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शुक्रवार, 24 जून 2011

काव्य का रचना शास्त्र : १ ध्वनि कविता की जान है... - आचार्य संजीव 'सलिल'

काव्य का रचना शास्त्र : १

ध्वनि कविता की जान है...

- आचार्य संजीव 'सलिल'



ध्वनि कविता की जान है, भाव श्वास-प्रश्वास.
अक्षर तन, अभिव्यक्ति मन, छंद वेश-विन्यास..

                 अपने उद्भव के साथ ही मनुष्य को प्रकृति और पशुओं से निरंतर संघर्ष करना पड़ा. सुन्दर, मोहक, रमणीय प्राकृतिक दृश्य उसे रोमांचित, मुग्ध और उल्लसित करते थे. प्रकृति की रहस्यमय-भयानक घटनाएँ उसे डराती थीं. बलवान हिंस्र पशुओं से भयभीत होकर वह व्याकुल हो उठता था. विडम्बना यह कि उसका शारीरिक बल और शक्तियाँ बहुत कम थीं. अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उसके पास देखे-सुने को समझने और समझाने की बेहतर बुद्धि थी. बाह्य तथा आतंरिक संघर्षों में अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने और अन्यों की अभिव्यक्ति को ग्रहण करने की शक्ति का उत्तरोत्तर विकास कर मनुष्य सर्वजयी बन सका. 

साहित्य शिल्पीरचनाकार परिचय:-

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है। आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है। आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि। वर्तमान में आप म.प्र. सड़क विकास निगम में उप महाप्रबंधक के रूप में कार्यरत हैं।
                अनुभूतियों को अभिव्यक्त और संप्रेषित करने के लिए मनुष्य ने सहारा लिया ध्वनि का. वह आँधियों, तूफानों, मूसलाधार बरसात, भूकंप, समुद्र की लहरों, शेर की दहाड़, हाथी की चिंघाड़ आदि से सहमकर छिपता फिरता. प्रकृति का रौद्र रूप उसे डराता. मंद समीरण, शीतल फुहार, कोयल की कूक, गगन और सागर का विस्तार उसमें दिगंत तक जाने की अभिलाषा पैदा करते. उल्लसित-उत्साहित मनुष्य कलकल निनाद की तरह किलकते हुए अन्य मनुष्यों को उत्साहित करता. अनुभूति को अभिव्यक्त कर अपने मन के भावों को विचार का रूप देने में ध्वनि की तीक्ष्णता, मधुरता, लय, गति की तीव्रता-मंदता, आवृत्ति, लालित्य-रुक्षता आदि उसकी सहायक हुईं. अपनी अभिव्यक्ति को शुद्ध, समर्थ तथा सबको समझ आने योग्य बनाना उसकी प्राथमिक आवश्यकता थी.

          सकल सृष्टि का हित करे, कालजयी आदित्य.
            जो सबके हित हेतु हो, अमर वही साहित्य.

               भावनाओं के आवेग को अभिव्यक्त करने का यह प्रयास ही कला के रूप में विकसित होता हुआ 'साहित्य' के रूप में प्रस्फुटित हुआ. सबके हित की यह मूल भावना 'हितेन सहितं' ही साहित्य और असाहित्य के बीच की सीमा रेखा है जिसके निकष पर किसी रचना को परखा जाना चाहिए. सनातन भारतीय चिंतन में 'सत्य-शिव-सुन्दर' की कसौटी पर खरी कला को ही मान्यता देने के पीछे भी यही भावना है. 'शिव' अर्थात 'सर्व कल्याणकारी, 'कला कला के लिए' का पाश्चात्य सिद्धांत पूर्व को स्वीकार नहीं हुआ. साहित्य नर्मदा का कालजयी प्रवाह 'नर्मं ददाति इति नर्मदा' अर्थात 'जो सबको आनंद दे, वही नर्मदा' को ही आदर्श मानकर सतत सृजन पथ पर बढ़ता रहा.

                 मानवीय अभिव्यक्ति के शास्त्र 'साहित्य' को पश्चिम में 'पुस्तकों का समुच्चय', 'संचित ज्ञान का भंडार', 'जीवन की व्याख्या', आदि कहा गया है. भारत में स्थूल इन्द्रियजन्य अनुभव के स्थान पर अन्तरंग आत्मिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति को अधिक महत्व दिया गया. यह अंतर साहित्य को मस्तिष्क और ह्रदय से उद्भूत मानने का है. आप स्वयं भी अनुभव करेंगे के बौद्धिक-तार्किक कथ्य की तुलना में सरस-मर्मस्पर्शी बात अधिक प्रभाव छोड़ती है. विशेषकर काव्य (गीति या पद्य) में तो भावनाओं का ही साम्राज्य होता है. 

होता नहीं दिमाग से, जो संचालित मीत. 

दिल की सुन दिल से जुड़े, पा दिलवर की प्रीत..


साध्य आत्म-आनंद है :

                   काव्य का उद्देश्य सर्व कल्याण के साथ ही निजानंद भी मान्य है. भावानुभूति या रसानुभूति काव्य की आत्मा है किन्तु मनोरंजन मात्र ही साहित्य या काव्य का लक्ष्य या ध्येय नहीं है. आजकल दूरदर्शन पर आ रहे कार्यक्रम सिर्फ मनोरंजन पर केन्द्रित होने के कारण समाज को कुछ दे नहीं पा रहे जबकि साहित्य का सृजन ही समाज को कुछ देने के लिये किया जाता है. 

जन-जन का आनंद जब, बने आत्म-आनंद.

कल-कल सलिल-निनाद सम, तभी गूँजते छंद..

काव्य के तत्व :

बुद्धि भाव कल्पना कला, शब्द काव्य के तत्व.

तत्व न हों तो काव्य का, खो जाता है स्वत्व..

                   बुद्धि या ज्ञान तत्व काव्य को ग्रहणीय बनाता है. सत-असत, ग्राह्य-अग्राह्य, शिव-अशिव, सुन्दर-असुंदर, उपयोगी-अनुपयोगी में भेद तथा उपयुक्त का चयन बुद्धि तत्व के बिना संभव नहीं. कृति को विकृति न होने देकर सुकृति बनाने में यही तत्व प्रभावी होता है. 

                भाव तत्व को राग तत्व या रस तत्व भी कहा जाता है. भाव की तीव्रता ही काव्य को हृद्स्पर्शी बनाती है. संवेदनशीलता तथा सहृदयता ही रचनाकार के ह्रदय से पाठक तक रस-गंगा बहाती है. 

                    कल्पना लौकिक को अलौकिक और अलौकिक को लौकिक बनाती है. रचनाकार के ह्रदय-पटल पर बाह्य जगत तथा अंतर्जगत में हुए अनुभव अपनी छाप छोड़ते हैं. साहित्य सृजन के समय अवचेतन में संग्रहित पूर्वानुभूत संस्कारों का चित्रण कल्पना शक्ति से ही संभव होता है. रचनाकार अपने अनुभूत तथ्य को यथावत कथ्य नहीं बनता. वह जाने-अनजाने सच=झूट का ऐसा मिश्रण करता है जो सत्यता का आभास कराता है. 

                कला तत्त्व को शैली भी कह सकते हैं. किसी एक अनुभव को अलग-अलग लोग अलग-अलग तरीके से व्यक्त करते हैं. हर रचनाकार का किसी बात को कहने का खास तरीके को उसकी शैली कहा जाता है. कला तत्व ही 'शिवता' का वाहक होता है. कला असुंदर को भी सुन्दर बना देती है.

                 शब्द को कला तत्व में समाविष्ट किया जा सकता है किन्तु यह अपने आपमें एक अलग तत्व है. भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम शब्द ही होता है. रचनाकार समुचित शब्द का चयन कर पाठक को कथ्य से तादात्म्य स्थापित करने के लिए प्रेरित करता है.

साहित्य के रूप :

दिल-दिमाग की कशमकश, भावों का व्यापार.

बनता है साहित्य की, रचना का आधार.. 

                  बुद्धि तत्त्व की प्रधानतावाला बोधात्मक साहित्य ज्ञान-वृद्धि में सहायक होता है. हृदय तत्त्व को प्रमुखता देनेवाला रागात्मक साहित्य पशुत्व से देवत्व की ओर जाना की प्रेरणा देता है. अमर साहित्यकार डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐसे साहित्य को 'रचनात्मक साहित्य' कहा है. 

साहित्य शिल्पीसादर समर्पित

            यह लेख श्रंखला मुझमें भाषा और साहित्य की रूचि जगानेवाली पूजनीय माता जी व प्रख्यात- आशु कवयित्री स्व. श्रीमति शांति देवी वर्मा की पुण्य-स्मृति को समर्पित  है। 
                                                -संजीव 

 लक्ष्य और लक्षण ग्रन्थ 

                    रचनात्मक या रागात्मक साहित्य के दो भेद लक्ष्य ग्रन्थ और लक्षण ग्रन्थ हैं साहित्यकार का उद्देश्य अलौकिक आनंद की सृष्टि करना होता है जिसमें रसमग्न होकर पाठक रचना के कथ्य, घटनाक्रम, पात्रों और सन्देश के साथ अभिन्न हो सके. 

             लक्ष्य ग्रन्थ में रचनाकार नूतन भावः लोक की सृष्टि करता है जिसके गुण-दोष विवेचन के लिये व्यापक अध्ययन-मनन पश्चात् कुछ लक्षण और नियम निर्धारित किये गये हैं लक्ष्य ग्रंथों के आकलन अथवा मूल्यांकन (गुण-दोष विवेचन) संबन्धी साहित्य लक्षण ग्रन्थ होंगे. लक्ष्य ग्रन्थ साहित्य का भावः पक्ष हैं तो लक्षण ग्रन्थ विचार पक्ष. काव्य के लक्षणों, नियमों, रस, भाव, अलंकार, गुण-दोष आदि का विवेचन 'साहित्य शास्त्र' के अंतर्गत आता है 'काव्य का रचना शास्त्र' विषय भी 'साहित्य शास्त्र' का अंग है. 

साहित्य के रूप -- 
१. लक्ष्य ग्रन्थ : (क) दृश्य काव्य, (ख) श्रव्य काव्य. 
२. लक्षण ग्रन्थ : (क) समीक्षा, (ख) साहित्य शास्त्र.
                                                                                                                                                    क्रमश: .....
                                                                                                                                       (आभार : साहित्य शिल्पी, मंगलवार, १० मार्च २००९) 

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बुधवार, 10 नवंबर 2010

लघुकथा : दीपावली ---संजीव 'सलिल'

दीपावली                                                                                                                                                                                                             
संजीव 'सलिल' 
सवेरे अखबार आये... हिन्दी के, अंग्रेजी के, राष्ट्रीय, स्थानीय.... 
सभी में एक खबर प्रमुखता से.... ''अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने महात्मा की समाधि पर बहुत मँहगी माला चढ़ायी.''  मैं
ने कुछ पुराने अख़बार पलटाये.... पढ़ीं अलग-अलग समय पर छपी खबरें: '
'राष्ट्रपति स्वर्णमंदिर में गये..., 
गृहमंत्री ने नमाज़ अदा की..., 
लोकसभाध्यक्ष गिरिजाघर गये..., 
राज्यपाल बौद्ध मठ में..., 
विधान सभाध्यक्ष ने जैन संत से आशीष लिया...,  
पुस्तकालय जाकर बहुत से अखबार पलटाये... 
खोजता रहा... थक गया पर नहीं मिली वह खबर जिसे पढ़ने के लिये मेरे प्राण तरस रहे थे.... 
खबर कुछ ऐसी... कोई जनप्रतिनिधि या अधिकारी या साहित्यकार या संत भारतमाता के मंदिर में जलाने गया एक दीप.... हार कर खोज बंद कर दी.... 
अचानक फीकी लगाने लगी थी दीपावली....  
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गुरुवार, 4 नवंबर 2010

बोध कथा : ''भाव ही भगवान है''. संजीव 'सलिल'

बोधकथा                                                    
''भाव ही भगवान है''.
संजीव 'सलिल'
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एक वृद्ध के मन में अंतिम समय में नर्मदा-स्नान की चाह हुई. लोगों ने बता दिया की नर्मदा जी अमुक दिशा में कोसों दूर बहती हैं, तुम नहीं जा पाओगी. वृद्धा न मानी... भगवान् का नाम लेकर चल पड़ी...कई दिनों के बाद उसे एक नदी... उसने 'नरमदा तो ऐसी मिलीं रे जैसे मिल गै मतारे औ' बाप रे' गाते हुए परम संतोष से डुबकी लगाई. कुछ दिन बाद साधुओं का एक दल आया... शिष्यों ने वृद्धा की खिल्ली उड़ाते हुए बताया कि यह तो नाला है. नर्मदा जी तो दूर हैं हम वहाँ से नहाकर आ रहे हैं. वृद्धा बहुत उदास हुई... बात गुरु जी तक पहुँची. गुरु जी ने सब कुछ जानने के बाद, वृद्धा के चरण स्पर्श कर कहा : 'जिसने भाव के साथ इतने दिन नर्मदा जी में नहाया उसके लिए मैया यहाँ न आ सकें इतनी निर्बल नहीं हैं. मैया तुम्हें नर्मदा-स्नान का पुण्य है लेकिन जो नर्मदा जी तक जाकर भी भाव का अभाव मिटा नहीं पाया उसे नर्मदा-स्नान का पुण्य नहीं है. मैया! तुम कहीं मत जाओ, माँ नर्मदा वहीं हैं जहाँ तुम हो.''

'कंकर-कंकर में शंकर', 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' का सत्य भी ऐसा ही है. 'भाव का भूखा है भगवान' जैसी लोकोक्ति इसी सत्य की स्वीकृति है. जिसने इस सत्य को गह लिया उसके लिये 'हर दिन होली, रात दिवाली' हो जाती है. 
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रविवार, 17 अक्टूबर 2010

विशेष लेख- भारत में उर्दू :

विशेष लेख-

भारत में उर्दू : 

भारत विभिन्न भाषाओँ का देश है जिनमें से एक उर्दू भी है. मुग़ल फौजों द्वारा आक्रमण में विजय पाने के बाद स्थानीय लोगों के कुचलने के लिये उनके संस्कार, आचार, विचार, भाषा तथा धर्म को नष्ट कर प्रचलित के सर्वथा विपरीत बलात लादा गया तथा अस्वीकारने पर सीधे मौत के घाट उतारा गया. यह एक ऐतिहासिक सत्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता. पराजित हतभाग्य जनों को मुगल सिपाहियों द्वारा अरबी-फ़ारसी के दोषपूर्ण रूप (सिपाही शुद्ध भाषा नहीं जानते थे) को स्थानीय भाषा के साथ मिलावट कर बोलते देख गुलामों को भी वही भाषा बोलने के लिये विवश होना पड़ा.   

भारतीयों को भ्रान्ति है कि उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्र या राजकीय भाषा है जबकि यह पूरी तरह गलत है.

न्यूज़ इंटरनॅशनल के अनुसार  लाहौर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ख्वाजा मुहम्मद शरीफ ने १३ अक्टूबर २०१० को एक परमादेश याचिका को इसलिए खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता सना उल्लाह और उसके वकील यह सीध करने में असफल हुए कि उर्दू पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा है. याचिकाकरता के अनुसार  १९४८ में पाकिस्तान के राष्ट्रपिता कायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने  ढाका में विद्यार्थियों को सम्बोधत करते हुए उर्दू को पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा बताया था तथा संविधान में भी एक निर्धारित अवधी में ऐसा किये जाने को कहा गया है लेकिन पाकिस्तान की आज़ादी के ६२ साल बाद तक ऐसा नहीं किया गया. 


लीड्स अमेरिका निवासी हरकादास वासन के अनुसार उर्दू संसार की सर्वाधिक खूबसूरत भाषा है जिसे बोलते समय आप खुद को दुनिया से ऊँचा अनुभव करते है तथा इसे भारत की सरकारी काम-काज की भाषा बनाया जाना चाहिए.वासन के अनुसार उर्दू अरबी-फारसी प्रभाव से हिन्दी का उन्नत रूप है. तुर्की मूल के शब्द -उर्दू- का अर्थ सेना या तंबू है. उर्दू ने व्यवहारिक रूप से हिन्दी की शब्दवाली को उसी तरह दोगुना किया है जैसे फ्रेंच ने अंग्रेजी को. उर्दू ने भारतीय कविता विशेषकर श्रंगारिक कविता में बहुत कुछ जोड़ा है. मेहरबानी तथा तशरीफ़ रखिए जैसे शब्द उर्दू के हैं. 


वस्तुतः उर्दू एक गड्ड-मड्ड भाषा या यूँ कहें कि उर्दू हिन्दी भाषा ही है जो अरबी अक्षरों से लिखी जाती है. उर्दू वास्तव में एक भाषा है ही नहीं. फारस, अरब तथा तुर्की आदि देशों के सिपाहियों की मिश्रित बोली ही उर्दू है. किसी पराजित देश में विजेताओं की भाषा का प्रयोग करने की प्रवृत्ति होती है. इसी कारण भारत में पहले उर्दू तथा बाद में अंग्रेजी बोली गयी. उर्दू तथा अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार तथा हिन्दी की उपेक्षा के पीछे अखबारी समाचार माध्यम तथा प्रशासनिक अधिकारियों की महती भूमिका है.व्यक्ति चाहें भी तो भाषा को प्रचलन में नहीं ला सकते जब तक कि अख़बार तथा प्रशासन न चाहें.


उर्दू का सौदर्य विष कन्या के रूप की तरह मादक किन्तु घातक है. उर्दू अपने उद्भव से आज तक मुस्लिम आक्रमणकारियों और मुस्लिम आक्रामक प्रवृत्ति की भाषा है.८० से अधिक वर्षों तक उर्दू उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत की सरकारी काम-काज की भाषा रही है किन्तु यह उत्तर तथा हैदराबाद के मुसलमानों को छोड़कर अन्य वर्गों (यहाँ तक कि मुसलमानों में भी)में अपनी जड़ नहीं जमा सकी. अंग्रेजी राज्य में उत्तर भारत में उर्दू शिक्षण अनिवार्य किये जाने के कारण पुरुष वर्ग उर्दू जान गया था किन्तु घरेलू महिलाएं हिन्दी ही बोलती रहीं.यहाँ तक कि  केवल ५०% मुसलमान ही उर्दू को अपनी मातृभाषा कहते है. यह भी सत्य है कि मुसलमानों की धार्मिक भाषा उर्दू नहीं अरबी है. आरम्भ में मुस्लिन लीग ने भी उर्दू को मुसलमानों की दूसरी भाषा ही कहा था.


भारत में उर्दू का सीधा विरोध न होने पर भी स्वतंत्रता के वर्षों बाद मुस्लिम आतंकवाद ने एक बार फिर उर्दू को अपना औजार बनाने की कोशिश की है. भारत सरकार ने हिंदीभाषियों के धन से उर्दू विश्वविद्यालय स्थापिय करने में संकोच नहीं किया. बांग्ला देश ने उर्दू  के घातक प्रभाव को पहचानकर सांस्कृतिक आधार पर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया.यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी पंजाबियों, सिंधियों बलूचोंऔर पठानों ने भी उर्दू को अपनी सभ्यता-संस्कृति के लिये घातक पाया और अब उर्दू पाकिस्तान में भी सिर्फ मुहाजिरों (भारत से भाग कर पहुँचे मुसलमान) की भाषा है.

भारत में जन्म लेने ओर पोसी जाने के बाद भी उर्दू अबाधी, भोजपुरी, बृज, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी और ऐसी ही अन्य भाषाओँ की तरह आम आदमी की भाषा नहीं बन सक़ी और आज भी यह अधिकांश लोगों के लिये परी भाषा है बव्जीद इसके कि इसके कुछ शब्द प्रेस द्वारा लगातार उपयोग में लाये जाते हैं तथा इसे देवनागरी में लिखा जाता है जिससे इसके हिन्दी होने का भ्रम होता है. वस्तुतः उर्दू के पीछे सांप्रदायिक हिन्दी द्रोही मानसिकता को देखते हुए इसे हिन्दी से इतर पहचान दिया जाना बंद कर हिन्दी में ही विलीन होने दिया जाना चाहिए.

रविवार, 19 सितंबर 2010

विशेष विचार प्रधान शोधपरक लेख: समय और परिस्थितियों के शिकार कायस्थ जन संजीव वर्मा 'सलिल'

 समय और परिस्थितियों के शिकार कायस्थ जन

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
समस्त सृष्टि के निर्माता परात्पर परमब्रम्ह निर्विकार-निराकार हैं. आकार न होने से उनका चित्र गुप्त है. जिस अनहद नाद में योगी लीन रहते हैं, वह ॐ ही सकल सृष्टि का जन्दाताजन्मदाता, पालक, तारक है. निराकार चित्र गुप्त जब आकार धारण करते हैं तो सृष्टि ब्रम्हांड के जन्मदाता ब्रम्हा, पालक विष्णु व तारक शिव के रूप में प्रथम ३ कायस्थ अवतार लेते हैं. 'कायास्थितः सः कायस्थः'' अर्थात वह निराकार परमशक्ति जब आकार (काया) धारण करती है तो काया में स्थित होने के कारण कायस्थ होता है.

'ब्रम्हम जानाति सः ब्राम्हणः' जो ब्रम्ह को जानते हैं वे ब्राम्हण हैं अर्थात जिनका काम सृष्टि उत्पत्ति के गूढ़ रहस्य जैसे जटिल विषयों को जानना और ज्ञान देना है वे ब्राम्हण हैं. इसी तरह जो रक्षा करते हैं वे क्षत्रिय, जो व्यापार करते हैं वे वैश्य तथा जो सेवा कर्म करते हैं वे शूद्र हैं. कायस्थ वे हैं जो ये सभी कर्म समान भाव से करते हैं.

जात कर्म तथा जातक कथाओं में 'जात' शब्द का अर्थ जन्म लेना है. व्यक्ति जिस क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त कर उसे व्यवसाय रूप में अपनाता है, उस क्षेत्र में उसका जन्म लेना माना जाता है. कहावत है 'कायथ घर भोजन करे, बचहु न एकौ जात' अर्थात कायस्थ के घर भोजन करने से अन्य किसी जात के घर भोजन करना शेष नहीं रहता, कायस्थ के घर खाया तो हर जात में खा लिया अर्थात कायस्थ की गणना हर वर्ण में है, वह किसी एक वर्ण का नहीं है. जो चारों वर्णों के कार्य समान दक्षता से करने में समर्थ होते हैं वे किसी अन्य की तुलना में अधिक योग्य होने से ''कायस्थ'' कहे गए.

सृष्टि का कण-कण कायायुक्त है. अतः, सभी चर-अचर, दृष्ट-अदृष्ट कायस्थ, जीव-अजीव हैं.

आरम्भ में कायस्थों ने अपने आराध्य श्री चित्रगुप्त का न तो कोई चित्र या मूर्ति बनाई, न मंदिर या मठ, न व्रत-त्यौहार, न कथा-उपवास. वे जानते थे कि हर दैवी शक्ति श्री चित्रगुप्त का अंश है, किसी भी रूप में पूजें पूजा चित्रगुप्त की ही होती है. कायस्थों में विवाहादि प्रसंगों में इसी कारण जन्मना जाति प्रथा मान्य कट्टरता से नहीं रही. कालांतर में कायस्थों के आराध्य निराकार चित्रगुप्त के साकार रूप की कल्पना सत्यनारायण के रूप में हुई जिसे चुटकी भर आटे के साथ कोई गरीब से गरीब व्यक्ति भी पूज सकता था, जो राजा को भी दण्डित कर सकते थे.

कायस्थों में अनेक श्रेष्ठ पंडित, वैद्य, ज्योतिष, संत, योद्धा, व्यापारी, शासक, प्रशासक आदि होने का कारण यही है कि वे चारों वर्णों को अपनाते थे. किसी पिता के ४ पुत्र अपनी रूचि या योग्यता के आधार पर चारों वर्णों में व्यवसाय कर सकते थे. चारों वर्णों में रोती-बेटी के सम्बन्ध स्थापित होना प्रतिबंधित न था. कालांतर में महर्षि व्यास द्वारा श्रुति-स्मृति पर आधारित व्यवस्था को ज्ञान का संहिताकरण कर व्यासपीठ के संचालकों के माध्यम से संचालित करने पर गुरु गद्दी पर जन्मना औरस पुत्र या कर्मणा श्रेष्ठ मानस पुत्र के आसीन होने के प्रश्न खड़े हुए. कायस्थ कर्म को देवता मानते थे तथा निरपेक्ष कर्मवाद के समर्थक थे. उन्होंने मानस पुत्रों (श्रेष्ठ शिष्य) को योग्य पाया जबकि ब्राम्हणों ने जन्मना औरस पुत्र को. यही स्थिति राज गद्दी के सम्बन्ध में भी हुई.

कायस्थ कर्म विधान को मानते थे अर्थात जीव का जन्म पूर्व जन्म के शेष कर्मों का फल भोगने के लिये हुआ है. केवल सत्कर्मों से ही जीव मुक्त हो सकता है. किसी देव की पूजा, उपवास, कर्म काण्ड, कथा श्रावण, भोग-प्रसाद, गण्डा-ताबीज, मन्त्र-तंत्र, नाग-रत्न आदि से कर्म-फल से मुक्ति नहीं पाई जा सकती. ब्राम्हणों ने परिश्रम और योग्यता के स्थान पर कर्मकांड और जन्माधारित विरासत का पक्ष लिया. गरीब, पीड़ित, अभावग्रस्त आम लोगों के मन में धर्म और ईश्वर संबंधी भय अनेक कपोल कल्पित कथाएँ सुनाकर पैदा के दिया तथा निदान स्वरूप कर्म काण्ड, व्रत, उपवास, दान आदि बताये जिनमें स्वयं (ब्राम्हणों) को ही दान का प्रावधान था.

राज गद्दी पर योग्यता के आधार पर सभी लोगों में से योग्यतम को चुनने के स्थान पर राजा के प्रिय या ज्येष्ठ पुत्र को चुनने की परंपरा प्रारंभ कर ब्राम्हण राज परिवार के प्रिय हुए. यहाँ तक कि स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि भी ब्राम्हणों ने खुद को घोषित कर दिया. संतानहीन राजाओं की रानियों को नियोग के माध्यम से ब्राम्हण पुत्र भी देने लेगे. राजा का विवाह होने पर रानी को पहले ब्राम्हण के साथ जाना होता था तथा राजा ब्राम्हण को शुल्क देकर रानी को प्राप्त करता था.

कायस्थ सता से जुड़े रहने से भोग-विलास के आदी, षड्यंत्रों के शिकार तथा निरपेक्ष सत्य कहने के कारण सत्ताधारियों के अप्रिय हुए. स्वामिभक्त होने के कारण वे मारे भी गए. ब्राम्हणों ने राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना. जब जो राजा आया ब्राम्हण उसे ही मान्यता देते रहे, जबकि कायस्थ अपनी निष्ठा बदल नहीं सके. कर्मकांड की बढ़ती प्रतिष्ठा के कारण ब्राम्हण समाज में पूज्य हो गए जबकि कायस्थ किसी एक वर्ण या जाति से न जुड़ने के कारण उपेक्षित हो गए. प्रतिभा के धनी तथा बलिदानी होने पर भी कायस्थ सत्तासीन नहीं हो सके. 

आधुनिक काल में श्री जवाहरलाल नेहरु, डॉ, राजेन्द्र प्रसाद तथा नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को देखें. प्रथम की तुलना में शेष दोनों की प्रतिभा, योग्यता, समर्पण, बलिदान बहुत अधिक होने पर भी उनका प्राप्य अत्यल्प रहा. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद नेहरु के कड़े विरोध के बाद राष्ट्रपति बने किन्तु पश्चातवर्ती राजनीति में उनके किसी स्वजन-परिजन को कोई स्थान न मिला जबकि नेहरु का वंश न होने पर भी वे और उनके स्वजन कोंग्रेस और सत्ता पर आसीन रहे. नेताजी के हिस्से में केवल संघर्ष, त्याग, बलिदान ही आया.

अन्यत्र भी कायस्थों की नियति ऐसी ही रही. कायस्थ व्यक्तिगत मूल्यपरक जीवनमूल्यों को जीता है जबके अन्य वर्ण समूह्परक हितों को साधते हैं. लोकतंत्र में समूह-नायक धोबी के आक्षेप पर राम भी सीता को त्यागने पर विवश हो गए थे. कायस्थ में समूह निर्माण का संस्कार ही नहीं है तो समूहगत चेतना या समूह के हितों का संरक्षण का प्रश्न ही नहीं उठता. इसीलिये वह संगठित नहीं हो पाता, न संगठित हो सकेगा. सभी स्टारों पर कायस्थ सभाएं और संस्थाएं असफल हुईं हैं और होती रहेंगी. ऐसा नहीं है कि इनमें योग्य, समर्पित, बलिदानी या संपन्न नेतृत्व नहीं आया या लोग नहीं जुड़े या सुनियोजित कार्यक्रम और नीतियां नहीं बनीं. यह सब होने के बाद भी परिणाम शून्य हुआ.

कायस्थ न तो व्यक्तिपरक रहा, न समष्टिगत हो सका. उदारता-संकीर्णता, साक्षरता-नासमझी, ज्ञान की प्रचुरता-लक्ष्मी का अभाव, दानवृत्ति का ह्रास, अनुकरण करने की भावना का अभाव तथा सामूहिक निर्णय या गतिविधि के प्रति अरुचि ने कायस्थों को उनके मूल आधार से अलग कर दिया और किसी नए विचार को वे अपना नहीं सके. आज की बदलती परिस्थिति में कायस्थों के अपनी मूलवृत्ति विश्व को कुटुंब मानकर जन्मना जाति को ठुकराने, योग्यता और गुण के आधार पर अंतरजातीय विवाह सम्बन्ध करने, आर्थिक गतिविधिपरक समूह बनाने और संस्थाएँ चलाने, सेवावृत्ति पर उद्योग और राजनीति को वरीयता देने, परिश्रम और लगन के साथ कर्म को आराध्य मानने के अपनाना होगा तभी वे व्यक्तिगत रूप से समृद्ध, सामाजिक रूप से संगठित तथा सांस्कृतिक रूप से संपन्न हो सकेंगे. उन्हें स्वयं को विश्व मानव के रूप में ढालना होगा तथा विश्व साक्षरता, विश्व शांति, विश्व न्याय तथा विश्व समानता के ध्वजवाहक बनकर दुनिया के कोने-कोने में जाना और छाना होगा.

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Acharya Sanjiv Salil

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मंगलवार, 3 अगस्त 2010

चिंतन : शब्दों की सामर्थ्य -- संजीव 'सलिल'

चिंतन :

शब्दों की सामर्थ्य

संजीव 'सलिल'
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पिछले कुछ दशकों से यथार्थवाद के नाम पर साहित्य में अपशब्दों के खुल्लम खुल्ला प्रयोग का चलन बढ़ा है. इसके पीछे दिये जाने वाले तर्क २ हैं: प्रथम तो यथार्थवाद अर्थात रचना के पात्र जो भाषा प्रयोग करते हैं उसका प्रयोग और दूसरा यह कि समाज में इतनी गंदगी आचरण में है कि उसके आगे इन शब्दों की बिसात कुछ नहीं. सरसरी तौर से सही दुखते इन दोनों तर्कों का खोखलापन चिन्तन करते ही सामने आ जाता है.

हम जानते हैं कि विवाह के पश्चात् नव दम्पति वे बेटी-दामाद हों या बेटा-बहू शयन कक्ष में क्या करनेवाले हैं? यह यथार्थ है पर क्या इस यथार्थ का मंचन हम मंडप में देखना चाहेंगे? कदापि नहीं, इसलिए नहीं कि हम अनजान या असत्यप्रेमी पाखंडी हैं, अथवा नव दम्पति कोई अनैतिक कार्य करेने जा रहे होते हैं अपितु इसलिए कि यह मानवजनित शिष्ट, सभ्यता और संस्कारों का तकाजा है. नव दम्पति की एक मधुर चितवन ही उनके अनुराग को व्यक्त कर देती है. इसी तरह रचना के पत्रों की अशिक्षा, देहातीपन अथवा अपशब्दों के प्रयोग की आदत का संकेत बिना अपशब्दों का प्रयोग किए भी किया जा सकता है. रचनाकार की शब्द सामर्थ्य तभी ज्ञात होती है जब वह अनकहनी को बिना कहे ही सब कुछ कह जाता है, जिनमें यह सामर्थ्य नहीं होती वे रचनाकार अपशब्दों का प्रयोग करने के बाद भी वह प्रभाव नहीं छोड़ पाते जो अपेक्षित है.

दूसरा तर्क कि समाज में शब्दों से अधिक गन्दगी है, भी इनके प्रयोग का सही आधार नहीं है. साहित्य का सृजन करें के पीछे साहित्यकार का लक्ष्य क्या है? सबका हित समाहित करनेवाला सृजन ही साहित्य है. समाज में व्याप्त गन्दगी और अराजकता से क्या सबका हित, सार्वजानिक हित सम्पादित होता है? यदि होता तो उसे गन्दा नहीं माना जाता. यदि नहीं होता तो उसकी आंशिक आवृत्ति भी कैसे सही कही जा सकती है? गन्दगी का वर्णन करने पर उसे प्रोत्साहन मिलता है.

समाचार पात्र रोज भ्रष्टाचार के समाचार छापते हैं... पर वह घटता नहीं, बढ़ता जाता है. गन्दगी, वीभत्सता, अश्लीलता की जितनी अधिक चर्चा करेंगे उतने अधिक लोग उसकी ओर आकृष्ट होंगे. इन प्रवृत्तियों की नादेखी और अनसुनी करने से ये अपनी मौत मर जाती हैं. सतर्क करने के लिये संकेत मात्र पर्याप्त है.

तुलसी ने असुरों और सुरों के भोग-विलास का वर्णन किया है किन्तु उसमें अश्लीलता नहीं है. रहीम, कबीर, नानक, खुसरो अर्थात हर सामर्थ्यवान और समयजयी रचनाकार बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाता हैं और पाठक, चिन्तक, समलोचालक उसके लिखे के अर्थ बूझते रह जाते हैं. समस्त टीका शास्त्र और समीक्षा शास्त्र रचनाकार की शब्द सामर्थ्य पर ही टिका है.

अपशब्दों के प्रयोग के पीछे सस्ती और तत्कालिल लोकप्रियता पाने या चर्चित होने की मानसिकता भी होती है. रचनाकार को समझना चाहिए कि साथी चर्चा किसी को साहित्य में अजर-अमर नहीं बनाती. आदि काल से कबीर, गारी और उर्दू में हज़ल कहने का प्रचलन रहा है किन्तु इन्हें लिखनेवाले कभी समादृत नहीं हुए. ऐसा साहित्य कभी सार्वजानिक प्रतिष्ठा नहीं पा सका. ऐसा साहित्य चोरी-चोरी भले ही लिखा और पढ़ा गया हो, चंद लोगों ने भले ही अपनी कुण्ठा अथवा कुत्सित मनोवृत्ति को संतुष्ट अनुभव किया हो किन्तु वे भी सार्वजनिक तौर पर इससे बचते ही रहे.

प्रश्न यह है कि साहित्य रच ही क्यों जाता है? साहित्य केवल मनुष्य ही क्यों रचता है?

केवल मनुष्य ही साहित्य रचता है चूंकि ध्वनियों को अंकित करने की विधा (लिपि) उसे ही ज्ञात है. यदि यही एकमात्र कारण होता तो शायद साहित्य की वह महत्ता न होती जो आज है. ध्वन्यांकन के अतिरिक्त साहित्य की महत्ता श्रेष्ठतम मानव मूल्यों को अभिव्यक्त करने, सुरक्षित रखने और संप्रेषित करने की शक्ति के कारण है. अशालीन साहित्य श्रेष्ठतम मूल्यों को नहीं निकृष्टतम मूल्यों को व्यक्त कर्ता है, इसलिए वह सदा त्याज्य माना गया और माना जाता रहेगा.

साहित्य सृजन का कार्य अक्षर और शब्द की आराधना करने की तरह है. माँ, मातृभूमि, गौ माता और धरती माता की तरह भाषा भी मनुष्य की माँ है. चित्रकार हुसैन ने सरस्वती और भारत माता की निर्वस्त्र चित्र बनाकर यथार्थ ही अंकित किया पर उसे समाज का तिरस्कार ही झेलना पड़ा. कोई भी अपनी माँ को निर्वस्त्र देखना नहीं चाहता, फिर भाषा जननी को अश्लीलता से आप्लावित करना समझ से परे है.

सारतः शब्द सामर्थ्य की कसौटी बिना कहे भी कह जाने की वह सामर्थ्य है जो अश्लील को भी श्लील बनाकर सार्वजनिक अभिव्यक्ति का साधन तो बनती है, अश्लीलता का वर्णन किए बिना ही उसके त्याज्य होने की प्रतीति भी करा देती है. इसी प्रकार यह सामर्थ्य श्रेष्ट की भी अनुभूति कराकर उसको आचरण में उतारने की प्रेरणा देती है. साहित्यकार को अभिव्यक्ति के लिये शब्द-सामर्थ्य की साधना कर स्वयं को सामर्थ्यवान बनाना चाहिए न कि स्थूल शब्दों का भोंडा प्रयोग कर साधना से बचने का प्रयास करना चाहिए.

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