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सोमवार, 5 अक्टूबर 2020

हिंदी भाषा और बोलियाँ

हिंदी भाषा और बोलियाँ पटल पर बुंदेली, बघेली, पचेली, निमाड़ी, मालवी तथा छत्तीसगढ़ी पर्वों के पश्चात पाँच अक्तूबर से दो सप्ताह राजस्थानी पर्व होगा। राजस्थानी क्षेत्र का इतिहास, संस्कृति (लोकगीत, लोककथाएँ, लोकगीत, लोक कला, लोकपर्व, लोक नाट्य), साहित्य (गद्य, पद्य, समीक्षा), साहित्य, स्थल, चित्रकला, खाने, वस्त्र, कलाएँ, किताबें आदि पटल पर आमंत्रित हैं। राजस्थानी अंचल में प्रचलित सभी भाषा-बोलियों का इतिहास, साहित्य, साहित्यकारों का परिचय अविलंब भेजिए।
सामग्री भेजने हेतु पता - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संचालक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१। चलभाष ९४२५१८३२४४
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com

रविवार, 2 अगस्त 2020

बोली परिचय - बघेली

बोली परिचय : बघेली 
बघेली या बाघेली बोली, हिन्दी की एक बोली है जो भारत के बघेलखण्ड क्षेत्र में बोली जाती है। बघेले राजपूतों के आधार पर रीवा तथा आसपास का क्षेत्र बघेलखंड कहलाता है और वहाँ की बोली को बघेलखंडी या बघेली कहलाती हैं। इसके अन्य नाम मन्नाडी, रिवाई, गंगाई, मंडल, केवोत, केवाती, केवानी और नागपुरी हैं। बघेली बोली के क्षेत्र के अंतर्गत रीवाँ अथवा रीवा, नागोद, शहडोल, सतना, मैहर तथा आसपास का क्षेत्र आता है। इसके अतिरिक्त बघेली बोली महाराष्ट्रउत्तर प्रदेश और नेपाल में भी बोली जाती है। भारत में इसके बोलने वालों की संख्या ३,९६.००० है। 
  • कुछ अपवादों को छोड़कर बघेली में केवल लोक- साहित्य है।
  • सर्वनामों में 'मुझे' के स्थान पर म्वाँ, मोही; तुझे के स्थान पर त्वाँ, तोही; विशेषण में -हा प्रत्यय (नीकहा), घोड़ा का घ्वाड़, मोर का म्वार, पेट का प्टवा, देत का द्यात आदि इसकी कुछ विशेषताएँ हैं।
  • इसकी मुख्य बोलियाँ तिरहारी, जुड़ार, गहोरा आदि हैं। -भारतकोश
बघेली या बाघेली, हिन्दी की एक बोली है जो भारत के बघेलखण्ड क्षेत्र में बोली जाती है। यह मध्य प्रदेश के रीवा, सतना, सीधी, उमरिया, एवं अनूपपुर में; उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद एवं मिर्जापुर जिलों में तथा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर एवं कोरिया जनपदों में बोली जाती है। इसे "बघेलखण्डी", "रिमही" और "रिवई" भी कहा जाता है। - यूनियनपीडिया .
बघेली या बाघेली, हिन्दी की एक बोली है जो भारत के बघेलखण्ड क्षेत्र में बोली जाती है। यह मध्य प्रदेश के रीवा, सतना, सीधी, उमरिया, एवं शहडोल, अनूपपुर में; उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद एवं मिर्जापुर जिलों में तथा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर एवं कोरिया जनपदों में बोली जाती है। इसे "बघेलखण्डी", "रिमही" और "रिवई" भी कहा जाता है। 
बघेली बोली के कुछ वाक्य
कहा जाते है। थोका चाचा के हीया जइथे चली खाना खाई लेइ। केतना समझाई तोहका/तुमका। जल्दी आबा। का बताई। तोहरे कपार मा भूसा भरा है। देखलेई एनका। केतना घुसा। अबहिन अइथे।  - विकिपीडिया 
बघेली मंच 
भाषाशास्त्र की नजर में मघ्यदेश की आठ बोलियों के समुदाय को हिन्दी पुकारा गया है-खड़ीबोली, बाँगर, ब्रज, कनौजी और बुँदेली, इन पाँचो कांे भाषा-सर्वे मे पश्चिमी हिन्दी नाम दिया गया है और बाकी अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी को पूर्वी हिन्दी कहा गया है। सन १९४० में प्रकाशित ‘हिन्दी भाषा का इतिहास’ में डा. धीरेन्द्र वर्मा ने उल्लेख किया है-‘अवधी के दक्षिण में बघेली का क्षेत्र है। उसका केन्द्र रीवाँ राज्य है किन्तु यह मध्यप्राँत के दमोह, जबलपुर, मण्डला तथा बालाघाट जिलों तक फैली है’। न जाने क्यो डाक्टर साहब ने तत्कालीन संयुक्तप्राँत के बाँदा-जालौन आदि जिलों को भुला दिया ह,ै जहाँ बघेली बोली जाती है।
दसवीं सदी के सती-शिला-लेख में उत्कीर्ण नाम रीमाँ से प्रमाणित होता है कि इसका वजूद एक हजार वर्ष पुराना है। सदी १३ वीे और १४ वीे मे लमाना ब्यापारियों ने इसे रीमाँ मण्डी के नाम से प्रख्यात कर रखा था और इतिहासकारों ने मुहावरा दे रखा थां ‘नो मेन लैण्ड’ माने बे मानुष धरती का। जिसे खारिज किया था इस्लाम शाह (जलाल खाँ) और आगे बढ़ कर बघेल राजा बिक्रमादित्य ने रीमाँ में एक के बाद एक ने, गढ़ी और परकोटों का निर्माण करा कर। जिसका इतिहास जुरा है शेरशाह सूरी, अकबर और जहाँगीर के बादशाहत का काल। यहाँ स्थान अभाव वर्णित करने की मंजूरी नहीं देता। साक्ष्य स्वरूप प्रस्तुत है रीमाँ की खासकलमी बंशाबली-बाँधौगढ़ एकोत्रा जमाबंदी की इबारत, जिनमे कमाल है रिमँही बोली का- इस्लामशाह हो गए हैं सलेमसाहि और विक्रमादित्य, बिकरमाजीत किन्तु फारसी के शब्दों को नहीं तोड़ा मरोरा है। पहली इबारत है-‘रीमाँ केर किला बनबाबा सलेमसाहि पातसाहि’ और दूसरी ‘ तकसीम परगने माफिक फरमान जहाँगीर साह का राजा बिकरमाजीत की जागीर का तबक संवत १६६१ के साल फरमान सरकार महाल परगने १८’, तदानुसार सन १६०५ में बघेल राजा विक्रमादित्य ने १८ परगने की रीमाँ-मुकुन्दपुर जागीर की स्थापना की।
भला गुजराती भाषाभाषी इनके पूर्वजों केे पास, बघेली कहाँ छाँदी हुई थी कि अपने साथ डोरिया कर लाते और यहाँ ढील देते। राजा विक्रमादित्य के बाद क्रमिक पीढ़ी के सन १९४८ तक एक दर्जन शासक हुए। क्रम ९ के महाराजा रघुराज सिंह के शासनकाल में बुँदेलखण्ड की तर्ज पर बघेलखण्ड शब्द सन १८६८ से अधिक प्रचलित हो चला। जब यहाँ सतना में बघेलखण्ड नाम की पोलेटिकल एजेन्सी कायम हुई। वही काल था जब सर अब्राहम गिअर्सन को भारतीय भाषा-सर्वे कार्य सौंपा गया। उनकी रपट ‘लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया’ सन १९०४ में प्रकाशित हुई। उस में बघेलखण्ड की बोली का नाम छपा था बघेली। लीजिए लिखन्तों-पढन्तों को नया नाम मिल गया बघेली और अपढ़ गमँइहों के बीच गाँवो में भटकती फिरती रिमँही और रीमाँ आज भी भेंटा जाते हैं।

ब्रिटिश इण्डिया गवर्नमेन्ट ने मुगलकाल से चली आ रही दफ्तरी भाषा फारसी को बहाल कर रखा था और पोलेटिकल डिपार्टमेन्ट में आफीसियल लैंग्वेज इंगलिश थी। काल गति के चलते पहली अप्रैल सन १८७५ कों रीमाँ राज्य का प्रशासन महाराजा रघुराज सिंह से लेकर, हथिया लिया था पोलेटिकल एजेन्सी ने। तब राज्य भाषा रिमँही को बेदखल कर काबिज करा दिया था फारसी को। लिपि नागरी बहाल रही। फारसी में अक्षर ‘मा ’हुआ करता है ‘वाँ‘। फारसीदाँ रीमाँ न लिख कर लिखने लगे रीवाँ और स्टेट पोलेटिकल डिपार्टमेन्ट त्म्ॅ।. भला अँगरेजी के आगे कोई भाषा टिक सकी है। भारत हो गया इण्डिया तब रीवाँँ कौन से खेत का मूली था कि टिक पाता। जैसे राहु-केतु लीलता है चाँद को बीसवीं सदी के मध्य काल आते तक रसे रसे, लील लिया अँगरेजी ने उसकी चन्द्रबिन्दु और वह रीवा बन कर चल डगरा। यह तो रिमँहाई संस्कृति है कि यहाँ के गाँव रीमाँ को जिलाये हुए हैं। गाँव का मानुष घर में कहकर चलता है ‘जइत है रीमा’ और पहुँच जाता है रीवा।
बघेली शब्दार्थ 
अरे नहीं                                      oh no
ए दादू 
का आय?            क्या है?             what?
काहे                   क्यों                  why 
really - सही बताबा ?
 
hey dude- 
hey girl- ऐ बिटिया
whats up- का होइ रहा
done - होइ गा
not done - नही भा
Let him go - जाय दे ओखा
i dont know-हम नहीं जानी
hurry - चटकई
Smooth -चीकन
Lady - मेंहरिया
man - मेंसेरुआ
Father- बाप
mother - महतारी
Resolved - पुर कइके
Slapping - सोबत
run away - भाग ले
stay here - इहय रहें
now - अबय
not now- अबै नही
never- कभऊ नही
Wife - महेरिया
Husband- मेंसेरुआ
Boy-टोरबा/ लड़िका
Girl- बिटिया
Come here- हियन आव
Go There- ओकई जा
Same to same- जैसन को तैसन
Sunlight - घाम
shadow - छाव
very- अकिहाय
less - थो का
basket- डलिया
gate- फाटक
neck- नटइ
Knee- गुठुआ
Finger - उंगरी
ox- बरदा
rat-मूस
frog - गूलर

मंगलवार, 1 अगस्त 2017

navekhan karyashala 1


नवलेखन कार्यशाला:
पाठ १.  
भाषा और बोली 

मुख से उच्चारित होनेवाले सार्थक शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिसके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है, भाषा कहलाता है। अपने मन की अनुभूतियाँ व्यक्त करने के लिए जिन ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है उन्हें स्वन कहते हैं । इन ध्वनियों को व्यवस्थित रूप से प्रयोग करना ही भाषा का प्रयोग करना है। ध्वनियों की अभिव्यक्ति बोलकर की जाती है, इसलिए यह बोली है। बोली को वाणी तथा जुबान भी कहा जाता है। 
भाषा और बोली में अंतर: 
शब्दों को निरंतर बोलने पर उनकी अर्थवत्ता को बढ़ाने तथा विविध मनुष्यों की अभिव्यक्ति में एकरूपता लाने के लिए कुछ बनाये गए नियमों के अनुसार व्यवस्थित रूप से की गयी अभिव्यक्ति को भाषा कहते हैं। भाषा अपने बोलनेवालों की अभिव्यक्ति को एक सा रूप देती है। बोलनेवालों की शिक्षा, क्षेत्र, व्यवसाय, धर्म, पंथ, लिंग या विचार भिन्न होने के बाद भी भाषा में एकरूपता होती है।   
बोली सहज रूप से बोला जानेवाला वाचिक रूप है जबकि भाषा नियमानुसार बोला जानेवाला रूप। सामान्यत: ग्राम्य जन दैनिक जीवन में उपयोग होने वाले शब्दों को छोटे से छोटा तथा सरल कर बोलते हैं, यह बोली है। बोली के वाक्य छोटे और सरल होते हैं। बड़े तथा कठिन शब्दों को सरल कर लिया जाता है जैसे- मास्टर साहब को मास्साब, हॉस्पिटल को अस्पताल आदि। बोली पर बोलनेवाले के परिवेश, शिक्षा, व्यवसाय आदि की छाप होती है। विश्व विद्यालय के प्राध्यापक और किसान एक ही बात कहें तो उनके द्वारा चुने गये शब्दों में अंतर होना स्वाभाविक है। यही भाषा और बोली का अन्तर है। 
अक्षर / वर्ण  

शाब्दिक अर्थ में अक्षर का अर्थ है जिसका 'क्षरण' (घटाव या विनाश) न हो। दर्शन शास्त्र के अनुसार यह परमात्मा का लक्षण है। भाषा के सन्दर्भ में 'अक्षर' छोटे से छोटी या मूल ध्वनि है, जिसे बोला जाता है तथा व्यक्त करने के लिए विशेष संकेत या आकृति का उपयोग किया जाता है। वर्णों के समुदाय को ही वर्णमाला कहते हैं। हिन्दी वर्णमाला में ४४ वर्ण हैं। उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिन्दी वर्णमाला के दो भेद स्वर और व्यंजन हैं।  
स्वर- स्वतंत्र रूप से बोले जानेवाले और जो व्यंजनों को बोलने में में सहायक ध्वनियाँ 'स्वर' कहलाती हैं। ये संख्या में ग्यारह हैं: अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।

उच्चारण के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किए गएहैं:
१. ह्रस्व स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में कम-से-कम समय लगता हैं उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। ये चार हैं- अ, इ, उ, ऋ। इन्हें मूल स्वर भी कहते हैं।
२. दीर्घ स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से दुगुना समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। ये हिन्दी में सात हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
विशेष- दीर्घ स्वरों को ह्रस्व स्वरों का दीर्घ रूप नहीं समझना चाहिए। यहाँ दीर्घ शब्द का प्रयोग उच्चारण में लगने वाले समय को आधार मानकर किया गया है।
३. प्लुत स्वर - जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्रायः इनका प्रयोग दूर से बुलाने में किया जाता है। 
मात्रा- स्वरों के समयाधारित स्वरूप को मात्रा कहते हैं स्वरों की मात्राएँ निम्नलिखित हैं:
स्वर       अ     आ       इ      ई      उ      ऊ     ए      ऐ    ओ     औ   ऋ
मात्राएँ     -       ा     ि      ी     ु     ू       े     ै      ो     ौ     ृ 
मात्रा भार १      २       १        २     १       २       २     २      २      २      १   
शब्द      हम   नाम   किन   खीर  गुम   घूम    बेर   तैर    शोर    नौ     कृष  
अ वर्ण (स्वर) की कोई मात्रा नहीं होती। 
व्यंजन- जिन ध्वनियों / वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते हैं।  व्यंजन बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते। ये संख्या में ३३ हैं। इसके निम्नलिखित तीन भेद हैं:
१. स्पर्श- इन्हें पाँच वर्गों में रखा गया है और हर वर्ग में पाँच-पाँच व्यंजन हैं। हर वर्ग का नाम पहले वर्ग के अनुसार रखा गया है जैसे: कवर्ग- क् ख् ग् घ् ड़्, चवर्ग- च् छ् ज् झ् ञ्, टवर्ग- ट् ठ् ड् ढ् ण् (ड़् ढ्), तवर्ग- त् थ् द् ध् न् तथा पवर्ग- प् फ् ब् भ् म्।  
२. अंतःस्थ-  य् र् ल् व्। 
३. ऊष्म- श् ष् स् ह्। 
संयुक्त व्यंजन- जहाँ  दो अथवा दो से अधिक व्यंजन मिल जाते हैं वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं। देवनागरी लिपि में संयोग के बाद रूप-परिवर्तन हो जाने के कारण इन तीन को गिनाया गया है। ये दो-दो व्यंजनों से मिलकर बने हैं। जैसे-क्ष=क्+ष अक्षर, ज्ञ=ज्+ञ ज्ञान, त्र=त्+र नक्षत्र कुछ लोग क्ष् त्र् और ज्ञ् को भी हिन्दी वर्णमाला में गिनते हैं, पर ये संयुक्त व्यंजन हैं। अतः इन्हें वर्णमाला में गिनना उचित प्रतीत नहीं होता।
व्यंजनों का अपना स्वरूप निम्नलिखित हैं:
क् च् छ् ज् झ् त् थ् ध् आदि।
अ लगने पर व्यंजनों के नीचे का (हल) चिह्न हट जाता है। तब ये इस प्रकार लिखे जाते हैं:
क च छ ज झ त थ ध आदि।
अनुस्वार- इसका प्रयोग पंचम वर्ण के स्थान पर होता है। इसका चिन्ह अक्षर के ऊपर बिंदी (ं) है। जैसे- सम्भव=संभव, सञ्जय=संजय, गड़्गा=गंगा।
विसर्ग- इसका उच्चारण ह् के समान होता है। इसका चिह्न अक्षर के बगल में एक के ऊपर एक दो बिंदी (ः) है। जैसे-अतः, प्रातः।
अनुनासिक- जब किसी स्वर का उच्चारण नासिका और मुख दोनों से किया जाता है तब उसके ऊपर चंद्रबिंदु (ँ) लगा दिया जाता है। यह अनुनासिक कहलाता है। जैसे-हँसना, आँख। हिन्दी वर्णमाला में ११ स्वर तथा ३३ व्यंजन गिनाए जाते हैं, परन्तु इनमें ड़्, ढ़् अं तथा अः जोड़ने पर हिन्दी के वर्णों की कुल संख्या ४८ हो जाती है।
हलंत- जब कभी व्यंजन का प्रयोग स्वर से रहित किया जाता है तब उसके नीचे एक तिरछी रेखा (्) लगा दी जाती है। यह रेखा हल कहलाती है। हलयुक्त व्यंजन हलंत वर्ण कहलाता है। जैसे-विद्यां।
वर्ण का उच्चारण स्थल- मुख के जिस भाग से जिस वर्ण का उच्चारण होता है उसे उस वर्ण का उच्चारण स्थान कहते हैं।
क्रमवर्णउच्चारणश्रेणी
१.अ आ क् ख् ग् घ् ड़् ह्विसर्ग कंठ और जीभ का निचला भागकंठस्थ
२.इ ई च् छ् ज् झ् ञ् य् शतालु और जीभतालव्य
३.ऋ ट् ठ् ड् ढ् ण् ड़् ढ़् र् ष्मूर्धा और जीभमूर्धन्य
४.त् थ् द् ध् न् ल् स्दाँत और जीभदंत्य
५.उ ऊ प् फ् ब् भ् मदोनों होंठओष्ठ्य
६.ए ऐकंठ तालु और जीभकंठतालव्य
७.ओ औकंठ जीभ और होंठकंठोष्ठ्य
८.व्दाँत जीभ और होंठदंतोष्ठ्य 
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