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शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

alankar

: अलंकार चर्चा १५ :
शब्दालंकार : तुलना और अंतर
*
शब्द कथ्य को अलंकृत, करता विविध प्रकार
अलंकार बहु शब्द के, कविता का श्रृंगार
यमक श्लेष अनुप्रास सँग, वक्र-उक्ति का रंग
छटा लात-अनुप्रास की, कर देती है दंग
साम्य और अंतर 'सलिल', रसानंद का स्रोत
समझ रचें कविता अगर, कवि न रहे खद्योत
शब्दालंकारों से काव्य के सौंदर्य में निस्संदेह वृद्धि होती है, कथ्य अधिक ग्रहणीय तथा स्मरणीय हो जाता है. शब्दालंकारों में समानता तथा विषमता की जानकारी न हो तो भ्रम उत्पन्न हो जाता है. यह प्रसंग विद्यार्थियों के साथ-साथ शिक्षकों, जान सामान्य तथा रचनाकारों के लिये समान रूप से उपयोगी है.
अ. अनुप्रास और लाटानुप्रास:
समानता: दोनों में आवृत्ति जनित काव्य सौंदर्य होता है.
अंतर: अनुप्रास में वर्ण (अक्षर या मात्रा) का दुहराव होता है.
लाटानुप्रास में शब्द (सार्थक अक्षर-समूह) का दुहराव होता है.
उदाहरण: अगम अनादि अनंत अनश्वर, अद्भुत अविनाशी
'सलिल' सतासतधारी जहँ-तहँ है काबा-काशी - अनुप्रास (छेकानुप्रास, अ, स, क)
*
अपना कुछ भी रहा न अपना
सपना निकला झूठा सपना - लाटानुप्रास (अपना. सपना समान अर्थ में भिन्न अन्वयों के साथ शब्द का दुहराव)
आ. लाटानुप्रास और यमक:
समानता : दोनों में शब्द की आवृत्ति होती है.
अंतर: लाटानुप्रास में दुहराये जा रहे शब्द का अर्थ एक ही होता है जबकि यमक में दुहराया गया शब्द हर बार भिन्न (अलग) अर्थ में प्रयोग किया जाता है.
उदाहरण: वह जीवन जीवन नहीं, जिसमें शेष न आस
वह मानव मानव नहीं जिसमें शेष न श्वास - लाटानुप्रास (जीवन तथा मानव शब्दों का समान अर्थ में दुहराव)
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ढाल रहे हैं ढाल को, सके आक्रमण रोक
ढाल न पाये ढाल वह, सके ढाल पर टोंक - यमक (ढाल = ढालना, हथियार, उतार)
इ. यमक और श्लेष:
समानता: दोनों में शब्द के अनेक (एक से अधिक) अर्थ होते हैं.
अंतर: यमक में शब्द की कई आवृत्तियाँ अलग-अलग अर्थ में होती हैं.
श्लेष में एक बार प्रयोग किया गया शब्द एक से अधिक अर्थों की प्रतीति कराता है.
उदाहरण: छप्पर छाया तो हुई, सर पर छाया मीत
छाया छाया बिन शयन, करती भूल अतीत - यमक (छाया = बनाया, छाँह, नाम, परछाईं)
*
चाहे-अनचाहे मिले, जीवन में तय हार
बिन हिचके कर लो 'सलिल', बढ़कर झट स्वीकार -श्लेष (हार = माला, पराजय)
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ई. श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति:
समानता: श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति दोनों में किसी शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं.
अंतर: श्लेष में किसी शब्द के बहु अर्थ होना ही पर्याप्त है. वक्रोक्ति में एक अर्थ में कही गयी बात का श्रोता द्वारा भिन्न अर्थ निकाला (कल्पित किया जाना) आवश्यक है.
उदहारण: सुर साधे सुख-शांति हो, मुँद जाते हैं नैन
मानस जीवन-मूल्यमय, देता है नित चैन - श्लेष (सुर = स्वर, देवता / मानस = मनस्पटल, रामचरित मानस)
कहा 'पहन लो चूड़ियाँ', तो हो क्यों नाराज?
कहा सुहागिन से गलत, तुम्हें न आती लाज? - श्लेष वक्रोक्ति (पहन लो चूड़ी - चूड़ी खरीद लो, कल्पित अर्थ ब्याह कर लो)
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रविवार, 27 सितंबर 2015

vakrokti alankar

: अलंकार चर्चा १२ :
अर्थ द्वैत वक्रोक्ति है 


किसी एक के कथन को, दूजा समझे भिन्न 
वक्र उक्ति भिन्नार्थ में, कल्पित लगे अभिन्न 

स्वराघात मूलक अलंकारों में वक्रोक्ति का स्थान महत्वपूर्ण है. किसी काव्य अंश में किसी व्यक्ति द्वारा कही गयी बात में कोई दूसरा व्यक्ति जब मूल से भिन्न अर्थ की कल्पना करता है तब वक्रोक्ति अलंकार होता है. वक्र उक्ति का अर्थ 'मूल से भिन्न' होता है. एक अर्थ में कही गयी बात को जान-बूझकर दूसरे अर्थ में लेने पर वक्रोक्ति अलंकार होता है. 
उदाहरण:

१. रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
    पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून
इस दोहे में पानी का अर्थ मोती में 'चमक', मनुष्य के संदर्भ में सम्मान, तथा चूने के सन्दर्भ में पानी है.
२.

मूल से भिन्न अर्थ की कल्पना श्लेष या काकु द्वारा होती है. इस आधार पर वक्रोक्ति अलंकार के २ प्रकार श्लेष वक्रोक्ति तथा काकु वक्रोक्ति हैं.

श्लेष वक्रोक्ति: 

श्रोता अर्थ विशेष पर, देता है जब जोर 
वक्ता ले अन्यार्थ को, ग्रहण करे गह डोर 
एक शब्द से अर्थ दो, चिपक न छोड़ें हाथ  
वहीं श्लेष वक्रोक्ति हो, दो अर्थों के साथ  

रचें श्लेष वक्रोक्ति कवि, जिनकी कलम समर्थ 
वक्ता-श्रोता हँस करें, भिन्न शब्द के अर्थ 
एक शब्द के अर्थ दो, करे श्लेष वक्रोक्ति 
श्रोता-वक्ता सजग हों, मत समझें अन्योक्ति 
  

जिस काव्यांश में एक से अधिक अर्थवाले शब्द का प्रयोग कर वक्ता का अर्थ एक अर्थ विशेष पर होता है किन्तु श्रोता या पाठक का किसी दूसरे अर्थ पर, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है. जहाँ पर एक से अधिक अर्थवाले शब्द का प्रयोग होने पर वक्ता का एक अर्थ पर बल रहता है किन्तु श्रोता का दूसरे अर्थ पर, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है. इसका प्रयोग केवल समर्थ कवि कर पाता है चूँकि विपुल शब्द भंडार, उर्वर कल्पना शक्ति तथा छंद नैपुण्य अपरिहार्य होता है.

उदाहरण: 

१. हैं री लाल तेरे?, सखी! ऐसी निधि पाई कहाँ?
               हैं री खगयान? कह्यौं हौं तो नहीं पाले हैं?
   हैं री गिरिधारी? व्है हैं रामदल माँहिं कहुँ?
                  हैं री घनश्याम? कहूँ सीत सरसाले हैं?
   हैं री सखी कृष्णचंद्र? चंद्र कहूँ कृष्ण होत?
                   तब हँसि राधे कही मोर पच्छवारे हैं?
   श्याम को दुराय चन्द्रावलि बहराय बोली 
                   मोरे कैसे आइहैं जो तेरे पच्छवारे हैं? 

२. पौंरि में आपु खरे हरी हैं, बस है न कछू हरि हैं तो हरैवे 
    वे सुनौ कीबे को है विनती, सुनो हैं बिनती तीय कोऊ बरैबे 
    दीबे को ल्याये हैं माल तुम्हें, रगुनाथ ले आये हैं माल लरैबे 
    छोड़िए मान वे पा पकरैं, कहैं, पाप करैं कहैं अबस करैबे 

   इस उदाहरण में 'हरि' के दो अर्थ 'कृष्ण' और 'हारेंगे', विनती के दो अर्थ 'प्रार्थना'  और 'बिना स्त्री के', 'माल' के दो अर्थ 'माला' तथा 'सामान' तथा 'पाप करै' के दो अर्थ 'पैर पकड़ें' तथा 'कुकर्म करें हैं.   

३. कैकेयी सी कोप भवन में, जाने कब से पड़ी हुई है 
   दशरथ आये नहीं मनाने, फाँस ह्रदय में गड़ी हुई है   -चंद्रसेन विराट, ओ गीत के गरुड़, ३२ 

   यहाँ कैकेयी के दो अर्थ 'रानी' तथा 'जनता' और दशरथ के दो अर्थ 'राजा' तथा 'शासक' हैं. 

काकु वक्रोक्ति:

जब विशेष ध्वनि कंठ की, ध्वनित करे अन्यार्थ 
तभी काकु वक्रोक्ति हो, लिखते समझ समर्थ 

'सलिल' काकु वक्रोक्ति में, ध्वनित अर्थ कुछ अन्य 
व्यक्त कंठ की खास ध्वनि, करती- समझें धन्य  

किसी काव्य पंक्ति में कंठ से उच्चरित विशेष ध्वनि के कारण शब्द का मूल से भिन्न दूसरा अर्थ ध्वनित हो तो वहाँ काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है. 

उदाहरण:

 १. भरत भूप सियराम लषन बन, सुनि सानंद सहौंगौ 
    पर-परिजन अवलोकि मातु, सब सुख संतोष लहौंगौ 

    इस उदाहरण में भरतभूप, सानंद तथा संतोष शब्दों का उच्चारण काकु युक्त होने से विपरीत अर्थ ध्वनित होता है. 

२. बातन लगाइ सखान सों न्यारो कै, आजु गह्यौ बृषभान किशोरी 
    केसरि सों तन मंजन कै दियो अंजन आँखिन में बरजोरी 
    हे रघुनाथ कहा कहौं कौतुक, प्यारे गोपालै बनाइ  कै गोरी 
    छोड़ि दियो इतनो कहि कै, बहुरो फिरि आइयो  खेलेन होरी 

    यहाँ 'बहुरो फिरि आइयो' में काकु ध्वनि होने से व्यंग्यार्थ है कि 'अब कभी नहीं आओगे'. 

३. कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं?, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
    अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं 

    दुष्यंत कुमार की इस ग़ज़ल में 'मंज़र', 'गाते', ''चिल्लाने', 'तालाब', 'पानी', 'फूल', तथा 'कुम्हलाने' शब्दों में काकु ध्वनि से उत्पन्न व्यंग्यार्थ ने आपातकाल में सेंसरशिप के बावजूद कवि का शासन परिवर्तन का सन्देश लोगों को दिया.  

     

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गुरुवार, 27 अक्टूबर 2011

दोहा सलिला: दोहों की दीपावली, अलंकार के संग..... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:                                                                        

दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.....

संजीव 'सलिल'
*
दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.
बिम्ब भाव रस कथ्य के, पंचतत्व नवरंग..
*
दिया दिया लेकिन नहीं, दी बाती औ' तेल.
तोड़ न उजियारा सका, अंधकार की जेल..   -यमक
*
गृहलक्ष्मी का रूप तज, हुई पटाखा नार.     -अपन्हुति
लोग पटाखा खरीदें, तो क्यों हो  बेजार?.    -यमक,
*
मुस्कानों की फुलझड़ी, मदिर नयन के बाण.  -अपन्हुति
जला फुलझड़ी चलाती, प्रिय कैसे हो तरण?.   -यमक
*
दीप जले या धरा पर, तारे जुड़े अनेक.
तम की कारा काटने, जाग्रत किये विवेक..      -संदेह
*
गृहलक्ष्मी का रूप लख, मैया आतीं याद.
वही करधनी चाबियाँ, परंपरा मर्याद..            -स्मरण
*
मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज.          -भ्रांतिमान 
लगे चाँद सा प्रियामुख, दिल पर करता राज..  -उपमा
*
दीप-दीप्ति दीपित द्युति, दीपशिखा दो देख. -वृत्यानुप्रास
जला पतंगा जान दी, पर न हुआ कुछ लेख.. -छेकानुप्रास
*
दिननाथ ने शुचि साँझ को, फिर प्रीत का उपहार.
दीपक दिया जो झलक रवि की, ले हरे अंधियार.. -श्रुत्यानुप्रास
अन्त्यानुप्रास हर दोहे के समपदांत में स्वयमेव होता है.
*
लक्ष्मी को लक्ष्मी मिली, नर-नारायण दूर.  -लाटानुप्रास
जो जन ऐसा देखते, आँखें रहते सूर..      
*
घर-घर में आनंद है, द्वार-द्वार पर हर्ष.      -पुनरुक्तिप्रकाश
प्रभु दीवाली ही रहे, वर दो पूरे वर्ष..
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दीप जला ज्योतित हुए, अंतर्मन गृह-द्वार.   -श्लेष
चेहरे-चेहरे पर 'सलिल', आया नवल निखार..
*
रमा उमा से पूछतीं, भिक्षुक है किस द्वार?
उमा कहें बलि-द्वार पर, पहुंचा रहा गुहार..   -श्लेष वक्रोक्ति 
*
रमा रमा में मन मगर, रमा न देतीं दर्श.
रमा रमा में मन मगर, रमा न देतीं दर्श?  - काकु वक्रोक्ति 
*
मिले सुनार सुनार से, अलंकार के साथ.
चिंता की रेखाएँ शत, हैं स्वामी के माथ..  -पुनरुक्तवदाभास  

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