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रविवार, 29 जनवरी 2023

लघुकथा, सोरठा, समीक्षा, लघुकथा, सुरेश तन्मय, सुमनलता श्रीवास्तव, एम.एल. खरे

सोरठा सलिला

अमला-धवला धार, रूपवती लावण्यमय।
सुर-नर चकित निहार, दिव्य नर्मदा द्रुत बहे।।
*
शंकर सके तराश, कंकर-कंकर नर्मदा। 
पूजो रख विश्वास, नर्मदेश्वर शिव सदा।।
*
वंशलोचनी परी, नन्हीं ठिठक-मचल रही।
अमरकंटकी खरी, कूद-फाँदकर हँस पड़ी।।
रुद्रात्मजा प्रशांत, कलकल गाती गीत नित।
होती नहीं अशांत, जो चाहे ले जीत वह।। 
*
मेकलसुता अनन्य, छह-छपाक निर्झर नहा।
हिरणी चपला वन्य, खुद पर खुद ही रीझती।। 
*
पद्म पुष्प ले गोद, विहँस बालुकावाहिनी।
निर्झर सह आमोद, करती मकरासीन हो।।
*
अतुल रूप-सौंदर्य, जनहितकारी नर्मदा। 
अद्भुत है औदार्य, है जगमाता वर्मदा।। 
२९-१-२०२३ 
***
कृति चर्चा:
जिजीविषा : पठनीय कहानी संग्रह
चर्चाकार: डॉ. साधना वर्मा
*
[कृति विवरण: जिजीविषा, कहानी संग्रह, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, द्वितीय संस्करण वर्ष २०१५, पृष्ठ ८०, १५०/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक जेकट्युक्त, बहुरंगी, प्रकाशक त्रिवेणी परिषद् जबलपुर, कृतिकार संपर्क- १०७ इन्द्रपुरी, ग्वारीघाट मार्ग जबलपुर।]
*
हिंदी भाषा और साहित्य से आम जन की बढ़ती दूरी के इस काल में किसी कृति के २ संस्करण २ वर्ष में प्रकाशित हो तो उसकी अंतर्वस्तु की पठनीयता और उपादेयता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है। यह तथ्य अधिक सुखकर अनुभूति देता है जब यह विदित हो कि यह कृतिकार ने प्रथम प्रयास में ही यह लोकप्रियता अर्जित की है। जिजीविषा कहानी संग्रह में १२ कहानियाँ सम्मिलित हैं।
सुमन जी की ये कहानियाँ अतीत के संस्मरणों से उपजी हैं। अधिकांश कहानियों के पात्र और घटनाक्रम उनके अपने जीवन में कहीं न कहीं उपस्थित या घटित हुए हैं। हिंदी कहानी विधा के विकास क्रम में आधुनिक कहानी जहाँ खड़ी है ये कहानियाँ उससे कुछ भिन्न हैं। ये कहानियाँ वास्तविक पात्रों और घटनाओं के ताने-बाने से निर्मित होने के कारण जीवन के रंगों और सुगन्धों से सराबोर हैं। इनका कथाकार कहीं दूर से घटनाओं को देख-परख-निरख कर उनपर प्रकाश नहीं डालता अपितु स्वयं इनका अभिन्न अंग होकर पाठक को इनका साक्षी होने का अवसर देता है। भले ही समस्त और हर एक घटनाएँ उसके अपने जीवन में न घटी हुई हो किन्तु उसके अपने परिवेश में कहीं न कहीं, किसी न किसी के साथ घटी हैं उन पर पठनीयता, रोचकता, कल्पनाशक्ति और शैली का मुलम्मा चढ़ जाने के बाद भी उनकी यथार्थता या प्रामाणिकता भंग नहीं होती ।
जिजीविषा शीर्षक को सार्थक करती इन कहानियों में जीवन के विविध रंग, पात्रों - घटनाओं के माध्यम से सामने आना स्वाभविक है, विशेष यह है कि कहीं भी आस्था पर अनास्था की जय नहीं होती, पूरी तरह जमीनी होने के बाद भी ये कहानियाँ अशुभ पर चुभ के वर्चस्व को स्थापित करती हैं। डॉ. नीलांजना पाठक ने ठीक ही कहा है- 'इन कहानियों में स्थितियों के जो नाटकीय विन्यास और मोड़ हैं वे पढ़नेवालों को इन जीवंत अनुभावोब में भागीदार बनाने की क्षमता लिये हैं। ये कथाएँ दिलो-दिमाग में एक हलचल पैदा करती हैं, नसीहत देती हैं, तमीज सिखाती हैं, सोई चेतना को जाग्रत करती हैं तथा विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं।'
जिजीविषा की लगभग सभी कहानियाँ नारी चरित्रों तथा नारी समस्याओं पर केन्द्रित हैं तथापि इनमें कहीं भी दिशाहीन नारी विमर्ष, नारी-पुरुष पार्थक्य, पुरुषों पर अतिरेकी दोषारोपण अथवा परिवारों को क्षति पहुँचाती नारी स्वातंत्र्य की झलक नहीं है। कहानीकार की रचनात्मक सोच स्त्री चरित्रों के माध्यम से उनकी समस्याओं, बाधाओं, संकोचों, कमियों, खूबियों, जीवत तथा सहनशीलता से युक्त ऐसे चरित्रों को गढ़ती है जो पाठकों के लिए पथ प्रदर्शक हो सकते हैं। असहिष्णुता का ढोल पीटते इस समय में सहिष्णुता की सुगन्धित अगरु बत्तियाँ जलाता यह संग्रह नारी को बला और अबला की छवि से मुक्त कर सबल और सुबला के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
'पुनर्नवा' की कादम्बिनी और नव्या, 'स्वयंसिद्धा' की निरमला, 'ऊष्मा अपनत्व की' की अदिति और कल्याणी ऐसे चरित्र है जो बाधाओं को जय करने के साथ स्वमूल्यांकन और स्वसुधार के सोपानों से स्वसिद्धि के लक्ष्य को वरे बिना रुकते नहीं। 'कक्का जू' का मानस उदात्त जीवन-मूल्यों को ध्वस्त कर उन पर स्वस्वार्थों का ताश-महल खड़ी करती आत्मकेंद्रित नयी पीढ़ी की बानगी पेश करता है। अधम चाकरी भीख निदान की कहावत को सत्य सिद्ध करती 'खामियाज़ा' कहानी में स्त्रियों में नवचेतना जगाती संगीता के प्रयासों का दुष्परिणाम उसके पति के अकारण स्थानान्तारण के रूप में सामने आता है। 'बीरबहूटी' जीव-जंतुओं को ग्रास बनाती मानव की अमानवीयता पर केन्द्रित कहानी है। 'या अल्लाह' पुत्र की चाह में नारियों पर होते जुल्मो-सितम का ऐसा बयान है जिसमें नायिका नुजहत की पीड़ा पाठक का अपना दर्द बन जाता है। 'प्रीति पुरातन लखइ न कोई' के वृद्ध दम्पत्ति का देहातीत अनुराग दैहिक संबंधों को कपड़ों की तरह ओढ़ते-बिछाते युवाओं के लिए भले ही कपोल कल्पना हो किन्तु भारतीय संस्कृति के सनातन जवान मूल्यों से यत्किंचित परिचित पाठक इसमें अपने लिये एक लक्ष्य पा सकता है।
संग्रह की शीर्षक कथा 'जिजीविषा' कैंसरग्रस्त सुधाजी की निराशा के आशा में बदलने की कहानी है। कहूँ क्या आस निरास भई के सर्वथा विपरीत यह कहानी मौत के मुंह में जिंदगी के गीत गाने का आव्हान करती है। अतीत की विरासत किस तरह संबल देती है, यह इस कहानी के माध्यम से जाना जा सकता है, आवश्यकता द्रितिकों बदलने की है। भूमिका लेख में डॉ. इला घोष ने कथाकार की सबसे बड़ी सफलता उस परिवेश की सृष्टि करने को मन है जहाँ से ये कथाएँ ली गयी हैं। मेरा नम्र मत है कि परिवेश निस्संदेह कथाओं की पृष्ठभूमि को निस्संदेह जीवंत करता है किन्तु परिवेश की जीवन्तता कथाकार का साध्य नहीं साधन मात्र होती है। कथाकार का लक्ष्य तो परिवेश, घटनाओं और पात्रों के समन्वय से विसंगतियों को इंगित कर सुसंगतियों के स्रुअज का सन्देश देना होता है और जिजीविषा की कहानियाँ इसमें समर्थ हैं।
सांस्कृतिक-शैक्षणिक वैभव संपन्न कायस्थ परिवार की पृष्ठभूमि ने सुमन जी को रस्मो-रिवाज में अन्तर्निहित जीवन मूल्यों की समझ, विशद शब्द भण्डार, परिमार्जित भाषा तथा अन्यत्र प्रचलित रीति-नीतियों को ग्रहण करने का औदार्य प्रदान किया है। इसलिए इन कथाओं में विविध भाषा-भाषियों,विविध धार्मिक आस्थाओं, विविध मान्यताओं तथा विविध जीवन शैलियों का समन्वय हो सका है। सुमन जी की कहन पद्यात्मक गद्य की तरह पाठक को बाँधे रख सकने में समर्थ है। किसी रचनाकार को प्रथम प्रयास में ही ऐसी परिपक्व कृति दे पाने के लिये साधुवाद न देना कृपणता होगी।
*
समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
***

पुरोवाक :

यह बगुला मन - शब्द शब्द कंचन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
गीति वृक्ष पर गीत शाखाएँ और नवगीत टहनियाँ निरंतर बढ़ रही हैं। कथ्य कलियाँ, भाव पंखुड़ियाँ, रस सुरभि, अलंकार कुसुम, बिंब पत्ते, रूपक भ्रमर गीत-नवगीत दोनों के अभिन्न अंग हैं। गीति काव्य ने आदि मानव द्वारा वाक् का प्रयोग सीखने के साथ ही जन्म लिया। सलिल-प्रवाह की कलकल, पंछियों का कलरव, मेघ का गर्जन, आदि में ध्वनि के आरोह-अवरोह को देख-सुनकर मानव ने उस उच्चार के माध्यम से संदेश देते-देते भावाभिव्यक्ति कर लोरी के रूप में माँ की ममता शिशु तक पहुँचाई। लिपि के विकास के साथ उच्चार-लय और अर्थ के ताल-मेल को अंकित कर दुबारा पढ़ना-समझना संभव हुआ, साथ ही लंबे संदेश और गीत भी लिखे जा सके। आदिवासी समाजों से आज भी आरंभिक काव्य रचनाएँ सुनी जा सकती हैं। क्रमश: भाषिक व्याकरण और पिंगल के विकास के साथ गद्य-पद्य का वर्गीकरण हुआ। वैदिक संस्कृत ऋचाओं में विद्वानों द्वारा विशिष्ट ध्वनि में गाए जा सकनेवाले छंद व्याप्त हैं। विविध भाषाओँ में गीति काव्य का विकास होता रहा और अब आधुनिक हिंदी में विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में सर्वाधिक छंदों (छंद प्रभाकरकार जगन्न्थ प्रसाद 'भानु' के अनुसार ९२,२७,७६३ मात्रिक छंद तथा १,३४,२१,७६२ वर्णिक छंद) द्वारा गीति-प्रकारों से सारस्वत कोष में श्रीवृद्धि की जा रही है। छंद प्रभाकर में ७०० से कुछ अधिक छंदों के उदाहरण व लक्षण वर्णित हैं। तत्पश्चात लगभग इतने ही नए छंदों का आविष्कार माँ शारदा ने मुझसे करा लिया है। सामान्यत: रचनाकार लगभग ५० छंदों का ही अधिक प्रयोग करते हैं। छंद वैविध्य ने गीतिकाव्य में भावाभिव्यक्ति को सरस, लालित्यपूर्ण बनाने में महती भूमिका का निर्वहन किया है। मुखड़ों और अंतरों द्वारा सृजित विशिष्ट काव्य रचनाएँ 'गीत' संज्ञा से अभिषिक्त की गई हैं।
गीतों को लक्ष्य पाठकवर्ग के आधार पर बाल गीत, युवा गीत आदि, कथ्य के आधार पर पर्व गीत, ऋतु गीत आदि, रस के आधार पर श्रृंगार गीत, हास्य गीत आदि, छंद के आधार पर दोहा गीत, माहिया गीत आदि, संस्कारों व रीतियों के आधार पर सोहर गीत, ज्योनार गीत, विदाई गीत आदि, ऋतु चक्र के आधार पर पावस गीत, फागुन गीत, कजरी गीत आदि में वर्गीकृत किया जाने के बाद 'नवगीत' संज्ञा की आवश्यकता क्या है? गीत-नवगीत में अंतर क्या है? जैसे प्रश्न गत ७ दशकों से पूछे और बूझे जा रहे हैं। अनेक सम्मेलनों में लंबे विमर्शों के बाद भी ये और इन जैसे प्रश्न 'पहले मुर्गी हुई या अंडा?' प्रश्न की तरह भूलभुलैया में उलझानेवाला है। अनेक गीतकार दोनों में कोई अंतर नहीं मानते। कुछ गीतकार दोनों को भिन्न विधा सिद्ध करने का दुराग्रह पाले हैं। मेरी राय में 'गीत / और नवगीत / नहीं हैं भारत-पकिस्तान।'
डॉ. शुभा श्रीवास्तव ने अपनी शोधपरक कृति गीत से नवगीत (आईएसबीएन: ८१-८९०७६-१३-२, वर्ष : २००७) में 'गीत' को रूढ़ माना है जो वैदिक ऋचाओं, लोक गीतों, साहित्यिक गीतों चित्रपटीय गीतों आदि सभी के लिए प्रयोग किया जाता है। शुभा जी ने साहित्यिक गीतों से नवगीत की उत्पत्ति प्रतिपादित की है।
नवगीत प्रणेता का श्रेय प्राप्त राजेंद्र प्रसाद सिंह के अनुसार इसकी (नवगीत की) प्रेरणा सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई और लोकगीतों की समृद्ध भारतीय परम्परा से है। हिंदी में तो वैसे महादेवी वर्मा, निराला, बच्चन, सुमन, गोपाल सिंह नेपाली आदि कवियों ने काफी सुंदर गीत लिखे हैं और गीत लेखन की धारा भले ही कम रही है पर कभी भी पूरी तरह रुकी नहीं है। वैसे रूढ़ अर्थ में नवगीत की औपचारिक शुरुआत नयी कविता के दौर में उसके समानांतर मानी जाती है। "नवगीत" एक यौगिक शब्द है जिसमें नव (नयी कविता) और गीत (गीत विधा) का समावेश है।' - देखिए हिन्दी साहित्य का अद्यतन इतिहास, डा. मोहन अवस्थी, पृ० ३०२।
भक्तिकालीन काव्य और नई कविता सिक्के के दो पहलुओं या चुंबक के दो ध्रुवों की तरह परस्पर भिन्न हैं। भक्तिकालीन रचनाओं से प्रेरित कोई रचना नई कविता से कैसे मिल सकती है?
सामान्यत: गीत और नवगीत में शिल्पगत साम्य और कथ्यगत वैषम्य दृष्टव्य है। नवगीत सम सामयिक कथ्य को समेटता है जबकि गीत का विस्तार त्रिकालीन है। आस्वादन के स्तर पर दोनों को विभाजित किया जा सकता है। छायावादी गीत आज लिखा जाए तो भी छायावादी गीत ही होगा, भक्तिकालीन काव्य रचना किसी भी काल में रची गई हो 'भक्ति साहित्य' में ही गणनीय होगी। नवगीत का उद्भव काल गत शताब्दी का उत्तरार्ध है।
निराला के अनेक गीत (बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु, वह तोड़ती पत्थर आदि) नवगीत हैं, जबकि वे नवगीत की स्थापना काल के पहले के हैं। गीत-नवगीत रूपाकार का अंतर दृष्टव्य है। गीत लय प्रधान है जबकि नवगीत कथ्य प्रधान है। गीत में छंदानुरूप लय साधते हुए कथ्य की प्रस्तुति की जाती है जबकि नवगीत में कथ्य के लिए छंद का रूपाकार बदला जा सकता है। रूपाकार बदलने में लय महत्वपूर्ण 'घटक' है। गीत-नवगीत के कथ्य की भाषा में भी अंतर् है। गीत में भाषिक प्रांजलता को सराहा जाता है जबकि नवगीत में आंचलिक टटकेपन को प्रशंसा मिलती है। गीत की आत्मा व्यक्ति केन्द्रित है, जबकि नवगीत की आत्मा समग्रता में है। गीत वायवी अथवा कल्पना प्रधान होता है जबकि नवगीत के कथ्य में यथार्थ प्रमुख होता है।
इस पृष्ठभूमि में हिंदी-निमाड़ी के वरिष्ठ कवि श्री सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' के गीत-नवगीत संग्रह 'यह बगुला मन' की रचनाएँ यह बताती हैं कि उनका रचनाकार गीत-नवगीत में अंतर को अंतर में स्थान न देकर साम्य को अधिक महत्व देता है। वह 'अनेकता में एकता' को भारतीय संस्कृति की विशेषता मानते हुए अपनी गीति रचनाओं में कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर गीत नदी में नवगीत लहरों को नाचते देखता-दिखता है। इसलिए गीत-नवगीत को एक ही संकलन में एक साथ समेटता है, न तो उन्हें अलग-अलग खंड में रखता है, न ही उनके लिए अलग-अलग संकलन बनाता है। मैं भी गीत-नवगीत को नीर-क्षीर की तरह मानने का पक्षधर हूँ। कृति का श्री गणेश भारतीय परंपरानुसार माँ शारदा, गुरु व पिताश्री के श्री चरणों में रचनार्पण कर हुआ है। सामाजिक समरसता का संदेश देती रचना 'समय मिले तो' तन्मय जी के प्रौढ़ चिंतन की बानगी सहेजे है-
समय मिले तो
आकर हमको पढ़ लो
हम बहुत सरल हैं।
मिलकर खोजें बहुत दिशाएँ
बंजर भू पर पुष्प खिलाएँ
जो अभिलाषित है वो पाएँ
कलुषित भाव
विसर्जित सारे कर लो
मन गंगा जल है।
'शोर' वर्तमान समय की गंभीर समस्या है। कवि तन्मय इस समस्या का समाधान 'मौन' में देखता है तथा वर्तमान विसंगति पर तीक्षण व्यंग्य करता है -
चलो! जरा कुछ देर स्वयं के
अंतर में मुखरित हो जाएँ
अपने मन को मौन सिखाएँ .....
.....बिन जाने सर्वज्ञ हो गए
बिन अध्ययन मर्मज्ञ हो गए
भाव शून्य, धुँधुआते अक्षर
बिन आहुति के यज्ञ हो गए
समिधा बने शब्द अन्तस के
गीत समर्पण के तब गाएँ।
समकालिक पारिस्थितिक वैषम्य पर तीक्ष्ण शब्द-प्रहार करता कवि कलम से तलवार का कार्य लेता है-
गर्जना गहन कर रहे उन्माद में
आदमी सहमा हुआ अवसाद में
टरटराते उछलते दादुर सभी
नशे में उन्मत्त अवसरवाद में
झींगुरों ने रात उत्सव में
अमरता-गान गाए।
चींटियों के पर निकल आए।
भौतिक उपलब्धि पाकर चौंधियाया मनुष्य, आत्मिक उन्नयन की देहरी पर पग रखना भी भूल गया है। इंगितों में युगीन वैषम्य को लांछित करता कवि, शालीनता की मर्यादा लाँघे बिना, श्रम की अवमानना करते समाज के कदाचारी मलेरिया के उन्मूलन हेतु शक्कर में लपेट कर कुनैन सेवन कराता है-
आत्ममुग्धता के भ्रम में
हम ऐसे बौराए
झाँका, कभी न भीतर
खुद को परख नहीं पाए.....
... श्रम से रिश्ता तोड़
साधना से है मुँह मोड़ा
स्तुतिगान कीर्ति-यश से
नित नाता है जोड़ा
सब की प्यास यही है
कौन किसे अब समझाए?
यांत्रिक जीवन की व्यस्तता में विवश साँसों का बोझ ढोता मनुष्य इतना अकेला है कि मन की बात कहना ही भूल गया है। विविध माध्यमों से जा कि उसे सुनते-सुनते ही जिंदगी चुक जाती है।
सब सुननेवाले हैं
कहनेवाला कहीं नहीं
अलग-अलग अंदाज़
हाथ में खाते और बही
आजकल साहित्य सृजन साधना नहीं, मन बहलाव का माध्यम मात्र है। अनुभूत को अभिव्यक्त करने परंपरा समाप्तप्राय है। अत्यधिक खाने के बाद पचाने के लिए अपच की औषधि लेकर डकारते हुए भुखमरी पर नवगीत लिखने के इस दौर में लेखन मन बहलाने के लिए खेलने की तरह है -
आओ आओ कविता खेलें
मन से या फिर बेमन ही से
एक-दूसरे को हम झेलें
कवि तन्मय कृपण समय बनिए को नरम दूब का रस चूसते देखते है। 'मदर इण्डिया' के 'लाला' और 'बिरजू' आज भी समाज में हैं -
बरगद के नीचे मुरझाती
सुस्त हरी धनिया
चूस रहा रस नर्म दूब का
कृपण समय बनिया
'सीधी उँगली घी नहीं निकलता' मुहावरे का सटीक प्रयोग करते हुए नवगीतकार जनगण का करते हुए आशा रखता है कि ऊपर से नीचे तक गोलमाल करनेवालों पतन होगा-
घी निकालना है तो प्यारे
ऊँगली टेढ़ी कर
... सीधे-सादे लोगों की
कीमत, क्या है मोल
ऊपर से नीचे तक
नीचे से ऊपर तक पोल
किन्तु जगा अब देश
ढहेंगे इनके छत्र-चँवर
विसंगतियों चक्रव्यूह में विवश आदमी, जनतंत्र में खिलौना बनकर रह जाए, इससे अधिक बुरा और क्या हो सकता है? तन्मय जी मुखौटे लगाए व्यवस्था की सच्चाई उद्घाटित करते हुए, जन सामान्य को व्यंजना में फसल के बीच खरपतवार की उपमा देते हैं -
हम चाबी से चलनेवाले मात्र खिलौने हैं
बाहर से हैं भव्य किन्तु अंदर से बौने हैं
बीच फसल के पनप रहे हम खरपतवारों से
पहिन मुखौटे लगा लिए हैं चित्र दीवारों पे
भीतर से भेड़िए किन्तु बाहर मृग छौने हैं
जनतंत्र विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका हैं। जब ये तीनों आम आदमी दर्द दूर न कर सकें तो जनमत की अभिव्यक्ति का माध्यम पत्रकारिता होती है। इसीलिए उसे लोकतंत्र चौथा खंबा कहा जाता है। वर्तमान समय की विडंबना यह है कि यह चौथा खंबा भी धनपतियों के हाथ का कैदी होकर अपनी विश्वसनीयता गँवा चुका है। तन्मय जी इस परिस्थिति पर सटीक शब्द-प्रहार करते हैं।
पढ़ने में आया है कि अब
नहीं किसी को कोई डर है
अख़बारों में छपी खबर है
भूखे कोई नहीं रहेंगे
खुशियों से दामन भर देंगे
करते रहो नमन हमको तुम
सारी विपदाएँ हर लेंगे
डोंडी पीट रहा है हाकिम
नगर-नगर है।
माँग और पूर्ति का अर्थशास्त्रीय सिद्धांत भूख नहीं बख्शता। वह जानता है 'भूखे' को 'नंगा' करना बहुत आसान है। 'नंगई' के शौक़ीन तन के खरीददार बनकर भूखों का शिकार करने से चूकते, नैतिकता तोड़ने के अलावा अन्य राह ही नहीं रह जाती -
भूख जहाँ है वहीं
खड़ा हो जाता बाजार।
लगने लगीं बोलियाँ भी
तन की, मन की
सरे राह बिकती है
पगड़ी निर्धन की
नैतिकता का नहीं बचा है
अब कोई आधार
कबीर बकौल डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी 'भाषा के डिक्टेटर' होने के साथ-साथ सामाजिक विडंबनाओं के नासूर की शल्यक्रिया करने में माहिर शल्यज्ञ भी हैं। साखियों का 'साधो' गाँधी जी का 'आखिरी आदमी' तन्मय नवगीत नायक भी है। 'साधो' के माध्यम से तन्मय जी भीष्म-द्रोण जैसे विवश किरदारों की असलियत उद्घाटित करते हैं -
और कब तक
तुम रहोगे मौन साधो?
शब्द को स्वर, तुम नहीं तो
और देगा कौन साधो?
मनुजता पर लगे हैं प्रतिबंध
जिह्वा है सिली
जब करि कोशिश
कहीं संकेत करने की
उधर से
भृकुटियां टेढ़ी मिलीं
है विवश चुपचाप बैठे
भीष्म-गुरुवर द्रोण साधो
'साहित्य समाज का दर्पण' मात्र नहीं होता। 'साहित्य समाज का प्रतिबिंब और भविष्य' भी होता है। कहा जाता है 'अंधा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है।' वर्तमान संक्रांति काल की त्रासदी यह है कि 'साहित्य सृजन' भी मनबहलाव का शगल बनकर रह गया है। सुरेश तन्मय इस विरूपता को नहीं बख्शते, उस पर शब्दाघात करते हैं-
फुर्सत में हो तो आओ
अब तुकबंदियाँ करें ....
... शब्दों की धींगा मस्ती में
शब्द हुए बहरे ....
... अध्ययन चिंतन और मनन पर
लगे हुए पहरे ....
तन्मय जी का नवगीतकार जानता है 'रात भर का है मेहमां अँधेरा, किसके रोके रुका है सवेरा', वह आश्वस्त है कि 'हर 'मावस के बाद पूर्णिमा लाती उजियारा', इसीलिये कहता है-
बाढ़ है ये
फिर नदी निर्मल बहेगी
बोझ आखिर क्यों
कहाँ तक ये सहेगी?....
.... लक्ष्य को पाने
सतत चलती रहेगी।
'यह बगुला मन' के गीत-नवगीत बीमार समय की नब्ज़ टटोलते हुए कुशल वैद्य की तरह रोग की पड़ताल मात्र नहीं करते अपितु रोग के निवारण के साथ-साथ रोगी में नवाशा का संचार भी करते हैं। तन्मय के नवगीत छिद्रान्वेषण मात्र नहीं हैं। वे 'कीचड़ उछालने', 'कटघरे में खड़ा करने' या 'निशाना बनाने' के लिए नहीं लिखते, उनका लक्ष्य रात के गर्भ से भोर के प्रकाश को उगाना है। तन्मय के नवगीतों में अन्तर्निहित आशावादिता उन्हें अन्यों से अलग और सार्थक बनाती है। कथ्य की आवश्यकतानुसार अमिधा,व्यंजना और लक्षणा का उपयोग करते हुए, 'कम लिखे से अधिक समझना' की लोक परंपरा निर्वहन करते हुए, मिथकों, बिंबों, प्रतीकों, रूपकों और उपमाओं से तन्मय अपनी बात इस तरह कहते हैं कि पाठक के मन छू सके। ये गीत-नवगीत आश्वस्त करते हैं कि गीति साहित्य की धार अकुंठ है और वह युगीन त्रासदियों से पीड़ित मानव-मन को बेपीर करने में समर्थ है।
२९-१-२०२१
***
संस्कृत में नईं पढ़ो, हिंदी में नईं पढ़ो तो लो
बुंदेली में पढ़ लो महाभारत
- मोहन शशि
*
"साँच खों आँच का" पे जा बात सोई मन सें निकारें नईं निकरे के ए कलजुग में "साँची खों फाँसी" की दसा देखत करेजा धक् सें रै जात। बे दिन सोई लद गए जब 'बातहिं हाथी पाइए, बातहिं हाथी पांव' को डंका पिटत रओ। तुम लगे रओ 'कर्म खों धर्म मानकें', लगात रओ समंदर में गहरे-गहरे गोता, खोज-खोजकें लात रओ एक सें बढ़ कें एक मोेती, पै जा जान लो और मान लो कि आपके मोती रहे आएं आपखों अनमोल, ए तिकड़मबाजी के बजार में नईं लगने उनको कोई मोल। तमगा और इनाम उनके नाम जौन की अच्छी-खासी हे पहचान, भलई कछू लिखो होय के कोई गरीब साहित्यकार पे 'पेट की आगी बुझाबे' के एहसान खों लाद 'गाँव तोरो, नांव मोरो कर लओ होय। 'कऊँ ईगी बरे, काऊ को चूल्हा सदे, जाए भाड़ में, जे धुन के धुनी, आदमी कछू अलगई किसम के होत, हमीर सो हठ ठानो तो फिर नई मानी, काऊ की नई मानी। ऐंसई में से एक हैं अपने भैया डॉ. मुरारीलाल जी खरे। जा जान लो के बुंदेली पे मनसा वाचा कर्मणा से समर्पित, प्रन दए पड़े।
भैया!'हात कंगन खों आरसी का' खुदई देख लो। २०१३ में बुंदेली रामायण, २०१५ में 'शरशैया पर भीष्म पितामह' और बुंदेली में और भौत सों काम करके बी नें थके, नें रुके और धर पटको बुंदेली में संछिप्त महाभारत काव्य 'हस्तिनापुर की बिथा-कथा।'
डॉ.एम.एल.खरे नें ९ अध्याय में रचो है 'हस्तिनापुर की बिथा कथा।' पैले अध्याय में हस्तिनापुर के राजबंस को परिचय कुरुबंसी महाराज सांतनु से शुरू करके महाभारत के युद्ध के बाद तक के वर्णन में साहित्य के खरे हस्ताक्छर डॉ. खरे ने एक-एक पद मेम ऐसे ऐसे शबिद चित्र उकेरे हैं के पढ़बे के साथई साथ एक-एक दृष्य आंखन में उतरत जात और लगत कि सिनेमा घर में बैठे महाभारत आय देख रअ। कवि जी नें कही हे-
"गरब करतते अपने बल को जो, वे रण में मर-खप गए
व्द व्यास आँखन देखी जा। बिथा कथा लिखकें धर गए"
सांतनु-गंगा मिलन, देवव्रत (भीष्म) जन्म, सत्यवती-सान्तनु ब्याव, चित्रांगद-विचित्रवीर्य जन्म, कासीराज की कन्याओं अंबा, अंबिका, अंबालिका को हरण, अंबिका और अंबालिका के छेत्रज पुत्र धृतराष्ट्र और पाण्डु जनमें, धृतराष्ट्र-गांधारी और पाण्डु-कुंती को ब्याव, कर्ण के जन्म की कथा, माद्री-पाण्डु ब्याव, सौ और पाँच को जनम, पाण्डु मरण और फिर दुर्योधन-शकुनि के षड़यंत्र पे षड़यंत्र -
"भई मिसकौट सकुनि मामा, दुर्योधन, कर्ण, दुसासन में
जिअत जरा दए जाएँ पांडव, ठैरा लाख के भवन में"
कुंती रे साथ पांडवों के मरबे को शोक मना दुर्योधन को युवराज के रूप में का भओ के फिर तो नईं धरे ओने धरती पे पाँव। उते पांडवों को बनों में भटकवे से लेके द्रौपदी स्वयंवर और राज के बटबारे को बरनन खरे जी ने ऐसो करो कि पढ़तई बनत। बटबारे में धृतराष्ट्र नें कौरवों खों सजो-सजाओ हस्तिनापुर तो 'एक पांत दो भांत' पांडवों खों ऊबड़-खाबड़ जंगल भरो खांडवप्रस्थ देवे के बरनन में कविवर डॉ. खरे जा बताबे में नई चूके कि धृतराष्ट्र ने ुांडवों पे दिखावटी प्रेंम दरसाओ -
"और युधिष्ठिर लें बोले दै रए तुमें हम आधो राज
चले खांडवप्रस्थ जाव तुम, करो उते अच्छे सें राज"
पांडवों पे कृष्ण कृपा, विश्वकर्मा द्वारा इंद्रप्रस्थ नगरी को अद्भुत निर्माण फिर राजसूय यग्य और दरवाजा से दुर्योधन को टकरावे पे -
"जो सब देखीती पांचाली, अपने छज्जे पे आकें
'अंधे को बेटा अंधा' जो कहकें हँसी ठिलठिलाकें"
जा जान लो के महायुद्ध के बीजा इतई पर गए। चौथो अध्याय 'छल को खेल और पांडव बनबास' अब जा दान लो कि कहतई नई बनत। ऐसो सजीव बरनन के का कहिए। ऐमे द्रौपदी चीरहरन पढ़त गुस्सा आत तो कई जग्घा तरैंया लो भर आत। उते त्रेता में सीता मैया संगे और इते द्वापर में द्रौपती संगे जो सब नें होतो तो सायत कलजुग में बहुओं-बिटिओं के साथ और अत्याचार के रोज-रोज, नए-नए कलंक नें लगते, हर एक निर्भया निर्भय रहकें अपनी जिंदगी की नैया खेती। पे विधि के विधान की बलिहारी, बेटा से बेटी भली होबे पे बी अत्याचार की सिकार हो रई हे नारी।
पांचवें अध्याय में पांडवों के अग्यातवास में कीचक वध वरनन पढ़तई बनत। फिर का खूब घालो उत्तरामअभिमन्यु रो ब्याव। अग्सातवास खतम होवे पे सोच-विचार --
"नई मानें दुर्सोधन तो हम करें युद्ध की तैयारी
काम सांति सें निकर जाए तो काए होय मारामारी"
दुर्योधन तो दुर्योधन, स्वार्थी, हठी, घमंडी। ओने तो दो टूक और साफ - साफ कही, ओहे कवि खरे जी ने अपने बुंदेली बोलन में कछू ई भाँत ढालो -
"उत्तर मिलो पांच गांव की बात भूल पांडव जाएं
बिना युद्ध हम भूमि सुई की नोंक बराबर ना दै पाएं"
आनंदकंद सच्चिदानंद भगवान श्रीकृष्णचंद्र ने बहुतई कोसस करी के युद्ध टल जावे पे दुर्योधन टस से मस नें भओ और तब पाण्डव शिविर में लौट कें किशन जू नें कही -
"कृष्ण गए उपलंब्य ओर बोले दुर्योधन हे अड़ियल
करवाओ सेनाएं कूच सब जतन सांति के भए असफल"
कवि ने युद्ध की तैयारियों को जो बरनन करो वो तो पढ़बे जोग हेई, से सातवे अध्याय में पितामह की अगुआई में महायुद्ध (भाग १) ओर आठवें अध्याय में आखिरी आठ दिन महायुद्ध (भाग २) रो बखान पढ़त उके तो महाराद धृतराष्ट्र खों संजय जी सुनात रए जेहे आदिकवि वेदव्यास नें बखानो ओर प्रथम पूज्य भगवान गनेस जू ने लिखो , पे इते बुंदेली में ओ महायुद्ध पे जब डॉ. एम. एल. खरे ने बुंदेली में कलम चलाई तो कहे बिना परे ने रहाई के ओ महायुद्ध की तिल - तिल की घटना पढ़त - पढ़त आंखन के दोरन सें दिल में समाई । महायुद्ध को बड़ो सटीक हरनन करो हे कवि डॉ. खरे नें । कछू ऐंसो के पढ़तई बनत।
महायुद्ध के बाद नौवें अध्याय में अश्वत्थामा की घनघोर दुष्टता, सजा और श्राप को बरनन सोई नोंनो भओ। फिर पांडवों को हस्तिनापुर आवो, युधिष्ठिर को अनमनोयन, पितामह भीष्म से ग्यान, अश्वमेध, धृतराष्ट्र को गांधारी, कुंती, संजय ओर विदुर संग बनगमन को बरनन करत कविजी नें का खूब कही -
"जी पै कृपा कृष्ण की होय, बाको अहित कभऊँ नईं होत
दुख के दिन कट जात ओर अंत में जै सच्चे की होत"
समर्थ हस्ताक्षर कविवर डॉ. मुरारीलाल खरे ने बुंदेली में 'हस्तिनापुर की बिथा कथा' बड़ी लगन, निष्ठा और अध्ययन मनन चिंतन के साथ बड़ी मेंहनत सें लिखी। बुंदेली बोली - बानी के प्रेमिन के साथ हुंदेलखंड पे जे उनको जो एक बड़ो और सराहनीय उपकार है । ए किताब खें उठाके जो पढ़वो सुरू करहे वो ५ + १०३४ पद जब पूरे पढ़ लेहे तबई दम लेहे। डूबके पढ़हे तो ओहे ऐसो लगहे जेंसे बो पढ़बे के साथ - साथ ओ घटनाक्रम सें साक्षात्कार कर रहो।
कवि नें 'अपनी बात' में खुदई कही कि उन्हें 'गागर में सागर' भरबे के लानें कई प्रसंग छोड़नें पड़े तो हमें सोई बिस्तार सें बचबे कई प्रसंगन सें मोह त्यागनें पड़ो। बुंदेलों खों बुंदेली में संछेप में महाभारत सहज में उपलब्ध कराबे के लानें डॉ. एम. एल. खरे जी खों बहोतई बहोत बधाइयां तथा उनके स्वस्थ सुखी समृद्ध यशस्वी मंगल भविष्य के लानें मंगलमय सें अनगिनत मंगल कामनाएं। एक शाश्वत, सार्थक ओर अमूल्य रचना के प्रकासन में सहयोग करने ओर बुंदेली में भूमिका लिखाबे के लानें प्यारे भैया आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' खों साधुवाद।

२९-१-२०२० वन्दे।
मोहन शशि
कवि, पत्रकार, सूत्रधार मिलन

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आंकिक उपमान और छंद शास्त्र :
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छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, बताइये।
क्या नवगीतों में इन आंकिक प्रतिमानों का उपयोग इन अर्थों में किया जाना उचित होगा?
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एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,
इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत, एकत्व,
दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,
महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,
तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि: पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: सत्व, रजस, तम। दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म/गर्मी।मामा:कंस, शकुनि, माहुल। व्रत: नित्य, नैमित्तिक, काम्य / मानस, कायिक, वाचिक।
तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,
त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज / त्रिकोण तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम, द्वारिका। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद। आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: करौंदा (दस्त, ज्वर, पित्त), शहतूत (लू, कृमि, रक्त, सूजन),। अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्व् : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।, तिथि: नंदा, भद्रा, विजया, ऋक्ता, पूर्ण वराह मिहिर। गज
इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र। वृत: एक भुक्त एक समय आहार, अयाचित बिना मांगे जो मिले ग्रहण करना, मितभुक निर्धारित अल्प मात्रा १० ग्रास लेना, चांद्रायण तिथि अनुसार १५ से घटते हुए १ ग्रास लें, प्राजापत्य ३-३ दिन क्रमश: २२, २६, २४ ग्रास अंतिम ३ दिन निराहार।
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र। षडपर्व: कृषि,ऋतु, कामना, राष्ट्रीय, जयंती, श्रद्धांजलि।
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: गज ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰] [स्त्री॰ गजी]
गज = १. हाथी, २. गजासुर राक्षस(महिषासुर का पुत्र), ३. एक बंदर जो रामचंद्र की सेना में था, ४. आठ की संख्या, ५. मकान की नींच या पुश्ता, ६. ज्योतिष में नक्षत्रों की वीथियों में से एक, ७. लंबाई नापने की एक प्राचीन माप जो साधारणतः ३० अंगुल की होती थी [को॰] । गज २ संज्ञा पुं॰ [फा़॰ गज]
१. लंबाई नापने की एक माप जो सोलह गिरह या तीन फुट की होती है । विशेष - गज कई प्रकार का होता है जिससे कपड़ा, जमीन, लकड़ी, दीवार आदि नापी जाती है । पुराने समय से भिन्न भिन्नः प्रांतों तथा भिन्न भिन्न व्यवसायों में भिन्न भिन्न माप के गज प्रचलित थे और उनके नाम भी अलग अलग थे । उनका प्रचार अभी भी है । सरकारी गज ३ फुट या ३६ इंच का होता है । कपड़ा नापने का गज प्रायः लोहे की छड़ या लकड़ी का होता है जिसमें १६ गिरहें होती हैं और चार चार गिरहों पर चौपाटे का चिह्न होता है । कोई कोई २० गिरह का भी होती है । राजगीरों का गज लकड़ी का होता है और उसमें १४ तसू होते हैं । एक एक इंच के बराबर तसू होता है । यही गज बढ़ई भी काम में लाते हैं । अब इसकी जगह विशेषकर विलायती दो फुटे से काम लिया जाता है । दर्जियों का गज कपड़े के फीते का होता है, जिसमें गिरह के चिह्न बने होते हैं । मुहा॰—गजभर = बनियों की बोलचाल में एक रुपए में सोलह सेर का भाव । गज भर की छाती होना = बहुत प्रसन्नता या संमान का बोध करना । गज भर की जबान होना = बड़बोला होना । उ॰—क्यों जान के दुश्मन हुए हो, इतनी सी जान गज भर की जबान—फिसाना॰, भा॰३, पृ॰ २१९ ।
२. वह पतली लकड़ी जो बैलगाड़ी के पाहिए में मूँड़ी से पुट्ठी तक लगाई जाती है । विशेष—यह आरे से पतली होती है और मूँड़ी के अंदर आरे को छेदकर लगाई जाती है । यह पुट्ठी और औरों को मूड़ी में जकड़े रहती है । गज चार होते हैं ।
३. लोहे या लकड़ी की वह छड़ जिससे पुराने ढंग की बंदूक में ठूसी जाती है । क्रि॰ प्र॰—करना ।
४. कमानी, जिससे सारंगी आदि बजाते हैं ।
५. एक प्रकार का तीर जिसमें पर और पैकान नहीं होता ।
६. लकड़ी की पटरी जो घोड़ियों के ऊपर रखी जाती है ।। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
नौ - दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
चतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह - तिथियाँ (प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।)
सोलह - षोडश मातृका: गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजय, जाया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, शांति, पुष्टि, धृति, तुष्टि, मातर, आत्म देवता। ब्रम्ह की सोलह कला: प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक, नाम।, चन्द्र कलाएं: अमृता, मंदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि, रति, धृति, ससिचिनी, चन्द्रिका, कांता, ज्योत्सना, श्री, प्रीती, अंगदा, पूर्ण, पूर्णामृता। १६ कलाओंवाले पुरुष के १६ गुण सुश्रुत शारीरिक से: सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्राण, अपान, उन्मेष, निमेष, बुद्धि, मन, संकल्प, विचारणा, स्मृति, विज्ञान, अध्यवसाय, विषय की उपलब्धि। विकारी तत्व: ५ ज्ञानेंद्रिय, ५ कर्मेंद्रिय तथा मन। संस्कार: गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह, अंत्येष्टि। श्रृंगार: ।
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ। २४ मिनिट = १ घड़ी।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।
छब्बीस - राशि-रत्न (१४-१२ =२६)
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
अड़तालीस - १ मुहूर्त = ४८ मिनिट या २ घड़ी।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
*
३३ कोटि देवता
*
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।
***
लघुकथा
छाया
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गणतंत्र दिवस, देशभक्ति का ज्वार।
भ्रष्टाचार के आरोपों से- घिरा अफसर, मत खरीदकर चुनाव जीता नेता, जमाखोर अपराधी, चरित्रहीन धर्माचार्य और घटिया काम कर रहा ठेकेदार अपना-अपना उल्लू सीधा कर तिरंगे को सलाम कर रहे थे।
आसमान में उड़ रहा तिरंगा निहार रहा था जवान और किसान को जो सलाम नहीं, अपना काम कर रहे थे।
उन्हें देख तिरंगे का मन भर आया, आसमान से बोला "जब तक पसीने की हरियाली, बलिदान की केसरिया क्यारी समय चक्र के साथ है तब तक मुझे कोई झुका नहीं सकता।
सहमत होता हुआ कपसीला बादल तीनों पर कर रहा था छाया।
२९-१-२०१९
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विमर्श - एक प्रश्न-उत्तर
संध्या सिंह-
न इतिहास के गौरव से प्रभावित न भविष्य के पतन से आशंकित ...... तटस्थ हो कर आप सबसे एक प्रश्न ;;;कितने लोग बदलती विचारधारा के परिपेक्ष्य में जौहर को आज भी वाजिब कहेंगे ...और महिमामंडित करेंगे .. ...और स्त्री को अस्मिता पर हमले के समय जौहर का सुझाव देंगे ?????
संजीव-
जौहर ऐसा साहस है जो हर कोई नहीं कर सकता। जौहर का सती प्रथा से कोई संबंध नहीं था।
जौहर विधर्मी स्वदेशी सेनाओं की पराजय के बाद शत्रुओं के हाथों में पड़कर बलात्कृत होने से बचने के लिए पराजित सैनिकों की पत्नियों द्वारा स्वेच्छा से किया जाता था जबकि पति की मृत्यु होने पर पत्नि (सब नहीं, अपवादस्वरूप) स्वेच्छा से प्राण त्याग कर सती होती थी। दोनों में कोई समानता नहीं है।
स्मरण हो जौहर अकेली पद्मिनी ने नहीं किया था। एक नारी के सम्मान पर आघात का प्रतिकार १५००० नारियों ने आत्मदाह कर किया जबकि उनके जीवन साथी लड़ते-लड़ते मर गए थे। ऐसा वीरोचित उदाहरण अन्य नहीं है। जब कोई अन्य उपाय शेष न रहे तब मानवीय अस्मिता और आत्म-गरिमा खोकर जीने से बेहतर आत्माहुति होती है। इसमें कोई संदेह नहीं है। ऐसे भी लाखों भारतीय स्त्री-पुरुष हैं जिन्होंने मुग़ल आक्रान्ताओं के सामने घुटने टेक दिए और आज के मुसलमानों को जन्म दिया जो आज भी भारत नहीं मक्का-मदीना को तीर्थ मानते हैं, जन गण मन गाने से परहेज करते हैं। ऐसे प्रसंगों पर इस तरह के प्रश्न जो पृष्ठभूमि से हटकर हों, आहत करते हैं। एक संवेदनशील विदुषी से यह अपेक्षा नहीं होती। प्रश्न ऐसा हो जो पूर्ण घटना और चरित्रों के साथ न्याय करे।
जान की बजी स्त्रियां जौहर में बाद लगाती थीं, उनके पहके पुरुष साका (अंतिम साँस तक युद्ध कर प्राणोत्सर्ग करना)करते थे। पुरुषों के शहीद हो जाने का समाचार मिलते ही स्त्रियाँ (सब नहीं, कुछ) जौहर कर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर सम्मान बचाती थीं।

आज भी यदि ऐसी परिस्थिति बनेगी तो ऐसा ही किया जाना उचित होगा। परिस्थिति विशेष में कोई अन्य मार्ग न रहने पर प्राण को दाँव पर लगाना बलिदान होता है। जौहर करनेवाली रानी पद्मिनी हों, या देश कि आज़ादी के लिए प्राण गँवानेवाले क्रांतिकारी या भ्रष्टाचार मिटाने हेतु आमरण अनशन करनेवाले अन्ना सब का कार्य अप्रतिम और अनुकरणीय हैं।
२९-१-२०१७
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सोमवार, 23 जनवरी 2023

गीत, मुक्तिका, रात, एम.एल. खरे, सॉनेट, सुभाष, यमकीय सोरठा, कृष्ण

सलिल सृजन २३ जनवरी 
सोरठे कृष्ण के
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जो पूजे तर जाए, द्वादश विग्रह कृष्ण के।
पुनर्जन्म नहिं पाए, मिले कृष्ण में कृष्ण हो।।
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विग्रह-छाया रूप, राधा रुक्मिणी दो नहीं।
दोनों एक अनूप, जो जाने पा कृष्ण ले।।
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नहीं आदि; नहिं अंत, कल-अब-कल के भी परे।
कृष्ण; कहें सब संत, कंत सृष्टि के कृष्ण जी।।
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श्वेत रक्त फिर पीत हों, अंत श्याम श्रीकृष्ण।
भिन्न-अभिन्न प्रतीत हों, हो न कभी संतृष्ण।।
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भेद दिखे होता नहीं, विधि-हरि-हर त्रय एक हैं।
चित्र गुप्त है त्रयी का, मति-विवेक अरु कर्म ज्यों।।
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'अ उ म' सह प्रणव मिल, कृष्ण सृष्टि पर्याय।
कृष्णाराधन नहिं जटिल, 'क्लीं' जपे प्रभु पाय।।
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कृष्ण सुलभ हैं भक्त को, व्यक्ताव्यक्त सुमूर्त हैं।
नयन मूँद कर ध्यान नित, भक्त-हृयदे में मूर्त हैं।।
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हर अंतर कर दूर, कहें उपनिषद निकट जा।
हरि-दर्शन भरपूर, मन में कर तू तर सके।।
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विप्र-भोज के बाद ही, सुनें कथा कर ध्यान।
कर्म खरे अनुपम सही, करते सदा सुजान।।
२३-१-२०२३
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सॉनेट
स्नेह सलिल में सभी नहाओ
सद्भावों का करो कीर्तन
सदाचारमय रहे आचरण
सुमन सुमन सुरभि फैलाओ
सतत सजग सहकार न भूलो
स्वजनों का सत्कार सदा हो
सबका सबसे हित साधन हो
सुख-सपनों में झूल न फूलो
स्वेद नर्मदा नित्य नहाना
श्रम सौभाग्य निरंतर पाना
सत्य सखा को गले लगाना
ठोकर लगे, सम्हल उठ बढ़ना
पग-पग आगे-आगे बढ़ना
प्रभु अर्पित सारा फल करना
२३-१-२०२३
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यमकीय सोरठा
मन को हो आनंद, सर! गम सरगम भुला दे।
क्यों कल? रव कर आज, कलरव कर कर मिला ले।।
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सॉनेट
सुभाष
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नरनाहर शार्दूल था, भारत माँ का लाल।
आजादी का पहरुआ, परचम बना सुभाष।
जान हथेली पर लिए, ऊँचा रख निज भाल।।
मृत्युंजय है अमर यश, कीर्ति छुए आकाश।।
जीवन का उद्देश्य था, हिंद करें आजाद।
शत्रु शत्रु का मित्र कह, उन्हें ले लिया साथ।
जैसे भी हो कर सकें, दुश्मन को बर्बाद।।
नीति-रीति चाणक्य की, झुके न अपना माथ।।
नियति नटी से जूझकर, लिखा नया इतिहास।
काम किया निष्काम हर, कर्मयोग हृद धार।
बाकी नायक खास थे, तुम थे खासमखास।।
ख्वाब तुम्हारे करें हम, मिल-जुलकर साकार।।
आजादी की चेतना, तुममें थी जीवंत।
तुम जैसा दूजा नहीं, योद्धा नायक संत।।
२३-१-२०२२
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कृति चर्चा
हस्तिनापुर की बिथा कथा : मानव मूल्यों को गया मथा
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
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मनुष्य सामाजिक जीव है। समाज में रहते हुए उसे सामाजिक मान्यताओं और संबंधों का पालन करना होता है। आने से जाने तक वह अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त और अन्यों की अनुभूतिजनित अभिव्यक्तियों को ग्रहण करता है। अभिव्यक्ति के विविध माध्यम अंग संचालन, भाव मुद्रा, रेखांकन, गायन, वादन नृत्य, वाणी आदि हैं। अनुभूतियों की वाणी द्वारा की गयी अभिव्यक्ति साहित्य की जननी है। साहित्य मानव-मन की सुरुचिपूर्ण ललित अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति निरुद्देश्य नहीं होती। संस्कृत में साहित्य को ‘सहितस्य भाव’ अथवा ‘हितेन सहितं’ अर्थात ‘समुदाय के साथ’ जोड़ा जाता है। जिसमें सबका हित समाहित हो वही साहित्य है। विख्यात साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार के शब्दों में - “मनुष्य का और मनुष्य जाति का भाषाबद्ध या अक्षर व्यक्त ज्ञान ही ‘साहित्य’ है। व्यापक अर्थ में साहित्य मानवीय भावों और विचारों का मूर्त रूप है।
बुंदेली और बुंदेलखंड
बुंदेली भारत के एक विशेष क्षेत्र बुन्देलखण्ड में बोली जाती है। बुंदेली की प्राचीनता का ठीक-ठीक अनुमान संभव नहीं है। संवत ५०० से १०० विक्रम अपभृंश काल है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार "भारत मुनि (तीसरी सदी) ने अपभृंश नाम न देकर 'देश भाषा' कहा है। डॉ. उदयनारायण तिवारी के मत में अपभृंश का विसात राजस्थान, गुजरात, बुंदेलखंड, पश्चिमोत्तर भारत, बंगाल और दक्षिण में मान्यखेत तक था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार अपभृंश लोक प्रचलित भाषा है जो विभिन्न समयों में विभिन्न रूपों में बोली जाती थी। बुंदेली पैशाची से निकली शौरसेनी से विकसित पश्चिमी हिंदी का एक देशज रूप है। 'बिंध्याचल' की लोकमाता 'बिंध्येश्वरी' हैं। यहाँ की लोकभाषा का नाम 'बिंध्याचली' से बदलते-बदलते 'बुंदेली' हो जाना स्वाभाविक है।
ठेठ बुंदेली शब्द अनूठे हैं। वे सदियों से ज्यों के त्यों लोक द्वारा प्रयोग किये जा रहे हैं। बुंदेलखंडी के ढेरों शब्दों के अर्थ बांग्ला, मैथिली, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, बघेली आदि बोलने वाले आसानी से बता सकते हैं। प्राचीन काल में बुंदेली में हुए शासकीय पत्राचार, संदेश, बीजक, राजपत्र, मैत्री संधियों के अभिलेख प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। औरंगजेब और शिवाजी भी क्षेत्र के हिंदू राजाओं से बुंदेली में ही पत्र व्यवहार करते थे। बुंदेली में एक-एक क्षण के लिए अलग-अलग शब्द हैं। संध्या के लिए बुंदेली में इक्कीस शब्द हैं। बुंदेली में वैविध्य है, इसमें बांदा का अक्खड़पन है तो जबलपुर की मधुरता भी है।
वर्तमान बुंदेलखंड चेदि, दशार्ण एवं कारुष से जुड़ा था। यहाँ कोल, निषाद, पुलिंद, किराद, नाग आदि अनेक जनजातियाँ निवास करती थीं जिनकी स्वतंत्र भाषाएँ थीं। भरतमुनि के नाट्य शास्‍त्र में बुंदेली बोली का उल्लेख है। बारहवीं सदी में दामोदर पंडित ने 'उक्ति व्यक्ति प्रकरण' की रचना की। इसमें पुरानी अवधी तथा शौरसेनी ब्रज के अनेक शब्दों का उल्लेख है। इसी काल (एक हजार ईस्वी) के बुंदेली पूर्व अपभ्रंश के उदाहरणों में देशज शब्दों, की बहुलता हैं। हिंदी शब्दानुशासन (पं॰ किशोरीलाल वाजपेयी) के अनुसार हिंदी एक स्वतंत्र भाषा है, उसकी प्रकृति संस्कृत तथा अपभ्रंश से भिन्न है। बुंदेली की माता प्राकृत-शौरसेनी मौसी संस्कृत तथा बृज व् कन्नौजी सहोदराएँ हैं। बुंदेली भाषा की अपनी चाल, अपनी प्रकृति तथा वाक्य विन्यास को अपनी मौलिक शैली है। भवभूति (उत्तर रामचरितकार) के ग्रामीणजनों की भाषा विंध्‍येली प्राचीन बुंदेली ही है। संभवतः चंदेल नरेश गंडदेव (सन् ९४० से ९९९ ई.) तथा उसके उत्तराधिकारी विद्याधर (९९९ ई. से १०२५ ई.) के काल में बुंदेली के प्रारंभिक रूप में महमूद गजनवी की प्रशंसा की कतिपय पंक्तियाँ लिखी गई। इसका विकास रासो काव्य धारा के माध्यम से हुआ। जगनिक आल्हाखंड तथा परमाल रासो प्रौढ़ भाषा की रचनाएँ हैं। बुंदेली के आदि कवि के रूप में प्राप्त सामग्री के आधार पर जगनिक एवं विष्णुदास सर्वमान्य हैं, जो बुंदेली की समस्त विशेषताओं से मंडित हैं। बुंदेली के बारे में कहा गया है: 'बुंदेली वा या है जौन में बुंदेलखंड के कवियों ने अपनी कविता लिखी, बारता लिखवे वारों ने वारता (गद्य वार्ता) लिखी।
बुंदेली वैविध्य
बोली के कई रूप जगा के हिसाब से बदलत जात हैं। जई से कही गई है कि- 'कोस-कोस पे बदले पानी, गाँव-गाँव में बानी'। बुंदेलखंड में जा हिसाब से बहुत सी बोली चलन में हैं जैसे डंघाई, चौरासी, पवारी, पछेली, बघेली आदि। उत्तरी क्षेत्र (भिंड, मुरैना, ग्वालियर, आगरा, मैनपुरी, दक्षिणी इटावा आदि में बृज मिश्रित बुंदेली (भदावरी ) प्रचलित है। दक्षिणी क्षेत्र (उत्तरी छिंदवाड़ा (अमरवाड़ा, चौरई) व् सिवनी जिला (महाराष्ट्र से सटे गाँव छोड़कर) बुंदेली भाषी है। पूर्वी क्षेत्र (जालौन, हमीरपुर, पूर्वी छतरपुर, पन्ना, कटनी) में शुद्ध बुंदेली बोली जाती है किन्तु उत्तर-पश्चिम हमीरपुर व् दक्षिणी जालौन में बुंदेली का 'लोधांती' रूप तथा यमुना के दक्षिणी भाग में 'निभट्टा' प्रचलित है। दक्षिणी पन्ना की बुंदेली पर बघेली का प्रभाव (बनाफरी) है। पश्चिमी क्षेत्र में (मुरैना, श्योपुर, शिवपुरी, गुना, विदिशा, पश्चिमी होशंगाबाद (हरदा मिश्रित बुंदेली भुवाने की बोली') व सीहोर (मालवी मिश्रित बुंदेली) सम्मिलित है। मध्यवर्ती क्षेत्र (दतिया, छतरपुर, झाँसी, टीकमगढ़, विदिशा, सागर दमोह, जबलपुर, रायसेन, नरसिंहपुर) में शुद्ध बुंदेली लोक भाषा है।
बुंदेली वैशिष्ट्य
बुंदेली में क्रियापदों में गा, गे, गी का अभाव है। होगा - हुइए, बढ़ेगा - बढ़हे, मरेगा - मरहै, खायेगा - खाहै हो जाते हैं। 'थ' का 'त' तथा 'ह' का 'अ' हो जाता है, नहीं था - नई हतो, ली थी - लई तीं, जाते थे - जात हते आदि। कर्म कारक परसर्ग में 'खों' और 'कों' प्रचलित हैं। संज्ञा शब्दों का बहुवचन 'न' और 'ऐं' प्रत्यय लगकर बनाये जाते हैं। करन कारक 'से' 'सें' हो जाता है। संयुक्त वर्ण को विभाजन हो जाता है ' प्रजा से' 'परजा सें' हो जाता है। हकार का लोप हो जाता है - बहिनें - बैनें, कहता - कैत, कहा - कई, उन्होंने - उन्नें, बहू - बऊ, पहुँची - पौंची, शाह - शाय आदि। लोच और माधुर्यमयी बुंदेली 'ण' को 'न' तथा 'ड़' को 'र' में बदल लेती है। उच्चारण में 'अनुस्वार' को प्रधानता है - कोई - कोनउँ, उसने - ऊनें, आदि। संज्ञा एकवचन को बहुवचन में बदलने हेतु 'न' व 'ए' प्रत्यय लगाए जाते हैं। यथा सैनिक - सैनिकन, आदमी - आदमियन, पुस्तक - पुस्तकें आदि। शब्दों के संयुक्त रूप भी प्रयोग किये जाते हैं। यथा जैसे ही - जैसई, हद ही कर दी - हद्दई कर दई आदि। अकारान्त संज्ञा-विशेषणों का उच्चारण औकारांत हो जाता है। पखवाड़ा - पखवाडो, धोकर - धोकेँ आदि। लेकिन के लिए 'पै' का प्रयोग होता है। तृतीय पुरुष में एकवचन 'वह' का 'बौ / बो' हो जाता है। इसके कारकीय रूप बा, बासें, बाने, बाकी, बह वगैरह हैं। सानुनासिकता बुंदेली की विशेषता है। उन्नें, नईं, हतीं, सैं आदि। था, थी, थे आदि क्रमश: हतौ, हती, हते आदि हो जाते हैं। भविष्यवाची प्रत्यय गा, गी, गे का रूप बदल जाता है। होगा - हुइए, चढ़ेगा - चढ़हे, चढ़ चूका होगा - चढ़ चुकौ हुइए।
बुंदेली साहित्य सृजन परंपरा
बुंदेली साहित्य और लोक साहित्य की सुदीर्घ परंपरा १००० वि. से अब तक अक्षुण्ण है। जगनिक (संवत १२३०), विष्णुदास, मानिक कवि, थेपनाथ, छेहल अग्रवाल,गुलाब कायस्थ (१५०० वि.), बलभद्र मिश्र (१६०० वि.), हरिराम व्यास, कृपाराम, गोविंद स्वामी, बलभद्र कायस्थ (१६१० वि.), केशवदास (१६१२ वि.), खड़गसेन कायस्थ (१६६० वि.), सुवंशराय कायस्थ (१६८० वि.), अंबाप्रसाद श्रीवास्तव 'अक्षर अनन्य', बख्शी हंसराज,ईसुरी (१८०० वि.), पद्माकर (१८१० वि.), गंगाधर व्यास, ख्यालीराम, घनश्याम कायस्थ (१७२९ वि.), रघुराम कायस्थ (१७३७ वि.), लाल कवि, हिम्मद सिंह कायस्थ (१७४८ वि.), रसनिधि (१७५० वि.), हंसराज कायस्थ (१७५२ वि.), खंडन कायस्थ (१७५५ वि.), खुमान कवि, नवल सिंह कायस्थ (१८५० वि.), फतेहसिंह कायस्थ (१७८० वि.), शिवप्रसाद कायस्थ (१७९८ वि.), गुलालसिंह बख्शी (१९२२ वि.), मदनेश (१९२४ वि.), मुंशी अजमेरी (१९३९ वि.), रामचरण हयारण 'मित्र' (१९४७ वि.), जीवनलाल वर्मा 'विद्रोही व भगवान सिंह गौड़ (१९७२ वि.), कन्हैयालाल 'कलश' (१९७६ वि.), भैयालाल व्यास (१९७७ वि.), वासुदेव प्रसाद खरे (१९७९ वि.), नर्मदाप्रसाद गुप्त ( १९८८ वि.) के क्रम में इस प्रबंध काव्य के रचयिता महाकवि मुरारीलाल खरे (१९८९ वि.) ने बुंदेली और हिंदी वांग्मय को अपनी विलक्षण काव्य प्रतिभा से समृद्ध किया है। वाल्मीकि रामायण का ७ भागों में हिंदी पद्यानुवाद, रामकथा संबंधी निबंध संग्रह यावत् स्थास्यन्ति महीतले, संक्षिप्त बुंदेली रामायण तथा रघुवंशम के हिंदी पद्यानुवाद, के पश्चात् बुंदेली में संक्षिप्त महाभारत 'कुरुक्षेत्र की बिथा कथा रचकर हिंदी-बुंदेली दोनों को समृद्ध है। भौतिकी के आचार्य डॉ. एम. एल. खरे भाषिक शुद्धता और कथा-क्रम के प्रति आग्रही हैं। वे छंद की वाचिक परंपरा के रचनाकार हैं। वार्णिक-मात्रिक छंदों मानकों का पालन करने के लिए कथ्य या कथा वस्तु से समझौता स्वीकार्य नहीं है। इसलिए उनका काव्य कथानक के साथ न्याय कर पाता है।
बुंदेली में वीर काव्य
विश्व की सभी प्रधान भाषाओँ में वीर काव्य लेखन की परंपरा रही है। रामनारायण दूगड़ 'रहस' या 'रहस्य' से तथा आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रो। ललिता प्रसाद सुकुल आदि 'रसायण' से रासो की उत्पत्ति मानते हैं। डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल कविराज श्यामदास आदि 'रहस्य - रहस्सो - रअस्सो - रासो' विकासक्रम के समर्थक हैं। मुंशी देवी प्रसाद के मत में बुंदेली में वीर काव्य को 'रासो' कहा जाता है। डॉ. ग्रियर्सन राज्यादेश से रासो उत्पत्ति मानते हैं। महामहोपाध्याय डॉ. हरप्रसाद शास्त्री रासा (क्रीड़ा या झगड़ा) को रासो का जनक बताते हैं। महामहोपाध्याय डॉ.गौरीशंकर हीराचंद ओझा संस्कृत 'रास' रासो की उत्पत्ति के पक्षधर हैं। बुंदेलखंड में 'हों लगे सास-बहू के राछरे' जैसी पक्तियाँ रासो का उद्भव राछरे से इंगित करती हैं। रासो में किसी वीर नायक का चरित्र, संघर्ष, जय-पराजय आदि गीतमय वर्णन होता है। रासो शोकांत (ट्रेजिक एंड) जान मानस में सफल होता है। जगनिक कृत आल्ह खंड, चंद बरदाई रचित पृथ्वीराज रासो, दलपति विजय कवि कृत खुमान रासो, नरपति नाल्ह द्वारा लिखित बीसलदेव रासो आदि अपने कथानायकों के शौर्य का अतिरेकी, अतिशयोक्तिपूर्ण अतिरंजित वर्णन। अवास्तविक भले ही हो श्रोताओं-पाठकों को मोहता है। जगनिक "एक को मारे दो मर जाँय, तीजा गिरे कुलाटी खाँय'' लिखकर इस परंपरा का बीजारोपण करते हैं। रासो काव्यों की ऐतिहासिकता भी प्रश्नों के घेरे में रही है।
संस्कृत काव्यशास्त्र में महाकाव्य (एपिक) का प्रथम सूत्रबद्ध लक्षण आचार्य भामह ने प्रस्तुत किया है और परवर्ती आचार्यों में दंडी, रुद्रट तथा विश्वनाथ ने अपने अपने ढंग से इस महाकाव्य(एपिक)सूत्रबद्ध के लक्षण का विस्तार किया है। आचार्य विश्वनाथ का लक्षण निरूपण इस परंपरा में अंतिम होने के कारण सभी पूर्ववर्ती मतों के सार-संकलन के रूप में उपलब्ध है। महाकाव्य में भारत को भारतवर्ष अथवा भरत का देश कहा गया है तथा भारत निवासियों को भारती अथवा भरत की संतान कहा गया है ,
महाभारत रासो काव्यों के लक्षणों से युक्त महाकाव्य है। रासो की तरह नायकों की अतिरेकी शौर्य कथाएँ और वंश परिचय महाभारत में है। रासों से भिन्नता यह कि नायक कई हैं तथा नायकों के अवगुणों, पराजयों व पीड़ाओं का उल्लेख है। भिन्न-भिन्न प्रसंगों में उदात्त-वीर नायक बदलते हैं। एक सर्ग का नायक अन्य सर्ग में खलनायक की तरह दिखता है। इस दृष्टि से महाभारत रासो-का समुच्चय प्रतीत है।महाभारत की कथा चिर काल से सृजनधर्मियों का चित्त हरण करती रही है। अनेक रचनाकारों ने गद्य और पद्य दोनों में महाभारत की कथा के विविध आयाम उद्घाटित किये हैं। डॉ. मुरारीलाल खरे जी द्वारा रचित यह प्रबंध काव्य कृति रासो काव्य लक्षणों से यथास्थान अलंकृत है।
श्रव्य काव्य : प्रबंध काव्य और महाकाव्य
श्रव्य काव्य का लक्षण श्रवण में आनंद मिलना है। प्रबंध काव्य में श्रवयत्व और पाठ्यत्व दोनों गुण होते हैं।
प्रबंध का अर्थ है प्रबल रूप से बँधा हुआ। प्रबंध का प्रत्येक अंश अपने पूर्व और पर अंश के साथ निबध्द होता है। प्रबंध काव्य में कोई प्रमुख कथा काव्य के आदि से अंत तक क्रमबद्ध रूप में चलती है। कथा का क्रम बीच में कहीं नहीं टूटता और गौण कथाएँ बीच-बीच में सहायक बन कर आती हैं। प्रबंध काव्य के दो भेद होते हैं -
महाकाव्य
खण्डकाव्य
महाकाव्य में किसी ऐतिहासिक या पौराणिक महापुरुष की संपूर्ण जीवन कथा का आद्योपांत वर्णन होता है। खंडकाव्य में किसी की संपूर्ण जीवनकथा का वर्णन न होकर केवल जीवन के किसी एक ही भाग का वर्णन होता है। महाकाव्य अपने देश की जातीय और युगीन सभ्यता-संस्कृति के वाहक होते हैं। इनमें ऐतिहासिक घटनाओं के साथ मिथकों का अंतर्गुफन रहता है। इन महाकाव्यों के केन्द्र में युद्ध रहता है जो व्यक्तिगत तथा वंशगत सीमाओं से ऊपर उठकर जातीय युद्ध का रूप धारण कर लेता है। भारतीय महाकाव्यों में ये 'धर्मयुद्ध' के रूप में लड़े गए हैं। इलियड और ओडिसी में ये युद्ध मूलतः जातीय युद्ध हैं- धर्मयुद्ध नहीं। इसका कारण यह है कि यूनानी चिंतक भाग्यवादी रहा है किन्तु यहाँ भी धर्म की पराजय और अधर्म की विजय को मान्यता नहीं दी गई। रचनाबद्ध होने से पहले इनकी मूलवर्ती घटनाएं मौखिक परंपरा के रूप में रहती हैं। इसलिए सार्वजनिक प्रस्तुति के साथ किसी-न-किसी रूप में इनका प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष संबंध रहता है। इनकी शैली पर वाचन-शैली का प्रभाव अनिवार्यतः लक्षित होता है।
हिंदी में आल्ह खंड (जगनिक), पृथ्वीराज रासो (चंदबरदाई), पद्मावत (जायसी), रामचरित मानस (तुलसीदास), साकेत (मैथिलीशरण गुप्त), साकेत संत (बलदेव प्रसाद मिश्र), प्रियप्रवास (अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'), कृष्णायण (द्वारिकाप्रसाद मिश्र), कामायनी (जयशंकर प्रसाद), वैदेही वनवास (हरिऔध), सिद्धार्थ (अनूप शर्मा), हल्दीघाटी (श्यामनारायण नारायण पांडेय), कुरुक्षेत्र (दिनकर), आर्यावर्त (मोहन लाल महतो), नूरजहां (गुरुभक्त सिंह), गांधी पारायण (अंबिकाप्रसाद दिव्य), कैकेयी (इंदु सक्सेना), उत्तर रामायण तथा उत्तर भागवत (डॉ. किशोर काबरा), दधीचि (आचार्य भगवत दुबे), महिजा तथा रत्नजा (डॉ. सुशीला कपूर), वीरांगना दुर्गावती ( गोविंद प्रसाद तिवारी), विवेक श्री (श्रीकृष्ण सरल), मृत्युंजय मानव गणेश (डॉ. जगन्नाथ प्रसाद 'मिलिंद'), कुटिया का राजपुरुष (विश्वप्रकाश दीक्षित 'बटुक'), कुँअर सिंह (चंद्रशेखर मिश्र), उत्तर कथा (प्रतिभा सक्सेना), महामात्य, सूतपुत्र तथा कालजयी (दयाराम गुप्त 'पथिक'), दलितों का मसीहा (जयसिंह व्यथित), क्षत्राणी दुर्गावती (केशव सिंह दिखित), रणजीत राय (गोमतीप्रसाद विकल), स्वयं धरित्री ही थी (रमाकांत श्रीवास्तव), परे जय पराजय के (डॉ. रमेश कुमार बुधौलिआ), मानव (डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल'), महानायक वीरवर तात्या टोपे (वीरेंद्र अंशुमाली), दमयंती (नर्बदाप्रसाद गुप्त), महाराणा प्रताप व् आहुति (डॉ. बृजेश सिंह), राष्ट्र पुरुष नेताजी सुभाषचंद्र बोस (रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'), मांडवी एक विस्मृता (सरोज गौरिहार), शौर्य वंदन (रवींद्र नाथ तिवारी) आदि महाकाव्य के रत्नहार में 'हस्तिनापुर की बिथा कथा' एक दीप्तिमान रत्न की तरह विश्ववाणी हिंदी के रत्नागार की श्रीवृद्धि करेगा।
'हस्तिनापुर की बिथा कथा' महाभारत में वर्णित कौरव-पांडव संघर्ष केंद्रित होते हुए भी स्वतंत्र काव्य कृति है। हस्तिनापुर नायक है जिसकी व्यथा कारण कुरु कुलोत्पन्न धृतराष्ट्र पुत्र और पाण्डु पुत्र बने। वस्तुत: हस्तिनापुर मानव संस्कृति और मानव मूल्यों के अतिरेक का शिकार हुआ। आदर्शवादियों ने आत्मकेंद्रित होकर मूल्यों का मनमाना अर्थ लगाया और नीति पर चलते-चलते अनीति कर बैठे। स्वार्थ-संचालित जनों ने 'स्व' के लिए 'पर' ही नहीं 'सर्व' को भी नाश नहीं किया, बिन यह सोचे कि वे स्वयं नहीं बच सकेंगे। डॉ.खरे ने आरंभ में ही राजवंश में अंतर्व्याप्त द्वेष को द्वन्द का मूल कारण बताते हुए 'गेहूँ के साथ घुन पिसने' की तरह आर्यावर्त अर्थात आम जन का बिना किसी कारण विनाश होने का संकेत किया है।
राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्यावर्त गओ
घर में आग लगाई घर में बरत दिया की भड़की लौ
कौरव-पांडवों की द्वेषाग्नि और कुल की रक्षा हेतु राजकुमारों को दिलायी गयी शिक्षा और अस्त्र-शस्त्र ही कुल के विनाश में सहायक हुए।
दिव्य अस्त्र पाए ते जतन सें होवे खों कुल के रक्षक
नष्ट भये आपस में भिड़कें , बने बंधुअन के भक्षक
महाभारत के विस्तृत कथ्य को समेटते हुए मौलिकता की रक्षा करने के साथ-साथ पाठकीय अभिरुचि, आंचलिक बोली का वैशिष्ट्य, छांदस लयबद्धता और लालित्य बनाये रखने पञ्च निकषों पर खरी कृति जी रचना कर पाना खरे जी के ही बस की बात है।संस्कृत काव्य शास्त्र में भामह, डंडी, रुद्रट, विश्वनाथ आदि आचार्यों ने कथानक की ऐतिहासिकता, कथानक का अष्टसर्गीय अथवा अधिक विस्तार, कथानक का क्रमिक विकास, धीरोदात्त नायक, अंगी रस (श्रृंगार, वीर, शांत व् करुण में से एक), लोक कल्याण की प्राप्ति, छंद वैविध्य, भाषिक लालित्य आदि महाकाव्य के तत्व कहे हैं। अरस्तू के अनुसार महाकाव्य की भाषा प्रसन्नतादायी हो किंतु क्षुद्र (अशुद्ध) न हो। स्पेंसर महाकाव्य के लिए वैभव-गरिमा को आवश्यक मानते हैं। औदात्य और औदार्य, शौर्य और पराक्रम, श्रृंगार और विलास, त्याग और वैराग, गुण और दोष के पञ्च निकषों पर ' हस्तिनापुर की बिथा कथा' अपनी मिसाल आप है।
मौलिकता
महाकाव्य में मौलिकता का अपना महत्त्व है। खरे जी ने यत्र - तत्र पात्रों और घटनाओं पर अपनी ओर से गागर में सागर की तरह टिप्पणियाँ की हैं। द्रोणाचार्य के मनोविज्ञान पर दो पंक्तियाँ देखें -
द्रोण चाउतते उनकौ बेटा अर्जुन सें बड़केँ जानें
सो अर्जुन खों पौंचाउतते पानी ल्याबे के लाने
सत्यवती के पोतों में से विदुर में क्षत्रिय रक्त न होने के कारण स्वस्थ्य व योग्य होते हुए भी सिंहासन योग्य न माने जाने की तर्कसम्मत स्थापना खरे जी है। गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत में भीष्म का लालन-पालन गंगा द्वारा करना वर्णित है जबकि खरे जी ने शांतनु द्वारा बताया है। अशिक्षित सत्यवती द्वारा उचित-अनुचित का विचार किये बिना, पुत्र वधुओं की सहमति के बिना वंश वृद्धि के मोह में बलात सन्तानोपत्ति हेतु विवश करना और उसका दुष्प्रभाव संतान पर होना विज्ञान सम्मत है।
गांधारी द्वारा अंधे पति की आँखें न बनकर खुद भी आँखों पर पट्टी बाँधकर नेत्रहीन होने के दुष्प्रभाव को भी इंगित किया गया है।
पतिब्रता धरम जानकेँ धरमसंगिनी तौ हो गइ
आँखें खुली राख के भोली अंधे की लठिया नइं भइ
आदर्श और पराक्रमी माने जाने वाले भीष्म धृतराष्ट्र को सम्राट बनाते समय यह नहीं सोच सके कि पदका का नशा चढ़ता है, उतरता नहीं -
धृतराष्ट्र को पुत्र जेठो अधिकार माँगहै गद्दी पै
जौ नइं सोचे भीष्म , बिचार कर सकोतो धीवर जी पै
बुंदेलखंड में दोहा प्रचलित है 'जब जैसी भबितब्यता, तब तैसी बने सहाय / आप न जावै ताहि पै, ताहि तहाँ लै जाए', तुलसीदास जी लिखते हैं 'होइहै सोही जो राम रचि राखा', खरे जी के अनुसार हैं हस्तिनापुर में भी 'भावी प्रबल' थी जिसे भीष्म नहीं जान या टाल सके-
सोचन लगे पितामह घर में इत्ते सूरबीर हैं जब
कोऊ दुस्मन कर नइं पाये ई राज पै आक्रमन अब
बे का जानतते जा शिक्षा मिली परस्पर लड़बे खों
अस्त्र - सस्त्र जे काम आउनें आपुस में मर मिटवे खों
धृतराष्ट्र के बुलाने पर पांडव दोबारा जुआं खेलने पहुँचे। कवि इस पर टिप्पणी करता है -
काका की आज्ञा को पालन मानत धरम युधिष्ठिर रए
एक बेर के जरे आग में हाँत जराउन फिर आ गए
ऐसी ही टिप्पणी गंधर्वराज से लड़-हार कर बंदी बने कौरवों को पांडवों द्वारा मुक्त कराये जाने के प्रसंग में भी है -
नीच सुभाव होत जिनकौ , ऐसान कौऊ कौ नइं मानत
बदी करत नेकी के बदलैं , होशयार खुद खों जानत
ऐसी टिप्पणियाँ कथा - प्रवाह में बाधक न होकर , पाठक के मन की बात व्यक्त कर उसे कथा से जोड़ने में सफल हुई हैं।
पांडवों के मामा शल्य उनकी सहायता हेतु आते हुए मार्ग दुर्योधन के कपट जाल में फँसकर उसके पक्ष में फिसल गए। यहाँ (अन्यत्र भी) कवि ने मुहावरे का सटीक प्रयोग किया है - ' बेपेंदी के लोटा घाईं लुड़क दूसरी तरफ गए ' ।
दिशा - दर्शन
महाकवि खरे जी ने यत्र - तत्र नीतिगत संकेत इस तरह किये हैं कि वे कथा - प्रवाह को अवरुद्ध किये बिना पाठकों और राष्ट्र नायकों को राह दिखा सकें -
' सत्यानास देस का भओ तो , नई बंस कौ भओ भलो '
संकेत स्पष्ट है कि देश को हानि पहुँचाकर खुद का भला नहीं किया जा सकता। ऐसे अनेक संकेत कृति को प्रासंगिक और उपादेय बनाते हैं।
जीवन में अव्यवहारिक, अस्वाभाविक निर्णय दुखद तथा विनाशकारी परिणाम देते हैं। आत्मगौरव को सर्वोच्च मानने और कुल अथवा समाज के हित को गौड़ मानने का परिणाम दुखद हुआ -
महात्याग से नाव भीष्म कौ जग में भौत बड़ो हो गओ
पर कुल की परंपरा टूटी , बीज अनीति कौ पर गओ
आगें जाकर अंकुर फूटे , बड़ अनीति विष बेल बनी
जीसें कुल में तनातनी भइ , भइयन बीच लड़ाई ठनी
रक्त शुद्धता न होने कारण सर्वथा योग्य विदुर की अवमानना , जाति के आधार पर एकलव्य और कर्ण के साथ अन्याय , अंबा , अंबिका , अंबालिका द्रौपदी आदि स्त्री रत्नों की अवहेलना , पुत्र मोह , ईर्ष्या , द्वेष अहंकार आदि यथास्थान यथोचित विवेचना कर खरे जी ने कृति को युगबोध, सामयिकता लोकोपयोगिता के निकष पर खरा रचा है।
कथाक्रम सुविदित होने कारण उत्सुकता और कौतुहल बनाये रखने की चुनौती को खरे ने स्वीकारा और जीता है। देश - काल की परिस्थितियों और चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में सर्पोवोपयोगी कृति का प्रणयन कर खरे जी ने हिंदी - बुंदेली रत्नागार को समृद्ध किया है। उनकी आगामी कृति की प्रतीक्षा पाठकों को रहेगी।
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अभिनव प्रयोग
नवगीत:
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ओबामा आते देश में
करो पहुनाई २
चोला बदल के किरन बेदी आई
सुषमा के संगे करें पहुनाई
ओबामा आये देश में
करो पहुनाई २
दिल्ली में होता घमासान भाई
केजरी परेशां न होवे रुसवाई
ओबामा आते देश में
करो पहुनाई २
कृष्णा ने जबसे है पीठ फिराई
पंजे को आती है जमके रुलाई
ओबामा आये देश में करो पहुनाई २
वाह रे नरिंदर! अमित लीला गाई
लालू-नितिन को पटकनी लगाई
ओबामा आते देश में
करो पहुनाई २
मुल्ला मुलायम को माया न भाई
ममता ने दिल्ली की किल्ली भुलाई
ओबामा आते देश में
करो पहुनाई २
मिशल खेलें होली अबीर लिए धाई
चली पिचकारी तो भीगी लजाई
ओबामा आते देश में
करो पहुनाई २
तिरंगा ने सुन्दर छटा जब दिखाई
जनगण ने जोरों से ताली बजाई
ओबामा आते देश में
करो पहुनाई २
(सोहर लोकगीत की धुन पर)
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मुक्तिका:
रात
( तैथिक जातीय पुनीत छंद ४-४-४-३, चरणान्त sssl)
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चुपके-चुपके आयी रात
सुबह-शाम को भायी रात
झरना नदिया लहरें धार
घाट किनारे काई रात
शरतचंद्र की पूनो है
'मावस की परछाईं रात
आसमान की कंठ लंगोट
चाहे कह लो टाई रात
पर्वत जंगल धरती तंग
कोहरा-पाला लाई रात
वर चंदा तारे बारात
हँस करती कुडमाई रात
दिन है हल्ला-गुल्ला-शोर
गुमसुम चुप तनहाई रात
२३-१-२०१५
गीतः
सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
सन्जीव
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सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
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काने कौए कुर्सी को
पकड़ सयाने बन बैठे
भूल गये रुकना-झुकना
देख आईना हँस एँठे
खिसकी पाँव तले धरती
नाम हुआ बेहद बदनाम...
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मोहन ने फिर व्यूह रचा
किया पार्थ ने शर-सन्धान
कौरव हुए धराशायी
जनगण सिद्‍ध हुआ मतिमान
खुश मत हो, सच याद रखो
जन-हित बिन होगे गुमनाम...
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हर चूल्हे में आग जले
गौ-भिक्षुक रोटी पाये
सांझ-सकारे गली-गली
दाता की जय-जय गाये
मौका पाये काबलियत
मेहनत पाये अपना दाम...
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१३-७-२०१४