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शनिवार, 14 अक्टूबर 2017

kundaliya

कविता दीप
*
पहला कविता-दीप है छाया तेरे नाम
हर काया के साथ तू पाकर माया नाम
पाकर माया नाम न कोई  विलग रह सका
गैर न तुझको कोई किंचित कभी कह सका
दूर न पाया कोई भी तुझको बहला
जन्म-जन्म का बंधन यही जीव का पहला

दीप-छाया
*
छाया ले आयी दिया, शुक्ला हुआ प्रकाश
पूँछ दबा भागा तिमिर, जगह न दे आकाश
जगह न दे आकाश, धरा के हाथ जोड़ता
'मैया! जो देखे मुखड़ा क्यों कहो मोड़ता?
कहाँ बसूँ? क्या तूने भी तज दी है माया?'
मैया बोली 'दीप तले बस ले निज छाया
***
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४
http:/divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर 

रविवार, 8 जुलाई 2012

कविता स्मृतियों की छायाएँ -- विजय निकोर

                                           कविता
                        स्मृतियों की छायाएँ
                                   -- विजय निकोर

              
            
            सांध्य छायाओं की तिरछी कतारें हिलती हैं जैसे
            झूलते  पेड़ों  के  बीच  से झाँक कर देखती है कोई,
            उभरती स्मृति  ही  है शायद जो कटे पंख-सी पड़ी,
            यहाँ, वहाँ, बैंच पर, सर्वत्र,भीगी घास पर बिछी थी,
            लुढ़की मानो सुनहरी स्याही चाँदनी के आँचल-सी .
          
              
 
            लोटते थे इसी घास पर हम बरगद से बरगद तक
            यही बरगद ही तो थे यहाँ  कोई  पचास  साल पहले,
            व्याकुल  विपदाएँ  जो  नयी नहीं, बस  लगती  हैं  नई,
            हर  परिचित स्पर्श उनका अनछुआ अनपहचाना-सा
            चौंका  देता  है  अन्त:स्थल  को विद्युत् की  धारा-सा ...
 
                
 
 
            उजियारा हो, या  उदास  पड़ा  अंधकार  क्षितिज  तक,
            मुरझाए  चेहरे  की  लकीरों-सा  छिपाए  रखता  है  यह
            वेदनामयी  अनुभूति   धूलभरे   निर्विकार  अतीत  की,
            घुल-घुल आती  हैं गरम आँसुओं में अंगारों-सी यादें,
            सांध्य छायाएँ काँपती हैं इन वृध्द पेड़ों की धड़कन-स.
 
 
                
 
            चले आते हैं कटे पंख समय के उड़ते-सूखे-पत्तों-से     
            कितना  हाथ  बढ़ाएँ, काश  कभी  वह  पकड़  में  आएँ,
            कह देते हैं शेष कहानी संतप्त अभिशप्त यौवन की,
            सांध्य छायाएँ... हवाएँ भटकते मटमैले अरमानों की
            वेगवान रहती हैं निर्विराम तिमिरमय अकुलाती यादों में .   
 
                                            ------
                           vijay <vijay2@comcast.net>
                                                                                                 

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

एक गीत : होता है... __ संजीव 'सलिल'

एक गीत                                                                                       
होता है...
संजीव 'सलिल'
*
जाने ऐसा क्यों होता है?
जानें ऐसा यों होता है...
*
गत है नीव, इमारत है अब,
आसमान आगत की छाया.
कोई इसको सत्य बताता,
कोई कहता है यह माया.

कौन कहाँ कब मिला-बिछुड़कर?
कौन बिछुड़कर फिर मिल पाया?
भेस किसी ने बदल लिया है,
कोई न दोबारा मिल पाया.

कहाँ परायापन खोता है?
कहाँ निजत्व कौन बोता है?...
*
रचनाकार छिपा रचना में
ज्यों सजनी छिपती सजना में.
फिर मिलना छिपता तजना में,
और अकेलापन मजमा में.

साया जब  धूमिल हो जाता.
काया का पाया, खो जाता.
मन अपनों को भूल-गँवाता,
तन तनना तज, झुक तब पाता.

साँस पतंग, आस जोता है.
तन पिंजरे में मन तोता है... 
*
जो अपना है, वह सपना है.
जग का बेढब हर नपना है.
खोल, मूँद या घूर, फाड़ ले,
नयन-पलक फिर-फिर झपना है.

हुलस-पुलक मत हो उदास अब.
आएगा लेकर उजास रब.
एकाकी हो बात जोहना,
मत उदास हो, पा हुलास सब.

मिले न जो हँसता-रोता है.
मिले न जो जगता-सोता है...
*****************

बुधवार, 1 सितंबर 2010

दोहा दुनिया : छाया से वार्ता संजीव 'सलिल'

दोहा दुनिया :

छाया से वार्ता

संजीव 'सलिल'
 *














*
अचल मचल अविचल विचल, सचल रखे चल साथ.
'सलिल' चलाचल नित सतत, जोड़ हाथ नत माथ..
*
प्रतिभा से छाया हुई, गुपचुप एकाकार.
देख न पाये इसलिए, छाया का आकार..
*
छाया कभी डरी नहीं, तम उसका विस्तार.
छाया बिन कैसे 'सलिल', तम का हो विस्तार..
*
कर प्रकाश का समादर, सिमट रहे हो मौन.
सन्नाटे का स्वर मुखर, सुना नहीं- है कौन?.
*
छाया की माया प्रबल, बली हुए भयभीत.
माया की छाया जहाँ, होती नीत-अनीत..
*
मायापति इंगित करें, माया दे मति फेर.
सुमति-कुमति सम्मति करें, यह कैसा अंधेर?.
*
अंतरिक्ष के मंच पर, कठपुतली है सृष्टि.
छाया-माया ही ध्खीं, गयी जहाँ तक दृष्टि..
*
दोनों रवि-राकेश हैं, छायापति मतिमान.
एक हुआ रजनीश तो, दूजा है दिनमान..
*
मायापति की गा सका, पूरी महिमा कौन?
जग में भरमाया फिरे, माया-मारा मौन..
*
छाया छाए तो मिले, प्रखर धूप से मुक्ति.
आए लाए उजाला, जाए जगा अनुरक्ति..
*
छाया कहती है करो, सकल काम निष्काम.
जब न रहे छाया करो, तब जी भर विश्राम..
*
छाया के रहते रहे, हर आराम हराम.
छाया बिन श्री राम भी, करें 'सलिल' आराम..
*
परछाईं-साया कहो, या शैडो दो नाम.
'सलिल' सत्य है एक यह, छाया रही अनाम..
*
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम