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सोमवार, 30 अप्रैल 2018

श्री श्री चिंतन: दोहा गुंजन ५, shri shri chintan doha gunjan 5

श्री श्री  चिंतन: दोहा गुंजन ५
इच्छाएँ
(७.१.१९९८, मिलानो, इटली)
*
इन्द्रिय सुख इच्छा क्षणिक, विद्युत् जैसी जान।
विषय वस्तु की ओर बढ़, खो प्रभाव बेजान।।
*
निज सत्ता के केंद्र-प्रति, इच्छाएँ लो मोड़।
हो रोमांचित; चिरंतन, सुख पा तजकर होड़।।
*
अपने अन्दर मिलेगा, तुम्हें नया आयाम।
प्रेम सनातन शाश्वत, परमानन्द अनाम।।
*
लोभ ईर्ष्या वासना, ऊर्जा सबल अपार।
स्रोत तुम्हीं; कर शुद्ध दे, निष्ठा-भक्ति सुधार।।
*
सुख की विद्युत्-धार हो, तुम्हीं समझ लो आप।
घटे लालसा, शांति आ, जाती जीवन-व्याप।।
*
मृत्यु सुनिश्चित याद रख, जिओ आज में आज।
राग-द्वेष से मुक्त हो, प्रभु-अर्पित कर काज।।
*
२६.४.२०००, आश्रम बेंगलुरु
इच्छाओं का लक्ष्य हैं, खुशियाँ; यदि हों नष्ट।
मन में झाँको देख लो, खुशियाँ करें अनिष्ट।।
*
इच्छा करते ख़ुशी की, दुःख की किंचित चाह।
कभी न थी; होगी नहीं, मन रह बेपरवाह।।
*
भाग-भाग जब क्लांत हो, नन्हा मन तब आप।
इच्छाएँ छीनें खुशी, सच महसूसे आप।।
***
१४.४.२०१८

रविवार, 29 अप्रैल 2018

साहित्य त्रिवेणी छंद विशेषांक/ sahitya triveni chhand visheshank



साहित्य त्रिवेणी 
छंद विशेषांक अप्रैल-जून २०१८ 
*
अतिथि संपादक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०२ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष: ७९९९५५९६१८, ईमेल: salil.sanjiv@ gmail.com
संपादक: डॉ. कुंवर वीर सिंह 'मार्तंड'  
कार्यालय मार्तंड भवन, डी १, ९४ / ए, पश्चिम पुट खाली, मंडलपाड़ा, 
डाक. दौलतपुर, द्वारा विवेकानंदपल्ली, कोलकाता ७००१३९ 
चलभाष:  ९८३१०६२३६२, ईमेल:  sahityatriveni@gmail.com  
*
विश्व वाणी हिंदी में गत पंद्रह वर्षों से कोलकाता से प्रकाशित ख्यातिलब्ध साहित्यिक पत्रिका साहित्य त्रिवेणी का आगामी अंक छंद विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया जाना है। इस अंक के अतिथि संपादक विश्व वाणी हिंदी संस्थान के संयोजक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार-समीक्षक-छंद शिल्पी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' हैं।
अंक में प्रकाशनार्थ विविध आंचलिक भाषाओँ के साहित्य-सृजन में छंद की भूमिका, छंद के प्रकार, शिल्प, कथ्य, प्रभाव, प्रसार, उपादेयता,  साहित्य सृजन में योगदान, नव छंदों के सृजन, वैशिष्ट्य, वाक् परंपरा, लोक परंपरा, नाट्य परंपरा, छंद की सम सामयिकता उपयोगिता, छंद के भविष्य, भारतीय आंचलिक भाषाओँ में प्रचलित वाचिक छंद आदि से संबंधित सारगर्भित शोधपरक मौलिक आलेख सादर आमंत्रित हैं। लेख लिखने के पूर्व अतिथि संपादक से चर्चा कर शीर्षक तथा अंतर्वस्तु की स्वीकृति प्राप्त कर लें। लगभग ३००० शब्दीय (३-४ पृष्ठीय)  लेख १५ मई तक यूनीकोड में टंकित कर salil.sanjiv@ gmail.com पर अपने चित्र तथा संक्षिप्त परिचय ( जन्म तिथि/स्थान, माता-पिता, साहित्य गुरु के नाम, शिक्षा, प्रकाशित कृतियाँ, विशेष उपलब्धि,  डाक का पता, चलभाष, ईमेल आदि) सहित भेजें। लेख प्रकाशित होने पर पत्रिका निशुल्क भेजी जाएगी। पारिश्रमिक का प्रावधान नहीं है। पत्रिका में प्रकाशित सामग्री तथा स्थानाभाव या विलम्ब से प्राप्त सामग्री wwwdivyanarmada.in पर प्रकाशित की जाएगी। लेख विशुद्ध साहित्यिक हों, राजनैतिक / वैचारिक प्रतिबद्धतापरक, विवादस्पद सामग्री अस्वीकृत कर दी जाएगी।   
आमंत्रित साहित्यकार: सर्व श्री/श्रीमती/सुश्री- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना हरदोई, डॉ. इला घोष जबलपुर, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर फीरोजाबाद,  डॉ. जगदीश व्योम नोएडा, योगराज प्रभाकर पटियाला, हरिश्चंद्र शाक्य मैनपुरी, डॉ. ब्रम्ह्जीत गौतम गाजियाबाद, प्रो. विशम्भर दयाल शुक्ल लखनऊ, आचार्य प्रकाश चंद्र फुलोरिया फरीदाबाद, डॉ. नीलमणि दुबे शहडोल, ॐ नीरव लखनऊ, उमाशंकर शुक्ल लखनऊ, चंद्रकांता शर्मा पंचकूला, अरुण निगम दुर्ग, सौरभ पाण्डे इलाहाबाद,  रघुविंदर यादव नारनौल, राहुल शिवाय बेगूसराय, विवेकरंजन 'विनम्र' जबलपुर, सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' जबलपुर, संजीव तिवारी दुर्ग, बलदाऊ राम साहू दुर्ग, डॉ. हरि फैजाबादी लखनऊ, विजय बागरी कटनी, राजा अवस्थी कटनी, डॉ. स्मृति शुक्ल जबलपुर, डॉ. नीना उपाध्याय जबलपुर, डॉ. कौशल दुबे जबलपुर, डॉ. भावना शुक्ल नई दिल्ली, कुमार गौरव अजितेंदु पटना,  सुरेन्द्र सिंह पवार जबलपुर, बसंत शर्मा जबलपुर, उपासना उपाध्याय जबलपुर, आभा सक्सेना देहरादून, छाया सक्सेना जबलपुर आदि।    
                                                                                      ***

श्री श्री चिंतन ४: आदतें दुर्गुण shri shri chintan 4 adaten durgun

श्री श्री चिंतन: ४
आदतें- दुर्गुण
३.४.१९९७, ऋषिकेश
*
दुर्गुण हटा न सको तो, जाओ उनको भूल।
क्रोध; कामना; अहं; दुख, मद को मत दो तूल।।
*
तुच्छ कारणों पर कहो, क्यों होते नाराज?
ब्रम्ह; इष्ट; रब; गुरु; खुदा, से हो रुष्ट सकाज।।
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अहंकार से तुम अगर, हो न पा रहे मुक्त।
परमेश्वर हैं तुम्हारे, सोच रहो मद-युक्त।।
*
मोह और आसक्ति को अगर न पाते छोड़।
सत के प्रति आसक्त हो, तब आएगा मोड़।।
*
ईर्ष्या-सेवा के लिए, करो द्वेष से द्वेष।
दिव्य हेतु मदहोश हो, गुरु से राग अशेष।।
*
१४.४.२०१८
७९९९५५९६१८, salil.sanjiv@gmail.com
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शनिवार, 28 अप्रैल 2018

ॐ दोहा शतक: डॉ. नीलमणि दुबे


दोहा शतक:
मन के पंथ हजार
डॉ. नीलमणि दुबे
*



जन्म: १.७.१९५९, सोहागपुर, शहडोल
आत्मजा: श्रीमती मिथलेश-श्री रघुनाथ प्रसाद तिवारी
जीवनसाथी: डॉ. राजेश दुबे
काव्य गुरु: माँ सरस्वती
शिक्षा: एम्. ए., एलएल. बी., पीएच. डी.।
लेखन विधा: दोहा, गीत, कुण्डलिया, ग़ज़ल, समीक्षा, समालोचक, शोध लेख आदि
प्रकाशित: खंडकाव्य- कृष्णार्जुन संवाद, स्मृति, काव्य- चेतना के फूल, विविध, दीवाने-आम और ग्यारह दिन आदि
उपलब्धि: स्वर्णपदक, अनेक सम्मान
संप्रति:प्राध्यापक हिंदी, शंभुनाथ सिंह महाविद्यालय शहडोल
सपर्क: मोदी नगर, रीवा मार्ग, शहडोल ४८४००१, चलभाष: ९४०७३२४६५०,  
*
           डॉ. नीलमणि दुबे हिंदी वांग्मय और हिंदी शिक्षण दोनों की सीध्हस्त हस्ताक्षर हैं। त्रासदियों से आँख मिलाते हुए भी, चुनौतियों से जूझते हुए भी, सारस्वत साधना हेतु सतत समर्पित रहनेवाली नीलमणि जी 'नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन वारिज नयन' से 'करहु सो मम उर धाम' कहते हुए सृजन अनुष्ठान में समिधा समर्पित करती रहती हैं। विंध्याटवी का अप्रतिम प्राकृतिक सौंदर्य किसे नहीं मोहता? शहरों में अंधाधुंध उस-बढ़ रहे कोंक्रीती जंगलों में लगी आग से एक सीमा तक बचे विन्ध्य में मौसम के अनुबंध आज भी अपनी छटा बिखेरते हैं-
आग-आग सब शहर हैं, जहर हुए संबंध।
फूल-फूल पर लग गए, मौसम के अनुबंध।।
           नीलमणि जी की कहन गरार में सागर समाहित करने की तरह है। दोहा में एक भी अनावश्यक शब्द न रखना या दोहा के शब्द-शब्द को निहितार्थ सहित प्रयोग करना उनका वैशिष्ट्य है- 
विद्युत्-वल्ली कौंधती, रह-रह घन के बीच।
प्रगट ज्ञान की प्रभा ज्यों, छिपी लोक को सींच।। 
           देश में संसद से लेकर सड़क कर किसी न किसी बहाने अपने कर्तव्य का पालन न कर अन्यों को आरोपित करने की कला विज्ञान का रूप लेती जा रही है। नीलमणि जी ने विरोध दर्ज कराने का मौलिक और सार्थक सुझाव दिया है - 
करना है यदि बंद तो, बंद करें विश्राम।
दर्ज करें प्ररोध निज, कर-कर शत-गुण काम।।    
           दोहे के कथ्य के अनुरूप तत्सम-तद्भव शब्दावली, अथवा देशज शब्दावली का प्रयोग करने में वे निष्णात हैं-
अरुणा-प्राची में उदित, नव शशिकला अमंद।
लय अनुसारिणी अथच ज्यों, प्रथम अनुष्टुप छंद।। 
           अपनी माटी और जड़ों से जुडी नीलमणि जी ने जन्म और कर्मस्थली शहडोल की लोकभाषा बघेली के उन्नयन हेतु भी कार्य किया है। वे सत्य हे एकहाती हैं कि काव्य-सृजन की लक्ष्मी बड़भागी को ही मिलती है-
गोली सगलै दुःख हरै, कबौ न करे हरास।
या कविता के लच्छमी, होय न सबके पास।।
             नीलमणि काविषम पारिवारिक स्थितियों के बावजूद अल्प समय में इस अनुष्ठान में सहभागी होना हिंदी के सेवा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता दर्शाता है . 
*
आग-आग सब शहर हैं, जहर हुए संबंध।
फूल-फूल पर लग गए, मौसम के अनुबंध।।
*
सपने भी अपने नहीं, घर को रहे नबेर।
होली हो ली इस तरह, आए दिन के फेर।।
*
खुशियाँ भटकी फिर रहीं, पीकर नौ मन भंग।
जाने इतने अनमने, क्यों होलीके रंग?
*
कुमंत्रणा की होलिका, जली सुखी प्रह्लाद।
इसी तरह सबको सदा, मिले नया आल्हाद।।
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शतवर्णी धरती हुई, ऐसा मचा धमाल।
अंबर के मुख पर मला, ढेरों-ढेर गुलाल।।
*
मन माहौरी, लाल मुँह,  आँखिन भरा गुलाल।
टसुआ पिचकारी चलैं, होरी आई काल।।
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मरु में नखलिस्तान है, नेह भरा व्यापार।
जीवन में वरदान सा, भ्रातृ-भगिनि सा प्यार।।
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सुप्रभात सुंदर-सुखद, शुभयुत आठों याम।
मंगलमय कल्याणप्रद, हो जीवन अभिराम।।
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प्रकृति की अनुपम छटा, देती नवल समृद्धि।
नित नूतन हो दिव्यता, नित्य नई श्रीवृद्धि।।
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आम्र-मंजरी मिस मधुर, देते अमृत घोल।
हिय में गहरे उतरते, पिक के मीठे बोल।।
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सरसों सकुचाई खड़ी, खिला-खिला कचनार।
कर सिंगार सँकुचा गई, हरसिंगार की डार।।
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अलि के मिस गुंजारता, जैसे कोई संत।
केसरिया टेसू रँगा, झूमे मस्त बसंत।।   ०
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सियाराम जू सकल सुख, दायक शुभ-आगार।
मातु-पिता, भरता-सखा, गुरु हितु, बंधु उदार।।          ?
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शतरंगीं हो कल्पना, चटकीले नवचित्र।
रंगपंचमी आपको, सुखमय हो प्रिय मित्र!!                  ?
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सर सरोज प्रात:-प्रभा, विकसित; गत तम-रैन।
करुना पूरित ह्रदय हों, शील-सनेही नैन।।
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श्रीगोवर्धन की कृपा, कालिंदी- बृजधाम।
सानुकूल सब पर रहें, अनुदिन राधेश्याम।।
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बुद्धि चित्त विकृत भ्रमित, मन के पंथ हजार।
भटक-भटक थक गया, मन के मत संसार।।
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कड़ी धूप संसार की, करती दाहक घाव।
प्रभु-पद प्रीति प्रतीति की, देती शीतल छाँव।।
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यदि मन में उत्साह है, कठिन कौन सा काम?
समय साध लेता वही, जिसके हाथ लगाम।।
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माँ भगिनि बेटी वधू, पत्नी प्रिय अनूप।
धरा-रूप तू प्रेरणा, ज्योतिमयी अपरूप।।
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एक कश्मकश जिंदगी, अक्सर लेती मोड़।
प्राण-स्फुरित बीज में, कर लेती है होड़।।
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सूरज से सपने उठें, चढ़ें नित्य परवान।
प्रखर तेज का विश्व को, मिले पूर्ण अवदान।।
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कृपा शीतला की रहे, शीतलतम सद्भाव।
प्रकृति चाँदनी सदृश हो, चंदन सदय सुभाव।।
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सृष्टि-रूप जीवन सुरभि, नारी सृष्टि महान।
सर्जन-पालन कर विमल, दीप्त आत्म-सम्मान।।
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पेड़ी तक दिखती नहीं, बस ऊपर छतनार।
आम्रवल्लिका-मूल सा, फैला भ्रष्टाचार।।
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लील सड़क पुल इमारत, भरा न पापी पेट।
सब विकास की योजना, कीं उदरस्थ समेट।।
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इस भौतिक परिवेश ने, बदले बहुत विचार।
पला व्यवस्था में सघन, जड़ से भ्रष्टाचार।।
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उत्सव मधुर मरंद का, दो दिन खिला वसंत।
आना-जाना सतत है, आएँगे फिर कंत।।
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सुमन खिला सौरभ लुटा, सुरभित हुआ दिगंत।
बीज बना मुरझा गया, जीवन सतत अनंत।।
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विद्या; नारी; अवनि; लत; लतिका बिना विलंब।
आश्याय मिलता जो सहज, ले लेतीं अविलंब।।
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माता की अनुदिन कृपा, शुभप्रद नवल रसाल।
नव संवत्सर सुखद प्रिय, हो उद्देश्य विशाल।।
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चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा, वासंतिक नवरात।
मंगलदायक; विध सुयश, वर्धित; जग-विख्यात।।
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शिव प्रमोददा अंबिके, महागौरि शुभ रूप।
श्वेत वृषभ आरूढ़ शुचि, श्वेतांबरी स्वरूप।।
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शैलसुते! करुणा-कृपा, ममता तव विख्यात। 
तपस्विनी हे भगवती!, दया रूप साक्षात।।
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ब्रम्ह्चारिणी जगजननि!, महिमा अमित-अपार।
दृष्टि-क्षेप से माँ करें, भव-वारिधि निस्तार।।
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खट्टी-मीठी मन बसी, बचपन तेरी याद।
हाय! खो गई जिंदगी, कहाँ करें फरियाद??
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चंद्रहासवदनी सुमुखि, वर शार्दुल सवाल।
शुभदात्री, कात्यायनी, कर दानव संहार।।
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श्री राघव पद-कमल-रज, भक्त-प्राण; सुख-मूल।
मिले अहर्निशि, युगल प्रिय, सदा रहें अनुकूल।।
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कदम-कदम पर दर्द है, गम भी मिले तमाम।
नाहा, मगर मन लगा मत, यह संसार हमाम।।
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सुबह बहुत लगती भली, दिन भी है अभिराम।
हँस सूरज ढल जाएगा, जब आएगी शाम।।
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टर्र-टर्र करते बहुत, उचक रहे हैं भेक।
अज्ञों के ज्यों विविध मत, चलते पंथ अनेक।।
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मेघों ने झाँपा-ढँका,  कुम्हलाया है अर्क।
सूखा ज्ञान, विवेक को, संवृत किए कुतर्क।।
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शस्य-श्यामला धरा ने, पहने नव परिधान।
सर-सरि, क्यारी-खेत रस, गूंजे मंगल गान।। 
*
सन्मति के सम्मान में, है जग का भी मान।
गदराई बरसात जब, हरियाई है धान।।
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तापित मन को सींचती, अरमानों की धार।
आसमान का धरा पर, बरस रहा है प्यार।।
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सिझा-सिंका जीवन बहुत, पीड़ा की लौछार।
तन-मन शीतल कर रही, अब अमृत-बौछार।।
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झुके मेघ नव हर्षयुत, नाच रहा मन-मोर।
कल-कल करती सरि चली, क्यों सागर की ओर?
*
विरह-सँदेशा यक्ष की, पीड़ा पकड़ अछोर।
नभ में घन फिर गरजते, जाते हैं किस ओर।।
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धार पनीली या हुई, दुबली नदिया पीन।
व्याकुल सागर को चली, छिप डबरे की मीन।।
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विद्युत्-वल्ली कौंधती, रह-रह घन के बीच।
प्रगट ज्ञान की प्रभा ज्यों, छिपी लोक को सींच।। 
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छप्पर-छानी चू रहे, चैन नहीं दिन-रैन।
सावन-भादों की घटा, बरस रहे हैं नैन।।
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सर पर है छाया नहीं, बसा नहीं घर-द्वार।
वर्षा से फुटपाथ का, उजड़ गया संसार।।
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 प्राणिमात्र को सींचती, बही सुधा की धार।
हर्षित प्रकृति गा उठी, सहसा मेघ मल्हार।।
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रस संग्रह कर मत रखो, बाँटो सदय विशेष।
वर्षा के मिस प्रकृति ने, दिया यही संदेश।। 
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मूलों को रस, फूल-फल, पत्तों को गुण-संग।
मधुप! बाँटकर मैं चली, कल-कली-कली को रंग।।
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कृमि-कीटों के लिए है, वर्षा प्रलय-प्रहार।
आँसू में बह जाएगा, यह नश्वर संसार।।
*
मीन-पुंज तिरते सुखी, उड़ते मुदित विहंग।
प्रफुलित हुए प्रसून-कुल, मदिर डोलते भृंग।।
*
बिखर-बिखर कर कह रहा, बुद-बुद जगत असार।
मस्ती में मन मत्त क्यों, रहना है दिन चार।।
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छिटक फुहारें मारता, पिए हुए ज्यों भंग।
आश्विन लगते मेघ के, बदल गए यों ढंग।।
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पचरंगी पोशाक में डाली-डाली डोल।
सुमन-हास पर बिक गया, तितली मन अनमोल।।
*
रस्सी पूरी जल गई, गयी न अब तक ऐंठ।
जिव्हा अक्सर फिसलती, मंच-मंच घुस-पैठ।।
*
गाँव-गाँव पीड़ा बसी, गली-गली संत्रास।
शहर-शहर आतंक है, नयन-नयन में प्यास।।
*
भाषण के बाज़ार में, आश्वासन का माल।
कटुक करेला चढ़ गया, हरी नीम के डाल।।
*
सबकी गति है एक सी, चलते एक लकीर।
चाहे हों कितने बड़े, रजा रंक फ़कीर।। 
*
पीस रही है चक्रिका, प्रतिपल सब संसार।
कभी बाँधता जग ह्रदय, लगता कभी असार।।
*
सत बँधा; बेबस पड़ा, सहता है अपमान।
चौराहे पर खड़ा हो. अनृत बघारे ज्ञान।।
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खेतों में जगता कृषक, सीमा जगे जवान।
पुलिस जागती रात-दिन, तब जगता ईमान।।
*
धन्य वही जीवन-जगत, धन्य वही विश्वास। 
निष्ठां वेदी में सतत, हवन कर रहा श्वास।।
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पल-पल सेवा समर्पण, बंधा कर्म के पाश।
तत्पर जो कर्तव्य में, उसे कहाँ अवकाश?
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कितने कारण ढूँढ नित, भारत करते बंद।
सुगति-प्रगति-सन्मति रूँधी नए-नए छल-छंद।।
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करना है यदि बंद तो, बंद करें विश्राम।
दर्ज करें प्ररोध निज, कर-कर शत-गुण काम।।    
*
 मानवता सुखदा जननि, बेटी कला नवीन।
सुरुचि; सुसंस्कृति; सभ्यता, सकल कला आधीन।।
*
बढ़ा प्रदुषण निगलता, जीवन छोर-अछोर।
आसमान धुँधला हुआ, दुपहर लगती भोर।।
*
धरती धरणि वसुंधरा, नित्य नवल श्रृंगार।
धरा नाम सार्थक करे, धर जीवन का भार।।
*
ज्ञानीजन कहते यही, स्वप्न मात्र संसार।
मिट जाएगा एक दिन, रहना बस दिन चार।।
*
झरना या विगलित बहा, धरणी-ह्रदय अमर्ष।
भावों का उत्कर्ष या, निर्झर झरता हर्ष।।
*
चंदा है अंगार सा, त्रासद यमुना-नीर।
मधुवन-विषधर डँसे सखी, पीर हुई बेपीर।।
*
बुनते जीवन में सुघर, पल-छीन अनगिन रंग।
रंग श्याम है यदि नहीं, सभी रंग बेरंग।।
*
राखी बहिना भेजती, बिरना कर मनुहार।
नेही रक्षासूत्र घन!, वचन; नहीं उपहार।।
*
फूलों का सत्संग पा, व्यस्त मधुप आसक्त।
गुन-गुन की धुन में मगन, रस-पराग अनुरक्त।।
*
कितना सुंदर है भला, बचपन का संसार।
नानी-दादी की कथा, कुट्टी-मिट्ठी प्यार।।
*
रवि तनया स्मृति नवल, सुख-दुःख दोनों तीर।
वेणु-क्रिया; वट-धैर्य; मन, कान्हा जीवन-नीर।।
*
दाँव; जुआँ; फल; जिंदगी, वर; बंधन; छल; घात।
आतप; वर्षा; बुलबुला; तारा; बूँद; प्रभात।।
*
संकटमोचन महाप्रभु, शास्वत; चेतन-रूप।
सहज ज्ञान-विज्ञानमय, हनुमत! अम्ल; अनूप।।
*
अरुणा-प्राची में उदित, नव शशिकला अमंद।
लय अनुसारिणी अथच ज्यों, प्रथम अनुष्टुप छंद।। 
*
ज्यों मधु-सरि में कमलिनी, बिंबित मुख-मुस्कान।
विद्रूप-सीपी में अलस, उषा-रश्मि अम्लान।।
*
श्वास और प्रश्वास का, जब तक है व्यापार।
गत-आगत सब कुछ करो, स्वीकृत जगदाधार।।
*
नदी; घाट; नद-तट हुआ, जीवन का उद्घोष।
कूल; कछारों; कुञ्ज में, लुटे ज्ञान के कोष।।
*
गाते-हँसते चल पड़ा, जीवन नदिया-तीर।
सरिते! सरस-सुरम्य हर, पीर समीर अधीर।।
*
बम की भाषा बोलते, आतंकी गद्दार।
लोहू पीने के लिए, राक्षस हैं तैयार।। 
*
कीट-पतंगे खा करे, गौरैया निस्तार।
चूँ-चूँ करती चहकती, घर-आँगन गुलजार।।
*
बर्बरता लज्जित करें, नवयुग के नव हूण। 
जन्म-पूर्व ही गर्भ में, मार डालते भ्रूण।।
*
धक्के जनता खा रही, प्रतिनिधि जाते भूल।
बहुधा वादों पर पडी, देखी नौ मन धूल।।
*
बघेली दोहे
गोली सगलै दुःख हरै, कबौ न करे हरास।
या कविता के लच्छमी, होय न सबके पास।।
*
जात ऊँच ता होय का, करैं घिनउहाँ काम।
मूँड़ उचाये चलि रहें, गली-खोर बदनाम।।
*
उमिर चार दिन के हियाँ, रेन बसेरा आय।
चिरई जब उड़ि जाए ता, धरा हिमैं रहि जाय।।
*
बीछी सें ही सौ गुना, जीभ बिक्ख के आय।
कोहू का जो छूऐं ईं, अइंठ-अइंठ रहि जाय।।
*
मुँह बिचकामैं देखि के, कइके इरखा-द्वेस।
पामैं बड़मनसी कहूँ, इनका होम कलेस।।
*
सत्ता के सतरंज मा, राजनीति के गोट।
अँधरै आँधर खेलि के, खूब बटोरें नोट।।
*
कनिहाँ टूटै देत माँ, लेत नहीं परहेज।
फइला कोढ़ समाज के, घिनहाँ बहुत सहेज।।
***

shri shri chintan: 3 adaten

श्री श्री चिंतन: 3
आदतें
*
30.7.1995, ब्रुकफील्ड, कनेक्टीकट, अमेरिका
*
आदत हो या वासना, जकड़ें देतीं कष्ट।
तुम छोड़ो वे पकड़कर, करती सदा अनिष्ट।।
*
जीवन चाहे मुक्त हो, किंतु न जाने राह।
शत जन्मों तक भटकती, आत्मा पाले चाह।।
*
छुटकारा दें आदतें, करो सुदृढ़ संकल्प।
जीवन शक्ति दिशा गहे, संयम का न विकल्प।।
*
फिक्र व्यर्थ है लतों की, वापिस लेती घेर।
आत्मग्लानि दोषी बना, करे हौसला ढेर।।
*
लत छोड़ो; संयम रखो, मिले रोग से मुक्ति।
संयम अति को रोकना, सुख से हो संयुक्ति।।
*
समय-जगह का ध्यान रख, समयबद्ध संकल्प।
करो; निभाकर सफल हो, शंका रखो न अल्प।।
*
आजीवन संकल्प मत, करो- न होता पूर्ण।
टूटे याद संकल्प फिर, करो- न रहे अपूर्ण।।
*
अल्प समय की वृद्धि कर, करना नित्य निभाव।
बंधन में लत बाँधकर, जय लो बना स्वभाव।।
*
लत न तज सके तो तुम्हें, हो तकलीफ अपार।
पीड़ाएँ लत छुड़ा दें, साधक वक् सुधार।।
13.4.2018
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दोहा सलिला

दोहा सलिला
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क्या-क्यों राधा-भाव है?, कैसे हो अनुमान?
आप आप को भूलकर, आप बनेंं श्रीेमान।।
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आगम-निगम; पुराण हैं, विश्व ग्यान के कोष।
जो अवगाहे तृप्त हो, मिले आत्म-संतोष।।
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रंजन करे विवेक जब,  भू पर आ अमरेन्द्र।
सँग सुरेश के श्रवणकर, चाहें हों ग्यानेंद्र।।
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सुमन-सुरभि सम शब्द में, अर्थ निहित हो आप।
हो विदग्ध उर,  प्रफुल्लित, प्रतुल  भाव परिमाप।।
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आ अवधेश ब्रजेश संग, राधा-गीता मौन।
मन मथ मन्मथ से कहें, कह प्रवीण है कौन?
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कल से कल तक निनादित, कलकल ध्वनि कल-कोष।
पल-पल जुड़कर काल हो, अमर आज कर घोष।।
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कला न कल हो जड़ बने,  श्रुति-स्मृति मत भूल।
बेकल-विकल न हो अकल,  अ-कल न हो शिव-शूल।।
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सूक्ष्म-वृहद रजकण निहित, गिरि गोवर्धन रूप।
रास-लास जीवन-मरण,  दे-पा भिक्षुक-भूप।।
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कृष्ण-कांत राधा प्रभा, वाक् और अनुवाक्।
प्रथा चिरंतन-सनातन, छंद छपाक्-छपाक्।।
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28.4.2018

श्री श्री चिंतन 3: दोहा गुंजन

श्री श्री चिंतन: 3
आदतें
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30.7.1995, ब्रुकफील्ड,  कनेक्टीकट,  अमेरिका
आदत हो या वासना,  जकड़ें देतीं कष्ट।
तुम छोड़ो वे पकड़कर,  करती सदा अनिष्ट।।
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जीवन चाहे मुक्त हो,  किंतु न जाने राह।
शत जन्मों तक भटकती,  आत्मा पाले चाह।।
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छुटकारा दें आदतें,  करो सुदृढ़ संकल्प।
जीवन शक्ति दिशा गहे, संयम का न विकल्प।।
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फिक्र व्यर्थ है लतों की, वापिस लेती घेर।
आत्मग्लानि दोषी बना,  करे हौसला ढेर।।
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लत छोड़ो; संयम रखो,  मिले रोग से मुक्ति।
संयम अति को रोकना,  सुख से हो संयुक्ति।।
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समय-जगह का ध्यान रख,  समयबद्ध संकल्प।
करो; निभाकर सफल हो, शंका रखो न अल्प।।
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आजीवन संकल्प मत, करो- न होता पूर्ण।
टूटे याद संकल्प फिर, करो- न रहे अपूर्ण।।
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अल्प समय की वृद्धि कर,  करना नित्य निभाव।
बंधन में लत बाँधकर,  जय लो बना स्वभाव।।
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लत न तज सके तो तुम्हें,  हो तकलीफ अपार।
पीड़ाएँ लत छुड़ा दें,  साधक वक् सुधार।।
13.4.2018
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शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

स्मरण महीयसी महादेवी जी १

गूगल द्वारा पूज्य बुआश्री महादेवी जी वर्मा की याद
Celebrating Mahadevi Varma

स्मरण महीयसी महादेवी जी: १ 
संवाद शैली में संस्मरणात्मक लघुकथा:
(इन्हें लघु नाट्य की तरह अभिनीत भी किया जा सकता है)
१. राह 
'चलो।'
"कहाँ।"
'गृहस्थी बसाने।'
"गृहस्थी आप बसाइए, लेकिन मैं नहीं चल सकती?" 
'तुम्हारे बिना गृहस्थी कैसे बस सकती है? तुम्हारे साथ ही तो बसाना है। मैं विदेश में कई वर्षों तक रहकर पढ़ता रहा हूँ लेकिन मैंने कभी किसी की ओर  आँख उठाकर भी नहीं देखा।'
"यह क्या कह रहे हैं? ऐसा कुछ तो मैंने  आपके बारे में सोचा भी नहीं।"
'फिर क्या कठिनाई है? मैं जानता हूँ तुम साहित्य सेवा, महिला शिक्षा, बापू के सत्याग्रह और न जाने किन-किन आंदोलनों से जुड़ चुकी हो। विश्वास करो तुम्हारे किसी काम में कोई बाधा न आएगी। मैं खुद तुम्हारे सब कामों से जुड़कर सहयोग करूँगा।'
"मुझे आप पर पूरा भरोसा है, कह सकती हूँ खुद से भी अधिक, लेकिन मैं गृहस्थी बसने के लिए चल नहीं सकती।"
'समझा, तुम निश्चिन्त रहो। घर के बड़े-बूढ़े कोई भी तुम्हें घर के रीति-रिवाज़ मानने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, तुम्हें पर्दा-घूँघट नहीं करना होगा। मैं सबसे बात कर, सहमति लेकर ही आया हूँ।'
"अरे बाप रे! आपने क्या-क्या कर लिया? अच्छा होता सबसे पहले मुझसे ही पूछ लेते, तो इतना सब नहीं करना पड़ता।, यह सब व्यर्थ हो गया क्योंकि मैं तो गृहस्थी नहीं बसा सकती।"
'ओफ्फोह! मैं भी पढ़ा-लिखा बेवकूफ हूँ, डॉक्टर होकर भी नहीं समझा, कोई शारीरिक बाधा है तो भी चिंता न करो। तुम जैसा चाहोगी इलाज करा लेंगे, जब तक तुम स्वस्थ न हो जाओ और तुम्हारा मन न हो मैं तुम्हें कोई संबंध बनाने के लिए नहीं कहूँगा।'
"इसका भी मुझे भरोसा है। इस कलियुग में ऐसा भी आदमी होता है, कौन मानेगा?"
'कोई न जाने और न माने, मुझे किसी को मनवाना भी नहीं है, तुम्हारे अलावा।'
"लेकिन मैं तो यह सब मानकर भी गृहस्थी के लिए नहीं मान सकती।"
'अब तुम्हीं बताओ, ऐसा क्या करूँ जो तुम मान जाओ और गृहस्थी बसा सको। तुम जो भी कहोगी मैं करने के लिए तैयार हूँ।'
"ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं करने के लिए कहूँ।"
'हो सकता है तुम्हें विवाह का स्मरण न हो, तब हम नन्हें बच्चे ही तो थे। ऐसा करो हम दुबारा विवाह कर लेते हैं, जिस पद्धति से तुम कहो उससे, तब को तुम्हें कोई आपत्ति न होगी?'
"यह भी नहीं हो सकता, जब आप विदेश में रहकर पढ़ाई कर रहे थे तभी मैंने सन्यास ले लिया था। सन्यासिनी गृहस्थ कैसे हो सकती है?"
'लेकिन यह तो गलत हुआ, तुम मेरी विवाहिता पत्नी हो, किसी भी धर्म में पति-पत्नी दोनों की सहमति के बिना उनमें से कोई एक या दोनों को  संन्यास नहीं दिया जा सकता। चलो, अपने गुरु जी से भी पूछ लो।'
" चलने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप ठीक कह रहे हैं लेकिन मैं जानती हूँ कि आप मेरी हर इच्छा का मान रखेंगे इसी भरोसे तो गुरु जी को कह पाई कि मेरी इच्छा में आपकी सहमती है। अब आप मेरा भरोसा तो नहीं तोड़ेंगे यह भी जानती हूँ।"
'अब क्या कहूँ? क्या करूँ? तुम तो मेरे लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ रहीं।'
"रास्ता ही तो छोड़ रही हूँ। मैं सन्यासिनी हूँ, मेरे लिए गृहस्थी की बात सोचना भी कर्तव्य से च्युत होने की तरह है। किसी पुरुष से एकांत में बात करना भी वर्जित है लेकिन तुम्हें कैसे मना कर सकती हूँ? मैं नियम भंग का प्रायश्चित्य का लूँगी।"
'ऐसा करो हम पति-पत्नी की तरह न सही, सहयोगियों की तरह तो रह ही सकते हैं, जैसे श्री श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा रहे थे।'
"आपके तर्क भी अनंत हैं। वे महापुरुष थे, हम सामान्य जन हैं, कितने लोकापवाद होंगे? सोचा भी है?"
'नहीं सोचा और सच कहूँ तो मुझे सिवा तुम्हारे किसी के विषय में सोचना भी नहीं है।'
"लेकिन मुझे तो सोचना है, सबके बारे में। मैं तुम्हारे भरोसे सन्यासिनी तो हो गयी लेकिन अपनी सासू माँ को उनकी वंश बेल बढ़ते देखने से भी अकारण वंचित कर दूँ तो क्या विधाता मुझे क्षमा करेगा? विधाता की छोड़ भी दूँ तो मेरा अपना मन मुझे कटघरे में खड़ा कर जीने न देगा। जो हो चुका उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। विधि के विधान पर न मेरा वश है न आपका। चलिए, हम दोनों इस सत्य को स्वीकार करें। आपको विवाह बंधन से मैंने उसी क्षण मुक्त कर दिया था, जब सन्यास लेने की बात सोची थी। आप अपने बड़ों को पूरी बात बता दें, जहाँ चाहें वहाँ विवाह करें। मैं बडभागी हूँ जो आपके जैसे व्यक्ति से सम्बन्ध जुड़ा। अपने मन पर किसी तरह का बोझ न रखें।"
'तुम तो चट्टान की तरह हो, हिमालय सी, मैं खुद को तुम्हरी छाया से भी कम आँक रहा हूँ। ठीक है, तुम्हारी ही बात रहे। तुम प्रायश्चित्य करो, मैंने तुमसे तुम्हारा नियम भंग कर बात की, दोषी हूँ, इसलिए मैं भी प्रायश्चित्य करूँगा। सन्यासिनी को शेष सांसारिक चिंताएँ नहीं करना चाहिए। तुम जब जहाँ जो भी करो उसमें मेरी पूरी सहमति मानना। जिस तरह तुमने सन्यास का निर्णय मेरे भरोसे लिया उसी तरह मैं भी तुम्हारे भरोसे इस अनबँधे बंधन को निभाता रहूँगा। कभी तुम्हारा या मेरा मन हो या आकस्मिक रूप से हम कहीं एक साथ पहुँचें तो तुमसे बात करने में या कभी आवश्यकता पर सहायता लेने से तुम खुद को नहीं रोकोगी, मुझे खबर करोगी तुमसे बिना पूछे यह विश्वास लेकर जा रहा हूँ। तुम यह विश्वास न तो तोड़ सकोगी, न मन कर सकोगी।' 
और दोनों ने एक दूसरे को नमस्ते कर पकड़ ली अपनी-अपनी राह। 
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चलभाष: ०७६९९९५५९६१८ ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com