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गुरुवार, 2 जनवरी 2025

जनवरी २, डहलिया, राम सेंगर, डहलिया, शाला छंद, त्रिपदियाँ, जनवरी : कब क्या?, दोहा

सलिल सृजन जनवरी २
जनवरी : कब क्या?
*
१. ईसाई नव वर्ष।
३.सावित्री बाई फुले जयंती।
४. लुई ब्रेक जयंती।
५. परमहंस योगानंद जयंती।
१०. विश्व हिंदी दिवस।
१२. विवेकानंद / महेश योगी जयन्ती, युवा दिवस।
१३. गुरु गोबिंद सिंह जयंती।
१४. मकर संक्रांति, बीहू, पोंगल, ओणम।
१५. थल सेना दिवस, कुंभ शाही स्नान।
१९. ओशो महोत्सव।
२०. शाकंभरी पूर्णिमा।
23. नेताजी सुभाष चंद्र बोस जयंती.
२६. गणतंत्र दिवस।
२७. स्वामी रामानंदाचार्य जयंती।
२८. लाला लाजपत राय जयंती।
३०. म. गाँधी शहीद दिवस, कुष्ठ निवारण दिवस।
३१. मैहर बाबा दिवस।
***
साहित्यकार / कलाकार:
सर्व श्री / सुश्री / श्रीमती
१. अर्चना निगम ९४२५८७६२३१
त्रिभवन कौल स्व.
राकेश भ्रमर ९४२५३२३१९५
विनोद शलभ ९२२९४३९९००
सुरेश कुशवाह 'तन्मय'
डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल ९८६९०७८४८५
२. राम सेंगर ९८९३२४९३५६
राजकुमार महोबिआ ७९७४८५१८४४
राजेंद्र साहू ९८२६५०६०२५
४. शिब्बू दादा ८९८९००१३५५
८. पुष्पलता ब्योहार ०७६१ २४४८१५२
१२. आदर्श मुनि त्रिवेदी
संतोष सरगम ८८१५०१५१३१
१५. अशोक झरिया ९४२५४४६०३०
१६. हिमकर श्याम ८६०३१७१७१०
२३. अशोक मिजाज ९९२६३४६७८५
२६. उमा सोनी 'कोशिश' ९८२६१९१८७१
***
राम सेंगर
जन्म २-१-१९४५, नगला आल, सिकन्दराऊ, हाथरस उत्तर प्रदेश।
प्रकाशित कृतियाँ:
१. शेष रहने के लिए, नवगीत, १९८६, पराग प्रकाशन दिल्ली।
२. जिरह फिर कभी होगी, २००१, अभिरुचि प्रकाशन दिल्ली।
३.एक गैल अपनी भी, २००९, अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद।
४. ऊँट चल रहा है, २००९, नवगीत, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली।
५. रेत की व्यथा कथा, २०१३, नवगीत, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली।
नवगीत शतक २ तथा नवगीत अर्धशती के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर।
संपर्क: चलभाष ९८९३२४९३५६।
*
शुभांजलि
*
'शेष रहने के लिए',
लिखते नहीं तुम।
रहे लिखना शेष यदि
थकते नहीं तुम।
नहीं कहते गीत 'जिरह
फिर कभी होगी'
मान्यता की चाह कर
बिकते नहीं तुम।
'एक गैल अपनी भी'
हो न जहाँ पर क्रंदन
नवगीतों के राम
तुम्हारा वंदन
*
'ऊँट चल रहा है'
नवगीत का निरंतर।
है 'रेत की व्यथा-कथा'
समय की धरोहर।
कथ्य-कथन-कहन की
अभिनव बहा त्रिवेणी
नवगीत नर्मदा का
सुनवा रहे सहज-स्वर।
सज रहे शब्द-पिंगल
मिल माथ सलिल-चंदन
***
डहलिया
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मूलत: मेक्सिको में समुद्र तट से ५००० फुट ऊँचे रेतीले घास मैदानों में ऊगनेवाला डहलिया ब्यूट की मार्चियोनेस द्वारा १७८९ में मैड्रिड के रास्ते इंग्लैंड लाया गया। इनके खो जाने पर १८०४ में लेडी हालैन्ड द्वारा अन्य पौधे लाए गए। ये भी नष्ट हो गए। वर्ष १८१४ में शांति होने तथा महाद्वीप को खोले जाने पर फ्रांस से नए पौधे मँगवाए गए। लिनियस के शिष्य डॉ. डाहल के नाम पर इसे डहलिया कहा गया। महाद्वीप में इसे 'जॉर्जिना' भी कहा जाता है। १८०० के अंत तक डहलिया फूल की पंखुड़ियों से प्राप्त डहलिया एक्सट्रैक्ट प्राचीन दक्षिण अमेरिका से लेकर मध्य मेक्सिको, युकाटन और ग्वाटेमाला की पूर्व-कोलंबियाई संस्कृतियों में एक महत्वपूर्ण जड़वाला औषधीय गुणों के लिए जाना जात था। इसके कंद या जड़ें, उनके अंदर संग्रहीत पौष्टिक इनुलिन और कंद की त्वचा में केंद्रित एंटीबायोटिक यौगिकों दोनों के लिए मूल्यवान थीं। फूल का एज़्टेक नाम एकोकोटली या कोकोक्सोचिटल अर्थात 'पानी का पाइप' है। यह नाम डहलिया के औषधिक प्रभाव (शरीर प्रणाली में पानी की अनुपस्थिति व प्रवाह) को देखते हुए उपयुक्त है।
प्रकार
बगीचे में रंगों और आकृतियों की विविधता के लिए डहलिया लोकप्रिय पुष्प है। ये आसानी से उगने वाले बहुरंगी फूल क्रीमी सफ़ेद, हल्के गुलाबी, चमकीले पीले, लेकर शाही बैंगनी, गहरे लाल आदि अनेक रंगों में खिलते हैं। इस लोकप्रिय उद्यान फूल की ६०,००० से अधिक नामित किस्में हैं। डहलिया बहु आकारी पुष्प है। एकल-फूल वाले ऑर्किड डहलिया से लेकर फूले हुए पोम पोम डहलिया तक, सजावटी डहलिया के फूल आकार, रूप और रंग की विविधता में होते हैं। देर से गर्मियों में खिलनेवाले अपने खूबसूरत फूलों के साथ, डहलिया बगीचे में शानदार पतझड़ का रंग भर देते हैं। बॉल डाहलिया का ऊपरी भाग चपटा होता है, तथा पंखुड़ियाँ सर्पिल आकार में बढ़ती हैं। कैक्टस डहेलिया की पंखुड़ियाँ तारे के आकार में बढ़ती हैं। मिग्नॉन डहलिया में गोल किरण पुष्प होते हैं। आर्किड डाहलिया का केंद्र खुला होता है तथा एक डिस्क के चारों ओर पुष्पों की किरणें होती हैं। पोम्पोम डहलिया गोल आकार में उगते हैं और उनकी पंखुड़ियाँ घुमावदार होती हैं। सजावटी डहलिया को १५ अलग-अलग रंगों और संयोजनों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

लाल डहलिया: 'अरेबियन नाइट': गहरे बरगंडी रंग के फूल लगभग ३.५ इंच चौड़े होते हैं। 'बेबीलोन रेड': लंबे समय तक चलने वाली, 8 इंच की डिनर प्लेट एक आकर्षक रंग में खिलती है। 'बिशप लैंडैफ़': मधुमक्खियों और बागवानों दोनों द्वारा पसंद किया जाने वाला यह छोटा लाल डाहलिया लाल पंखुड़ियों और गहरे रंग के पत्तों से सजा हुआ है। 'क्रेव कुएर': ११ इंच के डिनर प्लेट के आकार के ये फूल मजबूत तने के ऊपर खिलते हैं, ये जीवंत लाल फूल ४ फीट से अधिक ऊंचे होते हैं। 'रेड कैप': ४ इंच चौड़े फूल चमकीले लाल रंग में खिलते हैं। 'रेड फॉक्स': सघन पौधे जो गहरे लाल, ४ इंच के फूलों के साथ खिलते हैं।

सफेद डहलिया: 'बूम बूम व्हाइट': ५ इंच के खूबसूरत फूलों वाला एक सफ़ेद बॉल डाहलिया। 'सेंटर कोर्ट': यह सफेद डहलिया मजबूत तने के ऊपर ६ इंच के सफेद फूलों का प्रचुर उत्पादक है। 'लांक्रेसी': ४ इंच का, मलाईदार सफेद गेंद जैसा डाहलिया जो छोटे कंदों से उगता है। 'पेटा की शादी': शानदार, मलाईदार ३ इंच के फूलों की प्रचुरता पैदा करती है। 'स्नोकैप': बीच में हरे रंग के विचित्र स्पर्श के साथ सपाट सफेद पंखुड़ियाँ। 'व्हाइट डिनर प्लेट': ये शानदार, शुद्ध सफेद डहलिया फूल १० इंच तक चौड़े होते हैं। 'व्हाइट ओनेस्टा': यह बहुत अधिक फूलने वाला, सपाट सफेद रंग का डहलिया ३.५ इंच चौड़ा होता है।

गुलाबी डहलिया: 'कैफे औ लेट': सुंदर मलाईदार गुलाबी फूल ९ इंच तक चौड़े होते हैं और शादियों और समारोहों में अपनी खूबसूरती से सबको चौंका देते हैं। 'चिल्सन्स प्राइड': 4 इंच की ये सफेद और गुलाबी सुंदरियां गर्मी में लाल हो जाती हैं। 'एसली': ३ इंच के गुलाबी डहलिया में फूलों की भरमार होती है। 'हर्बर्ट स्मिथ': कंद भले ही छोटे हों, लेकिन ये चमकीले गुलाबी रंग के डहलिया 6 इंच तक चौड़े होते हैं। 'रेबेका लिन': प्रचुर मात्रा में, छोटे गुलाबी फूल बबल गम की याद दिलाते हैं। 'सैंड्रा': गेंद के आकार में गुलाबी पंखुड़ियों के साथ किसी भी परिदृश्य में नाटकीयता जोड़ती है। 'मधुर प्रेम': मलाईदार सफेद किनारों वाले हल्के गुलाबी फूल समय के साथ हल्के लाल रंग में बदल जाते हैं। 'ट्रिपल ली ​​डी': कॉम्पैक्ट पौधों के ऊपर असामान्य गुलाबी-सैल्मन रंग।

पीला डहलिया: 'गोल्डन टॉर्च': गोल, पीले रंग की गेंदें जो कटे हुए फूलों की सजावट के लिए उपयुक्त हैं। 'केल्विन फ्लडलाइट': विशाल, लंबे समय तक टिकने वाले पीले फूल जो 10 इंच तक चौड़े होते हैं। 'पोल्वेंटन सुप्रीम': लंबी शाखाओं के ऊपर गेंदों के रूप में खिलने वाला कोमल पीला डाहलिया। 'सन किस्ड': मजबूत तने, जिसके ऊपर चमकीली पीली पंखुड़ियां होती हैं। 'येलो परसेप्शन': आकर्षक 4 इंच के फूलों में पीले रंग की पंखुड़ियां होती हैं, जिनके सिरे सफेद होते हैं।

बैंगनी डहलिया: 'बेबीलोन पर्पल': विशाल डिनर प्लेट बैंगनी रंग की शाही छटा में खिलती है। 'ब्लू बॉय डाहलिया': शायद नीले डाहलिया का सबसे करीबी विकल्प, यह बकाइन डाहलिया तितलियों को आकर्षित करता है। 'दिवा': गहरे, शाही बैंगनी रंग का डाहलिया मजबूत तने पर खिलता है। 'फ़र्नक्लिफ़ इल्यूज़न': हल्के बकाइन फूल 8 इंच तक चौड़े होते हैं। 'प्रेशियस': एक बैंगनी-लैवेंडर फूल जो धीरे-धीरे सफेद हो जाता है।
औषधिक महत्व
डंडेलियन और चिकोरी में पाया जाने वाला १५ से २० प्रतिशत इनुलिन (शरीर की इंसुलिन आवश्यकता पूरी करने में सहायक प्राकृतिक उच्च फाइबर खाद्य), 'डहलिन' अर्थात डहलिया कंद में होता है। इनुलिन निकालने के लिए, जड़ों या कंदों को काट और चूने के दूध से उपचारित कर भाप में पकाया जाता है। फिर रस को निचोड़-छान-साफ कर तरल को एक घूमने वाले कूलर में गुच्छे बनने तक चलाया जाता है। इन गुच्छों को एक केन्द्रापसारक मशीन द्वारा अलगकर, धो और रंगहीन कर प्राप्त शुद्ध उत्पाद अंत में तनु अम्ल से उपचारित कर लेवुलोज में परिवर्तित किया जाता है। लेवुलोज के इस घोल को बेअसर कर वैक्यूम पैन में सिरप में वाष्पित किया जाता है। प्राप्त पूर्ण शुद्ध उत्पाद का मीठा और सुखद स्वाद मधुमेह रोगियों,कन्फेक्शनरी बनाने और चीनी उत्पादों के क्रिस्टलीकरण को धीमा करने के लिए भी उपयोगी बनाता है। इसे शराब बनाने और मिनरल वाटर उद्योगों में भी आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है। एक स्कॉटिश विश्वविद्यालय ने डहेलिया कंद से सेना के लिए एक मूल्यवान और अत्यंत आवश्यक औषधि निकालने की प्रक्रिया विकसित की।विशेष उपचार से गुजरने के बाद, डाहलिया कंद और चिकोरी से शुद्ध लेवुलोज (अटलांटा स्टार्च या डायबिटिक शुगर) से मधुमेह और तपेदिक तथा बच्चों की दुर्बलता का इलाज किया जाता है। १९०८ में पेरिस में आयोजित चीनी उद्योग की दूसरी अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में पढ़े गए एक शोधपत्र के अनुसार शुद्ध लेवुलोज इनुलिन को तनु अम्लों के साथ उलट कर बनाया जाता है। सेलुलर क्षतिरोधक एंटीऑक्सीडेंट गुणों, सूजनरोधी प्रभाव, रक्त शर्करा विनियमन, कार्डियोवैस्कुलर सपोर्ट तथा प्रतिरक्षा प्रणाली सहायक के रूप में डहलिया अर्क की महत्वपूर्ण भूमिका पर शोध जारी है।
***
कुछ त्रिपदियाँ
*
नोटा मन भाया है,
क्यों कमल चुनें बोलो?
अब नाथ सुहाया है।
*
तुम मंदिर का पत्ता
हो बार-बार चलते
प्रभु को भी तुम छलते।
*
छप्पन इंची छाती
बिन आमंत्रण जाकर
बेइज्जत हो आती।
*
राफेल खरीदोगे,
बिन कीमत बतलाये
करनी भी भोगोगे।
*
पंद्रह लखिया किस्सा
भूले हो कह जुमला
अब तो न चले घिस्सा।
*
वादे मत बिसराना,
तुम हारो या जीतो-
ठेंगा मत दिखलाना।
*
जनता भी सयानी है,
नेता यदि चतुर तो
यान उनकी नानी है।
*
कर सेवा का वादा,
सत्ता-खातिर लड़ते-
झूठा है हर दावा।
*
पप्पू का था ठप्पा,
कोशिश रंग लाई है-
निकला सबका बप्पा।
*
औंधे मुँह गर्व गिरा,
जुमला कह वादों को
नज़रों से आज गिरा।
*
रचना न चुराएँ हम,
लिखकर मौलिक रचना
आइए हम अपना नाम कमाएं.
*
गागर में सागर सी,
क्षणिक लघु, जिसका अर्थ है बड़ा-
ब्रज के नटनागर सी।
*
मन ने मन से मिलकर
उन्मन हो कुछ न कहा-
धीरज का बाँध ढहा।
*
है किसका कौन सगा,
खुद से खुद ने पूछा?
उत्तर जो नेह-पगा।
*
तन से तन जब रूठा,
मन, मन ही मन रोया-
सुनकर झूठी-झूठा।
*
तन्मय होकर तन ने,
मन-मृण्मय जान कहा-
क्षण भंगुर है दुनिया।
***
शिव वंदना : एक दोहा अनुप्रास का
*
शिशु शशि शीश शशीश पर, शुभ शशिवदनी-साथ
शोभित शशि सी शशिमुखी, मोहित शिव शशिनाथ
*
शशीश अर्थात चन्द्रमा के स्वामी शिव जी के मस्तक पर बाल चन्द्र शोभायमान है, चन्द्रवदनी चन्द्रमुखी पावती जी उनके साथ हैं जिन्हें निहारकर शिव जी मुग्ध हो रहे हैं.
***
शुभ रजनी शशि से कहा, तारे हैं नाराज.
किसकी शामत आ गई, करे हमारा काज.
२.१.२०१८
***
गीत :
घोंसला
*
सुनो मुझे भी
कहते-कहते थका
न लेकिन सुनते हो.
सिर पर धूप
आँख में सपने
ताने-बाने बुनते हो.
*
मोह रही मन बंजारों का
खुशबू सीली गलियों की
बचे रहेंगे शब्द अगरचे
साँझी साँझ न कलियों की
झील अनबुझी
प्यास लिये तुम
तट बैठे सिर धुनते हो
*
थोड़ा लिखा समझना ज्यादा
अनुभव की सीढ़ी चढ़ना
क्यों कागज की नाव खे रहे?
चुप न रहो, सच ही कहना
खेतों ने खत लिखा
चार दिन फागुन के
क्यों तनते हो?
*
कुछ भी सहज नहीं होता है
ठहरा हुआ समय कहता
मिला चाँदनी को समेटते हुए
त्रिवर्णी शशि दहता
चंदन वन सँवरें
तम भाने लगा
विषमता सनते हो
*
खींच लिये हाशिये समय के
एक गिलास दुपहरी ले
सुना प्रखर संवाद न चेता
जन-मन सो, कनबहरी दे
निषिद्धों की गली
का नागरिक हुए
क्यों घुनते हो?
*
व्योम के उस पार जाके
छुआ मैंने आग को जब
हँस पड़े पलाश सारे
बिखर पगडंडी-सड़क पर
मूँदकर आँखें
समीक्षा-सूत्र
मिथ्या गुनते हो
*
घोंसले में
परिंदे ही नहीं
आशाएँ बसी हैं
*
आँधियाँ आएँ न डरना
भीत हो,जीकर न मरना
काँपती हों डालियाँ तो
नीड तजकर नहीं उड़ना
मंज़िलें तो
फासलों को नापते
पग को मिली हैं
घोंसले में
परिंदे ही नहीं
आशाएँ बसी हैं
*
संकटों से जूझना है
हर पहेली को सुलझाना है
कोशिशें करते रहे जो
उन्हें राहें सूझना है
ऊगती उषा
तभी जब साँझ
खुद हंसकर ढली है
घोंसले में
परिंदे ही नहीं
आशाएँ बसी हैं
११-१०-२०१६
***
छंद सलिला:
शाला छंद
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: आगरा, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्र वज्र, उपेन्द्र वज्र, कीर्ति, घनाक्षरी, प्रेमा, वाणी, शक्तिपूजा, सार, माला)
शाला छंद में 2 छंद, 4 छंद, 44 अक्षर और 71 अक्षर होते हैं। पहले, दूसरे और चौथे चरण में 2 तगण 1 जगण 2 गुरु होते हैं और तीसरे चरण में जगण तगण जगण 2 गुरु होते हैं।
शाला दे आनंद, इंद्रा तीसरे चरण में
हो उपेन्द्र शुभ छंद, चरण एक दो तीन में
उदाहरण:
१. जा पाठशाला कर लो पढ़ाई, भूलो न सीखा तब हो बड़ाई
पढ़ो-लिखो जो वह आजमाओ, छोडो अधूरा मत पाठ भाई
२. बोलो, न बोलो मत राज खोलो, चाहो न चाहो पर साथ हो लो
करो न कोई रुसवा किसी को, सच्चा कहो या मत झूठ बोलो
३. बाती मिलाओ मन साथ पाओ, वादा निभाओ फिर मुस्कुराओ
बसा दिलों में दिल आप दोनों, सदा दिवाली मिल के मनाओ
२.१.२०१४
*** 

सोमवार, 2 जनवरी 2023

सॉनेट, पद, राम सेंगर, दोहा, शिव, नवगीत, जनवरी

सॉनेट 
बसाहट
बसने की आहट आई है
दो हजार तेइस पहले दिन
हँसी-खुशी सबको भाई है
कलकल कलरव ताक धरना धिन

बसकर उजड़े नीड़ न कोई
जाग सके हर एक आत्मा
रौंदी जाए फसल न बोई
फूल-फल सके हे परमात्मा!

पर्वत नदियाँ राहें मंज़िल 
सभी जगह हो तेरी आहट
हे शंकर! आ कंकर में बस 
बस्ती बस्ती बसे बसाहट

हँसे पार्वती विघ्नेश्वर रच
नव खुशियाँ सुन सकें बुलाहट
संजीव
२-१-२०२३, ८•०६
जबलपुर 
●●●
पद
प्रभु पीड़ित की पीर हरो
दुखहर्ता है नाम तुम्हारो, सकल शोक का शमन करो
शांत रहे मन खुद से खुद ही, कह पाए कुछ धैर्य धरो
तन कर पाए जो करना वह, साहस दे कह नहीं डरो
राह दिखाओ परमपिता हे!, मुझमें अपनी शक्ति भरो
करने योग्य कर सकूँ अविचल, प्रभु! मम सिर पर हाथ धरो
२-१-२०२३
•••
***
जन्म दिवस शुभकामना 
राम सेंगर

शतवर्षी हों, दें आशीष।
नवगीतों के आप महीश।।
लिखे सत्य ही कलम हमेशा
हम कंकर हैं आप गिरीश।।

जन्म २-१-१९४५, नगला आल, सिकन्दराऊ, हाथरस उत्तर प्रदेश।
प्रकाशित कृतियाँ:
१. शेष रहने के लिए, नवगीत, १९८६, पराग प्रकाशन दिल्ली।
२. जिरह फिर कभी होगी, २००१, अभिरुचि प्रकाशन दिल्ली।
३. एक गैल अपनी भी, २००९, अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद।
४. ऊँट चल रहा है, २००९, नवगीत, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली।
५. रेत की व्यथा कथा, २०१३, नवगीत, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली।
नवगीत शतक २ तथा नवगीत अर्धशती के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर।
संपर्क: जाग्रति कॉलोनी, विनोबा वार्ड, पोस्ट जुहला, बरही रोड, कटनी ४८३५०१। चलभाष ९८९३२४९३५६।
*
शुभांजलि
*
'शेष रहने के लिए',
लिखते नहीं तुम।
रहे लिखना शेष यदि
थकते नहीं तुम।
नहीं कहते गीत 'जिरह
फिर कभी होगी'
मान्यता की चाह कर
बिकते नहीं तुम।
'एक गैल अपनी भी'
हो न जहाँ पर क्रंदन
नवगीतों के राम
तुम्हारा वंदन
*
'ऊँट चल रहा है'
नवगीत का निरंतर।
है 'रेत की व्यथा-कथा'
समय की धरोहर।
कथ्य-कथन-कहन की
अभिनव बहा त्रिवेणी
नवगीत नर्मदा का
सुनवा रहे सहज-स्वर।
सज रहे शब्द-पिंगल
मिल माथ सलिल-चंदन
***
२.१.२०१९

जनवरी
कब क्या?
*
१. ईसाई नव वर्ष।
३. सावित्री बाई फुले जयंती।
४. लुई ब्रेक जयंती।
५. परमहंस योगानंद जयंती।
१०. विश्व हिंदी दिवस।
१२. विवेकानंद / महेश योगी जयन्ती, युवा दिवस।
१३. गुरु गोबिंद सिंह जयंती।
१४. मकर संक्रांति, बीहू, पोंगल, ओणम।
१५. थल सेना दिवस, कुंभ शाही स्नान।
१९. ओशो महोत्सव।
२०. शाकंभरी पूर्णिमा।
२३. नेताजी सुभाषचंद्र बोस जयंती।
२६. गणतंत्र दिवस।
२७. स्वामी रामानंदाचार्य जयंती।
२८. लाला लजपत राय जयंती।
३०. म. गाँधी शहीद दिवस, कुष्ठ निवारण दिवस।
३१. मैहर बाबा दिवस।
***
साहित्यकार / कलाकार:
सर्व श्री / सुश्री / श्रीमती
१. अर्चना निगम ९४२५८७६२३१
त्रिभवन कौल स्व.
राकेश भ्रमर ९४२५३२३१९५
विनोद शलभ ९२२९४३९९००
सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' ९८९३२६६०१४
डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल ९८६९०७८४८५
२. राम सेंगर ९८९३२४९३५६
राजकुमार महोबिआ ७९७४८५१८४४
राजेंद्र साहू ९८२६५०६०२५
४. शिब्बू दादा ८९८९००१३५५
८. पुष्पलता ब्योहार ०७६१ २४४८१५२
१२. आदर्श मुनि त्रिवेदी ९४२५३६२९८५
संतोष सरगम ८८१५०१५१३१
१५. अशोक झरिया ९४२५४४६०३०
१६. हिमकर श्याम ८६०३१७१७१०
२३. अशोक मिजाज ९९२६३४६७८५
२६. उमा सोनी 'कोशिश' ९८२६१९१८७१
***


***
एक दोहा
शुभ रजनी शशि से कहा,
सिंह हुआ नाराज.
किसकी शामत आ गई,
करता मेरा काज.
***
शिव वंदना : एक दोहा अनुप्रास का
*
शिशु शशि शीश शशीश पर, शुभ शशिवदनी-साथ
शोभित शशि सी शशिमुखी, मोहित शिव शशिनाथ
*
शशीश अर्थात चन्द्रमा के स्वामी शिव जी के मस्तक पर बाल चन्द्र शोभायमान है, चन्द्रवदनी चन्द्रमुखी पावती जी उनके साथ हैं जिन्हें निहारकर शिव जी मुग्ध हो रहे हैं.
*
***
नवगीत
घोंसला
*
घोंसले में
परिंदे ही नहीं
आशाएँ बसी हैं
*
आँधियाँ आयें न डरना
भीत हो,जीकर न मरना
काँपती हों डालियाँ तो
नीड तजकर नहीं उड़ना
मंज़िलें तो
फासलों को नापते
पग को मिली हैं
घोंसले में
परिंदे ही नहीं
आशाएँ बसी हैं
*
संकटों से जूझना है
हर पहेली बूझना है
कोशिशें करते रहे जो
उन्हें राहें सूझना है
ऊगती उषा
तभी जब साँझ
खुद हंसकर ढली है
घोंसले में
परिंदे ही नहीं
आशाएँ बसी हैं
*
१२-१-२०१६
***
नवगीत:
संजीव
*
खुशियों की मछली को
चिंता का बगुला
खा जाता है
.
श्वासों की नदिया में
आसों की लहरें
कूद रहीं हिरणी सी
पलभर ना ठहरें
आँख मूँद मगन
उपवासी साधक
ठग जाता है
.
पथरीले घाटों के
थाने हैं बहरे
देख अदेखा करते
आँसू-नद गहरे
एक टाँग टाँग खड़ा
शैतां, साधू बन
डट खाता है
.
श्वेत वसन नेता से
लेकिन मन काला
अंधे न्यायलय ने
सच झुठला डाला
निरपराध फँस जाता
अपराधी झूठा
बच जाता है
***
नवगीत
.
हाथों में मोबाइल थामे
गीध दृष्टि पगडंडी भूली
भटक न जाए
.
राजमार्ग पर जाम लगा है
कूचे-गली हुए हैं सूने
ओवन-पिज्जा का युग निर्दय
भटा कौन चूल्हे में भूने?
महानगर में सतनारायण
कौन कराये कथा तुम्हारी?
गोबर बिन गणेश का पूजन
कैसे होगा बिपिनबिहारी?
कलावती की कथा सुन रहे
लीला की लीला मन झूली
मटक न आए
.
रावण रखकर रूप राम का
करे सिया से नैन मटक्का
मक्का जाने खों जुम्मन नें
बेंच दई बीजन कीं मक्का
हक्का-बक्का खाला बेबस
बिटिया बारगर्ल बन सिसके
एड्स बाँट दूँ हर गाहक को
भट्टी अंतर्मन में दहके
ज्वार-बाजरे की मजबूरी
भाटा-ज्वार दे गए सूली
गटक न पाए
.
***
नवगीत:
.
अपनी-अपनी
मर्यादा कर तार-तार
होते प्रसन्न हम
राम बचाये
.
वृद्धाश्रम-बालाश्रम और अनाथालय कुछ तो कहते हैं
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ आँसू क्यों बहते रहते हैं?
राम-रहीम बीनते कूड़ा रजिया-रधिया झाड़ू थामे
सड़क किनारे बैठे लोटे
बतलाते
कितने विपन्न हम?
राम बचाये
.
अमराई पर चौपालों ने फेंका क्यों तेज़ाब पूछिए?
पनघट ने खलिहानों को क्यों नाहक भेजा जेल बूझिए?
सास-बहू, भौजाई-ननदी, क्यों माँ-बेटी सखी न होतीं?
बेटी-बेटे में अंतर कर
मन से रहते
सदा खिन्न हम
राम बचाये
.
दुश्मन पर कम, करें विपक्षी पर क्यों ज्यादा प्रहार हम?
नगद-बचत की भूल सादगी चमक-दमक वरते उधार हम
मेले नौटंकी कठपुतली कजरी आल्हा फागें बिसरे
माल जा रहे माल लुटाने,
क्यों न भीड़ से
हुए भिन्न हम?
राम बचाये
.
(३०.१२.२०१४, कटनी, ८.००, दयोदय एक्सप्रेस, बी २ /१७, जयपुर-जबलपुर)

बुधवार, 2 जनवरी 2019

राम सेंगर

अमृत जयन्ती की देहरी पर राम सेंगर
जन्म २-१-१९४५, नगला आल, सिकन्दराऊ, हाथरस उत्तर प्रदेश।
प्रकाशित कृतियाँ:
१. शेष रहने के लिए, नवगीत, १९८६, पराग प्रकाशन दिल्ली।
२. जिरह फिर कभी होगी, २००१, अभिरुचि प्रकाशन दिल्ली। 
३. एक गैल अपनी भी, २००९, अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद।
४. ऊँट चल रहा है, २००९, नवगीत, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली।
५. रेत की व्यथा कथा, २०१३, नवगीत, उद्भावना प्रकाशन, दिल्ली।
नवगीत शतक २ तथा नवगीत अर्धशती के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर।
संपर्क: जाग्रति कॉलोनी, विनोबा वार्ड, पोस्ट जुहला, बरही रोड, कटनी ४८३५०१। चलभाष ९८९३२४९३५६।
*
शुभांजलि
*
'शेष रहने के लिए',
लिखते नहीं तुम।
रहे लिखना शेष यदि
थकते नहीं तुम।
नहीं कहते गीत 'जिरह
फिर कभी होगी'
मान्यता की चाह कर
बिकते नहीं तुम।
'एक गैल अपनी भी'
हो न जहाँ पर क्रंदन
नवगीतों के राम
तुम्हारा वंदन
*
'ऊँट चल रहा है'
नवगीत का निरंतर।
है 'रेत की व्यथा-कथा'
समय की धरोहर।
कथ्य-कथन-कहन की
अभिनव बहा त्रिवेणी
नवगीत नर्मदा का
सुनवा रहे सहज-स्वर।
सज रहे शब्द-पिंगल
मिल माथ सलिल-चंदन
***
२.१.२०१९

सोमवार, 10 सितंबर 2018

samiksha

पुस्तक चर्चा:

रेत की व्यथा कथा- राम सेंगर

- रामशंकर वर्मा
१९४५ में जिला-हाथरस में जन्मे और वर्तमान में कटनी, मध्यप्रदेश की भूमि से साहित्य जगत को अपने नवगीतों से समृद्ध करने वाले राम सेंगर हिन्दी नवगीत के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे देश के उन गिने-चुने नवगीतकारों में से एक हैं, जिनके नवगीत डा॰ शम्भुनाथ सिंह द्वारा संपादित ‘नवगीत दशक-२’ व ‘नवगीत अर्द्धशती’ में स्थान पाने में समर्थ हो सके। नवगीत के चरणबद्ध विकास और उसके चरित्र में शिल्प, कथ्य, भाशा, युगबोध के बरक्स हुए परिर्वतनों को जानने के लिए नवगीत के प्रारम्भिक दौर के नवगीतकारों के नवगीतों पर पाठचर्या करना अनेक कारणों से उपयोगी है। स्वराजकामी भारतीय जनमानस ने जिन अच्छे दिनों की चाह में कन्धे से कन्धे मिलाकर विदेशी सत्ता से लोहा लिया, उसके राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक विचलन, विखण्डन, स्वप्नभंग की अच्छी पड़ताल उनके नवगीतों में की गयी है। 

‘रेत की व्यथा कथा’ उद्भावना प्रकाशन से आने के पूर्व ‘शेष रहने के लिए-१९८६’, ‘जिरह फिर कभी होगी-२००१’ ‘एक गैल अपनी भी-२००९ तथा ‘ऊॅंट चल रहा है-२००९ जैसे उनके नवगीत संग्रह
 साहित्य जगत में अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। 
               
‘रेत की व्यथा कथा’ में संकलित १०४ नवगीत कथ्य, भाषा-शैली, शब्द-विन्यास और शिल्प के स्तर पर उनकी परिपक्व पकड़ के साक्षी हैं। लोकसम्पृक्ति से आच्छादित आस-पास बिखरे विषयों पर उनकी पर्यवेक्षण दृष्टि बहुआयामी है। नयी पीढ़ी के गाँव से शहरों में विस्थापन के फलस्वरूप सामाजिक ताने-बाने की टूट-फूट की विडम्बना कितनी जीवंत हो उठी है इन पंक्तियों में-
ताराचंद, लोकमन, सुखई
गाँव छोड़ कर चले गये
गाँव, गाँव-सा रहा न भैया
रहते तो मर जाते। 
टुकड़े-टुकड़े बिकीं ज़मीनें
औने-पौने ठौर बिके
जीने के आसार रहे जो
चलती बिरियाँ नहीं दिखे
डब-डब आँखों से देखे
बाजों के टूटे पाते।                         

पलायन की बेबसी इन पंक्तियों में कितनी मार्मिक और सहजोर हो उठी है-
गाँव का 
खॅंडहरनुमा घर
एक हिस्सा था
खुशी से छोड़ आये। 

गाँव हमारा वृन्दावन था
इसी धीर नदिया के तीरे।
हैरत में हैं, कहाँ गया वह
लेश नहीं पहचान बची रे।
उजड़ गये रोजी-रोटी में
ख़ाकनसीनों के सब टोले।

पदलिप्सा और चाटुकारिता के विद्रूप समय में स्वयंभू सत्ताधीशों की हाँ में हाँ मिलाने की प्रवत्ति पर कटाक्ष कितना सटीक है इस नवगीत में। 
सुनो भाई!
तुम कहो सो ठीक
लो हम
कीच को कहते मलाई! 

बडे़ लोग हैं
बात-बात में
भारी बतरस घोलें। 
...
बड़े लड़ाके चार कान के
कहें तवे को आरसी।

विकास की दौड़ में मानवनिर्मित संरचनाओं में मृत्यु की असामयिक त्रासदी झेलने का विम्ब उकेरने में वे सिद्धहस्त हैं-             
डूब गया शिवदान 
नहर में
हुई बावरी माई। 

नवगीतों में वर्ण्य विषय की अछोर विविधता है उनके पास। पूँजीवादी  चलन में संकुल परिवारों से अलग-थलग पड़े बुर्जुगों का एकाकीपन, असहायता, घुटन को चित्रित करते हुए वे कहते हैं-

अच्छा ही हुआ
सब भूल गये।
...
नातों का विम्ब लगे
जिसका परिवार नाम
टूटता हुआ। 
...
कठिन समय ने
खाल उतारी
कैसे कैसे पापड़ बेले
बचे समर में निपट अकेले
...
पर इस एकाकीपन में भी अटूट जिजीविषा के सहारे सकारात्मक दैनिकचर्या के अद्भुत विम्ब भी हैं उनके पास-

इकली है तो क्या 
प्रसन्नमन
जीती जमुना बाई।  
...
कोठरी में 
क्या करे ठुकठुक!
आ, तुझे गा लूँ अगाये दुख!     
...
आम दिनों की तरह आज भी
जागे नौ के बाद। 
...
फूट रहे हैं
साँस-साँस में
गीत सृजन के
भले अकेला हूँ 
पर, मुझमें 
सृष्टि समाई है। 

उनके वर्ण्य विषय यथार्थ के मजबूत माँझे में बॅंधकर समकालीन युगबोध के विस्तृत नभ का भ्रमण कराते हैं। यांत्रिक और मानसिक तकनीक के दोधारे वार के फलस्वरूप ठेठ गाँवों के पुश्तैनी शिल्प, कुटीर-धन्धों का विनाश, आग्रही जातीयता के दुष्परिणाम, वैमनस्य, विवषता, संकीर्णता, घुन्नापन, भेदभाव, जैसी विकृत मनोवृत्तियॉं का चित्रण बखूबी उन्होंने किया है। लालफीताशाही, स्वार्थ, बाजारवाद, मॅंहगाई के बीच कम ही सही सहज रोमांस की प्रतीतियों को भी स्वर दिया है-

दूर किसी पर्वत पर
खिंची रजत रेखा-सा
झिलमिला रहा
पहला प्यार।
...
फिर दिखी हो!
कड़क सुन सौदामिनी की जागते हैं
रात, सपने में। 
                        
पुष्ट नवगीत में सूत्रवाक्य की तरह का अर्थवान, सम्प्रेषणीय, लययुक्त मुखडा उसके आकर्षण, स्वीकार्यता में अनायास वृद्धि और आगे के अन्तरों के प्रति सहज जिज्ञासा उत्पन्न करता है। इस दृष्टि से संकलन के अधिकांश मुखड़े अद्भुत हैं-

हॅंसी-ठट्ठा ज़िन्दगी का
चले अपने साथ।
...
कल अपने भी दिन आयेंगे।
...
दिल रखने को नहीं छिपाई
मन की कोई बात।
...
बदल गये परिप्रेक्ष्य
कालगति
हम ही बदल न पाये। 
...
सबकी जय-जयकार
बिरादर
सबकी जय-जयकार।
...
हम हिरन के साथ हैं
वे भेड़ियों के साथ
...
कठिन समय ने खाल उतारी।
...
चरखा कात रही हैं अम्मा
दोनों हाथ साधते लय को।
...
चबूतरा बढ़ई टोले का
जुड़ी हुई चौपाल।                       
...
जन से कटे, मगन नभचारी
देख रहे हैं नब्ज़ हमारी।
...
ग़लत आउट दे दिया
आउट नहीं थे,
रिव्यू देखें....
सरासर ‘नो बाल’ है। 
...
चलो, छोड़ो कुर्सियों को
यहीं
इस दहलीज पर ही बैठ कर
दो बात करते हैं। 
...
गीत या नवगीत 
जो भी लिख!
आदमी के पक्ष में ही दिख!
...
चढ़ी बाँस पर नटनी भैया
अब क्या घूँघट काढ़े।
...
ऐसे बैठे हैं ज्यों
मुँह में
गोबर भरा हुआ हो।
इनके अतिरिक्त अन्य नवगीतों के मुखड़ों में भी कहीं-कहीं मुहावरों का प्रयोग, संक्षिप्तता, गेयता, प्रवाह का निर्वाह उनके जैसे बड़े कद के नवगीतकार के सर्वथा अनुरूप है।   
                    
७० वर्षों का अकूत जीवन अनुभव, दर्षन उनके नवगीतों में अविच्छिन्न रूप से विद्यमान है। समय का खुरदुरापन व्यक्त करने में उन्होंने कहीं कोताही नहीं की है। लोक में प्रचलित शब्दों के संरक्षण में भी कवि की महती भूमिका निर्विवाद है। बघेली और ब्रजभाषा के आँचलिक शब्दों का बेहद संजीदगी और करीने से प्रयोग उनके विपुल शब्द भण्डार का धनी होने का संकेत है। ऐसे शब्दों का अर्थ जानने के लिए मुझे उनसे फोन पर सम्पर्क करना पड़ा। शब्दकोशों भाशा के प्रति पाठकों के जुड़ाव और जिज्ञासा जगाने की यह चातुरी और कौशल विरले नवगीतकारों के पास है। 

धन्धे-टल्ले, जॉंगर, कीचकॉंद, घूमनियॉं टिकुरी, इकहड़ पहलवानी, झाऊ, झोल, हिलगंट, जगार, झाँझर, लाठ, घरपतुआ, डूँगरी-डबरे, खिसलपट्टी, मलीदा, गोड़गुलामी, सतनजा, गम्मत, गुन्ताड़े, अलसेट, तखमीने, घीसल, नरदे, चरावर, ठोप, गहगहा, टिटिहारोर, लवे लोहित, ग्यारसी, औझपा, निमकौड़ी, छाहुर, तकुआ-पोनी-पिंदिया आदि शब्दों का सटीक चयन ऐसा ही प्रयत्न है।   

नवगीतों में शिल्प, मुखड़े, अंतरे, विम्ब विधान, संक्षिप्तता, युगसापेक्षता, लय, छन्दानुशा
सन, आदि तत्व उसे गीत से प्रथक संज्ञा देने में समर्थ होते हैं। संवेदना तो गीत से विरासत में मिली ही है। गाँव की दोहपर में लोकजीवन के क्रियाकलाप, हॅंसी-ठिठौली, चौपालों की गपशप, ताल में सिंघाड़े तोड़ने, अलाव तापने जैसे अनेक विम्ब अनूठे बन पड़े हैं-  
                   
सुनी ख़बर पर
बदहवास-सी
एक रूलाई फूटी।
डोल कुएँ में गिरा
हाथ की रस्सी सहसा छूटी। 
...
बानक से बिदका कर
सब झरहा कुत्तों को
अजगर-सी पड़ी हुई
सड़क के दलिद्दर पर
मारता कुदक्के 
यह बानर।
...
विष्णु घोंट रहा है लेई
चोटी गूँथ रही हरदेई
बच्चू बना रहा घरपतुआ
चींटे काट रहे अक्षय को।
...
सड़क-बगिया-
खेल का मैदान-बच्चे
खिसलपट्टी
चाय पीने का इधर
आनन्द ही कुछ और है। 
...
मैली धुतिया
चीकट बंडी
पहन भरी बरसात में।
चला जा रहा मगन बहोरी
ले चमरौधा हाथ में। 
...
दंगाई कहर में
जले घर के मलबे पर
बैठे हैं बीड़ी सुलगाने।
...
ऐसे बैठे हैं ज्यों
मुँह में
गोबर भरा हुआ हो।                       
...
संकलन के कई नवगीतों में वे आमजन की चिन्ता के साथ खड़े नजर आते हैं। पुश्तैनी कुटीर-उद्योग जो ग्राम्य समाज की आजीविका, शिल्प-कौशल का आधारस्तंभ थे, आयातित नीतियों और मशीनीकरण की भेंट चढ़ गये। तद्जनित विस्थापन, पलायन, बेरोजगारी जैसी विसंगतियों, विवशताओं के अनेक चित्रों से पाठक उनकी जनपक्षधरता का आकलन कर सकते हैं। 

धन्धे, टल्ले बन्द हो गये
दस्तकार के हाथ कटे।
लुहर-भट्ठियाँ फूल गयीं सब
बिना काम हौसले लटे।
बढ़ई-कोरी-धींवर टोले
टोले महज़ कहाते।
...  
हाथ-पाँव चलते हैं तब तक
खेत कमायें, ढ़ेले फोड़ें
ठौर-मढ़ैया खड़ी हो न हो
पेट काट कर पैसा जोड़ें
वक़्त बहुत आगे उड़ भागा
जो होगा देखा जायेगा
फूटा करम न भाये।
...
दबा और कुचला हरिबन्दा
बूढ़ा बाप हो गया अंधा
तेल दिये का कब तक चलता
कर्कट ने लीली महतारी
कठिन समय ने खाल उतारी।
...
रचे में बोले
न यदि मिट्टी
तुष्टि के सम्मोह की कर जाँच 
कुछ नहीं होता
करिश्मों से 
हो न जब तक भावना में ऑंच
स्वयं से, बाहर 
निकल कर 
दीन-दुनिया से न जाये छिक!
गीत या नवगीत 
जो भी लिख!
आदमी के पक्ष में ही दिख!                      
सहज सम्प्रेष्य भाषा में कहीं-कहीं लोकोक्तियों, मुहावरों के प्रयोग ने कथ्य में गजब का पैनापन दृष्टिगोचर होता है। 
चकमक दीदा
भखें मलीदा, चीरें एक
बघारें पाँच 
उद्धत को पानफूल
प्रेमी को दुतकारी 
निमकौडी़ पर
मरे न कोयल
कौआ को सब भावे चोट पाँव में
माथे मरहम, बड़े लड़ाके चार कान के
कहें तवे को आरसी...  इत्यादि।   

‘रेत की व्यथा-कथा’ नवगीतकारों की पुरानी पीढ़ी की अपनी विशिष्ट कहन, भाव-भंगिमा, लोकसम्पृक्ति पर सशक्त पकड़ का बहूमूल्य दस्तावेज है, इसका समादर किया जाना चाहिए। 
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गीत- नवगीत संग्रह - रेत की व्यथा कथा, रचनाकार- राम सेंगर, प्रकाशक- उद्भावना प्रकाशन 
एच-५५, सेक्टर २३, राजनगर, गाजियाबाद।  प्रथम संस्करण- २०१३, मूल्य- रूपये ३००/-, पृष्ठ- १३५, समीक्षा - रामशंकर वर्मा।