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रविवार, 22 जून 2025

जून २२, बरसाती जंगल दिवस, न्याय प्रक्रिया, सॉनेट, पूर्णिका, कहमुकरी, सड़गोड़ासनी, सरस्वती, सवैया

सलिल सृजन जून २२
बरसाती जंगल दिवस
*
सॉनेट 
खत्म नहीं जिज्ञासा होती
हर जिज्ञासु अमर होता
ज्ञान समुद में खाता गोता
मति निकाल लाती मोती।
आशा नव सपने बोती
पौरुष नहीं हारकर रोता
धैर्य नहीं विपदा में खोता
पंक सलिल-धारा धोती।

सरगम लय-रस ताना-बाना
शब्द भाव के रंग चढ़ाए
निशि नित चादर बुने मौन रह।
कहे कबीर न जोड़-बचाना
खाली हाथों आए-जाए
रहा हमेशा कभी कौन कह?
२२.६.२०२५
०0०
पूर्णिका
भोर भई सूरज टेरत रे!
उसा बुलाउत पथ हेरत रे!
.
छिमा माँग भू माँ पे पग धर
बिलम नें कर आलस घेरत रे!
.
बगुला भगत बजाउत घंटी 
भोग तके, माला फेरत रे!
.
आस किरन कुररी की नाईँ
अँधियारा लोफर छेरत रे!
.
'सलिल' दनादन भोग गटक खें
भगतन खौं ठाकुर पेरत रे!
२२.६.२०२५
०0०
विमर्श:
न्याय प्रक्रिया बदलाव जरूरी
*
न्याय क्या?
निर्बल-असहाय को उसका अधिकार दिलाना।
देनेवाला- न्यायाधीश
माध्यम- अधिवक्ता
प्रक्रिया- वाद स्थापित करना।
सुलभता नहीं, सहजता नहीं, सरलता नहीं।
अत्यंत खर्चीली, समयखाऊ, जटिल, उलझन भरी, कानूनी दाँव-पेंच में सत्य की हत्या।
वकालतनामा- मुवक्किल से सभी अधिकार छीनकर वकील को देता है।
वकील मनमानी करता है। फीस लेकर भी पेशी पर नहीं जाता, तारीख बढ़ना कर बार-बार पैसे माँगता है, वाद के सत्य को छिपाकर जीत के लिए झूठे साक्ष्य और साक्षी गढ़कर न्यायालय की आँख में धूल झोंकता है।
कोढ़ में खाज यह कि मुवक्किल के हित संरक्षण के स्थान पर वकील और न्यायपालिका अपने संरक्षण की माँग करते हैं।
अनेक असामाजिक तत्व वकील बन गए हैं जो न्याय पालिका और मुवक्किल दोनों में दहशत फैलाते हैं।
सड़-गल रही व्यवस्था बदलें।
न्याय प्राप्ति के लिए वकील की आवश्यकता समाप्त की जाए।
जूरी प्रणाली लागू की जाए। वाद स्थापित करते समय ही वादी पूरा घटनाक्रम और दस्तावेज न्यायालय और प्रतिवादी को दे। प्रतिवादी अपना उत्तर न्यायालय व वादी को निर्धारित समय सीमा में उपलब्ध कराए। पहली पेशी में जूरी दोनों को सुनकर शेष दस्तावेज या साक्षी प्रस्तुत करने हेतु दूसरी पेशी दे। सामान्य प्रकरणों में तीसरी, महत्वपूर्ण प्रकरणों में पाँचवी पेशी में फैसला हो। न्यायडीश की सहायता के लिए वकील जूरी सदस्य हो जीसे मानदेय/भत्ता मिले। वादी-प्रतिवादी जूरी शुल्क न्यायालय में जमा करें, वकील को फीस न दें।
इससे न्याय प्रक्रिया सरल, सस्ती, सुलभ, शीघ्र तथा निष्पक्ष होगी।
कुछ वर्षों में वाद प्रकरणों के अंबार कम और समाप्त होने लगेंगे।
२२.४.२०२३
***
कविता के शब्द
यदि "आपके दिमाग़ में कविता के शब्द उस तरह नहीं आते हैं जैसे पेड़ों पर पत्ते, तो बेहतर होगा कि आप कविता लिखने के बारे में सोचें ही नहीं। यानी अच्छी कविता वही लिख सकते हैं जिन्हें कविता के शब्द सोचने की ज़रूरत न पड़े । वे ख़ुद-ब-ख़ुद आने शुरू हो जाएँ और कविता बनती जाए ।"
- जाॅन कीट्स
कथा लिखती हूँ इतिहास नहीं
"मैंने जितना भी लिखा है शत-प्रतिशत मेरा भोगा हुआ यथार्थ है, यह मैं नहीं कह सकती क्योंकि मैं कथा लिखती हूँ, इतिहास नहीं । मेरा काम है कहानी को ढूँढ़ना, किन्तु अगाध जलराशि से इस कथा-मीन को पकड़ने में केवल कल्पना के काँटे से ही काम नहीं चलता, यथार्थ के आटे की गोली भी उतनी ही आवश्यक होती है।"
- शिवानी (रमेश बतरा/सतीश चंद्र धींगड़ा के किसी प्रश्न पर - 1983)
*
कहमुकरी
जिसने जन्म दिया पाला है
कदम-कदम देखा-भाला है
जिसका सिर पर हाथ हमेशा
क्या सखि! दाता?
ना सखि पिता।
थाम कलाई नाजुक कोमल
बात करे मुस्काकर पल-पल
मैं न सकी उसको फटकार
क्या सखि सजना?
ना, मनिहार।
जैसे ही आए, छा जाए
बिना कारण ही शोर मचाए
पड़े न उसको पल भर कल
क्या सखि प्रियतम?
न, सखी बादल।
पता नहीं पड़ती गहराई
रौद्र नहीं, छवि शांत सुहाई
दे उपहार न पूर्व बताकर
सखि! घरवाला
नहिं रत्नाकर।
जब मिलती तभी मिलता चैन
मिलती नहीं तो मन बेचैन
अँखियों को भाए ज्यों सखियाँ
उत्तर बिंदिया?
नहिं सखी निंदिया।
याद भुलाए से नहिं भूले
पलक बंद नैनों में झूले
संग सेज पर आए, भाए
यारां बन्नी?
ना रे! निन्नी।
बीन बिना वह बीन बजा ले
गैरों से अपनापन पाले
नहीं तनिक भी रखता अंतर
बूझूँ? मच्छर
ना रे! झींगुर।
बिन मंडप वह डाले फेरे
मंत्र पढ़े, सजनी को टेरे
भैंस बराबर उसको अक्षर
लालबुझक्कड़?
नहिं रे मच्छर।
बिन चेताए करता हमला
रोक न पाता कोई अमला
बिन कारण होता हमलावर
पाक-चाइना?
ना सखि! मच्छर।
जब बोले तब मन को भाए
मौन रहे तो याद न जाए
पंथ हेर मन होता बेकल
क्या वह नूपुर?
ना रे हूटर।
सचमुच है वह बिल्कुल अपना
नाप न पाता कोई नपना
जब दिखता तब बहुत लुभाता
गुइयाँ सजना?
ना सखि! सपना।
स्वप्न दिखाकर तोड़ा करता
मँझधारों में छोड़ा करता
करा न कहता, कहा न करता
समझी, बेटा
ना सखि! नेता।
२२-६-२०२२
•••
मैया शारदे! पत रखियो
*
छंद - सड़गोड़ासनी।
पद - ३, मात्राएँ - १५-१२-१५।
पहली पंक्ति - ४ मात्राओं के बाद गुरु-लघु अनिवार्य।
गायन - दादरा ताल ६ मात्रा।
*
मैया शारदे! पत रखियो
मोखों सद्बुधि दइयो
मैया शारदे! पत रखियो
जा मन मंदिर मैहरवारी
तुरतइ आन बिरजियो
मैया शारदे! पत रखियो
माया-मोह राच्छस घेरे
झट सें मार भगइयो
मैया शारदे! पत रखियो
अनहद नाद सुनइयो माता!
लागी नींद जगइयो
मैया शारदे! पत रखियो
भासा-आखर-कवित मोय दो
लय-रस-भाव लुटइयो
मैया शारदे! पत रखियो
मात्रा-वर्ण; प्रतीक बिम्ब नव
अलंकार झलकइयो
मैया शारदे! पत रखियो
२५-११-२०१९
***
शारद वंदन
*
बीना लेकर प्रगट हों, बीनावादिनी साथ
कृपा कोर कर हो सदय, रखो सीस पै हाथ
मोरी मति चकरानी है, ऐ मैया! मोए बचा लइयो
मो खों गैल भुलानी है, ऐ मैया! पार लगा दइयो
जनम-जनम की मैली चादर
रीती सत करमन की गागर
सदय नईं नटराज हो रए
दया नईँ कर रए नटनागर
प्रभु की कृपा करानी है, रमा-उमा लै आ जइयो
तनक न जानौं पूजन-वंदन
नईँ जुट रए अच्छत्-चंदन
प्रगट नें होते चित्रगुप्त जू
सदय नें होते गिरिजानंदन
दरसन की जिद ठानी है, ऐ मैया! दरस दिला दइयो
सारद! हंसबाहिनी माता
सकल भुवन तुमरे जस गाता
नीर-छीर मति दो ममतामई!
कलम लए कर रऔ जगराता
अलंकार रस छंद न जानूँ, भगतें सुझा लिखा लइयो
११-६-२०२०
***
शारद वंदना
सतमात्रिक नवान्वेषित छंद
सूत्र : ननल।
*
सुर सति नमन
नित कर अमन
*
मुख छवि प्रखर
स्वर-ध्वनि मधुर
अविचल अजर
अविकल अमर
कर नव सृजन
सुरसति नमन
*
पद दल असुर
रच पद स-सुर
कर जननि घर
मम हृदयपुर
कर गह सु मन
सुरसति नमन
*
रस बन बरस
नित धरणि पर
शुभ कर मुखर
सुख रच प्रचुर
शुभ मृदु वचन
सुरसति नमन
२२-६-२०२०
***
नवान्वेषित सवैया
गणसूत्र - जरज रजर जर।
वर्ण यति - ८-८-८ ।
मात्रा यति - १२-१२-१२।
*
तलाशते रहे कमी, न खूबियाँ निहारते, प्रसन्नता कहाँ मिले?
विरासतें रहे हमीं, न और को पुकारते, हँसी-खुशी कहाँ मिले?
बटोरने रहे सदा, न रंकबंधु हो सके, न आसमां-जमीं मिले।
निहारते रहे छिपे, न मीत प्रीत पा सके, मिले- कभी नहीं मिले ।
२२-६-२०१९
९४२५१८३२४४
***
हम अभियंता...
*
हम अभियंता!, हम अभियंता!!
मानवता के भाग्य-नियंता...
*
माटी से मूरत गढ़ते हैं,
कंकर को शंकर करते हैं.
वामन से संकल्पित पग धर,
हिमगिरि को बौना करते हैं.
नियति-नटी के शिलालेख पर
अदिख लिखा जो वह पढ़ते हैं.
असफलता का फ्रेम बनाकर,
चित्र सफलता का मढ़ते हैं.
श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे-
फिर भविष्य की क्यों हो चिंता...
*
अनिल, अनल, भू, सलिल, गगन हम,
पंचतत्व औजार हमारे.
राष्ट्र, विश्व, मानव-उन्नति हित,
तन, मन, शक्ति, समय, धन वारे.
वर्तमान, गत-आगत नत है,
तकनीकों ने रूप निखारे.
निराकार साकार हो रहे,
अपने सपने सतत सँवारे.
साथ हमारे रहना चाहे,
भू पर उतर स्वयं भगवंता...
*
भवन, सड़क, पुल, यंत्र बनाते,
ऊसर में फसलें उपजाते.
हमीं विश्वकर्मा विधि-वंशज.
मंगल पर पद-चिन्ह बनाते.
प्रकृति-पुत्र हैं, नियति-नटी की,
आँखों से हम आँख मिलाते.
हरि सम हर हर आपद-विपदा,
गरल पचा अमृत बरसाते.
'सलिल' स्नेह नर्मदा निनादित,
ऊर्जा-पुंज अनादि-अनंता...
९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
***
पुस्तक चर्चा:
लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार : गीत-नवगीतों का आगार
चर्चाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण: लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार, संपादक मधुकर अष्ठाना, प्रथम संकरण, वर्ष २००९, आकार २२ से.मी. x १५ से.मी., आवरण बहुरंगी सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १४४, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन एम् १६८ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, चलभाष ९८३९८२५०६२]
*
अवधी तहजीब और शामे लखनऊ का सानी नहीं। शाम के इंद्रधनुषी रंगों को गीत-नवगीत, ग़ज़ल और अन्य विधाओं में घोलकर उसका आनंद लेना और देना लखनऊ की अदबी दुनिया की खासियत है। अग्रजद्वय निर्मल शुक्ल और मधुकर अष्ठाना लखनवी अदब की गोमती के दो किनारे हैं। इन दोनों के व्यक्तित्व और कृतित्व ने साहित्य सलिला में अनेक कमल पुष्प खिलाने में महती भूमिका अदा की है। विवेच्य कृति एक ऐसा ही साहित्यिक कमल है। इस कमल पुष्प की १५ पंखुड़ियाँ १५ श्रेष्ठ ज्येष्ठ गीतकार हैं। सम्मिलित गीतकारों के नाम, गीत और पृष्ठ संख्या इस प्रकार है- कुमार रवीन्द्र ५ /७, निर्मल शुक्ल ८ / १०, भारतेंदु मिश्र ५/६, राजेंद्र वर्मा ८/९, शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान ८/९, कैलाश नाथ निगम ८/१०, डॉ. रामाश्रय सविता ८/९, डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ८ /१०, डॉ. सुरेश ८/१०, शिव भजन कमलेश ८/९, रामदेव लाल विभोर ८/१०, अमृत खरे ८/९, श्याम नारायण श्रीवास्तव ८/१०, निर्मला साधना ८/१० तथा मधुकर अष्ठाना ८/१०। पुस्तक प्रकाशन के समय वरिष्ठतम सहभागी निर्मला साधना जी ७९ वर्षीय तथा कनिष्ठतम सहयोगी राजेंद्र वर्मा ५४ वर्षीय के मध्य २५ वर्षीय काल खंड है।
इन सभी काव्य सर्जकों की अपनी पहचान गंभीर सर्जक के रूप में रही है। आत्मानुशासन और साहित्यिक मानकों के अनुरूप रचनाधर्म का निर्वहन करने के प्रति संकल्पित-समर्पित १५ रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाओं का यह संकलन काव्योद्यान से चुनी गयी काव्य-कलिकाओं का रंग-बिरंगा गुलदस्ता है। हर रचना का विषय, कथ्य, शिल्प और शैली नवोदितों के लिये पाठ्य सामग्री की तरह पठनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है।
गीत-नवगीत के शलाका पुरुष डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' ने पुरोवाक में ठीक ही लिखा है: "साहित्य और काव्य भी परिस्थिति, परिवेश और देश-कालगत सापेक्षता में अपने उत्कर्षापकर्ष की यात्रा को पूरा करता है। रूढ़ि और गतानुगतिकता की भी इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती है जो विशिष्ट काव्य परंपरा और तदनुरूप शैलियों को जन्म देती है। उच्चकोटि के प्रतिभा संपन्न रचनाकार समय-समय पर क्रमागत शैलियों को उच्छिन्न करते हुए नयी अभिव्यक्ति और नव्यतर प्रारूपों के माध्यम से किसी नवोन्मेष को जन्म देते हैं।" चर्चित संग्रह में ऐसे हस्ताक्षरों को सम्मिलित किया गया है जिनमें नवोन्मेष को जन्म देने की न केवल सामर्थ्य अपितु जिजीविषा भी है।
कुमार रवीन्द्र जी नवगीत के शिखर हस्ताक्षर हैं। 'कहो साधुओं' शीर्षक नवगीत में साधुओं का वेश रखे हत्यारों का इंगित, 'हुआ खूब फ्यूजन' में पूर्व और पश्चिम के सम्मिलन से उपजी विसंगति, 'कहो बचौव्वा' में नव सक्रियता हेतु आव्हान, 'बोले भैया' में दिशाहीन परिवर्तन, 'इन गुनाहों के समय में' में युगीन विद्रूपता को केंद्र में रखा गया है। रवीन्द्र जी कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक और गहरी से गहरी बात कहने में सिद्धहस्त हैं। बानगी देखें-
'ईस्ट-वेस्ट' का / अब तो साधो, हुआ खूब 'फ्यूजन' / राजघाट पर / हुआ रात कल मैडोना का गान / न्यूयार्क में जाकर फत्तू / बेच रहे हैं पान / हफ्ते में है / तीन दिनों की 'योगा' की ट्यूशन / वेस्ट विंड है चली / झरे सब पत्ते पीपल के / दूर देश में जाकर / अम्मा के आँसू छलके / वहाँ याद आता है उनको / रह-रह वृन्दावन '।
निर्मल शुक्ल जी नवगीत दरबार के चमकते हुए रत्न हैं। 'दूषित हुआ विधान' तथा ऊँचे झब्बेवाली बुलबुल में पर्यावरणीय प्रदूषण, 'आँधियाँ आने को हैं' में प्रशासनिक विसंगति, 'छोटा है आकाश', लकड़ीवाला घोड़ा', 'सब कोरी अफवाह', 'प्राणायाम' तथा 'विशम्भर' शीर्षक नवगीतों में युगीन विडंबना पंक्ति-पंक्ति में मुखरित हुई है। निर्मल जी अभिव्यंजना में अनकही को कहने में माहिर हैं।
'एक था राजा / एक थी रानी / इतनी एक कहानी / गिनी-चुनी सांसों में भी, तय / रिश्तों का बँटवारा / जितना कुछ आकाश मिला, वह / सब खारा का खारा / मीठी नींद सुला देने के / मंतर सब बेकार / गुडिया के घर / गूँगी नानी / इतनी एक कहानी।
भारतेंदु मिश्र जी प्रगतिशील विचारधारा के गीतकार, समीक्षक और शिक्षाविद हैं। आपके पाँच नवगीतों में समाज के दलित-शोषित वर्ग का संघर्ष और पीड़ा मुखरित हुई है। अधुनातनता की आँधी में काँपती पारम्परिकता की दीपशिखा के प्रति चिंतित भारतेंदु जी के नवगीत, सामाजिक विद्रूपताओं को उद्घाटित करते हैं- 'रामधनी का बोझ उठाते / कभी नहीं अकुलाई / जलती हुई मोमबती है / रामधनी की माई / रामधनी मन से विकलांग / क्या जाने दुनिया के स्वांग? / भूख-प्यास का ज्ञान न उसको / जाने उसकी माई / जल बिन मछली सी रहती है / रामधनी की माई।
राजेन्द्र वर्मा जी साहित्यिक लेखन में भाषिक शुद्धता और विधागत मानकों के प्रति सजगता के पक्षधर हैं। 'कौन खरीदे?' में पारंपरिक चने पर हावी होते पाश्चात्य फास्ट फ़ूड से उपजी सामाजिक विसंगति, 'मीना' में श्रमजीवी युवती का विवाह न हो पाने से संत्रस्त परिवार, 'पर्वत ने धरा संन्यास' में सामाजिक बिखराव, 'अगरासन निकला', 'सत्यनरायन', 'बैताल' तथा 'कागजवाले घुड़सवार' में सामाजिक विसंगतियों का संकेत, दिल्ली का ढब' में राजनैतिक पाखण्ड पर सशक्त प्रहार दृष्टव्य है। 'बैताल' की कुछ पंक्तियाँ देखें-
'बूढ़े बरगद! / तू ही बतला, कैसे बदलूँ चाल? / मेरे ही कन्धों पर बैठा मेरा ही बेताल / स्वर्णछत्र की छाया में पल रहा मान-सम्मान / अमृतपात्र में विष पीने का मिलता है वरदान / प्रश्नों के पौरुष के आगे / उत्तर हैं बेहाल'
'कुटी चली परदेश कमाने' में गाँवों का सहारों के प्रति बढ़ता मोह, 'खड़े नियामक मौन' में असफल होती व्यवस्था, 'दो रोटी की खातिर', 'पंख कटे पंछी निकले हैं', 'काली बिल्ली ढूँढ रही है' तथा 'सोने के पिंजड़े' में सामाजिक वैषम्य, 'पराजित हो गए' में प्राकृतिक सौन्दर्य और अनुराग को शब्दित किया है शीलेंद्र सिंह चौहान जी ने। प्रशासनिक पदाधिकारी होते हुए भी विसंगतियों पर प्रहार करने में शीलेन्द्र जी पीछे नहीं हैं। वे नवगीत को केवल वैषम्य अभिव्यक्ति सीमित न रख प्रेम-सौंदर्य और उल्लास का भी माध्यम बनाते हैं-
'लो पराजित हो गए फिर / कँपकँपाते दिन / ढोलकों की थाप पर / गाने लगा फागुन / बज उठी मंजीर-खँजरी पर सुहानी धुन / आ गए मिरदंग, डफ / झाँझें बजाते दिन ... बोल मुखरित हो उठे / फिर नेह-सरगम के / कसमसाने लग गए / जड़बंध संयम के / आ गए फिर प्यार का / मधुरस लुटाते दिन'
'मधुऋतु ने आँखें फेरी', 'समय सत्ता', 'मीठे ज्वालामुखी', 'कब तक और सहें', 'आओ प्यार करें, इस कोने से उस कोने तक', 'मेरे देश अब तो जाग' तथा 'मिलता नहीं चैन' जैसे सरस गीतों-नवगीतों के माध्यम से कैलाशनाथ निगम जी ने संग्रह की शोभा-वृद्धि है। देश-काल-परिस्थिति के परिवर्तन को इंगित करती पंक्तिओं का रस लें-
'पीछे से तो वार, सामने मिसरी घुले वचन / शीशे जैसे मन को मिलता बस पथरीलापन / सच्चाई में जीनेवाली प्रथा निषिद्ध हुई / पल-पल रूप बदलनेवाली प्रथा प्रसिद्ध हुई / कानूनों की व्याख्या करती बुद्धि शकुनियों की / भीष्म हुए हैं मौन, लूट वैधानिक सिद्ध हुई / जनता का पांचाली जैसा होता चीर हरण।'
डॉ. रामाश्रय सविता जी के गीत 'ज़िंदगी तलाश हो गई', 'अपने में पराजय, 'आज का आदमी, 'रौशनी और आदमी', 'एक बार फिर', 'परजीवी बेल', 'कई ज़ीवन' तथा 'गधे रहे झूम' में पारंपरिक कथ्य और शिल्प मुखरित हुआ है। समय और परिस्थितियों में बढ़ रही विसंगतियों को इंगित किया है सविता जी ने-
'धरती के कोनों में आग लगी, / ताप रहे लोग / आत्मनिष्ठ व्यक्ति खड़े संशय के द्वार / कुंठा के पृष्ठ रहे जोरों से बाँच / उमस-घुटन के फेरे नचा रहे नाच / दिग्भ्रम का खूब मिला अक्षय-भण्डार।'
'किसी की याद आई', 'पितृपक्ष में', 'दूर ही रहो मिट्ठू', 'यह न पूछो', 'गीत छौने', 'क्षमा बापू', 'खत मिला' तथा 'जोड़ियाँ तो बनाता है रब' शीर्षक गीत-नवगीतों में डॉ. गोपालकृष्ण शर्मा ने सामाजिक बदलावों के परिप्रेक्ष्य में उपजी विसंगतियों को उद्घाटित करते हुए उनके उन्मूलन की कामना को स्वर दिया है-
'हाथ पकड़ अपने पापा का / हठ मुद्रा में बच्चा बोला / चलिए पापा / पितृपक्ष में बाबाजी को / वृद्धाश्रम से घर ले आयें .... पूरे साल नहीं तो छोड़ो / पितृपक्ष में ही कम से कम / बाबाजी को वापिस लाकर / मन-माफिक भोजन करवायें '. कृतघ्न पुत्र को उसके कर्तव्य का स्मरण कराता उसका पुत्र विसंगति मुक्त भविष्य के प्रति गीतकार की आस्था को इंगित करता है।
डॉ. सुरेश लिखित ' हम तो ठहरे यार बंजारे', 'सोने के दिन, चाँदी के दिन', 'मन तो भीगे कपड़े सा', 'समय से कटकर कहाँ जाएँ', 'कंधे कुली बोझ शहजादे', 'मैं घाट सा चुपचाप', 'दूर से चलकर', 'घर न लगे घर' आदि गीत-नवगीतों में युगीन विषमता को इंगित करते हुए विवशता को शब्द दिए गए हैं। इनमें परिवर्तन की मौन चाहत भी मुखर हो सकी है।
'वो नदी / मैं घाट सा चुपचाप / काटती है / काल की धारा मुझे भी / चोट करती हर पहर / टूटना ही / बिखरना ही नियति मेरी।' इस विवशता का चोला उतारकर बदलाव का आव्हान भी नवगीत को करना होगा। तभी उसकी सार्थकता सिद्ध होगी।
शिव भजन कमलेश जी 'कितना और अभी सोना हैँ, 'अपनी राह बनाऐंगे', 'सीताराम पढ़ो पट्टे', 'गाँव छोड़ क्या लेने आये', 'बिगड़ गया सब खेल', 'पोखर, पनघट, घाट, गली', 'महानगर' तथा 'तमाशा' शीर्षक रचनाओं में विसंगतियों को सामने लाते हैं। पारम्परिक गीतों के कलेवर में विस्तार तो है किन्तु पैनापन नहीं है। 'अपने में ही उलझा-सहमा / दिखता महानगर / जैसे बेतरतीब समेटा पड़ा हुआ बिस्तर / सड़कें कम पड़ गईं, गाड़ियाँ इतनी बढ़ी हुईं / महाजाल बन रहीं मकड़ियाँ जैसे चढ़ी हुईं / भाग्यवान ही पूरा करते / जोखिम भरा सफ़र।'
हिंदी छंद शास्त्र के मर्मज्ञ रामदेव लाल 'विभोर' जी के 'कैसा यह अवरोह', 'मैं घड़ी हूँ', 'भरा कंठ तक दूषित जल है', 'बाज न आये बाज', 'कैसे फूल मिले', 'फूटा चश्मा बूढ़ी आँखें', 'वक्त' तथा 'अभी-अभी' शीर्षक गीतों-की कहन स्पष्ट तथा शैली सहज है।
'दो-दो होते चार / कहो क्या संशय है? / सर्पों की भरमार कहो क्या संशय है? / मोटा अजगर पड़ा राह में / काला विषधर छुपा बाँह में / बाहर-भीतर वार कहो क्या संशय है?'
'जीवन एक कहानी है', 'फिर याद आने लगेंगे', 'गुजरती रही जिंदगी', 'देह हुई मधुशाला', 'अभिसार गा रहा हूँ', 'फिर वही नाटक','जीवन की भूल भूलभुलैया' तथा 'कहाँ आ गया' शीर्षक गीतों में अमृत खरे जी सहज बोधगम्य और सरस हैं। एक बानगी देखें-
'फिर वही नाटक, वही अभिनय / वही संवाद, सजधज / अब चकित करता नहीं है दृश्य कोई / मंच पर जो घट रहा / झूठा दिखावा है / सत्य तो नेपथ्य में है / यह प्रदर्शन तो / कथानक की / चतुर अभिव्यक्ति के / परिप्रेक्ष्य में है / फिर वही भाषण, वही नारे / वही अंदाज़, वादे / अब भ्रमित करता नहीं है दृश्य कोई।'
सरस गीत-नवगीतकार श्यामनारायण श्रीवास्तव जी के गीत-नवगीत 'माँ उसारे में पड़ी लाचार', 'रामदीन', 'क्यों भाग लूँ धन-धाम से', 'बदली समय की संहिता', 'चाहता मन पुण्य तोया धार', 'द्वारिका नयी बसने दो', 'पकड़े रहना हाथ पिया', तथा 'जीने के बहाने' आनंदित करते हैं। 'रामदीन' की व्यथा-कथा दृष्टव्य है-
''वैसे रामदीन उनको / परमेश्वर कहता है / पर मन ही मन उनसे / थोड़ा बचकर रहता है / कन्धों पर बंदूकें उनके / होठों पर वंशी / पंच, दरोगा, न्याय, दंड / सबके सब अनुषंगी / जैसे भी हो रामदीन को / जीना तो है ही / मजबूरी में उनकी हाँ में / हाँ भी करता है'
संग्रह की एकमात्र महिला गीतकार निर्मला साधना जी के गीत 'क्षोभ नहीं पीड़ा ढोई है', 'साँसें शिथिल हुई जाती हैं', ' अतीत के ताने-बाने', 'लाई कौन सन्देश', 'संख्यातीत क्षणों में' तथा 'पूछ रे मत कौन हूँ मैं' से उनकी सामर्थ्य का परिचय मिलता है। आपकी रचनाओं में यत्र-तत्र छायावाद के दर्शन हो जाते हैं। कहन और कथन की स्पष्टता आपका वैशिष्ट्य है।
'मन का विश्वामित्र डिगा तो / दोष कहाँ संयम का इसमें / तन वैरागी हो जाता है / मन का होना बहुत कठिन है / अनहद नाद कहीं गूँजा तो / कहीं बजे नूपुर-अलसाई / कहीं हुई पीड़ा मर्माहत / कहीं फुहारों की अँगड़ाई / जिस दिन झूठा प्यार हो गया / वह युग का सबसे दुर्दिन है।'
संग्रह के अंतिम कवि तथा संपादक मधुकर अष्ठाना जी हिंदी तथा भोजपुरी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। अष्ठाना जी का हर नवगीत नए रचनाकारों के लिए मानक की तरह है। 'उगे शूल ही शूल', 'नया निजाम', 'कन्धों पर सर', ' आज अशर्फी बनी रुपैया', 'उसकी चालें', 'गली-गली में डगर-डगर में', 'और कितनी देर' तथा चाँदी, चाँवल, सोना, रोटी जैसे नवगीतों में विसंगतियों को चित्रित करने में मधुकर जी सफल हुए हैं।
कंधों पर सर रखने का / अब कोई अर्थ नहीं / केवल यहाँ संबंधों का ही / जीवन व्यर्थ नहीं / विश्वासों के मेले में / हैं ठगी-ठगी साँसें / गाड़ी हुई सबके सीने में / सोने की फाँसें / चीख-चीख कर हारे / लगता शब्द समर्थ नहीं।'
'लगता शब्द समर्थ नहीं' कहने के बाद भी मधुकर अष्ठाना जी से बेहतर और कौन जानता है कि उनके शब्द कितने समर्थ हैं। यह संग्रह रचनाकारों, अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए समान रूप से उपयोगी है। गीतों-नवगीतों की विविध भाव भंगिमाओं से पाठक का साक्षात् कराता यह संकलन तो युगों की कारयित्री प्रतिभाओं के रचनाकर्म के तुलनात्मक अध्ययन के लिए निस्संदेह बहुत उपयोगी है। इस सारस्वत अनुष्ठान के लिए मधुकर जी, निर्मल जी और सभी सहभागी रचनाकार साधुवाद के पात्र हैं।
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, २०४विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४।
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विमर्श
प्रश्न: भारतीय बोलियाँ हिंदी का हिस्सा हैं या नहीं?
हिस्सा हैं तो अलग मान्य क्यों?,
हिस्सा नहीं हैं तो उनके साहित्यकारों को हिंदी का माना जाए या नहीं??
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भारत की सभी बोलियाँ भाषाएँ हिंदी की बहनें हैं. विद्यापति भारत और हिंदी के भी हैं. आपस में फूट डालने का कार्य निंदनीय है. सूर को ब्रज, तुलसी को अवधी, जगनिक और ईसुरी को बुंदेली, चंद बरदाई को राजस्थानी, खुसरो-कबीर को उर्दू का कवि बताकर हिंदी को विपन्न करने की दुर्बुद्धि हमें कदापि स्वीकार्य नहीं है. हम हिंदीभाषी तो भारत की हर भाषा और बोली के हर रचनाकार को अपनाते हैं. हिंदी महासागर है. होना तो यह चाहिए कि हर भाषा बोली के सामान्य प्रयोग में आनेवाले शब्द हिंदी शब्दकोष में उसी तरह सम्मिलित किये जाएँ जैसे अंग्रेजी विश्व की विविध भाषाओँ के शब्द लेती है. भारत की सब भाषाओँ केबहु उपयोगी शब्दों से समृद्ध हिंदी उन्हें तभी अपनी लगेगी जब हिंदी में वे अपने शब्द भी पायेंगे. आवश्यकता डॉ. प्रभाकर माचवे जैसे बहुभाषा-बोलीविद होने की है. सब एक-दुसरे की बोलीओं में लिखें. साहित्यकार को राजनीति में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है. सियासत सिया के सत से पूरी तरह दूर है. साहित्यकार शब्द-सेतु बनाकर ही सद्भावना-सेतु बना सकेगा.
२२-६-२०१७
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विमर्श :
हिंदी की शब्द सलिला
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आजकल हिंदी विरोध और हिनदी समर्थन की राजनैतिक नूराकुश्ती जमकर हो रही है। दोनों पक्षों का वास्तविक उद्देश्य अपना राजनैतिक स्वार्थ साधना है। दोनों पक्षों को हिंदी या अन्य किसी भाषा से कुछ लेना-देना नहीं है। सत्तर के दशक में प्रश्न को उछालकर राजनैतिक रोटियाँ सेंकी जा चुकी हैं। अब फिर तैयारी है किंतु तब आदमी तबाह हुआ और अब भी होगा। भाषाएँ और बोलियाँ एक दूसरे की पूरक हैं, प्रतिस्पर्धी नहीं। खुसरो से लेकर हजारीप्रसाद द्विवेदी और कबीर से लेकर तुलसी तक हिंदी ने कितने शब्द संस्कृत. पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, बुंदेली, भोजपुरी, बृज, अवधी, अंगिका, बज्जिका, मालवी निमाड़ी, सधुक्कड़ी, लश्करी, मराठी, गुजराती, बांग्ला और अन्य देशज भाषाओँ-बोलियों से लिये-दिये और कितने अंग्रेजी, तुर्की, अरबी, फ़ारसी, पुर्तगाली आदि से इसका कोई लेख-जोखा संभव नहीं है.
इसके बाद भी हिंदी पर संकीर्णता, अल्प शब्द सामर्थ्य, अभिव्यक्ति में अक्षम और अनुपयुक्त होने का आरोप लगाया जाना कितना सही है? गांधी जी ने सभी भारतीय भाषाओँ को देवनागरी लिपि में लिखने का सुझाव दिया था ताकि सभी के शब्द आपस में घुलमिल सकें और कालांतर में एक भाषा का विकास हो किन्तु प्रश्न पर स्वार्थ की रोटी सेंकनेवाले अंग्रेजीपरस्त गांधीवादियों और नौकरशाहों ने यह न होने दिया और ७० के दशक में हिन्दीविरोध दक्षिण की राजनीति में खूब पनपा।
संस्कृत से हिंदी, फ़ारसी होकर अंग्रेजी में जानेवाले अनगिनत शब्दों में से कुछ हैं: मातृ - मातर - मादर - मदर, पितृ - पितर - फिदर - फादर, भ्रातृ - बिरादर - ब्रदर, दीवाल - द वाल, आत्मा - ऐटम, चर्चा - चर्च (जहाँ चर्चा की जाए), मुनिस्थारि = मठ, -मोनस्ट्री = पादरियों आवास, पुरोहित - प्रीहट - प्रीस्ट, श्रमण - सरमन = अनुयायियों के श्रवण हेतु प्रवचन, देव-निति (देवों की दिनचर्या) - देवनइति (देव इस प्रकार हैं) - divnity = ईश्वरीय, देव - deity - devotee, भगवद - पगवद - pagoda फ्रेंच मंदिर, वाटिका - वेटिकन, विपश्य - बिपश्य - बिशप, काष्ठ-द्रुम-दल(लकड़ी से बना प्रार्थनाघर) - cathedral, साम (सामवेद) - p-salm (प्रार्थना), प्रवर - frair, मौसल - मुसल(मान), कान्हा - कान्ह - कान - खान, मख (अग्निपूजन का स्थान) - मक्का, गाभा (गर्भगृह) - काबा, शिवलिंग - संगे-अस्वद (काली मूर्ति, काला शिवलिंग), मखेश्वर - मक्केश्वर, यदु - jude, ईश्वर आलय - isreal (जहाँ वास्तव इश्वर है), हरिभ - हिब्रू, आप-स्थल - apostle, अभय - abbey, बास्पित-स्म (हम अभिषिक्त हो चुके) - baptism (बपतिस्मा = ईसाई धर्म में दीक्षित), शिव - तीन नेत्रोंवाला - त्र्यम्बकेश - बकश - बकस - अक्खोस - bachenelion (नशे में मस्त रहनेवाले), शिव-शिव-हरे - सिप-सिप-हरी - हिप-हिप-हुर्राह, शंकर - कंकर - concordium - concor, शिवस्थान - sistine chapel (धर्मचिन्हों का पूजास्थल), अंतर - अंदर - अंडर, अम्बा- अम्मा - माँ मेरी - मरियम आदि।
हिंदी में प्रयुक्त अरबी भाषा के शब्द : दुनिया, ग़रीब, जवाब, अमीर, मशहूर, किताब, तरक्की, अजीब, नतीज़ा, मदद, ईमानदार, इलाज़, क़िस्सा, मालूम, आदमी, इज्जत, ख़त, नशा, बहस आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त फ़ारसी भाषा के शब्द : रास्ता, आराम, ज़िंदगी, दुकान, बीमार, सिपाही, ख़ून, बाम, क़लम, सितार, ज़मीन, कुश्ती, चेहरा, गुलाब, पुल, मुफ़्त, खरगोश, रूमाल, गिरफ़्तार आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त तुर्की भाषा के शब्द : कैंची, कुली, लाश, दारोगा, तोप, तलाश, बेगम, बहादुर आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त पुर्तगाली भाषा के शब्द : अलमारी, साबुन, तौलिया, बाल्टी, कमरा, गमला, चाबी, मेज, संतरा आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त अन्य भाषाओ से: उजबक (उज्बेकिस्तानी, रंग-बिरंगे कपड़े पहननेवाले) = अजीब तरह से रहनेवाला,
हिंदी में प्रयुक्त बांग्ला शब्द: मोशाय - महोदय, माछी - मछली, भालो - भला,
हिंदी में प्रयुक्त मराठी शब्द: आई - माँ, माछी - मछली,
अपनी आवश्यकता हर भाषा-बोली से शब्द ग्रहण करनेवाली व्यापक में से उदारतापूर्वक शब्द देनेवाली हिंदी ही भविष्य की विश्व भाषा है इस सत्य को जितनी जल्दी स्वीकार किया जाएगा, भाषायी विवादों का समापन हो सकेगा।
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गीत
अपने अम्बर का छोर
*
मैंने थाम रखी
अपनी वसुधा की डोर
तुम थामे रहना
अपने अंबर का छोर.…
*
हल धर कर
हलधर से, हल ना हुए सवाल
पनघट में
पन घट कर, पैदा करे बवाल
कूद रहे
बेताल, मना वैलेंटाइन
जंगल कटे,
खुदे पर्वत, सूखे हैं ताल
पजर गयी
अमराई, कोयल झुलस गयी-
नैन पुतरिया
टँगी डाल पर, रोये भोर.…
*
लूट सिया-सत
हाय! सियासत इठलायी
रक्षक पुलिस
हुई भक्षक, शामत आयी
अँधा तौले
न्याय, कोट काला ले-दे
शगुन विचारे
शकुनी, कृष्णा पछतायी
युवा सनसनी
मस्ती मौज मजा चाहें-
आँख लड़ायें
फिरा, न पोछें भीगी कोर....
*
सुर करते हैं
भोग प्रलोभन दे-देकर
असुर भोगते
बल के दम पर दम देकर
संयम खो,
छलकर नर-नारी पतित हुए
पाप छिपायें
दोष और को दे-देकर
मना जान की
खैर, जानकी छली गयी-
चला न आरक्षित
जनप्रतिनिधि पर कुछ जोर....
*
सरहद पर
सर हद करने आतंक डटा
दल-दल का
दलदल कुछ लेकिन नहीं घटा
बढ़ी अमीरी
अधिक, गरीबी अधिक बढ़ी
अंतर में पलता
अंतर, बढ़ नहीं पटा
रमा रमा में
मन, आराम-विराम चहे-
कहे नहीं 'आ
राम' रहा नाहक शोर....
*
मैंने थाम रखी
अपनी वसुधा की डोर
तुम थामे रहना
अपने अंबर का छोर.…
२२-६-२०१४
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सनातन साहित्य : वेद, पुराण स्मृतियाँ
हमारा पारम्परिक सनातन साहित्य विश्व मानवता की अमूल्य धरोहर है. इसकी एक झलका निम्न है। इस में आप भी अपनी जानकारी जोड़िये:
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वेद हमारे धर्मग्रन्थ हैं । वेद संसार के पुस्तकालय में सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं । वेद का ज्ञान सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि , वायु , आदित्य और अंगिरा – इन चार ऋषियों को एक साथ दिया था । वेद मानवमात्र के लिये हैं ।
वेद चार हैं ----
१. ऋग्वेद – इसमें तिनके से लेकर ब्रह्म – पर्यन्त सब पदार्थो का ज्ञान दिया हुआ है । इसमें १०,५२२ मन्त्र हैं ।
२. यजुर्वेद – इसमें कर्मकाण्ड है । इसमें अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन है । इसमें १,९७५ मन्त्र हैं ।
३. सामवेद – यह उपासना का वेद है । इसमें १,८७५ मन्त्र हैं ।
४. अथर्ववेद – इसमें मुख्यतः विज्ञान – परक मन्त्र हैं । इसमें ५,९७७ मन्त्र हैं ।
उपवेद – चारों वेदों के चार उपवेद हैं । क्रमशः – आयुर्वेद , धनुर्वेद , गान्धर्ववेद और अर्थवेद ।
वेदांग - ज्योतिष: नेत्र (सौरमंडल, मुहूर्त आदि), निरुक्त, कान: (वैदिक शब्द-व्याख्या आदि), शिक्षा: नासिका ( वेद मंत्र उच्चारण), व्याकरण: मुख (वैदिक शब्दार्थ), कल्प: हाथ (सूत्र / कल्प साहित्य- धर्म सूत्र: वर्ण, आश्रम आदि, श्रोत सूत्र: वृहद यज्ञ विधान, गृह्य सूत्र: लघु यज्ञ विधान, संस्कार, शुल्व सूत्र: वेदी निर्माण), छंद: पैर (काव्य लक्षण, आदि) ।
पुराण - मुख्य १८ ब्रम्ह, पद्म, विष्णु, शिव, नारदीय, श्रीमद्भागवत, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रम्हवैवर्त, लिंग, वाराह, स्कंद, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़, वायु (ब्रम्हांड) । स्कंद पुराण का एक भाग नर्मदापुराण के नाम से प्रकाशित है। सेठ गोविन्ददास ने गांधी पुराण लिखा किन्तु वह इस श्रेणी में नहीं है।
उपनिषद – अब तक प्रकाशित होने वाले उपनिषदों की कुल संख्या २२३ है , परन्तु प्रामाणिक उपनिषद ११ ही हैं । इनके नाम हैं --- ईश , केन , कठ , प्रश्न , मुण्डक , माण्डूक्य , तैत्तिरीय , ऐतरेय , छान्दोग्य , बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर ।
ब्राह्मण ग्रन्थ – इनमें वेदों की व्याख्या है । चारों वेदों के प्रमुख ब्राह्मणग्रन्थ ये हैं ---
ऐतरेय , शतपथ , ताण्ड्य और गोपथ ।
दर्शनशास्त्र – आस्तिक दर्शन छह हैं – न्याय , वैशेषिक , सांख्य , योग , पूर्वमीमांसा और वेदान्त ।
स्मृतियाँ – स्मृतियों की संख्या ६५ है। मुख्य १८ स्मृतियाँ मनु, याज्ञवल्क्य, अत्रि, विष्णु, अंगिरस, यम, संवर्त, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शंख, दक्ष, गौतम, शातातप तथा वशिष्ठ रचित हैं।
इनके अतिरिक्त आरण्यक, विमानशास्त्र आदि अनेक ग्रन्थ हैं।
२२-६-२०१४
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शनिवार, 21 जून 2025

जून २१, लघुकथा, सदोका, महाकाव्य, योग दिवस, दाँत, कुरुक्षेत्र, व्यूह

गरुण व्यूह 
सलिल सृजन जून २१
विश्व योग दिवस
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महाभारत में व्यूह रचना 
कुरुक्षेत्र में रचे गए कुछ प्रमुख व्यूह: चक्रव्यूह, गरुड़ व्यूह, क्रौंच व्यूह, मकर व्यूह, कच्छप व्यूह, अर्धचंद्राकार व्यूह, वज्र व्यूह, सर्वतोभद्र व्यूह, श्रीन्गातका व्यूह आदि थे।  
गरुड़ व्यूह
महाभारत युद्ध में कौरव सेना की ओर से सेनापति भीष्म पितामह ने गरुड़ व्यूह की रचना    की थी। वे स्वयं इसके अग्र स्थान पर थे। गरुड़ व्यूह भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ के     आकार में रचा गया था। इसी आकार में कौरवों की सेना ने पांडवों पर आक्रमण किया था।   जिस तरह गरुण अपनी चोंच से प्रहार करता है वैसे ही सर्वाधिक घटक प्रहार भीष्म कर     रहे थे। गरुण के पंखों की तरह दायें-बायें पक्ष से शेष योद्धा भीष्म को मदद कर रहे थे

अर्ध चंद्र व्यूह 
    अर्धचंद्र व्यूह
    कौरव सेना के गरुड़ व्यूह के जवाब में पांडव पक्ष से अर्जुन ने अर्धचंद्र व्यूह की रचना की     थी। अर्धचंद्र अर्थात आधे चंद्र के आकार के इस व्यूह में सबसे आगे सर्वाधिक पराक्रमी        योद्धा अर्जुन ने आक्रमण की बागडोर थाम रखी थी। मध्य भाग में पांडव पक्ष के सेनापति     युधिष्ठिर थे जो कि कमजोर योद्धा थे किंतु ज्येष्ठ पांडव और सेनापति होने के नाते उनकी        सुरक्षा सर्वोपरि थी। शत्रु युधिष्ठिर पर हमला करने के पूर्व अर्जुन से लड़ना पड़ता और          दाहिने-बायें लड़ रहे योद्धा युधिष्ठिर की रक्षा हेतु बीच में आ जाते। अर्धचंद्र व्यूह से ही            पांडवों ने कौरवों के गरुड़ व्यूह को कड़ी चुनौती दी थी। कौरव पक्ष किसी भी तरह            युधिष्ठिर को बंदी बनाकर पांडवों को पराजित करना चाहता ठा किंतु पांडवों ने शत्रु की         यह चाल नाकाम कार दी थी।

क्रौंच व्यूह 

क्रौंच व्यूह
महाभारत युद्ध में क्रौंच व्यूह की रचना पांडवों और कौरवों, दोनों के द्वारा अलग-अलग समय पर की गई थी। क्रौंच एक पक्षी का नाम है। यह सारस की प्रजाति का होता है। इसी क्रौंच पक्षी के आकार में सेना सज गई थी और पांडवों ने कौरव सेना पर आक्रमण किया था। इस क्रौंच व्यूह में सिर, आँख, गर्दन, पंख आदि अंगों पर अलग-अलग महारथी अपनी-अपनी सेना के साथ तैनात थे। सभी महारथियों ने क्रौंच व्यूह में अपने-अपने क्षेत्र की सुरक्षा करते हुए सामने वाली सेना पर आक्रमण किया। यह व्यूह बहुत ताकतवर और सुरक्षा की दृष्टि से श्रेष्ठ था। इसी वजह से दोनों ही पक्षों ने इस व्यूह की रचना की थी।
चक्र व्यूह
चक्र व्यूह की संरचना चक्र के आकार में की जाती थी। इस व्यूह को भेदने का पूरा रहस्य सिर्फ अर्जुन को मालूम था, लेकिन उस समय अर्जुन कौरवों के महारथी सुशर्मा से युद्ध कर रहा था। इस वजह से चक्र व्यूह को भेदने के लिए अभिमन्यु सहित सभी पांडव महारथी तैनात हो गए। चक्र व्यूह के द्वार पर जयद्रथ तैनात था, जिसने अभिमन्यु के अतिरिक्त किसी और पांडव को चक्र व्यूह में प्रवेश नहीं करने दिया। चक्र व्यूह में योद्धाओं की ७ परतें (पंक्तियाँ) थीं। अभिमन्यु चक्र व्यूह की सभी परतों को भेदते हुए मध्य भाग में पहुँच गया। वहाँ कौरवों के सात महारथियों ने एक साथ मिलकर अभिमन्यु की हत्या कर दी थी। जबकि उस युद्ध के नियमों के अनुसार एक योद्धा के साथ एक से अधिक योद्धा नहीं लड़ सकते थे। अभिमन्यु वध से क्रुद्ध अर्जुन ने अगले दिन सूर्यास्त होने के पूर्व जयद्रथ के वध का प्राण किया था।


मंडल व्यूह
कौरवों के सेनापति भीष्म पितामह ने कुरुक्षेत्र में सातवें दिन बहुत कठिन व्यूह रचा था, जिसका नाम है मंडल व्यूह। इस व्यूह की गणना सबसे कठिन व्यूहों में की जाती है। यह व्यूह रचना एक वृत्त या चक्र के आकार की होती है, जिसमें सैनिक एक घेरे में खड़े होते हैं। इस व्यूह में कौरव सेना ने पूरी शक्ति के साथ पांडवों पर आक्रमण किया था। मंडल व्यूह अलग-अलग मंडलों के समूह के समान दिखाई देता था। चारों ओर से सुरक्षित इस व्यूह को भेद पाना अत्यंत कठिन होता है। इसके जवाब में पांडवों की ओर से वज्र व्यूह रचा गया था। वज्र व्यूह के आक्रमण से कौरव सेना का मंडल व्यूह को भेद दिया था।

वज्रव्यूह
कुरुक्षेत्र में युद्ध के पहले दिन पांडवों की ओर से धनुर्धर अर्जुन ने वज्र व्यूह की रचना की थी। वज्र व्यूह की रचना देवराज इंद्र के वज्र के आकार के समान की गई थी। वज्र के आकार का व्यूह होने की वजह से इसे वज्र व्यूह कहा गया। पांडवों की पूरी सेना वज्र के आकार में सज गई थी। इस व्यूह में अर्जुन और भीम सेना को आगे रखते थे। वज्र के अग्र भाग में अर्जुन स्वयं की रक्षा से निश्चिंत होकर दोनों पक्षों की सेनाओं को न केवल देख सकता था अपितु जब जिस दिशा में चाहे धनुष से संधान कर शत्रु पर आक्रमण और जरूरत पड़ने पर अपने पक्ष की रक्षा कर सकता था।


ओर्मी व्यूह
मंडल व्यूह की असफलता के बाद कौरव सेना ने ओर्मी व्यूह की रचना की थी। इस व्यूह में पूरी सेना समुद्र के समान सज गई थी। जिस प्रकार समुद्र में लहरें दिखाई देती हैं, ठीक उसी आकार में कौरव सेना ने पांडवों पर आक्रमण किया था। इसके जवाब में पांडवों ने श्रीन्गातका व्यूह की रचना की थी। इस व्यूह का आकार किसी भव्य भवन के समान दिखाई देता था।

चक्रशकट व्यूह
अभिमन्यु की हत्या के बाद अगले दिन कौरव सेना ने जयद्रथ को बचाने के लिए चक्रशकट व्यूह की रचना की थी। इस व्यूह के मध्य भाग में जयद्रथ को रखा गया, ताकि अर्जुन उसे मार न सके और स्वयं अग्नि को समर्पित हो जाए। अर्जुन के न होने से कौरव आसानी से युद्ध जीत सकते थे। इसी वजह से कौरव सेना ने चक्रशकट व्यूह की रचना कर जयद्रथ को बचाने का प्रयास किया। इस व्यूह का आकार भी चक्र के समान की दिखाई देता है और इसमें अलग-अलग परतों में सेना सजी रहती है। सभी परतों पर अलग-अलग कौरव महारथी तैनात किए गए थे, लेकिन अर्जुन ने इस व्यूह को भेद दिया और जयद्रथ को मार दिया था।
सर्वतोभद्र व्यूह:
यह एक व्यापक व्यूह था जिसका उपयोग कौरवों द्वारा किया गया था.
श्रीन्गातका व्यूह:
यह एक भवन के समान दिखने वाला व्यूह था जिसका उपयोग अर्जुन ने किया था.
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लघुकथा
दूसरा चेहरा
साहित्य सेवा को अपना जूनून बताकर उन्होंने संपर्क किया।उनके शहर जाना हुआ तो बहुत आग्रह के साथ अपने आवास पर आमंत्रित किया, सास, पति, पुत्र आदि से परिचय कराकर स्वादिष्ट भोजन कराया, आते-जाते समय चरण स्पर्श किए।
मेरे शहर में उनका आगमन हुआ तो उन्हें गृह आमंत्रित कर मैंने अपने परिवारजनों से मिलवाया, उनके स्वागत में गोष्ठी आदि का आयोजन किया। वे जिस विधा में लेखन कर रही थीं, उसकी कुछ अनुपलब्ध पुस्तकें भेंट कीं, कुछ योजनाएँ बनाई गईं, उनकी संस्था की अपने शहर में ईकाई आरंभ कराई।
सार यह कि बहुत आत्मीय, मधुर और पारिवारिक संबंध हो गए।
कुछ वर्ष बाद उनका पुनरागमन हुआ। अब तक वे अपनी विधा की प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हो गयी थीं, अपना प्रकाशन गृह आरंभ कर चुकी थीं। प्रकाशन गृह संबंधी कई समस्याओं की चर्चा उन्होंने की। एक महिला रचनाकार के बारे में बताया जिसने उनके अनुसार, उन्हें विश्वास में लेकर अपनी पुस्तक छपाकर भुगतान ही नहीं किया।
मैंने उन्हें सहयोग करने की भावना से अपनी एक पुस्तक की पी डी एफ और नगर के मुद्रक ने जो राशि बताई थी, वह अग्रिम देते हुए उनके प्रकाशन की सफलता हेतु शुभकामना दी।
इसके बाद माह पर माह बीतते रहे पर पुस्तक की प्रगति नहीं हो पाई। इस मध्य बेटे का विवाह तय हुआ तो सोचा कि नव दंपत्ति से नव प्रकाशित पुस्तक का विमोचन कराऊँ। उन्होंने अन्य कार्यों में व्यस्त होने का कारण बताकर पुस्तक उपलब्ध कराने में असमर्थता व्यक्त कर दी। लंबी चर्चा के बाद कहा कि दस प्रतियाँ भिजवा देती हूँ। मैंने यह सोचकर संतोष किया कि शेष २९० प्रतियाँ कुछ विलंब से ही सही, मिलेंगी तो।
बेटे का विवाह हुए डेढ़ साल बीत चुका है, अब तक पुस्तक की शेष प्रतियाँ अप्राप्त हैं। अब वे निरंतर प्रकाशकीय गतिविधियाँ बढ़ाती जा रही हैं पर मेरी पुस्तक का भेजने या का अवकाश नहीं है उनके पास।
मैं स्तब्ध हूँ यह देखकर कि एक सुसंस्कारी महिला के सुपरिचित चेहरे पर हावी हो गया है व्यावसायिक प्रकाशक का दूसरा चेहरा।
•••
द्विपदी
मौन दर-दीवार हैं; चौपाल चुप
दोस्त भी मिलते हैं अंतरजाल पर।
शब्द सलिला सूखती जा रही है
जमाना अब इमोजी का आ आ गया।
सदोका सलिला ५
योग-वियोग
जग की रीत-नीत
जीवन का संगीत।
योग-संयोग
ऐसे होते प्रतीत
जैसे प्रीत-संगीत।२६।
रिश्ते-नाते
सत्य ही बताते
कोई नहीं किसी का।
कोई न गैर
वही अपना सगा
जो मनाता है खैर।२७।
वादा निभाना
आदमी की निशानी
दुनिया आनी-जानी।
वादा भुलाना
सुरासुरी चलन
स्वार्थ-भोग अगन।२८।
देर सबेर
मिलता कर्म-फल
मत होना विकल।
धीरज धर
तलाश अवसर
वर देगा ईश्वर।२९।
मन उन्मन
हरि का सुमिरन
लगी रहे लगन।
दूर हो भ्रांति
जब न हो संक्रांति
तभी मिलेगी शांति।
२१-६-२०२२
•••
दोहा सलिला
*
दोहा सलिला-स्नान दे, ग्रहण दोष से मुक्ति।
ग्रहण करें रस भाव लय, गति-यति कल संयुक्ति।।
*
ग्रहण करे सुख-दुख धरा, दे-पा सह समभाव।
ग्रहण न लगता इसलिए, हर ग्रह रखे लगाव।।
*
ग्रहण न रवि-शशि कुछ करें, देते जग उजियार।
राहु-केतु निज स्वार्थ हित, फैलाते अँधियार।।
*
राहु-केतु पथ रोकते,बनें आप दीवार।
नहीं अधिग्रहण कर सकें, हटें विवश लाचार।।
*
अब तक ग्रहण किया सलिल, जो तूने दे बाँट
दुष्प्रभाव हर ग्रहण का, दूर करो झट छाँट।।
*
संग्रहणी का योग ही, सबसे सरल इलाज।
सद्गृहणी संयोग से, मिले राज बिन राज।।
*
योग-भोग सम भोग ही, तन-मन का संभोग।
मिलन आत्म-परमात्म का, दूर करे हर रोग।।
*
जोड़-घटाना व्यर्थ है, गुणा-भाग फलहीन।
योग मात्र संतोष है, पाकर रहें न दीन।।
*
२२-६-२०२०
***
विमर्श
हिंदी वांग्मय में महाकाव्य विधा
*
संस्कृत वांग्मय में काव्य का वर्गीकरण दृश्य काव्य (नाटक, रूपक, प्रहसन, एकांकी आदि) तथा श्रव्य काव्य (महाकाव्य, खंड काव्य आदि) में किया गया है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'जो केवल सुना जा सके अर्थात जिसका अभिनय न हो सके वह 'श्रव्य काव्य' है। श्रव्य काव्य का प्रधान लक्षण रसात्मकता तथा भाव माधुर्य है। माधुर्य के लिए लयात्मकता आवश्यक है। श्रव्य काव्य के दो भेद प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य हैं। प्रबंध अर्थात बंधा हुआ, मुक्तक अर्थात निर्बंध। प्रबंध काव्य का एक-एक अंश अपने पूर्व और पश्चात्वर्ती अंश से जुड़ा होता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। पाश्चात्य काव्य शास्त्र के अनुसार प्रबंध काव्य विषय प्रधान या करता प्रधान काव्य है। प्रबंध काव्य को महाकाव्य और खंड काव्य में पुनर्वर्गीकृत किया गया है।
महाकाव्य के तत्व -
महाकाव्य के ३ प्रमुख तत्व है १. (कथा) वस्तु , २. नायक तथा ३. रस।
१. कथावस्तु - महाकाव्य की कथा प्राय: लंबी, महत्वपूर्ण, मानव सभ्यता की उन्नायक, होती है। कथा को विविध सर्गों (कम से कम ८) में इस तरह विभाजित किया जाता है कि कथा-क्रम भंग न हो। कोई भी सर्ग नायकविहीन न हो। महाकाव्य वर्णन प्रधान हो। उसमें नगर-वन, पर्वत-सागर, प्रात: काल-संध्या-रात्रि, धूप-चाँदनी, ऋतु वर्णन, संयोग-वियोग, युद्ध-शांति, स्नेह-द्वेष, प्रीत-घृणा, मनरंजन-युद्ध नायक के विकास आदि का सांगोपांग वर्णन आवश्यक है। घटना, वस्तु, पात्र, नियति, समाज, संस्कार आदि चरित्र चित्रण और रस निष्पत्ति दोनों में सहायक होता है। कथा-प्रवाह की निरंतरता के लिए सरगारंभ से सर्गांत तक एक ही छंद रखा जाने की परंपरा रही है किन्तु आजकल प्रसंग परिवर्तन का संकेत छंद-परिवर्तन से भी किया जाता है। सर्गांत में प्रे: भिन्न छंदों का प्रयोग पाठक को भावी परिवर्तनों के प्रति सजग कर देता है। छंद-योजना रस या भाव के अनुरूप होनी चाहिए। अनुपयुक्त छंद रंग में भंग कर देता है। नायक-नायिका के मिलन प्रसंग में आल्हा छंद अनुपतुक्त होगा जबकि युद्ध के प्रसंग में आल्हा सर्वथा उपयुक्त होगा।
२. नायक - महाकव्य का नायक कुलीन धीरोदात्त पुरुष रखने की परंपरा रही है। समय के साथ स्त्री पात्रों (सीता, कैकेयी, मीरा, दुर्गावती, नूरजहां आदि), किसी घटना (सृष्टि की उत्पत्ति आदि), स्थान (विश्व, देश, शहर आदि), वंश (रघुवंश) आदि को नायक बनाया गया है। संभव है भविष्य में युद्ध, ग्रह, शांति स्थापना, योजना, यंत्र आदि को नायक बनाकर महाकव्य रचा जाए। प्राय: एक नायक रखा जाता है किन्तु रघुवंश में दिलीप, रघु और राम ३ नायक है। भारत की स्वतंत्रता को नायक बनाकर महाकाव्य लिखा जाए तो गोखले, तिकल। लाजपत राय, रविंद्र नाथ, गाँधी, नेहरू, पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद आदि अनेक नायक हो सकते हैं। स्वातंत्र्योत्तर देश के विकास को नायक बना कर महाकाव्य रचा जाए तो कई प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति अलग-अलग सर्गों में नायक होंगे। नायक के माध्यम से उस समय की महत्वाकांक्षाओं, जनादर्शों, संघर्षों अभ्युदय आदि का चित्रण महाकाव्य को कालजयी बनाता है।
३. रस - रस को काव्य की आत्मा कहा गया है। महाकव्य में उपयुक्त शब्द-योजना, वर्णन-शैली, भाव-व्यंजना, आदि की सहायता से अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं। पाठक-श्रोता के अंत:करण में सुप्त रति, शोक, क्रोध, करुणा आदि को काव्य में वर्णित कारणों-घटनाओं (विभावों) व् परिस्थितियों (अनुभावों) की सहायता से जाग्रत किया जाता है ताकि वह 'स्व' को भूल कर 'पर' के साथ तादात्म्य अनुभव कर सके। यही रसास्वादन करना है। सामान्यत: महाकाव्य में कोई एक रस ही प्रधान होता है। महाकाव्य की शैली अलंकृत, निर्दोष और सरस हुए बिना पाठक-श्रोता कथ्य के साथ अपनत्व नहीं अनुभव कर सकता।
अन्य नियम - महाकाव्य का आरंभ मंगलाचरण या ईश वंदना से करने की परंपरा रही है जिसे सर्वप्रथम प्रसाद जी ने कामायनी में भंग किया था। अब तक कई महाकाव्य बिना मंगलाचरण के लिखे गए हैं। महाकाव्य का नामकरण सामान्यत: नायक तथा अपवाद स्वरुप घटना, स्थान आदि पर रखा जाता है। महाकाव्य के शीर्षक से प्राय: नायक के उदात्त चरित्र का परिचय मिलता है किन्तु पथिक जी ने कारण पर लिखित महाकव्य का शीर्षक 'सूतपुत्र' रखकर इस परंपरा को तोडा है।
महाकाव्य : कल से आज
विश्व वांग्मय में लौकिक छंद का आविर्भाव महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। भारत और सम्भवत: दुनिया का प्रथम महाकाव्य महर्षि वाल्मीकि कृत 'रामायण' ही है। महाभारत को भारतीय मानकों के अनुसार इतिहास कहा जाता है जबकि उसमें अन्तर्निहित काव्य शैली के कारण पाश्चात्य काव्य शास्त्र उसे महाकाव्य में परिगणित करता है। संस्कृत साहित्य के श्रेष्ठ महाकवि कालिदास और उनके दो महाकाव्य रघुवंश और कुमार संभव का सानी नहीं है। सकल संस्कृत वाङ्मय के चार महाकाव्य कालिदास कृत रघुवंश, भारवि कृत किरातार्जुनीयं, माघ रचित शिशुपाल वध तथा श्रीहर्ष रचित नैषध चरित अनन्य हैं।
इस विरासत पर हिंदी साहित्य की महाकाव्य परंपरा में प्रथम दो हैं चंद बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो तथा मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत। निस्संदेह जायसी फारसी की मसनवी शैली से प्रभावित हैं किन्तु इस महाकाव्य में भारत की लोक परंपरा, सांस्कृतिक संपन्नता, सामाजिक आचार-विचार, रीति-नीति, रास आदि का सम्यक समावेश है। कालांतर में वाल्मीकि और कालिदास की परंपरा को हिंदी में स्थापित किया महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में। तुलसी के महानायक राम परब्रह्म और मर्यादा पुरुषोत्तम दोनों ही हैं। तुलसी ने राम में शक्ति, शील और सौंदर्य तीनों का उत्कर्ष दिखाया। केशव की रामचद्रिका में पांडित्य जनक कला पक्ष तो है किन्तु भाव पक्ष न्यून है। रामकथा आधारित महाकाव्यों में मैथिलीशरण गुप्त कृत साकेत और बलदेव प्रसाद मिश्र कृत साकेत संत भी महत्वपूर्ण हैं। कृष्ण को केंद्र में रखकर अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने प्रिय प्रवास और द्वारिका मिश्र ने कृष्णायन की रचना की। कामायनी - जयशंकर प्रसाद, वैदेही वनवास हरिऔध, सिद्धार्थ तथा वर्धमान अनूप शर्मा, दैत्यवंश हरदयाल सिंह, हल्दी घाटी श्याम नारायण पांडेय, कुरुक्षेत्र दिनकर, आर्यावर्त मोहनलाल महतो, नूरजहां गुरभक्त सिंह, गाँधी परायण अम्बिका प्रसाद दिव्य, उत्तर भगवत तथा उत्तर रामायण डॉ. किशोर काबरा, कैकेयी डॉ.इंदु सक्सेना देवयानी वासुदेव प्रसाद खरे, महीजा तथा रत्नजा डॉ. सुशीला कपूर, महाभारती डॉ. चित्रा चतुर्वेदी कार्तिका, दधीचि आचार्य भगवत दुबे, वीरांगना दुर्गावती गोविन्द प्रसाद तिवारी, क्षत्राणी दुर्गावती केशव सिंह दिखित 'विमल', कुंवर सिंह चंद्र शेखर मिश्र, वीरवर तात्या टोपे वीरेंद्र अंशुमाली, सृष्टि डॉ. श्याम गुप्त, विरागी अनुरागी डॉ. रमेश चंद्र खरे, राष्ट्रपुरुष नेताजी सुभाष चंद्र बोस रामेश्वर नाथ मिश्र अनुरोध, सूतपुत्र महामात्य तथा कालजयी दयाराम गुप्त 'पथिक', आहुति बृजेश सिंह आदि ने महाकाव्य विधा को संपन्न और समृद्ध बनाया है।
समयाभाव के इस दौर में भी महाकाव्य न केवल निरंतर लिखे-पढ़े जा रहे हैं अपितु उनके कलेवर और संख्या में वृद्धि भी हो रही है, यह संतोष का विषय है।
२१-६-२०१९
***
विमर्श:
योग दिवस...
*
- योग क्या?
= जोड़ना, संचय करना.
- संचय क्या और क्यों करना?
= सृष्टि का निर्माण और विलय का कारक है 'ऊर्जा', अत: संचय ऊर्जा का... लक्ष्य ऊर्जा को रूपांतरित कर परम ऊर्जा तक आरोहण कर पाना.
- ऊर्जा संचय और योग में क्या संबंध है?
= योग शारीरिक, मानसिक और आत्मिक ऊर्जा को चैतन्य कर, उनकी वृद्धि करता है .फलत: नकारात्मकता का ह्रास होकर सकारात्मकता की वृद्धि होती है. व्यक्ति का स्वास्थ्य और चिंतन दोनों का परिष्कार होता है.
- योग धनाढ्यों और ढोंगियों का पाखंड है.
= योग के क्षेत्र में कुछ धनाढ्य और ढोंगी हैं. धनाढ्य होना अपराध नहीं है, ढोंगी होना और ठगना अपराध है. पहचानना और बचना अपनी जागरूकता और विवेक से ही संभव है, गेहूं के बोर में कुछ कंकर होने से पूरा गेहूं नहीं फेंका जा सकता. इसी तरह कुछ पाखंडियों के कारण पूरा योग त्याज्य नहीं हो सकता.
- दैनिक जीवन की व्यस्तता और समयाभाव के कारण योग करने नहीं जाया जा सकता.
= योग करने के लिए कहीं जाना नहीं है, न अलग से समय चाहिए. एक बार सीखने के बाद अभ्यास अपना काम करते हुए भी किया जा सकता है. कार्यालय, कारखाना, खेत, रसोई हर जगह योग किया जा सकता है, वह भी अपना काम करते-करते.
- योग कैसे कार्य करता है?
= योग मुद्राएँ शरीर की शिराओं में रक्त प्रवाह की गति को सुधरती हैं. मन को प्रसन्न करती है. फलत: थकान और ऊब समाप्त होती है. प्रसन्न मन काम करने पर परिणाम की मात्रा और गुण दोनों में वृद्धि होती है. इससे मिली प्रशंसा और सफलता अधिक अच्छा करने की प्रेरणा देती है.
- योग खर्ची ला है.
= नहीं योग बिन किसी अतिरिक्त व्यय के किया जा सकता है. योग रोग घटाकर बचत कराता है.
- कैसे?
= योग से सही आसन सीख कर कार्य करते समय शरीर को सही स्थिति में रखें तो थकान कम होगी, श्वास-प्रश्वास नियमित हो तो रक्त प्रवाह की गति और उनमें ओषजन की मात्रा बढ़ेगी.फलत: ऊर्जा, उत्साह, प्रसन्नता और सामर्थ्य में वृद्धि होगी.
- योग सिखाने वाले बाबा ढोंगी और विलासी होते हैं.
= निस्संदेह कुछ बाबा ऐसे हो सकते हैं. उन्हें छोड़कर सच्च्ररित्र प्रशिक्षक को चुना जा सकता है. दूरदर्शन, अंतरजाल आदि की मदद से बिना खर्च भी सीखा जा सकता है.
- योग और भोग में क्या अंतर है?
= योग और भोग एक सिक्के के दो पहलू हैं. 'दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा', जीने के लिए अन्न, वस्त्र, मकान का भोग करना ही होगा. बेहतर जीवन स्तर और आपदा-प्रबंधन हेतु संचय भी करना होगा. राग और विराग का संतुलन और समन्वय ही 'सम्भोग' है. इसे केवल दैहिक क्रिया मानना भूल है. 'सम्भोग' की प्राप्ति में योग सहायक होता है. 'सम्भोग' से 'समाधि' अर्थात आत्म और परमात्म के ऐक्य की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है. अत्यधिक योग और अत्यधिक भोग दोनों अतृप्ति, अरुचि और अंत में विनाश के कारण बनते हैं. 'योग; 'भोग' का प्रेरक और 'भोग' 'योग' का पूरक है.
- योग कौन कर सकता है?
= योग हर जीवित प्राणी कर सकता है. पशु-पक्षी स्वचेतना से प्रकृति अनुसार आचरण करते हैं जो योग है. मनुष्य में बुद्धितत्व की प्रधानता उसे सर्वार्थ से दूर कर स्वार्थ के निकट कर देती है. योग उसे आत्म तत्व के निकट ले जाकर ब्रम्हांश होने की प्रतीति कराता है. कंकर-कंकर में शंकर होने की अनुभूति होते ही वह सृष्टि के कण-कण से आत्मीयता अनुभव करता है. योग मौन से संवाद की कला है. बिन बोले सुनना-कहना और ग्रहण करना और बाँट देना ही सच्चा योग है.
- योग दिवस क्यों?
योग दिवस केवल स्मरण करने के लिए कि अगले योग दिवस तक योगरत रहकर अपने और सबके जीवन को बेहतर और प्रसन्नता पूर्ण बनाएँ.
२१.६.२०१८
***
नवगीत
राम रे!
*
राम रे!
कैसो निरदै काल?
*
भोर-साँझ लौ गोड़ तोड़ रए
कामचोर बे कैते।
पसरे रैत ब्यास गादी पै
भगतन संग लपेटे।
काम पुजारी गीता बाँचें
गोपी नचें निढाल-
आँधर ठोंके ताल
राम रे!
बारो डाल पुआल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
*
भट्टी देह, न देत दबाई
पैलउ माँगें पैसा।
अस्पताल मा घुसे कसाई
थाने अरना भैंसा।
करिया कोट कचैरी घेरे
बकरा करें हलाल-
बेचें न्याय दलाल
राम रे !
लूट बजा रए गाल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
*
झिमिर-झिमिर-झम बूँदें टपकें
रिस रओ छप्पर-छानी।
दागी कर दई रौताइन की
किन नें धुतिया धानी?
अँचरा ढाँके, सिसके-कलपे
ठोंके आपन भाल
राम रे !
जीना भओ मुहाल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
२१-६-२०१६
***
दोहा का रंग दांत के संग:
संजीव
*
दाँतों काटी रोटियाँ, रहें हमेशा याद
माँ-हाथों के कौर सा, पाया कहीं न स्वाद
*
दाँत निपोरो तो मिटे, मन का 'सलिल' तनाव
दाँत दिखाओ चमकते, अच्छा पड़े प्रभाव
*
पाँत दाँत की दमकती, जैसे मुक्ता-माल
अधर-कमल के मध्य में, शोभित लगे कमाल
*
दाँत तले उँगली दबा, लगते खूब जनाब
कभी शांत नटखट कभी, जैसे कली गुलाब
*
दाँतों से नख कुतरते, देते नहीं जवाब
नज़र झुकी बिजली गिरी, पलकें हुईं नकाब
*
दाँत बज रहे- काँपता, बदन चढ़ा ज्वर तेज
है मलेरिया बुला लें, दवा किसी को भेज
*
दाँत न टूटे दूध के,चले निभाने प्रीत
दिल के बिल को देखकर, बिसर गया लव-गीत
*
दाँतों में पल्लू दबा, चला नज़र के तीर
लूट लिया दिल ध्वस्त कर, अंतर की प्राचीर
*
दाँत तोड़कर शत्रु के, सैन्य बचाती देश
जान हथेली पर लिये, कसर न छोड़ें लेश
*
दाँतों लोहे के चने, चबा रहे रह शांत
धीरज को करिये नमन, 'सलिल' न होते भ्रांत
*
दहशतगर्दों के करें, मिलकर खट्टे दाँत
'सलिल' रहम मत खाइये, खींच लीजिए आँत
*
दाँत मिलें तो चनों का, होता रहा अभाव
चने मिले बेदाँत को, कैसे करें निभाव?
*
दाँत खोखले हो गये, समझें खिसकी नींव
सजग रहें खुद सदय हों, पल-पल करुणासींव
*
और दिखाने के 'सलिल', खाने के कुछ और
दाँतों की महिमा अमित, करिए इन पर गौर
*
हैं कठोर बाँटें नहीं, अलग-अलग रह पीर
दाँत टूटते जीभ झुक, बच जाती धर धीर
*
दाँत दीन चुप पीसते, चक्की बिना पगार
जी भर रस ले जीभ चुप, पेट गहे आहार
*
खट्टा मीठा चिरपरा, चाबे निस्पृह संत
आह-वाह रसना करे, नहीं स्वार्थ का अंत
*
जिव्हा बहिन रक्षित-सुखी, गाती मधुरिम छंद
बंधु दाँत रक्षा करे, मिले अमित आनंद
*
योग कर रहा शांत रह, दाँत न करता बैर
जिए ऐक्य-सद्भाव से, हँसी-खुशी निर्वैर
*
दाँत स्वच्छता-दूत है, नित्य हो रहा साफ़
जो घिसता उसको करे, तत्क्षण ही यह माफ़
*
क्षुधा मिटाता उदर की, चबा-चबा दे भोज्य
बचा मसूढ़ों को रहा, दाँत नमन के योग्य
*
उगे टूट गिर फिर बढ़े, दाँत न माने हार
कर्मवीर है सूर्य सा, करे नहीं तकरार
*दाँत पीस मत कीजिए, भोजन लगे न अंग। भोज्य चबाएँ दाँत से, मधु-रस सा सत्संग।।
२१-६-२०१५
***
गीत :
उड़ने दो…
*
पर मत कतरो
उड़ने दो मन-पाखी को।
कहो कबीरा
सीख-सिखाओ साखी को...
*
पढ़ो पोथियाँ,
याद रखो ढाई आखर।
मन न मलिन हो,
स्वच्छ रहे तन की बाखर।
जैसी-तैसी
छोड़ो साँसों की चादर।
ढोंग मिटाओ,
नमन करो सच को सादर।
'सलिल' न तजना
रामनाम बैसाखी को...
*
रमो राम में,
राम-राम सब से कर लो।
राम-नाम की
ज्योति जला मन में धर लो।
श्वास सुमरनी
आस अंगुलिया संग चले।
मन का मनका,
फेर न जब तक सांझ ढले।
माया बहिना
मोह न, बांधे राखी को…
२१-६-२०१३
***

शुक्रवार, 20 जून 2025

जून २०, सदोका, पद्मावती, कमलावती, छंद, व्यंग्य, लघु कथा, शिवलिंग, शालिग्राम, पिता,

सलिल सृजन जून २०
पूर्णिका
आँख खोल दे गुलबकावली
सुरभि घोल दे गुलबकावली
.
शुभ्र ज्योत्स्ना थकन मिटाए
बोल बोल दो गुलबकावली
.
अर्क सुँघा कर दे तनाव कम
बिना मोल ही गुलबकावली
कमसिन कोमल कली हरे मन
डोल-डोलकर गुलबकावली
.
माई की बगिया में खेले
सलिल संग नित गुलबकावली
२०.६.२०२५
०००
पूर्णिका
.
आजीवन सुनता रहा जो मन का संगीत
श्वास-श्वास उसकी अमर तज तन का संगीत
.
करता रहा प्रयास नित लेकर प्रभु का नाम
सफल-विफल सम भाव हो जीवन का संगीत
.
स्वार्थ साध्य जिसको सलिल वह न कभी संतुष्ट
हो न सका रसखान रच, वह  धुन का संगीत
आम आदमी बन जियो छोड़ो पद मद मोह
कलकल-कलरव में मिले, मधुवन का संगीत
.
कर स्वदेश से प्रीति मन, निज माटी अनमोल
रवि-शशि किरण हृदय बसा, रच जन का संगीत
२०.६.२०२५
०००
सदोका सलिला
ई​ कविता में
करते काव्य स्नान ​
कवि​-कवयित्रियाँ।
सार्थक​ होता
जन्म निरख कर
दिव्य भाव छवियाँ।१।
ममता मिले
मन-कुसुम खिले,
सदोका-बगिया में।
क्षण में दिखी
छवि सस्मित मिली
कवि की डलिया में।२।
​न​ नौ नगद ​
न​ तेरह उधार,
लोन ले, हो फरार।
मस्तियाँ कर
किसी से मत डर
जिंदगी है बहार।३।
धूप बिखरी
कनकाभित छवि
वसुंधरा निखरी।
पंछी चहके
हुलस, न बहके
सुनयना सँवरी।४।
• ​
श्लोक गुंजित
मन भाव विभोर,
पुजा माखनचोर।
उठा हर्षित
सक्रिय हो नीरव
क्यों हो रहा शोर?५।
है चौकीदार
वफादार लेकिन
चोरियाँ होती रही।
लुटती रहीं
देश की तिजोरियाँ
जनता रोती रही।६।
गुलाबी हाथ
मृणाल अंगुलियाँ
कमल सा चेहरा।
गुलाब थामे
चम्पा सा बदन
सुंदरी या बगिया?७।
लिए उच्चार
पाँच, सात औ' सात
दो मर्तबा सदोका।
रूप सौंदर्य
क्षणिक, सदा रहे
प्रभाव सद्गुणों का।८।
सूरज बाँका
दीवाना है उषा का
मुट्ठी भर गुलाल
कपोलों पर
लगाया, मुस्कुराया
शोख उषा शर्माई।९।
आवारा मेघ
कर रहा था पीछा
देख अकेला दौड़ा
हाथ न आई
दामिनी ने गिराई
जमकर बिजली।१०।
हवलदार
पवन ने जैसे ही
फटकार लगाई।
बादल हुआ
झट नौ दो ग्यारह
धूप खिलखिलाई।११।
महकी कली
गुनगुनाते गीत
मँडराए भँवरे।
सगे किसके
आशिक हरजाई
बेईमान ठहरे।१२।
घर ना घाट
सन्यासी सा पलाश
ध्यानमग्न, एकाकी।
ध्यान भग्न
करना चाहे संध्या
दिखला अदा बाँकी।१३।
सतत बही
जो जलधार वह
सदा निर्मल रही।
ठहर गया
जो वह मैला हुआ
रहो चलते सदा।१४।
पंकज खिला
करता नहीं गिला
जन्म पंक में मिला।
पुरुषार्थ से
विश्व-वंद्य हुआ
देवों के सिर चढ़ा।१५।
खिलखिलाई
इठलाई शर्माई
सद्यस्नाता नवोढ़ा।
चिलमन भी
रूप देख बौराया
दर्पण आहें भरे।१६।
लहराती है
नागिन जैसी लट,
भाल-गाल चूमती।
बेला की गंध
मदिर सूँघ-सूँघ
बेड़नी सी नाचती।१७।
क्षितिज पर
मेघ घुमड़ आए
वसुंधरा हर्षाई।
पवन झूम
बिजली संग नाचा,
प्रणय पत्र बाँचा।१८।
लोकतंत्र में
नेता करे सो न्याय
अफसर का राज।
गौरैयों ने
राम का राज्य चाहा
बाजों को चुन लिया।१९।
घर को लगी
घर के चिराग से
दिन दहाड़े आग।
मंत्री का पूत
किसानों को कुचले
और छाती फुलाए। २०।
मेघ गरजे
रिमझिम बरसे
आसमान भी तर।
धरती भीगी
हवा में हवा हुआ
दुपट्टा, गाल लाल ।२१।
निर्मल नीर
गगन से भू पर
आकर मैला हुआ।
ज्यों कलियों का
दामन भँवरों ने
छूकर पंकिल किया।२२।
चुभ रही थी
गर्मी में तीखी धूप
जीव-जंतु परेशां।
धरा झुलसी
धन्य धरा धीरज
बारिश आने तक।२३।
करते पहुनाई
ढोल बजा दादुर
पत्ते बजाते ताली।
सौंधी महक
माटी ने फैला दी
झूम उठीं शाखाएँ।२४।
मेघ ठाकुर
आसमानी ड्योढी में
जमाए महफिल।
दिखाए नृत्य
कमर लचकाती
बिजली बलखाती।२५।
•••
ॐ सरस्वत्यै नम: ॐ
शारद वंदना
लाक्षणिक जातीय पद्मावती/कमलावती छंद
*
शारद छवि प्यारी, सबसे न्यारी, वेद-पुराण सुयश गाएँ।
कर लिए सुमिरनी, नाद जननि जी, जप ऋषि सुर नर तर जाएँ।।
माँ मोरवाहिनी!, राग-रागिनी नाद अनाहद गुंजाएँ।
सुर सरगमदात्री, छंद विधात्री, चरण - शरण दे मुसकाएँ।।
हे अक्षरमाता! शब्द प्रदाता! पटल लेखनी लिपि वासी।
अंजन जल स्याही, वाक् प्रवाही, रस-धुन-लय चारण दासी।।
हो ॐ व्योम माँ, श्वास-सोम माँ, जिह्वा पर आसीन रहें।
नित नेह नर्मदा, कहे शुभ सदा, सलिल लहर सम सदा बहें।।
कवि काव्य कामिनी, छंद दामिनी, भजन-कीर्तन यश गाए।
कर दया निहारो, माँ उपकारो, कवि कुल सारा तर जाए।।
*
२०-६-२०२०
***
विमर्श
निर्बल नागरिकों के अधिकारों का हनन
*
लोकतंत्र में निर्बल नागरिकों की जीवन रक्षा का भर जिन पर है वे उसका जीना मुश्किल कर दें और जब कोई असामाजिक तत्व ऐसी स्थिति में उग्र हो जाए तो पूरे देश में हड़ताल कर असंख्य बेगुनाहों को मरने के लिए विवश कर दिया जाए।
शर्म आनी चाहिए कि बिना इलाज मरे मरीजों के कत्ल का मुकदमा आई एम् ए के
पदाधिकारियों पर क्यों नहीं चलाती सरकार?
आम मरीजोंजीवन रक्षा के लिए कोर्ट में जनहित याचिका क्यों नहीं लाई जाती ?
मरीजों के मरने के बाद भी जो अस्पताल इलाज के नाम पर लाखों का बिल बनाते हैं,
और लाश तक रोक लेते हैं उनके खिलाफ क्यों नहीं लाते पिटीशन?
दुर्घटना के बाद घायलों को बिना इलाज भगा देनेवाले डाक्टरों के खिलाफ क्यों नहीं
होती पिटीशन?
राजस्थान में डॉक्टर ने मरीज को अस्पताल में सबके साबके मारा, उसके खिलाफ
आई एम् ए ने क्या किया?
यही बदतमीजी वकील भी कर रहे हैं। एक वकील दूसरे वकील को मारे और पूरे देश में हड़ताल कर दो। न्याय की आस में घर, जमीन बेच चुके मुवक्किदिलाने ल की न्याय की चिंता नहीं है किसी वकील को।
आम आदमी को ब्लैक मेल कर रहे पत्रकारों के साथ पूरा मीडिया जुट जाता है।
कैसा लोकतंत्र बना रहे हैं हम। निर्बल और गरीब की जान बचानेवाला, न्याय
दिलाने वाला, उसकी आवाज उठाने वाला, उसके जीवन भर की कमाई देने का सपना दिखानेवाला सब संगठन बनाकर खड़े हैं। उन्हें समर्थन को संरक्षण चाहिए, और ये सब असहायकी जान लेते रहें उनके खिलाफ कुछ नहीं हो रहा।
शर्मनाक।
***
***
नवाविष्कृत सवैया
गण सूत्र: स म त न भ स म ग ।वर्णिक यति: ७-७-७ ।
*
अँखुआए बीजों को, स्नेह सलिल से सींचो, हरियाली आयेगी।
अँकुराए पत्तों को, पाल धरणि धानी हो, खुशहाली पायेगी।
शुचिता के पौधों को, पाल कर बढ़ाओ तो, रँग होली लाएगी।
ममता के वृक्षों को, ढाल बन बचाओ तो, नव पीढ़ी गायेगी।
*
***
हिंदी का दैदीप्यमान सूर्य सलिल
आभा सक्सेना 'दूनवी'
संजीव वर्मा सलिल एक ऐसा नाम जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है |उनकी प्रशंसा करना मतलब सूर्य को दीपक दिखाने जैसा होगा |उनसे मेरा परिचय मुख पोथी पर सन 2014 - 2015 में हुआ |उसके बाद तो उनसे दूरभाष पर वार्तालाप का सिलसिला चल रहा है| सलिल जी स्वयं में ही एक पूरा छंद काव्य हैं| उन्होने किस विधा में नहीं लिखा हर विधा के वे ज्ञानी पंडित हैं उन के व्यक्तित्व में उनकी कवियित्री बुआ महादेवी वर्मा जी की साफ झलक दिखाई देती है |
सन 2014, उस समय मैं नवगीत लिखने का प्रयास कर रही थी उस समय मुझे उन्हों ने ही नवगीत विधा की बारीकियाँ सिखाईं
मेरा नव गीत उनके कुछ सुझावों के बाद -----------
नव गीत
कुछ तो
मुझसे बातें कर लो
अलस्सुबह जा
सांझ ढले
घर को आते हो
क्या जाने
किन हालातों से
टकराते हो
प्रियतम मेरे!
सारे दिन मैं
करूँ प्रतीक्षा-
मुझ को
निज बाँहों में भर लो
थका-चुका सा
तुम्हें देख
कैसे मुँह खोलूँ
बैठ तुम्हारे निकट
पीर क्या
हिचक टटोलूँ
श्लथ बाँहों में
गिर सोते
शिशु से भाते हो
मन इनकी
सब पीड़ा हर लो
.....आभा
आज कल वे सवैया छंद पर कार्य कर रहे हैं उनका कहना है कि
“सवैया आधुनिक हिंदी की शब्दावली के लिए पूरी तरह उपयुक्त छंद' है।
यह भ्रांति है कि सरस सवैये केवल लोकभाषाओं लिखे जा सकते हैं।
सत्य यह है कि सवैया वाचिक परंपरा से विकसित छंद है। लोक गायक प्रायः अशिक्षित या अल्प शिक्षित थे। उन्होंने लोक भाषा में सवैया रचे और उन्हें पढ़कर उन्हीं की शब्दावली हमें सहज लगती है। मैं सवैया कोष पर काम कर रहा हूँ। 160 प्रकार के सवैये बना चुका हूँ। सब आधुनिक हिंदी में हैं जिनमें वर्णिक व मात्रिक गणना व यति समान हैं। के सवैये बना चुका हूँ। सब आधुनिक हिंदी में हैं जिनमें वर्णिक व मात्रिक गणना व यति समान हैं”|
एक कथ्य चार छंद:
*
जनक छंद
फूल खिल रहे भले ही
गर्मी से पंजा लड़ा
पत्ते मुरझा रहे हैं
*
माहिया
चाहे खिल फूल रहे
गर्मी से हारे
पत्ते कुम्हलाय हरे.
*
दोहा
फूल भले ही खिल रहे, गर्मी में भी मौन.
पत्ते मुरझा रहे हैं, राहत दे कब-कौन.
*
सोरठा
गर्मी में रह मौन, फूल भले ही खिल रहे,
राहत दे कब-कौन, पत्ते मुरझा रहे हैं.
रोला
गर्मी में रह मौन, फूल खिल रहे भले ही.
राहत कैसे मिलेगी, पत्ते मुरझा रहे हैं.
*
सलिल जी बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं | उनको देख कर लगता है कि उनका साहित्य के प्रति विशेष रूप से लगाव है इसी लिए उन्होने अपना जीवन साहित्य के प्रति समर्पित कर दिया है |
दोहा लिखना भी मैंने उन से ही सीखा |
एक दोहा लिखा और लिख कर उन्होने मेरे नाम ही कर दिया |
आभामय दोहे नवल, आ भा करते बात। आभा पा आभित सलिल, पंक्ति पंक्ति जज़्बात ।।
इसे कहते हैं बड़प्पन |उनकी प्रतिभा दूर दूर तक देदीप्यमान है और रहेगी |
बेहद आभार आपका
अतः ऐसे व्यक्तित्व को मेरा कोटिशः नमन भविष्य में उनकी साहित्यिक प्रगति और अच्छे स्वास्थ्य एवं शतायु की कामना करते हुए .....
आभा सक्सेना दूनवी
देहरादून
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व्यंग्य रचना:
अभिनंदन
लो
*
युग-कवयित्री!
अभिनंदन
लो....
*
सब जग अपना, कुछ न पराया
शुभ सिद्धांत तुम्हें यह भाया.
गैर नहीं कुछ भी है जग में-
'विश्व एक' अपना सरमाया.
जहाँ मिले झट झपट वहीं से
अपने माथे यश-चंदन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
मेरा-तेरा मिथ्या माया
दास कबीरा ने बतलाया.
भुला परायेपन को तुमने
गैर लिखे को कंठ बसाया.
पर उपकारी अन्य न तुमसा
जहाँ रुचे कविता कुंदन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
हिमगिरी-जय सा किया यत्न है
तुम सी प्रतिभा काव्य रत्न है.
चोरी-डाका-लूट कहे जग
निशा तस्करी मुदित-मग्न है.
अग्र वाल पर रचना मेरी
तेरी हुई, महान लग्न है.
तुमने कवि को धन्य किया है
खुद का खुद कर मूल्यांकन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
कवि का क्या? 'बेचैन' बहुत वह
तुमने चैन गले में धारी.
'कुँवर' पंक्ति में खड़ा रहे पर
हो न सके सत्ता अधिकारी.
करी कृपा उसकी रचना ले
नभ-वाणी पर पढ़कर धन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
तुम जग-जननी, कविता तनया
जब जी चाहा कर ली मृगया.
किसकी है औकात रोक ले-
हो स्वतंत्र तुम सचमुच अभया.
दुस्साहस प्रति जग नतमस्तक
'छद्म-रत्न' हो, अलंकरण लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
२०-६-२०१८
टीप: श्रेष्ठ कवि की रचना को अपनी बताकर २३-५-२०१८ को प्रात: ६.४० बजे काव्य धारा कार्यक्रम में आकाशवाणी पर प्रस्तुत कर धनार्जन का अद्भुत पराक्रम करने के उपलक्ष्य में यह रचना समर्पित उसे ही जो इसका सुपात्र है)
***
लघु कथा
राष्ट्रीय एकता
*
'माँ! दो भारतीयों के तीन मत क्यों होते हैं?'
''क्यों क्या हुआ?''
'संसद और विधायिकाओं में जितने जन प्रतिनिधि होते हैं उनसे अधिक मत व्यक्त किये जाते हैं.'
''बेटा! वे अलग-अलग दलों के होते हैं न.''
'अच्छा, फिर दूरदर्शनी परिचर्चाओं में किसी बात पर सहमति क्यों नहीं बनती?'
''वहाँ बैठे वक्ता अलग-अलग विचारधाराओं के होते हैं न?''
'वे किसी और बात पर नहीं तो असहमत होने के लिये ही सहमत हो जाएँ।
''ऐसा नहीं है कि भारतीय कभी सहमत ही नहीं होते।''
'मुझे तो भारतीय कभी सहमत होते नहीं दीखते। भाषा, भूषा, धर्म, प्रांत, दल, नीति, कर, शिक्षा यहाँ तक कि पानी पर भी विवाद करते हैं।'
''लेकिन जन प्रतिनिधियों की भत्ता वृद्धि, अधिकारियों-कर्मचारियों के वेतन बढ़ाने, व्यापारियों के कर घटाने, विद्यार्थियों के कक्षा से भागने, पंडितों के चढोत्री माँगने, समाचारों को सनसनीखेज बनाकर दिखाने, नृत्य के नाम पर काम से काम कपड़ों में फूहड़ उछल-कूद दिखाने और कमजोरों के शोषण पर कोई मतभेद देखा तुमने? भारतीय पक्के राष्ट्रवादी और आस्तिक हैं, अन्नदेवता के सच्चे पुजारी, छप्पन भोग की परंपरा का पूरी ईमानदारी से पालन करते हैं। मद्रास का इडली-डोसा, पंजाब का छोला-भटूरा, गुजरात का पोहा, बंगाल का रसगुल्ला और मध्यप्रदेश की जलेबी खिलाकर देखो, पूरा देश एक नज़र आयेगा।''
और बेटा निरुत्तर हो गया...
*
दोहा सलिला
*
जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त
सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त
*
नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम
बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम?
*
अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत
नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत
*
अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम
कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम
*
शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार
सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार
*
गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम
अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम
*
गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास
मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास?
*
बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास
बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास
२०-६-२०१६
lnct jabalpur
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एक रचना
*
प्रभु जी! हम जनता, तुम नेता
हम हारे, तुम भए विजेता।।
प्रभु जी! सत्ता तुमरी चेरी
हमें यातना-पीर घनेरी ।।
प्रभु जी! तुम घपला-घोटाला
हमखों मुस्किल भयो निवाला।।
प्रभु जी! तुम छत्तीसी छाती
तुम दुलहा, हम महज घराती।।
प्रभु जी! तुम जुमला हम ताली
भरी तिजोरी, जेबें खाली।।
प्रभु जी! हाथी, हँसिया, पंजा
कंघी बाँटें, कर खें गंजा।।
प्रभु जी! भोग और हम अनशन
लेंय खनाखन, देंय दनादन।।
प्रभु जी! मधुवन, हम तरु सूखा
तुम हलुआ, हम रोटा रूखा।।
प्रभु जी! वक्ता, हम हैं श्रोता
कटे सुपारी, काट सरोता।।
(रैदास से क्षमा प्रार्थना सहित)
२०-११-२०१५
चित्रकूट एक्सप्रेस, उन्नाव-कानपूर
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शिवलिंग और शालिग्राम
*
हिन्दू धर्म के तीन प्रमुख देवता हैं- ब्रह्मा, विष्णु और महेश को क्रमश: शंख, शिवलिंगऔर शालिग्राम रूप में सर्वोत्तम माना है। शंख सूर्य व चंद्र के समान देवस्वरूप है जिसके मध्य में वरुण, पृष्ठ में ब्रह्मा तथा अग्र में गंगा और सरस्वती नदियों का वास है।
वैदिक धर्म में मूर्ति की पूजा नहीं होती। शिवलिंग और शालिग्राम की भगवान का विग्रह रूप मानकर पूजा की जानी चाहिए।
शालिग्राम का मंदिर : नेपाल में स्थित मुक्तिनाथ में स्थित शालिग्राम का प्रसिद्ध मंदिर वैष्‍णव संप्रदाय के प्रमुख मंदिरों में से एक है। काठमांडु से पोखरा, जोमसोम होकर जाना होता है। दुर्लभ शालिग्राम नेपाल के मुक्तिनाथ, काली गण्डकी नदी के तट पर पाया जाता है। काले और भूरे शालिग्राम के अलावा सफेद, नीले और ज्योतियुक्त शालिग्राम का पाया मिलना दुर्लभ है। पूर्ण शालिग्राम में भगवाण विष्णु के चक्र की आकृति अंकित होती है।
शालिग्राम के प्रकार : विष्णु के अवतारों के अनुसार शालिग्राम पाया जाता है। गोल शालिग्राम विष्णु का गोपाल रूप है। मछली के आकार काशालिग्राम मत्स्य अवतार का प्रतीक है। यदि शालिग्राम कछुए के आकार का है तो यह भगवान के कच्छप/कूर्म अवतार का प्रतीक है। शालिग्राम पर उभरने वाले चक्र और रेखाएं भी विष्णु के अन्य अवतारों और श्रीकृष्ण के कुल के लोगों को इंगित करती हैं। ३३ प्रकार के शालिग्राम में से २४ विष्णु के २४ अवतारों से संबंधित हैं। ये २४ शालिग्राम वर्ष की २४ एकादशी व्रत से संबंधित हैं।
शालिग्राम की पूजा :
* घर में सिर्फ एक ही शालिग्राम की पूजा करना चाहिए।
* विष्णु की मूर्ति से कहीं ज्यादा उत्तम है शालिग्राम की पूजा करना।
* शालिग्राम पर चंदन लगाकर उसके ऊपर तुलसी का एक पत्ता रखा जाता है।
* प्रतिदिन शालिग्राम को पंचामृत से स्नान कराया जाता है।
* जिस घर में शालिग्राम का पूजन होता है उस घर में लक्ष्मी का सदैव वास रहता है।
* शालिग्राम पूजन करने से अगले-पिछले सभी जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
* शालिग्राम सात्विकता के प्रतीक हैं। उनके पूजन में आचार-विचार की शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है।
शिवलिंग : शिवलिंग को भगवान शिव का प्रतीक माना जाता है तो जलाधारी को माता पार्वती का प्रतीक। निराकार रूप में भगवान शिव को शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है।
ॐ नम: शिवाय । यह भगवान का पंचाक्षरी मंत्र है। इसका जप करते हुए शिवलिंग का पूजन या अभिषेक किया जाता है। इसके अलावा महामृत्युंजय मंत्र और शिवस्त्रोत का पाठ किया जाता है। शिवलिंग की पूजा का विधान बहुत ही विस्तृत है इसे किसी पुजारी के माध्यम से ही सम्पन्न किया जाता है।
शिवलिंग पूजा के नियम :
* शिवलिंग को पंचांमृत से स्नानादि कराकर उन पर भस्म से तीन आड़ी लकीरों वाला तिलक लगाएं।
*शिवलिंग पर हल्दी नहीं चढ़ाना चाहिए, लेकिन जलाधारी पर हल्दी चढ़ाई जा सकती है।
*शिवलिंग पर दूध, जल, काले तिल चढ़ाने के बाद बेलपत्र चढ़ाएं।
* केवड़ा तथा चम्पा के फूल न चढाएं। गुलाब और गेंदा किसी पुजारी से पूछकर ही चढ़ाएं।
* कनेर, धतूरे, आक, चमेली, जूही के फूल चढ़ा सकते हैं।
* शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ प्रसाद ग्रहण नहीं किया जाता, सामने रखा गया प्रसाद अवश्य ले सकते हैं।
* शिवलिंग नहीं शिवमंदिर की आधी परिक्रमा ही की जाती है।
* शिवलिंग के पूजन से पहले पार्वती का पूजन करना जरूरी है
शिवलिंग का अर्थ : शिवलिंग को नाद और बिंदु का प्रतीक माना जाता है। पुराणों में इसे ज्योर्तिबिंद कहा गया है। पुराणों में शिवलिंग को कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है जैसे- प्रकाश स्तंभ लिंग, अग्नि स्तंभ लिंग, ऊर्जा स्तंभ लिंग, ब्रह्मांडीय स्तंभ लिंग आदि।
शिव का अर्थ 'परम कल्याणकारी शुभ' और 'लिंग' का अर्थ है- 'सृजन ज्योति'। वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आता है। यह सूक्ष्म शरीर 17 तत्वों से बना होता है। 1- मन, 2- बुद्धि, 3- पांच ज्ञानेन्द्रियां, 4- पांच कर्मेन्द्रियां और पांच वायु। भ्रकुटी के बीच स्थित हमारी आत्मा या कहें कि हम स्वयं भी इसी तरह है। बिंदु रूप।
ब्राह्मांड का प्रतीक : शिवलिंग का आकार-प्रकार ब्रह्मांड में घूम रही हमारी आकाशगंगा की तरह है। यह शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड में घूम रहे पिंडों का प्रतीक है। वेदानुसार ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।
अरुणाचल है प्रमुख शिवलिंगी स्थान : भगवान शिव ने ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता को लेकर हुए विवाद को सुलझाने के लिए एक दिव्य लिंग (ज्योति) प्रकट किया था। इस लिंग का आदि और अंत ढूंढते हुए ब्रह्मा और विष्णु को शिव के परब्रह्म स्वरूप का ज्ञान हुआ। इसी समय से शिव के परब्रह्म मानते हुए उनके प्रतीक रूप में लिंग की पूजा आरंभ हुई। यह घटना अरुणाचल में घटित हुई थी।
आकाशीय पिंड : ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार विक्रम संवत के कुछ सहस्राब्‍दी पूर्व संपूर्ण धरती पर उल्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदिमानव को यह रुद्र (शिव) का आविर्भाव दिखा। जहां-जहां ये पिंड गिरे, वहां-वहां इन पवित्र पिंडों की सुरक्षा के लिए मंदिर बना दिए गए। इस तरह धरती पर हजारों शिव मंदिरों का निर्माण हो गया। उनमें से प्रमुख थे 108 ज्योतिर्लिंग।
संग-ए-असवद : शिव पुराण के अनुसार उस समय आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेक उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। कहते हैं कि मक्का का संग-ए-असवद भी आकाश से गिरा था।
***
स्मृति गीत:
हर दिन पिता याद आते हैं...
संजीव 'सलिल'
*
जान रहे हम अब न मिलेंगे.
यादों में आ, गले लगेंगे.
आँख खुलेगी तो उदास हो-
हम अपने ही हाथ मलेंगे.
पर मिथ्या सपने भाते हैं.हर
दिन पिता याद आते हैं...
*
लाड़, डाँट, झिड़की, समझाइश.
कर न सकूँ इनकी पैमाइश.
ले पहचान गैर-अपनों को-
कर न दर्द की कभी नुमाइश.
अब न गोद में बिठलाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
अक्षर-शब्द सिखाये तुमने.
नित घर-घाट दिखाए तुमने.
जब-जब मन कोशिश कर हारा-
फल साफल्य चखाए तुमने.
पग थमते, कर जुड़ जाते हैं
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
२०-६-२०१०