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सोमवार, 12 दिसंबर 2022

सॉनेट, शिव, साक्षात्कार, ब्रह्मजीत गौतम, समीक्षा, दोहा गीत, मुक्तक, गंगा स्तोत्र,

सॉनेट
शिव
सदा शिव का भजन करिए
शक्ति के आधार हैं शिव
भक्तिमय संसार हैं शिव
साथ शिव के सलिल रहिए

मित्र! शिव का मनन करिए
युक्ति हैं; व्यापार हैं शिव
पतित तारणहार हैं शिव
मौन रहकर सतत भजिए

शुभद हैं कल्याण हैं शिव
भव-भयों से त्राण हैं शिव
प्राणि हम; संप्राण हैं शिव

सत्य हैं शिव याद रखिए
परम सुंदर मत बिसरिए
आत्म को विश्वात्म करिए
संजीव
१२-१२-२०२२
जबलपुर,७॰०१
●●●
साक्षात्कार
*
आज सच मे सरस्वती माँ के पुत्र का साक्षात्कार लेकर खुद को सौभाग्य शाली समझता हूं

वर्षो पूर्व लिखी सरस्वती वंदना जो सरस्वती शिशु मंदिर में बच्चे प्रातः गाकर शिक्षा गृहण करते है,और शायद प्रथम सरस्वती वंदना है।
उस वन्दना के रचयिता दादा संजीव वर्मा,सलिल जी से एक भेंट,पूरा कार्यक्रम इस लिंक पर देखे
अंतरराष्ट्रीय काव्य प्रेमी मंच,

गोविन्द गुप्ता

वीणापाणी सुनें वंदना, कुमुद लिए कमलेश

दिव्य मोहिनी छवि है अनुपम, विनत हुए राजेश

आशुतोष मृत्युंजय वंदन, नमन राम घनश्याम

सदय राम मोहन हों हम पर, ममता मृदुल ललाम

गीता गोविन्द कहें एकता, कर हों हम राजेंद्र

प्रीतम-प्रिया न दूर रहें अब, हों वे शचि-देवेंद्र

करे अर्चना सौरभ बिखरा, जिया थाम धीरेश

उषा-शशि किरण सुमन लिए ऋतु , कर जोड़े देवेश

झरना प्रवहित भक्ति भाव का, सपना है साकार

विजय प्रकाश हमें दो मैया, हो पाएँ अवनीश

आशा-आशी हों आशीषित, खुश मनीष रजनीश

अनुपमा अनुभा अनामिका, अंजुरी भर राजीव

बबिता चंद्र अंजना सज्जित, नमित हुई संजीव

सचिन शनाया राजपाल मिल, मग्न जोड़ कर साथ

नीतू नित्य नव्य स्वर छेड़े, गा स्तुति नत माथ

***
कृति चर्चा :
दोहे पानीदार
चर्चाकार - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[कृति विवरण: दोहे पानीदार, दोहा संकलन, डॉ. ब्रह्मजीत गौतम, प्रथम संस्करण २०१९, आईएसबीएन ९७८-९३-८८९४६-८०-३, आकार २२.से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ २००, मूल्य १५० रु., बेस्ट बुक बडीज टेक्नोलॉजीस, नई दिल्ली, दोहाकार संपर्क - युक्का २०६, पैरामाउण्ट सिम्फनी, क्रॉसिंग रिपब्लिक, ग़ाज़ियाबाद २०१०१६ उ. प्र., चलभाष - ०९७६०००७८३८, ०९४२५१०२१५४०, ई-मेल bjgautam2007@gmail.com ।]
*
भारत में किसी कार्य का श्री गणेश ईश वंदना से करने की परंपरा है। वरिष्ठ दोहाकार डॉ. ब्रह्मजीत गौतम ने एक नयी रीति का आरंभ ‘ध्यातव्य बातें’ शीर्षक के अंतर्गत दोहा-लेखन के दोषों की चर्चा से किया है। कबीर काव्य में प्रतीक विधान पर शोध और कबीर प्रतीक कोष की रचना करनेवाला दोषों को चुन-चुन कर चोट करने की कबीरी राह पर चले यह स्वाभाविक है। गौतम जी बहुआयामी रचनाकार हैं। शोधपरक कृति जनक छंद - एक विवेचन, काव्य संग्रह अंजुरी, ग़ज़ल संग्रह वक़्त के मंजर व एक बह्र पर एक ग़ज़ल, जनक छंद संग्रह जनक छंद की साधना, मुक्तक संग्रह दोहा मुक्तक माल तथा समीक्षा संग्रह दृष्टिकोण के रचनाकार सेवानिवृत्त हिंदी प्राध्यापक डॉ. गौतम ने दोहराव, अस्पष्टता तथा पूर्वापर संबंध को दोहा लेखन का कथ्यदोष तथा अनूठापन, धार और संदेशपरकता को दोहा लेखन का गुण ठीक ही बताया है। ‘शिल्प’ उपशीर्षक के अंतर्गत मात्रा गणना, अधिक मात्रा दोष, न्यून मात्रा दोष, ग्यारहवीं मात्रा लघु न होना, वाक्य भंजक दोष, लय दोष, मात्रा विभाजन दोष, तुक विधान दोष, अनुस्वार दोष, अवांछित व्यंजनागम की चर्चा है। भाषा रूप उपशीर्षक के अंतर्गत पुनरक्ति दोष, एक शब्द दो उच्चारण, शब्दों के मध्य अनावश्यक दूरी, पर का प्रयोग, अवैध संधि, लिंग, वचन, पुरुष, काल, अमानक शब्द-प्रयोग आदि पर विमर्श है तथा अंत में दोहा के २३ प्रकारों की निरर्थकता का संकेत है। डॉ. गौतम ने छंदप्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ द्वारा उल्लिखित नियमों का संदर्भ दिया है किन्तु पदारंभ में दग्धाक्षर व् जगण निषेध की चर्चा नहीं है। भाषा और नदी सतत परिवर्तित होकर निर्मल बनी रहती हैं। भानु जी ने ग्यारहवीं मात्रा को लघु रखे जाने का संकेत किया है किन्तु उनके पूर्व और पश्चात् के अनेक दोहाकारों (जिनमें कबीर, खुसरो, जायसी, तुलसी, बिहारी जैसे अमर दोहाकार भी हैं) ने इस नियम को अनुल्लंघनीय न मानकर दोहे रचे हैं।
अब वंदना के प्रथम दोहे से गौतम जी ने परंपरा-पालन किया है। दोहा मुक्तक छंद है। वह पूर्व या पश्चात् के दोहों से पूरी तरह मुक्त, अपने आप में पूर्ण होता है। आजकल एक विषय पर दोहों को एकत्र कर अध्यायों में विभक्त करने का चलन होने पर भी गौतम जी ने ५२० दोहे क्रमानुसार प्रकाशित कर लीक को ठीक ही तोडा है। सामान्य रचनाकार ‘स्वांत: सुखाय’ लिखता है जबकि गौतम जी जैसा रचनाकार इसके समानांतर श्रोता और पाठक में सत्साहित्य की समझ भी विकसित करते हैं। गौतम जी कबीर की तरह भाषा को शाब्दिक संस्कृतनिष्ठता का कुआँ न बनाकर कथ्यानुकूल विविध भाषाओँ से शब्द चयन कर ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के वैदिक आदर्श को मूर्त करते हैं। यह आदर्श धार्मिक समानता और समरसता की जननी है -
अल्ला या ईसा कहो, या फिर कह लो राम।
करता ‘वही’ सहायता, जब पड़ता है काम।।
गौतम जी ‘तत्तु समन्वयात’ के बौद्ध सूत्र को जीवन में अनिवार्य मानते हैं-
आत्मिक-भौतिक उन्नयन, दोनों हैं अनिवार्य।
यदि इनमें हो संतुलन, जीवन हो कृतकार्य।।
दोहों में लोकोक्तियों का प्रयोग करने की परंपरा गौतम जी को भाती है। लोकोक्ति दोहे को मुहावरेदार और लोक ग्राह्य बनाती है। ‘आप भले तो जग भला’ लोकोक्ति का सार्थक प्रयोग देखिए -
आप भले तो जग भला, कहें पुराने लोग।
जिसने समझा सूत्र यह, खुद पर करे प्रयोग।।
हिंदी व्याकरण के अनुसार ‘एक’ के स्थान पर ‘इक’ का प्रयोग गलत है किंतु गौतम जी ने ‘इक’ का प्रयोग किया है। भाषिक शुद्धता के पक्षधर विद्वान दोहाकार के लिए इससे बचना कठिन नहीं है पर संभवत: उर्दू ग़ज़ल से जुड़ाव के कारण उन्हें इसमें आपत्ति नहीं हुई।
इक तो आलस दूसरे, बात-बात में क्रोध।
कैसे ठहरे अनुज में, फिर विवेक या बोध।।
इक विरहानल दूसरे, सूरज का आतंक।
दो-दो ज्वालाएँ सहे, कैसे मुखी मयंक।।
महानगरीय स्वार्थपरक जीवन दृष्टि प्रकृति को भोग्य मानकर उसका शोषण कर विनाश को आमंत्रित कर रही है। दोहाकार उस जीवन पद्धति को अपनाने का गृह करता है जो प्रकृति के अनुकूल हो-
इस सीमा तक हो सहज, अपने जीवन-ढंग।
हो जाए जो प्रकृति से, एक रूप-रस-रंग।।
‘कर्म’ को महत्त्व देना भारतीय जन-जीवन का वैशिष्ट्य है. गीता ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते” कहती है तो तुलसी ‘कर्म प्रधान बिस्व करि राखा’ कहकर कर्म की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। गौतम जी कर्मव्रती खद्योत को प्रणाम कर कर्म-पथ का महत्ता प्रतिपादित करते हैं-
उस नन्हें खद्योत को, बारंबार प्रणाम।
जो करता है रात में, तम का काम तमाम।।
कबीर ‘गुरु’ और ‘गोबिंद’ में से गुरु को पहले प्रणाम करते हैं चूँकि ‘गुरु’ ही ‘गोबिंद’ से मिलवाता है। कबीर के अनुयायी गौतम जी गुरु को कृपानिधान कहकर प्रणाम करते हैं-
उस सद्गुरु को है नमन, जो है कृपा-निधान।
ज्ञान-ज्योति से शिष्य का, जो हरता अज्ञान।।
शिक्षा जगत से जुड़े गौतम जी को भाषा की उपेक्षा और गलत प्रयोग व्यथित करे, यह स्वाभाविक है. वे स्वतंत्र देश में विदेशी सम्प्रभुओं की भाषा के बढ़ते वर्चस्व को देखकर हिंदी के प्रति चिंतित हैं-
ए बी सी आये नहीं, पर अंग्रेजी बोल।
हिंदी की है देश में, नैया डाँवाडोल।।
अमिधा के साथ-साथ लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग जगह-जगह बखूबी किया गया है है इस दोहा संग्रह में।
ओ पानी के बुलबुले!, करता क्यों अभिमान?
हवा चली हो जाएगा, पल में अंतर्ध्यान।।
नश्वर ज़िंदगी को ओस बूँद बताते इस दोहे में पापजनित ताप को नाशक ठीक ही बताया गया है-
ओस-बूँद सी ज़िंदगी, इसे सहेजें आप।
ताप लगा यदि पाप का, बन जाएगी भाप।।
‘बनने’ के लिए प्रयत्न करना होता है। नष्ट होने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करता। दोहाकार आप ही प्रथम पंक्ति में ज़िंदगी को सहेजने का संदेश देता है। ‘होना’ बिना प्रयास के होता है। ‘बन’ के स्थान पर ‘हो’ का प्रयोग अधिक स्वाभाविक होगा।
कब से यह मन रट रहा, सतत एक ही नाम।
कब यह मंज़िल पायगा, तू जाने या राम।।
यहाँ प्रयोग किया गया ‘पायगा’ शब्दकोशीय ‘पायेगा’ का अपभृंश है। इससे बच जाना उचित होता।
इस संग्रह का स्मरणीय दोहा शिव-निवासस्थली काशी और कबीर की इहलीला संवरणस्थली मगहर के मध्य सेतु स्थापित करने के साथ-साथ गौतम जी के दोहाकार की सामर्थ्य का भी परिचायक है -
कर दे मुझ पर भी कृपा, कुछ तो कृपा-निकेत।
तू काशी का देवता, मैं मगहर का प्रेत।।
‘आस्तीन में साँप’ मुहावरे का उपयोग कर गौतम जी ने एक और जानदार दोहा रचा है -
करते हैं अब साँप सब, आस्तीन में वास।
बांबी से बढ़कर उन्हें, यहाँ सुरक्षा ख़ास।।
काव्य रचना केवल मनोविलास या वाग्विलास नहीं है। यह सामान्यत: प्रसांगिक रहकर शांति और विशेष परिस्थितियों में क्रांति की वाहक होकर परिवर्तन लाती है -
कविता का उद्देश्य है, स्वांत: सुख औ’ शांति।
लेकिन वही समाज में, ला देती है क्रांति।।
कविता में यदि है नहीं, जन जीवन की पीर।
समझो सागर में भरा, केवल खारा नीर।।
सामाजिक विसंगतियों पर गौतम जी के दोहा-प्रहार सटीक हैं-
काम करना हो अगर, रखिये पेपरवेट।
जितना भारी काम हो, उतना भारी रेट।।
कुर्सी जिसको मिल गयी, हो जाता सर्वज्ञ।
कक्षा में जी उम्र भर, रहा भले हो अज्ञ।।
कोई चारा खा रहा, कोई खाता खाद।
नेताओं के स्वाद की, देनी होगी दाद।।
चाहे दिल्ली में रहो, या कि देहरादून।
पाओगे सर्वत्र ही, अंध-बधिर कानून।।
चिड़ियाँ चहकें किस तरह, किसे दिखाएँ नाज़।
मँडराते हैं जब निडर, नीड़-नीड़ पर बाज।।
जंगल काटे स्वार्थवश, बनकर वीर प्रचंड
पर्यावरण विनाश का, धरा भोगती दंड।।
जो भू पर न बना सके, एक प्रेम का सेतु।
जा पहुँचे वे चाँद पर, शहर बसाने हेतु।।
इन दोहों में अलंकारों (अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, वक्रोक्ति, विरोधाभास, असंगति, अतिशयोक्ति आदि) के प्रचुर प्रयोग हैं-
पति पंचानन पुत्र हैं, गजमुख षड्मुख नाम।
देवि अन्नपूर्णा करें, उदर-पूर्ति अविराम।। -वक्रोक्ति
पत्ता हिले न ग्रीष्म में, हवा जेल में बंद।
कर्फ्यू में ज्यों गूँजते, सन्नाटों के छंद।। - अतिशयोक्ति
पीते हैं घी-दूध नित, पत्थर के भगवान्।
शिल्पकार उसके मगर, तजें भूख से प्राण।।
सारत: दोहे पानीदार के दोहे नवोदितों के लिए पाठ्य पुस्तक, स्थापितों के लिए प्रेरणा तथा सिद्धहस्तों के लिए संतोषकारक हैं। गौतम जी जैसे वरिष्ठ दोहाकार अपने मानक आप ही निर्धारित करते हैं -
भाषा-भाव समृद्ध हों, हो सुंदर अभिव्यक्ति।
कविता रस निष्पत्ति की, तब पाती है शक्ति।।
पाठक बेकली से गौतम जी के इस दोहा संग्रह कर काव्यानंद की जयकार करते हुए अगले दोहा संग्रह की प्रतीक्षा करेंगे।
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संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
१२-१२-२०१९

***
सामयिक दोहा गीत
*
अहंकार की हार
*
समय कह रहा: 'आँक ले
तू अपनी औकात।
मत औरों की फ़िक्र कर,
भुला न बोली बात।।
जीत नम्रता की हुई,
अहंकार की हार...
*
जनता ने प्रतिनिधि चुने,
दूर करें जन-कष्ट।
मुक्त कराओ किसी से,
नहीं घोषणा शिष्ट।।
बड़बोले का सिर झुका,
सही नियति का न्याय।
रोजी छन गरीब की,
हो न सेठ-पर्याय।।
शाह समझ मत कर कभी,
जन-हित पर आघात।
समय कह रहा आँक ले
तू अपनी औकात।।
लौटी आकर लक्ष्मी
देख बंद है द्वार,
जीत नम्रता की हुई,
अहंकार की हार...
*
जोड़-तोड़कर मत बना,
जहाँ-तहाँ सरकार।
छुटभैये गुंडइ करें,
बिना बात हुंकार।।
सेठ-हितों की नीतियाँ,
अफसर हुए दबंग।
श्रमिक-कृषक क्रंदन करें,
आम आदमी तंग।
दाम बढ़ा पेट्रोल के,
खुद लिख ली निज मात।
समय कह रहा आँक ले
तू अपनी औकात।।
किया गैर पर; पलटकर
खुद ही झेला वार,
जीत नम्रता की हुई,
अहंकार की हार...
*
लघु उद्योगों का हुआ,
दिन-दिन बंटाढार।
भूमि किसानों की छिनी,
युवा फिरें बेकार।
दलित कहा हनुमंत को,
कैसे खुश हों राम?
गरज प्रवक्ता कर रहे,
खुद ही जनमत वाम।
दोष अन्य के गिनाकर,
अपने मिटें न तात।
समय कह रहा आँक ले
तू अपनी औकात।।
औरों खातिर बोए थे,
खुद को चुभते खार,
जीत नम्रता की हुई,
अहंकार की हार...
***
१२.१२.२०१८
(३ राज्यों में भाजपा की हार पर)
***
दोहा
दीप-ज्योति जलती रहे, तिमिर न पाए जीत.
शब्द दीप से प्रकाशित, हो अन्तर्मन मीत.
१२-१२-२०१७
***
मुक्तक:
गीत रचें नवगीत रचें अनुगीत रचें या अगीत रचें
कोशिश यह हो कि रचें जो भी न कुरीत रचें, सद्ऱीत रचें
कुछ बात कहें अपने ढंग से, रस लय नव बिम्ब प्रतीक रहे
नफरत-विद्वेष न याद रहे, बंधुत्व स्नेह संग प्रीत रचें
१२-१२-२०१४
***
नवगीत:
जिजीविषा अंकुर की
पत्थर का भी दिल
दहला देती है
*
धरती धरती धीरज
बनी अहल्या गुमसुम
बंजर-पड़ती लोग कहें
ताने दे-देकर
सिसकी सुनता समय
मौन देता है अवसर
हरियाती है कोख
धरा हो जाती सक्षम
तब तक जलती धूप
झेलकर घाव आप
सहला लेती है
*
जग करता उपहास
मारती ताने दुनिया
पल्लव ध्यान न देते
कोशिश शाखा बढ़ती
द्वैत भुला अद्वैत राह पर
चिड़िया चढ़ती
रचती अपनी सृष्टि आप
बन अद्भुत गुनिया
हार न माने कभी
ज़िंदगी खुद को खुद
बहला लेती है
*
छाती फाड़ पत्थरों की
बहता है पानी
विद्रोहों का बीज
उठाता शीश, न झुकता
तंत्र शिला सा निठुर
लगे जब निष्ठुर चुकता
याद दिलाना तभी
जरूरी उसको नानी
जन-पीड़ा बन रोष
दिशाओं को भी तब
दहला देती है
१२-१२-२०१४
***
श्री गंगा स्तोत्र...
रचना : आदि जगद्गुरु शंकराचार्य...
दॆवि! सुरॆश्वरि! भगवति! गङ्गॆ त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गॆ ।
शङ्करमौलिविहारिणि विमलॆ मम मतिरास्तां तव पदकमलॆ ॥ 1 ॥
[हे देवी ! सुरेश्वरी ! भगवती गंगे ! आप तीनो लोको को तारने वाली हो... आप शुद्ध तरंगो से युक्त हो... महादेव शंकर के मस्तक पर विहार करने वाली हो... हे माँ ! मेरा मन सदैव आपके चरण कमलो पर आश्रित है...
O Goddess Ganga! You are the divine river from heaven, you are the saviour of all the three worlds, youare pure and restless, you adorn Lord Shiva’s head. O Mother! may my mind always rest at your lotus feet...]
भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमॆ ख्यातः ।
नाहं जानॆ तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ 2 ॥
[ हे माँ भागीरथी ! आप सुख प्रदान करने वाली हो... आपके दिव्य जल की महिमा वेदों ने भी गई है... मैं आपकी महिमा से अनभिज्ञ हू... हे कृपामयी माता ! आप कृपया मेरी रक्षा करें...
O Mother Bhagirathi! You give happiness to everyone. The significance of your holy waters is sung in the Vedas. I am ignorant and am not capable to comprehend your importance. O Devi! you are full of mercy. Please protect me...]
हरिपदपाद्यतरङ्गिणि गङ्गॆ हिमविधुमुक्ताधवलतरङ्गॆ ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ 3 ॥
[ हे देवी ! आपका जल श्री हरी के चरणामृत के समान है... आपकी तरंगे बर्फ, चन्द्रमा और मोतिओं के समान धवल हैं... कृपया मेरे सभी पापो को नष्ट कीजिये और इस संसार सागर के पार होने में मेरी सहायता कीजिये...
O Devi! Your waters are as sacred as “Charanamriti” of Sri Hari. Your waves are white like snow, moon and pearls. Please wash away all my sins and help me cross this ocean of Samsara...]
तव जलममलं यॆन निपीतं परमपदं खलु तॆन गृहीतम् ।
मातर्गङ्गॆ त्वयि यॊ भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ 4 ॥
[हे माता ! आपका दिव्य जल जो भी ग्रहण करता है, वह परम पद पता है... हे माँ गंगे ! यमराज भी आपके भक्तो का कुछ नहीं बिगाड़ सकते...
O Mother! those who partake of your pure waters, definitely attain the highest state. O Mother Ganga! Yama, the Lord of death cannot harm your devotees...]
पतितॊद्धारिणि जाह्नवि गङ्गॆ खण्डित गिरिवरमण्डित भङ्गॆ ।
भीष्मजननि हॆ मुनिवरकन्यॆ पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्यॆ ॥ 5 ॥
[हे जाह्नवी गंगे ! गिरिवर हिमालय को खंडित कर निकलता हुआ आपका जल आपके सौंदर्य को और भी बढ़ा देता है... आप भीष्म की माता और ऋषि जह्नु की पुत्री हो... आप पतितो का उद्धार करने वाली हो... तीनो लोको में आप धन्य हो...
O Jahnavi! your waters flowing through the Himalayas make you even more beautiful. You are Bhishma’s mother and sage Jahnu’s daughter. You are saviour of the people fallen from their path, and so you are revered in all three worlds...]
कल्पलतामिव फलदां लॊकॆ प्रणमति यस्त्वां न पतति शॊकॆ ।
पारावारविहारिणिगङ्गॆ विमुखयुवति कृततरलापाङ्गॆ ॥ 6 ॥
[ हे माँ ! आप अपने भक्तो की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली हो... आपको प्रणाम करने वालो को शोक नहीं करना पड़ता... हे गंगे ! आप सागर से मिलने के लिए उसी प्रकार उतावली हो जिस प्रकार एक युवती अपने प्रियतम से मिलने के लिए होती है...
O Mother! You fulfill all the desires of the ones devoted to you. Those who bow down to you do not have to grieve. O Ganga! You are restless to merge with the ocean, just like a young lady anxious to meet her beloved...]
तव चॆन्मातः स्रॊतः स्नातः पुनरपि जठरॆ सॊपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गङ्गॆ कलुषविनाशिनि महिमॊत्तुङ्गॆ ॥ 7 ॥
[हे माँ ! आपके जल में स्नान करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता... हे जाह्नवी ! आपकी महिमा अपार है... आप अपने भक्तो के समस्त कलुशो को विनष्ट कर देती हो और उनकी नरक से रक्षा करती हो...
O Mother! those who bathe in your waters do not have to take birth again. O Jahnavi! You are held in the highest esteem. You destroy your devotee’s sins and save them from hell...]
पुनरसदङ्गॆ पुण्यतरङ्गॆ जय जय जाह्नवि करुणापाङ्गॆ ।
इन्द्रमुकुटमणिराजितचरणॆ सुखदॆ शुभदॆ भृत्यशरण्यॆ ॥ 8 ॥
[हे जाह्नवी ! आप करुणा से परिपूर्ण हो... आप अपने दिव्य जल से अपने भक्तो को विशुद्ध कर देती हो... आपके चरण देवराज इन्द्र के मुकुट के मणियो से सुशोभित हैं... शरण में आने वाले को आप सुख और शुभता (प्रसन्नता) प्रदान करती हो...
O Jahnavi! You are full of compassion. You purify your devotees with your holy waters. Your feet are adorned with the gems of Indra’s crown. Those who seek refuge in you are blessed with happiness...]
रॊगं शॊकं तापं पापं हर मॆ भगवति कुमतिकलापम् ।
त्रिभुवनसारॆ वसुधाहारॆ त्वमसि गतिर्मम खलु संसारॆ ॥ 9 ॥
[ हे भगवती ! मेरे समस्त रोग, शोक, ताप, पाप और कुमति को हर लो... आप त्रिभुवन का सार हो और वसुधा (पृथ्वी) का हार हो... हे देवी ! इस समस्त संसार में मुझे केवल आपका ही आश्रय है...
O Bhagavati! Take away my diseases, sorrows, difficulties, sins and wrong attitudes. You are the essence of the three worlds and you are like a necklace around the Earth. O Devi! You alone are my refuge in this Samsara...]
अलकानन्दॆ परमानन्दॆ कुरु करुणामयि कातरवन्द्यॆ ।
तव तटनिकटॆ यस्य निवासः खलु वैकुण्ठॆ तस्य निवासः ॥ 10 ॥
[हे गंगे ! प्रसन्नता चाहने वाले आपकी वंदना करते हैं... हे अलकापुरी के लिए आनंद-स्रोत... हे परमानन्द स्वरूपिणी... आपके तट पर निवास करने वाले वैकुण्ठ में निवास करने वालो की तरह ही सम्मानित हैं...
O Ganga! those who seek happiness worship you. You are the source of happiness for Alkapuri and source of eternal bliss. Those who reside on your banks are as privileged as those living in Vaikunta...]
वरमिह नीरॆ कमठॊ मीनः किं वा तीरॆ शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचॊ मलिनॊ दीनस्तव न हि दूरॆ नृपतिकुलीनः ॥ 11 ॥
[ हे देवी ! आपसे दूर होकर एक सम्राट बनकर जीने से अच्छा है आपके जल में मछली या कछुआ बनकर रहना... अथवा तो आपके तीर पर निर्धन चंडाल बनकर रहना...
O Devi ! It is better to live in your waters as turtle or fish, or live on your banks as poor “candal” rather than to live away from you as a wealthy king...]
भॊ भुवनॆश्वरि पुण्यॆ धन्यॆ दॆवि द्रवमयि मुनिवरकन्यॆ ।
गङ्गास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरॊ यः स जयति सत्यम् ॥ 12 ॥
[हे ब्रह्माण्ड की स्वामिनी ! आप हमें विशुद्ध करें... जो भी यह गंगा स्तोत्र प्रतिदिन गाता है... वह निश्चित ही सफल होता है...
O Godess of Universe! You purify us. O daughter of muni Jahnu! one who recites this Ganga Stotram everyday, definitely achieves success...]
यॆषां हृदयॆ गङ्गा भक्तिस्तॆषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकन्ता पञ्झटिकाभिः परमानन्दकलितललिताभिः ॥ 13 ॥
[ जिनके हृदय में गंगा जी की भक्ति है... उन्हें सुख और मुक्ति निश्चित ही प्राप्त होते हैं... यह मधुर लययुक्त गंगा स्तुति आनंद का स्रोत है...
Those who have devotion for Mother Ganga, always get happiness and they attain liberation. This beautiful and lyrical Gangastuti is a source of Supreme bliss...]
गङ्गास्तॊत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शङ्करसॆवक शङ्कर रचितं पठति सुखीः तव इति च समाप्तः ॥ 14 ॥
[भगवत चरण आदि जगद्गुरु द्वारा रचित यह स्तोत्र हमें विशुद्ध कर हमें वांछित फल प्रदान करे...
This Ganga Stotram, written by Sri Adi Shankaracharya,devotee of Lord Shiva, purifies us and fulfills all our desires...]
भगवती गंगा देवये नमः ...|
***
गीत:
मन से मन के तार जोड़ती.....
*
*
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
जहाँ न पहुँचे रवि पहुँचे वह, तम् को पिए उजास बने.
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द को जोड़, सरस मधुमास बने..
बने ज्येष्ठ फागुन में देवर, अधर-कमल का हास बने.
कभी नवोढ़ा की लज्जा हो, प्रिय की कभी हुलास बने..
होरी, गारी, चैती, सोहर, आल्हा, पंथी, राई का
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
सुख में दुःख की, दुःख में सुख की झलक दिखाकर कहती है.
सलिला बारिश शीत ग्रीष्म में कभी न रूकती, बहती है.
पछुआ-पुरवैया होनी-अनहोनी गुपचुप सहती है.
सिकता ठिठुरे नहीं शीत में, नहीं धूप में दहती है.
हेर रहा है क्यों पथ मानव, हर घटना मन भाई का?
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
हर शंका को हरकर शंकर, पियें हलाहल अमर हुए.
विष-अणु पचा विष्णु जीते, जब-जब असुरों से समर हुए.
विधि की निधि है प्रविधि, नाश से निर्माणों की डगर छुए.
चाह रहे क्यों अमृत पाना, कभी न मरना मनुज मुए?
करें मौत का अब अभिनन्दन, सँग जन्म के आई का.
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
१२-१२-२०१३
***

शुक्रवार, 24 मई 2019

साक्षात्कार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' से- ओमप्रकाश प्रजापति

साक्षात्कार के प्रश्न
 (१)    आप साहित्य की इस दुनिया में कैसे आए? कब से आए? क्या परिवार में कोई और सदस्य भी साहित्य सेवा से जुड़ा रहा है?
मैं बौद्धिक संपदा संपन्न कायस्थ परिवार में जन्मा हूँ। शैशव से ही माँ की लोरी के रूप में साहित्य मेरे व्यक्तित्व का अंश बना गया। पिताश्री स्व. राजबहादुर वर्मा, कारापाल (जेलर) के पद पर नियुक्त थे। बंगला ड्यूटी पर आनेवाले सिपाही, उनके परिवार जन और कैदी अलग-अलग प्रदेशों के ग्रामीण अंचल से होते थे। उनसे मुझे लोक भाषाओँ और लोक साहित्य निरंतर सुनने को मिलता था। अधिकारियों और विद्वज्जनों का आना-जाना लगा रहता था। उनसे हिंदी और अंगरेजी का शब्द ज्ञान होता गया। बचपन से तुकबंदी के रूप में काव्य सृजन आरम्भ हुआ। मेरी मातुश्री स्व. शांति देवी स्वयं भजन रचती-गाती थीं। अग्रजा आशा वर्मा हिंदी साहित्य की गंभीर अध्येता रहीं। उन्होंने प्राथमिक शालाओं में मेरे लिए व्याख्यान लिखे, कवितायेँ बोलना सिखाईं, जबकि वे स्वयं उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की श्रेष्ठ वक्ता थीं। माध्यमिक शाला में मुझे अग्रजवत सुरेश उपाध्याय जी गुरु के रूप में मिले। मुझे अपने जन्म दिन का प्रथम स्मरणीय उपहार उन्हीं से मिला वह था पराग, नंदन और चम्पक पत्रिकाओं के रूप में। तब मैं सेठ नन्हेलाल घासीराम उ. मा. विद्यालय होशंगाबाद में ७ वीं का छात्र था। मुझे अपने से वरिष्ठ छात्र राधेश्याम साकल्ले के सौजन्य से एक पुस्तक 'हिमालय के वीर' स्वाधीनता दिवस पर व्याख्यान प्रतियोगिता में प्राचार्य श्री गोपाल प्रसाद पाठक राष्ट्रपति पुरस्कृत शिक्षक पुरस्कारवत दी। यह १९६२ के भारत-चीन युद्ध के शहीदों की जीवनियाँ हैं जिन्हें श्यामलाल 'मधुप 'ने लिखा है। इस तरह साहित्यांगन में मेरा प्रवेश हुआ।  

(२)    आपको कब महसूस हुआ कि आपके भीतर कोई रचनाकार है?
सच कहूँ तो रचनाकर्म करते समय 'रचनाकार' जैसा गुरु गंभीर शब्द ही मुझे ज्ञात नहीं था। मेरे एक बाल मित्र रहे अनिल धूपर। वे सिविल सर्जन श्री हीरालाल धूपर के चिरंजीव थे। विद्यालय के निकट ही जिला चिकित्सालय था। हमारा दोपहर का भोजन एक साथ ही आता था और हम दोपहर को रोज साथ में भोजन करते थे। वह अंगरेजी में मेरी मदद करता था मैं गणित में उसकी। एक दिन कक्षा में किसी शरारत पर उसे एक चपत पड़ी। तब मेरे मुँह से अनायास निकला 
'सुन मेरे भाई / तूने ऊधम मचाई / तेरी हो गयी पिटाई / सुर्रू सर ने तुझे एक चपत लगाई' कह कर उसे एक और चपत जमाकर मैं भाग लिया। 
(३)    हर रचनाकार का कोई-न-कोई आदर्श होता है जिससे कि वह लिखने की प्रेरणा लेता है। आपका भी कोई आदर्श ज़रूर रहा होगा। आप का आदर्श कौन रहा है? और क्यों रहा है? क्या अब भी आप उसे अपना आदर्श मानते हैं या समय के बहाव के साथ आदर्श प्रतीकों में बदलाव आया है?
सुरेश उपाध्याय जी धर्मयुग में सहसंपादक होकर चले गए तो श्री सुरेंद्र कुमार मेहता ने मुझे पढ़ाया। वे भी सुकवि थे। मैं अपनी बड़ी बहिनों की हिंदी की किताबें पढ़ता रहता था। पिताजी भी साहित्य प्रेमी थे। उनके संकलन में कई सामाजिक पुस्तकें थीं, माँ के पास नाना (राय बहादुर माता प्रसाद सिन्हा 'रईस' ऑनरेरी मजिस्ट्रेट मैनपुरी उ. प्र. जो गाँधी जी के आह्वान पर त्यागपत्र देकर खिताब लौटाकर स्वतंत्रता सत्याग्रही हो गए थे) द्वारा दिया गया धार्मिक साहित्य था। हमें पाठ्यक्रम पढ़ने को कहा जाता। ये पुस्तकें हमें नहीं दी जाती थीं कि फाड़ दोगे। मैं लुक-छिपकर पढ़ लेता था। 
नौकरी लगने पर कल्याण, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, दिनमान, कादम्बिनी, नवनीत, हिंदी डाइजेस्ट और माधुरी मेरी प्रिय पत्रिकाएँ थीं। इनके कई वर्षों के अंक आज भी जिल्द कराए हुए मेरे संकलन में हैं। तुलसी, सूर. खुसरो, बिहारी, जायसी, स्वामी विवेकानंद, दयानन्द सरस्वती, देवकी नंदन खत्री, भारतेंदु, प्रसाद, राहुल सांकृत्यायन, महादेवी, सुभद्रा, निराला, माखनलाल, मैथिलीशरण, पंत, बच्चन, दिनकर, ऊँट बिलहरीवी, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ, बंकिम चंद्र, शरत चंद्र, बिमल मित्र, शंकर, प्रताप चंद्र 'चंदर', प्रेमचंद्र, शिवानी, यशपाल, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, शिव वर्मा, वैशम्पायन, श्रीकृष्ण 'सरल', नवीन, देवेंद्र सत्यार्थी, रेणु, हरिशंकर परसाई, इलाचंद्र जोशी, रेणु, डॉ. रामकुमार वर्मा, जवाहरलाल नेहरू, गाँधी जी, सरदार पटेल, क. मा. मुंशी, लेनिन, गोर्की, पुश्किन, चेखव, सावरकर, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, विनोबा भावे, जे. कृष्णमूर्ति, रावी, ओशो, बलदेव प्रसाद मिश्र, वृन्दावन लाल वर्मा, नीरज, ,शौकत थानवी, फैज़, साहिर, शकील, अर्श, नियाज़, सामी, नूर, रही मासूम रज़ा, कृष्ण चंदर, नानक सिंह,  डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, धर्मवीर भारती जी, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. नगेंद्र, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, फैज़, साहिर, अर्श मलशियानी, जोश, शंकर, अनंत गोपाल शेवडेकर, शिवाजी सावंत, अम्बिका प्रसाद दिव्य, काका हाथरसी, ओमप्रकाश शर्मा, कर्नल रंजीत, स्वेड मार्टिन, कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा, गुरुदत्त, द्वारिका प्रसाद मिश्र, अंचल, अनंत गोपाल शेवड़े, कारंत, हरिशंकर परसाई, त्रिलोचन, नागार्जुन, कुमार विमल, काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, मन्नू भंडारी, आदि आदि को कई बरसों खूब पढ़ा। आदर्श तो तब से अब तक तुलसीदास ही हैं।  
(४)    आज के रचनाकारों की पीढ़ी में आप के आदर्श कौन हैं?
 मुझे स्व. भगवती प्रसाद देवपुरा से निरंतर कर्मरत रहने की प्रेरणा मिलती रही है। डॉ. किशोर काबरा, डॉ. चित्रा चतुर्वेदी, डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, रामकुमार भ्रमर, चंद्रसेन विराट, नरेंद्र कोहली, डॉ. सुरेश कुमार वर्मा, डॉ. महेंद्र भटनागर, ज्ञान रंजन, नरेश सक्सेना, संतोष चौबे, अनंत, अशोक गीते, भगवत दुबे, शलभ, मधुकर अष्ठाना, निर्मल शुक्ल, यायावर, राम सेंगर, डॉ. इला घोष, डॉ. सुमन श्रीवास्तव, पूर्णिमा बर्मन, अशोक जमनानी, दयाराम पथिक, योगराज प्रभाकर, कांति शुक्ल, कांता रॉय आदि का सृजन मन भाता है। 
(५)    लेखन को आप स्वांतः-सुखाय कृत्य मानते हैं या सामाजिक परिवर्तन का माध्यम मानते हैं?
लेखन निरुद्देश्य हो तो विलासिता के अलावा कुछ नहीं है किन्तु वैचारिक प्रतिबद्धता लेखक को गुलाम बना देती है। लेखन एक सारस्वत साधना है जो मानसिक-आत्मिक विकास का कारक होती है, सामाजिक प्रभाव तो उसका उप उत्पाद है। 
(६)    जनमानस को प्रभावित करने के लिए आप साहित्य की किस विधा को ज्यादा सशक्त मानते हैं? गद्य को या पद्य को?
जनमानस विधा से नहीं कथ्य और शिल्प से प्रभावित होता है। कथा हो या कविता, या नाट्य विधा पाठक, श्रोता और दर्शक हर काल में खूब रहे हैं। प्रवचन हों या कवि सम्मेलन दोनों में भीड़ जुटती है। बोझिल विचारपरकता को जनगण नकार देता है।  
(७)    आज जो आपकी पहचान बन रही है उसमें आप एक छांदस रचनाकार के रूप में उभर रहे हैं। गीतमुक्तकग़ज़ल आप लिख रहे हैं। क्या आपने छंदमुक्त कविताएं भी लिखी हैं? अगर नहीं तो क्यों? क्या आप इस शैली को कम प्रभावी मानते हैं? या छंदमुक्त लिखने में आप अपने को असहज महसूस करते हैं?
मैं कुछ कहने के लिए लिखता हूँ। विचार ही न हो तो क्यों लिखा जाए? कथ्य अपना माध्यम खुद चुन लेता है। गद्य हो या पद्य, छांदस हो या अछांदस, लघुकथा हो या कहानी, लेख हो या निबंध यह पूर्व निर्धारित तभी होता है जब उस विधा की रचना या उस विषय की रचना भेजना हो। मैंने मुक्त छंद की कवितायेँ खूब लिखी हैं। दो कविता संकलन 'लोकतंत्र का मकबरा' व 'मीत मेरे' चर्चित भी हुए हैं। एक कविता का आनंद लें-
कौन कहता है 
कि चीता मर गया है?
हिंस्र वृत्ति 
जहाँ देखो बढ़ रही है,
धूर्तता 
किस्से नए नित गढ़ रही है। 
शक्ति के नाखून पैने 
चोट असहायों पे करते,
स्वाद लेकर रक्त पीते 
मारकर औरों को जीते। 
और तुम...?
और तुम कहते हो- 
'चीता मर गया है।'
नहीं वह तो आदमी की
खाल में कर घर गया है। 
कौन कहता है कि 
चीता मर गया है।  


(९)    क्या आप भी यह मानते हैं कि गीत विदा हो रहा है और ग़ज़ल तेज़ी से आगे आ रही है? क्या इसका कारण ग़ज़ल का अधिक संप्रेषणीय होना है? या फिर कोई और कारण आप समझते हैं?
गीत अमर है। गीत के मरने की घोषणा प्रगतिवादियों ने की, घोषणा करने वाले मर गए, गीत फल-फूल रहा है। ग़ज़ल गीत का ही एक प्रकार है। भारतीयों की मानसिकता अभी भी  स्वतंत्र चेता नहीं हो सकी है। सिन्दूर पुता पाषाण हो, अधिकारहीन पूर्व राजा हों या कोई अल्पज्ञ पुजारी हमें पैर छूने में एक क्षण नहीं लगता, भले ही घर में माता-पिता को सम्मान न दें। उर्दू और अंग्रेजी हमारे पूर्व मालिकों की भाषाएँ रही हैं। इसलिए उनके प्रति अंध मोह हैं। ग़ज़ल के तत्वों और विधान को जाने बिना, उसमें महारत पाए बिना तथाकथित गज़लकार कागज़ काले करते रहते हैं। जानकार ऐसी ग़ज़लों को ग़ज़ल ही नहीं मानते। गीतकार गीत को समझकर लिखता है इसलिए गीत के श्रोता और पाठक न घटे हैं, न घटेंगे। सजल, हज़ल, गीतिका, अनुगीत कितने भी नाम दे दें, वह हवा के झोंके की तरह आज है, कल नहीं। 
(९)    हिंदी के रचनाकार ग़ज़ल खूब लिख रहे हैं। उर्दू के शायर ग़ज़ल खूब कह रहे हैं। क्या यह सोच और नज़रिए का फर्क़ है? क्या आप हिंदी और उर्दू ग़ज़ल को अलग-अलग देखने के हामी है? अगर हाँ तो क्यों?
संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य से मुक्तक काव्य परंपरा हिंदी ने ग्रहण की है। मुक्तक में सभी पंक्तियाँ समान पदभार की होती है। पहली, दूसरी तथा चौथी पंक्ति का तुकांत-पदांत समान रखा जाता है जबकि तीसरी पंक्ति का भिन्न। तीसरी चौथी पंक्ति की तरह पंक्तियाँ बढ़ाने से मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) की रचना हो जाती है। यह शिल्प भारत से फारस में गया और उसे ग़ज़ल नाम मिला। संस्कृत छंदों के 'गण' यत्किंचित परिवर्तन कर 'रुक्न' बन दिए गए। आदिकवि वाल्मीकि और क्रौंच वध प्रसंग में नर क्रौंच के मारे जाने पर मादा क्रौंच के आर्तनाद की करुण कथा की नकल मृग-शिशु को शिकारी के तीर से मारे जाने पर मृगी के आर्तनाद का किस्सा गढ़कर की गई। 'गज़ाला चश्म' अर्थात मृगनयना रूपसियों से प्रेम वार्ता 'गज़ल' का अर्थ है। ग़ज़ल फ़ारसी की विधा है जो उर्दू ने ग्रहण की है। तथाकथित ग़ज़ल के विधान और व्याकरण फ़ारसी से आते हैं। फारसी जाने बिना ग़ज़ल 'कहना' बिना नींव का भवन खड़ा करने की तरह है। उर्दू एक भाषा नहीं, कुछ भाषाओँ से  लिये गए शब्दों के संकलन से बना भाषिक रूप मात्र है। उर्दू शब्द कोष में कोई शब्द उर्दू का नहीं है, हर शब्द किसी दूसरी भाषा से लिया गया है।  हम जानते हैं कि भाषा और छंद का जन्म लोक में होता है। वाचिक परंपरा में गद्य और पद्य 'कहा' जाता है। मानव संस्कृति के विकास के साथ कागज़, कलम और लिपि का विकास होने पर हिंदी में साहित्य गद्य हो या पद्य 'लिखा' जाने लगा। उर्दू में मौलिक चिंतन परंपरा न होने से वह अब भी 'कहने' की स्थिति में अटकी हुई है और 'गज़ल कही जा रही है जबकि सच यही है कि हर शायर कागज़-कलम से लिखता है, दुरुस्त करता है। 'लिखना' और 'कहना' किसी सोच और नज़रिए नहीं विकास और जड़ता के परिचायक हैं। 
हिंदी अपभ्रंश और संस्कृत से विरासत ग्रहण करती है, उर्दू फारसी से। फारसी स्वयं संस्कृत से ग्रहण करती है। जिस तरह एक माटी से उपजने पर भी दो भिन्न जाति के वृक्ष भिन्न होते हैं वैसे ही, एक मूल से होने के बाद भी फ़ारसी और हिंदी भिन्न-भिन्न हैं। दोनों की वर्णमाला, उच्चार व्यवस्था और व्याकरण भिन्न है। हिंदी वर्ण वर्ग की पंचम ध्वनि फ़ारसी में नहीं है। इसलिए फारसी में 'ब्राम्हण' को 'बिरहमन' लिखना-बोलना होता है जी हिंदी व्याकरण की दृष्टि से गलत है। फारसी की 'हे और 'हम्जा'  दो ध्वनियों के लिए हिंदी में एकमात्र ध्वनि 'ह' है। हिंदी का कवि 'ह' को लेकर पदांत-तुकांत बनाये तो हिंदी व्याकरण की दृष्टि से सही है पर 'हे' और 'हम्जा' होने पर उर्दूवाला गलत कहेगा। पदभार गणना पद्धति भी हिंदी और फारसी में भिन्न-भिन्न हैं। हिंदी में वर्ण के पूर्ण उच्चार के अनुसार पदभार होता है। उर्दू ने वर्णिक छंद परंपरा से लय को प्रधान मानते हुएगुरु को लघु और लघु को गुरु पढ़ने का चलन अपना लिया जो हिंदी के मात्रिक छंदों में नहीं है। इसलिए हिंदी ग़ज़ल या मुक्तिका उर्दू ग़ज़ल से कई मायनों में भिन्न है। उर्दू ग़ज़ल इश्किया शायरी है, हिंदी ग़ज़ल सामाजिक परिवर्तन की साक्षी है। भारतीय प्रभाव को ग्रहण कर उर्दू ग़ज़ल ने भी कथ्य को बदला है पर लिपि और व्याकरण-पिंगल के मामले में वह परिवर्तन को पचा नहीं पाती। यह भी एक सच है कि उर्दू शायरों की लोकप्रियता और आय दोनों हिंदी की दम पर है। सिर्फ उर्दू लिपि में छपें तो दिन में तारे नज़र आ जाएँ। हिंदी के बल पर जिन्दा रहने के बाद भी हिंदी के व्याकरण के अनुसार लिखित ग़ज़ल को गलत कहने की हिमाकत गलत है। 
(१०) आज लोग लेखन से इसलिए जुड़ रहे हैं क्योंकि यह एक प्रभावी विजिटिंग कार्ड की तरह काम आ जाता है और यशपुरस्कार विदेश यात्राओं के तमाम अवसर उसे इसके जरिए सहज उपलब्ध होने लगते हैं।
आज ही नहीं आदि से लेखन और कला को तपस्या और मन-रंजन माननेवाले दो तरह के रचनाकार रहे हैं। साहित्यकार को सम्मान नहीं मिलता। विचारधारा विशेष के प्रति प्रतिबद्ध साहित्यकार अपनी वैचारिक गुलामी के लिए सम्मानित किये जाते हैं तो धनदाता साहित्यकार सम्मान खरीदता है। सम्मान के लिए आवेदन करना ही साहित्यकार को प्रार्थी बना देता है। मैं न तो सम्मान के लिए धन देने के पक्ष में हूँ, न आवेदन करने के। सम्मान के लिए संपर्क किये जाने पर मेरा पहला प्रश्न यही होता है कि सम्मान क्यों करना चाहते हैं? यदि मेरे लिखे को पढ़ने के बाद सम्मान करें तो ही स्वीकारता हूँ। जिसने मुझे पढ़ा ही नहीं, मेरे काम को जानता ही नहीं वह सम्मान के नाम पर अपमान ही है। 
आजकल साहित्यकार लेखन को समय बिताने का माध्यम मान रहा है। बच्चों को धंधा सौंप चुके या सेवानिवृत्त हो चुके लोग, घर के दायित्व से बचनेवाली या बहुओं के आ जाने से अप्रासंगिक हो चुकी महिलायें जिन्हें धनाभाव नहीं है, बड़ी संख्या में लेखन में प्रवेश कर सम्मान हेतु लालायित रहती हैं। वे पैसे देकर प्रकाशित व सम्मानित होती हैं। उनका रचा साहित्य प्राय: सतही होता है पर महिला होने के नाते मुखपोथी (फेसबुक) आदि पर खूब सराहा जाता है। यह भी सत्य है कि अनेक गंभीर श्रेष्ठ महिला रचनाकार भी हैं।
(११) कवि सम्मेलनों के मंच पर तो लोग धन कमाने के लिए ही आते हैं। और वही उनकी आजन्म प्राथमिकता बनी रहती है। आज के संदर्भ में कवि सम्मेलनों को आप कितना प्रासंगिक मानते हैं? और क्यों?
जब 'सादा जीवन उच्च विचार' के आदर्श को हटाकर समाज विशेषकर बच्चों, किशोरों, तरुणों हुए युवाओं के सम्मुख 'मौज. मजा और मस्ती' को आदर्श के रूप में स्थापित कर दिया जाए तो कला बिकाऊ हो ही जाएगी। कवि सम्मलेन में गलाबाजी या अदायगी का चलन पहले भी था किंतु प्रबुद्ध श्रोता देवराज दिनेश, शेरजंग गर्ग, शमशेर बहादुर सिंह आदि से गंभीर रचनाएँ भी सुनते थे। आजकल फूहड़ता हुए भौंड़ापन कवि सम्मेलनों पर हावी है। 
कवि सम्मेलन सामाजिक परिवर्तन का बहुत प्रभावी अस्त्र है। सामाजिक समरसता, सहिष्णुता, समन्वय, सामंजस्य, शासकीय योजनाओं के प्रचार-प्रसार आदि के लिए दूरदर्शनी और अखबारी विज्ञापन के स्थान पर कविसम्मेलन का सहारा लिया जाए तो सकारात्मक परिणाम मिलेंगे।  
(१२) आज कागज़ के कवि और मंच के कवि दो अलग-अलग वर्ग में बँट गए हैं। क्या आप इस वर्गीकरण को उचित मानते हैं?
ऐसा वर्गीकरण कहा भले ही जाए किन्तु किया नहीं जा सकता। कवि सम्मेलन के आयोजक दलाल हो गए हैं। उन्हें स्तर से नहीं, कमाई से मतलब है। गुटबाजी हावी है। प्राय: कवि भाषा के व्याकरण और छंद के पिंगल से अनभिज्ञ हैं। यह समाज और साहित्य दोनों का दुर्भाग्य है कि सरस्वती पर लक्ष्मी हावी है। 
(१३) राजनैतिक दृष्टि से भी वाम और दक्षिण लेखकों-रचनाकारों के दो धड़े बन गए हैं। जिनमें कभी सहमति नहीं बनती क्या साहित्य के लिए यह उचित है?
साहित्य को उन्मुक्त और स्वतंत्र होना चाहिए। वैचारिक प्रतिबद्धता राजनीतिक पराधीनता के अलावा कुछ नहीं है। वाम और दक्षिण तो पाखण्ड और मुखौटा है। क्या किसी प्रगतिवादी साहित्यकार को मैथिलीशरण पुरस्कार लेने से मना करते देखा है? क्या कोई दक्षिण पंथी रचनाकर मुक्तिबोध पुरस्कार लेने से परहेज करता है? वैराग्यहीन मनचलोलुप जान कबीर सम्मान प् रहे हैं। अपने मुँह से मांग-मांगकर सम्मान करानेवाले खुद को ब्रम्हर्षि लिखकर पुज रहे हैं।  
साहित्य को अपने विषय, विधा और कथ्य के साथ न्याय करना चाहिए। कोई रचनाकार घनश्यामदास बिड़ला और लेनिन, गाँधी और सुभाष, दीवाली और ईद परस्पर विरोधी विषयों पर महाकाव्य या उपन्यास क्यों न लिखे? मैंने भजन, हम्द और प्रेयर तीनों लिखे हैं। मेरे पुस्तकालय में सेठ गोविंददास, सावरकर, लोहिया और कामरेड शिवदास घोष एक साथ रहते हैं। ऐसे विभाजन अपने-अपने स्वार्थ साधने के लिए ही किये जाते हैं। 
(१४) लेखन के लिए पुरस्कार की क्या उपयोगिता है? आजकल अनचीन्हें लोग गुमनाम लोगों को पुरस्कार देते रहते हैं इससे किसका भला होता हैरचनाकार का या पुरस्कार देनेवाले का? क्या यह लेखक में गलतफहमियाँ नहीं पैदा कर देता?
अर्थशास्त्र का नियम है कि बाजार माँग और पूर्ति के नियमों से संचालित होता है। अँधा बाँटे रेवड़ी चीन्ह-चीन्ह कर देय। जब तक सुधी और समझदार संस्थाएँ और लोग सही साहित्यकार और रचना का चयन कर प्रकाशित-सम्मानित नहीं करते तब तक अवसरवादी हावी रहेंगे।  
(१५) सरकारों द्वारा साहित्य के प्रकाशन और पुरस्कार दिए जाने के संबंध में आपके क्या विचार है?
सरकार जनगण के प्रतिनिधियों से बनती और जनता द्वारा कर के रूप में दिए गए धन से संचालित होती हैं। समाज में श्रेष्ठ मूल्यों का विकास और सच्चरित्र नागरिकों के लिए उपादेय साहित्य का प्रकाशन और पुरस्करण सरकार करे यह सिद्धांतत: ठीक है किन्तु  व्यवहार में सरकारें निष्पक्ष न होकर दलीय आचरण कर अपने लोगों को पुरस्कृत करती हैं। अकादमियों की भी यही दशा है।  विश्वविद्यालय तक नेताओं और अधिकारियों को पालने  का जरिया बन गए हैं। इन्हें स्वतंत्र और प्रशासनिक-राजनैतिक प्रतिबद्धता से मुक्त किया जा सके तो बेहतर परिणाम दिखेंगे। लोकतंत्र में कुछ कार्य लोक को करना चाहिए। मैं और आप भी लोक हैं। हम और आप क्यों न एक साहित्यकार को उसके कार्य की मौलिकता और गुणवत्ता के आधार पर निष्पक्षता से हर साल व्यक्तिगत संसाधनों से पुरस्कृत करें? धीरे-धीरे यह पुरस्कार अपने आपमें स्थापित, प्रतिष्ठित और मानक बन जाएगा। 
(१६ )आपकी अभी तक कितनी कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं? और किन-किन विधाओं में? आप अपने को मूलतः क्या मानते हैं-गीतकार या ग़ज़लकार
मेरी १० पुस्तकें प्रकाशित हैं- १. कलम के देव भक्ति गीत संग्रह, २. लोकतंत्र का मक़बरा लंबी कवितायेँ, ३. मीत मेरे छोटी कवितायेँ, ४. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत संग्रह, ५. सड़क पर गीत-नवगीत संग्रह, ६.जंगल में जनतंत्र लघुकथाएँ, ७. दिव्य गृह काव्यनुवादित खंड काव्य, सहलेखन ८. सौरभ:, ९. कुरुक्षेत्र गाथा खंड काव्य तथा १०. भूकंप के साथ जीना सीखें -लोकोपयोगी तकनीक। ४ पुस्तकें यंत्रस्थ हैं। 
मैंने हिंदी गद्य व् पद्य की लगभग सभी प्रमुख विधाओं में लेखन किया है। नाटक, उपन्यास तथा महाकाव्य पर काम करना शेष है। 
मैं मूलत: खुद को विद्यार्थी मानता हूँ।  नित्य प्रति पढ़ता-लिखता-सीखता हूँ। 
(१७) आप अभियंता हैं। क्या अपने व्यवसाय से जुड़ा लेखन भी अपने किया है? 
हाँ, मैं विभागीय यांत्रिकी कार्य प्राक्कलन बनाना, मापन-मूल्यांकन करना आदि १९७३ से हिंदी में करता रहा हूँ और इसके लिए तिरस्कार, उपेक्षा और दंड भी भोगा है। मैंने २५ तकनीकी लेख लिखे हैं जो प्रकाशित भी हुए हैं। 'वैश्वीकरण के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएं' शीर्षक लेख को इंस्टीयूशन ऑफ़ इंजीनियर्स कोलकाता द्वारा २०१८ में राष्ट्रीय स्तर पर द्वितीय श्रेष्ठ आलेख का पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति जी के करकमलों से प्राप्त हुआ। मैंने अभियांत्रिकी विषयों को हिंदी माध्यम से पढ़ाया भी है। मैंने अभियांत्रिकी पत्रिकाओं तथा स्मारिकाओं का हिंदी में संपादन भी किया है।  
(१८) आप संपादन कार्य से कब और कैसे जुड़े? संपादन के क्षेत्र में क्या-क्या कार्य किया? 
जब मैं शालेय छात्र था तभी गुरुवर सुरेश उपाध्याय जी धर्मयुग में उपसंपादक होकर गए तो यह विचार मन में पैठ गया कि संपादन एक श्रेष्ठ कार्य है। पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन हेतु १९७२ में डिप्लोमा सिविल इंजीनियरिंग करने के बाद मैं फरवरी १९७३ में मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग में उप अभियंता हो गया किन्तु आगे पढ़ने और बढ़ने का मन था। नौकरी करते हुए मैंने  १९७४ में विशारद, १९७६ में बी. ए., १९७८ में एम. ए. अर्थशास्त्र, १९८८० में विधि-स्नातक, १९८१ में स्नातकोत्तर डिप्लोमा पत्रकारिता, १९८३ में एम. ए. दर्शन शास्त्र, १९८५ में बी.ई. की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। १९८० से १९९५ तक सामाजिक पत्रिका चित्राशीष,  १९८२ से १९८७ तक मध्य प्रदेश डिप्लोमा इंजीनियर्स संघ की मासिक पत्रिका, १९८६ से १९९० तक तकनीकी पत्रिका यांत्रिकी समय, १९९६ से १९९८ तक इंजीनियर्स टाइम्स, १९८८ से १९९० तक अखिल भारतीय डिप्लोमा इंजीनियर्स जर्नल तथा २००२ से २००८ तक साहित्यिक पत्रिका नर्मदा का मानद संपादन मैंने किया है। इसके अतिरिक्त १९ स्मारिकाओं, १४ साहित्यिक पुस्तकों का संपादन किया है। 
(१९) आपने सिविल इंजीनियरिंग के साथ कुछ और तकनीकी कार्य भी किया है? 
हाँ, मैंने वास्तु शास्त्र का भी अध्ययन किया है। वर्ष २००२ में जबलपुर अखिल भारतीय वास्तुशास्त्र सम्मलेन की स्मारिका 'वास्तुदीप' का संपादन किया इसका विमोचन सरसंघचालक श्री कूप. श्री सुदर्शन जी, राज्यपाल मध्य प्रदेश भाई महावीर तथा महापौर जबलपुर इं. विश्वनाथ दुबे जी ने किया था। अभियंता दिवस स्मारिकाओं, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर की स्मारिकाओं तथा इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स की राष्ट्रीय तकनीकी हिंदी पत्रिका अभियंता बंधु का संपादन मैंने किया है। जटिल तकनीकी विषयों को हिंदी भाषा में सरलता पूर्वक प्रस्तुत करने के प्रति मैं सचेत रहा हूँ। 
(२०) आप अंतरजाल पर छंद लेखन की दिशा में भी सक्रिय रहे हैं। अभियंता होते हुए भी आप यह कार्य कैसे कर सके? 
वर्ष १९९४ में सड़क दुर्घटना के पश्चात् अस्थि शल्य क्रिया में शल्यज्ञ की असावधानी के कारण मुझे अपने बायें पैर के कूल्हे का जोड़ निकलवा देना पड़ा। कई महीनों तक शैयाशायी रहने के पश्चात् चल सका। अभियंता के नाते मेरा कैरियर समापन की ओर था। निराशा के उस दौर में दर्शन शास्त्र की गुरु डॉ. छाया रॉय ने मनोबल बढ़ाया और मैंने कंप्यूटर एप्लिकेशन का प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम किया। अंतरजाल तब नया-नया ही था। मैंने हिन्दयुग्म दिल्ली के पटल पर लगभग ३ वर्ष तक हिंदी छंद शिक्षण किया। तत्पश्चात साहित्य शिल्पी पर २ वर्ष तक ८० से अधिक अलंकारों की लेखमाला पूर्ण हुई। साहित्य शिल्पी पर छंद शिक्षण का कार्य किया। भारत और विदेशों में सैकड़ों साहित्य प्रेमियों ने छंद लेखन सीखा। छंद शास्त्र के अध्ययन से विदित हुआ की इस दिशा में शोध और नव लेखन का काम नहीं हुआ है। हिंदी के अधिकांश शिक्षा और प्राध्यापक अंग्रेजी प्रेमी और छंद विधान से अनभिज्ञ हैं। नई पीढ़ी को छंद ज्ञान मिला ही नहीं है। तब मैंने अंतरजाल पर दिव्यनर्मदा पत्रिका, ब्लॉग, ऑरकुट, मुखपोथी (फेसबुक), वाट्स ऐप समूह 'अभियान' आदि के माध्यम से साहित्य और पिङग्ल सीखने का क्रम आगे बढ़ाया। हिंदी में आज तक छंद कोष नहीं बना है। मैं लगभग ढाई दशक से इस कार्य में जुटा हूँ। पारम्परिक रूप से २० प्रकार के सवैये उपलब्ध हैं. मैं २५० प्रकार के सवैये बना चुका हूँ। छंद-प्रभाकर में भानु जी ने ७१५ छंद दिए हैं। मेरा प्रयास छंद कोष में १५०० छंद देने का है। प्रभु चित्रगुप्त जी और माँ सरस्वती की कृपा से यह महत्कार्य २०२० में पूर्ण करने की योजना है।  
(२१) आप पर्यावरण सुधार के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे हैं?
समन्वय तथा अभियान संस्था के माध्यम से हमने जबलपुर नगर में पौधारोपण, बाल शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, महिला शिक्षा, कचरा निस्तारण, व्यर्थ पदार्थों के पुनरुपयोग, नर्मदा नदी शुद्धिकरण, जल संरक्षण आदि क्षेत्रों में यथासंभव योगदान किया है।  
(२२) आप अभियंता हैं। क्या आपका तकनीकी ज्ञान कभी समाज सेवा का माध्यम बना ?
शासकीय सेवा में रहते हुए लगभग ४ दशकों तक मैंने भवन, सड़क, सेतु आदि के निर्माण तथा संधारण में योगदान किया है। जबलपुर में भूकंप आने पर पद्मश्री आनंद स्वरुप आर्य में मार्गदर्शन में भूकंपरोधी भवन निर्माण तथा क्षतिग्रस्त भवन की मरम्मत के कार्य में योगदान किया। निकट के गाँवों में जा-जाकर अपने संसाधनों से मैंने कच्चे मकानों और झोपड़ियों को लोहा-सीमेंट के बिना भूकंप से सुरक्षित बनाने की तकनीकी जानकारी ग्रामवासियों को दी। 'भूकंप  जीना सींखें' पुस्तिका की १००० प्रतियाँ गाँवों में निशुल्क वितरित की। मिस्त्री, बढ़ई आदि को मरम्मत की प्रविधियाँ समझाईं। नर्मदा घाट पर स्नानोपरांत महिलाओं के वस्त्र बदलने के लिए स्नानागार बनवाने, गरीब जनों को वनों और गाँवों में प्राप्त सामग्री का प्रयोग कर सुरक्षित मकान बनाने की तकनीक दी। झोपड़ी-झुग्गी वासियों को पॉलिथीन की खाली थैलियों और पुरानी साड़ियों, चादरों आदि को काटकर उसके पट्टियों को ऊन की तरह बुनकर उससे आसन, दरी, चटाई, परदा आदि बनाने की कला सीखने, गाजर घास और बेशरम जैसे खरपतवार को नष्ट कर चर्म रोगों से बचने का तरीक सीखने, तेरहीं भोज की कुप्रथा समाप्त करने, दहेज़ रहित आदर्श सामूहिक विवाह करने, पुस्तक मेला का आयोजन करने आदि-आदि अनेक कार्य मैंने समय-समय पर करता रहा हूँ।   
(२३)लेखन संबंधी आपकी भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
हम विविध संस्थाओं के माध्यम से तकनीकी शिक्षा का माध्यम हिंदी बनवाने के लिए सक्रिय रहे हैं। इसमें कुछ सफलता मिली है, कुछ कार्य शेष है। इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स प्रति वर्ष एक पत्रिका तकनीकी विषयों पर हिंदी में राष्ट्रीय स्तर पर निकाल रहा है। परीक्षा का माध्यम हिंदी भी हो गया है। शासकीय पॉलीटेक्निक में इंजीनियरिंग का डिप्लोमा पाठ्यक्रम हिंदी में पढ़ाया जाने लगा है। बी.ई. तथा एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई हिंदी में कराने का प्रयास है। इसमें आप का सहयोग भी चाहिए। हिंदी को विश्ववाणी बनाने की दिशा में यह कदम आवश्यक है। मध्य प्रदेश की तरह उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, राजस्थान आदि में इंजीनियरिंग, चिकित्सा तथा चिकित्सा की पढ़ाई व् परीक्षाएँ हिंदी में हों, इसके लिए प्रयास करें। 
मैं इस वर्ष सवैया कोष, लघुकथा संग्रह, गीत-नवगीत संग्रह, दोहा संग्रह तथा अगले वर्ष दोहा, लघुकथा, हाइकू, मुक्तक, मुक्तिका तथा गीत-नवगीत के संकलन प्रकाशित करने के विचार में हूँ। 
(२४) आज हिंदी भाषा बाजारवाद की चुनौतियों को झेल रही है। उसका रूप भी बदल रहा है। आप इसे विकृति मानते हैं या समय की जरूरत?
वसुधैव कुटुम्बकम और विश्वैक नीड़म की सनातन भारतीय मान्यता अब ग्लोबलाइजेशन हो गयी है। इसके दो पहलू हैं। हमें जिस देश में व्यापार करना है उसकी भाषा सीखनी होगी और जिस देश को भारत का बाजार चाहिए उसे हिंदी सीखना होगी। विदेशों में प्रति वर्ष २-३ विश्वविद्यालयों में हिंदी शिक्षण विभाग खुल रहे हैं। हमें अपने उन युवाओं को जो विदेश जाना चाहते हैं उनकी स्नातक शिक्षा के साथ उस देश की भाषा सिखाने की व्यवस्था करना चाहिए। इसी तरह जो विद्यार्थी विदेश से भारत में आते हैं उन्हें पहले हिंदी सिखाना चाहिए। 
(२५) समकालीन रचनाकारों में आप किन्हें महत्वपूर्ण मानते हैं?
हर रचनाकार जो समाज से जुड़कर समाज के लिए लिखता है, महत्वपूर्ण होता है। अगंभीर किस्म के जो रचनाकार हर विधा में टूटा-फूटा लिखकर, ले-देकर सम्मानित हो रहे हैं, वे ही भाषा और साहित्य की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं। हालत यह है कि लिखनेवाले कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ रहे हैं, पढ़नेवालों का अकाल हो रहा है। 
(२६) पत्रकारिता और साहित्य में कभी घनिष्ठ संबंध रहा करता था। अच्छा साहित्यकार ही संपादक होता था। आज जो संपादक होता है लोग उसका नाम तक नहीं जानते। यह स्थिति क्यों आई?
पत्रकारिता अब सेवा या साधन नहीं पेशा हो गयी है। अब गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, रघुवीर सहाय, बांकेबिहारी भटनागर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती जैसे पत्रकार कहाँ हैं? अति व्यावसायिकता, राजनीति का अत्यधिक हस्तक्षेप तथा पत्रकारों में येन-केन-प्रकारेण धनार्जन की लालसा ही पत्रकारों की दुर्दशा का कारण है। अंतर्जालीय पत्रकारिता सनसनी और टीआरपी को सर्वस्व समझ रही है, पाठक-दर्शक का उसके लिए कोई महत्व नहीं है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की यह दुर्दशा चिंतानीय है। जब तक समाज और देश की सेवा की भावना को लेकर कुछ छोटे-छोटे समूह पत्रकारिता को पवित्रता के साथ नहीं करेंगे सुधार नहीं होगा।   
(२७) लेखन के माध्यम से आप समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?
वर्तमान परिवेश में सबसे अधिक आवश्यक कार्य ईमानदारी और श्रम की प्रतिष्ठा करना है। सरकारें और पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता गँवा चुकी हैं। न्यायालय पर भी छींटे पड़े हैं। धार्मिक-सामाजिक क्षेत्र में या तो अंध विश्वास है या अविश्वास। सेना ही एकमात्र प्रतिष्ठान है जो अपेक्षाकृत रूप से कम संदेह में है। लेखन का एक ही उद्देश्य है समाज में विश्वास का दीपक जलाये रखना। 'अप्प दीपो भव' और 'तत्तु समन्वयात' के बुद्ध सूत्र  हम सबके लिए आवश्यक हैं। मेरे लेखन का यही सन्देश और उद्देश्य है 'जागते रहो' 
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बुधवार, 30 मई 2018

साक्षात्कार बाल साहित्य पर:

ला लौरा मौक़ा मारीशस में कार्यरत पत्रकार श्रीमती सविता तिवारी से एक दूर वार्ता 
- सर नमस्ते
नमस्ते
= नमस्कार.

- आप बाल कविताएं काफी लिखते हैं
बाल साहित्य और बाल मनोविज्ञान पर आपके क्या विचार हैं?

= जितने लम्बे बाल उतना बढ़िया बाल साहित्यकार 😄😄😄😄
- 😂😂😇
अच्छा, यह आज के परिदृष्य पर टिप्पणी है

= बाल साहित्य के दो प्रकार है. १. विविध आयु वर्ग के बाल पाठकों के लिए और उनके द्वारा लिखा जा रहा साहित्य २. बाल साहित्य पर हो रहे शोध कार्य.
- मुझे इस विषय पर एक रेडियो कार्यक्रम करना है सोचा आपका विचार जान लेती.
= बाल साहित्य के अंतर्गत शिशु साहित्य, बाल साहित्य तथा किशोर साहित्य का वर्गीकरण आयु के आधार पर और ग्रामीण तथा नगरीय बाल साहित्य का वर्गीकरण परिवेश के आधार पर किया जा सकता है.
आप प्रश्न करें तो मैं उत्तर दूँ या अपनी ओर से ही कहूँ?

- बाल मन को बास साहित्य के जरिए कैसे प्रभावित किया जा सकता है?
= बाल मन पर प्रभाव छोड़ने के लिए रचनाकार को स्वयं बच्चे के स्तर पर उतार कर सोचना और लिखना होगा. जब वह बच्चा थी तो क्या प्रश्न उठते थे उसके मन में? उसका शब्द भण्डार कितना था? तदनुसार शब्द चयन कर कठिन बात को सरल से सरल रूप में रोचक बनाकर प्रस्तुत करना होगा.
बच्चे पर उसके स्वजनों के बाद सर्वाधिक प्रभाव साहित्य का ही होता है. खेद है कि आजकल साहित्य का स्थान दूरदर्शन और चलभाषिक एप ले रहे हैं.

- मॉरिशस जैस छोटेे देश में जहां हिदी बोलने का ही संकट है वहां इसे बच्चों में बढ़ावा देने के क्या उपाय हैं?
= जो सबका हित कर सके, कहें उसे साहित्य 
तम पी जग उजियार दे, जो वह है आदित्य.
घर में नित्य बोली जा रही भाषा ही बच्चे की मातृभाषा होती है. माता, पिता, भाई, बहिनों, नौकरों तथा अतिथियों द्वारा बोले जाते शब्द और उनका प्रभाव बालम के मस्तिष्क पर अंकित होकर उसकी भाषा बनाते हैं. भारत जैस एदेश में जहाँ अंग्रेजी बोलना सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान है वहां बच्चे पर नर्सरी राइम के रूप में अपरिचित भाषा थोपा जाना उस पर मानसिक अत्याचार है.
मारीशस क्या भारत में भी यह संकट है. जैसे-जैसे अभिभावक मानसिक गुलामी और अंग्रेजों को श्रेष्ठ मानने की मानसिकता से मुक्त होंगे वैसे-वैसे बच्चे को उसकी वास्तविक मातृभाषा मिलती जाएगी.
इसके लिए एक जरूरत यह भी है कि मातृभाषा में रोजगार और व्यवसाय देने की सामर्थ्य हो. अभिभावक अंग्रेजी इसलिए सिखाता है कि उसके माध्यम से आजीविका के बेहतर अवसर मिल सकते हैं.

- सर! बहुत धन्यवाद आपके समय के लिए. आप सुनिएगा मेरा कार्यक्रम. मैं लिंक भेजुंगी आपको 3 june ko aayga.
अवश्य. शुभकामनाएँ. प्रणाम.

= सदा प्रसन्न रहें. भारत आयें तो मेरे पास जबलपुर भी पधारें.
वार्तालाप संवाद समाप्त |
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