए स्वार्थ अनित्य
१७-५-२०१५
***
मुक्तक
तुझको अपना पता लगाना है?
खुद से खुद को अगर मिलाना है
मूँद कर आँख बैठ जाओ भी
दूर जाना करीब आना है
१६-५-२०१५
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बुन्देली मुक्तिका :
काय रिसा रए
*
काय रिसा रए कछु तो बोलो
दिल की बंद किवरिया खोलो
कबहुँ न लौटे गोली-बोली
कओ बाद में पैले तोलो
ढाई आखर की चादर खों
अँखियन के पानी सें धो लो
मिहनत धागा, कोसिस मोती
हार सफलता का मिल पो लो
तनकउ बोझा रए न दिल पे
मुस्काबे के पैले रो लो
२३-५-२०१३
===
आयुर्वेद दोहा
मछली-सेवन से 'सलिल', शीश-दर्द हो दूर.
दर्द और सूजन हरे, अदरक गुण भरपूर...
*
दही -शहद नित लीजिये, मिले ऊर्जा-शक्ति.
हे-ज्वर भागे दूर हो, जीवन से अनुरक्ति..
*
हरी श्वेत काली पियें, चाय कमे हृद रोग.
धमनी से चर्बी घटे, पाचन बढे सुयोग..
*
नींद न आये-अनिद्रा, का है सुलभ उपाय.
शुद्ध शहद सेवन करें, गहरी निद्रा आय..
*
२२-५-२०१०
***

रविवार, 23 मई 2021

मुहावरेदार दोहे

मुहावरेदार दोहे
*
पाँव जमकर बढ़ 'सलिल', तभी रहेगी खैर
पाँव फिसलते ही हँसे, वे जो पाले बैर
*
बहुत बड़ा सौभाग्य है, होना भारी पाँव
बहुत बड़ा दुर्भाग्य है होना भारी पाँव
*
पाँव पूजना भूलकर, फिकरे कसते लोग
पाँव तोड़ने से मिटे, मन की कालिख रोग
*
पाँव गए जब शहर में, सर पर रही न छाँव
सूनी अमराई हुई, अश्रु बहाता गाँव
*
जो पैरों पर खड़ा है, मन रहा है खैर
धरा न पैरों तले तो, अपने करते बैर
*
सम्हल न पैरों-तले से, खिसके 'सलिल' जमीन
तीसमार खाँ हबी हुए, जमीं गँवाकर दीन
*
टाँग अड़ाते ये रहे, दिया सियासत नाम
टाँग मारते वे रहे, दोनों है बदनाम
*
टाँग फँसा हर काम में, पछताते हैं लोग
एक पूर्ण करते अगर, व्यर्थ न होता सोग
*
बिन कारण लातें न सह, सर चढ़ती है धूल
लात मार पाषाण पर, आप कर रहे भूल
*
चरण कमल कब रखे सके, हैं धरती पर पैर?
पैर पड़े जिसके वही, लतियाते कह गैर
*
धूल बिमाई पैर का, नाता पक्का जान
चरण कमल की कब हुई, इनसे कह पहचान?
***
१९-५-२०१६

शनिवार, 23 मई 2020

मुहावरेदार दोहे

मुहावरेदार दोहे
*
पाँव जमकर बढ़ 'सलिल', तभी रहेगी खैर
पाँव फिसलते ही हँसे, वे जो पाले बैर
*
बहुत बड़ा सौभाग्य है, होना भारी पाँव
बहुत बड़ा दुर्भाग्य है होना भारी पाँव
*
पाँव पूजना भूलकर, फिकरे कसते लोग
पाँव तोड़ने से मिटे, मन की कालिख रोग
*
पाँव गए जब शहर में, सर पर रही न छाँव
सूनी अमराई हुई, अश्रु बहाता गाँव
*
जो पैरों पर खड़ा है, मन रहा है खैर
धरा न पैरों तले तो, अपने करते बैर
*
सम्हल न पैरों-तले से, खिसके 'सलिल' जमीन
तीसमार खाँ हबी हुए, जमीं गँवाकर दीन
*
टाँग अड़ाते ये रहे, दिया सियासत नाम
टाँग मारते वे रहे, दोनों है बदनाम
*
टाँग फँसा हर काम में, पछताते हैं लोग
एक पूर्ण करते अगर, व्यर्थ न होता सोग
*
बिन कारण लातें न सह, सर चढ़ती है धूल
लात मार पाषाण पर, आप कर रहे भूल
*
चरण कमल कब रखे सके, हैं धरती पर पैर?
पैर पड़े जिसके वही, लतियाते कह गैर
*
धूल बिमाई पैर का, नाता पक्का जान
चरण कमल की कब हुई, इनसे कह पहचान?
***
१९-५-२०१६

मंगलवार, 19 मई 2020

मुहावरेदार दोहे

मुहावरेदार दोहे
संजीव वर्मा 'सलिल
*
पाँव जमकर बढ़ 'सलिल', तभी रहेगी खैर
पाँव फिसलते ही हँसे, वे जो पाले बैर
*
बहुत बड़ा सौभाग्य है, होना भारी पाँव
बहुत बड़ा दुर्भाग्य है होना भारी पाँव
*
पाँव पूजना भूलकर, फिकरे कसते लोग
पाँव तोड़ने से मिटे, मन की कालिख रोग
*
पाँव गए जब शहर में, सर पर रही न छाँव
सूनी अमराई हुई, अश्रु बहाता गाँव
*
जो पैरों पर खड़ा है, मन रहा है खैर
धरा न पैरों तले तो, अपने करते बैर
*
सम्हल न पैरों-तले से, खिसके 'सलिल' जमीन
तीसमार खाँ हबी हुए, जमीं गँवाकर दीन
*
टाँग अड़ाते ये रहे, दिया सियासत नाम
टाँग मारते वे रहे, दोनों है बदनाम
*
टाँग फँसा हर काम में, पछताते हैं लोग
एक पूर्ण करते अगर, व्यर्थ न होता सोग
*
बिन कारण लातें न सह, सर चढ़ती है धूल
लात मार पाषाण पर, आप कर रहे भूल
*
चरण कमल कब रखे सके, हैं धरती पर पैर?
पैर पड़े जिसके वही, लतियाते कह गैर
*
धूल बिमाई पैर का, नाता पक्का जान
चरण कमल की कब हुई, इनसे कह पहचान?
***