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शनिवार, 3 सितंबर 2011

आलेख: प्रथम पूजनीय गणेश जी प्रो. अश्विनी केशरवानी

आलेख: प्रथम पूजनीय गणेश जी 

प्रो. अश्विनी केशरवानी



श्री गणेश जी की पूजा प्रत्येक शुभकार्य करने के पूर्व ‘‘श्रीगणेशायनमः’’ का उच्चारण किया जाता है। क्योंकि गणेश जी की आराधना हर प्रकार के विघ्नों के निवारण करने के लिए किया जाता है। क्योंकि गणेश जी विघ्नेश्वर हैं:-

वक्रतुण्ड महाकाय कोटि समप्रभा।
निर्विघ्नं कुरू में देव, सर्व कार्येषु सर्वदा।।

गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस के मंगलाचरण में गणेश जी की वंदना करते हुए लिखा हैः-

जो सुमिरन सिधि होई गन नायक करिवर वदन।
करउ अनुग्रह सोई बुधि रासि शुभ गुण सदन।।

भगवान गणेश सत, रज और तम तीनों गुणों के ईश हैं। गणों का ईश ही प्रणव स्वरूप ‘ऊँ’ है। अतः प्रणव स्वरूप ओंकार ही भगवान की मूर्ति है जो वेद मंत्रों के प्रारंभ में प्रतिष्ठित है। ऊँकार रूपी भगवान को ही गणेश कहा गया है:-

ओंकार रूपी भगवानुक्तसत गणनायकः।
यथा कार्येषु सर्वेषु पूज्यते औ विनायकः।।

ऋग्वेद में भी कहा गया हैः- ‘‘न ऋतेत्वतकियते किं चन्तरे’’ अर्थात् हे गणेश जी तुम्हारे बिना कोई भी कार्य प्रारंभ नहीं किया जाता। पुराणों में पंचदेवों की उपासना कही गयी है.। इस उपासना का रहस्य स्थल पंचभूतों से सम्बंधित है। ये स्थूल तत्व हैं- पुथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इनके अधिपति क्रमशः शिव, गणेश, भगवती, सूर्य और विष्णु हैं। गणेश जी के जल तत्व के अधिपति होने के कारण उनकी सर्वप्रथम पूजा का विधान है। नारद पुराण के अनुसार- ‘‘गणेशादि पंचदेव ताभ्यो नमः’’ गणेश जी ब्रह्मांड और उसके विशिष्ट तत्वों के प्रतीक होने के कारण दार्शनिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। गणेश जी बल, बुद्धि और पराक्रम के धनी हैं। संसार की परिक्रमा में प्रथम आने की शर्त जब सब देवताओं ने रखी और पृथ्वी की पक्र्रिमा शुरू की तो उन्होंने अपना बुद्धि चातुर्य्य दिखाया। उन्होंने सोचा कि जीव तो चर-अचर में रमा है- ‘रमन्ते चराचरेषु संसारे’ और उन्होंने अपने माता-पिता की परिक्रमा करके रूक गये। जब समस्त देवता पृथ्वी का चक्कर लगाकर लौटे तो उनकी बृद्धि और चतुरता की बात सुनकर स्तब्ध रह गये और अपनी हार स्वीकार कर लिये। तब से वे देवताओं के अग्रगण्य बने और अग्र पूजा के अधिकारी हुए।

विघ्ननाशक और सिद्धि विनायक गणेश या गणपति की विनायक के रूप में पूजन की परंपरा प्राचीन है किंतु पार्वती अथवा गौरीनंदन गणेश का पूजन बाद में प्रारंभ हुआ। ब्राह्मण धर्म के पांच प्रमुख सम्प्रदायों में गणेश जी के उपासकों का एक स्वतंत्र गणपत्य सम्प्रदाय भी था जिसका विकास पांचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुआ। वर्तमान में सभी शुभाशुभ कार्यो के प्रारंभ में गणेश जी की पूजा की जाती है। लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजन चंचला लक्ष्मी पर बुद्धि के देवता गणेश जी के नियंत्रण के प्रतीक स्वरूप की जाती है। दूसरी ओर समृद्धि के देवता कुबेर के साथ उनके पूजन की परंपरा सिद्धि दायक देवता के रूप में मिलती है।

स्वतंत्र मूर्तियों के साथ गणेश जी को शिव परिवार के सदस्य के रूप में लगभग 8 वीं से 13 वीं शताब्दी के बीच शिव और शक्ति की मूर्तियों में उत्कीर्ण किया गया। भुवनेश्वर के सभी शिव मंदिरों की वाह्य भित्ति पर दोनों ओर कार्तिकेय और पार्वती तथा एक ओर गणेश का रूपायन हुआ है। शिव की नटराज (कांचीपुरम् और भुवनेश्वर), त्रिपुरान्तक, उमा-महेश्वर (खजुराहो, वाराणसी) और कल्याण-सुंदर (भुवनेश्वर, वाराणसी) मूर्तियों में भी गणेश के शिल्पांकन की परंपरा रही है। इसके अतिरिक्त सप्तमातृका फलकों पर एक ओर वीरभद्र और दूसरी ओर गणेश का अंकन हुआ है। मध्यकाल में एलोरा, भुवनेश्वर, कन्नौज, ओसियां, खजुराहो, भेड़ाघाट आदि स्थानों पर गणेश की प्रभूत मूर्तियां दर्शनीय है। इनमें प्रमुख रूप से गणेश को अकेले, नृत्यरत या शक्ति सहित दिखाया गया है। नेपाल, चीन, तिब्बत और इन्डोनेशिया में भी गणेश जी की प्रचुर मात्रा में मूर्तियां उत्कीर्ण की गयी हैं। गणेश की नृत्त मूर्तियां कन्नौज, पहाड़पुर, सुहागपुर, रींवा, भेड़ाघाट, खजुराहो, भुवनेश्वर और ओसियां में प्राप्त हुआ है।

शैव सम्प्रदाय का मुख्य केंद्र होने के कारण भुवनेश्वर में गणेश जी की मूर्तियां शिव परिवार के सदस्य के रूप में उत्कीर्ण हैं। प्रायः प्रत्येक शिव मंदिर में वाह्य भित्ति की रथिकाओं में गणेश, कार्तिकेय और पार्वती का रूपायन हुआ है। यहां गणेश जी की कुल 75 मूर्तियां मिली हैं। यहां की गणेश मूर्तियों में विविधता का आभाव है। इसीप्रकार एलोरा में गणेश जी की 20 मूर्तियां हैं जिनमें स्वतंत्र मूर्तियों के साथ कल्याण-सुंदर एवं सप्तमातृका फलकों पर निरूपित मूर्तियां भी हैं। गणेश जी की अनेक मूर्तियां मथुरा और लखनऊ में संग्रहित हैं। बैजनाथ (कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश) के शिव मंदिर की नृत्त मूर्ति में पीठिका में गणेश जी को नृत्यरत दिखाये गये हैं और पीठिका के नीचे दुन्दुभिवादकों की आकृतियां भी उकेरी गयी हैं। षड्भुज गणेश का वाहन सिंह और उनके हाथों में अभयाक्ष, परशु, पुष्प और मोदक स्पष्ट हैं।



गणेश जी की स्तुति:-

ऊँ गणानां त्वा गणपति  हवामहे 
प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे 
निधीनां त्वा निधिपति हवामहे वसो मम। 
आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्। (यजुर्वेद 23/19) 

इस श्लोक से गणेश जी का आव्हान किया जाता है।
गणेश जी का द्वादश नाम:-

सुमुखश्चैवकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः।।
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि।।

अर्थात् गणेश जी के बारह नाम क्रमशः सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्ण, लंबोदर, विकट, विघ्न विनाशक, विनायक, धुम्रकेतु, गणेशाध्यक्ष, भालचन्द्र और गजानन।

सिद्धि विनायक गणेश जी:-

विघ्ननाशक और सिद्धि विनायक गणेश या गणपति की विनायक के रूप में पूजन की परंपरा प्राचीन है किंतु पार्वती अथवा गौरीनंदन गणेश का पूजन बाद में प्रारंभ हुआ। ब्राह्मण धर्म के पांच प्रमुख सम्प्रदायों में गणेश जी के उपासकों का एक स्वतंत्र गणपत्य सम्प्रदाय भी था जिसका विकास पांचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुआ। वर्तमान में सभी शुभाशुभ कार्यो के प्रारंभ में गणेश जी की पूजा की जाती है। लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजन चंचला लक्ष्मी पर बुद्धि के देवता गणेश जी के नियंत्रण के प्रतीक स्वरूप की जाती है। दूसरी ओर समृद्धि के देवता कुबेर के साथ उनके पूजन की परंपरा सिद्धि दायक देवता के रूप में मिलती है।

गणेश जी का जन्म प्रसंग:-

सिद्धि सदन एवं गजवदन विनायक के उद्भव का प्रसंग ब्रह्मवैवर्त्य पुराण के गणेश खंड में मिलता है। इसके अनुसार पार्वती जी ने पुत्र प्राप्ति का यज्ञ किया। उस यज्ञ में देवता और ऋषिगण आये और पार्वती जी की प्रार्थना को स्वीकार कर भगवान विष्णु ने व्रतादि का उपदेश दिया। जब पार्वती जी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तब त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के साथ अनेक देवता उन्हें आशीर्वाद देने पहंुचे। सूर्य पुत्र शनिदेव भी वहां पहंुचे। लेकिन उनका मस्तक झुका हुवा था। क्योंकि एक बार ध्यानस्थ शनिदेव ने अपनी पत्नी के शाप का उल्लेख करते हुए अपना सिर उठाकर बालक को देखने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी। लेकिन पार्वती जी ने निःशंक होकर गणेश जी को देखने की अनुमति दे दी। शनिदेव की दृष्टि बालक पर पड़ते ही बालक का सिर धड़ से अलग हो गया:-

सत्य लोचन कोणेन ददर्शच शिशोर्मुखम्।
शनिश्वर मस्तकं कृष्णे गत्वा गोलोकमीप्सितम्।।

..और कटा हुआ सिर भगवान विष्णु में प्रविष्ट हो गया। तब पार्वती जी पुत्र शोक में विव्हल हो उठीं। भगवान विष्णु ने तब सुदर्शन चक्र से पुष्पभद्रा नदी के तट पर सोती हुई हथनी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर दिया। तब से उन्हें ‘‘गणेश’’ के रूप में जाना जाता है।


गणेश जी के सम्बंध में एक दूसरी कथा भी प्रचलित है। उसके अनुसार एक बार पार्वती जी ने अपने शरीर में उबटन लगाकर शरीर से मैल निकालने लगी। शरीर के मैल से उसने मानव आकृति बनाया और उसमें जान डालकर जीवित कर दिया और उसे दरवाजे पर बिठाकर किसी को अंदर आने नहीं देने का आदेश दिया। कुछ देर बाद शिवजी आये। जब वे अंदर जाने लगे तब उसने शिव जी अंदर जाने से रोका फलस्वरूप दोनों में भीषण संघर्ष हुआ और क्रोध में आकर शिवजी ने उसका सिर काट दिया। जब पार्वती जी को इस घटना का पता चला तो वह विलाप करने लगी। उन्हें मनाने के लिये शंकर जी ने अपने गणों को आदेश दिया कि जो प्राणी अपने संतान से विमुख हो उसका सिर काटकर ले आओ। गणों को एक हथनी अपने बच्चे की ओर पीठ करके सोयी मिल गया और गण उसका सिर काटकर ले आये और बालक के धड़ से जोड़कर उसे जीवित कर दिया। यही बालक ‘‘गणेश जी‘‘ के नाम से प्रतिष्ठित हुआ। भारत में जब मूर्ति पूजन का प्रचलन हुआ तो देवताओं के पांच वर्ग बने जो सम्प्रदाय के रूप में जाने गये। इसमें गणपति जी का ‘‘गणपत्य सम्प्रदाय’’ भी सम्मिलित था। प्रत्येक सम्प्रदाय अपने अधिष्ठाता देव को सृष्टिकर्Ÿाा मानता है। ऋग्वेद में कहा गया है- ‘‘एकः सद्विप्रा बहुधा वदंति’’ ईश्वर तो एक ही है, आप उसे चाहे जिस रूप में स्वीकार करो और उसकी उपासना करो। परवर्ती कथा के अनुसार एक बार क्षमता से अधिक मोदक खा लेने के कारण गणेश के मुख से मोदक बाहर निकलने लगा जिसे रोकने के लिए समीप से जाते हुए सर्प को पकड़कर गणेश जी ने अपने पेट में लपेट लिया। सर्प के सरकने से गणेश जी का वाहन मूषक भयवश पीछे हटने लगा जिससे गणेश असंतुलित होकर गिर पड़े। इस दृश्य को देखकर चंद्रमा को हंसी आ गयी। उनकी हंसी सुनकर गणेश जी को गुस्सा आ गया और उन्होंने अपना एक दांत तोड़कर चंद्रमा पर प्रहार किया आगे चलकर उसे आयुध के रूप में उन्होंने ग्रहण किया। एक दांत होने के कारण वे एकदंत के रूप में भी जाने गये। यह कथा गणेश के गजमुख, शूर्पकर्ण, एकदंत तथा नाग यज्ञोपवीतधारी, मूषकारूढ़ होने तथा करों में मोदक पात्र एवं स्वदंत धारण करने की पारंपरिक पृष्ठभूमि का स्पष्ट संकेत देती है।

गणेश पूजन एवं मूर्ति स्थापना की प्राचीनता:-

स्वतंत्र मूर्तियों के साथ गणेश जी को शिव परिवार के सदस्य के रूप में लगभग 8 वीं से 13 वीं शताब्दी के बीच शिव और शक्ति की मूर्तियों में उत्कीर्ण किया गया। भुवनेश्वर के सभी शिव मंदिरों की वाह्य भित्ति पर दोनों ओर कार्तिकेय और पार्वती तथा एक ओर गणेश का रूपायन हुआ है। शिव की नटराज (कांचीपुरम् और भुवनेश्वर), त्रिपुरान्तक, उमा-महेश्वर (खजुराहो, वाराणसी) और कल्याण-सुंदर (भुवनेश्वर, वाराणसी) मूर्तियों में भी गणेश के शिल्पांकन की परंपरा रही है। इसके अतिरिक्त सप्तमातृका फलकों पर एक ओर वीरभद्र और दूसरी ओर गणेश का अंकन हुआ है। मध्यकाल में एलोरा, भुवनेश्वर, कन्नौज, ओसियां, खजुराहो, भेड़ाघाट आदि स्थानों पर गणेश की प्रभूत मूर्तियां दर्शनीय है। इनमें प्रमुख रूप से गणेश को अकेले, नृत्यरत या शक्ति सहित दिखाया गया है। नेपाल, चीन, तिब्बत और इन्डोनेशिया में भी गणेश जी की प्रचुर मात्रा में मूर्तियां उत्कीर्ण की गयी हैं। गणेश की नृत्त मूर्तियां कन्नौज, पहाड़पुर, सुहागपुर, रींवा, भेड़ाघाट, खजुराहो, भुवनेश्वर और ओसियां में प्राप्त हुआ है।

शैव सम्प्रदाय का मुख्य केंद्र होने के कारण भुवनेश्वर में गणेश जी की मूर्तियां शिव परिवार के सदस्य के रूप में उत्कीर्ण हैं। प्रायः प्रत्येक शिव मंदिर में वाह्य भित्ति की रथिकाओं में गणेश, कार्तिकेय और पार्वती का रूपायन हुआ है। यहां गणेश जी की कुल 75 मूर्तियां मिली हैं। यहां की गणेश मूर्तियों में विविधता का आभाव है। इसीप्रकार एलोरा में गणेश जी की 20 मूर्तियां हैं जिनमें स्वतंत्र मूर्तियों के साथ कल्याण-सुंदर एवं सप्तमातृका फलकों पर निरूपित मूर्तियां भी हैं। गणेश जी की अनेक मूर्तियां मथुरा और लखनऊ में संग्रहित हैं। बैजनाथ (कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश) के शिव मंदिर की नृत्त मूर्ति में पीठिका में गणेश जी को नृत्यरत दिखाये गये हैं और पीठिका के नीचे दुन्दुभिवादकों की आकृतियां भी उकेरी गयी हैं। षड्भुज गणेश का वाहन सिंह और उनके हाथों में अभयाक्ष, परशु, पुष्प और मोदक स्पष्ट हैं।

कला चण्डीविनायकौ:-

गणेश सभी राशियों के अधिपति माने गये हैं। आकाश में राशियों के तारा समूह वृश्चिक राशि तो गणेश मुखाकृति जैसे होता है। यह राशि साक्षात् गणेश जी प्रतिकृति है। ऐसा माना जाता है कि इसी राशि में गणेश जी का जन्म हुआ था। अगस्त और सितंबर माह में सूर्य सिंह और कन्या राशि पर रहने के कारण सूर्यास्त के बाद यह राशि स्पष्ट दिखाई देती है। गणेश जी सुंड को उठाकर चलते प्रतीत होते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘‘कला चण्डीविनायकौ‘‘ अर्थात् कलयुग में चण्डी और विनायक की अराधना सिद्धिदायक और फलदायी होता है। सतयुग में दस भुजा वाले गणेश जी सिंह पर विराजमान होते हैं, त्रेतायुग में मयूर और कलयुग में मूषक उसका वाहन होता है। सूर्य यदि किसी राशि में अन्य ग्रहों को पीड़ित करता है तो गणेश जी की विशेष पूजा-अर्चना से ग्रहों के दोष को शांत किया जा सकता है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि में गणेश जी:-

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बाल गंगाधर तिलक का अविस्मरणीय योगदान है। एक ओर उन्होंने ‘‘स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और इसे हम लेकर रहेंगे‘‘ का नारा देकर लोगों का उत्साह वर्द्धन कर रहे थे तो दूसरी ओर महाराष्ट्र प्रांत में गणेशोत्सव के बहाने स्वतंत्रता समर के नायकों को एकत्रित करके आंदोलन की भावी रूपरेखा तय करते थे। हमारे देश में सर्वप्रथम महाराष्ट्र प्रांत से ही गणेश पूजन की शुरूवात स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि में की गयी थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् गणेश पूजन महाराष्ट्र प्रांत का धार्मिक पर्व बन गया। हालांकि गणेश जी पूरे देश में बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ पूजे जाते हैं लेकिन महाराष्ट्र में गणेश पूजन का एक अलग रंग होता है। आज भी गणेश जी घर घर में विराजमान होते हैं।

भाद्र पक्ष शुक्ल चतुर्थी को दोपहर में गणेश जी का जन्म हुआ था। पूरे देश में गणेश चतुर्थी को गणेश जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। मोदक उन्हें बहुत प्रिय है। अतः मोदक का भोग लगाकर उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे हमारे घर, समाज और राष्ट्र को धन धान्य से परिपूर्ण करें। गणेश जी की पूजा सम्पूर्ण भारत में राष्ट्रीय सांस्कृतिक और धार्मिक पर्व के रूप में मानाया जाता है। अनंत चतुर्दशी को गणेश जी का विसर्जन होता है। इस बीच धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन से राष्ट्र की एकता, अखंडता और सम्प्रभुता में अभिवृद्धि की प्रेरणा मिलती है। ऐसे देवाधिदेव को हमारा शत् शत् नमन...।
आभार : साहित्य  शिल्पी 

 

शनिवार, 11 सितंबर 2010

भजन : एकदन्त गजवदन विनायक ..... संजीव 'सलिल'

भजन :

एकदन्त गजवदन विनायक .....

संजीव 'सलिल'
 *






*
एकदन्त गजवदन विनायक, वन्दन बारम्बार.
तिमिर हरो प्रभु!, दो उजास शुभ, विनय करो स्वीकार..
*
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!
रिद्धि-सिद्धि का पूजनकर, जन-जीवन सफल बनाओ रे!...
*
प्रभु गणपति हैं विघ्न-विनाशक,
बुद्धिप्रदाता शुभ फलदायक.
कंकर को शंकर कर देते-
वर देते जो जिसके लायक.
भक्ति-शक्ति वर, मुक्ति-युक्ति-पथ-पर पग धर तर जाओ रे!...
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
*
अशुभ-अमंगल तिमिर प्रहारक,
अजर, अमर, अक्षर-उद्धारक.
अचल, अटल, यश अमल-विमल दो-
हे कण-कण के सर्जक-तारक.
भक्ति-भाव से प्रभु-दर्शन कर, जीवन सफल बनाओ रे!
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
*
संयम-शांति-धैर्य के सागर,
गणनायक शुभ-सद्गुण आगर.
दिव्य-दृष्टि, मुद मग्न, गजवदन-
पूज रहे सुर, नर, मुनि, नागर.
सलिल-साधना सफल-सुफल दे, प्रभु से यही मनाओ रे.
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
******************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम 

सोमवार, 19 जुलाई 2010

भजन : एकदन्त गजवदन विनायक ..... संजीव 'सलिल'

भजन :


एकदन्त गजवदन विनायक .....

संजीव 'सलिल'
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एकदन्त गजवदन विनायक, वन्दन बारम्बार.
तिमिर हरो प्रभु!, दो उजास शुभ, विनय करो स्वीकार..
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प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!
रिद्धि-सिद्धि का पूजनकर, जीवन सफल बनाओ रे!...
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प्रभु गणपति हैं विघ्न-विनाशक,
बुद्धिप्रदाता शुभ फल दायक.
कंकर को शंकर कर देते-
वर देते जो जिसके लायक.
भक्ति-शक्ति वर, मुक्ति-युक्ति-पथ-पर पग धर तर जाओ रे!...
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
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अशुभ-अमंगल तिमिर प्रहारक,
अजर, अमर, अक्षर-उद्धारक.
अचल, अटल, यश अमल-विमल दो-
हे कण-कण के सर्जक-तारक.
भक्ति-भाव से प्रभु-दर्शन कर, जीवन सफल बनाओ रे!
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
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संयम-शांति-धैर्य के सागर,
गणनायक शुभ-सद्गुण आगर.
दिव्या-दृष्टि, मुद मग्न, गजवदन-
पूज रहे सुर, नर, मुनि, नागर.
सलिल-साधना सफल-सुफल दे, प्रभु से यही मनाओ रे.
प्रभु गणेश की करो आरती, भक्ति सहित गुण गाओ रे!...
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मंगलवार, 23 मार्च 2010

साक्षात्कार: कालजयी ग्रंथों का प्रसार जरूरी : डॉ.मृदुल कीर्ति

प्रस्तुति: डॉ. सुधा ॐ धींगरा, सौजन्य: प्रभासाक्षी

डॉ. म्रदुल कीर्ति ने शाश्वत ग्रंथों का काव्यानुवाद कर उन्हें घर-घर पहुँचने का कार्य हाथ में लिया है.  उनहोंने अष्टावक्र गीता और उपनिषदों का काव्यानुवाद करने के साथ-साथ भगवद्गीता का ब्रिज  भाषा में अनुवाद भी किया है और इन दिनों पतंजलि योग सूत्र के काव्यानुवाद में लगी हैं. प्रस्तुत हैं उनसे हुई  बातचीत के चुनिन्दा अंश:

प्रश्न: मृदुल जी! अक्सर लोग कविता लिखना शुरू करते हैं तो पद्य के साथ-साथ गद्य की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं पर आप आरंभिक अनुवाद की ओर कैसे प्रवृत्त हुईं और असके मूल प्रेरणास्त्रोत क्या थे?

उत्तर: इस प्रश्न उत्तर का दर्शन बहुत ही गूढ़ और गहरा है. वास्तव में चित्त तो चैतन्य की सत्ता का अंश है पर चित्त का स्वभाव तीनों  तत्वों से बनता है- पहला आपके पूर्व जन्मों के कृत कर्म, दूसरा माता-पिता के अंश परमाणु और तीसरा वातावरण. इन तीनों के समन्वय से ही चित्त की वृत्तियाँ बनती हैं. इस पक्ष में गीता का अनुमोदन- वासुदेव अर्जुन से कहते हैं-शरीरं यद वाप्नोति यच्चप्युतक्रमति  वरः / ग्रहीत्व वैतानी संयति वायुर्गंधा निवाश्यत.'

यानि वायु गंध के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी  जीवात्मा भी जिस शरीर  का त्याग करता है उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें जाता है.  इन भावों की काव्य सुधा भी आपको पिलाती चलूँ तो मुझे अपने काव्य कृत 'भगवदगीता का काव्यानुवाद ब्रिज भाषा में' की अनुवादित पंक्तियाँ  सामयिक लग रही हैं.

यही तत्त्व गहन अति सूक्ष्म है जस वायु में गंध समावति है.
तस देहिन देह के भावन को, नव देह में हु लई जावति है..

कैवल्यपाद में ऋषि पातंजलि ने भी इसी तथ्य का अनुमोदन किया है. अतः, देहिन द्वारा अपने पूर्व जन्म के देहों का भाव पक्ष इस प्रकार सिद्ध हुआ और यही हमारा स्व-भाव है जिसे हम स्वभाव से ही दानी, उदार,  कृपण या कर्कश होन कहते हैं. उसके मूल में यही स्व-भाव होता है.

नीम न मीठो होय, सींच चाहे गुड-घी से.
छोड़ती नांय सुभाव,  जायेंगे चाहे जी से..

अतः, इन तीनों तत्वों का समीकरण ही प्रेरित होने के कारण हैं- मेरे पूर्व जन्म के संस्कार, माता-पिता के अंश परमाणु और वातावरण.

मेरी माँ प्रकाशवती परम विदुषी थीं. उन्हें पूरी गीता कंठस्थ थी. उपनिषद, सत्यार्थ प्रकाश आदि आध्यात्मिक साहित्य हमारे जीवन के अंग थे. तब मुझे कभी-कभी आक्रोश भी होता था कि सब तो शाम को खेलते हैं और मुझे मन या बेमन से ४ से ५  संध्या को स्वाध्याय करना होता था. उस ससमय वे कहती थीं-

तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीझ. 
भूमि परे उपजेंगे ही, उल्टे-सीधे बीज..

मनो-भूमि पर बीज की प्रक्रिया मेरे माता-पिता की देन है. मेरे पिता सिद्ध आयुर्वेदाचार्य थे. वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे और संस्कृत में ही कवितायेँ लिखते थे. कर्ण पर खंड काव्य आज भी रखा है. उन दिनों आयुर्वेद की शिक्षा संस्कृत में ही होती थी- यह ज्ञातव्य हो. मेरे दादाजी ने अपना आधा घर आर्य समाज को तब दान कर दिया था जब स्वामी दयानंद जी पूरनपुर, जिला पीलीभीत में आये थे, जहाँ से आज भी नित्य ओंकार ध्वनित होता है. यज्ञ और संध्या हमारे स्वभाव बन चुके थे.

शादी के बाद इन्हीं परिवेशों की परीक्षा मुझे देनी थी. नितान्त विरोधी नकारात्मक ऊर्जा के दो पक्ष होते हैं या तो आप उनका हिस्सा बन जाएँ अथवा खाद समझकर वहीं से ऊर्जा लेना आरम्भ कर दें. बिना पंखों के उडान भरने का संकल्प भी बहुत ही चुनौतीपूर्ण रहा पर जब आप कोई सत्य थामते हैं तो इन गलियारों में से ही अंतिम सत्य मिलता है. अनुवाद के पक्ष में मैं इसे दिव्य प्रेरणा ही कहूँगी. मुझे तो बस लेखनी थामना भर दिखाई देता था.

प्रश्न: आगामी परिकल्पनाएं क्या थीं? वे कहाँ तक पूरी हुईं?

उत्तर:
वेदों में राजनैतिक व्यवस्था'  इस शीर्षक के अर्न्तगत मेरा शोध कार्य चल ही रहा था. यजुर्वेद की एक मन्त्रणा जिसका सार था कि राजा का यह कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्रीय महत्व के साहित्य और विचारों का सम्मान और प्रोत्साहन करे. यह वाक्य मेरे मन ने पकड़ लिया और रसोई घर से राष्ट्रपति भवन तक की  मेरी मानसिक यात्रा यहीं से आरम्भ हो गयी. मेरे पंख नहीं थे पर सात्विक कल्पनाओं का आकाश मुझे सदा आमंत्रण देता रहता था. सामवेद का अनुवाद मेरे हाथ में था जिसे छपने में बहुत बाधाएं आयीं. दयानंद संस्थान से यह प्रकाशित हुआ. श्री वीरेन्द्र  शर्मा जी जो उस समय राज्य सभा के सदस्य थे, उनके प्रयास से राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरामन  द्वारा राष्ट्रपति भवन में १६ मई १९८८ को इसका विमोचन हुआ. सुबह सभी मुख्य समाचार पत्रों के शीर्षक मुझे आज भी याद हैं- 'वेदों के बिना भारत की कल्पना नहीं', 'असंभव को संभव किया', 'रसोई से राष्ट्रपति भवन तक' आदि-आदि. तब से लेकर आज तक यह यात्रा सतत प्रवाह में है. सामवेद के उपरांत ईशादि ९ उपनिषदों का अनुवाद 'हरिगीतिका' छंद में किया.  ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक,  मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय और श्वेताश्वर- इनका विमोचन महामहिम डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने १७ अप्रैल १९९६ को किया.

तदनंतर भगवद्गीता का काव्यात्मक अनुवाद ब्रिज भाषा में घनाक्षरी छंद में किया जिसका विमोचन श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने कृष्ण जन्माष्टमी पर १२ अगस्त २२०९ को किया. 'ईहातीत क्षण' आध्यत्मिक काव्य संग्रह का विमोचन मोरिशस के राजदूत ने १९९२ में किया.

प्रश्न: संगीत शिक्षा व छंदों के ज्ञान के बिना वेदों-उपनिषदों का अनुवाद आसान नहीं.  

उत्तर: संसार में सब कुछ सिखाने के असंख्य शिक्षण संस्थान हैं पर कहीं भी कविता सिखाने का संस्थान नहीं है क्योंकि काव्य स्वयं ही व्याकरण से संवरा  हुआ होता है. क्या कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, जायसी ने कहीं काव्य कौशल सीखा था? अतः, सिद्ध होता है कि दिव्य काव्य कृपा-साध्य होता है, श्रम-साध्य नहीं. मैं स्वयं कभी ब्रिज के पिछवाडे से भी नहीं निकली जब गीता को ब्रिज भाषा में अनुवादित किया. हाँ, बाद में बांके बिहारी के चरणों में समर्पण करने गयी थी. इसकी एक पुष्टि और है. पातंजल योग शास्त्र को काव्यकृत करने के अनंतर यदि कहीं कुछ रह जाता है तो बहुत प्रयास के बाद भी मैं सटीक शब्द नहीं खोज पाती हूँ. यदि मैंने कहीं लिखा है तो मुझे किस शक्ति की प्रतीक्षा है? इसलिए ये काव्य अमर होते हैं. इनका अमृतत्व इन्हें अमरत्व देता है.

प्रश्न: आपकी भावी योजना क्या है?

उत्तर: हम श्रुति परंपरा के वाहक हैं. वेद सुनकर ही हम तक आये हैं. हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में कर्ण सबसे अधिक प्रवण माने जाते हैं. नाद आकाश का क्षेत्र है और आकाश कि तन्मात्रा ध्वनि है. नभ अनंत है, अतः ध्वनि का पसारा भी अनंत है. भारतीय दर्शन के अनुसार वाणी का कभी नाश भी नहीं होता. अतः, इस दर्शन में अथाह विश्वास रखते हुए मैं इन अनुवादों को सी.डी. में रूपांतरित करने हेतु तत्पर हूँ.  मार्च में अष्टावक्र गीता और पातंजल योग दर्शन का विमोचन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल कर रही हैं. उसी के साथ पातंजल योग दर्शन का काव्यकृत गायन भी विमोचित होगा. पातंजल योग दर्शन की क्लिष्टता से सब परिचित हैं ही. इसी कारण जन सामान्य तक कम जा सका है. अब सरल और सरस रूप में जन-मानस को सुलभ हो सकेगा. अतः, पूरे विश्व में इन दर्शनों कि क्लिष्टता को सरल और सरस काव्य में जनमानस के अंतर में उतार सकूँ यही भावी योजना है. मैं अंतिम सत्य को एक पल भी भूल नहीं पाती जो मुझे जगाये रखता है.

परयो भूमि बिन प्राण के, तुलसी-दल मुख-नांहि.  
प्राण गए निज देस में, अब तन फेंकन जांहि.
को दारा, सुत, कंत,  सनेही, इक पल रखिहें नांहि.
तनिक और रुक जाओ तुम, कोऊ न पकिरें बाँहि..

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