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रविवार, 22 अप्रैल 2012

दोहा सलिला: अंगरेजी में खाँसते... --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
अंगरेजी में खाँसते...
संजीव 'सलिल'
*
अंगरेजी में खाँसते, समझें खुद को  श्रेष्ठ.
हिंदी की अवहेलना, समझ न पायें नेष्ठ..
*
टेबल याने सारणी, टेबल माने मेज.
बैड बुरा माने 'सलिल', या समझें हम सेज..
*
जिलाधीश लगता कठिन, सरल कलेक्टर शब्द.
भारतीय अंग्रेज की, सोच करे बेशब्द..
*
नोट लिखें या गिन रखें, कौन बताये मीत?
हिन्दी को मत भूलिए, गा अंगरेजी गीत..
*
जीते जी माँ ममी हैं, और पिता हैं डैड.
जिस भाषा में श्रेष्ठ वह, कहना सचमुच सैड..
*
चचा फूफा मौसिया, खो बैठे पहचान.
अंकल बनकर गैर हैं, गुमी स्नेह की खान..
*
गुरु शिक्षक थे पूज्य पर, टीचर हैं लाचार.
शिष्य फटीचर कह रहे, कैसे हो उद्धार?.
*
शिशु किशोर होते युवा, गति-मति कर संयुक्त.
किड होता एडल्ट हो, एडल्ट्री से युक्त..
*
कॉपी पर कॉपी करें, शब्द एक दो अर्थ.
यदि हिंदी का दोष तो अंगरेजी भी व्यर्थ..
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टाई याने बाँधना, टाई कंठ लंगोट.
लायर झूठा है 'सलिल', लायर एडवोकेट..
*
टैंक अगर टंकी 'सलिल', तो कैसे युद्धास्त्र?
बालक समझ न पा रहा, अंगरेजी का शास्त्र..
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प्लांट कारखाना हुआ, पौधा भी है प्लांट.
कैन नॉट को कह रहे, अंगरेजीदां कांट..
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खप्पर, छप्पर, टीन, छत, छाँह रूफ कहलाय.
जिस भाषा में व्यर्थ क्यों, उस पर हम बलि जांय..
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लिख कुछ पढ़ते और कुछ, समझ और ही अर्थ.
अंगरेजी उपयोग से, करते अर्थ-अनर्थ..
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हीन न हिन्दी को कहें, भाषा श्रेष्ठ विशिष्ट.
अंगरेजी को श्रेष्ठ कह, बनिए नहीं अशिष्ट..
*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.इन

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

दोहा सलिला: शब्दों से खिलवाड़- १ --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
शब्दों से खिलवाड़- १
संजीव 'सलिल'
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शब्दों से खिलवाड़ का, लाइलाज है रोग..
कहें 'स्टेशन' आ गया, आते-जाते लोग.
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'पौधारोपण' कर कहें, 'वृक्षारोपण' आप.
गलत शब्द उपयोग कर, करते भाषिक पाप..
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'ट्रेन' चल रही किन्तु हम, चला रहें हैं 'रेल'. 
हिंदी माता है दुखी, देख शब्द से खेल..
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कहते 'हैडेक' पेट में, किंतु नहीं 'सिरदर्द'.
बने हँसी के पात्र तो, मुख-मंडल है ज़र्द..
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'फ्रीडमता' 'लेडियों' को, मिले दे रहे तर्क.
'कार्य' करें तो शर्म है, गर्व करें यदि 'वर्क'..
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'नेता' 'लीडर' हो हुए, आम जनों से दूर.
खून चूसते देश का, मिल अफसर मगरूर..
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'तिथि' आने की ज्ञात तो, 'अतिथि' रहे क्यों बोल?
शर्म न गलती पर करें, पीट रहे हैं ढोल..
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क्यों 'बस' को 'मोटर' कहें, मोटर बस का यंत्र.
सही-गलत के फर्क का, सिर्फ अध्ययन मंत्र.. 
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'नृत्य' न करना भूलकर, डांस इंडिया डांस. 
पूजा पेशा हो गयी, शाकाहारी मांस..
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'सर्व' न कर 'सर्विस' करें, कहलायें 'सर्वेंट'.
'नौकर' कहिये तो लगे, हिंदी इनडीसेंट..  
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'ममी-डैड' माँ-बाप को, कहें उठाकर शीश.
बने लँगूरा कूदते, हँसते देख कपीश..
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गुरुवार, 27 मई 2010

व्यंग: जाति पूछो साधु की ..... विवेक रंजन श्रीवास्तव

व्यंग

जाति पूछो साधु की .....

विवेक रंजन श्रीवास्तव




कबीर का दोहा जाति न पूछो साधु की , पूंच लीजिये ज्ञान अब पुराना हुआ . जमाना ज्ञान की पूंछ परख का नही है . जमाना नेता जी की पूंछ का है . नेताजी की पूंछ वोट की संख्या से होती है . वोट के बंडल बनते हैं जाति से . इसलिये साधु की जाति जानना बहुत जरूरी है . जब एक से चार चेहरो में से वोटर जी को कुछ भी अलग , कुछ भी बेहतर नही दिखता तो वह उम्मीदवार की जाति देखता है , और अपनी जाति के कैंडीडेत को यह सोचकर वोट दे देता है कि कम से कम एक कामन फैक्टर तो है उसके और उसके नेता जी के बीच , जो आड़े समय में उसके काम आ सकता है . और काम नही भी आया तो कम से कम जाति का ही भला होगा . तो इस सब के चलते ही हर राजनैतिक दल पहले हिसाब लजाता है कि किस क्षेत्र में किस जाति के कितने वोटर हैं , फिर उस गणित के ही आधार पर कैंडीडेट का चयन होता है . इसका कोई विरोध नही है , मीडिया भी मजे से इस सबकी खबरें छापता है , चुनाव आयोग भी कभी नही पूछता कि अमुक क्षेत्र से सारे उम्मीदवार यादव ही क्यों हैं ? या हाथी पर सवार पार्टी भी क्यो फलां क्षेत्र से लाला या पंडित उम्मीदवार ही खड़ा करती है .

कथित रूप से पिछड़ी जाति के होने का लेबल लगाकर , आरक्षण की सीढ़ीयां चढ़कर कुछ लोग एअरकंडीशन्ड चैम्बर्स में जा बैठे हैं . ये अपनी जाति की आरक्षित सुख सुविढ़ाओ की वृद्धि के लिये सतत सक्रिय रहते हैं . हर विभाग , हर पार्टी , में इन्होंने अपनी जाति के नाम पर प्रकोष्ठ बना रखे हैं , और स्वयं अपनी कार पर नम्बर प्लेट के उपर जातिगत लालपट्टी लगाकर कानूनी आतंक का सहारा लेकर अपनी नेतागिरी चमका रहे हैं . जिन जातियों को आरक्षण सुख नसीब नही है वे लामबंद होकर अपने वोटो की संख्या का हवाला देकर आंदोलन कर रहे हैं और जातिगत आरक्षण की मांग कर रहे है . इन सब पर कोई प्रतिबंध नही है . क्योंकि जाति मे वोटो की गड्डिया छिपी हुई हैं .

एक समय था जब कुछ लोगो ने देश प्रेम के बुखार में अपने जनेऊ उतार फेंके थे . कुछ ने अपने सरनेम हिंदुस्तानी , भारतीय , आदमी , मानव , देशप्रेमी वगैरह लिखने शुरू कर दिये थे . पर ऐसे लोगो से स्कूल में प्रवेश के समय , नौकरी के आवेदन में , पासपोर्ट बनवाते समय , पुलिस जाँच में , न्यायालयो में हर कही सरकारी नुमाइन्दगे उनकी जाति भरवाकर ही मानते हैं . ५स जाति की पूंछतांछ पर किसी को कोई आपत्ति नही है . आदमी है तो जाति है , जाति नही तो हाय तौबा है , पर जाति है तो मीडिया चुप , सरकार चुप , जाति संप्रदाय के लोग खुश . नाखुशी तो तब होती है जब फतवे की अवमानना की हिम्मत कोई करता है . मौत की धमकियां तक मिलती हैं ऐसे नामुरीद इंसान को . प्यार के चक्कर में जाति बिरादरी से बाहर शादी करने वालो को समाज दिल भरकर कोसता है . तनखैया घोषित कर देता है उसे जो जाति के नियमो की अवहेलना की चेष्टा भी करता है , फिर वह चाहे राष्ट्रपति भी क्यों न हो . जात मिलाई तभी होती है जब दारू वारू , भात वात से प्रायश्चित होता है .

मतलब जाति गोत्र संप्रदाय समाज का जरूरी हिस्सा है . फिर सरकारी जनगणना में भी यदि आंकड़ो की सक्ल में यह जाति दर्ज हो जाये तो इतनी हाय तौबा क्यो ? लोकतांत्रिक सिद्धांतो को लेकर मीडिया और कथित बुद्धिजीवी बेवजह परेशान हैं , बहस की कोई जरूरत नही है , ाब साधु की जाति जानना जरूरी है , क्योकि उसी में छिपा है मैनेजमेंट कि किस जगह किस साधु के प्रवचन से कितने वोट अपने हो सकते हैं ? किस साधु के प्रभाव में कतने वोट हैं ? जो भी हो मेरी जाति तो व्यंगकार की है , परसाई की है शरद जोशी की है .मैं तो लिखूंगा ही , पढ़ना हो तो पढ़ना , समझना .वरना हम भले हमारी कलम भली .
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सोमवार, 9 नवंबर 2009

व्‍यंग्‍य: हवाई जहाज का आसमान में सब्जियों और दालों से गले मिलना

व्‍यंग्‍य:

हवाई जहाज का आसमान में सब्जियों और दालों से गले मिलना

- अविनाश वाचस्‍पति

हैरान मत होइये। आप नहीं, हवाई जहाज की बात कर रहा हूं उन्‍हीं से पूछ रहा हूं वे कह रहे हैं कि कल तक हमें गुमान था कि इतनी ऊंचाईयों पर सिर्फ हम ही उड़ते विचरते रहते हैं। काफी नीचे इससे पक्षी उड़ते हैं। पर आप भी इतनी ऊंचाई पर पहुंच जाओगे, हमें विश्‍वास नहीं हो रहा है। कभी किसी को कमजोर नहीं समझना चाहिए सब्जियों ने कहा। घूरे के दिन फिर जाते हैं फिर हम तो सब्जियां हैं। कॉमनमैन ने हमें कामन कर दिया था पर महंगाई ने हमारी लाज बचा ली है। कॉमन होने की जिल्‍लत से हमने छुट्टी पा ली है। देखो हम यहां पर अपनी पूरी आन बान और शान से मौजूद हैं।

दे दाल में पानी देकर हमारी मिट्टी इंसान ने खराब कर रखी थी पर जब दाल के ही लाले पड़ जायेंगे तो पानी में डूब कर मरने के सिवाय कॉमनमैन के सामने कोई और रास्‍ता नहीं बचा है। दालें गर्व से यह अहसास कर फूली नहीं समा रही थीं। दालें आसमान में चारों ओर छितराई हुई थीं और हवाई जहाज उनके बीच में से बच बचाकर उड़ने के लिए मजबूर था। पायलटों को नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। चने ही सस्‍ते हैं। दालें महंगी हैं इसलिए नाक से दाल चबाने की तो पायलट अब सोच भी नहीं सकते हैं। डूबने के लिए कॉमनमैन को पानी भी अब बिसलेरी ही चाहिए होता है, साधारण पानी के कीटाणुओं से मरेंगे तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी।

कद्दू, घिया, सीताफल अपनी उन्‍नति पर प्रसन्‍न नजर आ रहे थे। आलू भी अब इतनी आसानी से हाथ नहीं आते हैं और टमाटरों ने तो सबको लाल कर रखा है। सब्जियों का हरा रंग अब आंखों में हरियाली नहीं लाता है। सब्जियों को देखते ही आंखें मुंद जाती हैं। हाथ अकड़ जाते हैं। उनमें इतनी ताकत नहीं बचती कि जेब की तरफ बढ़ने की सोच सकें और जीभ तो उनकी कीमतें सुनकर ही तालू से ऐसी चिपकती है कि जैसे गरीबी कॉमनमैन से चिपकने के लिए अभिशप्‍त है। जैसे अमीरी नेताओं की जेब में रहती है। गाजर मूली भी अब मामूली सब्जियां नहीं रही हैं। वे भी आसमान में कुलांचें भर रही हैं। खूब खुश हैं। मूली डर से सफेद नहीं होती खरीदने वाला कॉमनमैन उनकी कीमत जानकर डर से सफेद हो जाता है और जब गाजर को खरीदने में असफल होता है तो शर्म से उसका मुंह लाल हो जाता है। सब्जियों के रंगों के अब निराले ढंग हैं।

सेब को आज अपने सेब होने पर शर्म आ रही थी वो शर्म से जमीन में गड़ने की बजाय आसमान में उड़ा जा रहा था। वो तो खैर पहले भी उड़ता रहा है पर उसकी ऊंचाई में कोई इजाफा नहीं हुआ है। । बाजी तो इस बार मारी है अमरूद ने। जी हां, अमरूद जिसने बिग बी के छाने से पहले इलाहाबाद का नाम मशहूर कर रखा है। वह अमरूद सेब के पास पास ही उड़ रहा था सेब जितना उससे दूर होने की कोशिश कर रहा था, अमरूद उसके गले पड़ रहा था। कहानी कुछ नहीं है, अमरूद के भाव 50 से 60 रुपये किलो हो रहे हैं और सेब अब 40 रूपये किलो में भी मिल रहा है। अब बतलायें सेब की इतनी फजीहत हो और शर्म से आसमान में न गड़ जाए तो क्‍या करे ? जमीन पर रहने वाला आलू तक महंगाई के बल पर आसमान में हवाई जहाज के आसपास ही चक्‍कर लगाता मिला तो सेब ने आंखें ही बंद कर लीं। जिस तरह बिल्‍ली को देखकर कबूतर आंखें बंद करता रहा है पर आलू महाशय वहीं मंडरा रहे हैं।

हवाई जहाज विचारमग्‍न है कि इन जमीनी सब्जियों के भी पंख महंगाई ने निकाले हैं अब कॉमनमैन वेल्‍थ गेम्‍स के नाम पर गरीबों के मुंह से छीन लिए निवाले हैं। पर ऐसों की भी कमी नहीं है जिन्होंने इन्‍हीं कार्यों को कराने के नाम पर खूब हिस्‍सेदारी बंटाई है। उसे स्‍मरण हो आती है अपनी दुर्दशा जब जमीन पर रेंगने दौड़ने वाली रेल उसे नीचे से सीटी बजा बजाकर चिढ़ाती रही है क्‍योंकि उसके किराये हवाई जहाज के किरायों से भी अधिक हो गए थे और आज भी ऐसा ही है पर क्‍या करे हवाई जहाज जब सेब कुछ नहीं कर पा रहा है। तीनों विवश हैं। आप पूछेंगे कि तीसरा कौन है, तो तीसरा तो आजाद भारत की राजधानी में रहने वाला कॉमनमैन है जिसकी वेल्‍थ के नाम पर उसे बीमार कर दिया गया है।
...
- अविनाश वाचस्‍पति, साहित्‍यकार सदन, पहली मंजिल, 195 सन्‍त नगर, नई दिल्‍ली 110065

मोबाइल 09868166586/09711537664