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मंगलवार, 2 मई 2023

दोहा, आरती, देवरहा बाबा, नज़्म, गीत:,

दोहा सलिला
*
मोड़ मिलें स्वागत करो, नई दिशा लो देख
पग धरकर बढ़ते चलो, खींच सफलता रेख
*
सेंक रही रोटी सतत, राजनीति दिन-रात।
हुई कोयला सुलगकर, जन से करती घात।।
*
देख चुनावी मेघ को, दादुर करते शोर।
कहे भोर को रात यह, वह दोपहरी भोर।।
*
कथ्य, भाव, लय, बिंब, रस, भाव, सार सोपान।
ले समेट दोहा भरे, मन-नभ जीत उड़ान।।
*
सजन दूर मन खिन्न है, लिखना लगता त्रास।
सजन निकट कैसे लिखूँ, दोहा हुआ उदास।।
२-५-२०१८
***
आरती:
देवरहा बाबाजी
*
जय अनादि,जय अनंत,
जय-जय-जय सिद्ध संत.
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*
धरा को बिछौनाकर,
नील गगन-चादर ले.
वस्त्रकर दिशाओं को,
अमृत मन्त्र बोलते.
सत-चित-आनंदलीन,
समयजयी चिर नवीन.
साधक-आराधक हे!,
देव-लीन, थिर-अदीन.
नश्वर-निस्सार जगत,
एकमात्र ईश कंत.
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........
*
''दे मत, कर दर्शन नित,
प्रभु में हो लीन चित.''
देते उपदेश विमल,
मौन अधिक, वाणी मित.
योगिराज त्यागी हे!,
प्रभु-पद-अनुरागी हे!
सतयुग से कलियुग तक,
जीवित धनभागी हे..
'सलिल' अनिल अनल धरा,
नभ तुममें मूर्तिमंत.
देवरहा बाबाजी,
यश प्रसरित दिग-दिगंत.........

***
नज़्म:
*
ग़ज़ल
मुकम्मल होती है तब
जब मिसरे दर मिसरे
दूरियों पर
पुल बनाती है बह्र
और एक दूसरे को
अर्थ देते हैं
गले मिलकर
मक्ते और मतले
काश हम इंसान भी
साँसों और
आसों के मिसरों से
पूरी कर सकें
ज़िंदगी की ग़ज़ल
जिसे गुनगुनाकर कहें:
आदाब अर्ज़
आ भी जा ऐ अज़ल!
२-५-२०१५
***
गीत:
कोई अपना यहाँ
*
मन विहग उड़ रहा,
खोजता फिर रहा.
काश! पाये कभी-
कोई अपना यहाँ??
*
साँस राधा हुई, आस मीरां हुई,
श्याम चाहा मगर, किसने पाया कहाँ?
चैन के पल चुके, नैन थककर झुके-
भोगता दिल रहा
सिर्फ तपना यहाँ...
*
जब उजाला मिला, साथ परछाईं थी.
जब अँधेरा घिरा, सँग तनहाई थी.
जो थे अपने जलाया, भुलाया तुरत-
बच न पाया कभी
कोई सपना यहाँ...
*
जिंदगी का सफर, ख़त्म-आरंभ हो.
दैव! करना दया, शेष ना दंभ हो.
बिंदु आगे बढ़े, सिंधु में जा मिले-
कैद कर ना सके,
कोई नपना यहाँ...
२-५-२०१२
*

शुक्रवार, 11 मई 2012

गीत: ओ मेरे मन... संजीव 'सलिल'

गीत:
ओ मेरे मन...

संजीव 'सलिल'
*
धूप-छाँव सम सुख-दुःख आते-जाते रहते.
समय-नदी में लहर-भँवर प्रति पल हैं बहते.
राग-द्वेष से बच, शुभ का कर चिंतन.
ओ मेरे मन...
*
पुलक मिलन में, विकल विरह में तपना-दहना.
ऊँच-नीच को मौन भाव से चुप हो सहना.
बात दूसरों की सुन, खुद भी कर मन-मंथन.
ओ मेरे मन...
*
पीर-व्यथा अपने मन की मत जगसे कहना?
यादों की उजली चादर को फिर-फिर तहना.
दुनियावालों! दुनियादारी करती उन्मन.
ओ मेरे मन...
*
हम सब कठपुतली, सुदूर वह सूत्रधार है.
जिसके वश में हर चरित्र हर कलाकार है.
'सलिल' चाहता वह जैसा, तू करना मंचन.
ओ मेरे मन...
*
वह विराम-अविराम, श्याम-अभिराम वही है.
सुनाता सबकी, किससे उसने व्यथा कही है?
उसस बन जा नेह नर्मदा में कर मज्जन.
ओ मेरे मन...
*



Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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