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गुरुवार, 15 मई 2025

मई १५, लघुकथा, वस्तुवदनक छंद, सारस छंद, चित्रगुप्त, गोत्र, अल्ल, तितली, आँसू, ओस

सलिल सृजन मई १५
*
दोहा सलिला
संसार
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्व मय सृष्टि।
ब्रह्म अनाहद नाद है, मूल करे शुभ वृष्टि।।
निराकार, साकार हम, मान पूजते मौन।
चित्र गुप्त हम जानते, नहीं पूछते कौन?
ध्वनि तरंग हो संघनित, बनती कण बिन भार।
भार गहें बोसान कण, मिल रचते संसार।।
कण से बने पदार्थ फिर, होते वे चैतन्य।
जाग्रत होती चेतना, उपजेन जीव अनन्य।।
बिना कोश फिर एक दो, बहुकोशी हों जीव।
जलचर थलचर गगनचर, विकसें सँग अजीव।।
जान न जानें सत्य हम, मान न मानें सत्य।
करते भरते भोगते, तजते नहीं असत्य।।
आ-रह-जा यह चक्र ही, परमेश्वर का खेल।
करें मुक्ति की चाह हम, अपनी गाड़ी ठेल।।
***
लघुकथा:
प्यार ही प्यार
*
'बिट्टो! उठ, सपर के कलेवा कर ले. मुझे काम पे जाना है. स्कूल समय पे चली जइयों।'
कहते हुए उसने बिटिया को जमीन पर बिछे टाट से खड़ा किया और कोयले का टुकड़ा लेकर दाँत साफ़ करने भेज दिया।
झट से अल्युमिनियम की कटोरी में चाय उड़ेली और रात की बची बासी रोटी के साथ मुँह धोकर आयी बेटी को खिलाने लगी। ठुमकती-मचलती बेटी को खिलते-खिलते उसने भी दी कौर गटके और टिक्कड़ सेंकने में जुट गयी। साथ ही साथ बोल रही थी गिनती जिसे दुहरा रही थी बिटिया।
सड़क किनारे नलके से भर लायी पानी की कसेंड़ी ढाँककर, बाल्टी के पानी से अपने साथ-साथ बेटी को नहलाकर स्कूल के कपडे पहनाये और आवाज लगाई 'मुनिया के बापू! जे पोटली ले लो, मजूरी खों जात-जात मोदी खों स्कूल छोड़ दइयो' मैं बासन माँजबे को निकर रई.' उसमे चहरे की चमक बिना कहे ही कह रही थी कि उसके चारों तरफ बिखरा है प्यार ही प्यार।
१५-५-२०१६
***
गीत:
आँसू और ओस
*
हम आँसू हैं,
ओस बूँद मत कहिये हमको...
*
वे पल भर में उड़ जाते हैं,
हम जीवन भर साथ रहेंगे,
हाथ न आते कभी-कहीं वे,
हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.
छिपा न पोछें हमको नाहक
श्वास-आस सम सहिये हमको ...
*
वे उगते सूरज के साथी,
हम हैं यादों के बाराती,
अमल विमल निस्पृह वे लेकिन
दर्द-पीर के हमीं संगाती.
अपनेपन को अब न छिपायें,
कभी कहें: 'अब बहिये' हमको...
*
ऊँच-नीच में, धूप-छाँव में,
हमने हरदम साथ निभाया.
वे निर्मोही-वीतराग हैं,
सृजन-ध्वंस कुछ उन्हें न भाया.
हारे का हरिनाम हमीं हैं,
'सलिल' संग नित गहिये हमको...
*
***
दोहा सलिला:
भोजपुरी का रंग - दोहा का संग
.
घाटा के सौदा बनल, खेत किसानी आज
गाँव-गली में सुबह बर, दारू पियल न लाज
.
जल जमीन वन-संपदा, लूटि लेल सरकार
कहाँ लोहिया जी गयल, आज बड़ी दरकार
..
खेती का घाटा बढ़ल, भूखा मरब किसान
के को के की फिकर बा, प्रतिनिधि बा धनवान
.
विपदा भी बिजनेस भयल, आफर औसर जान
रिश्वत-भ्रष्टाचार बा, अफसर बर पहचान
.
घोटाला अपराध बा, धंधा- सेवा नाम
चोर-चोर भाई भयल, मालिक भयल गुलाम
.
दंगा लूट फसाद बर, भेंट चढ़ल इंसान
नेता स्वारथ-मगन बा, सेठ भयल हैवान
.
आपन बल पहचान ले, छोड़ न आपन ठौर
भाई-भाई मिलकर रहल, जी ले आपन तौर
१५-५-२०१५
***
छंद सलिला:
वस्तुवदनक छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, पदांत चौकल-द्विकल
लक्षण छंद:
वस्तुवदनक कला चौबिस चुनकर रचते कवि
पदांत चौकल-द्विकल हो तो शांत हो मन-छवि
उदाहरण:
१. प्राची पर लाली झलकी, कोयल कूकी / पनघट / पर
रविदर्शन कर उड़े परिंदे, चहक-चहक/कर नभ / पर
कलकल-कलकल उतर नर्मदा, शिव-मस्तक / से भू/पर
पाप-शाप से मुक्त कर रही, हर्षित ऋषि / मुनि सुर / नर
२. मोदक लाईं मैया, पानी सुत / के मुख / में
आया- बोला: 'भूखा हूँ, मैया! सचमुच में'
''खाना खाया अभी, अभी भूखा कैसे?
मुझे ज्ञात है पेटू, राज छिपा मोदक में''
३. 'तुम रोओगे कंधे पर रखकर सिर?
सोचो सुत धृतराष्ट्र!, गिरेंगे सुत-सिर कटकर''
बात पितामह की न सुनी, खोया हर अवसर
फिर भी दोष भाग्य को दे, अंधा रो-रोकर
***
सारस  छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति १२-१२, चरणादि विषमक़ल तथा गुरु, चरणांत लघु लघु गुरु (सगण) सूत्र- 'शांति रखो शांति रखो शांति रखो शांति रखो'
विशेष: साम्य- उर्दू बहर 'मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन'
लक्षण छंद:
सारस मात्रा गुरु हो, आदि विषम ध्यान रखें
बारह-बारह यति गति, अन्त सगण जान रखें
उदाहरण:
१. सूर्य कहे शीघ्र उठें, भोर हुई सेज तजें
दीप जला दान करें, राम-सिया नित्य भजें
शीश झुका आन बचा, मौन रहें राह चलें
साँझ हुई काल कहे, शोक भुला आओ ढलें
२. पाँव उठा गाँव चलें, छाँव मिले ठाँव करें
आँख मुँदे स्वप्न पलें, बैर भुला मेल करें
धूप कड़ी झेल सकें, मेह मिले खेल करें
ढोल बजा नाच सकें, बाँध भुजा पीर हरें
३. क्रोध न हो द्वेष न हो, बैर न हो भ्रान्ति तजें
चाह करें वाह करें, आह भरें शांति भजें
नेह रखें प्रेम करें, भीत न हो कांति वरें
आन रखें मान रखें, शोर न हो क्रांति करें
१५-५-२०१४
***
एक प्रश्न-एक उत्तर: चित्रगुप्त जयंती क्यों?...
योगेश श्रीवास्तव 2:45pm May 14
आपके द्वारा भेजी जानकारी पाकर अच्छा लगा . थैंक्स. अब यह बताएं कि चित्रगुप्त जयंती मनाने का क्या कारण है? इस सम्बन्ध में भी कोई प्रसंग है?. थैंक्स.
योगेश जी!
वन्दे मातरम.
चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम ने उनका जन्म/मृत्यु प्रमाण पत्र बनाया।
कायस्थों से द्वेष रखनेवाले ब्राम्हणों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती। नव उत्पत्ति प्रकृति (स्त्री) तत्व से होती है.
'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता। चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह तत्व निराकार है। हम निराकार तत्वों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं।
कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है। 'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है। सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) के रूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं। यही तत्व (ऊर्जा) सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है। सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं। हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा, पालक विष्णु और नाशक शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं। आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं।
वैदिक काल से कायस्थ जन हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं। वे जानते और मानते रहे कि सभी तत्वों में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... यहाँ तक कि अल्लाह और ईसा में भी... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा। कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया।
निराकार चित्रगुप्त जी संबंधी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा, कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व, कोई जयंती, कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं, सब चित्रगुप्त जी के ही एक विशिष्ट रूप के लिए हैं। उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते, यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया। यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वेद पूर्व आदि काल से है।
वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा के आधार पर यह जयंती मनाई जाती है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं। आंशिक सत्य के कई रूप होते हैं। इनमें सामाजिक सत्य भी है। वर्तमान में चित्रगुप्त संबंधी प्रगति कथा, मंदिर, मूर्ति, व्रत, चालीसा, आरती तथा जयंती को सामाजिक या पौराणिक सत्य कहा जा सकता है किन्तु यह आध्यात्मिक या वैज्ञानिक सत्य नहीं है।
***
'गोत्र' तथा 'अल्ल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न अखिल भारतीय कायस्थ महासभा तथा राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते रहे हैं।
स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था। इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ। ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए।इसी कारण एक गोत्र वर्तमान में विभिन्न जातियों (जन्मना) में गोत्र मिलता है। ऋषि के पास विविध जातियों (वर्णानुसार) के शिष्य अध्ययन करने पहुँचते थे। महाभारत काल में ड्रोन, परशुराम आदि के शिष्य विविध जातियों, व्यवसायों, पदों के रहे। आजकल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रॉबर्टसन कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए। आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं।शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे। अतः, सामान्यत: उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था। कुछ अपवाद भी रहे हैं।
एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं। 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से संबंधित होता है। कायस्थों को राजनैतिक कारणों से निरंतर पलायन करना पड़ा। नए स्थानों पर उन्हें उनकी योग्यता के कारण आजीविका साधन तो मिल गए किन्तु स्थानीय समाज ने इन नवागंतुकों के साथ विवाह संब्न्धिओं में रूचि नाहने ली, फलत: कायस्थों को पूर्व परिचित परिवारों (दूर के संबंधियों) में विवाह करने पड़े। इस करम एक गोत्र में विवाह न करने का नियम प्रचलन में न रह सका, तब एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित माना जाने लगा। आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते। सामाजिक ढाँचा नष्ट हो जाने के कारण अंतर्जातीय विवाहों का प्रचलन बढ़ रहा है।
हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं। हमारी अल्ल 'उमरे' है। मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति (श्री रामकुमार वर्मा आत्मज स्व. जंगबहादुर वर्मा, छिंदवाड़ा) मिला है। मेरे फूफा जी स्व, जगन्नाथ प्रसाद वर्मा की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है। उनके पूर्वजों में से कोई बैरकपुर (बंगाल) के भद्र परिवार से होंगे जो किसी कारण से नागपुर जा बसे थे।
१५-५-२०११
***
अंतिम गीत
लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
ओ मेरी सर्वान्गिनी! मुझको याद वचन वह 'साथ रहेंगे'
तुम जातीं क्यों आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
दो अपूर्ण मिल पूर्ण हुए हम सुमन-सुरभि, दीपक-बाती बन.
अपने अंतर्मन को खोकर क्यों रह जाऊँ मैं केवल तन?
शिवा रहित शिव, शव बन जीना, मुझको अंगीकार नहीं है-
प्राणवर्तिका रहित दीप बन जीवन यह स्वीकार नहीं है.
तुमको खो सुधियों की समिधा संग मेरे भी प्राण जलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
नियति नटी की कठपुतली हम, उसने हमको सदा नचाया.
सच कहता हूँ साथ तुम्हारा पाने मैंने शीश झुकाया.
तुम्हीं नहीं होगी तो बोलो जीवन क्यों मैं स्वीकारूँगा?-
मौन रहो कुछ मत बोलो मैं पल में खुद को भी वारूँगा.
महाकाल के दो नयनों में तुम-मैं बनकर अश्रु पलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
हमने जीवन की बगिया में मिलकर मुकुलित कुसुम खिलाये.
खाया, फेंका, कुछ उधार दे, कुछ कर्जे भी विहँस चुकाये.
अब न पावना-देना बाकी, मात्र ध्येय है साथ तुम्हारा-
सिया रहित श्री राम न, श्री बिन श्रीपति को मैंने स्वीकारा.
साथ चलें हम, आगे-पीछे होकर हाथ न 'सलिल' मलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
***
तितलियाँ : कुछ अश'आर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया?
कहा तितली ने मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले..
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हुए खुद भी रो पडीं..
*
तितलियों से बाग की रौनक बढ़ी.
भ्रमर तो बेदाम के गुलाम हैं..
*
'आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
१५-५-२०१०
***

बुधवार, 15 मई 2024

मई १५, चित्रगुप्त, कायस्थ, गोत्र, अल्ल, तितली, छंद वस्तुवदनक, छंद सारस, लघुकथा,शेर, गीत

सलिल सृजन मई १५
*
लघुकथा:
प्यार ही प्यार
*
'बिट्टो! उठ, सपर के कलेवा कर ले. मुझे काम पे जाना है. स्कूल समय पे चली जइयों।'
कहते हुए उसने बिटिया को जमीन पर बिछे टाट से खड़ा किया और कोयले का टुकड़ा लेकर दाँत साफ़ करने भेज दिया।
झट से अल्युमिनियम की कटोरी में चाय उड़ेली और रात की बची बासी रोटी के साथ मुँह धोकर आयी बेटी को खिलाने लगी। ठुमकती-मचलती बेटी को खिलते-खिलते उसने भी दी कौर गटके और टिक्कड़ सेंकने में जुट गयी। साथ ही साथ बोल रही थी गिनती जिसे दुहरा रही थी बिटिया।
सड़क किनारे नलके से भर लायी पानी की कसेंड़ी ढाँककर, बाल्टी के पानी से अपने साथ-साथ बेटी को नहलाकर स्कूल के कपडे पहनाये और आवाज लगाई 'मुनिया के बापू! जे पोटली ले लो, मजूरी खों जात-जात मोदी खों स्कूल छोड़ दइयो' मैं बासन माँजबे को निकर रई.' उसमे चहरे की चमक बिना कहे ही कह रही थी कि उसके चारों तरफ बिखरा है प्यार ही प्यार।
१५-५-२०१६
***
छंद सलिला:
वस्तुवदनक छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, पदांत चौकल-द्विकल
लक्षण छंद:
वस्तुवदनक कला चौबिस चुनकर रचते कवि
पदांत चौकल-द्विकल हो तो शांत हो मन-छवि
उदाहरण:
१. प्राची पर लाली झलकी, कोयल कूकी / पनघट / पर
रविदर्शन कर उड़े परिंदे, चहक-चहक/कर नभ / पर
कलकल-कलकल उतर नर्मदा, शिव-मस्तक / से भू/पर
पाप-शाप से मुक्त कर रही, हर्षित ऋषि / मुनि सुर / नर
२. मोदक लाईं मैया, पानी सुत / के मुख / में
आया- बोला: 'भूखा हूँ, मैया! सचमुच में'
''खाना खाया अभी, अभी भूखा कैसे?
मुझे ज्ञात है पेटू, राज छिपा मोदक में''
३. 'तुम रोओगे कंधे पर रखकर सिर?
सोचो सुत धृतराष्ट्र!, गिरेंगे सुत-सिर कटकर''
बात पितामह की न सुनी, खोया हर अवसर
फिर भी दोष भाग्य को दे, अंधा रो-रोकर
***
सारस / छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति १२-१२, चरणादि विषमक़ल तथा गुरु, चरणांत लघु लघु गुरु (सगण) सूत्र- 'शांति रखो शांति रखो शांति रखो शांति रखो'
विशेष: साम्य- उर्दू बहर 'मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन'
लक्षण छंद:
सारस मात्रा गुरु हो, आदि विषम ध्यान रखें
बारह-बारह यति गति, अन्त सगण जान रखें
उदाहरण:
१. सूर्य कहे शीघ्र उठें, भोर हुई सेज तजें
दीप जला दान करें, राम-सिया नित्य भजें
शीश झुका आन बचा, मौन रहें राह चलें
साँझ हुई काल कहे, शोक भुला आओ ढलें
२. पाँव उठा गाँव चलें, छाँव मिले ठाँव करें
आँख मुँदे स्वप्न पलें, बैर भुला मेल करें
धूप कड़ी झेल सकें, मेह मिले खेल करें
ढोल बजा नाच सकें, बाँध भुजा पीर हरें
३. क्रोध न हो द्वेष न हो, बैर न हो भ्रान्ति तजें
चाह करें वाह करें, आह भरें शांति भजें
नेह रखें प्रेम करें, भीत न हो कांति वरें
आन रखें मान रखें, शोर न हो क्रांति करें
१५-५-२०१४
***
एक प्रश्न-एक उत्तर: चित्रगुप्त जयंती क्यों?...
योगेश श्रीवास्तव 2:45pm May 14
आपके द्वारा भेजी जानकारी पाकर अच्छा लगा . थैंक्स. अब यह बताएं कि चित्रगुप्त जयंती मनाने का क्या कारण है? इस सम्बन्ध में भी कोई प्रसंग है?. थैंक्स.
योगेश जी!
वन्दे मातरम.
चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम ने उनका जन्म प्रमाण पत्र बनाया।
कायस्थों से द्वेष रखनेवाले ब्राम्हणों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती। नव उत्पत्ति प्रकृति (स्त्री) तत्व से होती है.
'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता। चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह तत्व निराकार है। हम निराकार तत्वों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं।
कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है। 'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है। सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) के रूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं। यही तत्व (ऊर्जा) सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है। सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं। हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा, पालक विष्णु और नाशक शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं। आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं।
वैदिक काल से कायस्थ जन हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं। वे जानते और मानते रहे कि सभी तत्वों में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... यहाँ तक कि अल्लाह और ईसा में भी... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा। कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया।
निराकार चित्रगुप्त जी संबंधी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा, कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व, कोई जयंती, कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं, सब चित्रगुप्त जी के ही एक विशिष्ट रूप के लिए हैं। उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते, यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया। यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वेद पूर्व आदि काल से है।
वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा के आधार पर यह जयंती मनाई जाती है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं। आंशिक सत्य के कई रूप होते हैं। इनमें सामाजिक सत्य भी है। वर्तमान में चित्रगुप्त संबंधी प्रगति कथा, मंदिर, मूर्ति, व्रत, चालीसा, आरती तथा जयंती को सामाजिक या पौराणिक सत्य कहा जा सकता है किन्तु यह आध्यात्मिक या वैज्ञानिक सत्य नहीं है।
***
'गोत्र' तथा 'अल्ल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न अखिल भारतीय कायस्थ महासभा तथा राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते रहे हैं।
स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था। इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ। ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए।इसी कारण एक गोत्र वर्तमान में विभिन्न जातियों (जन्मना) में गोत्र मिलता है। ऋषि के पास विविध जातियों (वर्णानुसार) के शिष्य अध्ययन करने पहुँचते थे। महाभारत काल में ड्रोन, परशुराम आदि के शिष्य विविध जातियों, व्यवसायों, पदों के रहे। आजकल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रॉबर्टसन कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए। आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं।शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे। अतः, सामान्यत: उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था। कुछ अपवाद भी रहे हैं।
एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं। 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से संबंधित होता है। कायस्थों को राजनैतिक कारणों से निरंतर पलायन करना पड़ा। नए स्थानों पर उन्हें उनकी योग्यता के कारण आजीविका साधन तो मिल गए किन्तु स्थानीय समाज ने इन नवागंतुकों के साथ विवाह संब्न्धिओं में रूचि नाहने ली, फलत: कायस्थों को पूर्व परिचित परिवारों (दूर के संबंधियों) में विवाह करने पड़े। इस करम एक गोत्र में विवाह न करने का नियम प्रचलन में न रह सका, तब एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित माना जाने लगा। आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते। सामाजिक ढाँचा नष्ट हो जाने के कारण अंतर्जातीय विवाहों का प्रचलन बढ़ रहा है।
हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं। हमारी अल्ल 'उमरे' है। मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति (श्री रामकुमार वर्मा आत्मज स्व. जंगबहादुर वर्मा, छिंदवाड़ा) मिला है। मेरे फूफा जी स्व, जगन्नाथ प्रसाद वर्मा की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है। उनके पूर्वजों में से कोई बैरकपुर (बंगाल) के भद्र परिवार से होंगे जो किसी कारण से नागपुर जा बसे थे।
१५-५-२०११
***
अंतिम गीत
लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
ओ मेरी सर्वान्गिनी! मुझको याद वचन वह 'साथ रहेंगे'
तुम जातीं क्यों आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
दो अपूर्ण मिल पूर्ण हुए हम सुमन-सुरभि, दीपक-बाती बन.
अपने अंतर्मन को खोकर क्यों रह जाऊँ मैं केवल तन?
शिवा रहित शिव, शव बन जीना, मुझको अंगीकार नहीं है-
प्राणवर्तिका रहित दीप बन जीवन यह स्वीकार नहीं है.
तुमको खो सुधियों की समिधा संग मेरे भी प्राण जलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
नियति नटी की कठपुतली हम, उसने हमको सदा नचाया.
सच कहता हूँ साथ तुम्हारा पाने मैंने शीश झुकाया.
तुम्हीं नहीं होगी तो बोलो जीवन क्यों मैं स्वीकारूँगा?-
मौन रहो कुछ मत बोलो मैं पल में खुद को भी वारूँगा.
महाकाल के दो नयनों में तुम-मैं बनकर अश्रु पलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
हमने जीवन की बगिया में मिलकर मुकुलित कुसुम खिलाये.
खाया, फेंका, कुछ उधार दे, कुछ कर्जे भी विहँस चुकाये.
अब न पावना-देना बाकी, मात्र ध्येय है साथ तुम्हारा-
सिया रहित श्री राम न, श्री बिन श्रीपति को मैंने स्वीकारा.
साथ चलें हम, आगे-पीछे होकर हाथ न 'सलिल' मलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
***
तितलियाँ : कुछ अश'आर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया?
कहा तितली ने मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले..
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हुए खुद भी रो पडीं..
*
तितलियों से बाग की रौनक बढ़ी.
भ्रमर तो बेदाम के गुलाम हैं..
*
'आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
१५-५-२०१०
***

सोमवार, 6 फ़रवरी 2023

सॉनेट, लता, सावित्री, लक्ष्मी शर्मा, गीत, तुम, तितली, दस मात्रिक छंद, बाल गीत, उल्लाला मुक्तक, दोहे, नवगीत

सोरठा सलिला
बन जाती है भार, गाड़ी पटरी से उतर।
ढोती रहती भार, रहे जब तक पटरी पर।
चुप रह सह लो पीर, दर्द न कोई बँटाता।
मत हो व्यर्थ अधीर, साथ सभी हों हर्ष में।।
मत करना उपहास, निर्धन-निर्बल का कभी।
मत हों आप उदास, लोग करें उपहास तो।।
तन के भरते घाव, मन के घाव न भर सकें।
व्यर्थ दिखाते ताव, जो वे मान न पा सकें।।
रखें जरा भी फर्क, कथनी-करनी में नहीं।
करिए नहीं कुतर्क, तर्क सम्मत सब मानें।।
६-२-२०२३
•••
सॉनेट
लता
लता ताल की मुरझ सूखती।
काल कलानिधि लूट ले गया।
साथ सुरों का छूट ही गया।।
रस धारा हो विकल कलपती।।

लय हो विलय, मलय हो चुप है।
गति-यति थमकर रुद्ध हुई है।
सुमिर सुमिर सुधि शुद्ध हुई है।।
अब गत आगत तव पग-नत है।।

शारदसुता शारदापुर जा।
शारद से आशीष रही पा।
शारद माँ को खूब रहीं भा।।

हुआ न होगा तुमसा कोई।
गीत सिसकते, ग़ज़लें रोई।
खोकर लता मौसिकी खोई।।
६-२-२०२२
•••
सॉनेट
सावित्री
सावित्री जीती या हारी?
काल कहे क्या?, शीश झुकाए।
सत्यवान को छोड़ न पाए।।
नियति विवशता की बलिहारी।।

प्रेम लगन निस्वार्थ समर्पण।
प्रिय पर खुद को वार दिया था।
निज इच्छा को मार दिया था।।
किया कामनाओं का तर्पण।।

श्वास श्वास के संग गुँथी थी।
आस आस के साथ बँधी थी।
धड़कन जैसे साथ नथी थी।।

अब प्रिय तुममें समा गए हैं।
जग को लगता बिला गए हैं।
तुम्हें पता दो, एक हुए हैं।।
•••
प्रिय बहिन डॉक्टर नीलमणि दुबे प्राण प्रण से तीन दशकीय सेवा करने के बाद भी, अपने सर्वस्व जीवनसाथी को बचा नहीं सकीं। जीवन का पल पल जीवनसाथी के प्रति समर्पित कर सावित्री को जीवन में उतारकर काल को रोके रखा। कल सायंकाल डॉक्टर दुबे नश्वर तन छोड़कर नीलमणि जी से एकाकार हो गए।
मेरा, मेरे परिवार और अभियान परिवार के शत शत प्रणाम।
ओ क्षणभंगुर भव राम राम
***
कृति चर्चा :
एक सूरज मेरे अंदर : भावनाओं का समंदर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : एक सूरज मेरे अंदर, कविता संग्रह, लक्ष्मी शर्मा, प्रथम संस्करण २००४, ISBN ८१-८१२९-९२५-९, अकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, नमन प्रकाशन नई दिल्ली ]
*
मनुष्य संवेदनशील एवं चेतना सम्पन्न प्राणी है। मनुष्य का मन प्रकृति में हो रहे परिवर्तनों से भाव ग्रहण कर, आस-पास होने वाले दु:ख-सुख, आशा-निराशा, प्रेम-घृणा, दया-क्रोध से संवेदित होता है। अनुभूत को अभिव्यक्त करने की प्रवृत्ति सृजन, संचय एवं संवर्द्धन द्वारा साहित्य बनती है। साहित्य का एक अंग कविता है। सुख-दु:ख की भावावेशमयी लयात्मक रचना कविता है। काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो अर्थात् वह जिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है। रस गंगाधर में 'रमणीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्दों को 'काव्य' कहा गया है। आचार्य कुन्तक ने ‘वक्रोक्ति काव्यजीवितम्’ कहकर कविता को परिभाषित किया है। आचार्य वामन ने रीतिरात्मा काव्यस्य’ रीति के अनुसार रचना को काव्य कहा है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार ‘वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम्’ अर्थात् रस युक्त वाक्य ही काव्य है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मत में “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, हृदय की इसी मुक्ति साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते है।” मैथ्यू आर्नोल्ड के विचार में- “कविता के मूल में जीवन की आलोचना है।” शैले का मत है “कविता कल्पना की अभिव्यक्ति है।”
एक सूरज मेरे अंदर की कविताएँ भाव प्रधान कवयित्री की हृदयगत अनुभूतियाँ हैं। लक्ष्मी शर्मा जी ने कविता के माध्यम से यथार्थ और कल्पना का सम्यक सम्मिश्रण किया है। उनकी काव्य रचनाएँ छंद पर कथ्य को वरीयता देती हैं। वे समकालिक विसंगतियों और विडंबनाओं से आँखें चार करते हुए प्रश्न करती हैं-
हमने तो गाये थे /गीत प्यार के
नफरत और दुश्मननी के / राग कोई क्यों / आलाप रहा ?
कविता और प्रकृति का साथ चोली-दामन का सा है। कविता में मानविकीकरण मनुष्य के प्रकृति-पुत्र को जगाता है। कवयित्री नदी में अपने आप को रूपांतरित कर नदी की व्यथा-कथा की साक्षी बनती है-
मैं एक नदी हूँ / जब से जन्मी हों / लगातार बाह रही हूँ।
और बहना और बहते रहना / ताकत है मेरी / नियति है मेरी।
'राष्ट्र के आव्हान पर' शीर्षक कविता में सीमा की और जाते हुए सैनिक के मनोभावों का सटीक शब्दांकन है। 'सीमा पर जाते हुए' कविता सैनिक को देखकर देशवासी के मन में उठ रही भावनाओं से लबरेज है। काश होती मैं, आत्म विस्तार, सलाखें, लीक पर चलते हुए, गैस त्रासदी, अडिग आस्था, साथ देते जो मेरा, आतंकवाद, चुनाव आदि रचनाएँ समसामयिक परिवेश और जीवन के विविध प्रसंगों के ताने-बाने बुनते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण को सामने रखती हैं।
'गांधारी' कविता में कवयित्री ने एक पौराणिक चरित्र पर प्रश्न उठाये हैं। महाभारत की विभीषिका के लिए गांधारी को जिम्मेदार मानते हुए कवयित्री, नेत्रहीन पति के नेत्र बनने के स्थान पर नेत्रों पर पाती बाँध कर स्वयं भी नेत्रहीनता की स्थिति आमंत्रित करनेवाली गांधारी की लाचारी और कौरवों के दुष्कृत्यों के अन्योन्याश्रित मानती है। उसका मत है की गांधारी खली आँखों देख पाती तो चीरहरण और उसके कारण हुआ युद्ध, न होता।
कितना दयनीय होता है / जो स्वयं दूसरे के / आश्रित हो जाता है
अपनी तीक्ष्ण आँखों से / उस साम्राज्य की / नींव को हिलते देख पातीं
तो सही और गलत का निर्णय ले सकती थीं।
इस संकलन में कवयित्री के विदेश प्रवास से संबंधित कविताएँ उनकी भाव प्रवणता और संवेदनशीलता की बानगी हैं। न्यूयार्क से शारलेट जाते हुए, लॉस बेगास, न्यूयार्क का समुद्री तट 'जॉन्स' आदि रचनाओं में उन स्थानों/स्थलों का मनोरम वर्ण पाठक को आनंदित करता और उन्हें देखने की उत्सुकता जगाता है।
अंतिम रचना 'जो नहीं बदला में' 'कम लिखे से अधिक समझना' की परंपरा का पालन है -
परिवर्तनशील युग में
गतिशील समय में
जो कुछ नहीं बदला
वह है
ईर्ष्या, द्वेष, दुश्मनी
अत्याचार, सामूहिक हत्याएँ
जो युगों युगों से चला आ रहा है
शासन और शोषण
देश बदल गए, शासक बदल गए
पर बेईमानी नहीं बदली
गरीब की गरीबी नहीं बदली।
एक सूरज मेरे अंतर की ये कविताएँ कवयित्री की कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा को उद्घाटित कर उन्हें पाठक पंचायत में सशक्त हस्ताक्षर के रूप में स्थापित करती हैं।
***
***
गीत
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
याद जब आये तुम्हारी, सुरभि-गंधित सुमन-क्यारी.
बने मुझको हौसला दे, क्षुब्ध मन को घोंसला दे.
निराशा में नवाशा की, फसल बोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
हार का अवसाद हरकर, दे उठा उल्लास भरकर.
बाँह थामे दे सहारा, लगे मंजिल ने पुकारा.
कहे- अवसर सुनहरा, मुझको न खोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
उषा की लाली में तुमको, चाय की प्याली में तुमको.
देख पाऊँ, लेख पाऊँ, दुपहरी में रेख पाऊँ.
स्वेद की हर बूँद में, टोना सा होना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
साँझ के चुप झुटपुटे में, निशा के तम अटपटे में.
पाऊँ यदि एकांत के पल, सुनूँ तेरा हास कलकल.
याद प्रति पल करूँ पर, किंचित न रोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
जहाँ तुमको सुमिर पाऊँ, मौन रह तव गीत गाऊँ.
आरती सुधि की उतारूँ, ह्रदय से तुमको गुहारूँ.
स्वप्न में हेरूँ तुम्हें वह नींद सोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...

***
गीतिका
तितलियाँ
*
यादों की बारात तितलियाँ.
कुदरत की सौगात तितलियाँ..

बिरले जिनके कद्रदान हैं.
दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..

नाच रहीं हैं ये बिटियों सी
शोख-जवां ज़ज्बात तितलियाँ..

बद से बदतर होते जाते.
जो, हैं वे हालात तितलियाँ..

कली-कली का रस लेती पर
करें न धोखा-घात तितलियाँ..

हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं
क्या हैं शाह औ' मात तितलियाँ..

'सलिल' भरोसा कर ले इन पर
हुईं न आदम-जात तितलियाँ..
६-२-२०२१
***
कुण्डलिया
जगवाणी हिंदी नमन, नम न मातु कर नैन
न मन सुतों की जिह्वा है, आंग्ल हेतु बेचैन
आंग्ल हेतु बेचैन, नहीं जो तुझे चाहते
निज भविष्य को मातु, आप हो भ्रमित दाहते
ममी डैड सुन कुपित, न वर दें वीणापाणी
नमन मातु शत बार, उर बसो हे जगवाणी
*
६-२-२०२०
***
सोरठे 
दिल मिल हुआ गुलाल, हाथ मिला, ऑंखें मिलीं।
अनगिन किए सवाल, फूल-शूल से धूल ने।।
*
खूब लिख रहे छंद, चैन बिना बेचैन जी।
कल न कला स्वच्छंद , कलाकंद आनंद दे।।
*
कल पर पल-पल शेर, बेकल बे-कल लिख रहे।
करे देर अंधेर, आज कहे कल का पता।।
६-२-२०१८
***
दस मात्रिक छंद
१. पदादि यगण
सुनो हे धनन्जय!
हुआ है न यह जग
किसी का कभी भी।
तुम्हारा, न मेरा
करो मोह क्यों तुम?
तजो मोह तत्क्षण।
न रिश्ते, न नाते
हमेशा सुहाते।
उठाओ धनुष फिर
चढ़ा तीर मारो।
मरे हैं सभी वे
यहाँ हैं खड़े जो
उठो हे परन्तप!
*
२. पदादि मगण
सूनी चौपालें
सूना है पनघट
सूना है नुक्कड़
जैसे हो मरघट
पूछें तो किससे?
बूझें तो कैसे?
बोया है जैसा
काटेंगे वैसा
नाते ना पाले
चाहा है पैसा
*
३. पदादि तगण
चाहा न सायास
पाया अनायास
कैसे मिले श्वास?
कैसे मिले वास?
खोया कहाँ नेह?
खोया कहाँ हास?
बाकी रहा द्वेष
बाकी रहा त्रास
होगा न खग्रास
टूटी नहीं आस
ऊगी हरी घास
भौंरा-कली-रास
होता सुखाभास
मौका यही ख़ास
*
४. पदादि रगण
वायवी सियासत
शेष ना सिया-सत
वायदे भुलाकर
दे रहे नसीहत
हो रही प्रजा की
व्यर्थ ही फजीहत
कुद्ध हो रही है
रोकिए न, कुदरत
फेंकिए न जुमले
हो नहीं बगावत
भूलिए अदावत
बेच दे अदालत
कुश्तियाँ न असली
है छिपी सखावत
*
५. पदादि जगण
नसीब है अपना
सलीब का मिलना
न भोर में उगना
न साँझ में ढलना
हमें बदलना है
न काम का नपना
भुला दिया जिसको
उसे न तू जपना
हुआ वही सूरज
जिसे पड़ा तपना
नहीं 'सलिल' रुकना
तुझे सदा बहना
न स्नेह तज देना
न द्वेष को तहना
*
६. पदादि भगण
बोकर काट फसल
हो तब ख़ुशी प्रबल
भूल न जाना जड़
हो तब नयी नसल
पैर तले चीटी
नाहक तू न मसल
रूप नहीं शाश्वत
चाह न पाल, न ढल
रूह न मरती है
देह रही है छल
तू न 'सलिल' रुकना
निर्मल देह नवल
*
७. पदादि नगण
कलकल बहता जल
श्रमित न आज न कल
रवि उगता देखे
दिनकर-छवि लेखे
दिन भर तपता है
हँसकर संझा ढल
रहता है अविचल
रहता चुप अविकल
कलकल बहता जल
नभचर नित गाते
तनिक न अलसाते
चुगकर जो लाते
सुत-सुता-खिलाते
कल क्या? कब सोचें?
कलरव कर हर पल
कलरव सुन हर पल
कलकल बहता जल
नर न कभी रुकता
कह न सही झुकता
निज मन को ठगता
विवश अंत-चुकता
समय सदय हो तो
समझ रहा निज बल
समझ रहा निर्बल
कलकल बहता जल
*
८. पदादि सगण
चल पंछी उड़ जा
जब आये तूफां
जब पानी बरसे
मत नादानी कर
मत यूँ तू अड़ जा
पहचाने अवसर
फिर जाने क्षमता
जिद ठाने क्यों तू?
झट पीछे मुड़ जा
तज दे मत धीरज
निकलेगा सूरज
वरने निज मंजिल
चटपट हँस बढ़ जा
***
***
सामयिक गीत :
*
हम न चलने देंगे
लेकिन
काम तुम्हारा देश चलाना
*
हम जो जी चाहें करें
कोई न सकता रोक
पग-पग पर टोंकें तुम्हें
कोई न सकता टोंक
तुमसेइज्जत चाहते
तुम्हें भाड़ में झोंक
हम न निभाने देंगे
लेकिन
काम तुम्हारा साथ निभाना
*
बढ़ा रहे तुम हाथ या
झुका रहे हो माथ
वादा कर कर भुलाएँ
कभी न देंगे साथ
तुम बोलोगे 'पथ' अगर
हम बोलेंगे 'पाथ'
हम न बनाने देंगे
लेकिन काम तुम्हारा राह बनाना
*
सीधी होती है कभी
क्या कुत्ते की दुम?
क्या नादां यह मानता
अकल हुई है गुम?
हमें शत्रु से भी बड़े
शत्रु लग रह तुम
हम न उठाने देंगे
लेकिन
काम तुम्हारा देश उठाना
***
६-२-२०१६
***
बाल गीत:
"कितने अच्छे लगते हो तुम "
*
कितने अच्छे लगते हो तुम |
बिना जगाये जगते हो तुम ||
नहीं किसी को ठगते हो तुम |
सदा प्रेम में पगते हो तुम ||
दाना-चुग्गा मंगते हो तुम |
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ चुगते हो तुम ||
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम |
बिल्ली से डर बचते हो तुम ||
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते हो तुम |
चूजे भाई! रुचते हो तुम |
***
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला मुक्तक:
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा.
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है.
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा-
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ-
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है.
वह थामे पतवार है.
करता भव से पार है..
६-२-२०१३
***
नवगीत / भजन:
*
जाग जुलाहे!
भोर हो गई
*
आशा-पंछी चहक रहा है.
सुमन सुरभि ले महक रहा है..
समय बीतते समय न लगता.
कदम रोक, क्यों बहक रहा है?
संयम पहरेदार सो रहा-
सुविधा चतुरा चोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गई
*
साँसों का चरखा तक-धिन-धिन.
आसों का धागा बुन पल-छिन..
ताना-बाना, कथनी-करनी-
बना नमूना खाने गिन-गिन.
ज्यों की त्यों उजली चादर ले-
मन पतंग, तन डोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गई
*
रीते हाथों देख रहा जग.
अदना मुझको लेख रहा जग..
मन का मालिक, रब का चाकर.
शून्य भले अव्रेख रहा जग..
उषा उमंगों की लाली संग-
संध्या कज्जल-कोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गई
***
नवगीत:
*
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
आँखें रहते
सूर हो गए.
क्यों हम खुद से
दूर हो गए?
हटा दिए जब
सभी आवरण
तब धरती के
नूर हो गए.
रोक न पाया
कोई पहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
भूत-अभूत
पूर्व की वर्चा.
भूल करें हम
अब की अर्चा.
चर्चा रोकें
निराधार सब.
हो न निरुपयोगी
कुछ खर्चा.
मलिन हुआ जल
जब भी ठहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
कथनी-करनी में
न भेद हो.
जब गलती हो
तुरत खेद हो.
लक्ष्य देवता के
पूजन हित-
अर्पित अपना
सतत स्वेद हो.
उथलापन तज
हो मन गहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
***
नवगीत:
*
काया माटी,
माया माटी,
माटी में-
मिलना परिपाटी...
*
बजा रहे
ढोलक-शहनाई,
होरी, कजरी,
फागें, राई,
सोहर गाते
उमर बिताई.
इमली कभी
चटाई-चाटी...
*
आडम्बर करना
मन भाया.
खुद को खुद से
खुदी छिपाया.
पाया-खोया,
खोया-पाया.
जब भी दूरी
पाई-पाटी...
*
मौज मनाना,
अपना सपना.
नहीं सुहाया
कोई नपना.
निजी हितों की
माला जपना.
'सलिल' न दांतों
रोटी काटी...
*
चाह बहुत पर
राह नहीं है.
डाह बहुत पर
वाह नहीं है.
पर पीड़ा लख
आह नहीं है.
देख सचाई
छाती फाटी...
*

मैं-तुम मिटकर
हम हो पाते.
खुशियाँ मिलतीं
गम खो जाते.
बिन मतलब भी
पलते नाते.
छाया लम्बी
काया नाटी...

***
सामयिक दोहे

रश्मि रथी की रश्मि के, दर्शन कर जग धन्य.
तुम्हीं चन्द्र की ज्योत्सना, सचमुच दिव्य अनन्य..

राज सियारों का हुआ, सिंह का मिटा भविष्य.
लोकतंत्र के यज्ञ में, काबिल हुआ हविष्य..

कहता है इतिहास यह, राक्षस थे बलवान.
जिसने उनको मिटाया, वे सब थे इंसान..

इस राक्षस राठोडड़ का होगा सत्यानाश.
साक्षी होंगे आप-हम, धरती जल आकाश..

नारायण के नाम पर, सचमुच लगा कलंक.
मैली चादर हो गई, चुभा कुयश का डंक..

फँसे वासना पंक में, श्री नारायण दत्त.
जैसे मरने जा रहा, कीचड़ में गज मत्त.

कीचड़ में गज मत्त, लाज क्यों इन्हें न आयी.
कभी उठाई थी चप्पल. अब चप्पल खाई..
***
: सामयिक गीत :

बिक रहा ईमान है
*
कौन कहता है कि...
मँहगाई अधिक है?
बहुत सस्ता
बिक रहा ईमान है.
जहाँ जाओगे
सहज ही देख लोगे.
बिक रहा
बेदाम ही इंसान है.
कहो जनमत का
यहाँ कुछ मोल है?
नहीं, देखो जहाँ
भारी पोल है.
कर रहा है न्याय
अंधा ले तराजू.
व्यवस्था में हर कहीं
बस झोल है
आँख का आँसू,
हृदय की भावनाएँ.
हौसला अरमान सपने
समर्पण की कामनाएँ.
देश-भक्ति, त्याग को
किस मोल लोगे?
कहो इबादत को
कैसे तौल लोगे?
आँख के आँसू,
हया लज्जा शरम.
मुफ्त बिकते
कहो सच है या भरम?
क्या कभी इससे सस्ते
बिक़े होंगे मूल्य
बिक रहे हैं
आज जो निर्मूल्य?
मौन हो अर्थात
सहमत बात से हो.
मान लेता हूँ कि
आदम जात से हो.
जात औ' औकात निज
बिकने न देना.
मुनाफाखोरों को
अब टिकने न देना.
भाव जिनके अधिक हैं
उनको घटाओ.
और जो बेभाव हैं
उनको बढ़ाओ.
***
नवगीत
चले श्वास-चौसर पर...
आसों का शकुनी नित दाँव.
मौन रो रही कोयल,
कागा हँसकर बोले काँव...
*
संबंधों को अनुबंधों ने
बना दिया बाज़ार.
प्रतिबंधों के धंधों के
आगे दुनिया लाचार.
कामनाओं ने भावनाओं को
करा दिया नीलम.
बद को अच्छा माने दुनिया
कहे बुरा बदनाम.
ठंडक देती धूप
तप रही बेहद कबसे छाँव...
*
सद्भावों की सती नहीं है,
राजनीति रथ्या.
हरिश्चंद्र ने त्याग सत्य
चुन लिया असत मिथ्या.
सत्ता शूर्पनखा हित लड़ते.
हाय! लक्ष्मण-राम.
खुद अपने दुश्मन बन बैठे
कहें विधाता वाम.
भूखे मरने शहर जा रहे
नित ही अपने गाँव...
*
'सलिल' समय पर
न्याय न मिलता,
देर करे अंधेर.
मार-मारकर बाज खा रहे
कुर्सी बैठ बटेर.
बेच रहे निष्ठाएँ अपनी
पल में लेकर दाम.
और कह रहे हैं संसद में
'भला करेंगे राम.'
अपने हाथों तोड़-खोजते
कहाँ खो गया ठाँव?...
***
खबरदार कविता
राज को पाती:

भारतीय सब एक हैं, राज कौन है गैर?
महाराष्ट्र क्यों राष्ट्र की, नहीं चाहता खैर?

कौन पराया तू बता?, और सगा है कौन?
राज हुआ नाराज क्यों ख़ुद से?रह अब मौन.

उत्तर-दक्षिण शीश-पग, पूरब-पश्चिम हाथ.
ह्रदय मध्य में ले बसा, सब हों तेरे साथ.

भारत माता कह रही, सबका बन तू मीत.
तज कुरीत, सबको बना अपना, दिल ले जीत.

सच्चा राजा वह करे जो हर दिल पर राज.
‘सलिल’ तभी चरणों झुकें, उसके सारे ताज.
६-२-२०१०