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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

शेर / द्विपदी, दोहा

शेर / द्विपदी

मिलाकर हाथ खासों ने, किया है आम को बाहर
नहीं लेना न देना ख़ास से, हम आम इन्सां हैं
दोहा दुनिया
*
राजनीति है बेरहम, सगा न कोई गैर
कुर्सी जिसके हाथ में, मात्र उसी की खैर
*
कुर्सी पर काबिज़ हुए, चेन्नम्मा के खास
चारों खाने चित हुए, अम्मा जी के दास
*
दोहा देहरादून में, मिला मचाता धूम
जितने मतदाता बने, सब है अफलातून
*
वाह वाह क्या बात है?, केर-बेर का संग
खाट नहीं बाकी बची, हुई साइकिल तंग
*
आया भाषणवीर है, छाया भाषणवीर
किसी काम का है नहीं, छोड़े भाषण-तीर
*
मत मत का सौदा करो, मत हो मत नीलाम
कीमत मत की समझ लो, तभी बनेगा काम
*
एक मरा दूजा बना, तीजा था तैयार
जेल हुई चौथा बढ़ा, दो कुर्सी-गल हार
*
१८-२- २०१७

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

kundaliya

कुण्डलिया
राजनीति आध्यात्म की, चेरी करें न दूर
हुई दूर तो देश पर राज करेंगे सूर
राज करेंगे सूर, लड़ेंगे हम आपस में
सृजन छोड़ आनंद गहेँगे, निंदा रस में
देरी करें न और, वरें राह परमात्म की
चेरी करें न दूर, राजनीति आध्यात्म की
***
संजीव, १३.११.२०१८

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

doha

दोहा दुनिया
*
राजनीति है बेरहम, सगा न कोई गैर
कुर्सी जिसके हाथ में, मात्र उसी की खैर
*
कुर्सी पर काबिज़ हुए, चेन्नम्मा के खास
चारों खाने चित हुए, अम्मा जी के दास
*
दोहा देहरादून में, मिला मचाता धूम
जितने मतदाता बने, सब है अफलातून
*
वाह वाह क्या बात है?, केर-बेर का संग
खाट नहीं बाकी बची, हुई साइकिल तंग
*
आया भाषणवीर है, छाया भाषणवीर
किसी काम का है नहीं, छोड़े भाषण-तीर
*
मत मत का सौदा करो, मत हो मत नीलाम
कीमत मत की समझ लो, तभी बनेगा काम
*
एक मरा दूजा बना, तीजा था तैयार
जेल हुई चौथा बढ़ा, दो कुर्सी-गल हार
*
१८-२- २०१७

बुधवार, 25 जनवरी 2017

doha

सामयिक दोहा सलिला 
*
गाँधी जी के नाम पर, नकली गाँधी-भक्त 
चित्र छाप पल-पल रहे, सत्ता में अनुरक्त 
लालू के लल्ला रहें, भले मैट्रिक फेल 
मंत्री बन डालें 'सलिल', शासन-नाक नकेल 
*
ममता की समता करे, किसमें है सामर्थ?
कौन कर सकेगा 'सलिल', पल-पल अर्थ-अनर्थ??
*
बाप बाप पर पुत्र है, चतुर बाप का बाप 
धूल चटाकर चचा को, मुस्काता है आप 
*
साइकिल-पंजा मिल हुआ, केर-बेर का संग 
संग कमल-हाथी मिलें, तभी जमेगा रंग 
*

मंगलवार, 31 मार्च 2009

दोहे लोकतंत्र के - चंद्रसेन 'विराट'

लोकतंत्र का नाम है. कहाँ लोक का तंत्र?
भीड़-तंत्र कहना उचित, इसमें भीड़ स्वतंत्र.

सधे लोकहित लोक से, तभी लोक का तंत्र.
पर कुछ चतुरों ने किया, इसे वोट का यंत्र.

राजनीति जनतंत्र की, है कापालिक तंत्र.
शाखाओं को सीचती, भूल मूल का मन्त्र.

यह भेड़ों की भीड़ है, यह भेड़ों की चल.
अर्ध शती बीती मगर, वही हाल बेहाल.

भेडें हैं भोली बहुत, समझ न पातीं चाल.
रहते इनमें भेडिये, ओढ़ भेड़ की खाल.

भेड़जनों के भेडिये, बनकर पहरेदार,
लोकतंत्र के नाम पर, करते स्वेच्छाचार.

भेडचाल छूटी नहीं, रहे भेड़ के भेड़.
यही चाहते भेडिये, खाएं खाल उधेड़.

भेड़ों में वह भेडिया, शामिल बनकर भेड़.
रोज भेड़ कम हो रहीं, खून रँगी है मेड.

यह भेड़ों की भीड़ जो, सबसे अधिक विशाल.
उसे हाँकते भेडिये, बदल-बदलकर खाल.

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