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मंगलवार, 28 मार्च 2023

दोहा, मुक्तिका, लेख, संतान

 दोहा सलिला

• ब्यूटीपार्लर में मिला, उनको नया निखार। धुँधआया चौका पुता, ज्यों चूने से यार।। • यहाँ वहाँ पढ़कर रहे, अब तक हम बेकार। कार पोंछने कर से, जाते अब सरकार।। • सास-बहू से प्यार कर, माँ-बेटे पर वार। नफरत-सागर में नहा, वाक् हुई तलवार।। • मन की बातों ने धरा, मनमानी का रूप। मनमोहन के मौन की, आती याद अनूप।। • बिन बोले जो बोलते, वे न खोलते राज। बड़बोले देते गँवा, बिना व्याज ही ताज।। • हो लाइक कट पेस्ट पर, जी एस टी अब यार। भरे तिजोरी तब चले, जुमलों की सरकार।। •
२७-३-२०२३
***
मुक्तिका
*
कहाँ गुमी गुड़धानी दे दो
किस्सोंवाली नानी दे दो
बासंती मस्ती थोड़ी सी
थोड़ी भंग भवानी दे दो
साथ नहीं जाएगा कुछ भी
कोई प्रेम निशानी दे दो
मोती मानुस चून आँख को
बिन माँगे ही पानी दे दो
मीरा की मुस्कान बन सके
बंसी-ध्वनि सी बानी दे दो
*
संजीव
२७-३-२०२०
***
लेख:
संतान बनो
*
इसरो के वैग्यानिकों ने देश के बाहरी शत्रुओं की मिसाइलों, प्रक्षेपास्त्रों व अंतरिक्षीय अड्डों को नष्ट करने की क्षमता का सफल क्रियान्वयन कर हम सबको 'शक्ति की भक्ति' का पाठ पढ़ाया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश बाहरी शत्रुओं से बहादुर सेना और सुयोग्य वैग्यानिकों की दम पर निपट सकता है। मेरा कवि यह मानते हुए भी 'जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि' तथा 'सम्हल के रहना अपने घर में छिपे हुए गद्दारों से' की घुटी में मिली सीख भूल नहीं पाता।
लोकतंत्र के भीतरी दुश्मन कौन और कहाँ हैं, कब-कैसे हमला करेंगे, उनसे बचाव कौन-कैसे करेगा जैसे प्रश्नों के उत्तर चाहिए?
सचमुच चाहिए या नेताओं के दिखावटी देशप्रेम की तरह चुनावी वातावरण में उत्तर चाहने का दिखावा कर रहे हो?
सचमुच चाहिए
तुम कहते हो तो मान लेता हूँ कि लोकतंत्र के भीतरी शत्रुओं को जानना और उनसे लोकतंत्र को बचाना चाहते हो। इसके लिए थोड़ा कष्ट करना होगा।
घबड़ाओ मत, न तो अपनी या औलाद की जान संकट में डालना है, न धन-संपत्ति में से कुछ खर्च करना है।
फिर?
फिर... करना यह है कि आइने के सामने खड़ा होना है।
खड़े हो गए? अब ध्यान से देखो। कुछ दिखा?
नहीं?
ऐसा हो ही नहीं सकता कि तुम आइने के सामने हो और कुछ न दिखे। झिझको मत, जो दिख रहा है बताओ।
तुम खुद... ठीक है, आइना तो अपनी ओर से कुछ जोड़ता-घटाता नहीं है, सामने तुम खड़े हो तो तुम ही दिखोगे।
तुम्हें अपने प्रश्नों के उत्तर मिला?
नहीं?, यह तो हो ही नहीं सकता, आईना तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर ही दिखा रहा है।
चौंक क्यों रहे हो? हमारे लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा और उस खतरे से बचाव का एकमात्र उपाय दोनों तुम ही हो।
कैसे?
बताता हूँ। तुम कौन हो?
आदमी
वह तो जानता हूँ पर इसके अलावा...
बेटा, भाई, मित्र, पति, दामाद, जीजा, कर्मचारी, व्यापारी, इस या उस धर्म-पंथ-गुरु या राजनैतिक दल या नेता के अनुयायी...
हाँ यह सब भी हो लेकिन इसके अलावा?
याद नहीं आ रहा तो मैं ही याद दिला देता हूँ। याद दिलाना बहुत जरूरी है क्योंकि वहीं समस्या और समाधान है।
जो सबसे पहले याद आना चाहिए और अंत तक याद नहीं आया वह यह कि तुम, मैं, हम सब और हममें से हर एक 'संतान' है। 'संतान होना' और 'पुत्र होना' शब्द कोश में एक होते हुए भी, एक नहीं है।
'पुत्र' होना तुम्हें पिता-माता पर आश्रित बनाता है, वंश परंपरा के खूँटे से बाँधता है, परिवार पोषण के ताँगे में जोतता है, कभी शोषक, कभी शोषित और अंत में भार बनाकर निस्सार कर देता है, फिर भी तुम पिंजरे में बंद तोते की तरह मन हो न हो चुग्गा चुगते रहते हो और अर्थ समझो न समझो राम नाम बोलते रहते हो।
संतान बनकर तुम अंधकार से प्रकाश पाने में रत भारत माता (देश नहीं, पिता भी नहीं, पाश्चात्य चिंतन देश को पिता कहता है, पौर्वात्य चिंतन माता, दुनिया में केवल एक देश है जिसको माता कहा जाता है, वह है भारत) का संतान होना तुम्हें विशिष्ट बनाता है।
कैसे?
क्या तुम जानते हो कि देश को विदेशी ताकतों से मुक्त कराने वाले असंख्य आम जन, सर्वस्व त्यागने वाले साधु-सन्यासी और जान हथेली पर लेकर विदेशी शासकों से जूझनेवाले पंथ, दल, भाषा, भूषा, व्यवसाय, धन-संपत्ति, शिक्षा, वाद, विचार आदि का त्याग कर भारत माता की संतान मात्र होकर स्वतंत्रता का बलिवेदी पर हँसते-हँसते शीश समर्पित करते रहे थे?
भारत माँ की संतान ही बहरों को सुनाने के लिए असेंबली में बम फोड़ रही थी, आजाद हिंद फौज बनाकर रणभूमि में जूझ रही थी।
लोकतंत्र को भीतरी खतरा उन्हीं से है जो संतान नहीं है और खतरा तभी मिलेगा जब हम सब संतान बन जाएँगे। घबरा मत, अब संतान बनने के लिए सिर नहीं कटाना है, जान की बाजी नहीं लगाना है। वह दायित्व तो सेना, वैग्यानिक और अभियंता निभा ही रहे हैं।
अब लोकतंत्र को बचाने के लिए मैं, तुम, हम सब संतान बनकर पंथ, संप्रदाय, दल, विचार, भाषा, भूषा, शिक्षा, क्षेत्र, इष्ट, गुरु, संस्था, आहार, संपत्ति, व्यवसाय आदि विभाजक तत्वों को भूलकर केवल और केवल संतान को नाते लोकहित को देश-हित मानकर साधें-आराधें।
लोकतंत्र की शक्ति लोकमत है जो लोक के चुने हुए नुमाइंदों द्वारा व्यक्त किया जाता है।
यह चुना गया जनप्रतिनिधि संतान है अथवा किसी वाद, विचार, दल, मठ, नेता, पंथ, व्यवसायी का प्रतिनिधि? वह जनसेवा करेगा या सत्ता पाकर जनता को लूटेरा? उसका चरित्र निर्मल है या पंकिल? हर संतान, संतान को ही चुने। संतान उम्मीदवार न हो तो निराश मत हो, 'नोटा' अर्थात इनमें से कोई नहीं तो मत दो। तुम ऐसा कर सके तो राजनैतिक सट्टेबाजों, दलों, चंदा देकर सरकार बनवाने और देश लूटनेवालों का बाजी गड़बडा़कर पलट जाएगी।
यदि नोटा का प्रतिशत ५००० प्रतिशत या अधिक हुआ तो दुबारा चुनाव हो और इस चुनाव में खड़े उम्मीदवारों को आजीवन अयोग्य घोषित किया जाए।
पिछले प्रादेशिक चुनाव में सब चुनावी पंडितों को मुँह की खानी पड़ी क्योंकि 'नोटा' का अस्त्र आजमाया गया। आयाराम-गयाराम का खेल खेल रहे किसी दलबदलू को कहीं मत न दे, वह किसी भी दल या नेता को नाम पर मत माँगे, उसे हरा दो। अपराधियों, सेठों, अफसरों, पूँजीपतियों को ठुकराओ। उन्हें चुने जो आम मतदाता की औसत आय के बराबर भत्ता लेकर आम मतदाता को बीच उन्हीं की तरह रहने और काम करने को तैयार हो।
लोकतंत्र को बेमानी कर रहा दलतंत्र ही लोकतंत्र का भीतरी दुश्मन है। नेटा के ब्रम्हास्त्र से- दलतंत्र पर प्रहार करो। दलाधारित चुनाव संवैधानिक बाध्यता नहीं है। संतान बनकर मतदाता दलीय उम्मीदवारों के नकारना लगे और खुद जनसेवी उम्मीदवार खड़े करे जो देश की प्रति व्यक्ति औसत आय से अधिक भत्ता न लेने और सब सुविधाएँ छोड़ने का लिखित वायदा करे, उसे ही अवसर दिया जाए।
संतान को परिणाम की चिंता किए बिना नोटा का ब्रम्हास्त्र चलाना है। सत्तर साल का कुहासा दो-तीन चुनावों में छूटने लगेगा।
आओ! संतान बनो।
२८-३-२०१९
*

बटुकेश्वर दत्त

स्मरण
अमर क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त
- गीतिका 'श्रीव' 
*

             अमर क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त (जन्म १८ नवंबर १९१०, ग्राम-औरी, जिला - नानी बर्दवान पश्चिम बंगाल - निधन २० जुलाई १९६५ एम्स नई दिल्ली) ने ८ अप्रैल १९२९ को अपने साथी भगत सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजी सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में बम फेंककर इंकलाब ज़िंदाबाद के नारों के साथ जिंदगी भर को काला-पानी कबूल किया था। इन्हीं बटुकेश्वर दत्त को इस नेता-अफसर-धन्नासेठ पूजक और मूर्तिपूजक देश ने कृत्घ्नतापूर्वक भुला दिया जबकि वे आजादी के बाद भी २१ वर्षों तक जिंदा बचे रहे थे। हम अपने वास्तविक बहादुर और निस्वार्थ नायकों के ज़िंदा रहते उनकी कद्र करना नहीं जान सके।

             अफ़सोस कि बटुकेश्वर दत्त (पिता गोष्ठबिहारी दत्त-माँ कामिनी देवी) जैसे महान क्रांतिकारी को आज़ादी के बाद जिंदगी की गाड़ी खीचने के लिए कभी एक सिगरेट कंपनी का एजेंट बनकर पटना की गुटखा-तंबाकू की दुकानों के इर्द-गिर्द भटकना पड़ा तो कभी बिस्कुट और डबलरोटी बनाने का काम करना पड़ा। जिस नर नाहर के पराक्रम से ब्रिटिश सरकार थरथराती थी, जिसके ऐतिहासिक किस्से भारत के बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर होने चाहिए थे उसे खुद एक मामूली टूरिस्ट गाइड बनकर गुजर-बसर करनी पड़ी।

             उत्तर प्रदेश के कानपुर में पृथ्वीनाथ चक हाई स्कूल में पढ़ते समय, वह सुरेंद्रनाथ पांडे और विजय कुमार सिन्हा के संपर्क में आए, जो बाद में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों में शामिल होने के दौरान उनके सह क्रांतिकारी बने। बटुकेश्वर ने १९२५ ई. में मैट्रिक की परीक्षा पास की और तभी माता व पिता दोनों का देहांत हो गया। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में सम्पन्न हुई। बटुकेश्वर दत्त किशोर थे जब उन्होंने कानपुर में माल रोड पर ब्रिटिश कर्मचारियों द्वारा एक भारतीय लड़के की क्रूर पिटाई देखी, क्योंकि भारतीयों को सड़कों पर स्वतंत्र रूप से घूमने की अनुमति नहीं थी। युवा बटुकेश्वर दत्त इस घटना से बहुत प्रभावित हुए, जिसने अंततः उन्हें भारत में उपनिवेश विरोधी आंदोलनों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। जल्द ही बटुकेश्वर दत्त ने प्रताप अखबार के प्रकाशक ‘सुरेशचंद्र भट्टाचार्य’ के माध्यम से हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) के सह-संस्थापक ‘सचिंद्रनाथ सान्याल’ से मुलाकात की। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त एक ही समय में HSRA में शामिल हुए। ८ अप्रैल, १९२९ को, जब भगत सिंह ने सेंट्रल असेंबली पर बम गिराए, तो वे भगत सिंह के साथ थे। सेंट्रल असेंबली (अब भारत की संसद) में, भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ, वाणिज्यिक विवाद अधिनियम और सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम का विरोध करने के लिए बम फेंके, जिसे ब्रिटिश सरकार ने वर्ग राजनीति को कम करने के लिए पेश किया।

             वर्ष १९२४ में कानपुर बाढ़ के दौरान, बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह ने मिलकर ‘तरुण संघ’ मिशन के लिए स्वेच्छा से काम किया, जो बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए बनाया गया था, और इस अवधि के दौरान उनके बीच दोस्ती बढ़ी। दत्त ने इस दौरान भगत सिंह को बंगाली भाषा सिखाई और उन्हें काजी नजीरूल इस्लाम की कविता से भी परिचित कराया। बटुकेश्वर दत्त ने अपने संस्मरणों में लिखा है: '…हम दोनों को एक साथ ड्यूटी सौंपी गई थी। हम दोनों रात में गंगा के किनारे खड़े थे, लालटेन पकड़े हुए ताकि कोई जो नाले में प्रवेश करे, किनारे तक पहुँचने की कोशिश करे और बच जाए… ”

   
         १९२५ 
में, काकोरी षडयंत्र मामले के बाद हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) का नेतृत्व पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया था। तब ब्रिटिश सरकार ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के कई महत्वपूर्ण नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया था। बटुकेश्वर दत्त बिहार और फिर कलकत्ता चले गए, जहाँ वे वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी में शामिल हो गए। इस पार्टी के लिए काम करते हुए उन्होंने पार्टी को उनके पर्चे और पोस्टर हिंदी में लिखने में मदद की। बाद में, थोड़े समय के लिए, वह बंगाल मैला ढोने वालों के सिंडिकेट की हावड़ा शाखा से जुड़ गए। दूसरी ओर, चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह ने धीरे-धीरे कानपुर में एचआरए को पुनर्गठित करना शुरू कर दिया और बटुकेश्वर दत्त को कानपुर में एचआरए में फिर से शामिल होने का निर्देश दिया। १९२७ में, हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) ने इसका नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) कर दिया, जिसमें कहा गया था कि औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने में समाजवाद पार्टी के मुख्य लक्ष्यों में से एक था। ब्रिटिश सरकार को अक्सर एचएसआरए द्वारा सशस्त्र संघर्ष और प्रतिशोध के साथ चुनौती दी गई थी। इस अवधि के दौरान, समाजवादी साहित्य पढ़ना इसके सदस्यों के लिए अनिवार्य अभ्यास बन गया। उस समय जो प्रसिद्ध नारे इस्तेमाल किए गए थे, वे थे मातृभूमि की रक्षा करना, क्रांति को जिंदा रखना और साम्राज्यवाद के साथ नीचे रहना। १९२७-२८ के दौरान, भारत में भारतीय श्रमिकों को विभिन्न विरोधों और बंदों का सामना करना पड़ा, जब सरकार ने सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक और भारत व्यापार विवाद विधेयक नामक दो विवादास्पद विधेयक पेश करने का निर्णय लिया। इन बिलों ने भारतीय कामगारों की सभी हड़तालों को अवैध और प्रबंधन के खिलाफ विद्रोह करार दिया। इस जबरदस्ती ने एचएसआरए को औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ विद्रोह करने का कारण बना दिया। 


             १९२८ में जब हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन चंद्रशेखर आजाद की अगुआई में हुआ, तो बटुकेश्वर दत्त भी उसके अहम सदस्य थे। बम बनाने के लिए बटुकेश्वर दत्त ने खास ट्रेनिंग ली और इसमें महारत हासिल कर ली। एचएसआरए की कई क्रांतिकारी गतिविधियों में वो सीधे तौर पर शामिल थे। जब क्रांतिकारी गतिविधियों के खिलाफ अंग्रेज सरकार ने डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट लाने की योजना बनाई, तो भगत सिंह ने उसी तरह से सेंट्रल असेंबली में बम फोड़ने का इरादा व्यक्त किया, जैसे कभी फ्रांस के चैंबर ऑफ डेपुटीज में एक क्रांतिकारी ने फोड़ा था।

             एचएसआरए की मीटिंग हुई, तय हुआ कि बटुकेश्वर दत्त असेंबली में बम फेंकेंगे और सुखदेव उनके साथ होंगे। भगत सिंह उस दौरान सोवियत संघ की यात्रा पर होंगे, लेकिन बाद में भगत सिंह के सोवियत संघ का दौरा रद्द हो गया और दूसरी मीटिंग में तय हुआ कि बटुकेश्वर दत्त बम प्लांट करेंगे, लेकिन उनके साथ सुखदेव के बजाय भगत सिंह होंगे। भगत सिंह को पता था कि बम फेंकने के बाद असेंबली से बचकर निकल पाना, मुमकिन नहीं होगा, ऐसे में क्यों ना इस घटना को बड़ा बनाया जाए, इस घटना के जरिए बड़ा मैसेज दिया जाए।

             ८ अप्रैल १९२९ का दिन था, पब्लिक सेफ्टी बिल पेश किया जाना था। बटुकेश्वर बचते-बचाते किसी तरह भगत सिंह के साथ दो बम सेंट्रल असेंबली में अंदर ले जाने में कामयाब हो गए। जैसे ही बिल पेश हुआ, विजिटर गैलरी में मौजूद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त उठे और दो बम उस तरफ उछाल दिए जहाँ बेंच खाली थी। जॉर्ज सस्टर और बी.दलाल समेत थोड़े से लोग घायल हुए, लेकिन बम ज्यादा शक्तिशाली नहीं थे, सो धुआँ तो भरा, लेकिन किसी की जान को कोई खतरा नहीं था। बम के साथ-साथ दोनों ने  पर्चे भी फेंके, गिरफ्तारी से पहले दोनों ने इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद जैसे नारे भी लगाए। दस मिनट के अंदर असेंबली फिर शुरू हुई और फिर स्थगित कर दी गई।विधेयकों के पारित होने से ठीक हले, ८ अप्रैल, १९२९ को, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने एचएसआरए पर्चे बाँटते हुए केंद्रीय विधानसभा (अब संसद) में बम (जो जीवन के लिए खतरा नहीं थे) गिराए और ‘डाउन’ के नारे लगाए। साम्राज्यवाद के साथ’ और ‘क्रांति जीवित रहे’। इन बमों को बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह द्वारा विजिटर्स गैलरी से फेंका गया था। इस घटना के बाद दोनों ने भागने का प्रयास भी नहीं किया और दोनों को ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था।

             उसके बाद देश भर में बहस शुरू हो गई। भगत सिंह के चाहने वाले, ये साबित करने की कोशिश कर रहे थे कि बम किसी को मारने के लिए नहीं बल्कि बहरे अंग्रेजों के कान खोलने के लिए फेंके गए थे, तो वहीं अंग्रेज और अंग्रेज परस्त इसे अंग्रेजी हुकूमत पर हमला बता रहे थे। बाद में फोरेंसिक रिपोर्ट ने ये साबित कर दिया कि बम इतने शक्तिशाली नहीं थे। बाद में भगत सिंह ने भी कोर्ट में कहा कि उन्होंने केवल अपनी आवाज रखने के लिए, बहरों के कान खोलने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल किया था, ना कि किसी की जान लेने के लिए। लेकिन भगत सिंह के जेल जाते ही एचआरएसए के सदस्यों ने लॉर्ड इरविन की ट्रेन पर बम फेंक दिया।

             भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी  हुई जबकि बटुकेश्वर दत्त को काला पानी की सज़ा।  फाँसी की सजा न मिलने से वे दुखी और अपमानित महसूस कर रहे थे। बताते हैं कि यह पता चलने पर भगत सिंह ने उन्हें एक चिट्ठी लिखी।  इसका मजमून यह था कि वे दुनिया को यह दिखाएँ कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सहन कर सकते हैं। भगत सिंह ने उन्हें समझाया कि मृत्यु सिर्फ सांसारिक तकलीफों से मुक्ति का कारण नहीं बननी चाहिए।

             अपनी माँ को लिखे पत्र में भगत सिंह ने कहा – ‘मैं तो जा रहा हूँ, लेकिन बटुकेश्वर दत्त के रूप में अपना एक हिस्सा छोड़े जा रहा हूँ।’ बटुकेश्वर दत्त ने यही सिद्ध किया। काला पानी की सजा के तहत उन्हें अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल भेजा गया।  १९३७ में वे बाँकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना लाए गए।  १९३८ में  उनकी रिहाई हो गई।  कालापानी की सजा के दौरान ही उन्हें टीबी हो गया था जिससे वे मरते-मरते बचे। जल्द ही वे महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। चार साल बाद १९४५  में वे रिहा हुए।  १९४७ में देश आजाद हो गया। नवम्बर, १९४७ में बटुकेश्वर दत्त ने शादी कर ली और पटना में रहने लगे  लेकिन उनकी जिंदगी का संघर्ष जारी रहा। 


             बटुकेश्वर दत्त को बाद में ब्रिटिश सरकार ने आजीवन कारावास की सजा दी और अंडमान सेलुलर जेल भेज दिया गया। जेल में अपने समय के दौरान, उन्होंने जेल में राजनीतिक कैदियों के अधिकारों के लिए दो भूख हड़ताल शुरू की। बटुकेश्वर के अनुसार, राजनीतिक बंदियों को अंग्रेजों द्वारा अमानवीय व्यवहार प्राप्त हुआ। दो में से एक हड़ताल ११४ दिनों से अधिक समय तक चली, जिसे आधुनिक राजनीतिक इतिहास में सबसे लंबी भूख हड़तालों में से एक माना जाता था। जेल में, उन्होंने अपने सह-क्रांतिकारियों शिव वर्मा, जयदेव कपूर और बिजॉय कुमार सिन्हा के साथ कम्युनिस्ट समेकन नामक एक मार्क्सवादी अध्ययन मंडल की स्थापना की। जेल में उनके द्वारा ‘द कॉल’ नामक एक हस्तलिखित पत्रिका के कई संस्करण भी लिखे गए।बटुकेश्वर दत्त के सह-क्रांतिकारियों में से एक मनमथनाथ गुप्ता ने अपने एक लेख में कहा है कि शुरुआत में दत्त एक विद्वान क्रांतिकारी नहीं थे, लेकिन अंडमान जेल में उन्होंने समाजवादी सिद्धांत के लिए पूरी तरह से वैचारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया। मनमथनाथ गुप्ता ने लिखा- ''मूलत: दत्त विद्वान क्रांतिकारी नहीं थे, अंडमान जेल के विद्वतापूर्ण माहौल में, उन्होंने अच्छी तरह से पढ़ा और खुद को समाजवादी सिद्धांत के प्रति समर्पित कर दिया… वे एक कठोर समाजवादी बन गए थे।”

             १९३७ में, बटुकेश्वर दत्त को अंडमान जेल से दिल्ली के हजारीबाग जेल में स्थानांतरित कर दिया गया, जल्द ही पटना जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। अंडमान जेल में अमानवीय यातना ने बटुकेश्वर दत्त की स्वास्थ्य की स्थिति खराब कर दी थी। महात्मा गाँधी और अन्य भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नेताओं ने कथित तौर पर ब्रिटिश सरकार से उन्हें रिहा करने का आग्रह किया। उन्हें इस शर्त पर रिहा किया गया था कि वह किसी भी उपनिवेश विरोधी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे और किसी भी राजनीतिक दल में शामिल नहीं होंगे। अंततः ८ सितंबर, १९३८  को पटना जेल से उनकी रिहाई हुई। 

             जेल से छूटने के बाद, जब उनके स्वास्थ्य में सुधार होने लगा, तो उन्होंने फिर से क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया। १९३३-३४ के दौरान, कानपुर और उन्नाव जिले के कई युवा ‘नवचेतन संघ’ में शामिल हो गए, जो भगत सिंह और एचएसआरए से प्रेरित होकर शिव कुमार मिश्रा, शेखर नाथ गांगुली और अन्य लोगों द्वारा शुरू किया गया एक क्रांतिकारी आंदोलन था। १९३७- ३८ के दौरान इस संगठन का नवयुवक संघ (युवा संघ) में विलय हो गया और जोगेशचंद्र चटर्जी और झाँसी  के पं. परमानंद इस संगठन के नेता थे। बाद में इस संगठन का भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी पार्टी में विलय हो गया।

             मई १९३९ में, कम्युनिस्ट समूहों और पूर्व एचएसआरए क्रांतिकारियों ने उन्नाव जिले के मुकर गाँव में सचिंद्रनाथ सान्याल, मन्मथनाथ गुप्त, रामकिशन खत्री, विजय कुमार सिन्हा, भगवानदास माहौर और यशपाल सहित तीन दिवसीय सम्मेलन का आयोजन किया। ग़दर पार्टी के नेता सोहन सिंह बखना ने भी सम्मेलन में भाग लिया। इस सम्मेलन के अध्यक्ष बटुकेश्वर दत्त थे। शिव कुमार मिश्रा के अनुसार, उनके संस्मरण ‘काकोरी से नक्सलबाड़ी तक’ में इस सम्मेलन को महत्वपूर्ण माना गया क्योंकि इसने क्रांतिकारी समूहों और कम्युनिस्ट पार्टी को एक साथ लाया। १९४२ में बटुेश्वर दत्त ने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया, और ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और भारत की स्वतंत्रता के बाद रिहा कर दिया गया। 

             भारत की आजादी के बाद, दत्त ने भारतीय राजनीति में भाग नहीं लेने का फैसला किया। उनके एक साथी मन्मथनाथ गुप्त ने अपने एक लेख में कहा था कि दत्त और अन्य क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी कहते थे कि यह वह स्वतंत्रता नहीं थी जिसके लिए वे लड़ रहे थे। उन्होंने लिखा - 'हमारी राजनीतिक चर्चाओं के दौरान वह, हमारे अन्य साथियों की तरह, कहते थे कि यह वह स्वतंत्रता (स्वराज्य) नहीं है जिसके लिए हम लड़ रहे हैं, हम इसके लिए कभी नहीं लड़े और हम कुछ अलग चाहते थे।''

             आजादी के बाद, दत्त को अपनी आजीविका जारी रखने और अस्पताल के खर्चों को कवर करने के लिए केंद्र सरकार से कोई वित्तीय मदद नहीं मिली। उन्होंने कुछ समय तक एक सिगरेट कंपनी में एजेंट के रूप में काम किया और परिवहन व्यवसाय में भी अपनी किस्मत आजमाई। चार महीने के लिए उन्हें कथित तौर पर बिहार विधान परिषद में नियुक्त किया गया था। बाद में, बटुकेश्वर दत्त बम विस्फोट मामले का प्रतिनिधित्व करने वाले आसफ अली ने एक मीडिया आउटलेट के साथ बातचीत में कहा कि दत्त ने ८ अप्रैल, १९२९ को सेंट्रल असेंबली में कभी कोई बम नहीं गिराया, लेकिन वह भगत सिंह के साथ रहना चाहते थे।  इसलिए दत्त ने भगतसिंह के साथ गिरफ्तारी दी। आसफ अली ने कहा: ''दोनों क्रांतिकारियों को जीवन भर के लिए परिवहन की सजा सुनाई गई थी (दोषियों को उनके शेष जीवन के लिए मुख्य भूमि भारत से निर्वासित कर दिया गया था) इस मामले में “गैरकानूनी और दुर्भावनापूर्ण रूप से जीवन को खतरे में डालने वाली प्रकृति के विस्फोटों के कारण।” 

             देश की आजादी और जेल से रिहाई के बाद बटुकेश्वर दत्त जी पटना में रहने लगे थे। पटना में अपनी बस शुरू करने के विचार से जब वे बस का परमिट लेने की ख़ातिर पटना के कमिश्नर से मिले तो कमिश्नर द्वारा उनसे उनके बटुकेश्वर दत्त होने का प्रमाण माँगा गया। जो अफसरशाही क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त की छाया से घबराती थी, उसी तंत्र का एक अदना सा अफसर शांतिवादी बटुकेश्वर दत्त से उनके जिंदा  होने का प्रमाण माँग रहा था। बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर नेको बटुकेश्वर दत्त जी से माफ़ी माँगनी पड़ी। 

             अंतत:, पटना की सड़कों पर खाक छानने को विवश बटुकेश्वर दत्त की पत्नी अंजलि दत्त जी (विवाह १९४७) मिडिल स्कूल में नौकरी करने के लिए विवश हुईं जिससे दत्त परिवार (बेटी भारती बागची, पूर्व प्राध्यापक, अर्थशास्त्र, पटना विश्वविद्यालय) का गुज़ारा हो सके।  १९६४ में बटुकेश्वर जी के अचानक बीमार होने के बाद उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया, पर उनका ढंग से उपचार नहीं हो रहा था। इस पर उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए? परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है। चमनलाल आजाद के मार्मिक लेकिन कड़वे सच को बयां करने वाले लेख को पढ़कर पंजाब सरकार ने अपने खर्चे पर दत्त का इलाज़ करवाने का प्रस्ताव दिया। तब बिहार सरकार ने ध्यान देकर मेडिकल कॉलेज में उनका इलाज़ करवाना शुरू किया।

             अब तक बहुत देर हो गई थी। बटुकेश्वर दत्त जी की हालात गंभीर हो चली थी। २२ नवंबर १९६४ को उन्हें दिल्ली लाया गया। दिल्ली पहुँचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था- “मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था कि मैं उस दिल्ली में जहाँ मैंने बम डाला था, एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाऊँगा।” दत्त को दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती किये जाने पर पता चला कि उन्हें कैंसर है और उनकी जिंदगी के चंद दिन ही शेष बचे हैं। यह खबर सुनकर अमर शहीद भगत सिंह की माँ विद्यावती देवी अपने पुत्र समान बटुकेश्वर दत्त से मिलने दिल्ली आईं। पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन भी दत्त से मिलने पहुँचे और उन्होंने पूछ लिया- 'हम आपको कुछ देना चाहते हैं, जो भी आपकी इच्छा हो माँग लीजिए।'

             भारत को आजाद करने के लिए अपनी जान को दाँव पर लगानेवाले क्रन्तिकारी जिसने ब्रिटिश सरकार के हर प्रलोभन को ठुकरा दिया था, उससे आजाद भारत का एक मुख्य मंत्री पूछ रहा था क्या चाहिए? दो राज्य बिहार और पंजाब ही नहीं केंद्र सरकार को भी बटुकेश्वर दत्त को सर आँखों पर बैठना चाहिए था। देश स्वतंत्र होने के बाद उन्हें देश का राजदूत, मंत्री या राज्यपाल बनाया जाना था पर कुर्सी पाकर सत्ताधीश बटुकेश्वर दत्त और अन्य क्रांतिकारियों को भूल गए। विपक्ष सत्ता पाने के लिए संघर्ष करता रह किंतु उसने भी क्रांतिकारियों को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया। हद तो यह कि जो कायस्थ समाज आज बटुकेश्वर दत्त जी की तस्वीर अपने समारोहों में लगता है, उसने भी कभी उनके जीवित रहते उनका अभिनन्दन तक न किया। पटना का बंगाली समाज भी उनसे दूर ही रहा। वैचारिक दृष्टी से साम्यवादी रहे बटुकेश्वर दत्त को भारत के साम्यवादी दलों ने भी नेतृत्व नहीं दिया।

             भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और  प्रधान मंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री ने अस्पताल में बटुकेश्वर दत्त से तब मुलाकात की, जब उनका दिल्ली में इलाज चल रहा था। अस्पताल में दत्त ने कहा - ''जब आप क्रांतिकारियों के बारे में सोचते हैं, तो आप उन्हें केवल हथियारबंद व्यक्ति समझते हैं और आप उस समाज के दृष्टिकोण को पूरी तरह से भूल जाते हैं जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं।''

             उस दिन पंजाब के मुख्यमंत्री से बटुकेश्वर दत्त जी ने आँखों में आँसू और होठों पर फीकी मुस्कान के साथ कहा- 'कुछ नहीं चाहिए. बस मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।' जब तक जिन्दा थे दोनों देश को आजाद करने के लिए जान की बाजी लगते थे। क्या हुआ जो एक कुछ बरस पहले और दूसरा कुछ बरस बाद जाए, आखिकार दोनों क्रांतिकारी मित्रों की मिट्टी ही एक हो जाए।

             २० जुलाई १९६५ की रात १ बजकर ५० मिनट पर दत्त इस दुनिया से विदा हो गए। उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुसार, भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के निकट किया गया। हुसैनीवाला, जिसका कुछ आधिकारिक दस्तावेज़ों में नाम ग़ुलाम हुसैनवाला भी है, भारत के पंजाब राज्य के फ़िरोज़पुर ज़िले में स्थित एक गाँव है। यह सतलुज नदी के किनारे और भारत की पाकिस्तान के साथ सीमा पर स्थित है। राष्ट्रीय राजमार्ग ५ यहाँ से गुज़रता है।

             जुलाई २०१९ में, भारत सरकार ने भारतीय क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर दत्त के नाम पर पश्चिम बंगाल के बर्धमान रेलवे स्टेशन का नाम रखा है। भारत सरकार ने भारत की स्वतंत्रता के लिए उनके बलिदानों को स्वीकार करने के लिए दिल्ली के एक आवासीय कॉलोनी का नाम 'बीके दत्त कॉलोनी' का नाम उनके नाम रखा है भारत की स्वतंत्रता के कई वर्षों के बाद, भारत सरकार ने बटुकेश्वर दत्त के पैतृक घर का जीर्णोद्धार किया और पर्यटकों के लिए एक स्मारक के रूप में इसका उद्घाटन किया।  भारत सरकार ने भारत की के लिए उनके बलिदानों का सम्मान करने के लिए पटना में बटुकेश्वर दत्त की एक प्रतिमा स्थापित की। बटुकेश्वर  दत्त की स्मृति में   एक डाक टिकिट तक  नहीं जारी कर सकी  है राष्ट्रीयता की झंडाबरदार बननेवाली भारत सरकार। 

             बटुकेश्वर दत्त जी की पुत्री भारती बागची  (पूर्व प्राध्यापक अर्थशास्त्र पटना विश्वविद्यालय) कहती हैं - ''मैं पिता जी के साथ १४ साल ही रह पाई। इस उम्र में जो उनसे सीखा समझा जा सकता था, वह उनका व्यवहार ही था। बचपन उस वक्त गुजरा जब आजादी के बाद चीजों को नई तरीके से गढ़ने की कोशिश हो रही थी और ढेरों उम्मीदें पूरे देश को थीं। ज्यादातर देशवासी तकलीफों को इसलिए बर्दाश्त कर रहे थे कि उनको कम से कम विदेशी की जंजीरों से मुक्ति मिली। ऐसे में एक क्रांतिकारी तकलीफों को क्या मानेगा, जिसने अपना जीवन ही आजादी के लिए दाँव पर लगा दिया हो। पिता जी के बारे में कई बातें बाद में मीडिया में प्रकाशित हुईं कि वे बहुत मुश्किलों से गुजरे। हकीकत ये है कि वे उन मुश्किलों को मुश्किल नहीं मानते थे, बल्कि देश के आम लोगों की जिंदगी के साथ जोड़कर देखते थे। वे उस वक्त मुझे बहुत खिलौने नहीं लाते थे, बल्कि कहानियों की ऐसी पुस्तिकाएँ लाते थे, जिससे एक सच्चा इंसान बना जाए, जिसकी जिंदगी में अनुशासन हो और गरीब-मेहनती लोगों के लिए दिल में करुणा हो।''

             भारती जी अपनी बुआ प्रमिला देवी से सुना वह किस्सा बताती हैं कि किस फितरत ने पिता बटुकेश्वर दत्त को क्रांतिकारी बना दिया- ”बचपन में जब वे स्कूल जाते थे तो अपने खाने का टिफिन रास्ते में एक असहाय को रोजाना दे देते। जाड़े के दिनों में एक बार जब टिफिन लेकर पहुँचे तो वह असहाय ठंड से मर चुका था। घर लौटकर वे बहुत रोए। घरवाले समझ नहीं पा रहे थे कि किसलिए इतना सुबक रहे हैं। आखिर में काफी समझाने-बुझाने पर बटुकेश्वर दत्त ने बहन प्रमिला को बात बताई। फिर वह गरीब, गरीबी, उनके उपाय के बारे में गहराई से जानने को पढ़ने लगे। विवेकानंद, अरबिंदो और तिलक के लिखे लेखों या वक्तव्यों ने उनका रुझान क्रांति की दिशा में बढ़ा दिया।” भारती जी को आज किसी से कोई शिकायत नहीं है। वे कहती हैं- ‘आज भी सरकार से क्या शिकायत की जाए, कितना दोष गिनाया जाए। हम जब खुद ही करप्ट हैं। ऐसा भी नहीं है कि आजादी के बाद कोई विकास नहीं हुआ है। मेरे पास तमाम कम उम्र के बच्चे आते हैं यही सब जानने को, मैं उन्हें वही बताने की कोशिश करती हूं, जो मेरे पिता ने मुझे बताया-सिखाया…नैतिकता, करुणा, अनुशासन, लक्ष्य, क्रांतिकारियों का देखा खुशहाली का ख्वाब। हमें उम्मीद करना चाहिए कि भविष्य खूबसूरत होगा, खूबसूरत भविष्य बनाने वाले हमेशा बने रहेंगे’

             कायस्थ समाज को अमर क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त, की स्मृति में पुरस्कार, छात्रवृत्ति आदि स्थापित करना चाहिए।  बटुकेश्वर डट पर डाक टिकिट जारी  जाए। हिंदी भाषी और बांगला भाषी कायस्थ मिलकर रोटी-बेटी संबंध स्थापित कर राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करें। 

***
लेखिका संपर्क - गीतिका 'श्रीव', द्वारा श्री प्रभात श्रीवास्तव, महाजनी वार्ड, नरसिंहपुर मध्यप्रदेश।   

व्यंग्य, पत्नी, धर्मपत्नी, श्रीनारायण चतुर्वेदी

व्यंग्य विरासत :
पत्नी और धर्मपत्नी
श्रीनारायण चतुर्वेदी
*

           उस दिन एक नये मित्र  मिलने आये। 'नये' इसलिए कहता हूँ कि मेरी वय इतनी हो गयी है कि पुराने मित्र दिनोंदिन कम होते जा रहे हैं। जो थोड़े-बहुत रह भी गये हैं, वे या तो अशक्त हैं या अन्य प्रकार से आने में असमर्थ हैं-जैसे जो लोग तीन मील पैदल चलकर आ नहीं सकते, उनसे एक ओर का किराया रिक्शावाला तीन रुपया माँगता है। अतएव अब अधिकतर नये मित्र ही यदा-कदा आ जाने की कृपा करते हैं।

           पुराने मित्र मेरी तरह ही दकियानूसी हैं। वे पत्नी को लेकर 'काल' करने नहीं आते। नये युग में 'बेहतर अंग' के बिना व्यक्तित्व अधूरा रह जाता है। मेरे अधिकांश नये मित्र भी, जो मेरी 'सनकों' और दकियानूसीपन को जान गये हैं, वे प्राय: अकेले ही आ जाते हैं, किंतु जिन व्यक्तियों से नया परिचय या मिलता हो जाती है, वे आधु- निक रीति से 'पूर्णांग' होकर आते हैं, विशेषकर यदि पत्नी आधुनिक, सोसायटीप्रिय और साहित्यिक अभिरुचि की हुई।

           जैसा कि मैंने कहा, एक नये मित्र मिलने आये। वे पूर्णांग' थे। उनकी सहचरी विदुषी, शिष्ट, आधुनिक अभिजात परिधान से वेष्टित और दर्शनीय थीं। वाणी मधुर और सुसंस्कृत थी। नमस्कार करके मेरे मित्र ने कहा, ' 'ये मेरी धर्मपत्नी हैं। इनका नाम...है। सोशियालाजी में एम० ए० हैं। इनके पिता अमुक विभाग में डिप्टी डायरेक्टर और भाई एलाइड सर्विसेज में आ गये हैं। इन्हें हिंदी 'साहित्य में विशेष रुचि है। हिंदी में कविता भी करती हैं।' फिर श्रीमती जी से कहा, ' 'पंडित जी को प्रणाम' करो।'' वे मेरे चरण स्पर्श करने को झुकीं। मैंने मना करते हुए कहा, ''बेटी, मैं पुराने ढंग का आदमी हूँ। हम' लोग तो बेटियों के पैर पूजते हैं, उनसे चरण स्पर्श नहीं कराते। भगवान तुम्हारा मंगल करें।''

           मेरे नये मित्र की भी हिंदी और साहित्य में रुचि है। आधुनिक हिंदी उपन्यासकारों की तरह मैं 'मनोविज्ञानी' नहीं हूँ, इसलिए कह नहीं सकता कि उस समय क्यों पंडित श्री विनोद शर्मा (पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी अपने हास्य-व्यंग्य लेख श्री विनोद शर्मा नाम से लिखते हैं-सं ० ) मेरे मस्तिष्क पर हावी हो गये। मैंने उनसे बड़े सहज भाव, किंतु बनावटी गांभीर्य से एक बेहूदा बात कह दी, ' 'अच्छा! ये आप की धर्मपत्नी हैं। इनसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई।किंतु आपने अपनी पत्नी के दर्शन कभी नहीं कराये।''

           वे मेरी बात सुनकर आश्चर्यचकित रह गये। एकाएक उनकी समझ में नहीं आया कि मैं क्या कह गया। कुछ लोग तो साठ वर्ष के होने पर ही बुढ़भस के शिकार हो जाते हैं। मैं तो नवाँ  दशक पूरा करने के निकट हूँ। उन्होंने समझा कि यह प्रश्न मेरे आसन्न बुढ़भस का लक्षण है। किन्तु वे इतने शिष्ट हैं कि यह बात कह नहीं सकते थे। कुछ देर चुप रहकर बोले, ' 'धर्मपत्नी से मेरा तात्पर्य 'वाइफ' से ही है।''

           मैंने कहा, ''भाई, हिंदी में लोग कहते हैं -ये मेरे. धर्मपिता हैं, अर्थात् पिता नहीं हैं, किन्तु मैंने इन्हें धर्मवश पिता मान लिया है। मैंने सुना था कि :

जनिता चोपनीता च यस्तु विद्या प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता पंचैते पितर: स्मृता।।

           पैदा करनेवाला तो पिता है, शेष 'पितर: स्मृता:' अर्थात् पितातुल्य मान लिये गये हैं। इसी तरह से कुछ लोग किसी शिष्य या बालक को पालते-पोसते हैं, या उससे अत्यंत स्नेह करते हैं। उसे वे अपना 'धर्मपुत्र' कहते हैं। आप अपने पिता को केवल 'पिता' कहते है, 'धर्म- पिता' तो नहीं कहते और न अपने पुत्र को 'धर्मपुत्र' कहेंगे। 'धर्मपिता' या 'धर्मपुत्र' कहने से यह अर्थ निकलता है कि वास्तव में वे मेरे पिता या पुत्र नहीं हैं, मैंने धर्म से इन्हें पिता या पुत्र मान लिया है। वास्तविक पिता या पुत्र के आगे 'धर्म' शब्द लगाते हुए किसी को सुना है?”

           उन्हें कहना पड़ा, ''नहीं।''

           ''तब'',मैंने कहा, ''पत्नी वही है, जिससे आपका विधिवत् विवाह हुआ है। वह विवाह संस्कार द्वारा या अदालत में रजिस्ट्री द्वारा हो सकता है। उसके बाद वह आपकी पत्नी हो गयी। अंग्रेजी में भी 'फादर-इन-ला, ब्रदर-इन-ला, सिस्टर-इन-ला' शब्द चलते हैं पर 'वाइफ-इन-ला' तो मैंने सुना नहीं। उन लोगों में तलाक के बाद कानून से विवाह संबंध विच्छेद हो जाता है, किन्तु जब तक तलाक नहीं होता तब तक वह केवल 'वाइफ' है न कि 'वाइफ-इन-ला ?''

           वे मेरी ऊटपटांग बाते अवाक् हो सुनते रहे। तब मैंने कहा, ''जिस प्रकार धर्मपिता के तात्पर्य हैं कि वह व्यक्ति जिसे हम धर्म-पिता कहते हैं, वास्तव में मेरा पिता नहीं है, मैंने इसे केवल धर्मवश पिता मान लिया है और वह भी मुझे पुत्र की तरह मानता है, उसी प्रकार 'धर्मपत्नी' शब्द से मेरी मोटी अक्ल में यह बात आती है कि वह मेरी वास्तव में पत्नी नहीं है, किंतु मैंने उसे धर्म या कर्मवश या व्यावहारिक रूप से अपनी पत्नी मान लिया है। 'कर्मवश' या 'व्यावहारिक' पत्नी कहना कुछ अच्छा नहीं लगता! प्रतिष्ठित शब्द 'धर्म' का उपयोग अच्छा लगता है। धर्म के अर्थ अनेक हैं। प्रेम' भी तो मनुष्य के मन का नैसर्गिक धर्म है। वह किसीसे भी हो सकता है। आवश्यक नहीं कि वह ब्याहता स्त्री अर्थात् पत्नी से ही हो। अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। आप समझ गये होंगे कि मैं 'धर्म- पत्नी' किसे समझता हूं और क्यों पत्नी और धर्मपत्नी में भेद करता हूं। आप मुझे गलत न समझें, आप इन्हें भले ही अपनी 'धर्मपत्नी' कहें, किंतु मैं इन्हें आपकी पत्नी ही मानता हूं। मुझे कोई भ्रम नहीं है।''

           मैंने आगे कहा, ''शायद आप भी ऐसे प्रकरण जानते हों और मैं तो ऐसे कई प्रकरण जानता हूं, जिनमें बिना किसी प्रकार के विवाह- बंधन में पड़े स्त्री और पुरुष पति-पत्नी की तरह रहते हैं। मैं एक जोड़े को जानता हूँ जो बीस वर्ष से अधिक समय से इसी प्रकार रह रहा है। दोनों आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं, क्योंकि दोनों ही सरकारी नौकरी में हैं। वे इतने स्वतंत्र हैं कि घरवाले चाहते या न चाहते, वे पारंपरिक प्रथा से विवाह कर सकते थे, उन्हें कोई रोक नहीं सकता था। यदि वह उन्हें स्वीकार न होता तो मजिस्ट्रेट के सामने कानूनी विवाह कर सकते थे किंतु उन्होंने इसकी आवश्यकता नहीं समझी। जो लोग असली बात नहीं जानते, वे उन्हें ब्याहता पति-पत्नी ही समझते हैं। मैं यह रहस्य जानता हूं और उनकी श्रीमती जी को सदा उनकी धर्मपत्नी कहता हूं, क्योंकि पत्नी न होते हुए भी वे पत्नी का धर्म निर्वाह कर रही हैं। वे स्वयं उन्हें धर्मपत्नी नहीं कहते। औरों से उनका परिचय 'मेरी वाइफ' या 'मेरी श्रीमती' कहकर कराते हैं।''

           मेरे नवीन मित्र ने पूछा, ''क्या 'श्रीमती' में पत्नी का भाव नहीं आता? ''

           मैंने कहा, '' 'श्रीमती' वह है जो आपकी 'श्री' की वृद्धि करे, या जिसकी श्रीवृद्धि आपके कारण होती हो। यह काम पत्नी और धर्म- पत्नी समान रूप से कर सकती हैं। अतएव यह शब्द दौनों के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।'

           मैंने अनुभव किया कि श्री विनोद शर्मा ने 'अति' कर दी है। अब उन्हें विदा कर देना चाहिए। अतएव, मैं उस देवी की ओर मुड़ा जो न मालूम क्या आशा लेकर मुझसे मिलने आयी थी और मेरी अप्रत्याशित ऊलजलूल बातों को सुनकर यदि खीझ न रही होगी तो बोर तो अवश्य ही हो रही होगी। मैंने उससे कहा, ' 'तुम्हारे पति ने तुमसे कहा था कि मैं तुम्हें एक साहित्यिक से मिलाने ले चल रहा हूं। तुम स्वयं साहित्य में रुचि लेती हो। मेरे बारे में तुम्हारे पति का विचार कितना गलत है, यह तो तुम्हें मेरी बातों से मालूम हो ही गया होगा। किंतु शायद मेरी ऊलजलूल बातों से तुम्हारा कुछ मनोरंजन हुआ हो। लो, अब मेरे हाथ की बनाई चाय पियो। आशा है कि वह इतनी मीठी न होगी, जितनी मेरी बातें। मुझे कविता सुनने का शौक है और तुम! कविता करती हो। चाय पीने के बाद अपने कुछ गीत सुनाकर एक बूढ़े का मनोरंजन करने का पुण्य लो। आशा है कि तुम मेरी बातों को एक बूढ़े की बकवास समझकर उसपर अधिक ध्यान न दोगी किंतु इन्हें कह देना कि भविष्य में तुम्हें अपनी पत्नी कहें, धर्मपत्नी नहीं.
--

(श्रीनारायण चतुर्वेदी के व्यंग्य संग्रह से साभार)

सोमवार, 27 मार्च 2023

मुक्तिका, सॉनेट, दिया, कलम, गणगौर, तुम, दोहा गीत, मधुमालती छंद, मनोरम छंद, नवगीत,

मुक्तिका 
मुक्तक का विस्तार मुक्तिका 
हो समान पदभार मुक्तिका 

हिंदी ग़ज़ल इसे कह सकते 
है शब्दों का हार मुक्तिका 

मिटा दूरियाँ सके दिलों से 
रही लुटाती प्यार मुक्तिका 

रहे पदांत-तुकांत सुसज्जित
भावों का श्रृंगार मुक्तिका

यही गीतिका सजल तेवरी
द्विपद मुक्त रसधार मुक्तिका
***
सॉनेट 
दिया 
*
दिया जल गया हुआ उजाला 
जय जय करें अंबिका की सब 
हुआ अँधेरे का मुँह काला 
लगे हो गई है पूनम अब 

दिया जिसे जो लिया न जाता 
तब ही कीर्ति गूँजती जग में 
जो किस्मत में खुद ही आता 
मंज़िल दूर न रहती मग से 

दिया मकां को बना रहा घर 
उतर मयंक धरा पर आया 
दिया कहे हो कोई न बेघर 
रहे प्रियंक सदा सरसैया 

दिया हुलास आस देता है 
दिया न कुछ वापिस लेता है 
***
सॉनेट
कलम
*
कलम न होती अगर हमारे हाथ में
भाग्य विधाता खुद के हम कैसे होते?
कलम न करती भावों की खेती यदि तो
गीत-ग़ज़ल की फसलें हम कैसे बोते?

कलम न करती अक्षर का आराधन तो
शब्द निःशब्दित कहिए कैसे कर पाते?
कलम न रोपी जाती बगिया-क्यारी में
सुमन सुगंधित कैसे दुनिया महकाते?

बक़लम कलम जुड़े मन से मन खत बनकर
थाती पीढ़ी ने पीढ़ी को दी अनुपम
कलम जेब में भाग्य बनाती लिख-पढ़कर
मिली विरासत कल की कल को हर उत्तम

कलम उपस्थित कर देती है चित्र सखे!
कलम गमकती जीवन में बन इत्र सखे!
***

मिसरा - मुलाकात आखिरी समझो
वज़्न -2122 1212 22
क़ाफ़िया— ई स्वर
रदीफ़ - समझो ..
*
मुक्तिका

बात मन की कही खरी समझो
ये मुलाकात आखिरी समझो

चीखती है अगर टिटहरी तो
वाकई है बहुत डरी समझो

दोस्त ही कर रहे दगाबाजी
है तबीयत जरा हरी समझो

हमनशीं हमसफ़र मिली जो भी
ज़िंदगी भर उसे परी समझो

बात 'संजीव' की सुनो-मानो
ये न जुमला, न मसखरी समझो
२७-३-२०१३ 
***
: हिंदी शब्द सलिला - १ :
आइये! जानें अपनी हिंदी को।
हिंदी का शब्द भंडार कैसे समृद्ध हुआ?
आभार अरबी भाषा का जिसने हमें अनेक शब्द दिए हैं, इन्हें हम निरंतर बोलते हैं बिना जाने कि ये अरबी भाषा ने दिए हैं।
भाषिक शुद्धता के अंध समर्थक क्या इन शब्दों को नहीं बोलते?
ये शब्द इतने अधिक प्रचलित हैं कि इनके अर्थ बिना बताए भी हम सब जानते हैं।
कुछ अरबी शब्द निम्नलिखित हैं -
अखबार
अदालत
अल्लाह
अलस्सुबह
आदमकद
आदमी
औकात
औरत
औलाद
इम्तहान
ऐनक
कद्दावर
काफी
किताब
कैद
खत
खातिर
ग़ज़ल
गलीचा
जलेबी
तकिया
तबला
तलाक
तारीख
दिनार
दीवान
बिसात
मकतब
मस्तूल
महक
मानसून
मुहावरा
मौसम
लिहाज
वकील
वक़्त
शहीद
शादी
सुबह
हकीम
***
विमर्श :
गणगौर : क्या और क्यों?
*
'गण' का अर्थ शिव के भक्त या शिव के सेवक हैं।
गणनायक, गणपति या गणेश शिवभक्तों में प्रधान हैं।
गणेश-कार्तिकेय प्रसंग में वे शिव-पार्वती की परिक्रमा कर सृष्टि परिक्रमा की शर्त जीतते हैं।
'कर्पूर गौरं करुणावतारं' के अनुसार 'गौर' शिव हैं। गण गौर में 'गण' मिलकर 'गौर' की पूजा करते हैं जो अर्धनारीश्वर हैं अर्थात् 'गौर' में ही 'गौरी' अंतर्व्याप्त हैं। तदनुसार परंपरा से गणगौर पर्व में शिव-शिवा पूज्य हैं।
'गण' स्त्री-पुरुष दोनों होते हैं किंतु चैत्र में फसल पकने के कारण पति को उसका संरक्षण करना होता है। इसलिए स्त्रियाँ (अपने मन में पति की छवि लिए) 'गौर' (जिनमें गौरी अंतर्निहित हैं) को पूजती हैं। नर-नारी साम्य का इससे अधिक सुंदर उदाहरण विश्व में कहीं नहीं है।
विवाह पश्चात् प्रथम गणगौर पर्व 'तीज' पर ही पूजने की अनिवार्यता का कारण यह है कि पति के मन में बसी पत्नि और पति के मन में बसा पति एक हों। मन का मेल, तन का मेल बने और तब तीसरे (संतान) का प्रवेश हो किंतु उससे भी दोनों में दूरी नहीं, सामीप्य बढ़े।
ईसर-गौर की प्रतिमा के लिए होलिका दहन की भस्म और तालाब की मिट्टी लेना भी अकारण नहीं है। योगी शिव को भस्म अतिप्रिय है। महाकाल का श्रंगार भस्म से होता है। त्रिनेत्र खुलने से कामदेव भस्म हो गया था। होलिका के रूप में विष्णु विरोधी शक्ति जलकर भस्म हो गयी थी। शिव शिवा प्रतिमा हेतु भस्म लेने का कारण विरागी का रागी होना अर्थात् पति का पत्नि के प्रति समर्पित होना, प्रेम में काम के वशीभूत न होकर आत्मिक होना तथा वे विपरीत मतावलंबी या विचारों के हों तो विरोध को भस्मीभूत करने का भाव अंतर्निहित है।
गौरीश्वर प्रतिमा के लिए दूसरा घटक तालाब की मिट्टी होने के पीछे भी कारण है। गौरी, शिवा, उमा ही पार्वती (पर्वत पुत्री) हैं। तालाब पर्वत का पुत्र याने पार्वती का भाई है। आशय यह कि ससुराल में पर्व पूजन के समय पत्नि के मायके पक्ष का सम मान हो, तभी पत्नि को सच्ची आनंदानुभूति होगी और वह पति के प्रति समर्पिता होकर संतान की वाहक होगी।
दर्शन, आध्यात्म, समाज, परिवार और व्यक्ति को एक करने अर्थात अनेकता में एकता स्थापित करने का लोकपर्व है गणगौर।
गणगौर पर १६ दिनों तक गीत गाए जाते हैं। १६ अर्थात् १+६=७। सात फेरों तथा सात-सात वचनों से आरंभ विवाह संबंध १६ श्रंगार सज्जित होकर मंगल गीत गाते हुए पूर्णता वरे।
पर्वांत पर प्रतिमा व पूजन सामग्री जल स्रोत (नदी, तालाब, कुआं) में ही क्यों विसर्जित करें, जलायें या गड़ायें क्यों नहीं?
इसका कारण भी पूर्वानुसार ही है। जलस्रोत पर्वत से नि:सृत, पर्वतात्मज अर्थात् पार्वती बंधु हैं। ससुराल में मंगल कार्य में मायके पक्ष की सहभागिता के साथ कार्य समापन पश्चात् मायके पक्ष को भेंट-उपहार पहुँचाई जाए। इससे दोनों कुलों के मध्य स्नेह सेतु सुदृढ़ होगा तथा पत्नि के मन में ससुरालियों के प्रति प्रेमभाव बढ़ेगा।
कुँवारी कन्या और नवविवाहिता एेसे ही संबंध पाने-निभाने की कामना और प्रयास करे, इसलिए इस पर्व पर उन्हें विशेष महत्व मिलता है।
एक समय भोजन क्योँ?
ऋतु परिवर्तन और पर्व पर पकवान्न सेवन से थकी पाचन शक्ति को राहत मिले। नवदंपति प्रणय-क्रीड़ारत होने अथवा नन्हें शिशु के कारण रात्रि में प्रगाढ़ निद्रा न ले सकें तो भी एक समय का भोजन सहज ही पच सकेगा। दूसरे समय भोजन बनाने में लगनेवाला समय पर्व सामग्री की तैयारी हेतु मिल सकेगा। थके होने पर इस समय विश्राम कर ऊर्जा पा सकेंगे।
इस व्रत के मूल में शिव पूजन द्वारा शिवा को प्रसन्न कर गणनायक सदृश मेधावी संतान धारण करने का वर पाना है। पुरुष संतान धारण कर नहीं सकता। इसलिए केवल स्त्रियों को प्रसाद दिया जाता है। सिंदूर स्त्री का श्रंगार साधन है। विसर्जन पूर्व गणगौर को पानी पिलाना, तृप्त करने का परिचायक है।
२७-३-२०२०
***
गीत :
मैं अकेली लड़ रही थी
*
मैं अकेली लड़ रही थी
पर न तुम पहचान पाये.....
*
सामने सागर मिला तो, थम गये थे पग तुम्हारे.
सिया को खोकर कहो सच, हुए थे कितने बिचारे?
जो मिला सब खो दिया, जब रजक का आरोप माना-
डूब सरयू में गये, क्यों रुक न पाये पग किनारे?
छूट मर्यादा गयी कब
क्यों नहीं अनुमान पाये???.....
*
समय को तुमने सदा, निज प्रशंसा ही सुनाई है.
जान यह पाये नहीं कि, हुई जग में हँसाई है..
सामने तव द्रुपदसुत थे, किन्तु पीछे थे धनञ्जय.
विधिनियंता थे-न थे पर, राह तुमने दिखायी है..
जानते थे सच न क्यों
सच का कभी कर गान पाये???.....
*
हथेली पर जान लेकर, क्रांति जो नित रहे करते.
विदेशी आक्रान्ता को मारकर जो रहे मरते..
नींव उनकी थी, इमारत तुमने अपनी है बनायी-
हाय! होकर बागबां खेती रहे खुद आप चरते..
श्रम-समर्पण का न प्रण क्यों
देश के हित ठान पाये.....
*
'आम' के प्रतिनिधि बने पर, 'खास' की खातिर जिए हो.
चीन्ह् कर बाँटी हमेशा, रेवड़ी- पद-मद पिए हो..
सत्य कर नीलाम सत्ता वरी, धन आराध्य माना.
झूठ हर पल बोलते हो, सच की खातिर लब सिये हो..
बन मियाँ मिट्ठू प्रशंसा के
स्वयं ही गान गाये......
*
मैं तुम्हारी अस्मिता हूँ, आस्था-निष्ठा अजय हूँ.
आत्मा हूँ अमर-अक्षय, सृजन संधारण प्रलय हूँ.
पवन धरती अग्नि नभ हूँ, 'सलिल' हूँ संचेतना मैं-
द्वैत मैं, अद्वैत मैं, परमात्म में होती विलय हूँ..
कर सके साक्षात् मुझसे
तीर कब संधान पाए?.....
*
मैं अकेली लड़ रही थी
पर न तुम पहचान पाये.....
*
⭐⭐⭐⭐👌👌👌👌⭐⭐⭐⭐
सामयिक दोहे
लोकतंत्र की हो गई, आज हार्ट-गति तेज?
राजनीति को हार्ट ने, दिया सँदेसा भेज?
वादा कर जुमला बता, करते मन की बात
मनमानी को रोक दे, नोटा झटपट तात
मत करिए मत-दान पर, करिए जग मतदान
राज-नीति जन-हित करे, समय पूर्व अनुमान
लोकतंत्र में लोकमत, ठुकराएँ मत भूल
दल-हित साध न झोंकिए, निज आँखों में धूल
सत्ता साध्य न हो सखे, हो जन-हित आराध्य
खो न तंत्र विश्वास दे, जनहित से हो बाध्य
नोटा का उपयोग कर, दें उन सबको रोक
स्वार्थ साधते जो रहे, उनको ठीकरा लोक
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गीत
सच्ची बात
*
मेरे घर में हो प्रकाश
तेरा घर बने मशाल
*
मेरा अनुभव है यही
पैमाने हैं दो।
मुझको रिश्वत खूब दो
बाकी मगर न लो।
मैं तेरा रखता न पर
तू मेरा रखे खयाल।
मेरे घर में हो प्रकाश
तेरा घर बने मशाल
*
मेरे घर हो लक्ष्मी,
तेरे घर काली
मुझसे ले मत, दे मुझे
तू दहेज-थाली
तेरा नत, मेरा रहे
हरदम ऊँचा भाल
मेरे घर में हो प्रकाश
तेरा घर बने मशाल
*
तेरा पुत्र शहीद हो
मेरा अफसर-सेठ
तेरी वाणी नम्र हो
मैं दूँ गाली ठेठ
तू मत दे, मैं झटक लूँ
पहना जुमला-माल
मेरे घर में हो प्रकाश
तेरा घर बने मशाल
२७-३-२०१९
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दोहा गीत
*
जो अव्यक्त हो,
व्यक्त है
कण-कण में साकार
काश!
कभी हम पा सकें,
उसके भी दीदार
*
कंकर-कंकर में वही
शंकर कहते लोग
संग हुआ है किस तरह
मक्का में? संजोग
जगत्पिता जो दयामय
महाकाल शशिनाथ
भूतनाथ कामारि वह
भस्म लगाए माथ
भोगी-योगी
सनातन
नाद वही ओंकार
काश!
कभी हम पा सकें,
उसके भी दीदार
*
है अगम्य वह सुगम भी
अवढरदानी ईश
गरल गहे, अमृत लुटा
भोला है जगदीश
पुत्र न जो, उनका पिता
उमानाथ गिरिजेश
नगर न उसको सोहते
रुचे वन्य परिवेश
नीलकंठ
नागेश हे!
बसो ह्रदय-आगार
काश!
कभी हम पा सकें,
उसके भी दीदार
२७-३-२०१८
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नवगीत
*
ताप धरा का
बढ़ा चैत में
या तुम रूठीं?
लू-लपटों में बन अमराई राहत देतीं।
कभी दर्प की उच्च इमारत तपतीं-दहतीं।
बाहों में आ, चाहों ने हारना न सीखा-
पगडंडी बन, राजमार्ग से जुड़-मिल जीतीं।
ठंडाई, लस्सी, अमरस
ठंडा खस-पर्दा-
बहा पसीना
हुई घमौरी
निंदिया टूटी।
*
सावन भावन
रक्षाबंधन
साड़ी-चूड़ी।
पावस की मनहर फुहार मुस्काई-झूमी।
लीक तोड़कर कदम-दर-कदम मंजिल चूमी।
ध्वजा तिरंगी फहर हँस पड़ी आँचल बनकर-
नागपंचमी, कृष्ण-अष्टमी सोहर-कजरी।
पूनम-एकादशी उपासी
कथा कही-सुन-
नव पीढ़ी में
संस्कार की
कोंपल फूटी।
*
अन्नपूर्णा!
शक्ति-भक्ति-रति
नेह-नर्मदा।
किया मकां को घर, घरनी कण-कण में पैठीं।
नवदुर्गा, दशहरा पुजीं लेकिन कब ऐंठीं?
धान्या, रूपा, रमा, प्रकृति कल्याणकारिणी-
सूत्रधारिणी सदा रहीं छोटी या जेठी।
शीत-प्रीत, संगीत ऊष्णता
श्वासों की तुम-
सुजला-सुफला
हर्षदायिनी
तुम्हीं वर्मदा।
*
जननी, भगिनी
बहिन, भार्या
सुता नवेली।
चाची, मामी, फूफी, मौसी, सखी-सहेली।
भौजी, सासू, साली, सरहज छवि अलबेली-
गति-यति, रस-जस,लास-रास नातों की सरगम-
स्वप्न अकेला नहीं, नहीं है आस अकेली।
रुदन, रोष, उल्लास, हास,
परिहास,लाड़ नव-
संग तुम्हारे
हुई जिंदगी ही
अठखेली।
२७-३-२०१६
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छंद सलिला:
मधुमालती छंद
*
लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ७-७, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण) होता है.
लक्षण छंद:
मधुमालती आनंद दे
ऋषि साध सुर नव छंद दे
चरणांत गुरु लघु गुरु रहे
हर छंद नवउत्कर्ष दे।
उदाहरण:
१. माँ भारती वरदान दो
सत्-शिव-सरस हर गान दो
मन में नहीं अभिमान हो
घर-अग्र 'सलिल' मधु गान हो।
२. सोते बहुत अब तो जगो
खुद को नहीं खुद ही ठगो
कानून को तोड़ो नहीं-
अधिकार भी छोडो नहीं
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छंद सलिला:मनोरम छंद
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लक्षण: समपाद मात्रिक छंद, जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, चरणारंभ गुरु, चरणांत गुरु लघु लघु या लघु गुरु गुरु होता है.
लक्षण छंद:
हैं भुवन चौदह मनोहर
आदि गुरुवत पकड़ लो मग
अंत भय से बच हमेशा
लक्ष्य वर लो बढ़ाओ पग
उदाहरण:
१. साया भी साथ न देता
जाया भी साथ न देता
माया जब मन भरमाती
काया कब साथ निभाती
२. सत्य तज मत 'सलिल' भागो
कर्म कर फल तुम न माँगो
प्राप्य तुमको खुद मिलेगा
धर्म सच्चा समझ जागो
३. लो चलो अब तो बचाओ
देश को दल बेच खाते
नीति खो नेता सभी मिल
रिश्वतें ले जोड़ते धन
४. सांसदों तज मोह-माया
संसदीय परंपरा को
आज बदलो, लोक जोड़ो-
तंत्र को जन हेतु मोड़ो
२७-३-२०१४
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मुक्तिका
*
नेताओं का शगल है, करना बहसें रोज.
बिन कारण परिणाम के, क्यों नाहक है खोज..
नारी माता भगिनी है, नारी संगिनी दिव्य.
सुता सखी भाभी बहू, नारी सचमुच भव्य..
शारद उमा रमा त्रयी, ज्ञान शक्ति श्री-खान.
नर से दो मात्रा अधिक, नारी महिमावान..
तैंतीस की बकवास का, केवल एक जवाब.
शत-प्रतिशत के योग्य वह, किन्तु न करे हिसाब..
देगा किसको कौन क्यों?, लेगा किससे कौन?
संसद में वे भौंकते, जिन्हें उचित है मौन..
२७-३-२०१०
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