दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
नवगीत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
नवगीत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सोमवार, 3 नवंबर 2025
नवंबर ३, दिया, दिवाली, दोहा, नवगीत, गजल, मुक्तक
सलिल सृजन नवंबर ३
0
ग़ज़ल
काफ़िया -आब
रदीफ़ -होना था
वज़्न -२१२२-१२१२-२२
*
शूल पाए, गुलाब होना था
रात सोएँ न, ख्वाब होना था
.
हाथ लें थाम तो पढ़ें नैना
खत नहीं तो किताब होना था
.
ताकते रोज हम लगा चक्कर
आपको माहताब होना था
.
आँख हो आइना सवाल करे
हुस्न को मिल जवाब होना था
.
साथ देखे अनेक सपने हैं
एक ताबीर ख्वाब होना था
.
ज़िंदगी ने सवाल सौ पूछे
बंदगी इक जवाब होना था
.
आपने नाम ले लिया मेरा
कुछ न कुछ तो हिसाब होना था
.
आज संजीव हो गया नगमा
यों मुझे कामयाब होना था
३.११.२०२५
०००
दोहा दिवाली
*
मृदा नीर श्रम कुशलता, स्वेद गढ़े आकार।
बाती डूबे स्नेह में, ज्योति हरे अँधियार।।
*
तम से मत कर नेह तू, झटपट जाए लील।
पवन झँकोरों से न डर, जल बनकर कंदील।।
*
संसद में बम फूटते, चलें सभा में बाण।
इंटरव्यू में फुलझड़ी, सत्ता में हैं प्राण।।
*
पति तज गणपति सँग पुजें, लछमी से पढ़ पाठ।
बाँह-चाह में दो रखे, नारी के हैं ठाठ।।
*
रिद्धि-सिद्धि, हरि की सुने, कोई न जग में पीर।
छोड़ गए साथी धरें, कैसे कहिए धीर।।
***
नवगीत
दर्द
*
दर्द होता है
मगर
चुपचाप सहता।
*
पीर नदियों की
सुनाते घाट देखे।
मंज़िलों का दर्द
कहते ठाठ लेखे।
शूल पैरों को चुभे
कितने, कहाँ, कब?
मौन बढ़ता कदम
चुप रह
नहीं कहता?
*
चूड़ियों की कथा
पायल ने कही है।
अचकनों की व्यथा
अनसुन ही रही है।
मर्द को हो दर्द
जग कहता, न होता
शिला निष्ठुर मौन
झरना
पीर तहता।
*
धूप को सब चाहते
सूरज न भाता।
माँग भर सिंदूर
अनदेखा लजाता।
सौंप देता गृहस्थी
लेता न कुछ भी
उठाता नखरे
उपेक्षित
नित्य दहता।
३.११.२०१८
***
दोहा
सदा रहें समभाव से, सभी अपेक्षा त्याग.
भुला उपेक्षा दें तुरत, बना रहे अनुराग.
३-११-२०१७
***
कार्यशाला
मुक्तक लिखें
आज की पंक्ति 'हुई है भीड़ क्यों?'
*
उदाहरण-
आज की पंक्ति हुई है भीड़ क्यों?
तोड़ती चिड़िया स्वयं ही नीड़ क्यों?
जी रही 'लिव इन रिलेशन' खुद सुता
मायके की उठे मन में हीड़ क्यों?
(हीड़ = याद)
*
आज की पंक्ति हुई है भीड़ क्यों, यह कौन जाने?
समय है बेढब, न सच्ची बात कोई सुने-माने
कल्पना का क्या कभी आकाश, भू छूती कभी है
प्रेरणा पा समुन्दर से 'सलिल' बहना ध्येय ठाने
३-११-२०१६
***
नवगीत :
*
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
.
बीज न बोता
और चाहता फसल मिले
नीर न नयनों में
कैसे मन-कमल खिले
अंगारों से जला
हथेली-तलवा भी
क्या होती है
तपिश तभी तो पता चले
छाया-बैठा व्यर्थ
धूप को कोस रहा
घूरे सूरज को
चकराकर आँख मले
लौटना था तो
तूने माँगा क्यों था?
जनगण-मन से दूर
आप को आप छले
ईंट जोड़ना
है तो खुद
को रेती कर
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
.
गधे-गधे से
मिल ढेंचू-ढेंचू बोले
शेर दहाड़ा
'फेंकू' कह दागें गोले
कूड़ा-करकट मिल
सज्जित हो माँग भरें
फिर तलाक माँगें
कहते हम हैं भोले
सौ चूहे खा
बिल्ली करवाचौथ करे
दस्यु-चोर ईमान
बाँट बिन निज तौले
घास-फूस की
छानी तले छिपाए सिर
फूँक मारकर
जला रहे नाहक शोले
ऊसर से
फल पाने
खुद को गेंती कर
गोड-बखर
धरती पहले
फिर खेती कर
३.११.२०१५
...
पुस्तक सलिला –
‘मेरी प्रिय कथाएँ’ पारिवारिक विघटन की व्यथाएँ
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – मेरी प्रिय कथाएँ, स्वाति तिवारी, कहानी संग्रह, प्रथम संस्करण २०१४, ISBN९७८-८३-८२००९-४९-८, आकार २२ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द, पृष्ठ १३२, मूल्य २४९/-, ज्योतिपर्व प्रकाशन, ९९ ज्ञान खंड ३, इंदिरापुरम, गाज़ियाबाद २०१०१२, दूरभाष९८११७२११४७, कहानीकार सम्पर्क ई एन १ / ९ चार इमली भोपाल, चलभाष ९४२४०११३३४ stswatitiwari@gmail.com ]
*
स्वाति तिवारी लिखित २० सामयिक कहानियों का संग्रह ‘मेरी प्रिय कथाएँ’ की कहानियाँ प्रथम दृष्टया ‘स्त्री विमर्शात्मक’ प्रतीत होने पर भी वस्तुत: पारिवारिक विघटन की व्यथा कथाएँ हैं. परिवार का केंद्र सामान्यत: ‘स्त्री’ और परिधि ‘पुरुष’ होते हैं जिन्हें ‘गृह स्वामिनी’ और गृह स्वामी’ अथवा ‘लाज और ‘मर्यादा कहा जाता है. कहानी किसी केन्द्रीय घटना या विचार पर आधृत होती है इसलिए बहुधा नारी पात्र और उनके साथ हुई घटनाओं का वर्णन इन्हें स्त्रीप्रधान बनाता है. स्वाति बढ़ाई की पात्र इसलिए हैं कि ये कहानियाँ ‘स्त्री’ को केंद्र में रखकर उसकी समस्याओं का विचारण करते हुए भी कहीं एकांगी, अश्लील या वीभत्स नहीं हैं, पीड़ा की गहनता शब्दित करने के लिए उन्हें पुरुष को नाहक कटघरे में खड़ा करने की जरूरत नहीं होती. वे सहज भाव से जहाँ-जितना उपयुक्त है उतना ही उल्लेख करती हैं. इन कहानियों का वैशिष्ट्य संश्लिष्ट कथासूत्रता है.
अत्याधुनिकता के व्याल-जाल से पाठकों को सचेष्ट करती ये कहानियाँ परिवार की इकाई को परोक्षत: अपरिहार्य मानती-कहती ही सामाजिककता और वैयक्तिकता को एक-दूसरे का पर्याय पति हैं. यह सनातन सत्य है की समग्रत: न तो पुरुष आततायी है, न स्त्री कुलटा है. दोनों में व्यक्ति विशेष अथवा प्रसंग विशेष में व्यक्ति कदाचरण का निमित्त या दोषी होता है. घटनाओं का सामान्यीकरण बहुधा विवेचना को एकांगी बना देता है. स्वाति इससे बच सकी हैं. वे स्त्री की पैरोकारी करते हुए पुरुष को लांछित नहीं करतीं.
प्रथम कहानी ‘स्त्री मुक्ति का यूटोपिया’ की नायिका के माध्यम से तथाकथित स्त्री-मुक्ति अवधारणा की दिशाहीनता को प्रश्नित करती कहानीकार ‘स्त्री मुक्ति को दैहिक संबंधों की आज़ादी मानने की कुधारणा’ पर प्रश्न चिन्ह लगाती है.
‘रिश्तों के कई रंग’ में ‘लिव इन’ में पनपती अवसरवादिता और दमित होता प्रेम, ‘मृगतृष्णा’ में संबंध टूटने के बाद का मन-मंथन, ‘आजकल’ में अविवाहित दाहिक सम्बन्ध और उससे उत्पन्न सन्तति को सामाजिक स्वीकृति, ‘बंद मुट्ठी’ में आत्मसम्मान के प्रति सचेष्ट माँ और अनुत्तरदायी पुत्र, ‘एक फलसफा जिंदगी’ में सुभद्रा के बहाने पैसे के लिए विवाह को माध्यम बनाने की दुष्प्रवृत्ति, ‘बूँद गुलाब जल की’ में पारिवारिक शोषण की शिकार विमला पाठकों के लिए कई प्रश्न छोड़ जाती हैं. विधवा विमला में बलात गर्भवती कर बेटा ले लेनेवाले परिवार के प्रति विरोधभाव का न होना और सुभद्रा और शीरीन में अति व्यक्तिवाद नारी जीवन की दो अतिरेकी किन्तु यथार्थ प्रवृत्तियाँ हैं.
‘अस्तित्व के लिए’ संग्रह की मार्मिक कथा है जिसमें पुत्रमोह की कुप्रथा को कटघरे में लाया गया है. मृत जन्मी बेटी की तुलना अभिमन्यु से किया जाना अप्रासंगिक प्रतीत होता है ‘गुलाबी ओढ़नी’ की बुआ का सती बनने से बचने के लिए ससुराल छोड़ना, विधवा सुंदर नन्द को समाज से बहाने के लिए भाभी का कठोर होना और फिर अपनी पुत्री का कन्यादान करना परिवार की महत्ता दर्शाती सार्थक कहानी है.
‘सच तो यह है कि आज फैक्ट और फिक्शन में कोई फर्क नहीं रह गया है- हम एक खबर की तरह हो गए हैं’, एक ताज़ा खबर कहानी का यह संवाद कैंसरग्रस्त पत्नी से मुक्तिचाहते स्वार्थी पति के माध्यम से समाज को सचेत करती है. ‘अचार’ कहानी दो पिरियों के बीच भावनात्मक जुड़ाव का सरस आख्यान है. ‘आजकल मैं बिलकुल अम्मा जैसी होती जा रही हूँ. उम्र का एक दौर ऐसा भी आता है जब हम ‘हम’ नहीं रहते, अपने माता-पिता की तरह लगने लगते हैं, वैसा ही सोचने लगते हैं’. यह अनुभव हर पाठक का है जिसे स्वाति जी का कहानीकार बयां करता है.
‘ऋतुचक्र’ कहानी पुत्र के प्रति माँ के अंध मोह पर केन्द्रित है. ‘उत्तराधिकारी’ का नाटकीय घटनाक्रम ठाकुर की मौत के बाद, नौकर की पत्नी से बलात-अवैध संबंध कर उत्पन्न पुत्र को विधवा ठकुरानी द्वारा अपनाने पर समाप्त होता है किन्तु कई अनसुलझे सवाल छोड़ जाता है. ‘बैंगनी फूलोंवाला पेड़’ प्रेम की सनातनता पर केन्द्रित है. ‘सदियों से एक ही लड़का है, एक ही लड़की है, एक ही पेड़ है. दोनों वहीं मिलते हैं, बस नाम बदल जाते हैं और फूलों के रंग भी. कहानी वही होती है. किस्से वही होते हैं.’ साधारण प्रतीत होता यह संवाद कहानी में गुंथकर पाठक के मर्म को स्पर्श करता है. यही स्वाति की कलम का जादू है.
‘मुट्ठी में बंद चाकलेट’ पीटीआई के प्रति समर्पित किन्तु प्रेमी की स्मृतियों से जुडी नायिका के मानसिक अंतर्द्वंद को विश्लेषित करती है. ‘मलय और शेखर मेरे जीवन के दो किनारे बनकर रह गए और मैं दोनों के बीच नदी की तरह बहती रही जो किसी भी किनारे को छोड़े तो उसे स्वयं सिमटना होगा. अपने अस्तित्व को मिटाकर, क्या नदी किसी एक किनारे में सिमट कर नदी रह पाई है.’ भाषिक और वैचारिक संयम की तनिक सी चूक इस कहानी का सौन्दर्य नाश कर सकती है किन्तु कहानीकार ऐसे खतरे लेने और सफल होने में कुशल है. ‘एक और भीष्म प्रतिज्ञा’ में नारी के के प्रेम को निजी स्वार्थवश नारी ही असफल बनाती है. ‘स्वयं से किया गया वादा’ में बहु के आने पर बेटे के जीवन में अपने स्थान को लेकर संशयग्रस्त माँ की मन:स्थिति का वर्णन है. ‘चेंज यानी बदलाव’ की नायिका पति द्वारा विव्हेटर संबंध बनने पर उसे छोड़ खुद पैरों पर खड़ा हो दूसरा विवाह कर सब सुख पति है जबकि पति का जीवन बिखर कर रह जाता है. ‘भाग्यवती’ कैशौर्य के प्रेमी को माँ के प्रति कर्तव्य की याद दिलानेवाली नायिका की बोधकथा है. ‘नौटंकीवाली’ की नायिका किशोरावस्था के आकर्षण में भटककर जिंदगीभर की पीड़ा भोगती है किन्तु अंत तक अपने स्वजनों की चिंता करती है. कहानी के अंत का संवाद ‘सुनो, गाँव जाओ तो किसी से मत कहना’ अमर कथाकार सुदर्शन के बाबा भारती की याद दिलाता है जब वे दस्यु द्वारा छलपूर्वक घोडा हथियाने पर किसी से न कहने का आग्रह करते हैं.
स्वाति संवेदनशील कहानीकार है. उनकी कहानियों को पढ़ने-समझने के लिए पाठक का सजग और संवेदशील होना आवश्यक है. वे शब्दों का अपव्यय नहीं करती. जितना और जिस तरह कहना जरूरी है उतना और उसी तरह कह पाती न. उनके पात्र न तो परंपरा के आगे सर झुकाते हैं, न लक्ष्यहीन विद्रोह करते हैं. वे सामान्य बुद्धिमान मनुष्य की तरह आचरण करते हुए जीवन का सामना करते हैं. ये कहानियों पाठक के साथ नवोदित कहानिकारें के सम्मुख भी एक प्रादर्श की तरह उपस्थित होती हैं. स्वाति सूत्रबद्ध लेखन में नहीं उन्मुक्त शब्दांकन में विश्वास रखती है. उनका समग्रतापरक चिंतन कहानियों को सहज ग्राह्य बनाता है. पाठक उनके अगले कहानी संग्रह की प्रतीक्षा करेंगे ही.
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४, दूरडाक – salil.sanjiv@gmail.com
***
कविता:
दिया १
*
सारी ज़िन्दगी
तिल-तिल कर जला.
फिर भर्र कभी
हाथों को नहीं मला.
होठों को नहीं सिला.
न किया शिकवा गिला.
आख़िरी साँस तक
अँधेरे को पिया
इसी लिये तो मरकर भी
अमर हुआ
मिट्टी का दिया.
*
दिया २
राजनीति का
लोकतंत्र के
मेंढक को खा रहा है.
भोली-भाली जनता को
ललचा-धमका रहा है.
जब तक जनता
मूक होकर सहे जाएगी.
स्वार्थों की भैंस
लोकतंत्र का खेत चरे जाएगी..
एकता की लाठी ले
भैंस को भागो अब.
बहुत अँधेरा देखा
दिया एक जलाओ अब..
३-११-२०१०
***
गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025
अक्टूबर ३०, सॉनेट, भारत आरती, लघुकथा, नवगीत, त्रिभंगी छंद,
सलिल सृजन अक्टूबर ३०
*
कविता
काश कभी
०
श्वास धरा पर
आस गगन ने
सपनों की बरखा की।
त्रास-पीर दे
कभी धीर दे
अपनों ने साक्षी दी।
जब जो पाया
पड़ा न पूरा
थका ईश्वर देकर।
मंदिर-मस्जिद-
गुरुद्वारे जा
रुके नहीं हम लेकर।
इसको मारें
उसको पीटें
सब कुछ सबसे छीनें।
लिए खजाना
हम कुबेर का
सीप न छोड़ें, बीनें।
महाशक्ति कम
खुद को कहते
पल-पल हैं आशंकित।
महाबली हैं
मन भ्रम पाले
सदा अशुभ से दंशित।
पटक रहे बम
तनिक नहीं गम
मनु को मनु ही मारे।
दसों दिशाएँ
देख रही हैं
किसको कौन उबारे।
ईश्वर ईसा
अल्ला गुरु भी
समझा समझा हारे।
खुद ही खुद से
डरे हुए हम
क्रोध-द्वेष के मारे।
समय कभी तो
समय दिखाए
हम पाएँ डर जीत।
काश कभी तो
हो पाएँ हम
सब, हम सब के मीत।
३० अक्टूबर २०२५
०००
सॉनेट
रूप
*
करें वंदना मीत मिल
उषा काल की धूप हो
छाँव डिठौना या कि तिल।
मादक-मारक रूप की
कभी न बैठें छाँव में
संगत करिए सूप की
रह न पराई ठाँव में।
अंतर्मन न कुरूप हो
अमल विमल निर्मल रखें
रचना अगर अनूप हो
वाह वाह कहकर झुकें।
गर्व न दुख कर रूप पर
और न नकली रूप धर
३०.१०.२०२४
***
सॉनेट
भोर
*
भोर भई जागो रे भाई!
बिदा करो, अरविंद जा रहा।
सुनो प्रभाती, सूर्य आ रहा।।
प्राची पर छाई अरुणाई।।
गौरैया मुँडेर पर चहकी।
फल कुतरे झट झपट गिलहरी।
टिट् टिट् मिलती गले टिटहरी।।
फुलबगिया मुस्काई-महकी।।
चंपा पर रीझा है गेंदा।
जुही-चमेली लख सकुँचाई
सदा सुहागिन सोहे बेंदा।।
नेह नर्मदा कूद नहाएँ
चपल रश्मियाँ छप् छपाक् कर
सोनपरी हो लहर सिहाए।।
३०-१०-२०२२, ९•११
●●●
सॉनेट
बारिश तुम फिर
१.
बारिश तुम फिर रूठ गई हो।
तरस रहा जग होकर प्यासा।
दुबराया ज्यों शिशु अठमासा।।
मुरझाई हो ठूठ गई हो।।
कुएँ-बावली बिलकुल खाली।
नेह नर्मदा नीर नहीं है।
बेकल मन में धीर नहीं है।।
मुँह फेरे राधा-वनमाली।।
दादुर बैठे हैं मुँह सिलकर।
अंकुर मरते हैं तिल-तिलकर।
झींगुर संग नहीं हिल-मिलकर।
बीरबहूटी हुई लापता।
गर्मी सबको रही है सता।
जंगल काटे, मनुज की खता।।
*
२.
मान गई हो, बारिश तुम फिर।
सदा सुहागिन सी हरियाईं।
मेघ घटाएँ नाचें घिर-घिर।।
बरसीं मंद-मंद हर्षाईं।।
आसमान में बिजली चमकी।
मन भाई आधी घरवाली।
गिरी जोर से बिजली तड़की।।
भड़क हुई शोला घरवाली।।
तन्वंगी भीगी दिल मचले।
कनक कामिनी देह सुचिक्कन।
दृष्टि न ठहरे, मचले-फिसले।।
अनगिन सपने देखे साजन।।
सुलग गई हो बारिश तुम फिर।
पिघल गई हो बारिश तुम फिर।।
*
३.
क्रुद्ध हुई हो बारिश तुम फिर।
सघन अँधेरा आया घिर घिर।।
बरस रही हो, गरज-मचल कर।
ठाना रख दो थस-नहस कर।।
पर्वत ढहते, धरती कंपित।
नदियाँ उफनाई हो शापित।।
पवन हो गया क्या उन्मादित?
जीव-जंतु-मनु होते कंपित।।
प्रलय न लाओ, कहर न ढाओ।
रूद्र सुता हे! कुछ सुस्ताओ।।
थोड़ा हरषो, थोड़ा बरसो।
जीवन विकसे, थोड़ा सरसो।।
भ्रांत न हो हे बारिश! तुम फिर।
शांत रही हे बारिश! हँस फिर।।
३०-१०-२०२२
***
भारत आरती
*
आरती भारत माता की
पुण्य भू जग विख्याता की
*
सूर्य ऊषा वंदन करते
चाँदनी चाँद नमन करते
सितारे गगन कीर्ति गाते
पवन यश दस दिश गुंजाते
देवगण पुलक, कर रहे तिलक
ब्रह्म हरि शिव उद्गाता की
आरती भारत माता की
*
हिमालय मुकुट शीश सोहे
चरण सागर पल पल धोए
नर्मदा कावेरी गंगा
ब्रह्मनद सिंधु करें चंगा
असुर सुर मानव त्राता की
आरती भारत माता की
*
करें शृंगार सकल मौसम
कहें मैं-तू मिलकर हों हम
ऋचाएँ कहें सनातन सच
सत्य-शिव-सुंदर कह-सुन रच
अगिन जनगण सुखदाता की
आरती भारत माता की
*
द्वीप जंबू छवि मनहारी
छटा आर्यावर्ती न्यारी
गोंडवाना है हिंदुस्तान
इंडिया भारत देश महान
जीव संजीव विधाता की
आरती भारत माता की
*
मिल अनल भू नभ पवन सलिल
रचें सब सृष्टि रहें अविचल
अगिन पंछी करते कलरव
कृषक श्रम कर वरते वैभव
ज्ञान-सुख-शांति प्रदाता की
आरती भारत माता की
३०-१०-२०२०
***
लघुकथा
कौन जाने कब?
*
'बब्बा! भाग्य बड़ा होता है या कर्म?' पोते ने पूछा।
''बेटा! दोनों का अपना-अपना महत्व है, दोनों में से किसी एक को बड़ा और दूसरे को छोटा नहीं कहा जा सकता।''
'दोनों की जरूरत ही क्या है? क्या एक से काम नहीं चल सकता?'
''तुम्हारे पापा-मम्मी का बैंक में लॉकर है न?''
'हाँ, है।'
''लॉकर की क्या जरूरत है?''
'मम्मी ने बताया था कि घर में रखने से कीमती सामान की चोरी हो सकती है। इसलिए बैंक में सुरक्षित स्थान लेकर वहाँ कीमती सामान रखते हैं।'
'' शाबाश! लॉकर की चाबी किसके पास होती हैं?''
'पापा से पूछा था मैंने। पापा ने बताया कि लॉकर में दो ताले होते हैं। एक की चाबी बैंक के प्रबंधक तथा दूसरी की लॉकर खोलने वाले के पास होती है।'
''ऐसा क्यों?''
'क्या बब्बा! आपको कुछ भी नहीं मालूम क्या?, मैं आपसे पूछने आया था आप मुझसे ही पूछते जा रहे हो।'
''तुम इस सवाल का जवाब बताओ, फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा।''
'ठीक है, सवाल जरूर बताना। यह यह नहीं कि मुझसे पूछ लो और फिर मेरे सवाल का जवाब न बताओ।'
''नहीं, तुम्हारे सवाल का जवाब जरूर बताऊँगा।''
'ठीक है, फिर सुनों। मम्मी-पापा जब लॉकर खोलने जाते हैं, तब मैनेजर पहले अपनी चाबी लगाकर एक ताला खोलता है और चला जाता है, तब मम्मी-पापा अपनी चाबी से दूसरा ताला खोलकर सामान रखते-निकालते हैं, फिर लॉकर बंद कर देते हैं। तब मैनेजर अपनी चाबी से दूसरा लॉकर बंद करता है।'
''वाह, तुम तो बहुत होशियार हो। अब आखिरी प्रश्न का उत्तर दो। दो ताले क्यों जरूरी हैं?''
'इसलिए कि मम्मी-पापा सामान रख दें तो मैनेजर या कोई दूसरा चुपचाप निकल न सके। दूसरी तरफ कोइ ग्राहक चुपचाप सामान निकालकर बैंक पर चोरी का आरोप लगाकर सामान न माँगने लगे।'
''क्या बात है? अब तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर तुमने ही दे दिया है।''
'वह कैसे?'
''वह ऐसे कि बैंक मैनेजर के पास जो चाबी है वह है भाग्य। तुम्हारे मम्मी-पापा के पास जो चाबी है, वह है कर्म। कर्म और भाग्य दोनों चाबी एक साथ लगाए बिना लॉकर नहीं खुलता।''
'यह तो आप ठीक कह रहे हैं, पर मेरा सवाल?'
''यही तो तुम्हारे सवाल का जवाब है। तुम्हारी तुम जो पाना चाहते हो वह है लॉकर, मेहनत एक चाबी है जो तुम्हारे पास है और भाग्य दूसरी चाबी है जो भगवान या किस्मत के पास है। चाहत का लॉकर खोलने के लिए दोनों चाबियाँ लगाना जरूरी है। भगवान या किस्मत अपनी चाबी कब लगाएगी तुम्हें नहीं मालूम। तुम उनसे चाबी लगवा भी नहीं सकते। लेकिन जब वह चाबी लगे तब भी चाहत का लॉकर नहीं खुलेगा यदि तुम्हारी कोशिश की चाबी न लगी हो।''
'समझ गया, समझ गया। आप कह रहे हो कि मैं चाहत का लॉकर खोलने के लिए, कोशिश की चाबी बार-बार लगाता रहूँ। जैसे ही किस्मत की चाबी लगेगी, चाहत का लॉकर खुल जाएगा। समझ गया, अच्छा बब्बा चलता हूँ।'
''कहाँ चल दिए?''
'और कहाँ?, अपना बस्ता लेकर गणित का सवाल हल करने की कोशिश करने। परीक्षा परिणाम का लॉकर खोलना है न। खुलेगा ही लेकिन कौन जाने कब?'
***
लघु कथा:
सच्चा उत्सव
*
उपहार तथा शुभकामना देकर स्वरुचि भोज में पहुँचा, हाथों में थमी प्लेटों में कहीं मुरब्बा दही-बड़े से गले मिल रहा था, कहीं रोटी पापड़ के गाल पर दाल मल रही थी, कहीं भटा भिन्डी से नैन मटक्का कर रहा था और कहीं इडली-सांभर को गुत्थमगुत्था देखकर डोसा मुँह फुलाये था।
इनकी गाथा छोड़ चले हम मीठे के मैदान में वहाँ रबड़ी के किले में जलेबी सेंध लगा रही थी, दूसरे दौने में गोलगप्पे आलूचाप को ठेंगा दिखा रहे थे।
जितने अतिथि उतने प्रकार की प्लेटें और दौने, जिस तरह सारे धर्म एक ईश्वर के पास ले जाते हैं वैसे ही सब प्लेटें और दौने कम खाकर अधिक फेंके गये स्वादिष्ट सामान को वेटर उठाकर बाहर कचरे के ढेर पर पहुँचा रहे थे।
हेलो-हाय करते हुए बाहर निकला तो देखा चिथड़े पहने कई बड़े-बच्चे और श्वान-शूकर उस भंडारे में अपना भाग पाने में एकाग्रचित्त निमग्न थे, उनके चेहरों की तृप्ति बता रही थी की यही है सच्चा उत्सव।
***
नव प्रयोग
*
छंद सूत्र: य न ल
*
मुक्तक-
मिलोगी जब तुम,
मिटेंगे तब गम।
खिलेंगे नित गुल
हँसेंगे मिल हम।।
***
मुक्तिका -
हँसा है दिनकर
उषा का गह कर।
*
कहेगी सरगम
चिरैया छिपकर।
*
अँधेरा डरकर
गया है मरकर।
*
पिएगा जल हँस
मजूरा उठकर।
*
न नेता सुखकर
न कोई अफसर।
*
सुसिंधु सलिलज
सुमेघ जलधर।
*
कबीर सच कह
अमीर धन धर।
३०-१०-२०१८
***
:नवगीत:
राम रे!
*
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
भोर-साँझ लौ
गोड़ तोड़ रै
काम चोर बे कैते
पसरे रैत
ब्यास गादी पे
भगतन संग लपेटे
काम-पुजारी
गीता बाँचे
हेरें गोप निहाल।
आँधर ठोकें ताल
राम रे!
बारो डाल पुआल।
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
झिमिर-झिमिर-झम
बूँदें टपकें
रिस रए छप्पर-छानी
मैली कर दई रैटाइन की
किन्नें धोती धानी?
लज्जा ढाँपे
सिसके-कलपे
ठोंके आप कपाल
मुए हाल-बेहाल
राम रे!
कैसा निर्दय काल?
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
*
भट्टी-देह न देत दबाई
पैले मांगें पैसा
अस्पताल मा
घुसे कसाई
ठाणे-अरना भैंसा
काले कोट
कचैरी घेरे
बकरा करें हलाल
नेता भए बबाल
राम रे!
लूट बजा रए गाल
राम रे!
तनकऊ नई मलाल???
३०-१०-२०१५
***
चंद अश'आर
दिल
*
इस दिल की बेदिली का आलम न पूछिए
तूफ़ान सह गया मगर क़तरे में बह गया
*
दिलदारों की इस बस्ती में दिलवाला बेमौत मरा
दिल के सौदागर बन हँसते मिले दिलजले हमें यहाँ
*
दिल पर रीझा दिल लेकिन बिल देख नशा काफूर हुआ
दिए दिवाली के जैसे ही बुझे रह गया शेष धुँआ
*
दिलकश ने ही दिल दहलाया दिल ले कर दिल नहीं दिया
बैठा है हर दिल अज़ीज़ ले चाक गरेबां नहीं सिया
*
नवगीत:
सांध्य सुंदरी
तनिक न विस्मित
न्योतें नहीं इमाम
जो शरीफ हैं नाम का
उसको भेजा न्योता
सरहद-करगिल पर काँटों की
फसलें है जो बोता
मेहनतकश की
थकन हरूँ मैं
चुप रहकर हर शाम
नमक किसी का, वफ़ा किसी से
कैसी फितरत है
दम कूकुर की रहे न सीधी
यह ही कुदरत है
खबरों में
लाती ही क्यों हैं
चैनल उसे तमाम?
साथ न उसके मुसलमान हैं
बंदा गंदा है
बिना बात करना विवाद ही
उसका धंधा है
थूको भी मत
उसे देख, मत
करना दुआ-सलाम
***
नवगीत:
राष्ट्रलक्ष्मी!
श्रम सीकर है
तुम्हें समर्पित
खेत, फसल, खलिहान
प्रणत है
अभियन्ता, तकनीक
विनत है
बाँध-कारखाने
नव तीरथ
हुए समर्पित
कण-कण, तृण-तृण
बिंदु-सिंधु भी
भू नभ सलिला
दिशा, इंदु भी
सुख-समृद्धि हित
कर-पग, मन-तन
समय समर्पित
पंछी कलरव
सुबह दुपहरी
संध्या रजनी
कोशिश ठहरी
आसें-श्वासें
झूमें-खांसें
अभय समर्पित
शैशव-बचपन
यौवन सपने
महल-झोपड़ी
मानक नापने
सूरज-चंदा
पटका-बेंदा
मिलन समर्पित
***
नवगीत:
हर चेहरा है
एक सवाल
शंकाकुल मन
राहत चाहे
कहीं न मिलती.
शूल चुभें शत
आशा की नव
कली न खिलती
प्रश्न सभी
देते हैं टाल
क्या कसूर,
क्यों व्याधि घेरती,
बेबस करती?
तन-मन-धन को
हानि अपरिमित
पहुँचा छलती
आत्म मनोबल
बनता ढाल
मँहगा बहुत
दवाई-इलाज
दिवाला निकले
कोशिश करें
सम्हलने की पर
पग फिर फिसले
किसे बताएं
दिल का हाल?
संजीवनी अस्पताल, रायपुर
२९-११-२०१४
***
गीत:
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
पलो आँख में स्वप्न बनकर सदा तुम
नयन-जल में काजल कहीं बह न जाए.
जलो दीप बनकर अमावस में ऐसे
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए…
*
अपनों ने अपना सदा रंग दिखाया,
न नपनों ने नपने को दिल में बसाया.
लगन लग गयी तो अगन ही सगन को
सहन कर न पायी पलीता लगाया.
दिलवर का दिल वर लो, दिल में छिपा लो
जले दिलजले जलजले आ न पाए...
*
कुटिया ही महलों को देती उजाला
कंकर के शंकर को पूजे शिवाला.
मुट्ठी बँधी बाँधती कर्म-बंधन
खोलो न मोले तनिक काम-कंचन.
बहो, जड़ बनो मत शिलाओं सरीखे
नरमदा सपरना न मन भूल जाए...
*
सहो पीर धर धीर बनकर फकीरा
तभी हो सको सूर मीरा कबीरा.
पढ़ो ढाई आखर, नहा स्नेह-सागर
भरो फेफड़ों में सुवासित समीरा.
मगन हो गगन को निहारो, सुनाओ
'सलिल' नाद अनहद कहीं खो जाए...
*
सगन = शगुन, जलजला = भूकंप, नरमदा = नर्मदा, सपरना = स्नान करना
***
त्रिभंगी सलिला:
हम हैं अभियंता
*
(छंद विधान: १० ८ ८ ६ = ३२ x ४)
*
हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे
हर संकट हर हर मंज़िल वर, सबका भाग्य निखारेंगे
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे
भारत माँ पावन जन मन भावन, श्रम-सीकर चरण पखारेंगे
*
अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है
आँसू न बहायें , जन-गण गाये, पंथ वही तो वरना है
*
श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें
उपकरण जुटाएं, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ, उन्नत देश करें
*
नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम काम सदा
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें
३०-१०-२०१३
***
चिप्पियाँ Labels:
अक्टूबर ३०,
त्रिभंगी छंद,
नवगीत,
भारत आरती,
लघुकथा,
सॉनेट
शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2025
अक्टूबर १७ , मुक्तिका मर्जी, छंद रविशंकर, लघुकथा, अलंकार, श्लेष, अनुप्रास, नवगीत, राम, दिवाली
सलिल सृजन अक्टूबर १७
*
राम दोहावली
सदा रहे, हैं, रहेंगे, हृदय-हृदय में राम.
दर्शन पायें भक्तजन, सहित जानकी वाम..
0
राम नाम से जुड़ हुई, दीवाली भी धन्य.
सदा रहे, हैं, रहेंगे, हृदय-हृदय में राम.
दर्शन पायें भक्तजन, सहित जानकी वाम..
0
राम नाम से जुड़ हुई, दीवाली भी धन्य.
विजया दशमी को मिला, शुचि सौभाग्य अनन्य..
0
राम सिया में समाहित, सिया राम में लीन.
द्वैत न दोनों में रहा, यह स्वर वह है बीन..
0
Diwali Greetings
We are celebrting festival of light.
Devil got defeat, got the victory right.
Deewali give message don't get disheartened
In the end Truth wins, however tough fight.
*
मुक्तिका
.
प्रजा प्रजेश चुने निर्भय हो
लोकतंत्र की सदा विजय हो
.
औसत आय व्यक्ति की है जो
वह प्रतिनिधि का वेतन तय हो
.
संसद चौपालों पर बैठे
जनगण से दूरी का क्षय हो
.
अफसरशाही रहे न हावी
पद-मद जनसेवा में लय हो
.
भारतीय भाषाएँ बहिनें
गले मिलें सबकी जय-जय हो
.
पक्ष-विपक्ष दूध-पानी हों
नहीं एकता का अभिनय हो
.
सब समान सुविधाएँ पाएँ
'सलिल' योग्यता-सूर्य उदय हो।
१७.१०.२०२५
०००
बात बेबात
पाक कला भूरी रही
*
भाग्य और पड़ोसी इन दोनों को कभी बदला नहीं जा सकता। यह बात पाकिस्तान को लेकर बिना किसी संशय के कही और स्वीकारी जा सकती है। पाकिस्तान की कलाएँ स्वतंत्रता के बाद से हम सब देखते आ रहे हैं। पाककला का बेजोड़ नमूना आतंकवाद है । ऐसी ही कुछ अन्य कलाएँ भारत और चीन को प्रतिस्पर्धी बनाना , अपनी ही अवाम को कुचलना और भूखे रहकर भी एटमी युद्ध करने का ख्वाब देखना है।
पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में पाकिस्तान के हुक्मरान कश्मीर पर हाय तोबा मचाते देखे गए। पाककला का यह अध्याय हमेशा की तरह बेनतीजा और उसे ही नीचा दिखाने वाला रहा। अभी कल ही आतंकवाद को नियंत्रित करने में असफल होने पर पाकिस्तान को फरवरी तक के लिए भूरी सूची में रखा गया है। पाकिस्तान का दूरदर्शनी खबरिया और सरकार इसे अपनी बहुत बड़ी सफलता मानकर अपने अनाम की आँखों में धूल झोंकने की कोशिश करेगा। पूरी संभावना थी कि दहशत गर्ग दहशतगर्दी को नियंत्रित करने के स्थान पर, लगातार बढ़ाने के लिए पाकिस्तान को गहरी भूरी सूची या काली सूची में डाल दिया जाएगा। पाकिस्तान को चीन द्वारा मिल रहे समर्थन का परिणाम उसे कुछ माह के लिए भूरी सूची में रखे जाने के रूप में हुआ है।
पाककला मैं निपुण हर व्यक्ति जानता है कि जलने पर हर खाद्य पदार्थ काला हो जाता है। अपने जन्म के बाद से ही भारत के प्रति जलन की भावना रखता पाकिस्तान अपने कर्मों की वजह से श्याम सूची में जाने की कगार पर है। बलि का बकरा कब तक जान की खैर मनाएगा? पाककला का सर्वाधिक खतरनाक और भारत के लिए चिंताजनक पहलू यह है कि वह अपनी जमीन चीन को देकर भारत- चीन के बीच संघर्ष की स्थिति बना रहा है। कच्छ के रण में सरहद के उस पार चीन को जमीन देना भारत के लिए चिंता का विषय है। इसके पहले पाक अधिकृत कश्मीर जो मूलतः भारत का अभिन्न हिस्सा है में भी कॉरिडोर के नाम पर पाकिस्तान ने चीन को जमीन दी है। पाककला का यह पक्ष भविष्य में युद्धों की भूमिका तैयार कर सकता है।
चीन की महत्वाकांक्षा और स्वार्थपरक दृष्टि भारतीय राजनेताओं और सरकारों के लिए चिंतनीय है। लोकतंत्र को दलतंत्र बना देने का दुष्परिणाम राजनीति में सक्रिय विविध वैचारिक पक्षों के नायकों के मध्य संवाद हीनता की स्थिति बना रहा है। यह देश के लिए अच्छा नहीं है। सत्ता पक्ष और उसके अंध भक्तों की आक्रामकता तथा विपक्ष को समाप्त कर देने की भावना, भारत में चीन की तरह एकदलीय सत्ता की शुरुआत कर सकता है। वर्तमान संविधान और लोकतांत्रिक परंपरा के लिए इससे बड़ा खतरा अन्य नहीं हो सकता। पाक कला भारत को उस रास्ते पर जाने के लिए विवश कर सकती है जो अभीष्ट नहीं है। निकट पड़ोसियों में नेपाल, बांग्लादेश और लंका तीनों के अतिरिक्त मालदीव जैसे क्षेत्रों में भारत विरोधी भावनाएँ भड़काकर चीन रिश्तों की चाशनी में चीनी नहीं, गरल घोल रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में भारत की सुरक्षा और उन्नति के लिए भारत के सभी राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय हित सर्वोपरि मानते हुए अपने पारस्परिक मतभेद और सत्ता प्रेम को भुलाकर दीर्घकालिक रणनीति तैयार करनी ही होगी अन्यथा इतिहास हमें क्षमा नहीं करेगा।
पाककला के दुष्प्रभावों का सटीक आकलन कर उसका प्रतिकार करने के लिए भारतीय राजनेता एक साथ जुड़ सकें इसकी संभावना न्यून होते हुए भी जन कामना यही है कि देश के उज्जवल भविष्य के लिए सभी दल रक्षा विदेश नीति और अर्थनीति पर उसी एक सुविचार कर कदम बढ़ाएँ जिस तरह एक कुशल ग्रहणी रसोई में उपलब्ध सामानों से स्वादिष्ट खाद्य बनाकर अपनी पाक कला का परिचय देती है।
***
मुक्तिका
आपकी मर्जी
*
आपकी मर्जी नहीं तो हम चलें
*
आपकी मर्जी हुई रोका हमें
आपकी मर्जी हँसीं, दीपक जलें
*
आपकी मर्जी न फर्जी जानते
आपकी मर्जी सुबह सूरज ढलें
*
आपकी मर्जी दिया दिल तोड़ फिर
आपकी मर्जी बनें दर्जी सिलें
*
आपकी मर्जी हँसा दे हँसी को
आपकी मर्जी रुला बोले 'टलें'
*
आपकी मर्जी, बिना मर्जी बुला
आपकी मर्जी दिखा ठेंगा छ्लें
*
आपकी मर्जी पराठे बन गयी
आपकी मर्जी चलो पापड़ तलें
*
आपकी मर्जी बसा लें नैन में
आपकी मर्जी बनें सपना पलें
*
आपकी मर्जी, न मर्जी आपकी
आपकी मर्जी कहें कलियाँ खिलें
१६.१०.२०१८
***
नव छंद
गीत
*
छंद: रविशंकर
विधान:
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा
२. मात्रा क्रम लघु लघु गुरु लघु लघु
***
धन तेरस
बरसे रस...
*
मत निन्दित
बन वन्दित।
कर ले श्रम
मन चंदित।
रचना कर
बरसे रस।
मनती तब
धन तेरस ...
*
कर साहस
वर ले यश।
ठुकरा मत
प्रभु हों खुश।
मन की सुन
तन को कस।
असली तब
धन तेरस ...
*
सब की सुन
कुछ की गुन।
नित ही नव
सपने बुन।
रख चादर
जस की तस।
उजली तब
धन तेरस
***
लघुकथा:
बाल चन्द्रमा
*
वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहाँ साफ़-सफाई क्यों नहीं करते? त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।
'क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।' उसने कहा।
'मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?' कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।
ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: 'ये मेरे लिए?' मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। 'मैं जाऊं?' शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। 'जाकर अपनी झोपडी, कपडे और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।
'क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगा दो' पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे द्वारा फेंगा गया कचरा बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।
'हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस। ' कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था बाल चन्द्रमा।
१७-१०-२०१७
***
दोहा सलिला
प्रभु सारे जग का रखें, बिन चूके नित ध्यान।
मैं जग से बाहर नहीं, इतना तो हैं भान।।
*
कौन किसी को कर रहा, कहें जगत में याद?
जिसने सब जग रचा है, बिसरा जग बर्बाद
*
जिसके मन में जो बसा वही रहे बस याद
उसकी ही मुस्कान से सदा रहे दिलशाद
*
दिल दिलवर दिलदार का, नाता जाने कौन?
दुनिया कब समझी इसे?, बेहतर रहिए मौन
*
स्नेह न कांता से किया, समझो फूटे भाग
सावन की बरसात भी, बुझा न पाए आग
*
होती करवा चौथ यदि, कांता हो नाराज
करे कृपा तो फाँकिये, चूरन जिस-तिस व्याज
*
जो न कहीं वह सब जगह, रचता वही भविष्य
'सलिल' न थाली में पृथक, सब में निहित अदृश्य
*
जब-जब अमृत मिलेगा, सलिल करेगा पान
अरुण-रश्मियों से मिले ऊर्जा, हो गुणवान
*
हरि की सीमा है नहीं, हरि के सीमा साथ
गीत-ग़ज़ल सुनकर 'सलिल', आभारी नत माथ
*
कांता-सम्मति मानिए, तभी रहेगी खैर
जल में रहकर कीजिए, नहीं मगर से बैर
*
व्यग्र न पाया व्यग्र को, शांत धीर-गंभीर
हिंदी सेवा में मगन, गढ़ें गीत-प्राचीर
*
शरतचंद्र की कांति हो, शुक्ला अमृत सींच
मिला बूँद भर भी जिसे, ले प्राणों में भींच
*
जीवन मूल्य खरे-खरे, पालें रखकर प्रीति
डॉक्टर निकट न जाइये, यही उचित है रीति
*
कलाकार की कल्पना, जब होती साकार
एक नयी ही सृष्टि तब, लेती है आकार
***
अलंकार खोजिए:
धूप-छाँव से सुख-दुःख आते-जाते है
हम मुस्काकर जो मिलता सह जाते हैं
सुख को तो सबसे साझा कर लेते हैं
दुःख को अमिय समझकर चुप पी जाते हैं।
कृपया, बताइये :
मालिक दे डर राखी करदे, साबिर, भूखे, नंगे
- क्या यहाँ श्रुत्यानुप्रास अलंकार है? (क वर्ग: क ख ग, त वर्ग: द न, प वर्ग: ब भ म)
*
बाप मरे सिर नंगा होंदा, वीर मरे गंड खाली
माँवां बाद मुहम्मद बख्शा कौन करे रखवाली
सिर नंगा होंदा = मुंडन किया जाना, आशीष का हाथ न रहना
गंड खाली = मन सूना होना, गाँठ/गुल्लक खाली होना, राखी पर भाई भरता था
- क्या यहाँ श्लेष अलंकार है?
*
लघु कथा:
" नाम गुम जायेगा"
*
' नमस्कार ! कहिए, कैसी बात करते हैं? जैसा कहेंगे वैसा ही करूँगा… क्या? पुरस्कार लौटना है? क्यों?… क्या हो गया?… हाँ, ठीक कहते हैं … चनाव में तो लुटिया ही डूब गयी. किसने सोचा था एक दम फट्टा साफ़ हो जाएगा?… अपन लोगों का असर खत्म होता जा रहा है, ऐसा ही चलता रहा तो कुछ भी कर पाना मुश्किल हो जाएगा.
अच्छा, ऐसी योजना है. ठीक है, इससे पूरे देश नही नहीं विदेशों में भी अच्छा कवरेज मिलेगा. जितने लेखन अवार्ड लौटायेंगे, उतनी बार चर्चा और आरोप लगाने का मौक़ा। इसका कोई काट भी नहीं है. एक स्थानीय आंदोलन भी एकरो तो खर्च बहुत होता है, वर्कर मिलते नहीं। अखबार और टी वी वाले भी अब नज़र फेर लेते हैं. मेहनत, समय और खर्च के बाद किसी कार्यकर्त्ता ने जरा से गड़बड़ कर दी तो थाणे के चक्कर फिर अदालत-जमानत. यह तो बहुतै नीक है. हर लगे ना फिटकरी रंग भी चोखा आये.…
बिलकुल ठीक है. कल उन्हें लौटने दीजिए दो दिन बाद मैं लौटाऊँगा।… उनकी चिता न करें उन्हें आपने ही दिलाया था मेरी सिफारिश पर वरना कौन पूछता? उनसे अच्छे १७६० पड़े हैं. वो तो लौटाएगा ही, उसे २ लोगों की जिम्मेदारी और सौंपूँगा… उनको भी तो आपने ही दिलवाया था… मैं पूरी ताकत लगाऊंगा… अब तक गजेन्द्र चौहान के ममले में नौटंकी चलती रही, अब ये पुरस्कार लौटने का ड्रामा करेंगे अगला मुद्दा हाथ में आने तक.
नहीं, चैन नहीं लेने देंगे… इन्हीं प्रपंचों में उलझे रहेंगे तो कहीं न कहीं चूक कर ही जायेंगे। भैया कोशिश तो बिहार वालों ने भी की लेकिन चूक हो गयी. पहले बम नहीं फटा फिर नेता जी अपने बेटों को बढ़ाने के चक्कर में अपनों को ही दूर कर बैठे। वो तो भला हो दिल्लीवालों का उनकी शह पर हम लोग भी कुछ नकुछ करते ही रहेंगे।
पुरस्कार लौटने में नुक्सान ही क्या है? पहले पब्लिसिटी मिली, नाम हुआ तो किताबें छपीं रॉयल्टी मिली, लाइब्रेरियों में बिकीं। कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज में सेमिनारों में गए भत्ता तो मिले ही, अपने कार्यकर्ताओं को भी जोडा.पुरस्कार लौटाने से क्या, बाकि के फायदे तो अपने हैं ही. अस्का एक और असर होगा उन्हें हम लोगों को मैंने की कोशिश में फिर अवार्ड देना पड़ेंगे नहीं तो हमारा कैम्पेन चलेगा की अपने लोगों को दे रहे हैं. ठीक है, चैन नहने लेने देंगे… हाँ, हाँ पक्का कल ही पुरस्कार लौटाने की घोषणा करता हूँ. आप राजधानी में कवरेज करा लीजियेगा। अरे नहीं, चंता न करें ऐसे कैसे नाम गुम जाएगा? अभी बहुत दमखम है. गुड नाइट… और बंद हो गया मोबाइल
****
नवाचरित नवगीत :
ज़िंदगी के मानी
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
***
मुक्तिका:
*
मापनी: २१ २२२ १ २२२ १ २२
*
दर्द की चाही दवा, दुत्कार पाई
प्यार को बेचो, बड़ा बाजार भाई
.
वायदों की मण्डियाँ, हैं ढेर सारी
बचाओ गर्दन, इसी में है भलाई
.
आ गया, सेवा करेगा बोलता है
चाहता सारी उड़ा ले वो मलाई
.
चोर का ईमान, डाकू है सिपाही
डॉक्टर लूटे नहीं, कोई सुनाई
.
कौन है बोलो सगा?, कोई नहीं है
दे रहा नेता दगा, बोले भलाई
१७-१०-२०१५
***
रविवार, 5 अक्टूबर 2025
अक्टूबर ५, पज्झटिका, सिंह, छंद, सूरज, लघुकथा, दुर्गा, नवगीत,
सलिल सृजन अक्टूबर ५
*
ॐ
छंदशाला ३५
पज्झटिका छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल व डिल्ला छंद)
•
विधान
प्रति पद १६ मात्रा, पदांत बंधन नहीं, ८+गुरु+४+गुरु, चौकल वर्जित।
लक्षण छंद-
पज्झटिका मात्रा सोलह है।
अठ पे फिर चौ पे गुरु शुभ है।।
जगण न चौकल में आ पाए।
काव्य कसौटी जीत दिलाए।।
उदाहरण-
जन गण का मन हो न अब दुखी।
काम करे सरकार बहुमुखी।।
भ्रष्टाचार न हो अब हावी।
वैमनस्य हो भाग्य न भावी।।
सद्भावों को मौका देंगे।
किस्मत अपनी आप लिखेंगे।।
नहीं सियासत के गुलाम हो।
नव आशा के बीज नए बो।।
स्वेद-परिश्रम की जय बोलें।
उन्नति का ताला झट खोलें।।
४-१०-२०२२
•••
ॐ
छंदशाला ३६
सिंह छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला व पज्झटिका छंद)
•
विधान
प्रति पद १६ मात्रा, आदि II अंत IIS ।
लक्षण छंद-
लघु पदादि दो, अंत सगण हो।
समधुर छंद सरस शुभ प्रण हो।।
सिंह शुभ नाम छंद का रखिए।
रचिए कहिए सुनिए गुनिए।।
उदाहरण
हिलमिलकर रह साथ विहँसिए।
सुमन सदृश खिल, खूब महकिए।।
तितली निर्भय उड़कर रस ले।
जग-जीवन का मौन निरखिए।।
शंकर रहता है कंकर में
ठुकरा कभी न नाहक तजिए।।
विजयादशमी जीतें खुद को
बिन कुछ माँगे प्रभु को भजिए।।
जिसके मन में चाहें रखना
उसके मन में खुद भी बसिए।।
वह न कहाँ है? सभी जगह है।
नयन मूँद मन मंदिर लखिए।।
अपना कौन?, कौन नहिं अपना?
सबमें वह, सबके बन रहिए।।
विजयादशमी
५-१०-२०२२
•••
विमर्श : छंद - संकुचन और विस्तार १
*
- छंद क्या?
= जो छा जाए वह छंद।
- क्या सर्वत्र छा सकता है
= प्रकाश?
- प्रकाश सर्वत्र छा सकता तो छाया तथा ग्रहण न होते। सर्वत्र छा सकती है ध्वनि या नाद।
= क्या ध्वनि या नाद छंद है?
- नहीं, ध्वनि छंद का मूल है। जब नाद की बार-बार आवृत्ति हो तो निनाद जन्मता है।
निनाद में लयखंड समाहित होता है।
लयखंड की आवृत्ति कर छंद रचना की जाती है।
निनाद के उच्चार को उच्चार काल की दृष्टि से लघु उच्चार तथा गुरु उच्चार में वर्गीकृत किया गया है।
सर्वमान्य है कि वाक् का व्यवस्थित रूप भाषा है।
प्रकृति में सन् सन्, कलकल, गर्जन आदि ध्वनियाँ अंतर्निहित हैं।
सृष्टि का जन्म ही नाद से हुआ है।
जीव जन्मते ही ध्वनि का उच्चार कर अपने पदार्पण का जयघोष करता है।
कलरव, कूक, दहाड़ आदि में रस, लय तथा भाव की अनुभूति की जा सकती है।
क्रौंच-क्रंदन की पीर ही प्रथम काव्य रचना का मूल है।
वाक् के उच्चार काल के आवृत्तिजनित समुच्चय विविध लयखंडों को जन्म देते हैं।
सार्थक लयखंड एक की अनुभूति को अन्यों तक संप्रेषित करते हैं।
लोक इन लय खंडों को प्रकृति तथा परिवेश (जीव-जंतु) से ग्रहण कर उनका दोहराव कर बेतार के तार की तरह स्वानुभूति को अभिव्यक्त और प्रेषित करता है।
क्रमशः
विमर्श : रेफ युक्त शब्द
राकेश खंडेलवाल
रेफ़ वाले शब्दों के उपयोग में अक्सर गलती हो जाती हैं। हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है। '
१. कर्म, धर्म, सूर्य, कार्य
२. प्रवाह, भ्रष्ट, ब्रज, स्रष्टा
३. राष्ट्र, ड्रा
जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है, जिसके ऊपर यह लगता है। रेफ़ के उपयोग में ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वर के ऊपर नहीं लगाया जाता। यदि अर्ध 'र' के बाद का वर्ण आधा हो, तब यह बाद वाले पूर्ण वर्ण के ऊपर लगेगा, क्योंकि आधा वर्ण में स्वर नहीं होता। उदाहरण के लिए कार्ड्स लिखना गलत है। कार्ड्स में ड् स्वर विहीन है, जिस कारण यह रेफ़ का भार वहन करने में असमर्थ है। इ और ई जैसे स्वरों में रेफ़ लगाने की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए स्पष्ट है कि किसी भी स्वर के ऊपर रेफ़ नहीं लगता।
ब्रज या क्रम लिखने या बोलने में ऐसा लगता है कि यह 'र' की अर्ध ध्वनि है, जबकि यह पूर्ण ध्वनि है। इस तरह के शब्दों में 'र' का उच्चारण उस वर्ण के बाद होता है, जिसमें यह लगा होता है ,
जब भी 'र' के साथ नीचे से गोल भाग वाले वर्ण मिलते हैं, तब इसके /\ रूप क उपयोग होता है, जैसे-ड्रेस, ट्रेड, लेकिन द और ह व्यंजन के साथ 'र' के / रूप का उपयोग होता है, जैसे- द्रवित, द्रष्टा, ह्रास।
संस्कृत में रेफ़ युक्त व्यंजनों में विकल्प के रूप में द्वित्व क उपयोग करने की परंपरा है। जैसे- कर्म्म, धर्म्म, अर्द्ध। हिंदी में रेफ़ वाले व्यंजन को द्वित्व (संयुक्त) करने का प्रचलन नहीं है। इसलिए रेफ़ वाले शब्द गोवर्धन, स्पर्धा, संवर्धन शुद्ध हैं।
''जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है। '' के संबंध में नम्र निवेदन है कि रेफ कभी भी 'शब्द' पर नहीं लगाया जाता. शब्द के जिस 'अक्षर' या वर्ण पर रेफ लगाया जाता है, उसके पूर्व बोला या उच्चारित किया जाता है।
- संजीव सलिल:
''हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है.'' के संदंर्भ में निवेदन है कि हिन्दी में 'र' का संयुक्त रूप से प्रयोग चार तरीकों से होता है। उक्त अतिरिक्त ४. कृष्ण, गृह, घृणा, तृप्त, दृष्टि, धृष्ट, नृप, पृष्ठ, मृदु, वृहद्, सृष्टि, हृदय आदि। यहाँ उच्चारण में छोटी 'इ' की ध्वनि समाविष्ट होती है जबकि शेष में 'अ' की।
यथा: कृष्ण = krishn, क्रम = kram, गृह = ग्रिह grih, ग्रह = grah, श्रृंगार = shringar, श्रम = shram आदि।
राकेश खंडेलवाल :
एक प्रयोग और: अब सन्दर्भ आप ही तलाशें:
दोहा:-
सोऽहं का आधार है, ओंकार का प्राण।
रेफ़ बिन्दु वाको कहत, सब में व्यापक जान।१।
बिन्दु मातु श्री जानकी, रेफ़ पिता रघुनाथ।
बीज इसी को कहत हैं, जपते भोलानाथ।२।
हरि ओ३म तत सत् तत्व मसि, जानि लेय जपि नाम।
ध्यान प्रकाश समाधि धुनि, दर्शन हों बसु जाम।३।
बांके कह बांका वही, नाम में टांकै चित्त।
हर दम सन्मुख हरि लखै, या सम और न बित्त।४।
रेफ का अर्थ:
-- वि० [सं०√रिफ्+घञवार+इफन्] १. शब्द के बीच में पड़नेवाले र का वह रूप जो ठीक बाद वाले स्वरांत व्यंजन के ऊपर लगाया जाता है। जैसे—कर्म, धर्म, विकर्ण। २. र अक्षर। रकार। ३. राग। ४. रव। शब्द। वि० १. अधम। नीच। २. कुत्सित। निन्दनीय। -भारतीय साहित्य संग्रह.
-- पुं० [ब० स०] १. भागवत के अनुसार शाकद्वीप के राजा प्रियव्रत् के पुत्र मेधातिथि के सात पुत्रों में से एक। २. उक्त के नाम पर प्रसिद्ध एक वर्ष अर्थात् भूखंड।
रेफ लगाने की विधि : डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक', शब्दों का दंगल में
हिन्दी में रेफ अक्षर के नीचे “र” लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है?
यदि ‘र’ का उच्चारण अक्षर के बाद हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के नीचे लगेगी जिस के बाद ‘र’ का उच्चारण हो रहा है। यथा - प्रकाश, संप्रदाय, नम्रता, अभ्रक, चंद्र।
हिन्दी में रेफ या अक्षर के ऊपर "र्" लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र्’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है ? “र्" का उच्चारण जिस अक्षर के पूर्व हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के ऊपर लगेगी जिस के पूर्व ‘र्’ का उच्चारण हो रहा है । उदाहरण के लिए - आशीर्वाद, पूर्व, पूर्ण, वर्ग, कार्यालय आदि ।
रेफ लगाने के लिए जहाँ पूर्ण "र" का उच्चारण हो रहा है वहाँ उस अक्षर के नीचे रेफ लगाना है जिसके पश्चात "र" का उच्चारण हो रहा है। जैसे - प्रकाश, संप्रदाय , नम्रता, अभ्रक, आदि में "र" का पूर्ण उच्चारण हो रहा है ।
*
६३ ॥ श्री अष्टा वक्र जी ॥
दोहा:-
रेफ रेफ तू रेफ है रेफ रेफ तू रेफ ।
रेफ रेफ सब रेफ है रेफ रेफ सब रेफ ॥१॥
*
१५२ ॥ श्री पुष्कर जी ॥
दोहा:-
रेफ बीज है चन्द्र का रेफ सूर्य का बीज ।
रेफ अग्नि का बीज है सब का रेफैं बीज ॥१॥
रेफ गुरु से मिलत है जो गुरु होवै शूर ।
तो तनकौ मुश्किल नहीं राम कृपा भरपूर ॥२॥
*
चलते-चलते : अंग्रेजी में रेफ का प्रयोग सन्दर्भ reference और खेल निर्णायक refree के लिये होता है.
***
बाल गीत
सूरज
*
पर्वत-पीछे झाँके ऊषा
हाथ पकड़कर आया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
धूप संग इठलाया सूरज।
*
योग कर रहा संग पवन के
करे प्रार्थना भँवरे के सँग।
पैर पटकता मचल-मचलकर
धरती मैडम हुईं बहुत तँग।
तितली देखी आँखमिचौली
खेल-जीत इतराया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
नाक बहाता आया सूरज।
*
भाता है 'जन गण मन' गाना
चाहे दोहा-गीत सुनाना।
झूला झूले किरणों के सँग
सुने न, कोयल मारे ताना।
मेघा देख, मोर सँग नाचे
वर्षा-भीग नहाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
झूला पा मुस्काया सूरज।
*
खाँसा-छींका, आई रुलाई
मैया दिशा झींक-खिसियाई।
बापू गगन डॉक्टर लाया
डरा सूर्य जब सुई लगाई।
कड़वी गोली खा, संध्या का
सपना देख न पाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
कॉमिक पढ़ हर्षाया सूरज।
५.१०.२०२१
***
कार्य शाला: दोहा / रोला / कुण्डलिया
*
तुहिन कणों से सज गए,किसलय कोमल फूल।
"दीपा" कैसे दिख रहे, धूल सने सब शूल।। - माँ प्रदीपा
धूल सने सब शूल, त्रास दे त्रास पा रहे।
दे परिमल सब सुमन, जगत का प्यार पा रहे।।
सुलझे कोई प्रश्न, कभी कब कहाँ रणों से।
किसलय कोमल फूल सज गए तुहिन कणों से।। - संजीव
*
मन का डूबा डूबता , बोझ अचिन्त्य विचार ।
चिन्तन का श्रृंगार ही , देता इसे उबार ॥ -शंकर ठाकुर चन्द्रविन्दु देता इसे उबार, राग-वैराग साथ मिल। तन सलिला में कमल, मनस का जब जाता खिल।। चंद्रबिंदु शिव भाल, सोहता सलिल-धार बन। उन्मन भी हो शांत, लगे जब शिव-पग में मन।। -संजीव
*
शब्द-शब्द प्रांजल हुए, अनगिन सरस श्रृंगार।
सलिल सौम्य छवि से द्रवित, अंतर की रसधार।।-अरुण शर्मा
अंतर की रसधार, न सूखे स्नेह बढ़ाओ।
मिले शत्रु यदि द्वार, न छोड़ो मजा चखाओ।।
याद करे सौ बरस, रहकर वह बे-शब्द।
टेर न पाए खुदा को, बिसरे सारे शब्द।। - संजीव
५.१०.२०१८
***
लघुकथाएँ
सियाह लहरें
*
दस नौ आठ सात
उलटी गिनती आरम्भ होते ही सबके हृदयों की धड़कनें तेज हो गयीं। अनेक आँखें स्क्रीन पर गड गयीं। कुछ परदे पर दुःख रही नयी रेखा को देख रहे थे तो कुछ हाथों में कागज़ पकड़े परदे पर बदलते आंकड़ों के साथ मिलान कर रहे थे। कुछ अन्य कक्ष में बैठे अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों को कुछ बता रहे थे।
दूरदर्शन के परदे पर अग्निपुंज के बीच से निकलता रॉकेट। नील गगन के चीरता बढ़ता गया और पृथ्वी के परिपथ के समीप दूसरा इंजिन आरम्भ होते ही परिपथ में प्रविष्ट हो गया। आनंद से उछल पड़े वे सब।
प्रधान मंत्री, रक्षा मंत्री आदि ने प्रमुख वैज्ञानिक, उनके पूरे दल और सभी कर्मचारियों को बधाई देते हुए अल्प साधनों, निर्धारित से कम समय तथा पहले प्रयास में यह उपलन्धि पाने को देश का गौरव बताया। आसमान पर इस उपलब्धि का डंका पीट रही थीं रहीं थीं रॉकेट के जले ईंधन से बनी फैलती जा रही सियाह लहरें।
*
टुकड़े स्पात के
*
धाँय धाँय धाँय
भारी गोलाबारी ने काली रात को और अधिक भयावह बना दिया था किन्तु वे रेगिस्तान की रेत के बगुलों से भरी अंधी में भी अविचलित दुश्मन की गोलियों का जवाब दे रहे थे। अन्तिम पहर में दहशत फैलाती भरी आवाज़ सुनकर एक ने झरोखे से झाँका और घुटी आवाज़ में चीखा 'उठो, टैंक दस्ता'। पल भर में वे सब अपनी मशीन गनें और स्टेन गनें थामे हमले के लिये तैयार थे। चौकी प्रभारी ने कमांडर से सम्पर्क कर स्थिति की जानकारी दी, सवेरे के पहले मदद मिलना असम्भव था।
कमांडर ने चौकी खाली करने को कहा लेकिन चौकी पर तैनात टुकड़ी के हर सदस्य ने मना करते हुए आखिरी सांस और खून की आखिरी बूँद तक संघर्ष का निश्चय किया। प्रभारी ने दोपहर तह मुट्ठी भर जवानों के साथ दुश्मन की टैंक रेजमेंट का सामना करने की रणनीति के तहत सबको खाई और बंकरों में छिपने और टैंकों के सुरक्षित दूरी तक आने के पहले के आदेश दिए।
पैदल सैनिकों को संरक्षण (कवर) देते टैंक सीमा के समीप तक आ गये। एक भी गोली न चलने से दुश्मन चकित और हर्षित था कि बिना कोई संघर्ष किये फतह मिल गयी। अचानक 'जो बोले सो निहाल' की सिंह गर्जना के साथ टुकड़ी के आधे सैनिक शत्रु के जवानों पर टूट पड़े, टैंक इतने समीप आ चुके थे कि उनके गोले टुकड़ी के बहुत पीछे गिर रहे थे। दुश्मन सच जान पाता इसके पहले ही टुकड़ी के बाकी जवान हथगोले लिए टैंकों के बिलकुल निकट पहुँच गए और जान की बाजी लगाकर टैंक चालकों पर दे मारे। धू-धू कर जलते टैंकों ने शत्रु के फौजियों का हौसला तोड़ दिया। प्राची में उषा की पहली किरण के साथ वायुयानों ने उड़ान भरी और उनकी सटीक निशानेबाजी से एक भी टैंक न बच सका। आसमान में सूर्य चमका तो उसे भी मुट्ठी भर जवानों को सलाम करना पड़ा जिनके अद्भुत पराक्रम की साक्षी दे रहे थे मरे हुए शत्रु जवान और जलते टैंकों के इर्द-गिर्द फैले स्पात के टुकड़े।
५.९.२०१६
***
दोहा:
(मात्रिक छंद, १३-११)
*
दर्शन कर कैलाश के, पढ़ गीता को नित्य
मात-पिता जब हों सदय, शिशु को मिलें अनित्य
५.९.२०१५
***
गीत:
आराम चाहिए...
*
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
प्रजातंत्र के बादशाह हम,
शाहों में भी शहंशाह हम.
दुष्कर्मों से काले चेहरे
करते खुद पर वाह-वाह हम.
सेवा तज मेवा के पीछे-
दौड़ें, ऊँचा दाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
पुरखे श्रमिक-किसान रहे हैं,
मेहनतकश इन्सान रहे हैं.
हम तिकड़मी,घोर छल-छंदी-
धन-दौलत अरमान रहे हैं.
देश भाड़ में जाए हमें क्या?
सुविधाओं संग काम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
स्वार्थ साधते सदा प्रशासक.
शांति-व्यवस्था के खुद नाशक.
अधिनायक हैं लोकतंत्र के-
हम-वे दुश्मन से भी घातक.
अवसरवादी हैं हम पक्के
लेन-देन बेनाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
सौदे करते बेच देश-हित,
घपले-घोटाले करते नित.
जो चाहो वह काम कराओ-
पट भी अपनी, अपनी ही चित.
गिरगिट जैसे रंग बदलते-
हमको ऐश तमाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
वादे करते, तुरत भुलाते.
हर अवसर को लपक भुनाते.
हो चुनाव तो जनता ईश्वर-
जीत उन्हें ठेंगा दिखलाते.
जन्म-सिद्ध अधिकार लूटना
'सलिल' स्वर्ग सुख-धाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
५.९.२०१४
***
प्रतिपदा पर शुभकामना सहित
दोहा सलिला
दुर्गा दुर्गतिनाशिनी
*
दुर्गा! दुर्गतिनाशिनी, दक्षा दयानिधान
दुष्ट-दंडिनी, दध्यानी, दयावती द्युतिवान
*
दीपक दीपित दयामयि!, दिव्याभित दिनकांत
दर्प-दर्द-दुःख दमित कर, दर्शन दे दिवसांत
*
देह दुर्ग दुर्गम दिपे, दिनकरवत दिन-रात
दुश्मन&दल दहले दिखे, दलित&दमित जग&मात
*
दमन] दैत्य दुरित दनुज, दुर्नामी दुर्दांत
दयित दितिज दुर्दम दहक, दम तोड़ें दिग्भ्रांत
*
दंग दंगई दबदबा,देख देवि-दक्षारि
दंभी-दर्पी दग्धकर, हँसे शिव-दनुजारि
*
दर्शन दे दो दक्षजा, दयासिन्धु दातार
दीप्तिचक्र दीननाथ दे, दिप-दिप दीपाधार
*
दीर्घनाद-दुन्दुभ दिवा, दिग्दिगंत दिग्व्याप्त
दिग्विजयी दिव्यांगना, दीक्षा दे दो आप्त
*
दिलावरी दिल हारना, दिलाराम से प्रीत
दिवारात्रि -दीप्तान्गिनी, दिल हारे दिल जीत
*
दया&दृष्टि कर दो दुआ, दिल से सहित दुलार
देइ! देशना दिव्या दो, देश-धर्म उपहार
=========================
दध्यानी = सुदर्शन, दमनक = दमनकर्ता, त्य = दनुज= राक्षस, दुरित = पापी, दुर्दम =अदम्य, दातार = ईश्वर, दीर्घनाद = शंख, दुन्दुभ = नगाड़ा, दियना = दीपक, दिलावरी = वीरता, दिलाराम व प्रेमपात्र, दिवारात्रि = दिन-रात, देइ = देवी, देशना = उपदेश
***
नव गीत
*
हम सब
माटी के पुतले है...
*
कुछ पाया
सोचा पौ बारा.
फूल हर्ष से
हुए गुबारा.
चार कदम चल
देख चतुर्दिक-
कुप्पा थे ज्यों
मैदां मारा.
फिसल पड़े तो
सच जाना यह-
बुद्धिमान बनते,
पगले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
*
भू पर खड़े,
गगन को छूते.
कुछ न कर सके
अपने बूते.
बने मिया मिट्ठू
अपने मुँह-
खुद को नाहक
ऊँचा कूते.
खाई ठोकर
आँख खुली तो
देखा जिधर
उधर घपले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
*
नीचे से
नीचे को जाते.
फिर भी
खुद को उठता पाते.
आँख खोलकर
स्वप्न देखते-
फिरते मस्ती
में मदमाते.
मिले सफलता
मिट्टी लगती.
अँधियारे
लगते उजले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
१-१०-२००९
***
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ (Atom)